Books - आध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाय
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Language: HINDI
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आध्यात्मिक लक्ष्य और उसकी प्राप्ति
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हमारा जीवन अनेक भागों में विभक्त होता है, पर उसकी जड़ एक ही जगह रहती है। सारे शरीर में रक्त भ्रमण करता है। पर उसका उद्गम हृदय स्थल ही होता है। आहार से पोषण सारी देह के सब अंगों का होता है पर उस आहार का पाचन संस्थान पेट ही खराब हो जाय तो देह के किसी अंग को पोषण न मिलेगा। हृदय रुग्ण हो जाय तो रक्त संचार की व्यवस्था बिगड़ेगी और उसका प्रभाव सारे शरीर पर पड़ेगा। इसी प्रकार मानसिक स्तर में श्रेष्ठता या निकृष्टता की प्रधानता हो जाने पर तदनुसार जीवन के समस्त भागों पर प्रभाव पड़ता है। उत्कृष्टता एवं निकृष्टता की परिस्थितियां सामने उपस्थित होती हैं। अतएव इस तथ्य को हमें समझ ही लेना चाहिए कि बाह्य परिस्थितियों में सुधार या परिवर्तन करने की इच्छा रखने वाले को अपना आन्तरिक स्तर सुधारने के लिये सबसे पहले कदम उठाना चाहिए।
आध्यात्मिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, मानसिक, शारीरिक विभागों में बंटा हुआ जीवन अनेकों प्रकार की विभिन्न समस्याओं से आच्छादित रहता है। अगणित प्रश्न सामने उपस्थित रहते हैं और बहुत सी उलझनें सुलझाने के लिये चिन्ता बनी रहती है। इसके लिये तरह-तरह के उपाय भी किये जाते हैं। कठिनाइयों को हल करने और सुविधाओं को उत्पन्न करने असफलताओं से बचने और सफलताओं से लाभान्वित होने के लिये कौन क्या नहीं करता। अपनी-अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार हर कोई विपन्नताओं को हटा कर सम्पन्नता के लिये चेष्टा करता है। पर ये चेष्टाएं सफल तभी होती हैं जब आन्तरिक स्तर में आवश्यक अनुकूलताएं मौजूद हों। गुण कर्म स्वभाव के प्रतिकूल रहने पर अभीष्ट मनोरथ प्रायः सफल नहीं होते और यह न्याय संगत भी है।
जीवन के किसी भी क्षेत्र पर दृष्टिपात करें असफलताओं का एकमात्र कारण व्यक्ति की आन्तरिक दुर्बलतायें ही दिखाई देती हैं। आध्यात्मिक प्रगति के लिये अनेक लोग देर तक पूजा पाठ करते रहते हैं उनका विश्वास होता है अमुक कर्मकाण्ड या विधान को अमुक समय तक अपनाये रहने पर अमुक प्रकार की आध्यात्मिक सफलता मिल जायेगी। पर उन्हें यह याद नहीं रहता कि इसके साथ ही एक भारी शर्त लगी हुई है—अन्तःकरण की अनुकूलता। यदि यह शर्त पूरी न हुई तो पूजा का कष्टसाध्य एवं चिरसेवित साधन विधान भी अभीष्ट प्रतिफल उत्पन्न न कर सकेगा।
