Books - अन्तरिक्ष विज्ञान एवं परोक्ष का अनुसन्धान
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वातावरण के संशोधन हेतु संगठित पुरुषार्थ
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वातावरण जिसमें हम रहते हैं, चेतनात्मक है। उसका संबंध प्राण-प्रवाह के स्तर से है। ऐसी मान्यता है कि सत्युग में ऐसा अदृश्य प्राण-प्रवाह चलता था जिससे व्यक्तित्वों की भावना, मान्यता प्रभावित होती थी। इसी कारण उनके गुण, कर्म, स्वभाव में उत्कृष्टता भरी होती थी। चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में आदर्शवादिता का समावेश रहता था। मानवी पुरुषार्थ का भी इसमें योगदान रहता था, पर इस प्रयोजन को सफल बनाने में अदृश्य वातावरण की भूमिका—अनुकूलता का भी भारी योगदान रहता था। परिस्थितियां मनःस्थिति के आधार पर इतने बड़े करवट लेती है कि उसे भाग्य विधान, ईश्वरेच्छा जैसा नाम देना होता है। इसलिये अदृश्य जगत में संव्याप्त वायुमण्डल की तरह ही उसका दूसरा पक्ष वातावरण भी कम महत्वपूर्ण नहीं होता।इन दिनों बढ़ती विषाक्तता एवं उससे वायुमण्डल तथा वातावरण दोनों के ही प्रभावित होने की स्थिति का गम्भीर पर्यवेक्षण करें तो ज्ञात होता है कि इनका मूल कारण प्रचलन-प्रवाह तक ही नहीं है। इसकी जड़ें अदृश्य वातावरण में बड़ी गहराई तक घुसी दृष्टिगोचर होती हैं। दुष्चिंतन की भरमार से विषाक्त अदृश्य वातावरण और इससे फिर लोक-मानस में असुरता-निकृष्टता का बढ़ना। यह एक ऐसा कुचक्र है जो एक बार चल पड़ने पर फिर टूटने का नाम नहीं लेता। लोक चिन्तन व प्रवाह का अदृश्य वातावरण से अन्योन्याश्रय संबंध है।इस कुचक्र को संघबद्ध प्रयासों द्वारा तोड़ना ही होगा। परमात्मा की तरह आत्मा को भी अपना उत्तरदायित्व निभाना होगा। अवतार प्रकरण की सूक्ष्म प्रक्रिया अपने स्थान पर है लेकिन सुधार प्रयोजन का दूसरा पक्ष मनुष्यकृत है जिसे जागृत व्यक्ति आपत्ति धर्म की तरह अपनाते और सृष्टा के प्रयोजन में हाथ बंटाते हैं। उन्हें अध्यात्म उपचारों का आश्रय लेना पड़ता है। विशालकाय सामूहिक धर्मानुष्ठान प्रायः इसी प्रयोजन के लिए किये जाते हैं।लंका विजय में असुरों का संहार तो हुआ पर अदृश्य वातावरण में विषाक्तता भरी होने के कारण लगा कि सामयिक समाधान भर पर्याप्त नहीं, अदृश्य का भी संशोधन होना चाहिए। श्रीराम ने दस अश्वमेधों का नियोजन इसी निमित्त किया। कुरुक्षेत्र में महाभारत विजय के उपरान्त कंस, दुर्योधन, जरासंधु से तो पीछा छूटा पर अदृश्य की विषाक्तता यथावत् रहने से स्थायी समाधान न सूझा। अन्ततः अध्यात्म उपचार का आश्रय लिया गया एवं विशालकाय राजसूय यज्ञ की भी ऐसी ही अध्यात्म परक योजना बनाई गई।सामूहिक धर्मानुष्ठानों से अदृश्य वातावरण की संशुद्धि के और भी अगणित प्रमाण-उदाहरण इतिहास पुराणों में भरे पड़े हैं। आसुरी सत्ता से भयभीत देवगणों को रक्षा का आश्वासन ऋषिरक्त के संचय से बनी सीता के माध्यम से मिला था। इसी प्रकार देवता जब संयुक्त रूप से प्रजापति के पास पहुंचे, एक स्वर से प्रार्थना की तो महाकाली प्रकट हुई जिन्होंने असुरों का संहार किया। संघशक्ति की ही यह परिणति थी। जिस समय राम रावण युद्ध हो रहा था, अगणित अयोध्यावासी मौन धर्मानुष्ठान रत थे ताकि अनय परास्त हो, नीति की विजय हो। ये सभी उदाहरण सामूहिकता के माध्यम से वातावरण को संशोधित करने के घटनाक्रमों पर लागू होते हैं।