Books - अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1
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Language: HINDI
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ध्यान की गहराई में छिपा है—परम सत्य
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योग साधक जैसे- जैसे अन्तर्यात्रा पथ पर आगे बढ़ते हैं, उनकी संवेदनाएँ सूक्ष्म हो जाती है। इस संवेदनात्मक सूक्ष्मता के साथ ही उनमें संवेगात्मक स्थिरता- नीरवता व गहरी शान्ति आती है। और ऐसे में उनके अनुभव भी गहरे, व्यापक व पारदर्शी होते चले जाते हैं। कई बार नए साधक आगे का मार्ग पाने के लिए बेचैन होते हैं। उनमें अध्यात्म की उच्चस्तरीय कक्षा में प्रवेश के लिए त्वरा होती है। यदा- कदा मार्गदर्शक का अभाव उन्हें परेशानी में डालता है। ऐसों के लिए महर्षि पतंजलि के सूत्र एवं परम पूज्य गुरुदेव की अनुभूतियाँ अमृततुल्य औषधि की भाँति है। वह सुझाते हैं, बताते हैं, चेताते हैं कि साधना की अविरामता ही भावी मार्ग की प्राप्ति का कारण है। साधना की अविरामता से उत्तरोत्तर सूक्ष्म होती चेतना स्वतः ही नए मार्ग के द्वार खोलती है। नया पथ प्रशस्त करती है।
सच्चाई यह है कि ये अनुभूतियाँ हमारे अन्तःकरण को प्रेरित, प्रकाशित, प्रवर्तित व प्रत्यावर्तित करती हैं। इसमें उच्चस्तरीय आध्यात्मिक चेतना के अवतरण के साथ एक अपूर्व प्रत्यावर्तन घटित होता है। एक गहन रूपान्तरण की प्रक्रिया चलती है। इस प्रक्रिया के साथ ही योग साधक की दिव्य संवेदनाएँ बढ़ती है और उसकी साधना की ज्योति और भी प्रखर होती है।
इस अनुभूति कथा के अगले चरण को महर्षि ने अपने अगले सूत्र में प्रकट किया है। यह सूत्र है-
विशोका वा ज्योतिष्मती॥ १/३६॥
शब्दार्थ- वा= इसके सिवा (यदि); विशोका= शोकरहित; ज्योतिष्मती= ज्योतिष्मती प्रवृत्ति (उत्पन्न हो जाय तो वह) भी मन की स्थिति स्थिर करने वाली होती है।
अर्थात् अभ्यास के क्रम में उस आन्तरिक प्रकाश का भी ध्यान करो, जो शान्त है और सभी दुःखों से बाहर है।
महर्षि अपने इस सूत्र में ध्यान की गहनता की ओर इंगित करते हैं। ध्यान द्वार है— अतीन्द्रिय संवेदना का। जो ध्यान करते हैं, उन्हें काल क्रम में स्वयं ही इस सत्य का अनुभव हो जाता है। यह सच है कि ध्यान में सम्पूर्ण आध्यात्मिक रहस्य समाए हैं। फिर भी इसका अनुभव कम ही लोग कर पाते हैं। और इसका कारण है कि ध्यान के बारे में प्रचलित भ्रान्तियाँ। कतिपय लोग ध्यान को महज एकाग्रता भर समझते हैं। कुछ लोगों के लिए ध्यान केवल मानसिक व्यायाम भर है। ध्यान को एकाग्रता समझने वाले लोग जिस किसी तरह से मानसिक चेतना को एक बिन्दु पर इकट्ठा करने की कोशिश करते हैं हालाँकि उनके इस प्रयास से परामानसिक चेतना के द्वार नहीं खुलते। उन्हें अन्तर्जगत् में प्रवेश नहीं मिलता। वे तो बस बाहरी उलझनों में भटकते अथवा मानसिक द्वन्द्वों में अटकते रहते हैं।