आध्यात्मिक साधन विधानों के सुविस्तृत प्रतिफल और आकर्षक विधान धर्म शास्त्रों में लिखे हुए मिलते हैं। प्राचीन काल के ऐसे अगणित उदाहरण मिलते हैं जिनमें उन साधनाओं को अपना कर साधकों ने आश्चर्य जनक लाभ प्राप्त किये हैं। अब भी ऐसे अगणित व्यक्ति मौजूद हैं जिनकी साधना ने उन्हें उच्च स्थिति तक पहुंचाया है। इन उदाहरणों को देखते हुए विश्वास करना ही पड़ता है कि साधनाओं का जीवन में अत्यधिक महत्व है और उनके सहारे प्रति की मंजिल तेजी से पूरी की जा सकती है। इतना होने पर भी जब ऐसे उदाहरण सामने आते हैं कि अमुक व्यक्ति लम्बे समय से अमुक साधन करते रहने पर भी कुछ प्रगति न कर सका वरन् पहले की अपेक्षा और भी हीन स्थिति को पहुंच गया तो उसका कारण तलाश करते हुए भारी असमंजस उत्पन्न होता है। किसी को भारी लाभ, किसी की उल्टी अवनति, इस परस्पर विरोधी परिणाम का हेतु सोचते नहीं बनता, सूझ नहीं पड़ता।
वस्तु स्थिति यह है कि एक व्यक्ति उच्च भावना स्तर के साथ, शुद्ध चरित्र के साथ श्रद्धा और विश्वास के साथ एकाग्रता और निष्ठा के साथ साधनाक्रम में संलग्न होता है। उसे अपने लक्ष की वास्तविकता पर पूर्ण विश्वास है। साधना की महत्ता और शक्ति के प्रति अटूट श्रद्धा धारण किये हुए है। इष्ट की प्राप्ति के लिए प्राणपण से लगा हुआ है। जो नियम संयम आवश्यक हैं उन्हें बिना संकोच के पालन करता है। सत्प्रयत्नों की तुलना में प्रस्तुत कठिनाइयों को तुच्छ समझता है। अहर्निशि गन्तव्य पथ का ही ध्यान रखता है और अथक प्रयत्न के साथ, धैर्य और साहस के साथ कदम बढ़ाता चलता है। फल कब मिलेगा यह सोचता भी नहीं वरन् साधना को ही इतनी प्रिय बना लेता है कि वह स्वयं एक वरदान प्रतीत होती है। भावना की उत्कृष्टता से प्राप्त होने वाली प्रसन्नता एवं आत्म तृप्ति को ही वह एक महत्वपूर्ण सिद्धि मान लेता है। इस मनोभूमि के साधक के लिए सिद्ध सुनिश्चित है। उसके प्रयत्न असफल हो ही नहीं सकते। इसी मनोभूमि के व्यक्तियों ने आध्यात्मिक जीवन का आनन्द लिया है और अपने सत्प्रयत्नों का समुचित लाभ पाया है।
इसके विपरीत दूसरी उथली मनोभूमि के साधक जप, भजन, पाठ व्रत उपवास करते भी हैं पर वह सब होता आधे मन से है। इन प्रयत्नों का सत्परिणाम मिलेगा भी या नहीं, इस सम्बन्ध में मन में सदा, शंका और अविश्वास बना रहता है। न नियमितता रहती है और न निष्ठा जब जो जितना बन पड़ा किया न हो सका तो छोड़ दिया। जिन नियम संयमों का पालन आत्म बल की वृद्धि के लिए आवश्यक है उनके बारे में मन नाना प्रकार के कुतर्क करता रहता है। इस झंझट की क्या जरूरत? यह अड़ंगा बेकार का है? इन विधि-विधानों से क्या लाभ? आदि कर्तव्यों को करने कराने से बेचारी साधना पद्धति को ही लंगड़ी, लूली, कानी, नकटी बना लेते हैं। उस पर भी मन नहीं जमता। श्रद्धा और विश्वास के अभाव में बेगार की तरह ही इस भार को उतारा जाता है दस दिन होने भी नहीं पाते कि पर्वत के समान कामनाओं की पूर्ति का वरदान और अष्ट सिद्ध नव निद्धि की ललक बेचैनी का रूप धारण कर लेती है अभी यह नहीं मिला, अभी वह नहीं मिला, अभी कुंडलिनी जागृत नहीं हुई, अभी भगवान के दर्शन भी नहीं हो पाये। इतने दिन तो गये अब कब तक सब्र करें, आदि बातें सोचने लगते हैं। असंतोष
