Books - आध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाय
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
अध्यात्म और उसकी महान् उपलब्धि
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
प्राचीन काल में मनुष्य को अगणित सुख सुविधायें प्राप्त थीं, उसकी शक्ति सामर्थ्य प्रत्येक दिशा में बहुत बढ़ी-चढ़ी थी। इस सुयोग का कारण और कुछ नहीं केवल एक ही था—जीवन का अध्यात्म प्रेरणा से अनुप्राणित एवं प्रेरित होना। उस समय सब लोग अपनी भावनायें और क्रियायें अध्यात्म मान्यताओं एवं मर्यादाओं के अनुसार ढालते थे, फलस्वरूप उन्हें बाह्य जीवन में किसी प्रकार की असुविधा न रहती थी। जहां चन्दन का वृक्ष होगा वहां सुगन्ध रहेगी ही, जहां अध्यात्म को आश्रय मिलेगा वहां शक्ति, समृद्धि और सुख शान्ति की परिपूर्णता ही रहनी चाहिये।
अध्यात्म भारत की महानतम सम्पत्ति है। उसे मानवता का मेरुदण्ड कहा जा सकता है। मनुष्य के भौतिक एवं आध्यात्मिक चिरस्थायी उत्कर्ष का एक मात्र आधार यही है। मनुष्य जाति की अगणित समस्याओं को हल करने और सुख शान्ति पूर्वक जीने के लिए अध्यात्म ही एक मात्र उपाय है। इस जीवन तत्व की उपेक्षा करने से पतन और विनाश का ही मार्ग प्रशस्त होता है। दुःख और दरिद्र, शोक और सन्ताप इसी उपेक्षा के कारण उत्पन्न होते हैं। मनुष्य के भविष्य को अन्धकारमय बनाने वाला निमित्त इस उपेक्षा से बढ़कर और कोई नहीं हो सकता।
अध्यात्म मानव जीवन के श्रेष्ठतम सदुपयोग की एक वैज्ञानिक पद्धति है। उसे जीवन जीने की विद्या भी कहा जा सकता है। छोटे छोटे कार्यों की भी कोई प्रणाली एवं पद्धति होती है। इसी ढंग से चलने पर सफलता मिलती है। अस्त व्यस्त ढंग से कार्य किया जाये तो लाभ के स्थान पर हानि ही होगी। मानव जीवन इस संसार का सर्वोत्कृष्ट वरदान है। भगवान के पास जो कुछ विभूतियां हैं वे सभी उसने मनुष्य शरीर में बीज रूप में भर दी हैं। ऐसे बहुमूल्य संयंत्र का सुसंचालन एवं सदुपयोग यदि ज्ञात न हो तो उसे एक दुर्भाग्य ही कहा जायेगा।
कृषि, रसायन, शिल्प, चिकित्सा, व्यापार, संगीत आदि सामान्य कार्यों के लिए उनकी निर्धारित पद्धति को अपनाना पड़ता है। राज्य व्यवस्था संविधान एवं कानून पद्धति के अनुसार चलती है। उन व्यवस्थाओं की अज्ञानता एवं उपेक्षा करने वाले व्यक्ति मनमानी करते हुए चलने लगें तो उन्हें असफलता एवं निराशा का ही मुंह देखना पड़ेगा। मानव-जीवन तो एक अत्यन्त महत्व पूर्ण एवं मूल्यवान प्रक्रिया है उसका विज्ञान एवं विधान जाने बिना या जान कर उस पर चले बिना वह आनन्द एवं श्रेय नहीं मिल सकता, जो मनुष्य जीवन जीने वाले को मिलना ही चाहिए।
