Books - अन्तरिक्ष विज्ञान एवं परोक्ष का अनुसन्धान
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Language: HINDI
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संस्कारवानों की खोज हेतु गायत्री तीर्थ के प्रयास
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युग सृजन में सहयोगी कोई भी हो सकता है। उसका उत्तर कंधों पर ओढ़ने वाले सृजन शिल्पियों को नल-नील जैसा प्रबुद्ध एवं परिपक्व होना चाहिए। ऐसी भूमिका निभा सकना हर किसी के बस की बात नहीं है। सिखाने पढ़ाने से थोड़ा सा काम तो चलता है पर प्रखरता मौलिक एवं संस्कारगत होनी चाहिए। लोहे की मजबूती उसके संरचना में ही सन्निहित है। कारखानों में ढालने, खरादने का में होता है, कृत्रिम लोहा नहीं बन सकता और न उसका स्थानापन्न किसी अन्य धातु को बनाया जा सकता है।प्रशिक्षण, वातावरण एवं संपर्क का प्रभाव तो पड़ता है पर महामानव इतने से ही नहीं बन जाते। उनके लिए संस्कार गत मौलिकता एवं संचित प्रखरता की भी आवश्यकता होती है। विश्वामित्र ने राम-लक्ष्मण को आग्रह पूर्वक मांगा था और उन्हें बला अतिबला विद्याएं सिखाकर महान परिवर्तन के लिए उपयुक्त क्षमता सम्पन्न बनाया था। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त—समर्थ रामदास ने शिवाजी, बुद्ध ने आनन्द, मछेन्द्रनाथ ने गोरख, रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानन्द को बड़ी कठिनाई से ढूंढ़ा था। आगन्तुकों की भारी भीड़ में से इन सभी शक्ति सम्पन्नों को कोई काम का न लगा। बड़ी कठिनाई से ही वे अपने थोड़े से अनुयायी उत्तराधिकारी ढूंढ़ने में सफल हुए। विवेकानन्द ने निवेदिता से कहा था मुझे मात्र तुम्हारे लिए योरोप की यात्रा करनी पड़ी।अवतार के समय देवता उसकी सहायता करने आते और देह धारण करते हैं। सामान्य मनुष्यों की मनःस्थिति नर पशुओं जैसी होती है वे पेट और प्रजनन के लिए मरते-खपते हैं तथा लोभ मोह, अहंकार की लिप्साओं से बने कोल्हू में पिलते रहते हैं। यही उनकी प्रवृत्ति और नियति होती है। उनमें थोड़ा सा उत्साह तो भरा जा सकता है और एक सीमा तक प्रगतिशील भी बनाया जा सकता है किन्तु बहुत प्रयत्न करने पर भी वे देव भूमिका निभा सकने में सफल नहीं हो पाते। इसके लिए संचित संस्कारों की आवश्यकता है। खिलौने बालू के नहीं, चिकनी मिट्टी के बनते हैं। हथौड़े की चोट जंग लगे लोहे नहीं, फौलादी इस्पात ही सह पाते हैं।एक जैसी शक्ल सूरत और समान परिस्थिति वाले व्यक्तियों के मध्य भी कई बार स्तर की दृष्टि से जमीन आसमान जैसा अन्तर पाया जाता है यह उनकी उस आन्तरिक संरचना का होता है जो जन्म-जन्मान्तरों के संचित संस्कारों से बनती है। यह सम्पदा किस के पास है, यह जांचना, जन-जन की तलाशी लेने के समान है। तलाशी ऐसी भी नहीं जो चोरों, जमाखोरों के यहां पुलिस द्वारा छापा मारकर पकड़ने की तरह सरल हो। वस्तुएं तो पकड़ी जा सकती हैं, पर अन्तस् की प्रवृत्तियों की जांच पड़ताल और खोजबीन करना कठिन है। लोग भीतर कुछ होते हैं। और बाहर कुछ बनते रहते हैं। दंभ बहुत और तथ्य कम वाले बहरूपियों, अभिनेताओं और बाजीगरों से जन समाज भर पड़ा है। इनकी गहराई में कैसे उतरा जाए? खारी जलराशि से भरे समुद्र में गहरी डुबकी मार कर मोतियों को किस तली तलहटी में ढूंढ़ा जाए। उन क्षेत्रों में पाए जाने वाले मगरमच्छों से बचने और जूझने की कुशलता के बिना कोई गोताखोर सफल नहीं हो सकता। इस प्रयास में भी ऐसी ही तैयारी करनी पड़ रही है।युग परिवर्तन सृष्टि के इतिहास में अभूतपूर्व अवसर है। पिछले दिनों दुनिया बिखरी थी। स्थानीय समस्याओं के सामयिक समाधान करना ही तत्कालीन महामानवों का छोटा सा उत्तरदायित्व रहता था। रावण, कंस, दुर्योधन, आदि के अनाचार सीमित क्षेत्र में थोड़े से व्यक्तियों के द्वारा होते हैं। अधिक होने से उसके समाधान भी लंका युद्ध, महाभारत जैसे उपचारों से निकले और मुट्ठी भर प्रतिभाओं ने वे कार्य सम्पन्न कर दिए। वैसी स्थिति अब नहीं। दुनिया सिकुड़ कर बहुत छोटी हो गई है। हवा का प्रभाव एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंचता है। 500 करोड़ मनुष्य अब एक दूसरे को प्रकारान्तर से प्रभावित करते हैं।इन विषम परिस्थितियों में बहुमुखी समस्याओं की जड़ें लोकमानस में अत्यन्त गहराई में घुसी हुई होने के कारण, युग परिवर्तन अतीव कठिन है, गुण, कर्म, स्वभाव की लोक धारा को उलटना-समुद्र के खारी जल को हिमालय की सम्पदा बना देना कितना कठिन है उसे हर कोई नहीं समझ सकता। उसे भुक्तभोगी बादल ही जानते हैं कि उसमें कितना साहस करने, कितना भर ढोने, कितना उड़ना और कितना त्याग करना पड़ता है। युग परिवर्तन के भावी प्रयासों को लगभग इसी स्तर का माना जाना चाहिए।