सामूहिकता में असाधारण शक्ति है। दो निर्जीव वस्तुएं मिलकर एक+एक=दो ही बनती हैं जबकि प्राणवानों की एकात्मकता कई गुना हो जाती है। तिनके-तिनके मिलकर रस्सा बंटने, धागों के बुन जाने से कपड़ा बनने, ईंटों से इमारत, बूंदों से समुद्र तथा सींकों से बुहारी बनने के उदाहरण यही बताते हैं कि मिलकर एक हो जाने की परिणति कितनी महान होती है। एक लय-ताल से जब संघात किया जाता है तो बड़ी विस्फोटक परिणति की सम्भावनाएं दृश्यमान होने लगती हैं। तालबद्ध ढंग से परेड करती फौज ध्वनि शक्ति द्वारा पुल तोड़ सकती है तथा एक छोटा-सा पेण्डुलम निरन्तर संघात से गार्डर तोड़कर भवन धराशायी कर सकता है। समूहबद्ध ढंग से की गयी प्रार्थना में वह प्रभाव है जो वातावरण के प्रवाह को बदल-उलटकर असम्भव को भी सम्भव बना सकता है। आज जो परिस्थितियां हैं, वे न रहकर सतयुग के अरुणोदय जैसी स्वर्गीय परिस्थितियां उभर सकने जैसी भविष्य वाणियां दिव्यदर्शियों ने अपने भविष्य कथन में व्यक्त की हैं, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।मानव निर्मित वातावरण की जहां चर्चा की जा रही है वहां यह भी स्मरण रखना चाहिए कि अवसर आने पर इसकी भूमिका बड़ी विशिष्ट होती है। एक चिन्तन—एक प्रयास जब आंधी की तरह चलता है, सारे वातावरण को हिलाकर रख देता है। इसका एक उदाहरण ‘युद्धोन्माद’, ‘‘मॉब मेन्टलिटी’’ के रूप में देखा जा सकता है। ऐसी स्थिति में दिमाग पर मात्र लड़ने का आवेश छाया होता है। हवा में तेजी और गर्मी कुछ ऐसी होती है जिसके कारण सामान्य व्यक्ति भी सम्मोहित होकर, असामान्य पुरुषार्थ करते देखे जाते हैं।महात्मा गांधी का सत्याग्रह आन्दोलन, दाण्डी यात्रा मानव निर्मित प्रवाह का एक स्वरूप है। अगणित व्यक्ति स्वेच्छा से जेल गए। मस्ती की इस जंग में अनेकों शहीद हो गए। स्वतन्त्रता इस आंधी प्रवाह की परिणति थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय विंस्टन चर्चिल ने हाथ की उंगलियों से अंग्रेजी का ‘वी’ (v) बनाते हुए एक नया नारा दिया था—‘वी फॉर विक्ट्री।’ इस नारे ने जन-साधारण का आत्मबल ऐसा बढ़ाया कि अन्ततः जीत नाज़ीवाद से संघर्ष करने वाली समूह शक्ति की ही हुई।नियाग्रा जल प्रपात के बारे में अमरीका की जनजातियों में यह मान्यता संव्याप्त है कि जिस दिन यह झरना बन्द हो गया, प्रलय आ जाएगी। संयोगवश इसी सदी में एक बार हिम ग्लेशियर के नदी के उद्गम स्रोत पर जम जाने से कुछ घण्टों के लिए झरने से पानी गिरना बन्द हो गया। विश्व के सबसे बड़े प्रपात के थम जाने से सारा अमरीकन समुदाय अनायास ही शंकित हो उठा। सारे राष्ट्र में चर्चों में घण्टियां बजने लगी एवं सामूहिक प्रार्थना की जाने लगी। कुछ ही घण्टों में वह प्रपात फिर बहने लगा। पर्यावरण विशेषज्ञों का कथन है कि सामान्यतः ऐसा होता नहीं (ग्लेशियर का जमना) परन्तु होने पर इतना शीघ्र पूरे प्रवाह से नदी का शीत ऋतु में भी बह निकलना अपने आप में अविज्ञात रहस्य है। स्कायलैब के गिरने व सारे विश्व में उसके गिरने से होने वाली क्षति से आशंकित जन-साधारण द्वारा प्रार्थना व उसके समुद्र पर गिरकर नष्ट होने का वर्णन तो अभी-अभी का ही है।