मानव-जीवन के दो पहलू हैं एक आत्मा दूसरा शरीर। एक आन्तरिक दूसरा बाह्य। दोनों में एक से एक बढ़कर विभूतियां एवं समृद्धियां भरी पड़ी हैं। आत्मिक क्षेत्र में मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार चारों ही क्रमशः एक से एक बढ़ कर शक्ति संस्थान हैं। पांच कोष, एवं छह चक्र, अपने गर्भ में अगणित ऋद्धि सिद्धियां छिपाये बैठे हैं। मस्तिष्क के मध्य भाग ब्रह्मरंध्र में अवस्थित शत-दल कमल, हृदय संस्थान का सूर्य चक्र, नाभिदेश में प्रतिष्ठित ब्रह्म ग्रन्थि, मूलाधार वासिनी महासर्पिणी कुण्डलिनी का जो विवेचन योग शास्त्रों में मिलता है उससे स्पष्ट है कि विश्व की अत्यन्त महत्वपूर्ण शक्तियां बीज रूप से इन छोटे से केन्द्रों में भरी पड़ी हैं। योगाभ्यास द्वारा इन्हें जागृत करके साधन मार्ग के पथिक अपने को अलौकिक सामर्थ्यों से सुसम्पन्न सिद्ध पुरुषों की श्रेणी में पहुंचा देते हैं। ऋषि मुनियों ने अध्यात्म विद्या के गूढ़ रहस्यों का अवगाहन कर प्रकृति की उन विस्मयकारी शक्तियों पर आधिपत्य प्राप्त कर लिया था जो भौतिक विद्या के वैज्ञानिकों के लिए अभी भी रहस्यमय बनी हुई हैं।
खेदपूर्वक यह स्वीकार करना होगा कि हमारे आलस्य और प्रमाद ने योग की उन उच्चस्तरीय विद्याओं को गंवा दिया। वैज्ञानिक शोध जैसी निष्ठा में संलग्न होने वाले साधक आज कहां हैं? योगी का वेष बनाकर पूजा और आजीविका कमाने वाले रंगे सियार बहुत मिलेंगे पर सूक्ष्म प्रदेशों को जागृत और परिमार्जित करने के लिये कठोर तपश्चर्या का साहस करने वाले निष्ठावान पुरुषार्थी नहीं के बराबर दिखाई पड़ते हैं। जो हैं उन्हें बहुत कुछ मिलता भी है। जिनके आशीर्वाद प्राप्त करके मनुष्य अपना जीवन धन्य और सफल बना सके ऐसे ऋषिकल्प सत्पुरुष अभी भी मौजूद हैं।
प्राचीनकाल में ऋषि मुनियों के संरक्षण में सारा विश्व ही स्वर्गीय सुख शान्ति का उपभोग करता रहा है। आत्मबल की महत्ता का उच्चस्तरीय प्रकरण रहस्यमय है। कठिन और कष्टसाध्य भी है। उस मार्ग पर कम ही लोग चल पाते हैं फिर भी यह तथ्य सुनिश्चित ही रहेगा कि आत्मा के सूक्ष्म संस्थानों की साधना, रहस्यमयी एवं चमत्कारी प्रतिफल उत्पन्न करती है। उसका अवलम्बन लेकर मनुष्य अपना जीवन लक्ष्य प्राप्त करने के अतिरिक्त संसार की भी इतनी बड़ी सेवा कर सकता है जितनी बड़ी से बड़ी भौतिक क्षमता सम्पन्न व्यक्तियों की सम्मिलित शक्तियों के द्वारा भी सम्भव नहीं।
उच्चस्तरीय सूक्ष्म साधना का फल आकर्षक चमत्कारी एवं आश्चर्यजनक तो अवश्य है पर उसकी साधना भी उसी अनुपात से समयसाध्य और कष्टसाध्य है बाल-बुद्धि के लोग यह आशा किया करते हैं कि कुछ ही दिन छोटा-मोटा कर्मकाण्ड करके उस स्थिति की सफलता प्राप्त कर लेंगे। बरगद का पेड़ बड़ा समृद्धिशाली और चिरस्थायी माना गया है पर उसके उगने बढ़ने और फलने फूलने की स्थिति तक पहुंचने में देर लगती है। उतावली में हथेली पर सरसों जमाने की बालक्रीड़ा उपहासास्पद ही सिद्ध होती है। योगाभ्यास की साधना विधियां भले ही बहुत कठिन न हों, पर उनके फलित होने लायक साधन की पूर्व भूमिका तो शुद्ध हो सकनी चाहिये। यदि साधक का बाह्य जीवन दूषित, कलुषित, निष्कृष्ट एवं अस्तव्यस्त रहा होगा तो उसे लौकिक समृद्धि सफलता एवं सुख शांति भी प्राप्त न हो सकेगी, ऐसी दशा में आत्मबल एवं उच्च विभूतियों की उपलब्धि की आशा तो की ही कैसे जा सकती है?