युग सन्धि की अत्यन्त महत्वपूर्ण मध्य बेला सन् 1980 से 2000 तक की है। इन बीस वर्षों में महान परिवर्तन होंगे और विकट समस्याओं का समाधान करना होगा। बुझते दीपक की लौ, प्रभाव से पूर्व की सघन तमिस्रा, मरणासन्न की सांस, चींटी के उगते पंख, हारे जुआरी के दाव को देखकर, मरता तो क्या न करता की उक्ति को चरितार्थ होते प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। असुरता अपनी अन्तिम घड़ियों में जीवन-मरण की लड़ाई लड़ेगी और संकट, विग्रह अपेक्षाकृत अधिक बढ़ेंगे। इसी प्रकार देवत्व की प्रतिष्ठापना के लिए भी बीजारोपण के साथ प्रचण्ड उत्साह के साथ काम करने वाले किसान जैसी भूमिका भी दर्शनीय होगी। दोनों पक्ष एक दूसरे से सर्वथा विपरीत होते हुए भी परम साहसिकता का परिचय देंगे। एक दूसरे के साथ टकराने से भी पीछे न हटेंगे। सांड़ लड़ते हैं तो खेत खलिहानों को तोड़-मरोड़ कर रख देते हैं। युग परिवर्तन प्रसव पीड़ा जैसे कष्ट कारक होते हैं। उसमें डाक्टरों, नर्सों को पूर्णतया जागरूक रहना पड़ता है। प्रसूता की तो जान पर ही बीतती है। उसकी सुरक्षा सान्त्वना के अतिरिक्त इन लोगों को नवजात शिशुओं के लिए आवश्यक सुविधाएं भी पहले से ही जुटानी होती है।युग संधि में दुहरे उत्तरदायित्व जागृत आत्माओं को संभालने पड़ते हैं। विनाशकारी परिस्थितियों से जूझना और विकास के सृजन प्रयोजनों को सोचना। किसान और मानी को भी यही करना पड़ता है। खरपतवार उखाड़ना-बेतुकी डालियों को काटना—पशु पक्षियों से फसल को रखाना जैसी प्रतिरोध सुरक्षा की जागरूकता दिखाने पर ही उनके पल्ले कुछ पड़ेगा अन्यथा परिश्रम निरर्थक चले जाने की आशंका बनी रहेगी। उन्हें एक मोर्चा सृजन का भी संभालना पड़ता है। बीज-बोना, खाद देना, सिंचाई का प्रबन्ध करना रचनात्मक काम है। इसकी उपेक्षा की जाय तो उत्पादन की आशा समाप्त होकर ही रहेगी। इसे दो मोर्चों पर दुधारी तलवार से लड़ने के समतुल्य माना जा सकता है। युग संधि में जागृत आत्माओं को यही करना पड़ता है। समस्या 400 करोड़ मनुष्यों की है। वे एक स्थान पर नहीं समस्त भूमण्डल पर बिखरे हुए बसे हैं। अनेक भाषा बोलते हैं। अनेक धर्म सम्प्रदायों का अनुसरण करते हैं। शासन पद्धतियों और सामाजिक परम्पराओं में भिन्नता है। मनःस्थिति में भी भारी अन्तर है। इतना होते हुए भी उन सबसे सम्पर्क साधना है। युग चेतना से परिचित और प्रभावित करना है। इतना ही नहीं सम्पर्क प्रशिक्षण और अनुरोध को इतना प्रभावी बनाना है जिसके दबाव से लोग अपनी आदतों, इच्छाओं और गतिविधियों में अभीष्ट परिवर्तन कर सकने के लिए सहमत ही नहीं तत्पर भी हो सकें। यह कार्य कहने सुनने में सरल प्रतीत हो सकता है। पर वस्तुतः उतना कठिन और जटिल है। ऐसा उत्तरदायित्व उठाने वालों को कैसा होना चाहिए उसका अनुमान लगाने पर यही कहना पड़ता है कि उनकी मजबूती—घहराती नदियों पर मीलों लम्बे पुल का—उस पर दौड़ने वाले वाहनों का बोझ उठा सकने वाले पायों जैसी होनी चाहिए।विशिष्ट समय पर ऐसी ही विशिष्ट आत्माओं का अवतरण होता है। वे जन्म जात रूप से ऐसी धातु के बने होते हैं कि उनका उपयोग विशेष प्रयोजनों के लिए सम्भव हो सके। अणु शक्ति उत्पन्न करने के लिए यूरेनियम जैसे रासायनिक पदार्थों की जरूरत पड़ती है। यह नकली नहीं बन सकता। सोने की अपनी मौलिक विशेषता है। स्वर्णकार उसे आभूषणों में गढ़ तो सकता है, पर कृत्रिम सोना अभी तक बनाया नहीं जा सका। यों नकली नग हो जेवरों में प्रयुक्त होते हैं, पर उनका निर्माण भी बहुत होता है फिर भी असली मणि-माणिक अभी भी विशेषता के कारण अपना मूल्य और महत्व यथा स्थान बनाये हुए हैं। महामानवों की ढलाई, गड़ाई के लिए शान्तिकुंज की फैक्टरी अनवरत तत्परता के साथ लगी हुई है। उसके उत्पादन का स्तर भी बढ़ रहा है और परिमाण भी। इस प्रगति को सन्तोषजनक रहते हुए भी उत्साह वर्धक नहीं कहा जा सकता। उस विशिष्टता की मात्रा अभी भी कम ही दृष्टिगोचर हो रही है जिसे देव स्तर की प्रतिभा कहा जाय। जो महामानवों की भूमिका निभा सकने के लिए अभीष्ट सुसंस्कारिता की पूंजी अपने साथ लेकर जन्मी हो।कृषि कार्य में किसान का पुरुषार्थ ही सब कुछ नहीं है, उपयुक्त भूमि और सही बीज का भी उसकी सफलता में कम योगदान नहीं होता। शिल्पियों की कुशलता कितनी ही बढ़ी चढ़ी क्यों न हों उन्हें भी उपयुक्त उपकरण चाहिए। कच्चा माल सही न हो तो कारखाने बढ़िया चीज कैसे बनायें? बालू से कोई कुम्हार टिकाऊ बर्तन नहीं बना सकता। चिकित्सकों के उपचार रोगी की जीवनी शक्ति के आधार पर सफल होते हैं। कच्चे लोहे की तलवार से मोर्चा जीतना बलिष्ठ योद्धा के लिए भी सम्भव नहीं होता। मौलिक विशिष्टता की अपनी आवश्यकता है। खरादा तो उसी को जाता है जिसमें अपनी कड़क हो। तेल तिली में से निकलता है, आग ईंधन के सहारे जलती है। तिली का प्रबन्ध न हो तो बालू से तेल निकालने में कोल्हू कैसे सफल हो? पानी मथने के लिए कितना ही श्रम क्यों न किया जाय मक्खन निकालने में सफलता न मिलेगी। ईंधन के बिना आग की लपटों का दर्शन होने और अभीष्ट गर्मी उत्पन्न करने का प्रयोजन नहीं ही सध सकता।युग परिवर्तन की इस ऐतिहासिक बेला, में ऐसी देव आत्माओं की विशिष्ट आवश्यकता अनुभव की जा रही है जिनमें मौलिक प्रतिभा विद्यमान है। सामान्य स्तर की श्रेष्ठता हर मनुष्य में मौजूद है। उसे सीमित समय में सीमित मात्रा में उभार सकना ही सम्भव हो सकता है। कम समय में, कम परिश्रम से जिन्हें महान उत्तरदायित्वों का वहन कर सकने के लिए उपयुक्त बनाया जा सके। ऐसी प्रतिभाएं सर्वत्र उपलब्ध नहीं हो सकती और न उनसे उनसे बड़े पुरुषार्थ की आशा की जा सकती है जैसी कि इस विषम वेला में आवश्यकता पड़ रही है। इसके लिए विशेष रूप से खोज-बीन करने की आवश्यकता पड़ेगी।