मुस्लिमों की नमाज का एक सुनिश्चित समय होता है। अजान का समय होते ही जो व्यक्ति जहां भी है, तुरन्त अपनी उपासना का शुभारम्भ कर देता है। ईसाई रविवार प्रातः एकत्र होते हैं तथा चर्च में सामूहिक प्रार्थना करते हैं। मिलिट्री की ‘रिट्रीट’ जब भी होती है, जो व्यक्ति जहां होता है, वहीं सावधान मुद्रा में खड़ा हो जाता है। ये सारे उदाहरण एक समय एवं सामूहिकता की शक्ति की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए बताए जा रहे हैं।प्रज्ञा अभियान का प्रस्तुत प्रयास पुरुषार्थ कई विशेषताएं लिए हुए है। अगणित व्यक्तियों की प्राण ऊर्जा, एक-सा चिन्तन, शब्द शक्ति की अपरिमित क्षमता एक समय—एक साथ जप, ध्यान तथा महाप्रज्ञा की प्रेरणा का चिन्तन—इन सभी का प्रज्ञा पुरश्चरण में समावेश है। साधक पांच मिनट तक सूर्योदय के साथ ही गायत्री मन्त्र का मौन-जप करते हैं। अन्तरिक्ष में परिशोधन हेतु आहुतियों का यह परोक्ष यज्ञ है। जितना अधिक उच्चारण इस मन्त्र का सृष्टि के आदि से अभी तक हुआ है उतना किसी का नहीं हुआ। शब्द शक्ति ओंकार गुंजन के रूप में समग्र अन्तरिक्ष में संव्याप्त है। ऐसी स्थिति में उच्चारित मन्त्र की शक्ति का प्रभाव द्विगुणित हो जाता है। सहधर्मी कम्पन परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते ही हैं।शब्द शक्ति सूक्ष्म मानव शरीर तथा परोक्ष अन्तरिक्षीय संसार को प्रभावित करने वाली एक समर्थ ऊर्जा शक्ति है। यह जीभ से नहीं, मन व अन्तःकरण से निकलती है। लोक प्रवाह को निकृष्टता से उलटकर उत्कृष्टता की ओर मोड़ने के लिए उच्चस्तरीय शब्द सामर्थ्य चाहिए। साधक स्तर की उत्कृष्ट जीवनचर्या वाले मांत्रिक जब एक साथ पुरश्चरण सम्पादित करते हैं तो ऋषि कल्प महामानवों जैसी वातावरण को आमूल चूल बदले देने की सामर्थ्य विकसित होने लगती है। तपःपूत उच्चारण ही मन्त्र जाप है। सदाशयता को संघबद्ध करने और एक दिशा में चल पड़ने की व्यवस्था बनाने के लिए इस जप का सामूहिक अनुष्ठान स्वरूप ही आदर्श है। श्रुति ने आदेश भी दिया है—‘‘सहस्र सा कमर्चत्’’ अर्थात्—‘‘हे पुरुषों तुम सभी सहस्रों मिलकर देवार्चन करो।’’ वस्तुतः सामवेद और ऋग्वेद की समस्त ऋचाएं सामूहिक गान ही तो हैं।लोहे का लम्बा गार्डर, सीमेन्ट का एक बड़ा पिलर अकेला एक व्यक्ति नहीं उठा पाता। जब कई व्यक्ति मिलकर ‘‘हईसा’’ के निनाद के साथ जोर लगाते हैं तो वे उसे उठाकर खड़ा कर देते हैं। बड़े-बड़े भवन इससे बन जाते हैं। लेकिन जब यही शब्द शक्ति शुभ कामना का चिन्तन लिए एक साथ कई व्यक्तियों द्वारा उच्चारित होती है, एक सी तरंगें जन्म लेती है और बदले में शुभ विचारों की वर्षा ऊपर से करती है। ‘‘धियो यो नः प्रचोदयात्’’ ‘‘आग्नेय सुपथा राये अस्मान्’’ “आनो भद्रा कृणवो यन्तु विश्वतः’’—इन सभी मन्त्रों में सारे समूह के लिए श्रेष्ठ विचारों की—सन्मार्ग पर चलने की भारी प्रार्थना की गयी है। एक सी भाव लहरें एक ही चित्त वृत्ति को जन्म देती हैं। