Books - अन्तरिक्ष विज्ञान एवं परोक्ष का अनुसन्धान
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विभीषिकाओं का उद्गम केन्द्र
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अदृश्य जगत इस दृश्यमान जगत का प्राण है। उसका विस्तार वैभव एवं सामर्थ्य स्रोत इतना बड़ा है कि प्रत्यक्ष को इसका नगण्य-सा भाग कहा जा सकता है। जल का जितना प्रवाही स्वरूप है, उसकी तुलना में आकाश में भ्रमण करने वाला उसका वाष्प स्वरूप कहीं अधिक है। इसी प्रकार प्रकृति के अन्यान्य पदार्थ जितने पृथ्वी पर ठोस रूप में विद्यमान हैं, उसकी अपेक्षा वायुभूत होकर अनेक गुनी मात्रा में आकाश में उड़ते रहते हैं। अन्तरिक्ष की तुलना में धरातल को रंचमात्र ही समझा जा सकता है। सम्पदा के असीम भाण्डागार आकाश में परिभ्रमण करते रहते हैं। परोक्ष विज्ञान के ज्ञाता उसमें से जिस वस्तु को जब जितनी मात्रा में आवश्यकता होती है, खींचकर हस्तगत कर लेते हैं। सिद्धियाँ इसी को कहते हैं। उनके सहारे दृश्य को अदृश्य और अदृश्य को दृश्य में परिणत किया जा सकता है।अतीन्द्रिय क्षमताओं के चमत्कारी घटनाक्रम भी इसी आधार पर घटित होते हैं। दिव्य सामर्थ्यों के भण्डार मानवी अन्तराल में बीज रूप से विद्यमान हैं। उन्हें प्रसुप्त से जागृत, अदृश्य से प्रकट करने की विधा को साधना कहते हैं। यह और कुछ नहीं अप्रकट का प्रकटीकरण मात्र है। बीज रूप में अपने इर्द-गिर्द वह समस्त वैभव बिखरा पड़ा है जिसे सृष्टा की अनेकानेक विभूतियों के रूप में समझा-समझाया जाता रहता है।शरीरधारी प्राणी इस धरातल पर विचरण करते और अपनी हलचलों का परिचय देते देखे जाते हैं। इसकी तुलना में अशरीरी प्राणियों की संख्या असंख्यों गुनी अधिक है जो आकाश में भ्रमणशील रहती है। यहां चर्चा जीवाणुओं, विषाणुओं की नहीं हो रही है वरन् उन सूक्ष्म शरीर धारियों की हो रही है, जो इस समय भूत स्थिति में रह रहे हैं। जो कभी मनुष्य की तरह ही दृश्यमान थे, या निकट भविष्य में फिर वैसा ही कलेवर धारण करने जा रहे हैं। प्रेत, पितर, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, भूत, पिशाच, देव-दानव ऐसे ही जीवात्मा हैं, जो स्थूल शरीर से रहित होने पर भी सत्ताधारी एवं शक्तिशाली होते हैं। इनके अनुग्रह एवं आक्रोश से पृथ्वी के पदार्थों एवं प्राणियों को उपलब्धियों का लाभ एवं विपत्तियों का त्रास मिलता है। यह समुदाय प्रत्यक्षतः सम्बद्ध तो नहीं दीखता और न उनके साथ अविज्ञात रूप में चलते रहने वाले आदान-प्रदान का आभास मिलता है, तो भी यह नहीं समझना चाहिए कि मनुष्य की तुलना में कहीं अधिक सामर्थ्यवान अदृश्य जीवधारियों का अस्तित्व इस विशाल अन्तरिक्ष में विद्यमान नहीं है। समय-समय पर उनका अस्तित्व प्रत्यक्ष परिचय में भी आता रहा है। पुराण गाथाओं में तो उन्हीं का कर्तृत्व प्रधान रूप से लिया गया है।