बढ़ता है साथ ही अविश्वास भी। उपेक्षा आरंभ होती है और उसका अन्त साधना के परित्याग रूप में देखा जाता है। जिनका दैनिक जीवन पाप, द्वेष, दुराचार, दुष्टता और अनीति में डूबा रहता है, कुविचारों से जिनका मन और कुकर्मों से जिनका शरीर निरन्तर दूषित बना रहता है उसका अन्तःकरण भी गंदा रहेगा और उस गन्दगी में दिव्य तत्वों का अवतरण कैसे संभव हो सकेगा? साधना में शक्ति तब आती है जब श्रद्धा और विश्वास, संयम और सदाचार का पुट भी समुचित मात्रा में लगता चले। दैनिक जीवन की पवित्रता ही इस बात की कसौटी है कि किसी व्यक्ति ने अत्यधिक तत्व ज्ञान को हृदयंगम किया है या नहीं। यह निष्ठा जिस के भीतर उतरेगी, उसके गुण, कर्म स्वभाव में श्रेष्ठता एवं सज्जनता की मात्रा अन्य व्यक्तियों की तुलना में बढ़ी चढ़ी ही होगी। ऐसा पवित्र और आदर्श जीवन बिताने वाले के लिए आत्मिक प्रगति नितान्त सरल है। ईश्वर का दर्शन आत्म साक्षात्कार उसके लिए जरा भी कठिन नहीं है।
इतिहास, पुराणों में ऐसी अगणित कथाएं आती हैं जिनसे प्रतीत होता है कि सदाचारी, श्रेष्ठ आचरणों वाले और उत्कृष्ट भावना सम्पन्न साधारण श्रेणी के साधारण साधना करने वाले व्यक्तियों को योगी, यती, तपस्वी और ब्रह्मज्ञानी लोगों की भांति ही ईश्वर अनुकम्पा एवं अनुभूति का अनुभव हुआ है। कारण स्पष्ट है की योग साधना का उद्देश्य केवल इतना ही है कि आन्तरिक दुष्प्रवृत्तियों का शमन और संयम किया जाय। चित्त वृत्तियों के निरोध को ही महर्षि पातंजलि ने ‘योग’ कह कर पुकारा है। यह कार्य व्यवहार के जीवन में सत्यनिष्ठा और परमार्थ बुद्धि को स्थान देने से भी संभव हो सकता है।
शबरी, सूर, मीरा, कबीर, रैदास, केवट, गोपियां, नरसी, धन्ना आदि के ऐसे असंख्यों चरित्र मौजूद हैं जिन पर विचार करने से प्रतीत होता है कि भावपूर्ण उत्कृष्ट अन्तःकरण का निर्माण योगाभ्यास के अतिरिक्त व्यावहारिक जीवन की शुद्धि रखने से भी संभव हो सकता है। उच्च अन्तरात्मा द्वारा की हुई स्वल्प एवं अविधिपूर्वक की गई साधना भी भारी सत्परिणाम प्रस्तुत कर सकती है। वाल्मीकि डाकू की मनोभूमि जब पलटी तो शुद्ध राम नाम ले सकने में असमर्थ होने पर ‘मरा-मरा’ कहते हुए, उल्टा नाम जपते हुए भी वे ऋषित्व को प्राप्त कर सके। कसाई, कणिका, अजामिल, अंगुलिमाल, अम्बपाली आदि अनेकों चरित्र ऐसे मौजूद हैं जिनमें अन्तःकरण के परिवर्तन होते ही स्वल्प साधना से भी उच्च स्थिति की उपलब्धि का प्रमाण मिलता है।
देर तक कठोर शारीरिक तपश्चर्याएं करने पर भी बहुत पूजा उपासना करते रहने पर भी जब आत्मिक प्रगति नहीं देख पड़ती तो उसका एक मात्र कारण यही होता है कि अन्तःकरण के विकास का प्रयत्न नहीं किया गया, केवल पूजा तक ही साधना को एकांगी एवं सीमित रखा गया। साधना को औषधि कहा जाय तो सदाचार को पथ्य मानना पड़ेगा। परहेज बिगाड़ते रहने वाला, कुपथ्य करने वाला रोगी, अच्छी औषधि खाते रहने पर भी कुछ लाभ प्राप्त न कर सकेगा। पर यदि पथ्य पूर्वक रहा जाय तो मामूली औषधि से भी रोग दूर हो सकता है। भजन के साथ परमार्थ प्रियता भी आवश्यक है। भावनाओं की उत्कृष्ट स्थिति और चरित्र में आदर्शवाद की प्रक्रिया यदि परिपूर्ण रहे तो फिर साधना के असफल होने का कोई कारण नहीं हो सकता।
