Books - अपने दीपक आप बनो तुम
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Language: HINDI
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और, अंगुलिमाल अरिहन्त हो गया
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प्रायः सभी ने चौंक कर सारिपुत्र की ओर देखा। भगवान् तथागत की
अनुपस्थिति में उन्होंने ही यह समाचार भिक्षु संघ को सुनाया था,
कि भिक्षु अंगुलीमाल नहीं रहे। सुनकर पहले तो एक बारगी किसी को
विश्वास ही नहीं हुआ। कोई यकायक यह सोच ही नहीं पाया कि खतरनाक
खूँख्वार दस्यु अंगुलीमाल इस तरह मर भी सकता है। पर सत्यवक्ता एवं सत्यदृष्टा
सारिपुत्र की बातों में अविश्वास का कोई कारण भी न था। धीरे-
धीरे कुछ क्षणों में भिक्षुओं को विश्वास हुआ। और उनमें से कइयों
ने आश्वस्ति की सांस
ली। क्योंकि ये अंगुलीमाल के भिक्षु संघ में रहने से स्वयं को
असुरक्षित महसूस करते थे। उन्हें लगता था कि हत्यारा अंगुलीमाल
पता नहीं कब अपनी आदत दुहरा बैठे। पर भगवान् तथागत के भय से वे
कुछ कह नहीं पाते थे। आज इन्होंने जब उसके मरने की खबर सुनी
तो इन सबने बड़े चैन की सांस ली।
भिक्षु संघ के कुछ नए सदस्यों ने सारिपुत्र से आग्रह किया कि वह उन्हें अंगुलीमाल के भिक्षु बनने की गाथा सुनाएँ। उनकी यह जिज्ञासा स्वाभाविक थी कि इतना बड़ा हत्यारा अचानक भिक्षु कैसे बन गया। सारिपुत्र उन सभी के मनोभावों को समझते हुए बोले- हाँ अंगुलीमाल हत्यारा था। उसने शपथ ली थी कि एक हजार लोगों को मारकर उनकी अंगुलियों की माला बनाकर पहनूँगा, इसीलिए जन सामान्य ने उसे अंगुलीमाल के नाम से पुकारना शुरू कर दिया। जिस समय भगवान् तथागत उससे मिले, उस समय तक वह नौ सौ निन्यानबे व्यक्तियों को मार चुका था। और हजारवें की प्रतीक्षा कर रहा था। उसके इस अद्भुत प्रण की चर्चा सब ओर थी। तो जिस बीहड़ वन में अंगुलीमाल रहता था, लोगों ने उस ओर जाना ही छोड़ दिया था। यहाँ तक कि उसकी माँ भी उस ओर जाने में घबराती थी। क्योंकि उसे मालूम था कि उसका बेटा अपनी मां को भी मारकर अपना प्रण पूरा करेगा।
भगवान् उन दिनों कोसल देश के उस भयानक वन के पास ही ठहरे थे। कोसल नरेश प्रसेनजित के काफी आग्रह- अनुरोध के बावजूद उन्होंने राजप्रसाद या राज उद्यान में ठहरना स्वीकार नहीं किया। महाराज प्रसेनजित के साथ उन्होंने जन सामान्य के अनुरोध को भी ठुकरा दिया। यही नहीं एक दिन प्रातः भगवान् उस भयावह वन की ओर जाने वाली डगर पर चल दिए। जिसने उन्हें उस ओर जाते देखा, वही चीख पड़ा, ‘आप उधर न जाएँ भन्ते! वह आदमी बहुत ज्यादा खतरनाक है। वह कतई विचार नहीं करेगा कि आप कौन हैं, उसको तो बस जैसे- तैसे एक आदमी को मारकर एक हजार व्यक्तियों को मारने का अपना प्रण पूरा करना है। जरा सोचिए, जिस ओर जाने में महाराज प्रसेनजित एवं उनकी फौजें घबराती हैं, उस ओर भला आप क्यों जा रहे हैं।’
भगवान् मुस्कराकर बोले, मुझे सारी बातें पता हैं। इसीलिए तो मैं उधर जा रहा हूँ, ताकि उस बेचारे की सुदीर्घ प्रतीक्षा समाप्त हो सके। यह कहते हुए तथागत उस भयावह वन में प्रविष्ट हो गए। उनके पाँवों के आगे बढ़ने से वन में पड़े सूखे पत्ते चरमरा उठे। किसी के आने की आहट पाकर अंगुलीमाल ने अपने फरसे पर धार रखनी शुरू कर दी। हालांकि अचरच उसे भी था। क्योंकि सालों से उधर कोई आया ही नहीं था। और आज अचानक.....। आखिर यह कौन नासमझ है, जो चारों दिशाओं में फैले उसके प्रण की खबर को जानकर भी इधर मरने के लिए आ रहा है। उसने खड़े होकर थोड़ा गौर से देखा, गैरिक वस्त्र, हाथ में कमण्डलु, तो बेचारा कोई संन्यासी है। आज गया काम से लगता है इसे नागरिकों ने कुछ बताया नहीं।