मोती पाये तो समुद्र में ही जाते हैं पर उन्हें निकालने के लिए पनडुब्बी को गहरी डुबकी लगाने की और सुविस्तृत क्षेत्र की खोज बीन करनी होती है। मोती न तो इकट्ठे मिलते हैं और न तो किसी किनारे पर जमा रहते हैं बहुमूल्य वस्तुएं सदा से इसी प्रकार खोजी जाती रही हैं। प्रकृति के अन्तराल में बिजली, ईथर आदि तत्व अनादि काल से भरे पड़े थे, पर उनसे लाभान्वित हो सकना तभी सम्भव हुआ जब उन्हें खोजने के लिए वैज्ञानिकों ने असाधारण श्रम किया। जंगलों में बहुमूल्य जड़ी बूटियां पुरातन काल में भी उगती थीं और अब भी उनकी संजीवनी क्षमता यथावत् मौजूद है। पर उन्हें हर कोई, हर जगह नहीं पा सकता चरक ने दुर्गम स्थानों की यात्रा की और उस परिभ्रमण में वनस्पतियों के गुण धर्म खोजे। इस शोध का परिणाम ही चिकित्सा विज्ञान के रूप में सामने आया और उसका लाभ समूची मानव जाति ने उठाया। चरक यदि वह प्रयास न करते तो बूटियां अपने स्थान पर बनी रहतीं, और रोगी अपनी जगह। उनका आपस में संबंध ही न बनता तो दोनों ही घाटे में रहते। न जड़ी बूटियां यश पातीं और मनुष्यों को रोग निवृत्त का अवसर मिलता।भूगर्भ में खनिज सम्पदा के अजस्र भंडार अनादि काल से भरे पड़े हैं। पर उनका उत्खनन और दोहन जिस लगन के आधार पर सम्भव हो सका उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की जाती रहेगी। धातुएं गैसें, तेल, जैसी अनेकों बहुमूल्य वस्तुएं भूगर्भ की गहरी खोज-बीन करने से ही सम्भव हुई। पौराणिक गाथा के अनुसार समुद्र मन्थन से चौदह रत्न निकाले गये और उन से देवताओं तथा मनुष्यों ने सौभाग्यशाली बनने का अवसर पाया। यदि मंथन प्रयास न किया जाता तो समुद्र की सम्पदा उसके गहन अन्तराल में ही धंसी रहती। लाभ उठाना तो दूर उनका किसी को पता तक नहीं चलता।ज्ञान और विज्ञान की सुविस्तृत सम्पदा ही मनुष्य को समर्थ, सम्पन्न कुशल बना सकी है। यह उपलब्धियां बादलों से नहीं बरसतीं, वरन् अनवरत अध्यवसाय के द्वारा ही एक-एक मंजिल पार करते हुए इन्हें खोज निकालना सम्भव हुआ है। यदि शोध प्रयासों को मानवी प्रवृत्ति में स्थान न मिला होता आग जैसी क्रान्तिकारी उपलब्धियां करतल गत न होतीं और आदिम मनुष्य की पीढ़ियां अभी भी अपने वानर वर्ग के अन्य साथियों के साथ गुजर कर रही होतीं। कोलम्बस ने अमेरिका खोज निकाला और संसार के विकास, विस्तार में एक नये अध्याय का समावेश हुआ। खोजियों ने अन्तरिक्ष खोजा है और उसमें से उतना पाया है जितना कि रत्नाकर कहे जाने वाले समुद्र से भी न मिल सका। कहते हैं कि खोजने वालों ने ही भगवान को ढूंढ़ निकाला अन्यथा वह क्षीर सागर में शेष नाग के ऊपर चादर ताने गहरी नींद में सो रहा था। मनुष्येत्तर प्राणियों के लिए वह अभी भी उसी तरह अविज्ञात स्थिति में पड़ा हुआ है। आत्मा का अस्तित्व मनुष्य ने ही खोजा है। अन्यथा अन्य जीवधारी अपनी सत्ता शरीर तक ही सीमाबद्ध किये रहते हैं। धर्म और अध्यात्म मनुष्य की अपनी खोज है।अपने समय में एक बहुत बड़ा काम युग मानवों को खोज निकालना है। बड़े काम के किए बड़ी हस्तियां ही चाहिए। उन्हें एक सीमा तक ही शिक्षा और परिस्थितियां विकसित कर सकती हैं। नैपोलियन और सिकन्दर किसी सैनिक संस्था द्वारा विनिर्मित नहीं किये जा सके। वशिष्ठ और विश्वामित्र किस आश्रम में किस साधन के सहारे विनिर्मित किये जा सके। इसका पता लग नहीं पा रहा है। अंगद और हनुमान, भीम और अर्जुन, चाणक्य और कुमार जीव, बुद्ध और महावीर, गांधी और पटैल, शिवाजी और प्रताप किस प्रकार तैयार किये जायं उसका कोई उपाय अभी भी सूझा नहीं पड़ रहा है। ईसा जटाथुस्त-अरस्तू और सुकरात, लिंकन और वाशिंगटन-विवेकानन्द और गोविन्दसिंह, नानक और कबीर किस प्रकार तैयार किये जायं, इसका कोई मार्ग मिल नहीं रहा है, शतरूपा, कौशल्या, सीता, सावित्री, मदालसा, शकुन्तला उपलब्ध करने के लिए क्या किया जा सकता है इसके लिए भारी माथा पच्ची के बाद भी कुछ हाथ नहीं लगता। अरविन्द और रमण, रामकृष्ण परमहंस और विरजानन्द जैसी हस्तियां ही युग निर्माण जैसे महा-प्रयोजन को पूरा करने में अग्रिम भूमिका निभा सकती हैं। काम बड़ा है तो उसके अनुरूप व्यक्तित्व भी चाहिए। यह आवश्यकता जब भी जितनी मात्रा में भी पूरी हुई तब उसी अनुपात से व्यापक समस्याओं के समाधान सम्भव हुए हैं। जन साधारण के लिए तो कर्तव्य पालन ही सम्भव होता है। वे अपनी निज समस्याओं को सुलझाने में ही अधिकांश क्षमता खो बैठते हैं जो बचती है उससे लोक मंगल का प्रयोजन एक सीमा तक ही पूरा कर पाते हैं। यों बूँद-बूँद से भी घड़ा भरता है पर उन बूंदों का संचय करने और उस संचय का सदुपयोग करने की प्रतिभा भी तो किसी में चाहिए। कुछेक घुने बीजों को छोड़कर प्रायः सबमें उगने की सामर्थ्य होती है। ऊसर जमीनें भी होती तो हैं, पर आमतौर से हर जमीन में ऐसी क्षमता होती है कि उसे थोड़ा प्रयत्न करके उपजाऊ बनाया जा सके। बादलों का पानी