स्वर्ग किसी स्थान का नाम नहीं, भावना की उत्कृष्ट भूमिका को ही स्वर्ग कहते हैं। ऊंची भावनाएं जिस अन्तःकरण में प्रवेश पा चुकी हैं उसके लिए हर पदार्थ, हर प्राणी, हर अवसर स्वर्गीय आनन्द की अनुभूति प्रस्तुत करेगा। मुक्ति का अर्थ है वासनाओं और तृष्णाओं के बन्धनों से छुटकारा पाना और पशुता से दूर होना। स्वार्थ और संकीर्णता को जिसने ठुकरा दिया वह जीवन मुक्त हो गया। मुक्ति का आनन्द शरीर रहते हुए भी प्राप्त किया जा सकता है, सद्गति के रूप में वह मरने के बाद भी प्राप्त होता है। जीव को जो बन्धन बांधे हुए हैं वह काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर के ही तो हैं। उन्हें तोड़ते हुए मनोभूमि को उदार, विशाल, पवित्र एवं उत्कृष्ट बना लेना मुक्ति साधन है। जिस किसी को भी मुक्ति मिली है उसे आत्म शोधन भी करना पड़ा है।
ईश्वर सर्व व्यापी है विश्व के कण कण में वह समाया हुआ है उसे देखने या प्राप्त करने के लिए कहीं दूर देश में जाना नहीं पड़ता। जो मलीनताएं जीव और ईश्वर के बीच में दीवार बन कर खड़ी हैं यदि उन्हें गिरा दिया जाय तो अत्यन्त निकट निवास करने वाले परमात्मा का दर्शन तत्काल हो सकता है। विवेक की आंखों से हम उसे हर वस्तु में श्रेष्ठता, जीवन एवं सौन्दर्य रूप में निहार सकते हैं। सत्-चित-आनन्द स्वरूप परमात्मा सत्य, शिव और सुन्दर अनुभूतियों में सहज ही हमें परिलक्षित हो सकता है। इसके लिए हमें अपना ही अज्ञान हटाना और अपना ही ज्ञान जागृत करना है। मलीनताओं के हटते ही अपना इष्टदेव अपने चारों ओर थिरकता हुआ परमानन्द की नित्य अनुभूतियों के साथ हमारे सामने आ उपस्थित होता है उसे बाहर ढूंढ़ने जाने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती।
आध्यात्मिक लक्ष्य की पूर्ति किसी के लिए भी कठिन नहीं है, अपना भीतर सुधार करने पर वे सब साधन सहज ही जुट जाते हैं जिनके आधार पर स्वर्गानुभूति, जीवनमुक्ति, शांति, सद्गति, सिद्धि एवं ईश्वर प्राप्ति की विभूतियां उपलब्ध हो सकें।
आध्यात्मिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, मानसिक, शारीरिक विभागों में बंटा हुआ जीवन अनेकों प्रकार की विभिन्न समस्याओं से आच्छादित रहता है। अगणित प्रश्न सामने उपस्थित रहते हैं और बहुत सी उलझनें सुलझाने के लिये चिन्ता बनी रहती है। इसके लिये तरह-तरह के उपाय भी किये जाते हैं। कठिनाइयों को हल करने और सुविधाओं को उत्पन्न करने असफलताओं से बचने और सफलताओं से लाभान्वित होने के लिये कौन क्या नहीं करता। अपनी-अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार हर कोई विपन्नताओं को हटा कर सम्पन्नता के लिये चेष्टा करता है। पर ये चेष्टाएं सफल तभी होती हैं जब आन्तरिक स्तर में आवश्यक अनुकूलताएं मौजूद हों। गुण कर्म स्वभाव के प्रतिकूल रहने पर अभीष्ट मनोरथ प्रायः सफल नहीं होते और यह न्याय संगत भी है।