जबकि ध्यान अन्तर्यात्रा है और यह यात्रा वही साधक कर पाते हैं, जिन्होंने अपनी साधना के पहले चरणों में अपनी मानसिक चेतना को स्थिर, सूक्ष्म व शान्त कर लिया है। अनुभव का सच यही है कि मानसिक चेतना को स्थिरता, सूक्ष्मता व शान्ति ही प्रकारान्तर से परामानसिक चेतना की अनुभूति है। इस अनुभूति में व्यापकता व गुणवत्ता की संवेदना का अतिविस्तार होता है। साथ ही इसे पाने पर अन्तश्चेतना स्वतः ही ऊर्ध्वगमन के लिए प्रेरित होती है।
परम पूज्य गुरुदेव अपनी चर्चाओं व संगोष्ठियों में प्रायः एक बात कहा करते थे कि आध्यात्मिक जीवन की पहली किरण जिसने देख ली, वह स्वतः ही संसार की सभी बुराइयों से दूर हो जाता है। उसका मन अपने आप ही सांसारिक रसों से दूर हो जाता है। गुरुदेव के अनुसार ज्यों- ज्यों हम स्थूल भोगों को भोगते हैं, हमारी चेतना भी उतनी ही स्थूल एवं संवेदनहीन हो जाती है। इतना ही नहीं, हम इतने ज्यादा बहुर्मुखी हो जाते हैं कि हमारी समूची आन्तरिक योग्यताएँ ही समाप्त हो जाती हैं।
इसके विपरीत जब हम सूक्ष्म तत्त्वों के प्रति प्रकाग्र होते हैं तो संवेदना व चेतना भी सूक्ष्म हो जाती है। और साथ ही हमारे सामने सूक्ष्म जगत् की झाँकी झलकने लगती है। जिसने ऐसा किया है, वह आँख बंद करते ही हृदयाकाश में उदित होते हुए सूर्य की झाँकी पा लेता है। यही नहीं हृदय के पास ज्योतित अग्निशिखा भी हमें दिखाई देती है। यद्यपि वह सब समय वहीं पर है, लेकिन हम उसे यूँ ही अभी देख नहीं सकते। दूसरे भी नहीं देख सकते। इसका कारण केवल इतना भर है कि अभी हमारे पास उपयुक्त सूक्ष्म- चेतना का अभाव है। जप की तल्लीनता हो या ध्यान की गहनता इसकी यथार्थ उपलब्धि हमारे अन्तस् की सूक्ष्मता है।
गुरुदेव इस क्रम में एक गायत्री साधक की घटना सुनाते हैं। इन साधक का नाम वीरमणि था। वीरमणि पढ़े तो ज्यादा नहीं थे। पर उनकी अनुभूतियों का संसार अनोखा था। उन्होंने ग्यारह साल की उम्र से गायत्री का जप शुरू किया था। प्रातः सायं गायत्री जप यही उनका नियम था। यूँ उनका पेशा तो खेती करना था। खेती के सभी कामों को वह मनोयोगपूर्वक करते थे। इसी के साथ उनका मानसिक जप भी चलता रहता था। बुवाई, निराई, गुड़ाई, सचाई आदि कार्यों के साथ उन्होंने गायत्री जप का अच्छा क्रम बिठा लिया था। जप के प्रभाव से उनकी भावचेतना उत्तरोत्तर सूक्ष्म होती गयी। जप की गहराई ने कब ध्यान का रूप ले लिया, यह पता ही न चला। बस गायत्री उनके लिए अजपा हो गयी। और ध्यान की प्रगढ़ता भाव समाधि में बदल गयी।
इस प्रगाढ़ ध्यान में वह आन्तरिक प्रकाश में घण्टों डूबे रहते थे। यहाँ तक कि उनका निद्राकाल भी साधना में परिवर्तित हो गया था। जितनी उनकी साधना प्रगाढ़ होती गयी, उतनी ही शान्ति भी गहन होती गयी। इस साधना क्रम में उनकी रुचियाँ, प्रवृत्तियाँ, सभी उत्तरोत्तर सूक्ष्म एवं प्रकाशित हो गयी। कभी पूछने पर वह कहते कि मुझे तो बस इतना ही मालूम है कि आँख बन्द करते ही मैं प्रकाश के महासागर में तैरने लगता हूँ। इस प्रकाश से मेरी समूची दुनिया ही बदल गयी है। पहले मैं प्रयास से साधना करता था, अब तो अपने आप ही साधना होती है। सचमुच ही यह बिना किए होती है। मन अपने आप ही स्थिर, एकाग्र व शान्त रहता है। सब कुछ बदल गया है। बस यही अनुभव होता है कि गायत्री ही प्रकाश है और वह प्रकाश स्वयं मैं हूँ।