टीलों पर रुकता नहीं और वे भारी वर्षा होने के उपरान्त भी जल रहित ही बने रहते हैं। इतने पर भी यदि उन्हें थोड़ा खोदा-कुरेदा जा सके तो पर्वत शिखरों पर भी तालाब बन सकते हैं। नदी, सरोवरों के तट पर रहने वालों की तरह उन दुर्गम स्थानों पर भी उद्यान लग सकते हैं। यह प्रयत्न परायणता की महिमा का है। किसान अपने घर से फसल नहीं लाता और न माली की जेब से फल सम्पदा भरी रहती है। प्राकृतिक साधनों का उपयोग भर वे लोग करते हैं और उसी बुद्धिमत्ता पूर्ण नियोजन का लाभ उठाते हैं। बुद्धि हर किसी में मौजूद है। मूढ़ और विक्षिप्त थोड़े से ही होते हैं। हर मस्तिष्क में प्रतिभा रहती है और उसे शिक्षण एवं वातावरण के सहारे विज्ञ एवं प्रबुद्ध बनाया जा सकता है। अध्यापक और विद्यालय इसी प्रयोजन की पूर्ति करते रहते हैं।संचित संस्कारों वाली प्रतिभाएं उन बहुमूल्य हीरों की तरह हैं जिनमें मौलिक विशिष्टता विद्यमान है, उन पर किया गया थोड़ा-सा तराशने, खरादने का प्रयत्न अधिक लाभ और श्रेय दे सकता है। फिर भी उन शिल्पियों का महत्व बना ही रहेगा जो घटिया पत्थरों को भी इस प्रकार काटते घिसते हैं कि उन्हें हीरों का स्थानापन्न बनने का सौभाग्य मिल सके। सोने का अपना महत्व है उसे लड़ी के रूप में भी उचित मूल्य पर बेचा जा सकता है। इतने पर भी स्वर्णकारों का कला को सराहा ही जाता रहेगा । वे आभूषण बनाकर सोने का आकर्षण का केन्द्र बना देते हैं। यहां तक कि घटिया धातु या मिलावट के सहारे ऐसा बना देते हैं कि उससे भी साज-सज्जा का काम चल सके। प्राचीन काल में उपाध्यक्षों के हाथ में यही कला थी वे मनुष्यों को गढ़ते थे, उन्हें सामान्य से असामान्य बनाते थे। संयोग वश कोई सुसंस्कारी आत्मा हाथ लग सके तब तो उन शिल्पियों को, उनके कौशल को, ढलाई के कारखाने गुरुकुलों को अनोखा ही, श्रेय मिल जाता था। संदीपन ऋषि के आश्रम में कृष्ण और विश्वामित्र आरण्यक में राम की ढलाई हुई थी। यही सब प्रयोक्ता धन्य माने जाते हैं।युग परिवर्तन की महती आवश्यकता पूरी करने के लिए इन दिनों देवत्व में सम्पन्न आत्माओं को ढूंढ़ निकालना एक बड़ा काम है। साथ ही उन्हें उभारना—प्रशिक्षित परिपक्व करना भी उतने ही महत्व की प्रक्रिया है। तेल के कुंए ढूँढ़ निकालना एक बड़ी सफलता है, पर उस कीचड़ जैसे खनिज की सफाई करने वाला तन्त्र खड़ा न हो सका तो उस ढूंढ़ने भर से भी अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध न होगा। कच्ची धातुओं की खदान-खोजने वालों की प्रशंसा होती है किन्तु उन्हें पकाने, ढालने का कारखाना न लग सके तो उस भारी मिट्टी से कोई प्रयोजन सिद्ध न होगा।असामान्यों का अस्तित्व रहता तो हर युग और हर क्षेत्र में है, पर खोजने और पकाने की प्रक्रिया शिथिल हो जाने से प्रतिभाएं जहां-तहां छिपी और उपेक्षित पड़ी रहती हैं। अभी भी भूमि में इतना वैभव दबा पड़ा है जिसे उपयोग में आने वाली सम्पदा की तुलना में असंख्य गुना कहा जा सके। सराहना खोज की ही है उसी के बलबूते प्रस्तुत उपलब्धियां करतल गत हो सकी हैं और भविष्य में जो कुछ मिलेगा उसमें खोजी और पकाने वाले ही श्रेयाधिकारी बनेंगे। युग परिवर्तन की परिस्थितियां मौजूद हैं। लोक चेतना के अन्तराल में असाधारण विक्षोभ है वह प्रस्तुत परिस्थितियों को बदलने के लिए घुटन से छुटकारा पाने के लिए आतुर है। सृष्टा को भी परिवर्तन ही अभीष्ट है। विनाश को निरस्त और विकास को प्रतिष्ठित करने की प्रक्रिया को अध्यात्म भाषा में अवतार और लौकिक भाषा में प्रचंड परिवर्तन कहते हैं। अदृश्य में इसी की परिपूर्ण तैयारी है। भूमिका दृश्य को निभानी है। नसों में समर्थता और मस्तिष्क में प्रेरणा रहते हुए भी काम तो हाथ ही करते हैं। उठना इन्हीं को पड़ता है। चलते तो पैर ही हैं। आकांक्षा भले ही अन्तःकरण की हो।महामानवों की भूमिका निभाने की क्षमता जिनमें है उनकी रुचि अपने अन्तःकरण के अनुरूप साधन सामने आते ही मचलने लगती है। इस कसौटी पर किन्हीं का भी अन्तराल जांचा जा सकता है। शराबी, जुआरी, व्यभिचारी अपने अनुरूप परिस्थितियां देखते ही मचलने लगते और रोकथाम होते हुए भी संपर्क साधने और सहयोग साधने का ताना-बाना बुनने लगते हैं। बाजीगर का खेल होते ही मनचले बच्चे पढ़ाई छोड़कर दौड़ पड़ते हैं और तमाशे का मजा लेते हैं। सन्त, सज्जनों की सुसंस्कारिता भी अपने अनुरूप सामने आने पर न केवल वहां किसी प्रकार जा ही पहुंचते हैं वरन् रुचि लेने और सहयोग देने का भी प्रयास बिना मांगे ही करने लगते हैं। अन्तःप्रेरणा उन्हें उसके लिए विवश जो करती है। पकड़ का यही सबसे सरल तरीका है। सीता की खोज में राम सघन वन में विचरते हैं और लक्ष्मण से कहते हैं—इस क्षेत्र में सीता होंगी तो नदी तट पर संध्या करने अवश्य आयेंगी। चलकर उसे वहीं खोजना चाहिए। इस प्रसंग से प्रकट होता है की मूल प्रकृति मनुष्य को किस प्रकार विवश करती है और कठिन परिस्थितियों में भी वह उसकी पूर्ति का प्रयास करता है। युग साहित्य के प्रति अभिरुचि, श्रेष्ठ वातावरण में प्रसन्नता—सत्प्रवृत्तियों में सहयोग यह तीन प्रयोजनों के इर्द-गिर्द उच्च आत्माएं इन दिनों जमा हुई पाई जा सकती हैं। अन्य जीवों को सघन वन में देखना हो तो चुपचाप वहां किसी जलाशय के निकट बैठ जाना चाहिए। प्यास बुझाने के लिए आने पर उन्हें आंखें भर कर देखा जा सकता है। युग निर्माण योजना के विविध प्रयास ऐसे हैं जिनमें सामान्य स्तर के लोगों को न रुचि हो सकती है न उत्साह। सहयोग की बात तो उनके बस से बाहर ही होती है किन्तु जिनमें देवत्व के अंश अधिक परिमाण में विद्यमान हैं वे अपनी मर्जी से नये शुभारम्भ न कर पाने पर भी जहां भी अपने अनुरूप वातावरण देखते हैं, उसमें सम्मिलित हुए बिना, योगदान दिये बिना रह ही नहीं सकते।