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार एक फ्रीक्वेंसी पर तरंगें उत्पन्न होने पर वे अप्रत्याशित परिवर्तन लाती है। अल्ट्रासोनिक तरंगों से रोगों का निदान व चिकित्सा की जाने लगी है। माइक्रोवेव्स से न केवल संपर्क वरन् ऊर्जा उत्पन्न करने में भी सफलता मिली है। गायत्री मन्त्र की विशेषता उसे वह स्तर प्रदान करती है जिससे वह सामूहिक उच्चारण के माध्यम से अन्तरिक्ष को मथने में समर्थ हो सके। ‘‘सिम्पेथेटिक वाइब्रेशन’’ के सिद्धान्त पर आधारित यह प्रक्रिया ‘‘लाइटनिंग’’ तड़ित विद्युत जैसी सामर्थ्य रखती है।वैज्ञानिकों का कथन है कि शब्द शक्ति से इलेक्ट्रोमैग्नेटिक लहरें उत्पन्न होती हैं। जो स्नायु प्रवाह पर वांछित प्रभाव डालकर उनकी सक्रियता ही नहीं बढ़ाती वरन् विकृत चिन्तन को रोकती व मनोविकार मिटाती हैं। एक अन्य निष्कर्ष के अनुसार संसार के पचास व्यक्ति यदि एक साथ एक शब्द का तीन घण्टे तक उच्चारण करें तो उससे छह हजार खरब वाट विद्युत शक्ति पैदा होगी। सारे विश्व में इससे घण्टों तक प्रकाश किया जा सकता है।विशिष्ट बात यह है कि पृथ्वी जिसका चुम्बकत्व 0.5 गॉस है, हमेशा 0.1 से 100 साइकल्स प्रति सेकेंड की गति से स्पन्दन छोड़ती रहती है। इन चुम्बकीय धाराओं को ‘‘शूमैन्स रेजोनेन्स” कहा जाता है। इसकी गति साढ़े सात साइकल्स प्रति सेकेंड है। यह चुम्बकीय प्रभाव लगभग उतना ही है जितने की मस्तिष्क का विद्युत उद्भव। ब्रेनवेव्स की तरंगें भी अल्फाव थीटावेव्स के मध्य साढ़े सात साइकल्स की होती है। यह तथ्य व्यष्टि चेतना के उस महत् चेतना से विद्युत चुम्बकीय सम्बन्धों को सिद्ध करता है। मन्त्र शक्ति के कम्पन दोनों ही चेतन धाराओं को ‘‘इनट्यून’’ करके उन्हें बड़े विस्तार से समग्र ब्रह्माण्ड में फैला देते हैं।शोध निष्कर्ष बताते हैं कि शरीर में प्राण शक्ति को प्रवाहित रखने के लिये उत्तरदायी ‘‘सिरोटोनिन” नामक हारमोन ‘पीनियल’ ग्रन्थि से प्रातःकाल ही प्रवाहित होता है। मन की सक्रियता, काया की स्फूर्ति सार्थक मन्त्रोच्चार हेतु अनिवार्य मानी जाती है।बड़े वजन उठाने या धकेलने वाले मजूर एक साथ हल्ला बोलकर संयुक्त बल लगाने के सिद्धान्त को भली प्रकार समझते हैं। इसी आधार पर वे कठिन कार्य सम्पन्न करते हैं। संयुक्त बल एक साथ लगाने का क्रम न बने तो फिर बड़े भार वाले चट्टान को इधर से उधर ले पहुंचना और किसी प्रकार सम्भव नहीं हो सकता है। संयुक्त शक्ति के ऐसे प्रमाण परिचय छप्पर उठाने आग बुझाने जैसे छोटे-मोटे कार्यों में आये दिन दृष्टिगोचर होते रहते हैं।