पतंजलि कहते हैं कि इस प्रकाश के भाव चेतना में उदय होते ही सारे शोक विलीन हो जाते हैं। जो इसे अनुभव करता है, वह जानता है कि इससे अधिक आनन्दमय और कुछ भी नहीं। और कुछ भी हृदय के भीतर अनुभव होने वाले इस प्रकाश से ज्यादा संगीतपूर्ण एवं सुसंगत नहीं होता है। इसकी अनुभूति जितनी प्रगाढ़ होती है, हम उतने ही ज्यादा शान्तिपूर्ण, मौन व एकजुट हो जाते हैं।
सच्चाई यह है कि ये अनुभूतियाँ हमारे अन्तःकरण को प्रेरित, प्रकाशित, प्रवर्तित व प्रत्यावर्तित करती हैं। इसमें उच्चस्तरीय आध्यात्मिक चेतना के अवतरण के साथ एक अपूर्व प्रत्यावर्तन घटित होता है। एक गहन रूपान्तरण की प्रक्रिया चलती है। इस प्रक्रिया के साथ ही योग साधक की दिव्य संवेदनाएँ बढ़ती है और उसकी साधना की ज्योति और भी प्रखर होती है।
इस अनुभूति कथा के अगले चरण को महर्षि ने अपने अगले सूत्र में प्रकट किया है। यह सूत्र है-
विशोका वा ज्योतिष्मती॥ १/३६॥
शब्दार्थ- वा= इसके सिवा (यदि); विशोका= शोकरहित; ज्योतिष्मती= ज्योतिष्मती प्रवृत्ति (उत्पन्न हो जाय तो वह) भी मन की स्थिति स्थिर करने वाली होती है।
अर्थात् अभ्यास के क्रम में उस आन्तरिक प्रकाश का भी ध्यान करो, जो शान्त है और सभी दुःखों से बाहर है।
महर्षि अपने इस सूत्र में ध्यान की गहनता की ओर इंगित करते हैं। ध्यान द्वार है— अतीन्द्रिय संवेदना का। जो ध्यान करते हैं, उन्हें काल क्रम में स्वयं ही इस सत्य का अनुभव हो जाता है। यह सच है कि ध्यान में सम्पूर्ण आध्यात्मिक रहस्य समाए हैं। फिर भी इसका अनुभव कम ही लोग कर पाते हैं। और इसका कारण है कि ध्यान के बारे में प्रचलित भ्रान्तियाँ। कतिपय लोग ध्यान को महज एकाग्रता भर समझते हैं। कुछ लोगों के लिए ध्यान केवल मानसिक व्यायाम भर है। ध्यान को एकाग्रता समझने वाले लोग जिस किसी तरह से मानसिक चेतना को एक बिन्दु पर इकट्ठा करने की कोशिश करते हैं हालाँकि उनके इस प्रयास से परामानसिक चेतना के द्वार नहीं खुलते। उन्हें अन्तर्जगत् में प्रवेश नहीं मिलता। वे तो बस बाहरी उलझनों में भटकते अथवा मानसिक द्वन्द्वों में अटकते रहते हैं।
जबकि ध्यान अन्तर्यात्रा है और यह यात्रा वही साधक कर पाते हैं, जिन्होंने अपनी साधना के पहले चरणों में अपनी मानसिक चेतना को स्थिर, सूक्ष्म व शान्त कर लिया है। अनुभव का सच यही है कि मानसिक चेतना को स्थिरता, सूक्ष्मता व शान्ति ही प्रकारान्तर से परामानसिक चेतना की अनुभूति है। इस अनुभूति में व्यापकता व गुणवत्ता की संवेदना का अतिविस्तार होता है। साथ ही इसे पाने पर अन्तश्चेतना स्वतः ही ऊर्ध्वगमन के लिए प्रेरित होती है।
