Books - अन्तरिक्ष विज्ञान एवं परोक्ष का अनुसन्धान
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अन्तरिक्ष विज्ञान की नव सृजन के सन्दर्भ में उपादेयता
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अन्तरिक्ष विज्ञान, भू विज्ञान से कम महत्वपूर्ण नहीं है। जल और थल की तरह आकाश पर विजय प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील मनुष्य यदि चाहे तो अपने पुरुषार्थ में एक कड़ी और जोड़ सकता है कि ग्रहों के सूक्ष्म प्रभाव से पृथ्वी के वातावरण तथा प्राणि परिवार को जो अनुकूलता-प्रतिकूलता सहन करनी पड़ती है उसके सम्बन्ध में उपयुक्त जानकारी प्राप्त करे और तदनुरूप उपाय खोज निकाले। प्राचीन काल से ‘ज्योतिष विज्ञान’ के दो पक्ष हैं—ग्रहों की गतिविधियां तथा उनकी सूक्ष्म प्रतिक्रियाओं की जानकारी। यह जानकारी भली प्रकार उपलब्ध रहती थी फलतः वे प्रतिकूलताओं से बचने तथा अनुकूलताओं से लाभ उठाने का मार्ग भी निकाल लेते थे। मनुष्य ने ज्ञान विज्ञान को अनेक शाखा प्रशाखाओं में विकसित करके प्रगति के पथ पर बहुत आगे तक बढ़ चलने में सफलता पाई है। ग्रह विद्या का महत्व इन सबकी तुलना में कम नहीं वरन् अधिक ही है। अन्य विज्ञान, सामयिक सीमित और सम्बद्ध लोगों को ही प्रभावित करते हैं, पर ग्रहों की सामर्थ्य भी प्रचण्ड है और क्षेत्र भी अत्यन्त व्यापक। ऐसी दशा में उनके साथ जुड़े हुए सम्बन्ध सूत्रों और आदान-प्रदानों के सम्बन्ध में भी हमारी जानकारी उपयुक्त स्तर की होनी चाहिए।मौसम से लेकर राजनैतिक घटनाक्रमों तक को देखकर लोग अपनी योजनाओं का निर्धारण परिवर्तन करते रहते हैं। ग्रहों की स्थिति से उत्पन्न प्रभावों के सम्बन्ध में भी यह तथ्य कम महत्वपूर्ण नहीं है। अनुकूलताओं का—संभावनाओं का यदि पूर्वाभास मिल सके तो निश्चय ही वैयक्तिक एवं सामूहिक सुख-शान्ति एवं प्रगति के ऐसे सूत्र मिल सकते हैं जो उज्ज्वल भविष्य की संरचना में अत्यन्त लाभदायक सिद्ध हो सके।अन्तरिक्ष का महत्व विज्ञान क्षेत्र ने समझा है। इसमें भरी हुई सम्पदा सूक्ष्म होने के कारण धरती और समुद्र में पाये जाने वाले सम्पदा भण्डार से कहीं अधिक है। अब तक जो कुछ भी पाया गया है उसमें जल और थल की अपेक्षा आकाश का अनुदान अधिक है। वर्षा आकाश से होती है। हवा भी आकाश में भरी है। बिजली रेडियो, लेसर आदि के संचार आकाश से हैं। ध्वनि, ताप, प्रकाश आदि की तरंगों का प्रवाह आकाश में ही चलता है। धरती को अंतर्ग्रही अनुदान भी उसी क्षेत्र से मिलते हैं। अदृश्य जगत की सत्ता उसी का घोल है। दिव्य प्राणी इसी में निवास करते हैं। विचार तरंगें इसी में परिभ्रमण करती हैं। ऐसे-ऐसे अनेकों आधार हैं जिनसे स्पष्ट है कि दृश्य भू-मण्डल की तुलना में अदृश्य आकाश में विद्यमान साधन सम्पदा का महत्व और स्तर असंख्य गुना अधिक है।