परन्तु न जाने क्यों जैसे- जैसे भगवान् उसके समीप बढ़ते गए, वैसे- वैसे उसके अन्तःकरण के भाव बदलने लगे। उसमें दया का अंकुरण होने लगा। अपने इस अचानक भाव परिवर्तन पर उसे भारी हैरानी हुई। मन ही मन उसने सोचा, अरे अंगुलीमाल आज अचानक तुझे यह क्या हो रहा है? तू तो अपनी सगी माँ को भी काटने के लिए तत्पर था। फिर इससे तो कोई तेरी जान- पहचान भी नहीं है। लेकिन कुछ घटित हो रहा था। बुद्धत्व की तरंगे, भगवान् तथागत की शान्ति, सुगन्ध से वह घिरने लगा था।
शास्ता जब थोड़ी दूर रह गए तो वह चिल्लाया, अरे पागल संन्यासी। तू किधर बढ़ा चला जा रहा है, देखता नहीं मेरे गले में यह अंगुलियों की माला पड़ी है। मेरा यह चमकदार फरसा तुझे दिखाई नहीं देता? अरे नासमझ मैं अंगुलीमाल हूँ। मेरे प्रण की बात तूने नहीं सूनी। मैं नौ सौ निन्यानबे को मार चुका हूँ। एक को मारना बाकी है। क्यों तू अपनी जान का दुश्मन बना है। भाग जा मूर्ख। मैं तुझे न जाने क्यों एक मौका दे रहा हूँ। अभी भी तेरे पास समय है, तू आगे की ओर चलना छोड़ दे, पीछे लौट जा।
भगवान् हँसे। उनकी खिलखिलाहट से वन प्रान्तर में एक अपूर्ण मधुरिमा बिखर गयी। वह बोले, अरे पागल, तुझे इतना भी नहीं पता कि सालों, साल पहले मैंने चलना बन्द कर दिया है। जब से मेरा मन ठहरा, तब से मेरी जिन्दगी की सारी भाग- दौड़ बन्द हो गयी है। मैं तो स्थिर हूँ, अब तू स्थिर हो। भगवान् के इन बोधपूर्ण वचनों को अंगुलीमाल समझ न सका। अपनी हैरानी में उसने सोचा यह आदमी जरूर पागल है। जो चलते हुए भी कह रहा है कि स्थिर है। जबकि मैं यहाँ स्थिर बैठा हुआ फरसे पर धार रख रहा हूँ, तो मुझसे कह रहा है कि तुम ठहर जाओ। अपनी सोच की कड़ियों को जोड़ते हुए अंगुलीमाल ने मन ही मन कहा- कि यह आदमी कितना ही पागल क्यों न हो, पर इसमें एक दैवी आभा जरूर है।
अभी वह कुछ और सोच पाता कि भगवान् बुद्ध उसके एकदम पास पहुँच गए। अब तक किसी ने भी उसके इस तरह एकदम पास पहुँचने की हिम्मत न की थी। इस विचित्र आदमी की हिम्मत से वह थोड़ा हड़बड़ा गया। अपने को थोड़ा सम्हालते हुए वह बोला, तुम बहुत जिद्दी हो। मुझे शंका हो रही है कि कहीं तुम गौतम बुद्ध तो नहीं हो। क्योंकि जिन लोगों की मैंने हत्याएँ की हैं, उनमें से कई मुझसे यह कह रहे थे कि तुम्हें तो केवल गौतम बुद्ध ही बदल सकते हैं। पर तुम यह भली प्रकार जान लो कि मैं भी कम जिद्दी नहीं हूँ। मेरा भी नाम अंगुलीमाल है। यह अच्छी तरह से जान लो कि आज तुम्हारी जिन्दगी का आखिरी दिन है।
भगवान् सम्यक् सम्बुद्ध उसकी इन बातों पर मुस्कराए और बोले, तू आराम से अपने फरसे पर धार रख ले। तब तक मैं यहीं बैठा हूँ। यह कहते हुए वह एक शिला पर बैठ गए। अंगुलीमाल अपने फरसे पर धार रखने लगा। परन्तु न जाने क्यों, आज उसके हृदय में प्रेम का ज्वार उफन रहा था। उसके अस्तित्त्व से करूणा की तरंगे फूटने लगी थी। उसके अन्तःकरण में दया का अंकुरण होने लगा था। अपनी इस भाव दशा पर वह बड़ा हैरान था। परन्तु उसने अपनी यह हैरानी छिपाते हुए कहा, कि तुम कैसे आदमी हो, आखिर तुम मरने के लिए इतना तत्पर क्यों हो। तुमने आत्महत्या करने की आखिर क्यों सोची है।
