Books - अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
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Language: HINDI
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करुणा कर सकती है—चंचल मन पर काबू
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अन्तर्यात्रा विज्ञान हर निर्मल योग साधक की आन्तरिक गुत्थियों को सुलझाता है। उलझे मन के अनेकों धागे इसके जादुई असर से अपने आप सुलझ जाते हैं। अन्तस् की गांठें इसकी छुअन से अपने ही आप खुल जाते हैं।
साधकों की यह आम समस्या है कि व्यवहार की गड़बड़ियाँ से भी मन इतना चंचल व अस्थिर हो जाता है कि योग साधना की स्थिति ही नहीं बनती। इस समस्या का निराकरण महॢष अपने अगले सूत्र में कहते हैं। वे कहते हैं-
मैत्रीकरुणामुदितोयेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्॥ १/३३॥
शब्दार्थ-सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणाम्= सुखी, दुःखी, पुण्यात्मा और पापात्मा, ये चारों जिनके क्रम से विषय है, ऐसी; मैत्रीकुरूणामुदितोयेक्षाणाम्= मित्रता, दया, प्रसन्नता और उपेक्षा की; भावनातः= भावना से; चित्तप्रसादनम्= चित्त स्वस्थ हो जाता है।
अर्थात् आनन्दित व्यक्ति के प्रति मैत्री, दुःखी व्यक्ति के प्रति करुणा, पुण्यवान् के प्रति मुदिता तथा पापी के प्रति उपेक्षा, इन भावनाओं का सम्वर्धन करने से मन शान्त हो जाता है।
महॢष पतंजलि के इस सूत्र में व्यावहारिक जीवन की सभी समस्याओं के समाधान समाहित है। इसे यदि व्यवहार चिकित्सा का आधारभूत तत्व कहें तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। व्यवहार चिकित्सा के द्वारा चिकित्सक न केवल मनोरोगी के आन्तरिक घावों को ठीक करता है, बल्कि उसके व्यवहार को सुधारता व सँवारता है। फिर यह व्यवहार बच्चे का हो या फिर युवक अथवा प्रौढ़ का। महॢष पतंजलि इस सूत्र में व्यवहार के परिष्कार से चित्त के परिष्कार की विधि सुझाते हैं। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि ‘व्यवहार सुधरे तो चित्त सँवरे।’
महॢष के सूत्र में चार आयाम हैं। इनमें से पहला आयाम है मैत्री का। महॢष कहते हैं कि मैत्री आनन्दित व्यक्ति से। परम पूज्य गुरुदेव इस तत्व की व्याख्या में कहते थे- मैत्री शब्द से तो सभी परिचित हैं, पर अर्थ को प्रायः कोई नहीं जानता। प्रायः लोग मैत्री उससे करते हैं, जिससे कुछ लाभ मिलने वाला हो, जिसमें अपना लोभ टिका हो। इस लाभ और लोभ के बावजूद भी सच्ची मैत्री के दर्शन नहीं हो पाते। बस मित्रता का ऊपरी दिखावा होता है। यथार्थ में तो सुखी और आनन्दित व्यक्ति के प्रति सामान्य मन ईर्ष्या से भर जाता है। दाह और जलन मन को झुलसाने लगते हैं। गुरुदेव कहते थे कि सुखी व आनन्दित से मैत्री का भाव इसलिए होना चाहिए, क्योंकि सुखी रहने की, जीवन जीने की कला सीखी जा सकती है। उससे आनन्दित होने की तकनीकें जानी जा सकती हैं। उसके सहचर्य में जीवन की सही डगर खोजी जा सकती है। बस इस सम्बन्ध में बात इतनी जरूर देख ली जाय कि उसका आनन्द किसी साधन-सुविधा पर न टिका रह कर आत्मा की गहराइयों से उपजा हो।