परम पूज्य गुरुदेव अपनी चर्चाओं व संगोष्ठियों में प्रायः एक बात कहा करते थे कि आध्यात्मिक जीवन की पहली किरण जिसने देख ली, वह स्वतः ही संसार की सभी बुराइयों से दूर हो जाता है। उसका मन अपने आप ही सांसारिक रसों से दूर हो जाता है। गुरुदेव के अनुसार ज्यों- ज्यों हम स्थूल भोगों को भोगते हैं, हमारी चेतना भी उतनी ही स्थूल एवं संवेदनहीन हो जाती है। इतना ही नहीं, हम इतने ज्यादा बहुर्मुखी हो जाते हैं कि हमारी समूची आन्तरिक योग्यताएँ ही समाप्त हो जाती हैं।
इसके विपरीत जब हम सूक्ष्म तत्त्वों के प्रति प्रकाग्र होते हैं तो संवेदना व चेतना भी सूक्ष्म हो जाती है। और साथ ही हमारे सामने सूक्ष्म जगत् की झाँकी झलकने लगती है। जिसने ऐसा किया है, वह आँख बंद करते ही हृदयाकाश में उदित होते हुए सूर्य की झाँकी पा लेता है। यही नहीं हृदय के पास ज्योतित अग्निशिखा भी हमें दिखाई देती है। यद्यपि वह सब समय वहीं पर है, लेकिन हम उसे यूँ ही अभी देख नहीं सकते। दूसरे भी नहीं देख सकते। इसका कारण केवल इतना भर है कि अभी हमारे पास उपयुक्त सूक्ष्म- चेतना का अभाव है। जप की तल्लीनता हो या ध्यान की गहनता इसकी यथार्थ उपलब्धि हमारे अन्तस् की सूक्ष्मता है।
गुरुदेव इस क्रम में एक गायत्री साधक की घटना सुनाते हैं। इन साधक का नाम वीरमणि था। वीरमणि पढ़े तो ज्यादा नहीं थे। पर उनकी अनुभूतियों का संसार अनोखा था। उन्होंने ग्यारह साल की उम्र से गायत्री का जप शुरू किया था। प्रातः सायं गायत्री जप यही उनका नियम था। यूँ उनका पेशा तो खेती करना था। खेती के सभी कामों को वह मनोयोगपूर्वक करते थे। इसी के साथ उनका मानसिक जप भी चलता रहता था। बुवाई, निराई, गुड़ाई, सचाई आदि कार्यों के साथ उन्होंने गायत्री जप का अच्छा क्रम बिठा लिया था। जप के प्रभाव से उनकी भावचेतना उत्तरोत्तर सूक्ष्म होती गयी। जप की गहराई ने कब ध्यान का रूप ले लिया, यह पता ही न चला। बस गायत्री उनके लिए अजपा हो गयी। और ध्यान की प्रगढ़ता भाव समाधि में बदल गयी।
इस प्रगाढ़ ध्यान में वह आन्तरिक प्रकाश में घण्टों डूबे रहते थे। यहाँ तक कि उनका निद्राकाल भी साधना में परिवर्तित हो गया था। जितनी उनकी साधना प्रगाढ़ होती गयी, उतनी ही शान्ति भी गहन होती गयी। इस साधना क्रम में उनकी रुचियाँ, प्रवृत्तियाँ, सभी उत्तरोत्तर सूक्ष्म एवं प्रकाशित हो गयी। कभी पूछने पर वह कहते कि मुझे तो बस इतना ही मालूम है कि आँख बन्द करते ही मैं प्रकाश के महासागर में तैरने लगता हूँ। इस प्रकाश से मेरी समूची दुनिया ही बदल गयी है। पहले मैं प्रयास से साधना करता था, अब तो अपने आप ही साधना होती है। सचमुच ही यह बिना किए होती है। मन अपने आप ही स्थिर, एकाग्र व शान्त रहता है। सब कुछ बदल गया है। बस यही अनुभव होता है कि गायत्री ही प्रकाश है और वह प्रकाश स्वयं मैं हूँ।
पतंजलि कहते हैं कि इस प्रकाश के भाव चेतना में उदय होते ही सारे शोक विलीन हो जाते हैं। जो इसे अनुभव करता है, वह जानता है कि इससे अधिक आनन्दमय और कुछ भी नहीं। और कुछ भी हृदय के भीतर अनुभव होने वाले इस प्रकाश से ज्यादा संगीतपूर्ण एवं सुसंगत नहीं होता है। इसकी अनुभूति जितनी प्रगाढ़ होती है, हम उतने ही ज्यादा शान्तिपूर्ण, मौन व एकजुट हो जाते हैं।