उसकी सभी बातों के प्रत्युत्तर में भगवान् के मुख पर बड़ी ही निर्विकार शान्ति थी। उनके अधरों पर एक सौम्य स्मित था। इतनी देर में अंगुलीमाल का धार रखने का काम भी पूरा हो गया। उसने कहा, अरे एक बार फिर सोच ले, अभी भी मैं तुझे जीवन दे सकता हूँ। भगवान् ने उसके इस कथन पर बड़े ही करूणा पूर्ण स्वर में कहा- यही तो मैं तुझे सिखाने आया हूँ पुत्र! मारने में न तो कोई कला है और न ही कोई पुरूषार्थ। यह तो कोई भी कर सकता है वत्स। असली कला तो जीवन देने और जीवन जीने में है। पता नहीं क्या था कि महाकारूणिक बुद्ध के इन वचनों में। अंगुलीमाल फरसा एक ओर फेंककर उनके चरणों में गिर गया। वह दस्यु से भिक्षु हो गया।
और आज जब वह गाँव में भिक्षा मांगने गया- तो गांव के लोगों ने दरवाजे बन्द कर लिए। लोग अपनी- अपनी छतों पर पत्थर इकट्ठे करके चढ़ गए। और जब वह बीच सड़क पर था तो लोगों ने उसे पत्थर मारे। वह शान्तमना भिक्षु बीच सड़क पर खड़ा रहा, उसकी देह पर लोगों के पत्थर गिरते रहे। उसकी देह के प्रत्येक अंग से लहू की धारें बहती रही। उसके होठों से यह मंत्र ध्वनि निकलती रही- बुद्ध शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि। इन महामंत्रों का गान करते हुए वह धरती पर गिर गया।
खबर मिलते ही शास्ता स्वयं उसके पास गए। आखिरी क्षण थे उसके जीवन के। भगवान् ने उसका सिर अपनी गोद में रखकर पूछा- पुत्र! क्या भाव हैं इस समय तेरे मन में। उसने आँसू भरी आँखों से कहा, भगवन्! आपका ही शिष्य हूँ। आपकी ही बात मानकर मैं ठहर गया हूँ। अब ठहरे हुए का क्या भाव प्रभु! मेरा मन तो जैसे अब रहा ही नहीं भगवान्। वह तो जैसे देखता रहा, एकदम साक्षी की तरह। यही तो आपने समझाया था, पुत्र! तू देखने वाला द्रष्टा है, तू साक्षी है। जैसा आपने बताया, समझाया, मैं वैसा ही हो गया। मेरे मन- अन्तःकरण में किसी के प्रति कोई राग- रोष नहीं। मुझमें कहीं भी कोई द्वेष- क्लेश नहीं। मेरे आराध्य! आप सर्वान्तरयामी हैं। आप ही बताए कि मैं आपका शिष्य एवं अनुरक्त भक्त बन सका या नहीं।
अंगुलीमाल के इन भक्तिपूर्ण वचनों को सुनकर भगवान् के नेत्र भर आए। वह भरे हृदय से बोले, ‘पुत्र! तू ब्राह्मण होकर देह त्याग कर रहा है। तू ब्रह्मज्ञान को उपलब्ध हो गया है। तू अहंता हो गया पुत्र! तू अरिहन्त हो गया।’ भगवान् के इन वचनों को सुनकर अंगुलीमाल ने उन्हीं की गोद में सिर रखे हुए अपनी देह का त्याग कर दिया।
सारिपुत्र भिक्षुओं को यह कथा सुना रहे थे, तभी भगवान् बुद्ध धीमे कदमों से चलते हुए आ पहुँचे। सभी भिक्षुओं ने उन्हें प्रणाम किया। प्रणाम के अनन्तर उनमें से कुछ भिक्षुओं ने पूछा- भन्ते! भिक्षु अंगुलीमाल मरने के पश्चात कहाँ उत्पन्न होंगे? भिक्षुओं की इस जिज्ञासा के उत्तर में भगवान् ने बड़े ही धीरे स्वर से कहा- भिक्षुओं! मेरा वह पुत्र परिनिवृत्त होकर परिनिर्वाण को उपलब्ध हो गया है। उसकी चेतना जन्म- मरण से पार हो गयी है। अब उसका पुनरागमन नहीं होगा।
आश्चर्यचकित भिक्षुओं ने कहा- इतने मनुष्यों की हत्या करके?