इन दिनों प्रति विश्व एन्टी युनिवर्स की चर्चा ने वैज्ञानिक क्षेत्र में एक नई हलचल प्रस्तुत की है। अपने इसी विज्ञान जगत के पीछे अविच्छिन्न रूप से गुंथा हुआ एक दूसरे अदृश्य संसार का अस्तित्व खोज निकाला गया है। वह सामर्थ्य एवं विस्तार की दृष्टि से सूक्ष्म होने के कारण हर दृष्टि से वरिष्ठ पाया गया है। एण्टी मैटर-ऐण्टी एटम आदि के रूप में उसकी सत्ता एवं क्षमता का विस्तृत विवेचन होने लगा है और कहा जाने लगा है कि इन दोनों के बीच का सन्तुलन किसी कारण बिगड़ गया तो फिर महाप्रलय निश्चित है। इस सन्दर्भ में यह चर्चा भी होती रहती है कि यदि किसी प्रकार प्रत्यक्ष विश्व और परोक्ष विश्व के मध्य अधिक गहरा आदान प्रदान चल पड़े तो अपने इसी धरातल पर स्वर्ग लोक जैसी परिस्थितियां दृष्टिगोचर होने लगेंगी।विज्ञान जगत के दृश्य स्वरूप से उसका शक्ति तरंगों वाला अदृश्य क्षेत्र कहीं अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। ईथर, लेसर जैसी अविज्ञान शक्तियां उसी क्षेत्र की हैं। अणु शक्ति को भी ऐसी ही सम्पदा समझ जा सकता है। यह जड़ सृष्टि का विवरण है। प्राणियों के शरीर भी इसी में सम्मिलित हैं। विज्ञान का भावी चरण इसी क्षेत्र में पदार्पण करने का है। इसके लिए उसे अनिवार्यतः अध्यात्म का अवलम्बन लेना पड़ेगा। पैरा साइकोलॉजी मैटाफिजिक्स— एस्ट्रोफिजिस्ट, पैराफिजिक्स आदि के सहारे इसका ढांचा भी खड़ा किया जा रहा है।अन्तर्ग्रही शक्तियों का पृथ्वी के साथ सम्पर्क एवं आदान-प्रदान का स्वरूप ऐसा आश्चर्य जनक है कि दांतों तले उंगली दबानी पड़ती है। विश्व ब्रह्माण्ड की उपलब्ध जानकारी में पृथ्वी को सबसे अधिक सुन्दर, समुन्नत एवं सुख-सुविधाओं से भरी-पूरी माना जाता है। यह स्थिति पृथ्वी की अपनी विशेषताओं के आधार पर विनिर्मित नहीं हुई है, वरन् सौर-मण्डल के ग्रह-उपग्रहों के—ब्रह्माण्ड स्थिति अन्यान्य तारकों के सन्तुलित अनुदानों से उसे यह सौभाग्य मिला है। बच्चा अपने बलबूते ही अनेकानेक साधन-सुविधाओं से भरा-पूरा जीवन नहीं जीता। उसे यह स्थिति अभिभावकों, कुटुम्ब, सम्बन्धी, पड़ौसी ही नहीं असंख्य व्यक्ति अपने-अपने ढंग से सहयोग प्रदान करके उपलब्ध कराते हैं। ठीक इसी प्रकार पृथ्वी को ऐसा अद्भुत सुयोग मिला है कि अनेकानेक ग्रह गोलकों के अनुग्रह ने इसकी स्थिति विलक्षण कलाकृति जैसी बना दी है। उत्तरी ध्रुव उन अन्तर्ग्रही अनुदानों को खींचता है। बचे-खुचे कचरे को दक्षिण ध्रुव मार्ग से अन्तरिक्ष के खड्डे में पटकता रहता है। पृथ्वी को प्राण पोषण सूर्य चन्द्र से नहीं अनेकानेक नक्षत्रों से उपलब्ध होता है। बादल बरसते दीखते हैं, पर लोक-लोकान्तरों से जो बहुमूल्य सम्पदा बरसती है उसे कोई इसलिए जान-समझ नहीं पाता कि वह दृश्य न होकर अदृश्य होती है। परोक्ष होने के कारण तो लोग आत्मा तक को भूल जाते हैं और उसके अस्तित्व तक को नकारने लगते हैं।