बिखराव में सामर्थ्य का कितना अपव्यय होता है और उसके विकेन्द्रीकरण से उत्पन्न चमत्कार कितने प्रचण्ड होते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। सूर्यकिरणें पृथ्वी पर पड़ती और छितराती रहने के कारण मात्र गर्मी रोशनी भर उत्पन्न करती हैं। यदि एक इन्च परिधि की सूर्य किरणें आतिशी शीशे के द्वारा एकत्रित कर ली जायं तो देखते-देखते चिनगारियां उठने लगेंगी और उनके दावानल बनने में देर न लगेगी।तनिक सी भाप के केन्द्रीकरण द्वारा प्रेशर कूकर से लेकर विशालकाय वायरल प्रचण्ड सामर्थ्य का परिचय देते देखे गये हैं। वर्षा का बिखरा जल जहां-तहां बहता रहता है, पर जब वह किसी नदी नाले में एकत्रित होकर एक दिशा पकड़ता है तो उसे हाथी तक बहा ले जाने वाले प्रवाह का रौद्र रूप धारण करते देखा गया है। बिखरी हुई ढेरों बारूद को जलाने पर भक से उड़ती देखी गई हैं, किन्तु यदि तनिक-सी मात्रा एक कारतूस में बन्द करके छोटी नली वाली बन्दूक द्वारा चला दी जाय तो सिंह के आर-पार निकलने, कड़े लक्ष्य बेधने में सफल होती है। विचारों की एकाग्रता से उत्पन्न होने वाली ध्यान शक्ति का महत्व योगीजन भली प्रकार समझते हैं।देव-दानव संघर्ष में देवताओं के बार-बार हारने और असुरों के बार-बार जीतने के पीछे कारण ढूंढ़ा जाय तो बिखराव और एकत्रीकरण के भिन्न परिणामों का प्रमाण परिचय स्पष्टतः सामने आ खड़ा होता है। देवता हर दृष्टि से वरिष्ठ और समर्थ होते हुए भी इसलिए हारते रहे कि उनने संयुक्त शक्ति विकसित करने की आवश्यकता नहीं समझी और अपनी ढपली, अपना राग बजाते रहे। जबकि दैत्यों ने गठन का महत्व समझा और गिरोह बनाकर हमला किया। इस एक ही विशेषता के कारण वे जीते, यद्यपि वे हर दृष्टि से देवताओं की तुलना में पिछड़े हुए थे।धर्मशीलों की संकल्प शक्ति का एकत्रीकरण और उसका सामयिक समस्या के समाधान में उपयोग है, एक महत्वपूर्ण आधार जिसके कारण सामूहिक धर्मानुष्ठानों से उन परिणामों की आशा की गई है जो प्रस्तुत विपन्नता से विश्व-व्यवस्था को उबार सकें।परिशोधन हेतु धर्मानुष्ठानों की आवश्यकतावृक्ष का तना आंखों से दीखता है पर उसमें जीवन संचार करने वाली जड़ें जमीन में नीचे दबी होती हैं, दीखती नहीं। मनुष्य का शरीर दीखता है, प्राण नहीं। परिस्थितियों का आंकलन होता है पर उनके पीछे कठपुतली के धागों जैसा सूत्र संचालन करने वाली मनःस्थिति का समझने समझाने की ओर ध्यान ही नहीं जाता। यही बात दृश्यमान भली-बुरी परिस्थितियों के संबंध में भी है। अनुकूलता और प्रतिकूलता से संबंधित घटनायें—हलचलें—समस्यायें दृष्टिगोचर होती हैं और आमतौर से उनके उपचार साम, दाम, दण्ड, भेद के आधार पर सोचे, खोजे और कार्यान्वित किये जाते रहते हैं। यह उचित भी है और आवश्यक भी, किन्तु इतने भर को पर्याप्त नहीं माना जाना चाहिए।