Books - अपने दीपक आप बनो तुम
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Language: HINDI
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बन्धन मुक्त ही ब्राह्मण है
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चन्दाभ की ख्याति की आभा सब ओर फैली थी। राजगृह के गली- चौबारों
में उसकी चर्चा होती। उसके चमत्कारों की अनेकों कथाएँ कही- सुनि
जाती थीं। सभी को उसका सामीप्य प्रिय था। उसकी एक छलक पाने की
चाह अनेकों के मन में थी। लेकिन वह स्वयं में अतृप्त था। कोई
कसक उसे कचोटती थी। अन्तर्हृदय का अधूरापन उसे विकल करता था। एक
अनजानी छटपटाहट उसे सदा घेरे रहती थी। वह अपनी अतृप्ति को मिटाना
चाहता था, पर कैसे? यह सवाल अनुत्तारित था। वह अपने अधूरेपन को मिटाकर पूर्ण होना चाहता था, लेकिन किस तरह? इस सवाल का उसके पास कोई जवाब नहीं था।
बस जब वह नींद में होता तो स्वप्नों के झरोखे से उसे झलकियाँ मिलती थीं। पूर्व जन्म की कुछ यादें, पूर्व जीवन के कुछ संस्कार उसे प्रेरित करते थे। बार- बार स्वप्न ने एक संदेश सा मिलता, पर हमेशा यह संदेश अस्पष्ट होता। कहीं किसी धुंध में कोई झांकी उभरती और लुप्त हो जाती। कोई चित्र उसे टुकड़े- टुकड़े में दिखता था, पर पूरा अक्स कभी भी उभर नहीं पाता। अपनी इस लगातार चलने वाली स्वप्न श्रृंखला वह केवल इतना समझ पाया कि वह पूर्व जन्म में भगवान कश्यप बुद्ध के चैत्य में चन्दन लगाया करता था। उसके द्वारा होने वाले सभी चमत्कार उसके उसी पुण्य का सुफल है।
उसी पुण्य से उसकी नाभि से चन्द्रमण्डल जैसी आभा निकली थी। जिसे देखकर सभी चकित होते थे। उसके घर- परिवार के लोगों ने तो इसे देखकर कुछ और ही योजना बना डाली थी। सगे- सम्बन्धियों ने उन्हें सुझाया कि आप सब चन्दाभ के चमत्कारों का प्रदर्शन करके शीघ्र ही धनवान हो सकते हो योजना लुभावनी थी, घर के लोग भी मान गए। धन का लोभ, यश की चाह हमेशा राह से दूर कर देती है। पर इस सच्चाई को विरले समझ पाते हैं। ज्यादातर के पल्ले तो बस भटकन और उलझन ही पड़ती है।
ऐसा ही कुछ चन्दाभ के घरवालों के साथ हो रहा था। ब्राह्मण होने का गुमान, उसपर से चमत्कारी पुत्र के माता- पिता होने का अहं उनके सिर पर चढ़कर बोलने लगा। पाखण्डी रिश्तेदारों का सहयोग भी उन्हें सहज हासिल था। इन सबकी चालाकियों ने चन्दाभ की एक न चलने दी। मन मारकर उसे भी इनकी हां में हां मिलानी पड़ी। बस ये सभी पाखण्डी ब्राह्मण उसे लेकर नगर- नगर घुमने लगे। चन्दाभ के चमत्कारी गुणों की चर्चा करके वे लोगों को लूटने लगे। वे सबसे यही कहते, जो चन्दाभ के शरीर का स्पर्श करता है, वह जो चाहता है, वही पाता है।
मन मांगी मुराद, मन चाही चाहत पाने के लाभ में लोभियों की भीड़ जुटने लगी। ठगी का व्यवसाय चल निकला। दरअसल ठगी का व्यवसाय दो प्रतियोगियों के बीच प्रतिस्पर्धा से चलता है। उसमें एक प्रतियोगी ठगने वाला होता है, और दूसरा वह होता है, जो लोभवश अपनी योग्यता से ज्यादा पाना चाहता है। असलियत में ये दोनों ही एक- दूसरे को ठगना चाहते थे। पर सफलता एक ही को मिलती है। इसमें लोभी को प्रायः हराना ही पड़ता है। चन्दाभ इस ठगी के व्यवसाय को बड़े साक्षी भाव से देखता रहता था। बीच- बीच में उसके हृदय से पुकार के आर्तस्वरों के गूंज उठती रहती।
