Books - अपने दीपक आप बनो तुम
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Language: HINDI
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सच्चा भिक्षु
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श्रावस्ती नगरी भगवान् तथागत की पुण्य प्रभाव से प्रकाशित हो रही थी। सारे नगर की वीथिकाएँ, महल, अट्टालिकाएँ, आंगन, चौबारे सम्यक् सम्बुद्ध की सुगन्ध से महक रहे थे। पुरजनों में प्रभु का सान्निध्य पाने की होड़ थी। बालक, वृद्ध, युवक, युवतियाँ सभी भगवान् के आशीष के अभिसिंचन से कृतार्थ होना चाहते थे। इस हौड़
और दौड़ में सामान्य नगर जनों से लेकर नगर श्रेष्ठी, सामन्त
वर्ग यहाँ तक कि स्वयं श्रावस्ती नरेश भी शामिल थे। प्रभु- प्रेम
की चाहत सभी को थी। सभी उनकी कृपा के आकांक्षी थे। अनन्त करूणा के स्रोत भगवान् की भगवत्ता के एक अंश के लिए असंख्य जन व्याकुल थे।
लेकिन इसी श्रावस्ती नगरी में कोई एक ऐसा भी था- जिसे प्रभु से कुछ नहीं चाहिए था। उसके मन- अन्तःकरण में भगवान् से कुछ भी पाने की चाहत नहीं थी। और न योग विभूति व सिद्धि की चाह। उसकी सोच थी कि सर्वअन्तर्यामी एवं महाकरूणा के परम स्रोत प्रभु से भला क्या मांगना? भगवान् के श्री चरणों में तो बस भक्ति के अर्घ्य चढ़ाएँ जाते हैं। तन समर्पित, मन समर्पित प्रभु चरणों में जीवन समॢपत, बस यही चिन्तन सूत्र उसकी भावनाओं को घेरे रहता था। पल- पल उसके मन में भगवान् तथागत के श्री चरणों में अपने सर्वस्व समर्पण के भाव उमगा करते थे।
देकर भी करता मन, दे दूँ कुछ और अभी
सुबह दूँ शाम दूँ, तुझे आठों याम दूँ
इन भावनाओं की भाव- सरिता में वह सदा निमग्र रहता था। संघ के कुछ सदस्य यदा- कदा उसकी इन भावनाओं पर परिहास भी करते। ये कहते कि अरे! पंचग्र- दायक भगवान् हमें भिक्षु बनाना चाहते हैं और तू है कि दाता बनने की हठ ठाने रहता है। अरे भगवान् को कोई क्या देगा? वे तो सबको सब कुछ देने वाले हैं। उस भक्त की भावनाओं में संघ के सदस्यों का कोई तर्क पूर्ण उत्तर नहीं था। पर एक बात उसका मन बार- बार कहता था कि भगवान् बुद्ध के भिक्षु भिखारी नहीं हो सकते। भिक्षु का अर्थ तो कुछ और ही होगा, यदि इस जीवन पर कभी भगवान् की करूणा बरसी तो उन्हीं से इस भिक्षु शब्द में छुपे हुए अर्थ को ग्रहण करूँगा।
यही सोचकर वह पंचग्र- दायक ब्राह्मण भगवान् के श्री चरणों में अपनी भक्ति का दान करता रहता था। इस नियम के साथ उसका एक नियम और भी था- कि खेत बोने के पश्चात् फसल तैयार होने तक पाँच बार भिक्षु संघ को दान देना। अपने इस नियम का वह सम्पूर्ण श्रद्धा व आस्था के साथ निर्वाह करता था। हालांकि यह बात उसकी पत्नी को कतई न सुहाती थी। वह उसे बार- बार समझाती कि हर कोई भगवान् के पास उनके तप का एक अंश मांगने के लिए जाता है। उनसे अपनी मनोकामनाओं को पूरा करने के लिए आशीर्वाद मांगते हैं। और एक तुम हो जो बावले की तरह अपना घर लुटाने के लिए पीछे पड़े हो। पत्नी की इन बातों का उस पर कहीं कोई असर नहीं होता। वह अपने निश्चय और संकल्प पर अडिग था।