चेतना का एक विशाल समुद्र आकाश में उसी प्रकार भरा हुआ है जैसा कि वायुमण्डल। इसी को अदृश्य जगत समझा जाता है। वायुमण्डल के प्राणवान या विषाक्त होने की बात सभी जानते हैं। धुंआ, विकिरण, कोलाहल, धूल, धुन्ध आदि के कारण वायु प्रदूषण बढ़ने और उसके कारण मौसम पर, वनस्पतियों पर, प्राणियों पर पदार्थों पर घातक प्रभाव पड़ने की बात सर्वविदित है। बढ़ते हुए तापमान से ध्रुवीय बर्फ पिघलने से समुद्र के उमड़ पड़ने और हित प्रलय के आधार बनने जैसी आशंकाओं से भरी हुई चेतावनियां आये दिन पत्र-पत्रिकाओं में छपती रहती हैं। ठीक इसी प्रकार उपयुक्त वायुमण्डल की संजीवनी का भी ऊहा-पोह रहता है। लोग उपयुक्त जलवायु वाले स्थानों में रहकर स्वास्थ्य सुधारने का प्रयत्न करते हैं। सेनेटोरियम प्रायः ऐसे ही स्थानों पर बनते हैं। पंजाबियों और बंगालियों के स्वास्थ्य में जो अन्तर पाया जाता है, उसमें भी उन क्षेत्रों की जलवायु को ही प्रधान कारण माना जाता है। सर्दी के दिन स्वास्थ्य सुधरने और गर्मी में बिगड़ने की बात भी वायुमण्डलीय परिवर्तनों पर आधारित है।अदृश्य के उपरोक्त ऊहा-पोह में एक कड़ी और जुड़ती है मानवी हलचलों के कारण चेतनात्मक वातावरण के प्रभावित होने की। विचारों का भी अब रेडियो तरंगों के समतुल्य एक सशक्त इकाई के रूप में आकलन किया जा रहा है। उनके कारण व्यक्ति परस्पर प्रभावित होता है। यह सुनिश्चित है। सत्संग कुसंग के भले-बुरे परिणामों में भी विचारशक्ति की प्रभाव क्षमता का निरूपण होता ही है। बात इससे भी एक कदम और आगे की है। चेतनात्मक वातावरण भी उनसे प्रभावित होता है। जन-समुदाय की विचारणा, आकांक्षा चेष्टा जिस स्तर की होती है उसके अनुरूप अदृश्य वातावरण बनता है और भली-बुरी परिस्थितियों के रूप में प्रकट होता है। सतयुग और कलियुग की परिस्थितियों में जो अन्तर पाया जाता है, उसका कारण विधाता का मनमर्जी या नियति का निर्धारण नहीं, वरन् मनुष्य के चिन्तन चरित्र से उत्पन्न हुई प्रतिक्रिया है।सूक्ष्मदर्शी जानते हैं कि इन दिनों वायुमण्डल में प्रदूषण बढ़ने की तरह ही चेतनात्मक वातावरण के समुद्र में भी भ्रष्ट चिन्तन और दुष्ट चरित्र के कारण विषाक्तता बेतरह बढ़ चली है। समुद्र तल पर तेल बिखर जाने से उन क्षेत्रों के जलचर घुटन से संत्रस्त होकर मरण के मुख में जाते देखे हैं। ठीक इसी प्रकार अदृश्य वातावरण में आसुरी तत्वों की वृद्धि से अनेकानेक संकट एवं विग्रह खड़े होते हैं। न सुलझते हैं, न घटते हैं, न टलते हैं। सामान्य स्तर के समाधान प्रयास प्रयास प्रायः निरर्थक ही चले जाते हैं। प्रस्तुत परिस्थितियों का विश्लेषण इसी प्रकार किया जाना चाहिए।