निशाने पर गोली लगती है और बन्दूक उसे चलाती है। इस प्रत्यक्ष के पीछे चलाने वाले का अभ्यास और साहस भी परोक्ष रूप से काम करता है उसके अभाव में कारतूस और बन्दूक सब प्रकार ठीक होने पर भी काम बनता नहीं। पौष्टिक आहार और कारगर औषधि उपचार की महिमा अस्वीकार करने का कोई कारण नहीं पर पाचन तन्त्र का सही होना भी कम आवश्यक नहीं। यहां भी प्रत्यक्ष की तुलना में परोक्ष की गरिमा कम नहीं आंकी जा सकती। अच्छी पौध लगाने से ही बगीचा खड़ा नहीं हो जाता, भूमि की उर्वरता, मौसम की अनुकूलता तथा माली की कुशलता भी उसके लिए आवश्यक है। अच्छे विद्यालय की भर्ती और सुयोग्य अध्यापक की नियुक्ति से ही कोई विद्वान नहीं हो जाता इसमें छात्र की लगन और मेधा अपनी भूमिका निभाती है।व्यक्ति और समाज के सम्मुख प्रतिकूलताओं, कठिनाइयों, समस्याओं के समाधान के निराकरण और अभिवर्धन के कडुए-मीठे उपचार करने और साधन जुटाने होते हैं। प्रताड़ना और सहायता अपना-अपना काम करती हैं। इतने पर भी परोक्ष वातावरण की अनुकूलता प्रतिकूलता की सफलता असफलता बहुत कुछ निर्भर रहती है। विज्ञजन उस संबंध में भी आवश्यक ध्यान रखते हैं। फसल उगाने के लिए वर्षा ऋतु की प्रतीक्षा करते हैं अथवा अन्य उपायों से खेत का नम रखने का प्रबन्ध करते हैं। परोक्ष के संबंध में उपेक्षा बरतने से काम चलता नहीं। साधनों की तरह पराक्रम का भी—परिस्थितियों की तरह भावनाओं का भी ध्यान रखना होता है। परोक्ष भी प्रत्यक्ष से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। महत्वपूर्ण प्रसंगों के संबंध में तो यह और भी अधिक आवश्यक है। युग परिवर्तन जैसे व्यापक और विशद् प्रयोजनों में प्रत्यक्ष से भी अधिक परोक्ष का योगदान रहता है।रावण के आसुरी आतंक का निवारण करने के लिए लंका काण्ड महायुद्ध होने, लंकादहन से लेकर सेतुबन्ध बाँधने तक की बात सर्वविदित है। युद्ध में भयंकर रक्तपात हुआ था। और अन्ततः राम को विजय का श्रेय मिला था। सीता वापस लौटी और राज्याभिषेक का उत्सव हुआ था। रामचरित्र के ज्ञाता इस प्रसंग को भली भांति जानते हैं। समझा जाता है कि इतने भर से ही तात्कालिक समस्या का समाधान हो गया होगा। सुख चैन की परिस्थितियाँ बन गयी होंगी।तत्कालीन तत्वदर्शियों ने एकत्रित होकर यह निष्कर्ष निकाला था कि अदृश्य में संव्याप्त विषाक्तता ने उन दिनों लंका से लेकर, चित्रकूट, पंचवटी तक अगणित असुरों को उपजाया और आतंक बढ़ाया था। उसका अदृश्य घटाटोप लंका विजय के उपरान्त भी यथावत् बना हुआ था। कुछ ही समय के उपरान्त उसी दुःखद घटनाक्रम की फिर पुनरावृत्ति होती, कुछ के मर जाने पर रक्तबीज की तरह नये असुर उत्पन्न होते और नये उपद्रव खड़े करते। इसलिए राम विजय को पर्याप्त न माना जाय, अदृश्य का परिशोधन भी किया जाय। इनके लिए जिन अध्यात्म उपचारों की आवश्यकता थी उनकी विज्ञजनों द्वारा व्यवस्था बनाई गयी थी। दस अश्वमेध यज्ञों की योजना बनी और सम्पन्न हुयी थी। काशी का दशाश्वमेध घाट, भगवान राम के द्वारा सम्पन्न हुयी अदृश्य परिशोधन की उस यज्ञ शृंखला की अभी भी साक्षी प्रस्तुत करता है।