उसके इस प्रबल निश्चय को देखकर एक दिन भगवान् भिक्षाटन के लिए जाते समय उसके द्वार पर आकर खड़े हो गए। उस समय वह पंचग्र- दायक ब्राह्मण द्वार की ओर पीठ किए हुए भोजन करने के लिए बैठा था। उसकी पत्नी उसके लिए भोजन परोसने के लिए सरंजाम जुटा रही थी। भगवान् को इस तरह खड़े होते हुए देख उसका चित्त विकल हो उठा। वह चिंतित हुई कि कहीं यदि मेरे पति ने श्रमण गौतम को देखा, तो फिर वह निश्चय ही यह सारा का सारा स्वादिष्ट भोजन उन्हें दे डालेंगे। और फिर मुझे दुबारा पकाने की झंझट उठानी पड़ेगी।
ऐसा सोच कर वह भगवान् की ओर पीठ कर उन्हें अपने पति से छिपाती हुई खड़ी हो गयी, ताकि ब्राह्मण उन्हें देख न सके। पर उस समय भक्ति भावना से भरे हुए ब्राह्मण को भगवान् की उपस्थिति अपनी अन्तःप्रज्ञा में भासने लगी। साथ ही वह अपूर्व सुगन्ध जो भगवान् को सदा घेरे रहती थी, उसके नासा पुटों तक पहुँच गयी। तथागत के महातप के आलोक से उसका भवन भी अलौकिक दीप्ति से भरने लगा। यह सारे विचित्र अनुभव उस ब्राह्मणी को भी हुए, जो अपनी ओट से अपने पति को छुपाए हुए थी। इन अलौकिक अनुभवों में उसकी सारी क्षुद्रताएँ कब विलीन हुई उसे पता ही न चला। बस वह अपनी मूर्खताओं पर हँस पड़ी।
भगवान् तथागत अभी भी अपनी उसी जगह खड़े थे। ब्राह्मण ने चौंक कर पीछे देखा। उसे तो जैसे अपनी आँखों पर भरोसा ही नहीं आया और उसके मुँह से बरबस निकल गयाः अरे यह क्या? भगवान्! फिर उसने भगवान् के चरण छूकर वन्दना की और अपने भोजन की थाली सम्पूर्ण रूप से भगवान् के भिक्षा पात्र में उलट दी। ऐसा करते हुए वह रोमांचित हो रहा था। उसके मुख पर धन्यता की आभा थी। हाथ जोड़े हुए वह कृतार्थ भाव से बोला, प्रभु आज मैं कितना बड़भागी हूँ जो आपने मेरा नैवेद्य स्वीकार कर लिया।
उसके इन वचनों पर भगवान् के अधरों पर एक स्मित की उज्ज्वल रेखा उभरी। इस उज्ज्वलता ने ब्राह्मण के अन्तःकरण को उजाले से भर दिया। इस उजलेपन से उपजी जिज्ञासा को उसने प्रभु को निवेदित करते हुए कहा- हे भगवान् आप अपने शिष्यों को भिक्षु कहते हैं। क्या अर्थ समाया है इस भिक्षु शब्द में। और कोई भिक्षु कैसे हो सकता है? यह प्रश्र उसके अन्तर्मन में अंकुरित हुआ, क्योंकि भगवान् की इस अनायास उपस्थिति के मधुर क्षण में उसके भीतर संन्यास की आकांक्षा उदय हो चली थी। सम्भवतः इस पवित्र पल में उसके सारे कर्म संस्कार शेष हो गए थे।
उत्तर में भगवान् उसे करूणापूर्ण दृष्टि से देखते हुए बोले- हे पुत्र!