नियम यह है कि पहले बाह्य जीवन में अध्यात्म तत्व-ज्ञान का समावेश करके उसे सुख-शान्तिमय बनाया जाये। इस प्रकरण में जितनी उपासना अभीष्ट है उतनी करते रहा जाय पर अधिक जोर बाह्य जीवन को सुसंगत बनाने के लिये ही दिया जाये। लौकिक-जीवन को सुविकसित एवं सुसंस्कृत बना लेना भी एक आध्यात्मिक साधना ही है। उसका प्रतिफल भी लौकिक सफलताओं एवं सुसंबद्धताओं के रूप में ही उपलब्ध होता है। इस सफलता के बाद उच्च स्तरीय आध्यात्मिक साधना सरल हो जाती है और उनकी सफलता में भी कठिनाई नहीं आती। जो साधक जप तप तो बहुत करते हैं किन्तु लौकिक जीवन निकृष्ट बनाये रहते हैं उन्हें प्रायः निराश ही रहना पड़ता है। कई व्यक्ति अपनी पात्रता बढ़ाने पर ध्यान न देकर समर्थ शक्तियों के उपहार स्वरूप विविध विधि वरदान प्राप्त करने के फेर में पड़े रहते हैं। देवताओं की पूजा वे इसी उद्देश्य से करते हैं कि कम समय, कम श्रम, कम खर्च करके बड़ा लाभ प्राप्त करलें। लाटरी लगाने वालों एवं जुआ खेलने वालों का भी यही उद्देश्य रहता है। ऐसे लोग थोड़ा खर्च करे बिना श्रम एवं क्षमता के ही विपुल धन राशि प्राप्त करने के सपने देखते हैं। इसमें से किसी विरले की ही कामना पूर्ण होती है अधिकांश तो निराश ही रहते हैं। देवताओं का वरदान वस्तुतः इतना सस्ता नहीं है जितना लोगों ने समझ रहा है। वे ‘दर्शन’ करने मात्र से प्रसन्न हो जायेंगे या अक्षत, पुष्प जैसी छोटी चीजें पाकर अपना अनुग्रह हमारे ऊपर उड़ेल देंगे ऐसा सोचना उचित नहीं। पूजा का भी अपना महत्व है, उसका भी लाभ होता है, पर मूल तथ्य पात्रता है। अनधिकारी की—कुपात्र की—प्रार्थना भी सफल नहीं होती। देवता या भगवान को प्रसन्न करने का, उनका अनुग्रह उपलब्ध करने का, सुनिश्चित मार्ग अपनी पात्रता बढ़ाना ही हो सकता है। किन्हीं सिद्ध पुरुषों का समर्थ आशीर्वाद प्राप्त करने के लिये भी यह आवश्यक है कि वे अपना तप या पुण्य दान देकर हमारी सहायता करें, पर उसके लिये हम उपयुक्त अधिकारी भी सिद्ध तो हों। आशीर्वाद वाणी की क्रीड़ा नहीं है। उसके पीछे पुण्य या तप का अनुदान लगाया गया हो तो ही उसका कुछ प्रतिफल दृष्टिगोचर हो सकता है। इस सृष्टि में कोई वस्तु मुफ्त नहीं मिलती। हर वस्तु का मूल्य निर्धारित है। उसे चुकाने पर ही कुछ प्राप्त कर सकना सम्भव हो सकता है। सुख और समृद्धि की प्राप्ति पुण्य फल की मात्रा पर निर्भर रहती है। दुःख हमारी त्रुटियों और विकृतियों के फलस्वरूप प्राप्त होते हैं। सुख प्राप्त करने और दुःख निवारण के लिये पुण्य एवं तप की अभीष्ट मात्रा चाहिये। वस्तु तो कीमत देने से ही मिलेगी। अपने पास वह कीमत न हो तो दूसरा भी अपनी जेब से उसकी पूर्ति कर सकता है। मूल्य हर हालत में चुकाना पड़ेगा। आशीर्वाद के साथ कोई सिद्ध पुरुष अपना तप भी देने को तैयार हो जायें तो ही यह आशा की जा सकती है कि उससे कोई लाभ होगा। अन्यथा वाणी से निकले हुये केवल शब्द-भले ही वह आशीर्वाद की भाषा में कहे गये हों—किसी के लिये विशेष उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकते।
जब सामान्य बुद्धि के लोग पात्र-कुपात्र का ध्यान रखते हैं, अधिकारी-अनधिकारी के भेद को समझते हैं और उसी के अनुसार निष्ठुरता एवं उदारता बरतते हैं तो देवता और सिद्ध पुरुषों को इतना नासमझ क्यों माना जाय कि वे पात्रता की परख किये बिना अन्धाधुन्ध प्रार्थनाओं की पूर्ति दर्शन पूजन जैसे बहकावे में आकर करने लगेंगे? स्कूलों में छात्रवृत्ति उन्हें मिलती है जो प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होते हैं। उन्हीं खिलाड़ियों को पुरस्कार मिलता है जो अपने को अधिक पुरुषार्थी सिद्ध