इस सम्बन्ध में अब संसार के सभी विद्वान, ज्योतिर्विद् और अतीन्द्रिय दृष्टा एकमत हैं कि युग परिवर्तन का समय आ पहुंचा। उनके अनुसार यह समय युग संधि की बेला है और इन दिनों संसार में अधर्म, अशान्ति, अन्याय, अनीति तथा अराजकता का जो व्यापक बोल बाला दिखाई दे रहा है, उसके अनुसार परिस्थितियों की विषमता अपनी चरम सीमा पर पहुंच गई है। ऐसे ही समय में धर्म की रक्षा और अधर्म का विध्वंस करने के लिए भगवान का अवतार लेने की शास्त्रीय मान्यता है। यदा यदा हि धर्मस्य की प्रतिज्ञा के अनुसार ईश्वरीय सत्ता इस असंतुलन को सन्तुलन में बदलने के लिए कटिबद्ध है और संतुलन साधने के लिए सूक्ष्म जगत में उसी की प्रेरणा से परिवर्तन कारी हलचलें चल रही हैं।युग परिवर्तन के समय ईश्वरीय शक्ति के प्राकट्य और अवतरण की प्रक्रिया सृष्टिक्रम में सम्मिलित है। असंतुलन को सन्तुलन में बदलने के लिए, अपनी प्रेरणा पुरुषार्थ प्रकट करने के लिए भगवान वचन बद्ध हैं। ऐसे ही अवसरों पर गीता में दिया गया उनका तदात्मानं सृजाम्यहं का आश्वासन ऐसे ही अवसरों पर प्रत्यक्ष होता रहा है। आज की स्थितियां भी ऐसी हैं कि उनमें ईश्वरीय शक्ति के अवतार की प्रतीक्षा की जा रही है और सूक्ष्मदर्शी ईश्वरीय सत्ता का अवतरण प्रक्रिया को सम्पन्न होते देख रहे हैं।ज्योतिष शास्त्र के अनुसार यह समय कलियुग के अन्त तथा सतयुग के आरम्भ का है, इसलिए भी इस समय को युगसंधि की बेला कहा जा रहा है। यद्यपि कुछ रूढ़िवादी पंडितों का कथन है कि युग 4 लाख 32 हजार वर्ष का होता है। उसके अनुसार अभी एक चरण अर्थात् एक लाख आठ हजार वर्ष की देरी है। वस्तुतः यह प्रतिपादन भ्रामक है। शास्त्रों में कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं मिलता कि 4 लाख 32 हजार वर्ष का एक युग होता है। सैकड़ों वर्षों तक धर्म-शास्त्रों पर पंडितों और धर्मजीवियों का ही एकाधिकार रहने से इस सम्बन्ध में जनसाधारण भ्रान्त ही रहा और इतने लम्बे समय तक की युग गणना के कारण उसने न केवल मनोवैज्ञानिक दृष्टि से पतन की निराशा भरी प्रेरणा दी वरन् श्रद्धालु भारतीय जनता को अच्छा हो या बुरा, भाग्यवाद से बंधे रहने के लिए विवश किया इस मान्यता के कारण ही पुरुषार्थ और पराक्रम पर विश्वास करने वाले भारतीयों को अफीम के घूंट के समान इन अति रंजित कल्पनाओं का भय दिखाकर अब तक बौद्धिक पराधीनता में जकड़े रखा गया।इस सम्बन्ध में ज्ञातव्य है कि जिन शास्त्रीय सन्दर्भों से युग गणना का यह अति रंजित प्रतिपादन किया है, वहां अर्थ को उलट पुलट कर तोड़ा मरोड़ा ही गया है। जिन सन्दर्भों का इस प्रतिपादन की पुष्टि के लिए प्रस्तुत किया गया है, वे वास्तव में ज्योतिष के ग्रन्थ हैं। वह प्रतिपादन गलत नहीं है, प्रस्तुतीकरण ही गलत किया गया है अन्यथा मूल शास्त्रीय वचन अपना विशिष्ट अर्थ रखते हैं। उसमें ग्रह नक्षत्रों की भिन्न-भिन्न परिभ्रमण गति तथा ज्योतिष शास्त्र के अध्ययन में सुविधा की दृष्टि से ही यह युग गणना है।