अध्यात्म विज्ञानी तो अनादि काल से अपनी गतिविधियों को आकाश पर केन्द्रीभूत रखे रहे हैं। अदृश्य जगत-सूक्ष्म जगत् ही उनका उत्पादन क्षेत्र रहा है। उस कमाई का दृश्य पृथ्वी पर तो खर्च भर करते हैं। ऋद्धि और सिद्धियों का प्रयोग प्रदर्शन ही प्रत्यक्ष है। यह तो उपार्जन का प्रयोग उपभोग करना भर है। जहां से यह सब कमाया जाता है वह परोक्ष है। परोक्ष का विस्तार आकाश में है। मानवी अंतराल में तो उसकी बीज सत्ता भर है। साधना का आरम्भ अन्तराल में किया जाता है, पर उस आरम्भ को प्रतिफल तक पहुंचने के लिए अन्तरिक्षीय शक्तियों का ही सहयोग लेना पड़ता है।जिस भू-भाग पर हम रहते हैं उसका विस्तार लगभग सत्रह करोड़ वर्ग मील है एवं उसका तीन चौथाई हिस्सा पानी से ढका है। मात्र जल से भरा हुआ कुल क्षेत्र 13 करोड़ 16 लाख वर्ग मील पड़ता है। अन्तरिक्ष का विस्तार असीम है। जैसे-जैसे ऊपर की ओर बढ़ते हैं अन्तरिक्ष की परिधि उसी अनुपात में बढ़ती प्रतीत होती है। प्रकृति की सम्पदाएं जितनी पृथ्वी के गर्भ और उससे जुड़े वातावरण में सिमटी है उसकी तुलना में अन्तरिक्ष में कहीं अधिक परिमाण में सन्निहित हैं। अस्तु विस्तार की दृष्टि से ही नहीं वरन् भौतिक सम्पदा की दृष्टि से भी अन्तरिक्ष पृथ्वी की अपेक्षा कहीं अधिक सम्पन्न है।ऐसी स्थिति में अन्तरिक्ष विज्ञान का महत्व भू-विज्ञान की तुलना में कहीं अधिक बढ़ जाता है। जल और थल की तरह मनुष्य यदि चाहे तो अन्तरिक्षीय खोज में एक और कड़ी जोड़कर ग्रहों की गति और स्थिति से पृथ्वी के वातावरण तथा प्राणि जगत को जिस प्रकार की अनुकूलताएं और प्रतिकूलताएं सहन करनी पड़ती हैं, इस जानकारी से लाभान्वित हो सकता है। प्राचीन काल में ज्योतिर्विज्ञान आज के भौतिक विज्ञान की भांति ही सुविकसित था। ग्रहों की गतिविधियां तथा उनकी सूक्ष्म प्रतिक्रियाओं के विषय में जानकारी ऋषिगणों को भली प्रकार उपलब्ध रहती थी। फलतः वे अनुकूलताओं से लाभ उठाने तथा प्रतिकूलताओं से बचने का मार्ग निकाल लेते थे। मनुष्य जाति ने ज्ञान-विज्ञान की अनेकों शाखाओं को विकसित करके प्रगति पथ पर चढ़ चलने में अप्रतिम सफलता पाई है। अन्य विज्ञान की धाराएं सामयिक, सीमित और सम्बद्ध लोगों को प्रभावित करती हैं पर ग्रहों की सामर्थ्य अधिक प्रचण्ड और क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। ऐसी दशा में उनके साथ जुड़े हुए सम्बन्ध और आदान-प्रदानों के सम्बन्ध में मनुष्य की जानकारी भी विशद होनी चाहिए।भौतिक विज्ञान ने अन्तरिक्ष का महत्व समझा है। सर्वविदित है कि वायु एवं जल की अथाह सम्पदा आकाश के पोले ईथर में भरी है। विज्ञान के ज्ञाता इस तथ्य से परिचित हैं कि बिजली रेडियो, लेसर आदि तरंगें आकाश से संव्याप्त होती हैं। ध्वनि, ताप, प्रकाश आदि की तरंगें आकाश में प्रवाहित होती हैं तथा अन्तर्ग्रही अनुदान भी उसी क्षेत्र में मिलते हैं। अदृश्य जगत की सम्पदा सूक्ष्म अन्तरिक्ष में ही समाहित है। विचार तरंगें इसी परिसर में परिभ्रमण करती रहती हैं। ऐसे अनेकानेक आधार हैं, जिनसे स्पष्ट है कि भूमण्डल की तुलना में अन्तरिक्ष में विद्यमान साधन सम्पदा का महत्व और स्तर असंख्य गुना अधिक है।