युग सन्धि में देवात्माएं बड़ी संख्या में अवतार का साथ देने के लिए जन्म लेती हैं। पाण्डव देव पुत्र थे। हनुमान अंगद भी देवता थे। इन आत्माओं को अवतरित होने के लिए उपयुक्त माध्यम चाहिए। सदाशयता सम्पन्न माता-पिता के रज बीज का आश्रय वे लेते हैं। दुष्ट-दुरात्माओं की उन्हें गंध ही नहीं भाती तो उनसे सम्बन्ध कैसे साधें? उनके शरीर में प्रवेश कैसे करें? स्वायंभु, मनु और शतरूपा रानी ने तप करके अपनी काया ऐसी बनाई थी कि उसमें देवात्माओं को गर्भ में निवास करते हुए कष्ट न हो। मदालसा, सीता, शकुन्तला जैसी महान महिलाएं ही अपनी कोख से दिव्यात्माओं को जन्म दे सकने में समर्थ हुईं। इन दिनों यह प्रयास नये ढंग से किये जा रहे हैं कि दाम्पत्य जीवन में उत्कृष्टता उत्पन्न की जाय। उच्चस्तरीय आत्माओं के जोड़े मिलें। आदर्श विवाह के रूप में उनका शुभारम्भ हो। आजकल दैत्य विवाहों का चलन है। आत्माओं की गरिमा कोई नापता नहीं, रूप के ऊपर सब पागल हैं। शादियों में दहेज एवं अपव्यय की धूम रहने से गरीबी और बेईमानी पनपती है। जमा पूंजी की होली जलाकर परिवार का भविष्य अन्धकारमय बनाने की प्रक्रिया परोक्ष रूप से अभिशाप ही बरसाती रहती है। जहां भी यह प्रचलन होगा वहां सुसंतति की आशा नहीं ही की जानी चाहिए। देव विवाहों से ही देवात्माओं के सुसन्तति रूप में जन्म लेने की आशा बंधती है। इसलिए इन दिनों उस प्रचलन पर भी जोर दिया जा रहा है।दिव्य आत्माएं यदि किसी प्रकार किसी अनुपयुक्त वातावरण में जन्म ले भी लें तो वहां घुटन अनुभव करती हैं और वापिस लौट जाती हैं। कितने ही होनहार बालक ऐसी परिस्थितियों में बड़े होने से पहले ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेते हैं। बहुमूल्य पौधे और प्राणी जब—अपने लिए उपयुक्त जलवायु की मांग करते हैं तो दिव्य आत्माओं को सुसंस्कृत परिवार में रहने और पलने की बात में भी कोई औचित्य है। परिवार निर्माण अभियान की प्रक्रिया से व्यक्ति और समाज में नव-निर्माण का प्रत्यक्ष उद्देश्य तो सन्निहित है ही उसके पीछे रहस्यमय प्रयोजन ऐसा वातावरण बनाना भी है जिसमें दिव्य आत्माओं को जन्म लेने और ठहरने के लिए अनुकूलता मिल सके।गायत्री तीर्थ में बालकों के नामकरण, अन्नप्राशन, मुण्डन, विद्यारम्भ यज्ञोपवीत आदि संस्कार कराने की व्यवस्था इसलिए रखी गई है कि यदि देवत्व की कहीं कुछ विद्यमानता हो तो उसे अभीष्ट परिपोषण मिल सके। साधकों को शक्तिपात-बड़ों को अनुदान, आशीर्वाद के माध्यम से कई बार महापुरुषों का अनुग्रह मिलता है। बालकों को वह लाभ समर्थ हाथों से उपरोक्त संस्कार कराने से भी उपलब्ध हो सकते हैं और उनके उज्ज्वल भविष्य का आधार बन सकता है।* जन्म समय के आधार पर आत्मिक स्तर का पर्यवेक्षण *नव सृजन का उत्तरदायित्व प्रज्ञा परिवार के कन्धों पर प्रधान रूप से आया है अतएव यह भी निश्चित है कि देवात्माओं का बाहुल्य ही इसी परिकर में होगा। परिजनों में से आत्मिक स्तर पर कौन-कौन श्रेणी का है । इसकी जानकारी उनके जन्म समय को जानने से ही मिल सकती है। जन्म कुण्डली यदि सही बनी है तो उसके आधार पर मनुष्य के सम्बन्ध में रहस्यमय जानकारियां प्राप्त हो सकती हैं। अतएव यह सोचा गया है कि वर्तमान परिजनों की जन्म कुण्डलियों पर एक बार दृष्टि डाल ली जाय और इस आधार जिसमें कुछ विशिष्टता दृष्टिगोचर होती है उन्हें अधिक अनुदान देने, दिलाने का कुछ ऐसा उपक्रम किया जाय जिससे वे अपनी विशिष्टता को सार्थक बना सकें।इस प्रयोजन के लिए सभी परिजनों से उनकी पत्नि और बच्चों के सह जन्म समय की मांग की जा रही है। यह शान्तिकुंज हरिद्वार के पते पर भेजे जाने चाहिए। इनका निरीक्षण एवं पर्यवेक्षण विशिष्ट तरीके से किया जायेगा। इनकी जन्म कुण्डलियां नई बनाई जायेंगी। अन्यों की बनाई हुई कुण्डलियां अपने पर्यवेक्षण के लिए काम न आ सकेंगी।खगोल विद्या अति कठिन विषय और विज्ञान है। उसमें गणित प्रायः वैसा ही करना पड़ता है, जैसा कि अन्तरिक्षयान छोड़ने तथा उन पर नियन्त्रण करने वाले ‘कम्प्यूटर’ करते हैं। ज्योतिष में उच्चस्तरीय गणितज्ञों की आवश्यकता होती है। आज तो लकीर पिटती है। पंचांग हर क्षेत्र का अलग होना चाहिए क्योंकि स्थानों के हिसाब से ‘पलमा’ बदलता है। तदनुसार हर स्थान के पंचांगों में अन्तर पड़ना चाहिए। आज तो पंचांग निर्माण किसी विशेष नगर की ‘पलमा’ लेकर पंचांग बना देते हैं। उसी को दूर-दूर के पण्डित प्रयोग में लाते हैं। गृह गणना का गणित अति कठिन है। उसे कर सकने के लिए एम.