जीवन के किसी भी क्षेत्र पर दृष्टिपात करें असफलताओं का एकमात्र कारण व्यक्ति की आन्तरिक दुर्बलतायें ही दिखाई देती हैं। आध्यात्मिक प्रगति के लिये अनेक लोग देर तक पूजा पाठ करते रहते हैं उनका विश्वास होता है अमुक कर्मकाण्ड या विधान को अमुक समय तक अपनाये रहने पर अमुक प्रकार की आध्यात्मिक सफलता मिल जायेगी। पर उन्हें यह याद नहीं रहता कि इसके साथ ही एक भारी शर्त लगी हुई है—अन्तःकरण की अनुकूलता। यदि यह शर्त पूरी न हुई तो पूजा का कष्टसाध्य एवं चिरसेवित साधन विधान भी अभीष्ट प्रतिफल उत्पन्न न कर सकेगा।
आध्यात्मिक साधन विधानों के सुविस्तृत प्रतिफल और आकर्षक विधान धर्म शास्त्रों में लिखे हुए मिलते हैं। प्राचीन काल के ऐसे अगणित उदाहरण मिलते हैं जिनमें उन साधनाओं को अपना कर साधकों ने आश्चर्य जनक लाभ प्राप्त किये हैं। अब भी ऐसे अगणित व्यक्ति मौजूद हैं जिनकी साधना ने उन्हें उच्च स्थिति तक पहुंचाया है। इन उदाहरणों को देखते हुए विश्वास करना ही पड़ता है कि साधनाओं का जीवन में अत्यधिक महत्व है और उनके सहारे प्रति की मंजिल तेजी से पूरी की जा सकती है। इतना होने पर भी जब ऐसे उदाहरण सामने आते हैं कि अमुक व्यक्ति लम्बे समय से अमुक साधन करते रहने पर भी कुछ प्रगति न कर सका वरन् पहले की अपेक्षा और भी हीन स्थिति को पहुंच गया तो उसका कारण तलाश करते हुए भारी असमंजस उत्पन्न होता है। किसी को भारी लाभ, किसी की उल्टी अवनति, इस परस्पर विरोधी परिणाम का हेतु सोचते नहीं बनता, सूझ नहीं पड़ता।
वस्तु स्थिति यह है कि एक व्यक्ति उच्च भावना स्तर के साथ, शुद्ध चरित्र के साथ श्रद्धा और विश्वास के साथ एकाग्रता और निष्ठा के साथ साधनाक्रम में संलग्न होता है। उसे अपने लक्ष की वास्तविकता पर पूर्ण विश्वास है। साधना की महत्ता और शक्ति के प्रति अटूट श्रद्धा धारण किये हुए है। इष्ट की प्राप्ति के लिए प्राणपण से लगा हुआ है। जो नियम संयम आवश्यक हैं उन्हें बिना संकोच के पालन करता है। सत्प्रयत्नों की तुलना में प्रस्तुत कठिनाइयों को तुच्छ समझता है। अहर्निशि गन्तव्य पथ का ही ध्यान रखता है और अथक प्रयत्न के साथ, धैर्य और साहस के साथ कदम बढ़ाता चलता है। फल कब मिलेगा यह सोचता भी नहीं वरन् साधना को ही इतनी प्रिय बना लेता है कि वह स्वयं एक वरदान प्रतीत होती है। भावना की उत्कृष्टता से प्राप्त होने वाली प्रसन्नता एवं आत्म तृप्ति को ही वह एक महत्वपूर्ण सिद्धि मान लेता है। इस मनोभूमि के साधक के लिए सिद्ध सुनिश्चित है। उसके प्रयत्न असफल हो ही नहीं सकते। इसी मनोभूमि के व्यक्तियों ने आध्यात्मिक जीवन का आनन्द लिया है और अपने सत्प्रयत्नों का समुचित लाभ पाया है।