अध्यात्म वेत्ता अनादि काल से ही अपनी गतिविधियों को अन्तरिक्ष पर केन्द्रीभूत रखे रहे हैं। उनकी सामर्थ्यों का उत्पादन क्षेत्र अदृश्य जगत—सूक्ष्म जगत रहा है। ऋद्धि-सिद्धियां—भौतिक और आध्यात्मिक विभूतियां दिखाई तो प्रत्यक्ष रूप में पड़ती हैं, किन्तु इनका उपार्जन परोक्ष जगत से ही संभव हो पाता है। मानवी अन्तराल में तो उसकी बीज सत्ता भर विद्यमान है परन्तु वह सुविकसित होने और विभूतियों को करतलगत करने में अदृश्य सूक्ष्म जगत का ही अवलम्बन लेता है। साधना की तो जाती है अन्तराल में, पर उसका प्रतिफल दैवी शक्तियों का सहयोग लेने पर ही मिलता है।वैज्ञानिकों को लेसर से लेकर मृत्यु किरणों तक एक से बढ़कर एक शक्तियां आज आकाश से ही उपलब्ध हो रही हैं, जो सृजन अथवा ध्वंस का—दोनों का ही उद्देश्य पूरा करती रह सकती हैं। इन्हें युद्ध आदि में प्रयुक्त कर अणु विस्फोट जैसी विभीषिका उत्पन्न की जा सकती है। सदुपयोग द्वारा सुविधा सम्वर्धन हेतु बहुमूल्य उपलब्धियां भी प्राप्त की जा सकती हैं। इन दिनों रेडियो, तार टेलीफोन, टेलीविजन आदि संचार यन्त्रों में छोटे-छोटे उपग्रहों से अनेकों देशों में काम लिया जा रहा है जो पूर्णतया सफल रहा है। यह पद्धति सरल और सस्ती भी पड़ रही है। अब मौसम में इच्छानुकूल हेर-फेर की बात भी सोची जा रही है। ऋतुओं पर नियन्त्रण कर गर्मी-सर्दी घटा-बढ़ा लेने, इच्छानुकूल क्षेत्र में वर्षा करा लेने के प्रयोग परीक्षण भी चल रहे हैं। यदि ये सफल रहे तो मानवी सुविधा सम्वर्धन में भारी प्रगति हो सकती है। इस विपुल ऊर्जा के सर्वसुलभ होने के साथ-साथ समुद्र की लहरों से सीधे बिजली बना लेने और उसके खारे जल को मीठा कर लेने में भी कोई विशेष कठिनाई नहीं होगी। इस स्वप्न को साकार करने में वैज्ञानिक प्रतिभाएं जी-जान से लगी हुई हैं। उन्हें सफलता भी मिली है। लेकिन उज्ज्वल सपनों के साथ जुड़ा हुआ एक निराशाजनक पक्ष भी है। वह है—आविष्कारों एवं तकनीकी विकास से उत्पन्न होने वाले प्रदूषण संकट का। इस दृष्टि से पिछली प्रगति अधिक महंगी पड़ी है।विषाक्तता बढ़ने से आकाश में प्रदूषण इतना भर गया है। जिसके रहते मनुष्यों और प्राणियों को दुर्बलता और रुग्णता का अभिशाप सहते अकाल मृत्यु के मुंह में चले जाने के अतिरिक्त कोई चारा न रहेगा। अन्तर्ग्रही ही असन्तुलनों में भी वृद्धि हुई है। प्रकृति प्रकोप इन्हीं दिनों अधिक परिमाण में दृष्टिगोचर हो रहे हैं। पृथ्वी अन्य ग्रहों के प्रवाहों से निश्चित हो प्रभावित होती है। सौर मण्डल के चक्र में बंधी होने के कारण पृथ्वी का वातावरण भी अन्यान्य ग्रहों पर प्रभाव डालता है। अस्तु असन्तुलनों और प्रकृति विपदाओं में मनुष्य द्वारा प्रदूषित पृथ्वी के वातावरण का भी सहयोग हो सकता है, ऐसा पर्यावरण विशेषज्ञ मानने लगे हैं।