जड़ बनी रहने पर टहनी कटने से भी कुछ बनता नहीं। जड़ें नयी कोपलें उगाती रहती हैं। प्रथम विश्वयुद्ध के कुछ ही दिन बाद दूसरा विश्व युद्ध और भी भयंकर रूप से लड़ा गया। दूसरे के बाद तीसरे की तैयारी तथा विनाश विभीषिका और भी बढ़ी-चढ़ी है। चम्बल क्षेत्र के डाकू निपटते ही नहीं। कितने ही पकड़े गये, कितने मरे, कितनों ने आत्म समर्पण किये पर वह आतंक अपने स्थान पर यथावत् विद्यमान है। सभी जानते हैं कि स्वच्छता का समुचित प्रबन्ध न होने के कारण सड़न से अगणित मक्खी मच्छर पैदा होते रहते हैं। मलेरिया विभाग के अधिकारी मच्छर मारने के लिए अपने तोप तमंचों का भरपूर प्रयोग करते हैं। टनों डी.डी.टी. की बमबारी होती है किन्तु मच्छर हैं जो टस से मस नहीं होते। वरन् और भी अधिक ढीठ बनते जाते हैं। उनने अपनी प्रकृति ही विष भक्षण की बना ली है। स्पष्ट है कि प्रत्यक्ष उपचार ही सब कुछ नहीं है। उसके लिए गन्दगी और नमी का भी निराकरण करना होगा। पत्ते तोड़ने की अपेक्षा अधिक अच्छा यह है कि जड़ पर कुल्हाड़ा चलाया जाय।लंका विजय और रामराज्य स्थापना के बीच दस अश्वमेधों की शृंखला यह बताती है कि वातावरण में छाई हुयी विषाक्तता का निराकरण और अदृश्य जगत में देवत्व का अभिवर्धन एक ऐसा आयोजन था जिसे महायुद्ध और महा सृजन की मध्यवर्ती कड़ी कहा जा सकता है। दो पहियों के बीच में वह धुरी आंखों से ओझल रहने पर भी कम आवश्यक नहीं होती।कृष्णावतार के समय भी इसी उपक्रम की पुनरावृत्ति हुयी। कंस, दुर्योधन, जरासंध, शिशुपाल जैसों से निपटने के लिए श्रीकृष्ण ने ध्वंस लीला रची। महाभारत युद्ध भी लड़ा गया। पाण्डव जीते। इसके उपरान्त परीक्षित के नेतृत्व में द्वापर में सतयुग की झलक दिखाने तथा संगठित राष्ट्र को चक्रवर्ती आवश्यकता पूर्ण करने की व्यवस्था बनी। महाभारत का तात्पर्य था विशाल भारत। उस लक्ष्य की पूर्ति भली प्रकार हुयी। तात्कालीन भारत का नक्शा समूचे जम्बू द्वीप के साथ गुंथा हुआ दीखता है।यह ध्वंस और सृजन की उभयपक्षीय प्रक्रिया हुयी। इतना बन पड़ने पर भी अदृश्य जगत में भरी हुयी विषाक्तता का निराकरण आवश्यक था अन्यथा कुछ ही समय उपरान्त उस अनाचार की पुनरावृत्ति होने लगती। नये कंस दुर्योधन उपजते और नये महाभारत की आवश्यकता पड़ती। भगवान कृष्ण ने उस परोक्ष समस्या का निराकरण आवश्यक समझा और प्रख्यात राजसूय यज्ञ के रूप में वातावरण परिशोधन का अध्यात्म उपचार नियोजित किया। उससे कुछ तो काम चला पर अधूरापन रह जाने के कारण कुछ ही समय उपरान्त परीक्षित पुत्र जन्मेजय ने नाग यज्ञ के नाम से विष परिशोधन का दूसरा अध्यात्म उपचार सम्पन्न किया।भगवान राम और भगवान कृष्ण द्वारा नियोजित उपरोक्त दो घटनायें सर्वविदित हैं। पुरातन इतिहास पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि समय-समय पर ऐसे ही अनेक उपचार सम्पन्न होते रहे हैं। पीछे तो उनकी एक क्रमबद्ध व्यवस्थापरिपाटी ही बन गयी ताकि कूड़े का ढेर जमा होने पर सफाई करने की अपेक्षा साथ की साथ बुहारी लगती, धुलाई होती और फिनायल छिड़की जाती रहे।