महर्षि के सूत्र का दूसरा आयाम है करुणा। करुणा दुःखी व्यक्ति के प्रति। फिर यह दुःखी कोई भी क्यों न हो। युगऋषि गुरुदेव का कहना था कि दुःखियों को प्रायः व्यंग्य, अपमान व तिरस्कार का शिकार होना पड़ता है। न तो कोई उनकी सहायता के लिए तत्पर होता है और न कोई उनका हाथ थामता है। गुरुदेव कहते थे- जो प्रत्येक दुःखी में नारायण का दर्शन करता है, उसकी सेवा के लिए स्वयं को न्यौछावर करता है, वही सच्चा योग साधक है। ध्यान रहे सम्वेदना का एक ही अर्थ है। सम+वेदना यानि कि किसी की पीड़ा से हमें भी उतनी ही व्याकुलता होनी चाहिए जितनी कि उसकी है। पीड़ित के प्रति करुणा यही योगधर्म है। फिर वह पीड़ित कोई बुरा हो या भला। गुरुदेव कहा करते थे कि दुःखी सिर्फ दुःखी होता है, वह न भला होता है और न बुरा। वह न पापी होता है न पुण्यात्मा। वह तो सिर्फ नारायण होता है। उसके प्रति तो केवल सम्वेदनशील होकर सेवाधर्म निभाया जाना चाहिए।
महॢष के सूत्र का तीसरा आयाम है- मुदिता। मुदिता सफल व्यक्ति के प्रति, पुण्यवान् के प्रति। हालांकि लोकचलन में सफल व्यक्ति केवल ईर्ष्या के पात्र बनते हैं। प्रत्यक्ष में भले ही कोई उन्हें बधाई देता रहे, प्रशंसा करता रहे, पर परोक्ष में उसे नीचा दिखाने वाले उपाय ही सोचे जाते हैं। गुरुदेव कहते थे किसी की सफलता पर हमें न केवल प्रसन्न होना चाहिए, बल्कि उससे प्रेरणा लेना चाहिए। जो जीवन की तह को जानते हैं, जीवन के मर्म से परिचित हैं, उन्हें मालूम है कि प्रत्येक सफलता केवल पुण्य का परिणाम होती है। पुण्य कर्मों के परिणाम ही व्यक्ति को सफल बनाते हैं। हालाँकि इन्हें हासिल करने के लिए व्यक्ति कभी-कभी दुष्कर्मों का भी सहारा लेता है। लेकिन सफलता कभी भी दुष्कर्मों का परिणाम नहीं होती। इन दुष्कर्मों के कारण या तो सफलता अधूरी रह जाती है- या फिर कलंकित हो जाती है। इसलिए किसी की भी सफलता के पीछे छुपे उसके पुण्य कर्मों की ओर नजर डालकर हमें प्रसन्न होना चाहिए।
महॢष के सूत्र का चौथा आयाम है- उपेक्षा। हमें उपेक्षा उनकी करनी चाहिए, जो यथार्थ में पापी हैं और कदम-कदम पर हमें नुकसान पहुँचाने की कोशिश करते हैं। ऐसों के प्रति हमारे मन में न तो द्वेष रहे और न घृणा। इनसे हर पग पर हमको टकराने की भी कोई जरूरत नहीं। इनसे तो बस बचा जाना चाहिए। और इसका एक ही उपाय है-इनकी उपेक्षा। ये बेचारे हैं- इनके प्रति द्वेष भाव रखकर अपने मन को मलिन नहीं करना चाहिए। हाँ, जब परिस्थितियाँ विषमता से भरी हो और जीवन में ऐसे दुष्ट जनों की भरमार हो, तो ऐसे में इनकी उपेक्षा करके सारा ध्यान अपने तपबल बढ़ाने में लगाना चाहिए। यह तप ही हमें इन पापियों से बचाता है और इसी से जीवन की नयी राहें खुलती हैं।