विषाक्तता के परिशोधन का कोई कारगर उपाय नहीं सूझ रहा। ‘‘किंकर्त्तव्यविमूढ़’’ की भांति वैज्ञानिक यह सोच रहे हैं कि संव्याप्त आणविक एवं अन्यान्य कचरे को अन्तरिक्ष के किसी सुदूर कोने में फेंककर छुट्टी पा ली जाय। यह युक्ति मनुष्य के लिये कोई हानिकारक प्रभाव नहीं उत्पन्न करेगी, यह संदिग्ध है। अन्तरिक्षीय क्षेत्र में बढ़ते हुए तकनीकी कदमों के साथ बढ़ते उपग्रहों की संख्या भी भावी विभीषिकाओं का एक निराशाजनक पहलू प्रस्तुत करती है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।अमरीकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रोगन के स्टार वार की परिकल्पना एवं सुदूर अन्तरिक्ष में भेजे गए ‘‘स्पाय सेटेलाइट्स’’ की बढ़ती संख्या ने अब वैज्ञानिक समुदाय को यह सोचने पर विवश कर दिया है कि पृथ्वी के संसाधनों के दोहन को रोका ही जाना चाहिए, अन्तरिक्ष में मानव की छेड़-छाड़ के प्रतिकूल परिणामों से भी जनमानस को अवगत कराना चाहिए। ज्योतिर्विद एवं भौतिक विज्ञानी इस तथ्य को अब पहले की अपेक्षा और भी अधिक अच्छी तरह समझने लगे हैं। धरती से वनस्पति और खनिज सम्पदा उपलब्ध करने के प्रयास चिरकाल से चलते आ रहे हैं। इन दिनों उनमें कटौती की गई है और अन्तरिक्ष की खोज पर पूरा ध्यान केन्द्रित किया गया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि धरती और समुद्र के उपार्जन की आवश्यकता नहीं रही या वे क्षेत्र अब सम्पदा रहित हो गये। अन्तरिक्ष को प्रमुखता देने का अर्थ है कि वहां से अधिक मूल्यवान उपार्जन संभव है। उदाहरण के लिए सौर ऊर्जा को लिया जा सकता है। धरती पर कोयला, भाप, तेल, बिजली, अणु यह पांचों ईंधन जितने उपलब्ध हो सकते हैं वे कम भी पड़ते जा रहे हैं और महंगे भी सिद्ध हो रहे हैं। अस्तु प्रयत्न यह चल रहा है कि सौर ऊर्जा करतलगत की जाय। यह सस्ती है और अटूट भी। लेसर से लेकर मृत्यु किरणों तक एक से एक बढ़कर ऐसी शक्तियां आकाश से ही उपलब्ध हो रही हैं जो अणु विस्फोट जैसे आत्मघाती युद्धोन्माद के परिणाम उत्पन्न कर सकती हैं। न केवल युद्ध विजय वरन् सुविधा सम्वर्धन की दृष्टि से बहुमूल्य उपलब्धियां भी उसी से मिल सकती हैं। उदाहरण के लिए तार, टेलीफोन, रेडियो, टेलीविजन की आवश्यकता पूरी करने के लिए छोटे-छोटे उपग्रहों से काम लिया जा रहा है। यह पद्धति नितान्त सरल और सस्ती है। सोचा यह जा रहा है कि आकाश विजय के साथ ऋतुओं को नियन्त्रित किया जा सकेगा। जब जहां इच्छा हो, वहां उतनी वर्षा करा लेने—गर्मी-सर्दी को घटा-बढ़ा लेने से वनस्पति उपार्जन और प्राणियों की सुविधा में भारी प्रगति हो सकती है। सौर ऊर्जा के हस्तगत होते ही ईंधन का संकट सदा सर्वदा के लिए समाप्त हो जायेगा। तब समुद्र की लहरों से बिजली बना लेना और उसके खारे जल को मीठा बना लेने में कोई कठिनाई न रहेगी। यही है वे स्वप्न अथवा लक्ष्य जिन्हें पूरा करने के लिए अब विज्ञान, वैभव और वर्चस्व ने मिलकर आकाश विजय की ठान-ठानी है।