इसके विपरीत दूसरी उथली मनोभूमि के साधक जप, भजन, पाठ व्रत उपवास करते भी हैं पर वह सब होता आधे मन से है। इन प्रयत्नों का सत्परिणाम मिलेगा भी या नहीं, इस सम्बन्ध में मन में सदा, शंका और अविश्वास बना रहता है। न नियमितता रहती है और न निष्ठा जब जो जितना बन पड़ा किया न हो सका तो छोड़ दिया। जिन नियम संयमों का पालन आत्म बल की वृद्धि के लिए आवश्यक है उनके बारे में मन नाना प्रकार के कुतर्क करता रहता है। इस झंझट की क्या जरूरत? यह अड़ंगा बेकार का है? इन विधि-विधानों से क्या लाभ? आदि कर्तव्यों को करने कराने से बेचारी साधना पद्धति को ही लंगड़ी, लूली, कानी, नकटी बना लेते हैं। उस पर भी मन नहीं जमता। श्रद्धा और विश्वास के अभाव में बेगार की तरह ही इस भार को उतारा जाता है दस दिन होने भी नहीं पाते कि पर्वत के समान कामनाओं की पूर्ति का वरदान और अष्ट सिद्ध नव निद्धि की ललक बेचैनी का रूप धारण कर लेती है अभी यह नहीं मिला, अभी वह नहीं मिला, अभी कुंडलिनी जागृत नहीं हुई, अभी भगवान के दर्शन भी नहीं हो पाये। इतने दिन तो गये अब कब तक सब्र करें, आदि बातें सोचने लगते हैं। असंतोष
बढ़ता है साथ ही अविश्वास भी। उपेक्षा आरंभ होती है और उसका अन्त साधना के परित्याग रूप में देखा जाता है। जिनका दैनिक जीवन पाप, द्वेष, दुराचार, दुष्टता और अनीति में डूबा रहता है, कुविचारों से जिनका मन और कुकर्मों से जिनका शरीर निरन्तर दूषित बना रहता है उसका अन्तःकरण भी गंदा रहेगा और उस गन्दगी में दिव्य तत्वों का अवतरण कैसे संभव हो सकेगा? साधना में शक्ति तब आती है जब श्रद्धा और विश्वास, संयम और सदाचार का पुट भी समुचित मात्रा में लगता चले। दैनिक जीवन की पवित्रता ही इस बात की कसौटी है कि किसी व्यक्ति ने अत्यधिक तत्व ज्ञान को हृदयंगम किया है या नहीं। यह निष्ठा जिस के भीतर उतरेगी, उसके गुण, कर्म स्वभाव में श्रेष्ठता एवं सज्जनता की मात्रा अन्य व्यक्तियों की तुलना में बढ़ी चढ़ी ही होगी। ऐसा पवित्र और आदर्श जीवन बिताने वाले के लिए आत्मिक प्रगति नितान्त सरल है। ईश्वर का दर्शन आत्म साक्षात्कार उसके लिए जरा भी कठिन नहीं है।
इतिहास, पुराणों में ऐसी अगणित कथाएं आती हैं जिनसे प्रतीत होता है कि सदाचारी, श्रेष्ठ आचरणों वाले और उत्कृष्ट भावना सम्पन्न साधारण श्रेणी के साधारण साधना करने वाले व्यक्तियों को योगी, यती, तपस्वी और ब्रह्मज्ञानी लोगों की भांति ही ईश्वर अनुकम्पा एवं अनुभूति का अनुभव हुआ है। कारण स्पष्ट है की योग साधना का उद्देश्य केवल इतना ही है कि आन्तरिक दुष्प्रवृत्तियों का शमन और संयम किया जाय। चित्त वृत्तियों के निरोध को ही महर्षि पातंजलि ने ‘योग’ कह कर पुकारा है। यह कार्य व्यवहार के जीवन में सत्यनिष्ठा और परमार्थ बुद्धि को स्थान देने से भी संभव हो सकता है।
शबरी, सूर, मीरा, कबीर, रैदास, केवट, गोपियां, नरसी, धन्ना आदि के ऐसे असंख्यों चरित्र मौजूद हैं जिन पर विचार करने से प्रतीत होता है कि भावपूर्ण उत्कृष्ट अन्तःकरण का निर्माण योगाभ्यास के अतिरिक्त व्यावहारिक जीवन की शुद्धि रखने से भी संभव हो सकता है। उच्च अन्तरात्मा द्वारा की हुई स्वल्प एवं अविधिपूर्वक की गई साधना भी भारी सत्परिणाम प्रस्तुत कर सकती है। वाल्मीकि डाकू की मनोभूमि जब पलटी तो शुद्ध राम नाम ले सकने में असमर्थ होने पर ‘मरा-मरा’ कहते हुए, उल्टा नाम जपते हुए भी वे ऋषित्व को प्राप्त कर सके। कसाई, कणिका, अजामिल, अंगुलिमाल, अम्बपाली आदि अनेकों चरित्र ऐसे मौजूद हैं जिनमें अन्तःकरण के परिवर्तन होते ही स्वल्प साधना से भी उच्च स्थिति की उपलब्धि का प्रमाण मिलता है।