करते हैं। ऊंचे पदों पर उनकी नियुक्ति होती है जो अन्य साथी प्रत्याशियों की अपेक्षा अपनी विशेषता सिद्ध करते हैं। देवता और सिद्ध पुरुष वरदान तो देते हैं, कृतार्थ तो करते हैं, पर इससे पहले लेने वाले की पात्रता को परख लेते हैं। दान का यदि दुरुपयोग होने लगे तो उसका पाप दाता पर पड़ता है, इस तथ्य को वे उच्च शक्तियां भी जानती हैं, इसलिए प्रार्थना करने वाले की—वरदान या आशीर्वाद मांगने वाले की पात्रता को ही वे सबसे पहले परखती हैं। अनाधिकारी के प्रति उनका रुख भी निष्ठुरतापूर्ण ही बना रहता है। यह उक्ति प्रसिद्ध है कि ‘‘ईश्वर उनकी सहायता करता है जो अपनी सहायता आप करते हैं।’’ इस छोटे से वाक्य में ईश्वर की नीति और कार्यपद्धति का मर्म बिलकुल ही स्पष्ट रूप से प्रतिपादित कर दिया गया है।
ईश्वर की इस सुव्यवस्थित सृष्टि का कण-कण नियम बन्धनों में बंधा हुआ है। इतना बड़ा शासन तन्त्र बिना नियत व्यवस्था के चल भी नहीं सकता। सूर्य और चन्द्रमा नियत समय पर उदय होते हैं, पृथ्वी नियत मार्ग पर नियत चाल से चलती है। ऋतुयें समय पर आती हैं। बीज अपने नियम और क्रम से उगते और बढ़ते हैं। जन्म, वृद्धि और मृत्यु के चक्र में हर पदार्थ जकड़ा हुआ है। यहां अव्यवस्था के लिये तनिक भी गुंजाइश नहीं। ईश्वर भी अपना काम तभी कर पा रहा है जब उसने अपने आपको नियम व्यवस्था के अन्तर्गत बांध लिया है। प्राणियों को उनके शुभ-अशुभ कर्मों के आधार पर उन्नति या अवनति के प्रतिफल प्रदान करता है। यदि वह इसमें अव्यवस्था उत्पन्न करे तो सृष्टि का सारा क्रम ही बिगड़ जाय। प्रार्थना करने मात्र से मनमाने उपहार देने लगे तो फिर प्रयत्न और पुरुषार्थ करने के लिये किसी को क्या आकर्षण रह जायगा? फिर कर्मफल का तथ्य तो एक उपहास की बात बन जायेगा। कोई न्यायाधीश वस्तुस्थिति पर ध्यान दिये बिना प्रार्थियों की अर्जी-मर्जी के अनुरूप फैसले करने लगे, सुविधायें देने लगे तो उसे पागल ही कहा जायेगा। ईश्वर ऐसा पागल नहीं है। देवता या सिद्ध पुरुषों को भी इतना नासमझ नहीं माना जाना चाहिये कि हर किसी की उचित अनुचित सहायता के लिए धर दौड़ें और पात्रता, अधिकार एवं कर्मफल के सुनिश्चित तथ्यों को मटियामेट करके अव्यवस्था फैला देने के दोषी बनें।
गुरुजन कृपा अवश्य करते हैं और उनके आशीर्वाद से लोगों का भला भी अवश्य होता है, पर वह कृपा विशुद्ध रूप में प्रार्थी की पात्रता पर निर्भर रहती है। देवता वरदान देते हैं। ऐसे असंख्य उपाख्यान पुराणों में मिलते हैं, पर यह स्मरण रखना चाहिये कि वे वरदान भी अन्धाधुन्ध नहीं, किसी आधार पर मिलते हैं। असुरों ने बड़े-बड़े आश्चर्यजनक वरदान पाये थे पर उनका मूल्य उन्होंने घेर तपश्चर्या के रूप में चुकाया भी था। हमारी तरह यदि वे भी दर्शन करके या चन्दन अक्षत चढ़ाकर थोड़ी-सी पूजा-पत्री से बड़ी-बड़ी आशायें लगाये बैठे रहते तो उन्हें भी हमारी तरह निराशा के अतिरिक्त और क्या हाथ लग सकता था?
दैवी अनुग्रह हमारी पात्रता के आधार पर ही उपलब्ध हो सकता है अतएव उसके लिये बहुत चिन्ता या बहुत खोजबीन करने की अपेक्षा, अपनी आन्तरिक उत्कृष्टता बढ़ाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। सत्पात्रों की उचित सहायता एवं मार्ग दर्शन करने के लिए ईश्वरीय नियम अपने आप काम करता रहता है और उसकी पूर्ति अनायास ही होती रहती है। गुरु ढूंढ़ने नहीं पड़ते, अधिकारी को अनायास ही मिल जाते हैं। पुष्प खिलते ही बना निमंत्रण के भौंरे उसके आगे गुंजार करने स्वतः ही जा पहुंचते हैं। जहां पर जितना गहरा गड्ढा होता है वहां उतना ही जल भर जाता है। कम गहरा गड्ढा बड़े सरोवर की बराबर जल कैसे प्राप्त