हाँ भिक्षुओं, भगवान् ने कहा, उसने सोए हुए अनेकों पाप किए, परन्तु जगने के पश्चात् अपने पुण्यों से उन्हें नष्ट कर दिया। फिर उसने शून्य भाव में निमग्र होकर निर्वाण को प्राप्त कर लिया। यह कहते हुए भगवान् ने यह गाथा कही-
यस्य पापं कतं कम्मं कुसलेन पिथीयती।
सो’ मं लोकं पभासेति अष्मा मुत्तो व चंदिमा॥
‘जिसका किया हुआ पाप उसके बाद में किए हुए पुण्य से ढक जाता है। वह मेघ से मुक्त चन्द्रमा की भाँति इस लोक को प्रकाशित करता है।’
तथागत के वचन को सुनकर भिक्षुगण कहने लगे, भन्ते! अभी तो उसे भिक्षु हुए भी ज्यादा दिन नहीं हुए थे, फिर उसने इतने पुण्य कब कर डाले। बुद्ध एक हल्के से स्मित के साथ बोले, छोटा सा पुण्य कृत्य भी यदि साक्षी भाव की समग्रता से किया जाय, तो सारे पापों को भस्म कर देता है। अंगुलीमाल को न तो भिक्षु हुए ज्यादा दिन हुए और न ही वह ज्यादा दिन जिया। परन्तु जिस समय उसे सभी ग्रामवासी पत्थर मार रहे थे, उस समय वह सभी राग- द्वेष से मुक्त पूर्ण साक्षी भाव में स्थित था। इसी महापुण्य से वह निर्वाण को उपलब्ध हो गया। ‘भिक्षुओं! कर्त्ता होना ही महापाप है, और साक्षी होना ही महापुण्य है।’ बुद्ध के इन अपूर्व वचनों को सुनकर भिक्षुगण इन पर निदिध्यासन करने लगे।
भिक्षु संघ के कुछ नए सदस्यों ने सारिपुत्र से आग्रह किया कि वह उन्हें अंगुलीमाल के भिक्षु बनने की गाथा सुनाएँ। उनकी यह जिज्ञासा स्वाभाविक थी कि इतना बड़ा हत्यारा अचानक भिक्षु कैसे बन गया। सारिपुत्र उन सभी के मनोभावों को समझते हुए बोले- हाँ अंगुलीमाल हत्यारा था। उसने शपथ ली थी कि एक हजार लोगों को मारकर उनकी अंगुलियों की माला बनाकर पहनूँगा, इसीलिए जन सामान्य ने उसे अंगुलीमाल के नाम से पुकारना शुरू कर दिया। जिस समय भगवान् तथागत उससे मिले, उस समय तक वह नौ सौ निन्यानबे व्यक्तियों को मार चुका था। और हजारवें की प्रतीक्षा कर रहा था। उसके इस अद्भुत प्रण की चर्चा सब ओर थी। तो जिस बीहड़ वन में अंगुलीमाल रहता था, लोगों ने उस ओर जाना ही छोड़ दिया था। यहाँ तक कि उसकी माँ भी उस ओर जाने में घबराती थी। क्योंकि उसे मालूम था कि उसका बेटा अपनी मां को भी मारकर अपना प्रण पूरा करेगा।
भगवान् उन दिनों कोसल देश के उस भयानक वन के पास ही ठहरे थे। कोसल नरेश प्रसेनजित के काफी आग्रह- अनुरोध के बावजूद उन्होंने राजप्रसाद या राज उद्यान में ठहरना स्वीकार नहीं किया। महाराज प्रसेनजित के साथ उन्होंने जन सामान्य के अनुरोध को भी ठुकरा दिया। यही नहीं एक दिन प्रातः भगवान् उस भयावह वन की ओर जाने वाली डगर पर चल दिए। जिसने उन्हें उस ओर जाते देखा, वही चीख पड़ा, ‘आप उधर न जाएँ भन्ते! वह आदमी बहुत ज्यादा खतरनाक है। वह कतई विचार नहीं करेगा कि आप कौन हैं, उसको तो बस जैसे- तैसे एक आदमी को मारकर एक हजार व्यक्तियों को मारने का अपना प्रण पूरा करना है। जरा सोचिए, जिस ओर जाने में महाराज प्रसेनजित एवं उनकी फौजें घबराती हैं, उस ओर भला आप क्यों जा रहे हैं।’