प्रस्तुत संकटों में सबसे भयानक है वायु प्रदूषण। विषाक्तता बढ़ते जाने से आकाश में कचरा इतना भर गया है कि उसके रहते मनुष्यों एवं प्राणियों के लिए दुर्बलता, रुग्णता दुःख भोगते-भोगते अकाल मृत्यु के मुंह में चले जाने के अतिरिक्त और कोई चारा न रहेगा। धुंआ, विकिरण, कोलाहल आदि ने आकाश को विषवमन करने और अभिशप्त रहने की स्थिति में डाल दिया है। इसका परिशोधन करने का कारगर उपाय एक ही है कि इस कचरे को अनन्त अंतरिक्ष में कहीं अन्यत्र धकेल दिया जाय। धरती के इर्द-गिर्द फैले हुए वायु मण्डल के घेरे में इस अभिवृद्धि को कैसे रोका जाय? जो भरा हुआ है उसे शुद्ध कैसे किया जाय? इन दोनों प्रश्नों के कोई उत्तर सूझ नहीं रहे हैं, साथ ही यह तक नहीं सूझ रहा है कि दिन-दिन बढ़ने वाला कचरा किस प्रकार रुक सकता है। मशीनों का चलना बन्द किया जा सकना कठिन है। फिर ईंधन जलने और विषैली भाप उड़ने पर भी अंकुश कैसे लगे? इस जीवन-मरण की समस्या के लिए अपने आकाश के साथ कुछ तालमेल बिठाने को बात सोचनी पड़ रही है। अन्तरिक्ष का महत्व ऐसे-ऐसे अनेक कारणों से स्वीकारा गया है और उसके अन्वेषण, परीक्षण, आधिपत्य से लेकर दोहन तक के लिए, कदम बढ़ाया गया है।इस सन्दर्भ में यह तथ्य भी ध्यान रखने योग्य है कि अन्तरिक्ष क्षेत्र से अध्यात्म क्षेत्र को दूर रखने से अब काम चलने वाला नहीं है। वरन् समय को देखते हुए पर्व काल की अपेक्षा उस क्षेत्र में अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। भूतकाल में अन्तरिक्ष में कोई संकट नहीं था। प्रतिकूलताओं से लड़ने जैसी कोई बात नहीं थी। अनुकूलताएं बढ़ाने भर का उद्देश्य सामने था। इसके लिए कुछ थोड़े से ही लक्ष्य और प्रयत्न पर्याप्त माने जाते थे। वर्षा पर नियन्त्रण प्राप्त करने और उसके साथ प्राण तत्व को धरती पर उतारने की पर्जन्य प्रक्रिया काम में लाई जाती थी, फलतः अन्न, वनस्पति एवं पशुधन की प्रचुरता तथा समर्थता का समुचित लाभ मिलता था। सतयुग में कहीं कोई अभाव नहीं था। इस सन्दर्भ में मानवी प्रयत्न यज्ञोपचार द्वारा अन्तरिक्ष के अनुकूलन के रूप में सफल होते रहते थे। प्राणियों के लिए सबसे प्रमुख आहार वायु है। सांस के द्वारा जो ग्रहण किया जाता है वह मुख के द्वारा खाये और पेट के द्वारा पचाये आहार की तुलना में असंख्य गुना अधिक मूल्यवान है। यज्ञोपचार द्वारा प्राणवायु की उच्चस्तरीय मात्रा जीवधारियों को मिलती रहती थी और उनकी शारीरिक ही नहीं मानसिक स्थिति भी ऊंची रहती थी। सतयुग उन्हीं उपलब्धियों की काल परिधि को कहा जाता था।साधना स्वाध्याय, सत्संग, मनन, चिन्तन द्वारा प्राणवान आत्माएं आकाश में ऐसे प्रचण्ड प्रवाह छोड़ती थीं जिनमें जन मानस को अनायास ही बहते रहने और श्रेष्ठ चिन्तन के फलस्वरूप उत्पादित उच्च चरित्र का लाभ मिलता था। अन्तरिक्ष उच्चस्तरीय विचार सम्पदा से भरा रहता था। इसमें अध्यात्म क्षेत्र के मूर्धन्य मनीषी सदा प्रयत्नरत रहते थे।