प्रभुमार्ग दो! यही स्वर उसकी अन्तर्वेदना में गूंजते रहते। पुकार और भ्रमण दोनों ही तत्त्व चन्दाभ के अस्तित्व से एकरस हो गए थे। एक समय जब भगवान तथागत जेतवन में विहार कर रहे थे, तब उसे लिए हुए वे ब्राह्मण श्रावस्ती पहुँचे। साँझ का समय था और सारा श्रावस्ती नगर भगवान के दर्शन और धर्म श्रवण के लिए जेतवन की ओर जा रहा था। उन पाखण्डी ब्राह्मणों ने लोगों को रोककर चन्दाभ का चमत्कार दिखाना चाहा। लेकिन कोई नहीं रूका। सभी के हृदय भगवान के आकर्षण में बंधे थे। विवश हो वे ब्राह्मण भी शास्ता के अनुभाव को देखने के लिए चन्दाभ को लेकर जेतवन की ओर चल पड़े।
जेतवन पहुंच कर तो एक नया अचरज हुआ। पर यह ऐसा अचर था, जिसे उपस्थित जन समुदाय ने नहीं बल्कि ब्राह्मणों ने देखा। हुआ यूं कि प्रभु के समीप पहुंचते ही चन्दाभ की आभा लुप्त हो गयी। इस आभा के लुप्त होने से चन्दाभ के परिवारिक जन अति दुःखित हुए और चमत्कृत भी। उन्होंने यह समझा कि शास्ता आभा लुप्त करने का कोई मंत्र जानते हैं। अतः उन सबने मिलकर भगवान से विनती की हे गौतम! हम सबको भी आभा को लुप्त करने का मंत्र दीजिए और उस मंत्र को काटने की विधि भी बताइए। हम लोग सदा- सदा के लिए आपके दास हो जाएंगे।
उनकी बातों पर भगवान हंसे और कहने लगे कि यह मंत्र केवल चन्दाभ को मिलेगा। परन्तु इसके लिए उसे प्रवजित होना पड़ेगा। भगवान की बातों को सुनकर चन्दाभ प्रवजित हो गया। प्रवजित होते ही चन्दाभ को विगत जीवन की स्मृति ने घेर लिया। स्वप्नों में दिखाई देने वाली अधूरी झलकें आज पूरी हो गयीं। आज वह प्रभु के आशीष से ध्यान में डूब गया। थोड़े ही समय में उसने अर्हत्व को पा लिया। वह तो भूल ही गया मंत्र की बात। महामंत्र मिले तो साधारण मंत्रों को कौन न भूल जाए।
जब उसके सगे- सम्बंधी ब्राह्मण लोग उसे वापस ले चलने के लिए आए तो वह जोर से हंसा और बोला : तुम लोग वापस लौट जाओ। अब मैं नहीं जाने वाला हो गया हूँ। मेरा आना- जाना सब मिट गया है। ब्राह्मणों को तो चन्दाभ की यह बात सिरे से समझ में नहीं आयी। उन्हें समझ में ही न आया कि यह कैसी उलट- पलटी, बहकी हुई बातें कर रहा है। ब्राह्मणों ने ये बातें वहाँ उपस्थित भिक्षुओं को बतायी। वे भी हैरान हुए, उन्हें भी चन्दाभ की बातें अटपटी लगी।
समझ के अभाव में भिक्षुओं ने जाकर भगवान से कहा, भन्ते! यह चन्दाभ भिक्षु अभी नया- नया आया है और अर्हत्व का दावा कर रहा है। और कहता है कि मैं आने- जाने से मुक्त हो गया हूँ। और इस तरह निरर्थक, सरासर झूठ बोल रहा है। आप इसे चेताइए।
शास्ता ने मीठी हंसी के साथ कहा : भिक्षुओं! मेरे इस प्रिय पुत्र की तृष्णा क्षीण हो चुकी है। और वह जो कह रहा है वह सम्पूर्ण सत्य है। वह सच्चे ब्राह्मणत्व को उपलब्ध हो गया है और तब उन्होंने ये धम्मगाथाएं कही-
चन्द्र व विमलं सुद्धं विप्पसन्नमनाविलं।
नन्दीभवपरिक्खीणं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं॥
हित्त्वा मानुसकं योगं दिब्बं योगं उपच्चगा।
सब्बयोगंविसंयुत्तं तमहं ब्रुमि ब्राह्मणं॥