जितने समय में सूर्य अपने ब्रह्माण्ड की एक परिक्रमा पूरी कर लेता है उसी अवधि को चार बड़े भागों में बांट कर चार देव युगों की मान्यता बनाई गई और 4 लाख 32 हजार वर्ष का एक देव युग माना गया। प्रचलित युग गणना के साथ ताल मेल बिठाने के लिए छोटे युगों की अन्तर्दशा की संज्ञा दे दी गई और उसी कारण वह भ्रम उत्पन्न हुआ। अन्यथा मनुस्मृति लिंग पुराण और भागवत आदि ग्रन्थों में जो युग गणना प्रस्तुत की गई है वह सर्वथा भिन्न ही है। मनुस्मृति में कहा गया है।ब्राह्यस्यतु क्ष्ज्ञपाहस्य यस्प्रामण समारुतः ।एकैकशो युगानान्तु क्रमशर्स्त्रान्नर्वाश्रत ।।चत्वार्याहु सहस्राणि वर्षार्णातु कृतं युग ।तस्यतावत् शतो सध्या सध्याशश्च तथाविधः ।।इतेयेरेषु स सध्येषु स सध्याशेषु च विपु ।एकोयायेन वर्तन्ते सहस्राणि शतानि च ।।(मनु. 1।67-69)अर्थात्—ब्रह्माजी के अहोरात्रि में सृष्टि के पैदा होने और नाश होने में जो युग माने गए हैं वे इस प्रकार हैं—चार हजार वर्ष और उतने ही शत अर्थात् चार सौ वर्ष की पूर्व संख्या और चार सौ वर्ष की उत्तर संध्या इस प्रकार कुल 4800 वर्ष का सतयुग, इसी प्रकार तीन हजार छह सौ वर्ष का त्रेता, दो हजार चार सौ वर्ष का द्वापर और बारह सौ वर्ष का कलियुग।हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व में भी युगों का हिसाब इसी प्रकार बताया गया है यथा—अहोरात्रं विभज्यनो मानव लौकिकं परं ।सामुपादाय गणानां शृणु संख्य, मन्दिरम् ।।चत्वार्यैव सहस्राणि वर्षाणानुकृत युगं ।तावच्छसी भवेत्संध्या संध्याशश्च तथानृप ।।त्रीणि वर्ष सहस्रणि त्रेतास्या स्परिमाणतः ।तस्याश्च त्रिशती संध्याशश्च तथाविधः ।।तथा वर्ष सहस्रे द्वै द्वापरं परिकीर्तितः ।तस्यापि द्विशती संध्या संध्यांशश्चैवतद्वियः ।।कलिवर्ष सहस्रं व संख्यातोऽत्र मनिषिभिः ।तस्यापि शतिक संध्या संध्यांशश्य तथा विधः ।।अर्थात्-है अरिदंम! मनुष्य लोक के दिन रात का जो विभाग बतलाया गया है उसके अनुसार युगों की गणना सुनिए, चार हजार वर्षों का एक कृतयुग होता है और उसकी संध्या चार सौ वर्ष की तथा उतना ही संध्यांश होता है। त्रेता का परिमाण तीन हजार वर्ष का है और उसकी संध्या तथा संध्यांश भी तीन-तीन सौ वर्ष का होता है। द्वापर को दो हजार वर्ष कहा गया है। उसकी संध्या तथा संध्यांश दो-दो सौ वर्ष के होते हैं। कलियुग को विद्वानों ने एक हजार वर्ष का बताया है और उसकी संध्या तथा संध्यांश भी सौ वर्ष के होते हैं।लिंग पुराण तथा श्रीमद् भागवत में भी इसी प्रकार की युग गणना मिलती है। भागवत के तृतीय स्कन्ध में कहा गया है—चत्वारि त्रीणि द्वै चैके कृतादिषु यथा क्रमम्।संख्यातानि सहस्रणि द्वि गुणानि शातानि च॥(भाग. 3।1।