देर तक कठोर शारीरिक तपश्चर्याएं करने पर भी बहुत पूजा उपासना करते रहने पर भी जब आत्मिक प्रगति नहीं देख पड़ती तो उसका एक मात्र कारण यही होता है कि अन्तःकरण के विकास का प्रयत्न नहीं किया गया, केवल पूजा तक ही साधना को एकांगी एवं सीमित रखा गया। साधना को औषधि कहा जाय तो सदाचार को पथ्य मानना पड़ेगा। परहेज बिगाड़ते रहने वाला, कुपथ्य करने वाला रोगी, अच्छी औषधि खाते रहने पर भी कुछ लाभ प्राप्त न कर सकेगा। पर यदि पथ्य पूर्वक रहा जाय तो मामूली औषधि से भी रोग दूर हो सकता है। भजन के साथ परमार्थ प्रियता भी आवश्यक है। भावनाओं की उत्कृष्ट स्थिति और चरित्र में आदर्शवाद की प्रक्रिया यदि परिपूर्ण रहे तो फिर साधना के असफल होने का कोई कारण नहीं हो सकता।
स्वर्ग किसी स्थान का नाम नहीं, भावना की उत्कृष्ट भूमिका को ही स्वर्ग कहते हैं। ऊंची भावनाएं जिस अन्तःकरण में प्रवेश पा चुकी हैं उसके लिए हर पदार्थ, हर प्राणी, हर अवसर स्वर्गीय आनन्द की अनुभूति प्रस्तुत करेगा। मुक्ति का अर्थ है वासनाओं और तृष्णाओं के बन्धनों से छुटकारा पाना और पशुता से दूर होना। स्वार्थ और संकीर्णता को जिसने ठुकरा दिया वह जीवन मुक्त हो गया। मुक्ति का आनन्द शरीर रहते हुए भी प्राप्त किया जा सकता है, सद्गति के रूप में वह मरने के बाद भी प्राप्त होता है। जीव को जो बन्धन बांधे हुए हैं वह काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर के ही तो हैं। उन्हें तोड़ते हुए मनोभूमि को उदार, विशाल, पवित्र एवं उत्कृष्ट बना लेना मुक्ति साधन है। जिस किसी को भी मुक्ति मिली है उसे आत्म शोधन भी करना पड़ा है।
ईश्वर सर्व व्यापी है विश्व के कण कण में वह समाया हुआ है उसे देखने या प्राप्त करने के लिए कहीं दूर देश में जाना नहीं पड़ता। जो मलीनताएं जीव और ईश्वर के बीच में दीवार बन कर खड़ी हैं यदि उन्हें गिरा दिया जाय तो अत्यन्त निकट निवास करने वाले परमात्मा का दर्शन तत्काल हो सकता है। विवेक की आंखों से हम उसे हर वस्तु में श्रेष्ठता, जीवन एवं सौन्दर्य रूप में निहार सकते हैं। सत्-चित-आनन्द स्वरूप परमात्मा सत्य, शिव और सुन्दर अनुभूतियों में सहज ही हमें परिलक्षित हो सकता है। इसके लिए हमें अपना ही अज्ञान हटाना और अपना ही ज्ञान जागृत करना है। मलीनताओं के हटते ही अपना इष्टदेव अपने चारों ओर थिरकता हुआ परमानन्द की नित्य अनुभूतियों के साथ हमारे सामने आ उपस्थित होता है उसे बाहर ढूंढ़ने जाने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती।
आध्यात्मिक लक्ष्य की पूर्ति किसी के लिए भी कठिन नहीं है, अपना भीतर सुधार करने पर वे सब साधन सहज ही जुट जाते हैं जिनके आधार पर स्वर्गानुभूति, जीवनमुक्ति, शांति, सद्गति, सिद्धि एवं ईश्वर प्राप्ति की विभूतियां उपलब्ध हो सकें।