ए. से अधिक की ही गणितज्ञता होनी चाहिए और हर छोटे प्रयोजन के लिए पूरा गणित किया जाना चाहिए। आज ऐसी प्रतिभाओं का सर्वथा अभाव है। छपी सारणियों के आधार पर मिनटों में लम्बे गणितों का प्रयोजन पूरा कर लिया जाता है। ऐसी दशा में उनका सही होना कठिन है।ज्योतिष गणना में समय-समय पर हेर-फेर होते रहना आवश्यक है। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा 360 या 365 दिन में नहीं करती। उनमें घण्टों, मिनट, सैकिण्डों का अन्तर रहता है। वर्ष का सही गणित नहीं बन सका। मोटा अनुमान ही चला आ रहा है। जो आगा-पीछा होता है, उसे अंग्रेजी कलैण्डर में महीनों की तारीखें न्यूनाधिक करके ठीक किया जाता है। भारतीय गणित में तिथियों का ही नहीं महीनों तक का क्षय एवं वृद्धि क्रम चलता रहता है। इतने पर भी सब कुछ सच नहीं बैठता। पांच हजार वर्ष में ग्रहों की स्थिति में और पंचांग की गणना से इतना अन्तर पड़ जाता है कि तारकों और ग्रहों के उदय अस्त में कई बार तो सप्ताहों तक का अन्तर देखा जाता है। जो ग्रह अस्त हो गया वह दृश्य रूप में उदय दीखता है। जिसके उदय का उल्लेख है वह कई दिन पहले अस्त हो चुका होता है। पुराने समय में दृश्य गणित के आधार पर पंचांगों का समय-समय पर परिशोधन किया जाता था। अब वह स्थिति नहीं रही। ऐसे ही अन्धेरगर्दी चलती है और जन्म कुण्डलियां बनती हैं। उनके आधार पर किसी सही निष्कर्ष पर पहुंचना कठिन है। इसलिए जब यह नया काम हाथ में लिया ही गया है तो उसे पूरी जिम्मेदारी और तत्परता से ही पूर्ण किया जायेगा। जिनका भी सूक्ष्म पर्यवेक्षण करना है उनकी कुण्डली स्वयं ही बनाई और स्वयं ही देखी जायेगी। दिव्य आत्माओं का स्तर समझने और उन्हें पकड़ने का प्रयोजन इससे कम में पूरा नहीं हो सकता।इस प्रयोजन के लिए अपनी निजी वेधशाला बनाई जा रही है। उसमें आधुनिक और पुरातन दोनों ही आधार रहेंगे। इन दिनों बहुमूल्य ‘‘टेलिस्कोपों’’ से यह काम पूरा होता है। प्राचीन काल में वेधशालाएं इस प्रयोजन को पुराने ढंग से पूरा करती थीं। दिल्ली, जयपुर, उज्जैन, अहमदाबाद, आदि की वेधशालाएं प्रख्यात हैं। जयपुर नरेश ने इस सम्बन्ध में विशेष रुचि ली थी और विशेष निर्माण कराये थे। आज तो वे विद्याएं एक प्रकार से लुप्त हो ही गई हैं और उन वेधशालाओं का उपयोग करना तो दूर-विनिर्मित यन्त्रों का उद्देश्य समझ सकने वाले तक ढूंढ़े नहीं मिलते। यह सारा बिखरा सरंजाम एक जगह इकट्ठा करना और उसमें पूर्वात्य पाश्चात्य खगोल विद्या का समावेश करना लगभग उतना ही कठिन है जितना ब्रह्म वर्चस का शोध प्रयोजन। ऐसे कार्य श्रम साध्य, साधन साध्य एवं कष्ट साध्य होते हैं। इनके निर्माण में उच्चस्तरीय ज्ञान और प्राचीन आधुनिक का समन्वय करने के लिए अभीष्ट अध्यवसाय की भी आवश्यकता पड़ती है। जो हो, बड़ा काम हाथ में लिया है तो बड़ा प्रयोजन भी पूरा ही करना पड़ेगा। वेधशाला बनाने और आकाश दर्शी दूरबीन खरीदने का प्रयास आरम्भ कर दिया गया है। प्रस्तुत बसन्त पर्व को उसका भी शुभारम्भ दिन समझा जायेगा। ज्योतिर्विज्ञान का उसे पुनर्जीवन कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी।प्रज्ञा परिवार में सम्मिलित प्रतिभाओं का स्तर तथा भविष्य जानने की दृष्टि से इस विज्ञान को नये सिरे से हाथ में लिया गया है। उसमें तीन लाभ हैं, एक तो विज्ञान का स्वरूप निखरने से उसकी प्रामाणिकता एवं उपयोगिता का लाभ जन-जन को मिलेगा। दूसरे प्रतिभाएं ढूंढ़ने और उन्हें उपयुक्त दिशा देने में सफलता मिलेगी। तीसरे जिनकी देखभाल की जायेगी, वे अपने लिए सफलता पाने योग्य मार्ग का निर्धारण एवं अनुसरण कर सकेंगे। ज्योतिषियों की तरह फलदिश बताने, लिखने की बात तो नहीं बनायी गयी है पर अधिक सफल होने के लिए दिशा निर्धारण का लाभ तो सम्बद्ध लोगों में से हर किसी को मिल सके, इसकी व्यवस्था की गयी है।युग सृजन में आन्दोलन हो या लोक शिक्षण हो एक काम नहीं हैं। अनेक साधनों का उत्पादन, अभिवर्धन, व्यवस्था, कला, साहित्य, शिल्पी अन्वेषण जैसे जनहित के अनेकों काम हैं जिसमें लगना भी जन नेतृत्व जैसा ही महत्वपूर्ण काम है। अगले दिनों जहां अनेकों अवांछनीयताएं निरस्त करनी हैं वहां अनेकों सत्प्रवृत्तियों को उपयोगी साधनों को नये सिरे से बनाना बढ़ाना भी है। इसके लिए यह देखना होगा कि किन में क्या जन्मजात विशेषता है, उसे उभारना किन उपायों से संभव हो सकता है और किसे क्या काम करने में सहज सफलता मिल सकती है। यही जन्म समय और सही गणित के आधार पर बनी हुई जन्म कुण्डलियां इस प्रयोजन के लिए बहुत सहायक हो सकती है। दृश्य गणित का पंचांग इसी आधार पर गत दो वर्षों से सफलतापूर्वक निकाला जाता रहा है।भविष्य फल बताने का पंडिताई ढर्रा अपने यहां नहीं है। जिस उद्देश्य के लिए यह खोज की जा रही है, उसी तक सीमित रहा गया है। भाग्य एवं भविष्य बताने में अनेकों समस्याएं उत्पन्न होती हैं। शुभ भाग्य कहना अकर्मण्यता उत्पन्न करता है और अशुभ कहने से लोग डरते घबराते हैं। दोनों ही परिस्थितियों में सन्तुलन बिगड़ता है और मनुष्य पुरुषार्थ परायणता छोड़कर कल्पना जगत में विचारना आरम्भ कर देता है। अनावश्यक उत्साह या भय उत्पन्न करना अपना उद्देश्य नहीं। इस राष्ट्र की अपनी खदान में मणि माणिकों की उपस्थिति का पता चल जाय, वही सबसे बड़ा लाभ है।