19)अर्थात्—चार, तीन, दो और एक ऐसे कृतादि युगों में यथा क्रम द्विगुण सैकड़ों की संख्या बढ़ती है। आशय यही है कि कृत युग को चार हजार वर्ष में आठ सौ वर्ष और जोड़कर 4800 वर्ष माने गए। इसी प्रकार शेष तीनों युगों की कालावधि समझी जाए। कुछ स्थानों पर मनुष्यों के व्यवहार के लिए बारह वर्ष का एक युग भी माना गया है। जिसको एक हजार से गुणा कर देने पर देवयुग होता है, जिसमें चारों महायुगों का समावेश हो जाता है। इस बारह वर्ष के देवयुग को एक हजार से गुणा करने पर 1 करोड़ 20 लाख वर्ष का ब्रह्मा का एक दिन हो जाता है जिसमें सृष्टि की उत्पत्ति और लय हो जाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में इसी युग की बात कही है—सहस्र युगपर्यन्त मर्ध्यद् ब्रह्मणो विदुः।रात्रि युग सहस्रान्ताँ तेऽहोरात्र विदोजना॥ (8।17)अहोरात्र को तत्वतः जानने वाले पुरुष समझते हैं कि हजार महायुगों का समय ब्रह्मदेव का एक दिन होता है और ऐसे ही एक हजार युगों की उसकी रात्रि होती है। लोकमान्य तिलक ने इसका अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है कि महाभारत, मनुस्मृति और यास्कनिरुक्त में इस युग गणना का स्पष्ट विवेचन आता है। लोकमान्य तिलक के अनुसार ‘‘हमारा उत्तरायण देवताओं का दिन है और हमारा दक्षिणायन उनकी रात है। क्योंकि स्मृति ग्रन्थों और ज्योतिष शास्त्र की संहिताओं में भी उल्लेख मिलता है कि देवता मेरु पर्वत पर अर्थात् उत्तर ध्रुव में रहते हैं। अर्थात् दो अयनों छः-छः मास का हमारा एक वर्ष देवताओं के एक दिन-रात के बराबर और हमारे 360 वर्ष देवताओं के 360 दिन रात अथवा एक वर्ष के बराबर होते हैं। कृत, त्रेता, द्वापर और कलि ये चार युग माने गये हैं। युगों की काल गणना इस प्रकार है कि कृत युग में चार हजार वर्ष, त्रेतस युग में तीन हजार, द्वापर में दो हजार और कलि में एक हजार वर्ष। परन्तु एक युग समाप्त होते ही दूसरा युग एकदम आरम्भ नहीं हो जाता, बीच में दो युगों के संधि काल में कुछ वर्ष बीत जाते हैं। इस प्रकार कृत युग के आदि और अन्त में प्रत्येक ओर चार सौ वर्ष का, त्रेता युग के आगे और पीछे प्रत्येक ओर तीन सौ वर्ष का द्वापर के पहले और बाद में प्रत्येक और दो सौ वर्ष का तथा कलियुग के पूर्व और अनन्तर प्रत्येक ओर सौ वर्ष का सन्धिकाल होता है, सब मिलाकर चारों युगों का आदि अन्त सहित सन्धि काल दो हजार वर्ष का होता है। ये दो हजार वर्ष और पहले बताये हुए सांख्य मतानुसार चारों युगों के दस हजार वर्ष मिलाकर कुल बारह हजार वर्ष होते हैं। (गीता रहस्य भूमिका, पृष्ठ 193)इन गणनाओं के अनुसार हिसाब फैलाने से पता चलता है कि वर्तमान समय संक्रमण काल है। प्राचीन ग्रन्थों में हमारे इतिहास को पांच कल्पों में बांटा गया है। (1) महत् कल्प 1 लाख 9 हजार 8 सौ वर्ष विक्रमीय पूर्व से आरम्भ होकर 85800 वर्ष पूर्व तक (2) हिरण्य गर्भ 85800 विक्रमीय पूर्व से 61800 वर्ष पूर्व तक (3) ब्राह्म कल्प 60800 विक्रमीय पूर्व से 37800 वर्ष पूर्व तक (4) पाद्म कल्प 37800 विक्रम पूर्व से 13800 वर्ष पूर्व तक और (5) वाराह कल्प 13800 विक्रम पूर्व से आरम्भ होकर अब तक चल रहा है।