भगवान् मुस्कराकर बोले, मुझे सारी बातें पता हैं। इसीलिए तो मैं उधर जा रहा हूँ, ताकि उस बेचारे की सुदीर्घ प्रतीक्षा समाप्त हो सके। यह कहते हुए तथागत उस भयावह वन में प्रविष्ट हो गए। उनके पाँवों के आगे बढ़ने से वन में पड़े सूखे पत्ते चरमरा उठे। किसी के आने की आहट पाकर अंगुलीमाल ने अपने फरसे पर धार रखनी शुरू कर दी। हालांकि अचरच उसे भी था। क्योंकि सालों से उधर कोई आया ही नहीं था। और आज अचानक.....। आखिर यह कौन नासमझ है, जो चारों दिशाओं में फैले उसके प्रण की खबर को जानकर भी इधर मरने के लिए आ रहा है। उसने खड़े होकर थोड़ा गौर से देखा, गैरिक वस्त्र, हाथ में कमण्डलु, तो बेचारा कोई संन्यासी है। आज गया काम से लगता है इसे नागरिकों ने कुछ बताया नहीं।
परन्तु न जाने क्यों जैसे- जैसे भगवान् उसके समीप बढ़ते गए, वैसे- वैसे उसके अन्तःकरण के भाव बदलने लगे। उसमें दया का अंकुरण होने लगा। अपने इस अचानक भाव परिवर्तन पर उसे भारी हैरानी हुई। मन ही मन उसने सोचा, अरे अंगुलीमाल आज अचानक तुझे यह क्या हो रहा है? तू तो अपनी सगी माँ को भी काटने के लिए तत्पर था। फिर इससे तो कोई तेरी जान- पहचान भी नहीं है। लेकिन कुछ घटित हो रहा था। बुद्धत्व की तरंगे, भगवान् तथागत की शान्ति, सुगन्ध से वह घिरने लगा था।
शास्ता जब थोड़ी दूर रह गए तो वह चिल्लाया, अरे पागल संन्यासी। तू किधर बढ़ा चला जा रहा है, देखता नहीं मेरे गले में यह अंगुलियों की माला पड़ी है। मेरा यह चमकदार फरसा तुझे दिखाई नहीं देता? अरे नासमझ मैं अंगुलीमाल हूँ। मेरे प्रण की बात तूने नहीं सूनी। मैं नौ सौ निन्यानबे को मार चुका हूँ। एक को मारना बाकी है। क्यों तू अपनी जान का दुश्मन बना है। भाग जा मूर्ख। मैं तुझे न जाने क्यों एक मौका दे रहा हूँ। अभी भी तेरे पास समय है, तू आगे की ओर चलना छोड़ दे, पीछे लौट जा।
भगवान् हँसे। उनकी खिलखिलाहट से वन प्रान्तर में एक अपूर्ण मधुरिमा बिखर गयी। वह बोले, अरे पागल, तुझे इतना भी नहीं पता कि सालों, साल पहले मैंने चलना बन्द कर दिया है। जब से मेरा मन ठहरा, तब से मेरी जिन्दगी की सारी भाग- दौड़ बन्द हो गयी है। मैं तो स्थिर हूँ, अब तू स्थिर हो। भगवान् के इन बोधपूर्ण वचनों को अंगुलीमाल समझ न सका। अपनी हैरानी में उसने सोचा यह आदमी जरूर पागल है। जो चलते हुए भी कह रहा है कि स्थिर है। जबकि मैं यहाँ स्थिर बैठा हुआ फरसे पर धार रख रहा हूँ, तो मुझसे कह रहा है कि तुम ठहर जाओ। अपनी सोच की कड़ियों को जोड़ते हुए अंगुलीमाल ने मन ही मन कहा- कि यह आदमी कितना ही पागल क्यों न हो, पर इसमें एक दैवी आभा जरूर है।