कर सकेगा? बादलों पर कम देने का दोष भले ही वह लगाया करे पर वस्तुस्थिति यही है कि गड्ढ़े के उथलेपन ने ही उसे प्रचुर जल राशि संग्रह करने के लाभ से वंचित रखा। बादलों को सरोवर और गड्ढ़े में से किसी के साथ पक्षपात नहीं था, उन्होंने समान वर्षा की पर लाभ उन्हें अपनी पात्रता के अनुरूप ही मिल सका। ईश्वर, देवता या सिद्ध पुरुषों से विविध विधि वरदानों की कामना एवं प्रार्थना करने के साथ साथ हमें अपनी पात्रता भी देखनी चाहिये और इसे बढ़ाने के लिये प्रयत्न भी करना चाहिये।
अध्यात्म की महिमा का पारावार नहीं, उसके द्वारा प्राप्त हो सकने वाले लाभों की गणना नहीं हो सकती। मानव जीवन की सर्वोत्कृष्ट विभूति वहीं है अन्तःप्रदेश में सन्निहित रहस्यमयी शक्तियों के जागरण से मनुष्य की परिणति देवत्व में हो सकती है। पर उस मार्ग पर चलने वाले को इतना तो ध्यान रखना ही चाहिए कि उपासना विधानों की तरह व्यवहारिक जीवन को उत्कृष्ट एवं परिष्कृत बनाना भी आवश्यक है। इसके बिना कठोर साधना निरर्थक सिद्धि होती है।
अध्यात्म भारत की महानतम सम्पत्ति है। उसे मानवता का मेरुदण्ड कहा जा सकता है। मनुष्य के भौतिक एवं आध्यात्मिक चिरस्थायी उत्कर्ष का एक मात्र आधार यही है। मनुष्य जाति की अगणित समस्याओं को हल करने और सुख शान्ति पूर्वक जीने के लिए अध्यात्म ही एक मात्र उपाय है। इस जीवन तत्व की उपेक्षा करने से पतन और विनाश का ही मार्ग प्रशस्त होता है। दुःख और दरिद्र, शोक और सन्ताप इसी उपेक्षा के कारण उत्पन्न होते हैं। मनुष्य के भविष्य को अन्धकारमय बनाने वाला निमित्त इस उपेक्षा से बढ़कर और कोई नहीं हो सकता।
अध्यात्म मानव जीवन के श्रेष्ठतम सदुपयोग की एक वैज्ञानिक पद्धति है। उसे जीवन जीने की विद्या भी कहा जा सकता है। छोटे छोटे कार्यों की भी कोई प्रणाली एवं पद्धति होती है। इसी ढंग से चलने पर सफलता मिलती है। अस्त व्यस्त ढंग से कार्य किया जाये तो लाभ के स्थान पर हानि ही होगी। मानव जीवन इस संसार का सर्वोत्कृष्ट वरदान है। भगवान के पास जो कुछ विभूतियां हैं वे सभी उसने मनुष्य शरीर में बीज रूप में भर दी हैं। ऐसे बहुमूल्य संयंत्र का सुसंचालन एवं सदुपयोग यदि ज्ञात न हो तो उसे एक दुर्भाग्य ही कहा जायेगा।
कृषि, रसायन, शिल्प, चिकित्सा, व्यापार, संगीत आदि सामान्य कार्यों के लिए उनकी निर्धारित पद्धति को अपनाना पड़ता है। राज्य व्यवस्था संविधान एवं कानून पद्धति के अनुसार चलती है। उन व्यवस्थाओं की अज्ञानता एवं उपेक्षा करने वाले व्यक्ति मनमानी करते हुए चलने लगें तो उन्हें असफलता एवं निराशा का ही मुंह देखना पड़ेगा। मानव-जीवन तो एक अत्यन्त महत्व पूर्ण एवं मूल्यवान प्रक्रिया है उसका विज्ञान एवं विधान जाने बिना या जान कर उस पर चले बिना वह आनन्द एवं श्रेय नहीं मिल सकता, जो मनुष्य जीवन जीने वाले को मिलना ही चाहिए।
मानव-जीवन के दो पहलू हैं एक आत्मा दूसरा शरीर। एक आन्तरिक दूसरा बाह्य। दोनों में एक से एक बढ़कर विभूतियां एवं समृद्धियां भरी पड़ी हैं। आत्मिक क्षेत्र में मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार चारों ही क्रमशः एक से एक बढ़ कर शक्ति संस्थान हैं। पांच कोष, एवं छह चक्र, अपने गर्भ में अगणित ऋद्धि सिद्धियां छिपाये बैठे हैं। मस्तिष्क के मध्य भाग ब्रह्मरंध्र में अवस्थित शत-दल कमल, हृदय संस्थान का सूर्य चक्र, नाभिदेश में प्रतिष्ठित ब्रह्म ग्रन्थि, मूलाधार वासिनी महासर्पिणी कुण्डलिनी का जो विवेचन योग शास्त्रों में मिलता है उससे स्पष्ट है कि विश्व की अत्यन्त महत्वपूर्ण शक्तियां बीज रूप से इन छोटे से केन्द्रों में भरी पड़ी हैं। योगाभ्यास द्वारा इन्हें जागृत करके साधन मार्ग के पथिक अपने को अलौकिक सामर्थ्यों से सुसम्पन्न सिद्ध पुरुषों की श्रेणी में पहुंचा देते हैं। ऋषि मुनियों ने अध्यात्म विद्या के गूढ़ रहस्यों का अवगाहन कर प्रकृति की उन विस्मयकारी शक्तियों पर आधिपत्य प्राप्त कर लिया था जो भौतिक विद्या के वैज्ञानिकों के लिए अभी भी रहस्यमय बनी हुई हैं।