ज्योतिर्विज्ञान का एक और पक्ष है अन्तर्ग्रही प्रवाहों में हेर-फेर कर सकने की क्षमता का उपार्जन। चेतना की शक्ति का तत्वज्ञान जिन्हें विदित है वे यह भी समझते हैं कि जड़ पर नियमन करने की सामर्थ्य भी उसे प्राप्त है। शरीर के बहुमूल्य यन्त्र को प्राण की चेतना ही चलाती और जीवित रखती है। रेल, मोटर, जहाज स्वसंचालित यन्त्र उपग्रह आदि चलते भले स्वयं हों पर उनका संचालन विचारशील मनुष्य ही करते हैं। उनमें प्रचण्ड शक्ति विद्यमान तो है पर मात्र अपनी धुरी पर ही परिभ्रमण कर सकती है उसे दिशा देनी हो अथवा उलट-पुलट करनी हो तो उसमें चेतना को ही अपना पुरुषार्थ प्रकट करना होगा। अन्तर्ग्रही प्रवाह जैसे भी चलते हैं उनका सामान्य क्रम अपने ढर्रे पर ही चलता रहेगा। उसमें अतिरिक्त परिवर्तन करना हो तो चेतना की सामर्थ्य का ही उपयोग करना होगा। अन्तर्ग्रही शक्तियों की विशालता और प्रचण्डता अद्भुत और कल्पनातीत है। इतने पर भी यह तथ्य समझा जाना चाहिए कि चेतन की प्राणशक्ति का प्रहार उस प्रवाह में सारे परिवर्तन कर सकता है। ऐसे परिवर्तन जो पृथ्वी के प्राणियों के लिए उत्पन्न अविज्ञात कठिनाइयों को रोकने और अदृश्य अनुदानों को बढ़ाने में समर्थ हो सके। ग्रह विज्ञान की पूर्णता इसी में है कि स्थिति की जानकारी तक सीमित न रहकर अभीष्ट हेर-फेर भी कर सके। रोग का निदान ही पर्याप्त नहीं कुशल चिकित्सक को रुग्णता हटाने और आरोग्य बढ़ाने का उपचार भी करना होता है। ज्योतिर्विज्ञान न केवल ग्रह नक्षत्रों की स्थिति से अवगत कराता है वरन् सूक्ष्म जगत में उसके अदृश्य प्रभावों के अनुकूलन का भी प्रबन्ध करता है।जो इन अविज्ञान तथ्यों को समझ सकें उन्हें यह जानने में कठिनाई न होगी कि मानव जाति के सामने प्रस्तुत अनेकानेक विभीषिकाओं के पीछे विद्यमान अदृश्य कारणों का निराकरण करने में यह विज्ञान कितना अधिक कारगर हो सकता है। नव निर्माण के लिए मानवी पुरुषार्थ की आवश्यकता और महत्ता तो निश्चित रूप से है ही किन्तु साथ ही समझना यह भी चाहिए कि इस पुण्य प्रयोजन में अदृश्य शक्तियों का अनुकूलन भी अभीष्ट है। इस क्षेत्र की जानकारी तथा परिवर्तन की विधि व्यवस्था में ज्योतिर्विज्ञान की सहायता लेना आवश्यक है। अभीष्ट परिवर्तन में मानवी प्रयासों के अतिरिक्त अदृश्य का अनुकूलन भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।इस सन्दर्भ में एक बात और जान लेने योग्य है कि ब्रह्माण्ड में मात्र जड़ ग्रह पिण्ड ही परिभ्रमण नहीं करते इसमें सचेतन शक्तियों का अस्तित्व, प्रयास, प्रभाव भी कम नहीं है। ब्रह्माण्ड के शोधकर्त्ता अब इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके हैं कि अन्तरिक्ष में पृथ्वी जैसी स्थिति कितने ही अन्य ग्रहों की भी है और उनमें मनुष्यों से भी अधिक विकसित प्राणी रहते हैं। उनका ज्ञान और विज्ञान धरती निवासियों की तुलना में कहीं अधिक बढ़ा-चढ़ा है। यह कपोल कल्पना नहीं है। अब ऐसे प्रमाण मिल रहे हैं जिनसे प्रतीत होता है कि अन्यान्य ग्रह-नक्षत्रों में न केवल विकसित स्तर के प्राणियों के अस्तित्व की संभावना है, वरन् वे अन्तर्ग्रही उड़ानों द्वारा पृथ्वी निवासियों के साथ सम्पर्क साधने के लिए प्रयत्नशील भी हैं।