और अन्त में इस सूत्र के उपसंहार क्रम में महॢष कहते हैं कि व्यवहार के इन सभी चार तत्वों का अनुपालन करने से चित्त स्वच्छ हो जाता है, क्योंकि इस प्रक्रिया से अतीत में पड़ी मन की सभी गाँठें खुल जाती हैं और नयी ग्रन्थियों के होने की संभावना समाप्त हो जाती है। बस, अन्तस् का सविधि सम्पूर्ण परिष्कार ही इस व्यवहार साधना का मर्म है।
साधकों की यह आम समस्या है कि व्यवहार की गड़बड़ियाँ से भी मन इतना चंचल व अस्थिर हो जाता है कि योग साधना की स्थिति ही नहीं बनती। इस समस्या का निराकरण महॢष अपने अगले सूत्र में कहते हैं। वे कहते हैं-
मैत्रीकरुणामुदितोयेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्॥ १/३३॥
शब्दार्थ-सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणाम्= सुखी, दुःखी, पुण्यात्मा और पापात्मा, ये चारों जिनके क्रम से विषय है, ऐसी; मैत्रीकुरूणामुदितोयेक्षाणाम्= मित्रता, दया, प्रसन्नता और उपेक्षा की; भावनातः= भावना से; चित्तप्रसादनम्= चित्त स्वस्थ हो जाता है।
अर्थात् आनन्दित व्यक्ति के प्रति मैत्री, दुःखी व्यक्ति के प्रति करुणा, पुण्यवान् के प्रति मुदिता तथा पापी के प्रति उपेक्षा, इन भावनाओं का सम्वर्धन करने से मन शान्त हो जाता है।
महॢष पतंजलि के इस सूत्र में व्यावहारिक जीवन की सभी समस्याओं के समाधान समाहित है। इसे यदि व्यवहार चिकित्सा का आधारभूत तत्व कहें तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। व्यवहार चिकित्सा के द्वारा चिकित्सक न केवल मनोरोगी के आन्तरिक घावों को ठीक करता है, बल्कि उसके व्यवहार को सुधारता व सँवारता है। फिर यह व्यवहार बच्चे का हो या फिर युवक अथवा प्रौढ़ का। महॢष पतंजलि इस सूत्र में व्यवहार के परिष्कार से चित्त के परिष्कार की विधि सुझाते हैं। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि ‘व्यवहार सुधरे तो चित्त सँवरे।’
महॢष के सूत्र में चार आयाम हैं। इनमें से पहला आयाम है मैत्री का। महॢष कहते हैं कि मैत्री आनन्दित व्यक्ति से। परम पूज्य गुरुदेव इस तत्व की व्याख्या में कहते थे- मैत्री शब्द से तो सभी परिचित हैं, पर अर्थ को प्रायः कोई नहीं जानता। प्रायः लोग मैत्री उससे करते हैं, जिससे कुछ लाभ मिलने वाला हो, जिसमें अपना लोभ टिका हो। इस लाभ और लोभ के बावजूद भी सच्ची मैत्री के दर्शन नहीं हो पाते। बस मित्रता का ऊपरी दिखावा होता है। यथार्थ में तो सुखी और आनन्दित व्यक्ति के प्रति सामान्य मन ईर्ष्या से भर जाता है। दाह और जलन मन को झुलसाने लगते हैं। गुरुदेव कहते थे कि सुखी व आनन्दित से मैत्री का भाव इसलिए होना चाहिए, क्योंकि सुखी रहने की, जीवन जीने की कला सीखी जा सकती है। उससे आनन्दित होने की तकनीकें जानी जा सकती हैं। उसके सहचर्य में जीवन की सही डगर खोजी जा सकती है। बस इस सम्बन्ध में बात इतनी जरूर देख ली जाय कि उसका आनन्द किसी साधन-सुविधा पर न टिका रह कर आत्मा की गहराइयों से उपजा हो।