खेदपूर्वक यह स्वीकार करना होगा कि हमारे आलस्य और प्रमाद ने योग की उन उच्चस्तरीय विद्याओं को गंवा दिया। वैज्ञानिक शोध जैसी निष्ठा में संलग्न होने वाले साधक आज कहां हैं? योगी का वेष बनाकर पूजा और आजीविका कमाने वाले रंगे सियार बहुत मिलेंगे पर सूक्ष्म प्रदेशों को जागृत और परिमार्जित करने के लिये कठोर तपश्चर्या का साहस करने वाले निष्ठावान पुरुषार्थी नहीं के बराबर दिखाई पड़ते हैं। जो हैं उन्हें बहुत कुछ मिलता भी है। जिनके आशीर्वाद प्राप्त करके मनुष्य अपना जीवन धन्य और सफल बना सके ऐसे ऋषिकल्प सत्पुरुष अभी भी मौजूद हैं।
प्राचीनकाल में ऋषि मुनियों के संरक्षण में सारा विश्व ही स्वर्गीय सुख शान्ति का उपभोग करता रहा है। आत्मबल की महत्ता का उच्चस्तरीय प्रकरण रहस्यमय है। कठिन और कष्टसाध्य भी है। उस मार्ग पर कम ही लोग चल पाते हैं फिर भी यह तथ्य सुनिश्चित ही रहेगा कि आत्मा के सूक्ष्म संस्थानों की साधना, रहस्यमयी एवं चमत्कारी प्रतिफल उत्पन्न करती है। उसका अवलम्बन लेकर मनुष्य अपना जीवन लक्ष्य प्राप्त करने के अतिरिक्त संसार की भी इतनी बड़ी सेवा कर सकता है जितनी बड़ी से बड़ी भौतिक क्षमता सम्पन्न व्यक्तियों की सम्मिलित शक्तियों के द्वारा भी सम्भव नहीं।
उच्चस्तरीय सूक्ष्म साधना का फल आकर्षक चमत्कारी एवं आश्चर्यजनक तो अवश्य है पर उसकी साधना भी उसी अनुपात से समयसाध्य और कष्टसाध्य है बाल-बुद्धि के लोग यह आशा किया करते हैं कि कुछ ही दिन छोटा-मोटा कर्मकाण्ड करके उस स्थिति की सफलता प्राप्त कर लेंगे। बरगद का पेड़ बड़ा समृद्धिशाली और चिरस्थायी माना गया है पर उसके उगने बढ़ने और फलने फूलने की स्थिति तक पहुंचने में देर लगती है। उतावली में हथेली पर सरसों जमाने की बालक्रीड़ा उपहासास्पद ही सिद्ध होती है। योगाभ्यास की साधना विधियां भले ही बहुत कठिन न हों, पर उनके फलित होने लायक साधन की पूर्व भूमिका तो शुद्ध हो सकनी चाहिये। यदि साधक का बाह्य जीवन दूषित, कलुषित, निष्कृष्ट एवं अस्तव्यस्त रहा होगा तो उसे लौकिक समृद्धि सफलता एवं सुख शांति भी प्राप्त न हो सकेगी, ऐसी दशा में आत्मबल एवं उच्च विभूतियों की उपलब्धि की आशा तो की ही कैसे जा सकती है?
नियम यह है कि पहले बाह्य जीवन में अध्यात्म तत्व-ज्ञान का समावेश करके उसे सुख-शान्तिमय बनाया जाये। इस प्रकरण में जितनी उपासना अभीष्ट है उतनी करते रहा जाय पर अधिक जोर बाह्य जीवन को सुसंगत बनाने के लिये ही दिया जाये। लौकिक-जीवन को सुविकसित एवं सुसंस्कृत बना लेना भी एक आध्यात्मिक साधना ही है। उसका प्रतिफल भी लौकिक सफलताओं एवं सुसंबद्धताओं के रूप में ही उपलब्ध होता है। इस सफलता के बाद उच्च स्तरीय आध्यात्मिक साधना सरल हो जाती है और उनकी सफलता में भी कठिनाई नहीं आती। जो साधक जप तप तो बहुत करते हैं किन्तु लौकिक जीवन निकृष्ट बनाये रहते हैं उन्हें प्रायः निराश ही रहना पड़ता है। कई व्यक्ति अपनी पात्रता बढ़ाने पर ध्यान न देकर समर्थ शक्तियों के उपहार स्वरूप विविध विधि वरदान प्राप्त करने के फेर में पड़े रहते हैं। देवताओं की पूजा वे इसी उद्देश्य से करते हैं कि कम समय, कम श्रम, कम खर्च करके बड़ा लाभ प्राप्त करलें। लाटरी लगाने वालों एवं जुआ खेलने वालों का भी यही उद्देश्य रहता है। ऐसे