सब्बसो नाम रूपस्मि यस्स नत्थि समायितं।
असता च न सोचति स वे भिक्खूति वुच्चति॥
जिसकी नाम- रूप, पंच स्कन्ध में जरा भी ममता नहीं है। और जो उनके नहीं होने पर शोक नहीं करता, वही भिक्षु है, उसी को मैं भिक्षु कहता हूँ।
ब्राह्मण ने बुद्ध की वाणी सुनी। वह प्रीति भाव से उनके चरणों में झुका और उसने कहा- मुझे स्वीकार कर लें प्रभु- नाम रूप की ममता ने मुझे बहुत दुःख दिए हैं, अब मुझे इनके पार ले चलें। ब्राह्मण के इन स्वरों के साथ करूणामूर्ति प्रभु ने उसे थाम लिया- इसी के साथ अब वह भी भिक्षु हो गया। परम वीतराग महाभिक्षु, भगवान् बुद्ध का सच्चा भिक्षु।
लेकिन इसी श्रावस्ती नगरी में कोई एक ऐसा भी था- जिसे प्रभु से कुछ नहीं चाहिए था। उसके मन- अन्तःकरण में भगवान् से कुछ भी पाने की चाहत नहीं थी। और न योग विभूति व सिद्धि की चाह। उसकी सोच थी कि सर्वअन्तर्यामी एवं महाकरूणा के परम स्रोत प्रभु से भला क्या मांगना? भगवान् के श्री चरणों में तो बस भक्ति के अर्घ्य चढ़ाएँ जाते हैं। तन समर्पित, मन समर्पित प्रभु चरणों में जीवन समॢपत, बस यही चिन्तन सूत्र उसकी भावनाओं को घेरे रहता था। पल- पल उसके मन में भगवान् तथागत के श्री चरणों में अपने सर्वस्व समर्पण के भाव उमगा करते थे।
देकर भी करता मन, दे दूँ कुछ और अभी
सुबह दूँ शाम दूँ, तुझे आठों याम दूँ
इन भावनाओं की भाव- सरिता में वह सदा निमग्र रहता था। संघ के कुछ सदस्य यदा- कदा उसकी इन भावनाओं पर परिहास भी करते। ये कहते कि अरे! पंचग्र- दायक भगवान् हमें भिक्षु बनाना चाहते हैं और तू है कि दाता बनने की हठ ठाने रहता है। अरे भगवान् को कोई क्या देगा? वे तो सबको सब कुछ देने वाले हैं। उस भक्त की भावनाओं में संघ के सदस्यों का कोई तर्क पूर्ण उत्तर नहीं था। पर एक बात उसका मन बार- बार कहता था कि भगवान् बुद्ध के भिक्षु भिखारी नहीं हो सकते। भिक्षु का अर्थ तो कुछ और ही होगा, यदि इस जीवन पर कभी भगवान् की करूणा बरसी तो उन्हीं से इस भिक्षु शब्द में छुपे हुए अर्थ को ग्रहण करूँगा।
यही सोचकर वह पंचग्र- दायक ब्राह्मण भगवान् के श्री चरणों में अपनी भक्ति का दान करता रहता था। इस नियम के साथ उसका एक नियम और भी था- कि खेत बोने के पश्चात् फसल तैयार होने तक पाँच बार भिक्षु संघ को दान देना। अपने इस नियम का वह सम्पूर्ण श्रद्धा व आस्था के साथ निर्वाह करता था। हालांकि यह बात उसकी पत्नी को कतई न सुहाती थी। वह उसे बार- बार समझाती कि हर कोई भगवान् के पास उनके तप का एक अंश मांगने के लिए जाता है। उनसे अपनी मनोकामनाओं को पूरा करने के लिए आशीर्वाद मांगते हैं। और एक तुम हो जो बावले की तरह अपना घर लुटाने के लिए पीछे पड़े हो। पत्नी की इन बातों का उस पर कहीं कोई असर नहीं होता। वह अपने निश्चय और संकल्प पर अडिग था।