महर्षि के सूत्र का दूसरा आयाम है करुणा। करुणा दुःखी व्यक्ति के प्रति। फिर यह दुःखी कोई भी क्यों न हो। युगऋषि गुरुदेव का कहना था कि दुःखियों को प्रायः व्यंग्य, अपमान व तिरस्कार का शिकार होना पड़ता है। न तो कोई उनकी सहायता के लिए तत्पर होता है और न कोई उनका हाथ थामता है। गुरुदेव कहते थे- जो प्रत्येक दुःखी में नारायण का दर्शन करता है, उसकी सेवा के लिए स्वयं को न्यौछावर करता है, वही सच्चा योग साधक है। ध्यान रहे सम्वेदना का एक ही अर्थ है। सम+वेदना यानि कि किसी की पीड़ा से हमें भी उतनी ही व्याकुलता होनी चाहिए जितनी कि उसकी है। पीड़ित के प्रति करुणा यही योगधर्म है। फिर वह पीड़ित कोई बुरा हो या भला। गुरुदेव कहा करते थे कि दुःखी सिर्फ दुःखी होता है, वह न भला होता है और न बुरा। वह न पापी होता है न पुण्यात्मा। वह तो सिर्फ नारायण होता है। उसके प्रति तो केवल सम्वेदनशील होकर सेवाधर्म निभाया जाना चाहिए।
महॢष के सूत्र का तीसरा आयाम है- मुदिता। मुदिता सफल व्यक्ति के प्रति, पुण्यवान् के प्रति। हालांकि लोकचलन में सफल व्यक्ति केवल ईर्ष्या के पात्र बनते हैं। प्रत्यक्ष में भले ही कोई उन्हें बधाई देता रहे, प्रशंसा करता रहे, पर परोक्ष में उसे नीचा दिखाने वाले उपाय ही सोचे जाते हैं। गुरुदेव कहते थे किसी की सफलता पर हमें न केवल प्रसन्न होना चाहिए, बल्कि उससे प्रेरणा लेना चाहिए। जो जीवन की तह को जानते हैं, जीवन के मर्म से परिचित हैं, उन्हें मालूम है कि प्रत्येक सफलता केवल पुण्य का परिणाम होती है। पुण्य कर्मों के परिणाम ही व्यक्ति को सफल बनाते हैं। हालाँकि इन्हें हासिल करने के लिए व्यक्ति कभी-कभी दुष्कर्मों का भी सहारा लेता है। लेकिन सफलता कभी भी दुष्कर्मों का परिणाम नहीं होती। इन दुष्कर्मों के कारण या तो सफलता अधूरी रह जाती है- या फिर कलंकित हो जाती है। इसलिए किसी की भी सफलता के पीछे छुपे उसके पुण्य कर्मों की ओर नजर डालकर हमें प्रसन्न होना चाहिए।
महॢष के सूत्र का चौथा आयाम है- उपेक्षा। हमें उपेक्षा उनकी करनी चाहिए, जो यथार्थ में पापी हैं और कदम-कदम पर हमें नुकसान पहुँचाने की कोशिश करते हैं। ऐसों के प्रति हमारे मन में न तो द्वेष रहे और न घृणा। इनसे हर पग पर हमको टकराने की भी कोई जरूरत नहीं। इनसे तो बस बचा जाना चाहिए। और इसका एक ही उपाय है-इनकी उपेक्षा। ये बेचारे हैं- इनके प्रति द्वेष भाव रखकर अपने मन को मलिन नहीं करना चाहिए। हाँ, जब परिस्थितियाँ विषमता से भरी हो और जीवन में ऐसे दुष्ट जनों की भरमार हो, तो ऐसे में इनकी उपेक्षा करके सारा ध्यान अपने तपबल बढ़ाने में लगाना चाहिए। यह तप ही हमें इन पापियों से बचाता है और इसी से जीवन की नयी राहें खुलती हैं।
और अन्त में इस सूत्र के उपसंहार क्रम में महॢष कहते हैं कि व्यवहार के इन सभी चार तत्वों का अनुपालन करने से चित्त स्वच्छ हो जाता है, क्योंकि इस प्रक्रिया से अतीत में पड़ी मन की सभी गाँठें खुल जाती हैं और नयी ग्रन्थियों के होने की संभावना समाप्त हो जाती है। बस, अन्तस् का सविधि सम्पूर्ण परिष्कार ही इस व्यवहार साधना का मर्म है।