जो चन्द्रमा की भाँति विमल, शुद्ध, स्वच्छ और निर्मल है तथा जिसकी सभी जन्मों की तृष्णा नष्ट हो गयी है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। जो मानुषी बन्धनों को छोड़ दिव्य बन्धनों को भी छोड़ चुका है, जो सभी बन्धनों से विमुक्त है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। भगवान तथागत के इन वचनों ने भिक्षुओं के मन को एक नयी ज्योति से भर दिया। वे सभी विनत सन्देह हो गए।
बस जब वह नींद में होता तो स्वप्नों के झरोखे से उसे झलकियाँ मिलती थीं। पूर्व जन्म की कुछ यादें, पूर्व जीवन के कुछ संस्कार उसे प्रेरित करते थे। बार- बार स्वप्न ने एक संदेश सा मिलता, पर हमेशा यह संदेश अस्पष्ट होता। कहीं किसी धुंध में कोई झांकी उभरती और लुप्त हो जाती। कोई चित्र उसे टुकड़े- टुकड़े में दिखता था, पर पूरा अक्स कभी भी उभर नहीं पाता। अपनी इस लगातार चलने वाली स्वप्न श्रृंखला वह केवल इतना समझ पाया कि वह पूर्व जन्म में भगवान कश्यप बुद्ध के चैत्य में चन्दन लगाया करता था। उसके द्वारा होने वाले सभी चमत्कार उसके उसी पुण्य का सुफल है।
उसी पुण्य से उसकी नाभि से चन्द्रमण्डल जैसी आभा निकली थी। जिसे देखकर सभी चकित होते थे। उसके घर- परिवार के लोगों ने तो इसे देखकर कुछ और ही योजना बना डाली थी। सगे- सम्बन्धियों ने उन्हें सुझाया कि आप सब चन्दाभ के चमत्कारों का प्रदर्शन करके शीघ्र ही धनवान हो सकते हो योजना लुभावनी थी, घर के लोग भी मान गए। धन का लोभ, यश की चाह हमेशा राह से दूर कर देती है। पर इस सच्चाई को विरले समझ पाते हैं। ज्यादातर के पल्ले तो बस भटकन और उलझन ही पड़ती है।
ऐसा ही कुछ चन्दाभ के घरवालों के साथ हो रहा था। ब्राह्मण होने का गुमान, उसपर से चमत्कारी पुत्र के माता- पिता होने का अहं उनके सिर पर चढ़कर बोलने लगा। पाखण्डी रिश्तेदारों का सहयोग भी उन्हें सहज हासिल था। इन सबकी चालाकियों ने चन्दाभ की एक न चलने दी। मन मारकर उसे भी इनकी हां में हां मिलानी पड़ी। बस ये सभी पाखण्डी ब्राह्मण उसे लेकर नगर- नगर घुमने लगे। चन्दाभ के चमत्कारी गुणों की चर्चा करके वे लोगों को लूटने लगे। वे सबसे यही कहते, जो चन्दाभ के शरीर का स्पर्श करता है, वह जो चाहता है, वही पाता है।
मन मांगी मुराद, मन चाही चाहत पाने के लाभ में लोभियों की भीड़ जुटने लगी। ठगी का व्यवसाय चल निकला। दरअसल ठगी का व्यवसाय दो प्रतियोगियों के बीच प्रतिस्पर्धा से चलता है। उसमें एक प्रतियोगी ठगने वाला होता है, और दूसरा वह होता है, जो लोभवश अपनी योग्यता से ज्यादा पाना चाहता है। असलियत में ये दोनों ही एक- दूसरे को ठगना चाहते थे। पर सफलता एक ही को मिलती है। इसमें लोभी को प्रायः हराना ही पड़ता है। चन्दाभ इस ठगी के व्यवसाय को बड़े साक्षी भाव से देखता रहता था। बीच- बीच में उसके हृदय से पुकार के आर्तस्वरों के गूंज उठती रहती।
प्रभुमार्ग दो! यही स्वर उसकी अन्तर्वेदना में गूंजते रहते। पुकार और भ्रमण दोनों ही तत्त्व चन्दाभ के अस्तित्व से एकरस हो गए थे। एक समय जब भगवान तथागत जेतवन में विहार कर रहे थे, तब उसे लिए हुए वे ब्राह्मण श्रावस्ती पहुँचे। साँझ का समय था और सारा श्रावस्ती नगर भगवान के दर्शन और धर्म श्रवण के लिए जेतवन की ओर जा रहा था। उन पाखण्डी ब्राह्मणों ने लोगों को रोककर चन्दाभ का चमत्कार दिखाना चाहा। लेकिन कोई नहीं रूका। सभी के हृदय भगवान के आकर्षण में बंधे थे। विवश हो वे ब्राह्मण भी शास्ता के अनुभाव को देखने के लिए चन्दाभ को लेकर जेतवन की ओर चल पड़े।