अन्तर्ग्रही परिस्थितियों के पर्यवेक्षण के निमित्त विनिर्मित शांतिकुंज की वेधशालापृथ्वी का जितना अपना वैभव, उत्पादन है, उसकी तुलना में उसे अन्तर्ग्रही भण्डार से कहीं अधिक मात्रा में उपलब्ध होता रहता है। अन्यान्य ग्रह-नक्षत्रों ने पृथ्वी को बहुत कुछ मिलता है इससे वह अत्यधिक प्रभावित होती है। यह प्रभाव भले भी होते हैं और बुरे भी। वे प्राणियों, पदार्थों, वनस्पतियों को, विशेषतया संवेदनशील मनुष्य को प्रभावित करते हैं। उस प्रभाव से समूचे वातावरण में उथल-पुथल होती रहती है, यह कई बार उपयोगी भी होती है और कभी-कभी प्रतिकूल प्रभाव भी डालती है।इन प्रभावों को जानने की विद्या का ज्ञान ज्योतिष है। उसके द्वारा यह पता चलता है कि ब्रह्माण्ड में अवस्थित ग्रह नक्षत्रों की कब कहां कैसी स्थिति है? सौर मण्डल के ग्रह उपग्रह पृथ्वी के अधिक निकट हैं तथा परस्पर अधिक सघनता के साथ आबद्ध भी हैं, इसलिए उनका प्रभाव और भी अधिक पड़ता है। अन्तरिक्षीय घटनाक्रम की पूर्व जानकारी रहने से हम आये दिन अपनी व्यवस्था बनाते-बदलते रहते हैं। सर्दी गर्मी वर्षा अन्तरिक्षीय हलचलें हैं। इनकी पूर्व जानकारी रहने से हमारी कितनी ही योजनाएं बनती-बदलती रहती हैं, आंधी-तूफान का पूर्वाभास होता है, बचाव का कुछ न कुछ प्रबन्ध करते हैं।यह ज्ञात विषय है। मनुष्य के स्वास्थ्य संतुलन एवं वैभव को भी अन्तर्ग्रही स्थिति असाधारण रूप से प्रभावित करती है। इस संदर्भ में जिन्हें अधिक गहरी जानकारी है वे समझते हैं कि पृथ्वी का वैभव ही सब कुछ नहीं है। अन्तरिक्षीय वातावरण पर भी मनुष्य की अनुकूलता प्रतिकूलता बहुत कुछ निर्भर करती है। स्वाभाविक है कि इस सन्दर्भ में अधिक जानने की इच्छा हो और उस आधार पर दुष्प्रभावों से बचने और सत्प्रभावों से लाभान्वित होने का मन चले। इस जिज्ञासा का समाधान ज्योतिष शास्त्र के सहारे ही हो सकता है। अस्तु उसका महत्व विज्ञान की अन्यान्य धाराओं से कम नहीं माना गया।धरती और समुद्र से सम्पदा सुविधा उपलब्ध करने भर से मनुष्य का काम नहीं चला, अब वह अन्तरिक्ष में बिखरे वैभव को समेटने के लिए आतुर है। वायुयानों से सन्तोष नहीं हुआ। पृथ्वी के इर्द-गिर्द घूमने वाले उपग्रहों और अन्तर्ग्रही यात्रा पर निकलने वाले राकेटों पर प्रचुर धन साधन एवं बुद्धि कौशल नियोजित किया जा रहा है। इस आधार पर कि आकाश में विद्यमान अन्तरिक्षीय प्रभाव वैभव में से और कुछ उपलब्धियां हाथ लगें, सुरक्षा के अधिक उपाय सूझ पड़ें, यह सब खगोल विद्या के सहारे हो रहा है। खगोल की अन्तरिक्ष विद्या का नाम ही ज्योतिष है। उसमें ग्रहों की चाल तथा पारस्परिक घात-प्रतिघात के आधार पर बनने-बिगड़ने वाले तारतम्य को देखते हुए यह पता लगाया जाता है कि उन हलचलों का पृथ्वी पर कब, कैसा, कितना प्रभाव पड़ेगा, वह किसके लिए किस प्रकार उपयोगी या अनुपयोगी सिद्ध होगा।भारतीय ज्योतिर्विज्ञान सचेतन अन्तर्ग्रही प्रभावों के सूक्ष्म परिणामों की उच्चस्तरीय जानकारी से सम्बद्ध है, जबकि विज्ञानी मात्र स्थूल ग्रह प्रभावों को ही समझ पाते हैं। दुर्भाग्य इस बात का है कि भारतीय ज्योतिर्विज्ञान प्रतिगामिता और निहित स्वार्थों के कुचक्र में पड़कर उपहासास्पद स्थिति वाले गर्त में जा गिरा। भाग्यवाद भविष्य कथन अनिष्ट श्रेष्ठ जैसी विडम्बनाएं उसके साथ जुड़ गईं। इसके अतिरिक्त उसके सही स्वरूप निर्धारण करते रहने के लिए जो समय-समय पर किया जाना था, उसे भी आलस्य तथा अज्ञान के कारण उपेक्षित कर दिया गया।सर्वविदित है कि पृथ्वी न तो पूरे 24 घण्टे में अपनी धुरी पर घूमती है और न 360 दिन में सूर्य की परिक्रमा करती है; यह निर्धारण काम चलाऊ है। कुछ मिनट सेकेण्ड का अन्तर पड़ते रहने से कुछ शताब्दियों बाद ऐसी स्थिति आ जाती है कि उस अन्तर को दृश्य गणित के आधार पर शुद्ध किया जाय। यों तिथियों के महीनों के क्षय वृद्धि के आधार पर थोड़ा बहुत संतुलन बिठाया जाता रहता है, फिर भी अन्तर बढ़ता ही रहता है। इसी परिशोधन के लिए दृश्य गणित काम में लाया जाता है और वेधशालाओं के माध्यम से वर्तमान स्थिति को देखकर पुरातन आधार पर बनते आ रहे पंचांगों में सुधार करना पड़ता है। खेद की बात है कि इन दिनों दृश्य गणित के आधार पर चलने वाली संशोधन-प्रक्रिया की ओर भारतीय ज्योतिर्विदों का ध्यान मुड़ ही नहीं रहा है।आवश्यक समझा गया कि ब्रह्मवर्चस् की शोध प्रक्रिया के अन्तर्गत-भारतीय ज्योतिष शास्त्र को पुनः प्राचीनकाल जैसी स्थिति में लाया जाय। इस हेतु सर्वप्रथम पुरातन आधार पर वेधशाला बनाने का निश्चय किया गया। शांति-कुंज में इसका निर्माण हुआ है। उसमें प्रायः उन सभी गणित उपकरणों को विनिर्मित किया गया है, जो भारतवर्ष में कहीं भी विद्यमान हैं एवं आज की स्थिति में आवश्यक है। यह अपने ढंग की अनोखी वेधशाला है, जो आकार में छोटी होते हुए भी प्राचीनकाल के महान गणितज्ञों द्वारा अपनाये जाने वाले प्रायः सभी महत्वपूर्ण उपकरणों से सम्पन्न है।