अभी वह कुछ और सोच पाता कि भगवान् बुद्ध उसके एकदम पास पहुँच गए। अब तक किसी ने भी उसके इस तरह एकदम पास पहुँचने की हिम्मत न की थी। इस विचित्र आदमी की हिम्मत से वह थोड़ा हड़बड़ा गया। अपने को थोड़ा सम्हालते हुए वह बोला, तुम बहुत जिद्दी हो। मुझे शंका हो रही है कि कहीं तुम गौतम बुद्ध तो नहीं हो। क्योंकि जिन लोगों की मैंने हत्याएँ की हैं, उनमें से कई मुझसे यह कह रहे थे कि तुम्हें तो केवल गौतम बुद्ध ही बदल सकते हैं। पर तुम यह भली प्रकार जान लो कि मैं भी कम जिद्दी नहीं हूँ। मेरा भी नाम अंगुलीमाल है। यह अच्छी तरह से जान लो कि आज तुम्हारी जिन्दगी का आखिरी दिन है।
भगवान् सम्यक् सम्बुद्ध उसकी इन बातों पर मुस्कराए और बोले, तू आराम से अपने फरसे पर धार रख ले। तब तक मैं यहीं बैठा हूँ। यह कहते हुए वह एक शिला पर बैठ गए। अंगुलीमाल अपने फरसे पर धार रखने लगा। परन्तु न जाने क्यों, आज उसके हृदय में प्रेम का ज्वार उफन रहा था। उसके अस्तित्त्व से करूणा की तरंगे फूटने लगी थी। उसके अन्तःकरण में दया का अंकुरण होने लगा था। अपनी इस भाव दशा पर वह बड़ा हैरान था। परन्तु उसने अपनी यह हैरानी छिपाते हुए कहा, कि तुम कैसे आदमी हो, आखिर तुम मरने के लिए इतना तत्पर क्यों हो। तुमने आत्महत्या करने की आखिर क्यों सोची है।
उसकी सभी बातों के प्रत्युत्तर में भगवान् के मुख पर बड़ी ही निर्विकार शान्ति थी। उनके अधरों पर एक सौम्य स्मित था। इतनी देर में अंगुलीमाल का धार रखने का काम भी पूरा हो गया। उसने कहा, अरे एक बार फिर सोच ले, अभी भी मैं तुझे जीवन दे सकता हूँ। भगवान् ने उसके इस कथन पर बड़े ही करूणा पूर्ण स्वर में कहा- यही तो मैं तुझे सिखाने आया हूँ पुत्र! मारने में न तो कोई कला है और न ही कोई पुरूषार्थ। यह तो कोई भी कर सकता है वत्स। असली कला तो जीवन देने और जीवन जीने में है। पता नहीं क्या था कि महाकारूणिक बुद्ध के इन वचनों में। अंगुलीमाल फरसा एक ओर फेंककर उनके चरणों में गिर गया। वह दस्यु से भिक्षु हो गया।
और आज जब वह गाँव में भिक्षा मांगने गया- तो गांव के लोगों ने दरवाजे बन्द कर लिए। लोग अपनी- अपनी छतों पर पत्थर इकट्ठे करके चढ़ गए। और जब वह बीच सड़क पर था तो लोगों ने उसे पत्थर मारे। वह शान्तमना भिक्षु बीच सड़क पर खड़ा रहा, उसकी देह पर लोगों के पत्थर गिरते रहे। उसकी देह के प्रत्येक अंग से लहू की धारें बहती रही। उसके होठों से यह मंत्र ध्वनि निकलती रही- बुद्ध शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि। इन महामंत्रों का गान करते हुए वह धरती पर गिर गया।