कलियुग संवत् की शोध के लिए राजा पुलकेशिन ने विद्वान ज्योतिषियों से गणना कराई थी। दक्षिण भारत के ‘इहोल’ नामक स्थान पर प्राप्त हुए एक शिलालेख में इसका उल्लेख मिलता है, जिससे यही सिद्ध होता है कि कल्कि का प्राकट्य इन्हीं दिनों होना चाहिए। ‘पुरातन इतिहास शोध संस्थान’ मथुरा के शोधकर्त्ताओं ने भी इसी तथ्य की पुष्टि की है और ज्योतिष के आधार पर यह सिद्ध किया है कि ‘इस समय ब्रह्मरात्र का तमोमय सन्धिकाल है।इसी सन्धिकाल में असन्तुलन उत्पन्न होता है। दैवी शक्तियों पर आसुरी प्रवृत्तियों का संघात होता है तथा अनीति मूलक अवांछनीयताएं उत्पन्न होती हैं। नवनिर्माण की सृजन शक्तियां ऐसे ही अवसरों पर जन्म लिया करती हैं, क्योंकि तपसाधन होने के कारण ऐसे समय विभिन्न अनयकारी परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं। मनुष्य कृत संकटों और प्राकृतिक आपदाओं की वृद्धि जब चरम सीमा पर पहुंचने लगती है तो उसी समय निर्माणकारी सत्ता अपने सहयोगियों के साथ अवतरित होती है और जहां एक ओर अधर्म, अन्याय, अनाचार बढ़ता है वहां ये शक्तियां धर्म, संस्कृति, सदाचार, सद्गुण तथा सद्भावों को बढ़ाकर संसार में सुख-शान्ति की स्थापना के लिए यत्नशील होती हैं।संक्रमण बेला में किस प्रकार की परिस्थितियां बनती और कैसे घटनाक्रम घटित होते हैं इसका उल्लेख महाभारत के वन पर्व में इस प्रकार आता हैं—ततस्तु मुले संघाते वर्तमाने युगे क्षये ।यदा चन्द्रस्य सूर्यस्य तथा तिष्य बृहस्पति ।।एक राशौ समेष्यन्ति प्रयत्स्यति तदा कृतम् ।काल वर्षी च पर्जन्यो नक्षत्राणि शुभानि च ।क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं भविष्यति निरामयम् ।।अर्थात्- जब एक युग समाप्त होकर दूसरे युग का प्रारम्भ होने को होता है; तब संसार में संघर्ष और तीव्र हलचल उत्पन्न हो जाती हैं। जब चन्द्र, सूर्य, बृहस्पति तथा पुष्प नक्षत्र एक राशि पर आयेंगे तब सतयुग का शुभारम्भ होगा। इसके बाद शुभ नक्षत्रों की कृपा वर्षा होती है। पदार्थों की वृद्धि से सुख-समृद्धि बढ़ती है। लोग स्वस्थ और प्रसन्न होने लगते हैं।इस प्रकार का ग्रह योग अभी कुछ समय पहले ही आ चुका है। अन्यान्य गणनाओं के आधार पर भी यही सिद्ध होता है कि युग परिवर्तन का ठीक यही समय है। ठीक इन्हीं दिनों युग बदलना चाहिए। अनय को निरस्त करने और सृजन को समुन्नत बनाने वाली दिव्य शक्तियों का प्रबल पुरुषार्थ इस युग सन्धि में प्रकट हो रहा है जो सन् 1980 से आरम्भ हुआ एवं सन् 2020 तक माना जा रहा है।