अन्तरिक्ष में अवस्थित इन सुविकसित प्राणियों के साथ सम्पर्क साधना सम्भव हो सके तो निश्चित ही मनुष्यों को विशेष लाभ प्राप्त होगा। निश्चय ही इतनी बड़ी सभ्यता के अधिकारी धरती जैसी दरिद्र और उस पर रहने वाले पतित पीड़ित लोगों पर आक्रमण करने और यहां से लूट ले जाने के लिए इतनी कष्ट साध्य यात्राएं नहीं कर सकते। उनका उद्देश्य इस लोक के प्राणियों को अपनी उपलब्धियों से लाभान्वित करना ही हो सकता है। भारत के ऋषि, मुनि समस्त संसार में ज्ञान और विज्ञान का वितरण करने के सदुद्देश्य से परिभ्रमण करते रहे हैं। इससे कम सदुद्देश्य इन अन्तर्ग्रही महामानवों का भी नहीं हो सकता। वे हमने सम्पर्क साधने का प्रयत्न करते हैं, पर वह सधता नहीं। क्योंकि इस लोकवासियों की क्षमता उनकी ओर हाथ बढ़ाने एवं सहयोग करने की नहीं है। इस क्षेत्र में अधिक बाधक अन्तर्ग्रही विशिष्ट विज्ञान के सम्बन्ध में अपना अनजान होना ही है। यह विद्या प्राचीनकाल की तरह विकसित स्तर की रही होती तो वह सम्पर्क सध सका होता जिसके लिए उड़न तश्तरियों में—अन्तर्ग्रही यानों में—बैठ कर आने वाले महाप्राण प्रयत्नशील हैं।प्राचीनकाल में नारद आदि ‘विशिष्ट’ अन्तर्ग्रही यात्राएं करते रहे हैं। लोक-लोकान्तरों में उनके परिभ्रमण का जो वृत्तान्त मिलता है वह सही है, निश्चय ही उस सफलता का आधार वह उच्चस्तरीय ज्योतिर्विज्ञान ही रहा होगा जो इन दिनों एक प्रकार से लुप्त ही हो गया है एवं उसका स्थान भाग्यवाद पर आधारित फलित ज्योतिष ने ले लिया है।प्रेतों और पितरों के सम्बन्ध में आस्तिक और नास्तिक, श्रद्धालु और तार्किक कुछ न कुछ जानते और मानते हैं। इनकी भी एक दुनिया है। परलोक, प्रेतलोक, स्वर्ग, नरक आदि के नाम से इसकी चर्चा होती रहती है। यह भी जीवित मनुष्यों जैसी एक दुनिया है। आदान-प्रदान का रास्ता खुला रहता तो जिस प्रकार जलचरों और नभचरों का अस्तित्व मनुष्यों को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रभावित करता है उसी प्रकार इन दिवंगत आत्माओं का सहयोग जीवितों के लिए कई प्रकार से उपयोगी हो सकता है। जीवाणु, परमाणु, विषाणु की जानकारी ने मानवी सुविधा क्षेत्र को बढ़ाया है। अनन्त अन्तरिक्ष में बसी हुई इन सूक्ष्म शरीर धारियों की दुनिया यदि जीवितों के साथ सहकार बना सकी होती तो दिवंगतों को अतृप्त घूमना न पड़ता और न मनुष्य को उनके दिव्य सहयोग से वंचित रहना पड़ता। दिवंगत स्वजन सम्बन्धियों के साथ प्रेमाचार तो और भी अधिक सरल है।