इन्हीं दिनों यह प्रयोगशाला इसलिए बनानी पड़ी कि युग सन्धि के इन बीस वर्षों में—सन् 1980 से 2000 तक की अवधि में संसार में बहुत भारी उथल-पुथल होने की सम्भावना है। उसमें मनुष्यगत हलचलें कम—दैवी उथल-पुथल अधिक बड़ी भूमिका सम्पन्न करेगी। अगले दिनों ग्रहणों की श्रृंखला, सूर्य कलंक, धूमकेतु आदि के प्रत्यक्ष, और विक्षुब्ध प्रकृति के अप्रत्यक्ष प्रकोप ऐसे हैं, जिन्हें अन्तरिक्षीय पर्यवेक्षण के आधार पर ही जाना जा सकता है, अस्तु, ब्रह्मवर्चस् शोध प्रक्रिया के अन्तर्गत ज्योतिर्विज्ञान अनुसन्धान का तन्त्र खड़ा किया गया है।इसी आधार पर गत दो वर्षों से अभिनव पंचांग भी प्रकाशित किया जा रहा है, जो दृश्य गणित के आधार पर ग्रह नक्षत्रों की सही स्थिति प्रकट कर सकने में समर्थ हैं। अब नवग्रहों में नेपच्यून, प्लेटो क्षोर यूरेनस यह तीन ग्रह और जुड़ गये। नये पंचांग में उनका भी समावेश है और उनकी स्थिति का भी पुराने ग्रहों की तरह ही गणित किया गया है।मनुष्य पर ग्रह दशा का क्या असर पड़ना चाहिए। इसके लिए यह आवश्यक है कि जन्म—समय का इष्ट सही हो। इसे सही रखने और कुण्डली बनाने के लिए स्टैण्डर्ड टाइम नहीं वरन् स्थानीय समय का सूर्योदय काल चाहिए। इन दिनों जो पंचांग छपते हैं, वे प्रकाशक या लेखक के स्थान की पलभा पर ही बने होते हैं। जबकि पंचांग गणित उस स्थान का होना चाहिए, जहां कि बालक जन्मा है। आजकल ऐसा नहीं होता है। जोधपुर के पंचांग पर कलकत्ते में जन्में बच्चे की कुण्डली बनती है। होना यह चाहिए कि स्थानीय पंचांग विनिर्मित होते और उसी आधार पर इष्ट अथवा लग्न का निर्धारण होता? यह विद्या एक प्रकार से लुप्त हो चली, जो जानते हैं वे परिश्रम नहीं करते। इस कमी को दूर करने के लिए ब्रह्मवर्चस् पंचांग में समूचे आधार का उल्लेख किया जा रहा है ताकि कोई भी ज्योतिर्विद् स्थानीय पंचांग बना सके और सही जन्म कुण्डली बनाकर उस आधार पर सही निष्कर्ष निकाल सके। इसे ज्योतिष क्षेत्र की एक नई उपलब्धि ही कहा जाना चाहिए।युग सन्धि की इस पुनीत बेला में कितनी दिव्य आत्माएं जन्मी तथा बढ़ रही हैं। उन्हें युग परिवर्तन के समय विशेष भूमिकाएं निभानी हैं, ऐसे संस्कारवान् देव मानव पूर्व जन्मों की विभूतियां साथ लाये होंगे, तो ही यह सम्भव होगा कि वे इन दिनों कोई बड़ा उत्तर दायित्व संभाल सकें। ऐसी आत्माओं को खोजने और उन्हें परिष्कृत करने की ठीक वैसी ही आवश्यकता पड़ रही है, जैसी कि दशरथ पुत्रों की, दिव्य विशेषताओं का सूक्ष्म परिचय प्राप्त करके विश्वामित्र उन्हें आग्रह पूर्वक प्रशिक्षण के लिए ले गये थे। विवेकानन्द, शिवाजी, चन्द्र गुप्त आदि को उनके दिव्यदर्शी गुरुओं ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से खोजा था और उन संस्कार सम्पदा वालों को तनिक से प्रयास से उभार कर बड़े-बड़े प्रयोजनों को पूर्ण कराया था।यह विभीषिकाओं का युग है। उसमें मानवी गतिविधियां तो उथल-पुथल के लिए प्रधानतया उत्तरदायी हैं ही, पर कुपित प्रकृति की भूमिका भी कम खतरनाक नहीं है। इस सन्दर्भ में पूर्वाभास होने की स्थिति में बचाव के कुछ उपाय सोचना और कुछ मार्ग निकालना सम्भव हो सकता है। ऐसे अवसरों पर अन्तर्ग्रही अनुदान भी विपत्ति को टालने और सुखद सम्भावनाओं का पथ-प्रशस्त करने में सहायक हो सकते हैं। ऐसा तारतम्य बिठाने में भारतीय ज्योतिष के आधार पर ऐसी सूक्ष्म जानकारियां प्राप्त की जा सकती है, जैसी कि भौतिक विज्ञान के आधार पर विनिर्मित एस्ट्रालॉजी के यन्त्र उपकरणों से सम्भव नहीं।भारतीय ज्योतिर्विज्ञान में मात्र अदृश्य का पूर्वाभास ही एक लाभ नहीं है, वरन् अनिष्टों के निवारण और शुभ सम्भावनाओं के आकर्षण अवतरण का आधार भी विद्यमान है। युग सन्धि के दिनों में ऐसे अदृश्य सहयोग की असाधारण आवश्यकता है, जो विनाश के कगार पर खड़ी हुई मानवी सभ्यता एवं धरती को उबार सकने का आधार अवलम्बन बन सके।सामान्य व्यक्तियों को भी इस आधार पर कुछ न कुछ कहा—बताया ही जा सकता है। अशुभ से बचाने और शुभ की ओर इंगित करने पर डूबते को तिनके का सहारा मिल सकता है। राई को पर्वत बनने का ऐसे ही कारणों से सुयोग बनता है। ऐसे अनेक कारण हैं जिन्हें ध्यान में रखते हुए शान्ति-कुंज में ज्योतिर्विज्ञान की वेधशाला खड़ी की गई है। और अनुसन्धान के लिए विशिष्ट तत्परता दिखाई गई है।शांति-कुंज की वेधशाला में जो यन्त्र उपकरण लगे हैं, उनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं। (1) पलभा यन्त्र (2) मकर वलय (3) कर्क वलय (4) नाड़ी वलय (5) उन्नतांश (6) चक्र यन्त्र (7) कपाल यन्त्र (8) दिगंश तन्त्र (10) आधुनिक दूरवीक्षण यन्त्र (टेलिस्कोप)।इनका उपयोग किस ग्रह गणित के लिए किस प्रकार किया जाता है। यह समझना-समझाना उन्हीं के लिए सरल पड़ेगा, जिन्हें ज्योतिष विज्ञान की पूर्व जानकारी है। साधारण व्यक्तियों के लिये तो इतनी जानकारी ही पर्याप्त है कि पुरातन ज्योतिर्विज्ञान के इस विज्ञान सम्मत स्वरूप से सभी समान रूप से लाभ उठाते रह सकते हैं। इसके लिए ब्रह्मवर्चस् शान्तिकुंज के ज्योतिर्विज्ञान विभाग से सम्पर्क कर भली-भांति समझा जा सकता है।***