Books - अपने दीपक आप बनो तुम
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
पहले सेवा, फिर उपदेश
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
भिक्षु कलम्भन
ने धर्म प्रचार के लिए जाते समय प्रस्थान की घड़ी में भगवान्
तथागत को प्रणाम किया। भगवान् तथागत ने अपने इस प्रिय शिष्य को
दोनों हाथों से उठाया और हृदय से लगाते हुए कहा- वत्स!
संसार बड़ा दुःखी है। लोग अज्ञानवश कुरीतियों से जकड़े हुए हैं।
तुम उन्हें जागृति का संदेश दो। ध्यान रहे विचार क्रान्ति ही
धर्म चक्र प्रवर्तन की धुरी है और आत्मकल्याण के साथ लोक कल्याण
का महामंत्र भी।
अपने शास्ता की चरण धूलि को माथे पर लगाकर कलम्भन चल पड़े। दिन छिपने से कुछ पूर्व ही वह एक गांव में जा पहुँचे। इस गांव में महामारी का प्रकोप था। वहाँ के प्रायः सभी पुरुष बीमार पड़े थे। स्त्रियाँ उनकी सेवा- शुश्रूषा में व्यस्त थीं। बच्चों की त्वचा हड्डियों से चिपक गयी थी। ऐसा लग रहा था कि इस पूरे गांव में किसी को भी न तो भर- पेट अन्न मिलता था और न ही उन्हें बीमारियों से लड़ने के लिए जीवन रक्षक औषधियाँ। शिक्षा की दृष्टि से भी उनमें से किसी को कोई चेतना न थी। सभी एक से बढ़कर एक म्लान- मलिन और दुःखी थे।
कलम्भन के गांव में प्रवेश करते ही गांव में जैसे आशा की एक किरण दिखाई दी। जिसने भी सुना भगवान तथागत के शिष्य कलम्भन अपने गांव में आए हैं, वही उल्लसित हो उठा। विद्युत् गति से यह उल्लास भरा समाचार पूरे गांव में फैल गया। सभी एक दूसरे से कहने बतियाने लगे- भगवान् तथागत के शिष्य भिक्षु कलम्भन हम सभी के दुःख दूर करने के लिए हैं। भगवान् शाक्य मुनि ने उन्हें स्वयं भेजा है। हम लोगों के दुःख निश्चय ही दूर होंगे।
श्रद्धालु ग्रामवासियों ने उनके लिए विश्राम की सुखद व्यवस्था कर दी। सभी ने रात्रि बड़ी प्रसन्नता एवं शान्ति से काटी। हर एक का मन आशान्वित था। प्रातःकाल बौद्धभिक्षु जब तक अपना ध्यान समाप्त करें, तब तक द्वार ग्रामवासियों की भीड़ से भर गया। भिक्षु कलम्भन जब बाहर निकले तब जरा- जीर्ण व्याधिग्रस्त ग्राम निवासियों को देखकर एक पल के लिए उनका मन क्षुब्ध हुआ, लेकिन दूसरे ही पल उन्होंने सभी को बैठने के लिए कहा।
सबको सामने बिठाकर उन्होंने उपदेश प्रारम्भ किया। तप का उपदेश, ज्ञानी बनने का उपेदश। और सब से बढ़कर बुद्ध धर्म एवं संघ की शरण में जाने का उपदेश। पर आपत्ति के मारे ग्रामीणों को न बुद्धं शरणं गच्छामि समझ में आया और न ही धम्मं शरणं गच्छामि एवं संघं शरणं गच्छामि के महामंत्र।
हताश भिक्षु कलम्भन उल्टे पांव चल पड़े। और अपने शास्ता के पास लौट कर बोले- भगवन्! पता नहीं मेरे में कुछ त्रुटि है अथवा फिर मेरे ज्ञानोपदेश में। यह भी हो सकता है प्रभु! कि ग्रामीणों में ग्रहणशील चेतना न हो। कारण जो भी हो, पर मेरा प्रयास पूर्णतया निष्फल रहा। भगवान् तथागत ने बड़ी धैर्य एवं सहिष्णुता से अपने प्रिय शिष्य की कथा सुनी। सब कुछ सुनकर वह एक पल के लिए चुप रहे, फिर उन्होंने आचार्य महाकाश्यप एवं जीवक भी बुलाकर कहा- देखो वत्स! तुम लोग उस गांव में पहुँचकर ग्राम निवासियों के लिए औषधि एवं शिक्षा का प्रबन्ध करो।
तथागत की आज्ञा मानकर महाकाश्यप और जीवक वहाँ से चल पड़े। तब भिक्षु कलम्भन ने उनसे प्रश्र किया। भगवन्! आपने इन दोनों महानुभावों को तत्त्वोपदेश के लिए तो कहा ही नहीं। तथागत यत्कचित गम्भीर हुए और बोले- वत्स! समाज की प्राथमिक आवश्यकताओं और सुधार की मूल आवश्यकता को पूरा किए बगैर तत्त्वोपदेश सम्भव नहीं। वत्स आज की आवश्यकता स्वास्थ्य है, शिक्षा है। इसके बाद कुरीतियों एवं रुढ़ियों के संजाल से उन्हें मुक्त करना है। अभी उन्हें जीवन की आशा चाहिए। आज जिएँगे तो कल ये ही सम्यक् सम्बुद्ध बनेंगे। कलम्भन को सत्य समझ में आ गया। उसने भी सोचा कि कोरे धर्मोपदेश की अपेक्षा समाज सेवा कहीं अधिक श्रेयस्कर है।