लोग थोड़ा खर्च करे बिना श्रम एवं क्षमता के ही विपुल धन राशि प्राप्त करने के सपने देखते हैं। इसमें से किसी विरले की ही कामना पूर्ण होती है अधिकांश तो निराश ही रहते हैं। देवताओं का वरदान वस्तुतः इतना सस्ता नहीं है जितना लोगों ने समझ रहा है। वे ‘दर्शन’ करने मात्र से प्रसन्न हो जायेंगे या अक्षत, पुष्प जैसी छोटी चीजें पाकर अपना अनुग्रह हमारे ऊपर उड़ेल देंगे ऐसा सोचना उचित नहीं। पूजा का भी अपना महत्व है, उसका भी लाभ होता है, पर मूल तथ्य पात्रता है। अनधिकारी की—कुपात्र की—प्रार्थना भी सफल नहीं होती। देवता या भगवान को प्रसन्न करने का, उनका अनुग्रह उपलब्ध करने का, सुनिश्चित मार्ग अपनी पात्रता बढ़ाना ही हो सकता है। किन्हीं सिद्ध पुरुषों का समर्थ आशीर्वाद प्राप्त करने के लिये भी यह आवश्यक है कि वे अपना तप या पुण्य दान देकर हमारी सहायता करें, पर उसके लिये हम उपयुक्त अधिकारी भी सिद्ध तो हों। आशीर्वाद वाणी की क्रीड़ा नहीं है। उसके पीछे पुण्य या तप का अनुदान लगाया गया हो तो ही उसका कुछ प्रतिफल दृष्टिगोचर हो सकता है। इस सृष्टि में कोई वस्तु मुफ्त नहीं मिलती। हर वस्तु का मूल्य निर्धारित है। उसे चुकाने पर ही कुछ प्राप्त कर सकना सम्भव हो सकता है। सुख और समृद्धि की प्राप्ति पुण्य फल की मात्रा पर निर्भर रहती है। दुःख हमारी त्रुटियों और विकृतियों के फलस्वरूप प्राप्त होते हैं। सुख प्राप्त करने और दुःख निवारण के लिये पुण्य एवं तप की अभीष्ट मात्रा चाहिये। वस्तु तो कीमत देने से ही मिलेगी। अपने पास वह कीमत न हो तो दूसरा भी अपनी जेब से उसकी पूर्ति कर सकता है। मूल्य हर हालत में चुकाना पड़ेगा। आशीर्वाद के साथ कोई सिद्ध पुरुष अपना तप भी देने को तैयार हो जायें तो ही यह आशा की जा सकती है कि उससे कोई लाभ होगा। अन्यथा वाणी से निकले हुये केवल शब्द-भले ही वह आशीर्वाद की भाषा में कहे गये हों—किसी के लिये विशेष उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकते।
जब सामान्य बुद्धि के लोग पात्र-कुपात्र का ध्यान रखते हैं, अधिकारी-अनधिकारी के भेद को समझते हैं और उसी के अनुसार निष्ठुरता एवं उदारता बरतते हैं तो देवता और सिद्ध पुरुषों को इतना नासमझ क्यों माना जाय कि वे पात्रता की परख किये बिना अन्धाधुन्ध प्रार्थनाओं की पूर्ति दर्शन पूजन जैसे बहकावे में आकर करने लगेंगे? स्कूलों में छात्रवृत्ति उन्हें मिलती है जो प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होते हैं। उन्हीं खिलाड़ियों को पुरस्कार मिलता है जो अपने को अधिक पुरुषार्थी सिद्ध करते हैं। ऊंचे पदों पर उनकी नियुक्ति होती है जो अन्य साथी प्रत्याशियों की अपेक्षा अपनी विशेषता सिद्ध करते हैं। देवता और सिद्ध पुरुष वरदान तो देते हैं, कृतार्थ तो करते हैं, पर इससे पहले लेने वाले की पात्रता को परख लेते हैं। दान का यदि दुरुपयोग होने लगे तो उसका पाप दाता पर पड़ता है, इस तथ्य को वे उच्च शक्तियां भी जानती हैं, इसलिए प्रार्थना करने वाले की—वरदान या आशीर्वाद मांगने वाले की पात्रता को ही वे सबसे पहले परखती हैं। अनाधिकारी के प्रति उनका रुख भी निष्ठुरतापूर्ण ही बना रहता है। यह उक्ति प्रसिद्ध है कि ‘‘ईश्वर उनकी सहायता करता है जो अपनी सहायता आप करते हैं।’’ इस छोटे से वाक्य में ईश्वर की नीति और कार्यपद्धति का मर्म बिलकुल ही स्पष्ट रूप से प्रतिपादित कर दिया गया है।