खबर मिलते ही शास्ता स्वयं उसके पास गए। आखिरी क्षण थे उसके जीवन के। भगवान् ने उसका सिर अपनी गोद में रखकर पूछा- पुत्र! क्या भाव हैं इस समय तेरे मन में। उसने आँसू भरी आँखों से कहा, भगवन्! आपका ही शिष्य हूँ। आपकी ही बात मानकर मैं ठहर गया हूँ। अब ठहरे हुए का क्या भाव प्रभु! मेरा मन तो जैसे अब रहा ही नहीं भगवान्। वह तो जैसे देखता रहा, एकदम साक्षी की तरह। यही तो आपने समझाया था, पुत्र! तू देखने वाला द्रष्टा है, तू साक्षी है। जैसा आपने बताया, समझाया, मैं वैसा ही हो गया। मेरे मन- अन्तःकरण में किसी के प्रति कोई राग- रोष नहीं। मुझमें कहीं भी कोई द्वेष- क्लेश नहीं। मेरे आराध्य! आप सर्वान्तरयामी हैं। आप ही बताए कि मैं आपका शिष्य एवं अनुरक्त भक्त बन सका या नहीं।
अंगुलीमाल के इन भक्तिपूर्ण वचनों को सुनकर भगवान् के नेत्र भर आए। वह भरे हृदय से बोले, ‘पुत्र! तू ब्राह्मण होकर देह त्याग कर रहा है। तू ब्रह्मज्ञान को उपलब्ध हो गया है। तू अहंता हो गया पुत्र! तू अरिहन्त हो गया।’ भगवान् के इन वचनों को सुनकर अंगुलीमाल ने उन्हीं की गोद में सिर रखे हुए अपनी देह का त्याग कर दिया।
सारिपुत्र भिक्षुओं को यह कथा सुना रहे थे, तभी भगवान् बुद्ध धीमे कदमों से चलते हुए आ पहुँचे। सभी भिक्षुओं ने उन्हें प्रणाम किया। प्रणाम के अनन्तर उनमें से कुछ भिक्षुओं ने पूछा- भन्ते! भिक्षु अंगुलीमाल मरने के पश्चात कहाँ उत्पन्न होंगे? भिक्षुओं की इस जिज्ञासा के उत्तर में भगवान् ने बड़े ही धीरे स्वर से कहा- भिक्षुओं! मेरा वह पुत्र परिनिवृत्त होकर परिनिर्वाण को उपलब्ध हो गया है। उसकी चेतना जन्म- मरण से पार हो गयी है। अब उसका पुनरागमन नहीं होगा।
आश्चर्यचकित भिक्षुओं ने कहा- इतने मनुष्यों की हत्या करके?
हाँ भिक्षुओं, भगवान् ने कहा, उसने सोए हुए अनेकों पाप किए, परन्तु जगने के पश्चात् अपने पुण्यों से उन्हें नष्ट कर दिया। फिर उसने शून्य भाव में निमग्र होकर निर्वाण को प्राप्त कर लिया। यह कहते हुए भगवान् ने यह गाथा कही-
यस्य पापं कतं कम्मं कुसलेन पिथीयती।
सो’ मं लोकं पभासेति अष्मा मुत्तो व चंदिमा॥
‘जिसका किया हुआ पाप उसके बाद में किए हुए पुण्य से ढक जाता है। वह मेघ से मुक्त चन्द्रमा की भाँति इस लोक को प्रकाशित करता है।’
तथागत के वचन को सुनकर भिक्षुगण कहने लगे, भन्ते! अभी तो उसे भिक्षु हुए भी ज्यादा दिन नहीं हुए थे, फिर उसने इतने पुण्य कब कर डाले। बुद्ध एक हल्के से स्मित के साथ बोले, छोटा सा पुण्य कृत्य भी यदि साक्षी भाव की समग्रता से किया जाय, तो सारे पापों को भस्म कर देता है। अंगुलीमाल को न तो भिक्षु हुए ज्यादा दिन हुए और न ही वह ज्यादा दिन जिया। परन्तु जिस समय उसे सभी ग्रामवासी पत्थर मार रहे थे, उस समय वह सभी राग- द्वेष से मुक्त पूर्ण साक्षी भाव में स्थित था। इसी महापुण्य से वह निर्वाण को उपलब्ध हो गया। ‘भिक्षुओं! कर्त्ता होना ही महापाप है, और साक्षी होना ही महापुण्य है।’ बुद्ध के इन अपूर्व वचनों को सुनकर भिक्षुगण इन पर निदिध्यासन करने लगे।