देवता इससे ऊंची स्थिति की चेतन सत्ता है। सौर मण्डल के ग्रह और उपग्रह भौतिक दृष्टि से रासायनिक पदार्थों से बने, बड़े आकार वाले चलते-फिरते ढेले भर हैं। किन्तु आत्म विज्ञानी जानते हैं कि प्रत्येक जड़ सत्ता का एक चेतन ‘अभियान’ होता है। उसी के नियमन में इन घटकों को अपनी गतिविधियां उपयुक्त रीति से चलाने का अवसर मिलता है। नव ग्रहों को अध्यात्म शास्त्र में देवता माना गया है। खगोल विद्या में वे पदार्थ पिण्ड गिने जाते हैं। अपने-अपने स्थान पर दोनों परिभाषाएं सही हैं। दिव्यदर्शियों ने तैंतीस कोटि देवता गिनाये हैं। कोटि का अर्थ यहां ‘करोड़’ नहीं ‘श्रेणी’ ही समझा जाना चाहिए। इस समुदाय में ग्रह पिण्ड, निहारिकाएं, पंचतत्व, पंच प्राण, देवदूत, जीवन मुक्त, व्यवस्थापक, सहायक वर्ग की उन दिव्य सत्ताओं को गिना जा सकता है जो परब्रह्म न होते हुए भी उसकी व्यवस्था में हाथ बंटाती रहती हैं। देवाराधन की प्रक्रिया से इन्हीं के साथ सम्पर्क साधने और आदान-प्रदान का द्वार खोलने का प्रयत्न किया जाता है।भू-मण्डल से बाहर अनन्त अन्तरिक्ष बिखरा पड़ा है। विज्ञान ने पृथ्वी तथा उसके सम्बन्ध वाले अति निकट क्षेत्र से सम्पर्क साधा और अनुसन्धान किया है। इससे बाहर का ब्रह्माण्ड विस्तार अत्यन्त व्यापक है। इसमें पदार्थ भी है और चेतना भी। ग्रह-नक्षत्रों से लेकर असंख्य स्तर की ऊर्जा तरंगों तक का पदार्थ भाण्डागार इसी ब्रह्माण्ड में समाया हुआ है। पितरों से लेकर महाप्राण और देव समुदाय तक के अनेकों सूक्ष्म शरीरधारी इसी विस्तार में निवास करते और अपना विशिष्ट संसार चलाते हैं। इस प्रत्यक्ष और परोक्ष का आज एक-दूसरे के साथ ऐच्छिक आदान-प्रदान स्थापित नहीं हो पा रहा है। प्रकृति प्रवाह से जो अनायास ही मिल जाता है उतने भर से सन्तुष्ट रहना पड़ रहा है।युग परिवर्तन और नव सृजन के लिए मात्र मनुष्यों के ज्ञान, एवं साधना का नियोजन तो होना ही चाहिए, पर उतने से ही इतना बड़ा कार्य सम्पन्न हो नहीं सकेगा। परिवर्तन की अधिकांश प्रक्रिया सूक्ष्म जगत में सम्पन्न होगी। प्रत्यक्ष में तो उसकी प्रतिक्रिया भर दृष्टिगोचर होगी। इस प्रयोजन के लिए जागृत आत्माओं की तत्परता और विभूतियों की सहायता जहां अपेक्षित है, यहीं परोक्ष का सहयोग प्राप्त करने की आवश्यकता को भी ध्यान में रखा जाना है। ज्योतिर्विज्ञान का नव निर्धारण इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए अनिवार्य है।भौतिक विज्ञान तथा उसका तकनीकी ज्ञान प्राचीन काल में इतना सुविकसित न था। पर जिन उपलब्धियों के लिए अन्तरिक्ष विज्ञानी प्रयत्नशील हैं वे सारे प्रयोजन ज्योतिर्विज्ञान द्वारा गणना आदि के माध्यम से पूरे कर लिए जाते थे। अन्तरिक्ष के अन्तराल में ग्रह, नक्षत्रों की स्थिति अनुदान तथा उनके हानिकारक प्रभावों की जानकारी ज्योतिर्विज्ञान देता था। आत्म-विज्ञान उनसे लाभ उठाने-प्रतिकूलताओं से सुरक्षा उपचार की विधि व्यवस्था जुटाता था। अतीत की खोई हुई इस महान विद्या ज्योतिर्विज्ञान की विलुप्त कड़ियों को ढूंढ़ने की पुनः आवश्यकता है। इस विज्ञान की पुनर्प्रतिष्ठा हो सके तो विज्ञान से कदम से कदम मिलाकर चलते हुए—बिना किसी क्षति के अन्तरिक्ष जगत से एक से बढ़कर एक भौतिक एवं अन्यान्य अनुदानों के रूप में लाभान्वित हो सकना संभव है।