उसके इस प्रबल निश्चय को देखकर एक दिन भगवान् भिक्षाटन के लिए जाते समय उसके द्वार पर आकर खड़े हो गए। उस समय वह पंचग्र- दायक ब्राह्मण द्वार की ओर पीठ किए हुए भोजन करने के लिए बैठा था। उसकी पत्नी उसके लिए भोजन परोसने के लिए सरंजाम जुटा रही थी। भगवान् को इस तरह खड़े होते हुए देख उसका चित्त विकल हो उठा। वह चिंतित हुई कि कहीं यदि मेरे पति ने श्रमण गौतम को देखा, तो फिर वह निश्चय ही यह सारा का सारा स्वादिष्ट भोजन उन्हें दे डालेंगे। और फिर मुझे दुबारा पकाने की झंझट उठानी पड़ेगी।
ऐसा सोच कर वह भगवान् की ओर पीठ कर उन्हें अपने पति से छिपाती हुई खड़ी हो गयी, ताकि ब्राह्मण उन्हें देख न सके। पर उस समय भक्ति भावना से भरे हुए ब्राह्मण को भगवान् की उपस्थिति अपनी अन्तःप्रज्ञा में भासने लगी। साथ ही वह अपूर्व सुगन्ध जो भगवान् को सदा घेरे रहती थी, उसके नासा पुटों तक पहुँच गयी। तथागत के महातप के आलोक से उसका भवन भी अलौकिक दीप्ति से भरने लगा। यह सारे विचित्र अनुभव उस ब्राह्मणी को भी हुए, जो अपनी ओट से अपने पति को छुपाए हुए थी। इन अलौकिक अनुभवों में उसकी सारी क्षुद्रताएँ कब विलीन हुई उसे पता ही न चला। बस वह अपनी मूर्खताओं पर हँस पड़ी।
भगवान् तथागत अभी भी अपनी उसी जगह खड़े थे। ब्राह्मण ने चौंक कर पीछे देखा। उसे तो जैसे अपनी आँखों पर भरोसा ही नहीं आया और उसके मुँह से बरबस निकल गयाः अरे यह क्या? भगवान्! फिर उसने भगवान् के चरण छूकर वन्दना की और अपने भोजन की थाली सम्पूर्ण रूप से भगवान् के भिक्षा पात्र में उलट दी। ऐसा करते हुए वह रोमांचित हो रहा था। उसके मुख पर धन्यता की आभा थी। हाथ जोड़े हुए वह कृतार्थ भाव से बोला, प्रभु आज मैं कितना बड़भागी हूँ जो आपने मेरा नैवेद्य स्वीकार कर लिया।
उसके इन वचनों पर भगवान् के अधरों पर एक स्मित की उज्ज्वल रेखा उभरी। इस उज्ज्वलता ने ब्राह्मण के अन्तःकरण को उजाले से भर दिया। इस उजलेपन से उपजी जिज्ञासा को उसने प्रभु को निवेदित करते हुए कहा- हे भगवान् आप अपने शिष्यों को भिक्षु कहते हैं। क्या अर्थ समाया है इस भिक्षु शब्द में। और कोई भिक्षु कैसे हो सकता है? यह प्रश्र उसके अन्तर्मन में अंकुरित हुआ, क्योंकि भगवान् की इस अनायास उपस्थिति के मधुर क्षण में उसके भीतर संन्यास की आकांक्षा उदय हो चली थी। सम्भवतः इस पवित्र पल में उसके सारे कर्म संस्कार शेष हो गए थे।
उत्तर में भगवान् उसे करूणापूर्ण दृष्टि से देखते हुए बोले- हे पुत्र!
सब्बसो नाम रूपस्मि यस्स नत्थि समायितं।
असता च न सोचति स वे भिक्खूति वुच्चति॥
जिसकी नाम- रूप, पंच स्कन्ध में जरा भी ममता नहीं है। और जो उनके नहीं होने पर शोक नहीं करता, वही भिक्षु है, उसी को मैं भिक्षु कहता हूँ।
ब्राह्मण ने बुद्ध की वाणी सुनी। वह प्रीति भाव से उनके चरणों में झुका और उसने कहा- मुझे स्वीकार कर लें प्रभु- नाम रूप की ममता ने मुझे बहुत दुःख दिए हैं, अब मुझे इनके पार ले चलें। ब्राह्मण के इन स्वरों के साथ करूणामूर्ति प्रभु ने उसे थाम लिया- इसी के साथ अब वह भी भिक्षु हो गया। परम वीतराग महाभिक्षु, भगवान् बुद्ध का सच्चा भिक्षु।