अपने शास्ता की चरण धूलि को माथे पर लगाकर कलम्भन चल पड़े। दिन छिपने से कुछ पूर्व ही वह एक गांव में जा पहुँचे। इस गांव में महामारी का प्रकोप था। वहाँ के प्रायः सभी पुरुष बीमार पड़े थे। स्त्रियाँ उनकी सेवा- शुश्रूषा में व्यस्त थीं। बच्चों की त्वचा हड्डियों से चिपक गयी थी। ऐसा लग रहा था कि इस पूरे गांव में किसी को भी न तो भर- पेट अन्न मिलता था और न ही उन्हें बीमारियों से लड़ने के लिए जीवन रक्षक औषधियाँ। शिक्षा की दृष्टि से भी उनमें से किसी को कोई चेतना न थी। सभी एक से बढ़कर एक म्लान- मलिन और दुःखी थे।
कलम्भन के गांव में प्रवेश करते ही गांव में जैसे आशा की एक किरण दिखाई दी। जिसने भी सुना भगवान तथागत के शिष्य कलम्भन अपने गांव में आए हैं, वही उल्लसित हो उठा। विद्युत् गति से यह उल्लास भरा समाचार पूरे गांव में फैल गया। सभी एक दूसरे से कहने बतियाने लगे- भगवान् तथागत के शिष्य भिक्षु कलम्भन हम सभी के दुःख दूर करने के लिए हैं। भगवान् शाक्य मुनि ने उन्हें स्वयं भेजा है। हम लोगों के दुःख निश्चय ही दूर होंगे।
श्रद्धालु ग्रामवासियों ने उनके लिए विश्राम की सुखद व्यवस्था कर दी। सभी ने रात्रि बड़ी प्रसन्नता एवं शान्ति से काटी। हर एक का मन आशान्वित था। प्रातःकाल बौद्धभिक्षु जब तक अपना ध्यान समाप्त करें, तब तक द्वार ग्रामवासियों की भीड़ से भर गया। भिक्षु कलम्भन जब बाहर निकले तब जरा- जीर्ण व्याधिग्रस्त ग्राम निवासियों को देखकर एक पल के लिए उनका मन क्षुब्ध हुआ, लेकिन दूसरे ही पल उन्होंने सभी को बैठने के लिए कहा।
सबको सामने बिठाकर उन्होंने उपदेश प्रारम्भ किया। तप का उपदेश, ज्ञानी बनने का उपेदश। और सब से बढ़कर बुद्ध धर्म एवं संघ की शरण में जाने का उपदेश। पर आपत्ति के मारे ग्रामीणों को न बुद्धं शरणं गच्छामि समझ में आया और न ही धम्मं शरणं गच्छामि एवं संघं शरणं गच्छामि के महामंत्र।
हताश भिक्षु कलम्भन उल्टे पांव चल पड़े। और अपने शास्ता के पास लौट कर बोले- भगवन्! पता नहीं मेरे में कुछ त्रुटि है अथवा फिर मेरे ज्ञानोपदेश में। यह भी हो सकता है प्रभु! कि ग्रामीणों में ग्रहणशील चेतना न हो। कारण जो भी हो, पर मेरा प्रयास पूर्णतया निष्फल रहा। भगवान् तथागत ने बड़ी धैर्य एवं सहिष्णुता से अपने प्रिय शिष्य की कथा सुनी। सब कुछ सुनकर वह एक पल के लिए चुप रहे, फिर उन्होंने आचार्य महाकाश्यप एवं जीवक भी बुलाकर कहा- देखो वत्स! तुम लोग उस गांव में पहुँचकर ग्राम निवासियों के लिए औषधि एवं शिक्षा का प्रबन्ध करो।
तथागत की आज्ञा मानकर महाकाश्यप और जीवक वहाँ से चल पड़े। तब भिक्षु कलम्भन ने उनसे प्रश्र किया। भगवन्! आपने इन दोनों महानुभावों को तत्त्वोपदेश के लिए तो कहा ही नहीं। तथागत यत्कचित गम्भीर हुए और बोले- वत्स! समाज की प्राथमिक आवश्यकताओं और सुधार की मूल आवश्यकता को पूरा किए बगैर तत्त्वोपदेश सम्भव नहीं। वत्स आज की आवश्यकता स्वास्थ्य है, शिक्षा है। इसके बाद कुरीतियों एवं रुढ़ियों के संजाल से उन्हें मुक्त करना है। अभी उन्हें जीवन की आशा चाहिए। आज जिएँगे तो कल ये ही सम्यक् सम्बुद्ध बनेंगे। कलम्भन को सत्य समझ में आ गया। उसने भी सोचा कि कोरे धर्मोपदेश की अपेक्षा समाज सेवा कहीं अधिक श्रेयस्कर है।