जेतवन पहुंच कर तो एक नया अचरज हुआ। पर यह ऐसा अचर था, जिसे उपस्थित जन समुदाय ने नहीं बल्कि ब्राह्मणों ने देखा। हुआ यूं कि प्रभु के समीप पहुंचते ही चन्दाभ की आभा लुप्त हो गयी। इस आभा के लुप्त होने से चन्दाभ के परिवारिक जन अति दुःखित हुए और चमत्कृत भी। उन्होंने यह समझा कि शास्ता आभा लुप्त करने का कोई मंत्र जानते हैं। अतः उन सबने मिलकर भगवान से विनती की हे गौतम! हम सबको भी आभा को लुप्त करने का मंत्र दीजिए और उस मंत्र को काटने की विधि भी बताइए। हम लोग सदा- सदा के लिए आपके दास हो जाएंगे।
उनकी बातों पर भगवान हंसे और कहने लगे कि यह मंत्र केवल चन्दाभ को मिलेगा। परन्तु इसके लिए उसे प्रवजित होना पड़ेगा। भगवान की बातों को सुनकर चन्दाभ प्रवजित हो गया। प्रवजित होते ही चन्दाभ को विगत जीवन की स्मृति ने घेर लिया। स्वप्नों में दिखाई देने वाली अधूरी झलकें आज पूरी हो गयीं। आज वह प्रभु के आशीष से ध्यान में डूब गया। थोड़े ही समय में उसने अर्हत्व को पा लिया। वह तो भूल ही गया मंत्र की बात। महामंत्र मिले तो साधारण मंत्रों को कौन न भूल जाए।
जब उसके सगे- सम्बंधी ब्राह्मण लोग उसे वापस ले चलने के लिए आए तो वह जोर से हंसा और बोला : तुम लोग वापस लौट जाओ। अब मैं नहीं जाने वाला हो गया हूँ। मेरा आना- जाना सब मिट गया है। ब्राह्मणों को तो चन्दाभ की यह बात सिरे से समझ में नहीं आयी। उन्हें समझ में ही न आया कि यह कैसी उलट- पलटी, बहकी हुई बातें कर रहा है। ब्राह्मणों ने ये बातें वहाँ उपस्थित भिक्षुओं को बतायी। वे भी हैरान हुए, उन्हें भी चन्दाभ की बातें अटपटी लगी।
समझ के अभाव में भिक्षुओं ने जाकर भगवान से कहा, भन्ते! यह चन्दाभ भिक्षु अभी नया- नया आया है और अर्हत्व का दावा कर रहा है। और कहता है कि मैं आने- जाने से मुक्त हो गया हूँ। और इस तरह निरर्थक, सरासर झूठ बोल रहा है। आप इसे चेताइए।
शास्ता ने मीठी हंसी के साथ कहा : भिक्षुओं! मेरे इस प्रिय पुत्र की तृष्णा क्षीण हो चुकी है। और वह जो कह रहा है वह सम्पूर्ण सत्य है। वह सच्चे ब्राह्मणत्व को उपलब्ध हो गया है और तब उन्होंने ये धम्मगाथाएं कही-
चन्द्र व विमलं सुद्धं विप्पसन्नमनाविलं।
नन्दीभवपरिक्खीणं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं॥
हित्त्वा मानुसकं योगं दिब्बं योगं उपच्चगा।
सब्बयोगंविसंयुत्तं तमहं ब्रुमि ब्राह्मणं॥
जो चन्द्रमा की भाँति विमल, शुद्ध, स्वच्छ और निर्मल है तथा जिसकी सभी जन्मों की तृष्णा नष्ट हो गयी है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। जो मानुषी बन्धनों को छोड़ दिव्य बन्धनों को भी छोड़ चुका है, जो सभी बन्धनों से विमुक्त है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। भगवान तथागत के इन वचनों ने भिक्षुओं के मन को एक नयी ज्योति से भर दिया। वे सभी विनत सन्देह हो गए।