ईश्वर की इस सुव्यवस्थित सृष्टि का कण-कण नियम बन्धनों में बंधा हुआ है। इतना बड़ा शासन तन्त्र बिना नियत व्यवस्था के चल भी नहीं सकता। सूर्य और चन्द्रमा नियत समय पर उदय होते हैं, पृथ्वी नियत मार्ग पर नियत चाल से चलती है। ऋतुयें समय पर आती हैं। बीज अपने नियम और क्रम से उगते और बढ़ते हैं। जन्म, वृद्धि और मृत्यु के चक्र में हर पदार्थ जकड़ा हुआ है। यहां अव्यवस्था के लिये तनिक भी गुंजाइश नहीं। ईश्वर भी अपना काम तभी कर पा रहा है जब उसने अपने आपको नियम व्यवस्था के अन्तर्गत बांध लिया है। प्राणियों को उनके शुभ-अशुभ कर्मों के आधार पर उन्नति या अवनति के प्रतिफल प्रदान करता है। यदि वह इसमें अव्यवस्था उत्पन्न करे तो सृष्टि का सारा क्रम ही बिगड़ जाय। प्रार्थना करने मात्र से मनमाने उपहार देने लगे तो फिर प्रयत्न और पुरुषार्थ करने के लिये किसी को क्या आकर्षण रह जायगा? फिर कर्मफल का तथ्य तो एक उपहास की बात बन जायेगा। कोई न्यायाधीश वस्तुस्थिति पर ध्यान दिये बिना प्रार्थियों की अर्जी-मर्जी के अनुरूप फैसले करने लगे, सुविधायें देने लगे तो उसे पागल ही कहा जायेगा। ईश्वर ऐसा पागल नहीं है। देवता या सिद्ध पुरुषों को भी इतना नासमझ नहीं माना जाना चाहिये कि हर किसी की उचित अनुचित सहायता के लिए धर दौड़ें और पात्रता, अधिकार एवं कर्मफल के सुनिश्चित तथ्यों को मटियामेट करके अव्यवस्था फैला देने के दोषी बनें।
गुरुजन कृपा अवश्य करते हैं और उनके आशीर्वाद से लोगों का भला भी अवश्य होता है, पर वह कृपा विशुद्ध रूप में प्रार्थी की पात्रता पर निर्भर रहती है। देवता वरदान देते हैं। ऐसे असंख्य उपाख्यान पुराणों में मिलते हैं, पर यह स्मरण रखना चाहिये कि वे वरदान भी अन्धाधुन्ध नहीं, किसी आधार पर मिलते हैं। असुरों ने बड़े-बड़े आश्चर्यजनक वरदान पाये थे पर उनका मूल्य उन्होंने घेर तपश्चर्या के रूप में चुकाया भी था। हमारी तरह यदि वे भी दर्शन करके या चन्दन अक्षत चढ़ाकर थोड़ी-सी पूजा-पत्री से बड़ी-बड़ी आशायें लगाये बैठे रहते तो उन्हें भी हमारी तरह निराशा के अतिरिक्त और क्या हाथ लग सकता था?
दैवी अनुग्रह हमारी पात्रता के आधार पर ही उपलब्ध हो सकता है अतएव उसके लिये बहुत चिन्ता या बहुत खोजबीन करने की अपेक्षा, अपनी आन्तरिक उत्कृष्टता बढ़ाने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। सत्पात्रों की उचित सहायता एवं मार्ग दर्शन करने के लिए ईश्वरीय नियम अपने आप काम करता रहता है और उसकी पूर्ति अनायास ही होती रहती है। गुरु ढूंढ़ने नहीं पड़ते, अधिकारी को अनायास ही मिल जाते हैं। पुष्प खिलते ही बना निमंत्रण के भौंरे उसके आगे गुंजार करने स्वतः ही जा पहुंचते हैं। जहां पर जितना गहरा गड्ढा होता है वहां उतना ही जल भर जाता है। कम गहरा गड्ढा बड़े सरोवर की बराबर जल कैसे प्राप्त कर सकेगा? बादलों पर कम देने का दोष भले ही वह लगाया करे पर वस्तुस्थिति यही है कि गड्ढ़े के उथलेपन ने ही उसे प्रचुर जल राशि संग्रह करने के लाभ से वंचित रखा। बादलों को सरोवर और गड्ढ़े में से किसी के साथ पक्षपात नहीं था, उन्होंने समान वर्षा की पर लाभ उन्हें अपनी पात्रता के अनुरूप ही मिल सका। ईश्वर, देवता या सिद्ध पुरुषों से विविध विधि वरदानों की कामना एवं प्रार्थना करने के साथ साथ हमें अपनी पात्रता भी देखनी चाहिये और इसे बढ़ाने के लिये प्रयत्न भी करना चाहिये।
अध्यात्म की महिमा का पारावार नहीं, उसके द्वारा प्राप्त हो सकने वाले लाभों की गणना नहीं हो सकती। मानव जीवन की सर्वोत्कृष्ट विभूति वहीं है अन्तःप्रदेश में सन्निहित रहस्यमयी शक्तियों के जागरण से मनुष्य की परिणति देवत्व में हो सकती है। पर उस मार्ग पर चलने वाले को इतना तो ध्यान रखना ही चाहिए कि उपासना विधानों की तरह व्यवहारिक जीवन को उत्कृष्ट एवं परिष्कृत बनाना भी आवश्यक है। इसके बिना कठोर साधना निरर्थक सिद्धि होती है।