विशेष पर्वों, विशेष तीर्थों में धर्मानुष्ठान होते रहने की परम्परा उसी उद्देश्य के निमित्त बनी और चली। तीन-तीन वर्ष बाद हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक कुम्भ आयोजन ऐसे ही हैं जिनमें साधनात्मक उपचार और ज्ञान यज्ञ की उभयपक्षीय व्यवस्था साथ-साथ चलती थी। प्रस्तुत समस्याओं पर मूर्धन्य मनीषियों द्वारा गम्भीर विचार करके किन्हीं निर्णय निष्कर्षों पर पहुंचा जाता था। बड़ी संख्या में धर्म प्रेमी उस अवसर पर उपस्थित होते थे और विद्वज्जनों के निर्धारणों को अपने अपने क्षेत्रों में कार्यान्वित करने का उत्तरदायित्व कन्धे पर लेकर प्रयाण करते थे। ऐसे ही बड़े सम्मेलन आयोजन बुद्धकाल में भी संघारामों के माध्यम से सम्पन्न होते थे। उनमें उन सभी देश क्षेत्रों के प्रतिनिधि सम्मिलित होते थे जिनमें बौद्ध धर्म का प्रचार पहुंच पाया था।बड़े और केन्द्रीय वाजपेय यज्ञों को छोटे क्षेत्रीय एवं स्थानीय धर्म समारोहों में बांटा गया। उनके लिए तिथि, समय, स्थान बार-बार बदलने के स्थान पर यह उचित समझा गया कि किसी पर्व पर किसी तीर्थ में ऐसे आयोजन हर वर्ष होते रहें। उनका क्रम निरन्तर जारी रहे। इस विकेन्द्रीकरण का सबसे बड़ा लाभ यह समझा गया कि समीपवर्ती धर्म प्रेमी उनमें सरलतापूर्वक पहुंच सकें जबकि दूरवर्ती बड़े आयोजनों में उनका पहुंच सकना समय साध्य, श्रम साध्य और व्यय साध्य होने के कारण कठिन असुविधाजनक पड़ता। इन दिनों भी अनेकानेक तीर्थों में नियत पर्वों पर हर साल धार्मिक मेले होते हैं। यद्यपि आज उनका रूप विकृत उपहासास्पद जैसा हो गया है और वे मनोरंजक मेले ठेलों में अधिक कुछ रह नहीं गये हैं तो भी अतीत के उद्देश्यों की झांकी किसी न किसी रूप में मिलती है। खण्डहरों को देखकर भी यह अनुमान लगता है कि वहां कभी कितने भव्य भवन खड़े रहे होंगे।इन दिनों वाणी अत्यधिक मुखर हुयी है। उसके पीछे ऊर्जा का नियोजन करने वाली साधना उपेक्षा के गर्त में गिर पड़ी है। यही कारण है कि जहां देखा जाय वहां छोटे-बड़े जन समारोहों में मात्र गीत प्रवचन भर की उछल-कूद होती रहती है। प्रचारात्मक, उत्तेजनात्मक प्रयोजन ही इनके सहारे पूर्ण होता है। भावनात्मक-आध्यात्मिक-अदृश्य को प्रभावित करने वाले-प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदलने वाले धर्मानुष्ठानों का समन्वय भी रहना चाहिए यह तथ्य विस्मृत हो जाने के कारण विभिन्न संस्थाएं अपने-अपने वार्षिकोत्सव गीत मंगल के साथ धूमधाम से सम्पन्न करती रहती है। राजनैतिक, सामाजिक, साहित्यिक, धार्मिक संस्थाओं के छोटे-बड़े समारोह आये दिन देखने को मिलते रहते हैं। पर इस प्रचलन के पीछे काम करने वाली—भावनात्मक, श्रद्धासिक्त वातावरण बनाने वाली प्रक्रिया के दर्शन नहीं होते जिसे कभी सामूहिक धर्मानुष्ठान कहा और अत्यधिक महत्व दिया जाता था। प्राचीन काल के सतयुगी प्रचलनों के पीछे तात्कालीन समाज व्यवस्था तो प्रत्यक्ष थी ही, परोक्ष रूप में उन धर्मानुष्ठानों सहित सम्पन्न होने वाले ज्ञान यज्ञों का भी कम महत्व न था जिन्हें वाजपेय यज्ञ कहा जाता था। जिनका जनमानस के परिष्कार और अदृश्य वातावरण के अनुकूलन में असाधारण योगदान रहता था। प्रज्ञा पुरश्चरण के माध्यम से उसी अस्त-व्यस्त पराक्रम को नये सिरे से पुनर्जीवित किया गया है। प्रस्तुत विपन्नताओं के समाधान में उनका असाधारण योगदान होगा, यह सुनिश्चित है।