Books - भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व
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Language: HINDI
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अवतार
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भारतीय संस्कृति अवतारवाद में विश्वास करती है ।। जब पृथ्वी का पाप- भार बढ़ जाता है, ईश्वर का अवतार होता है और वह अपनी शक्ति और सार्मथ्य से संसार का भार हलका कर पुण्य की स्थापना करता है ।। हमारे पूर्व अद्भुत शक्ति सम्पन्न अवतारी महापुरुष हुए हैं और उन्होंने चकित करने वाले कार्य किये हैं ।। यदि हम यह मानें कि एक हार्स पावर (यह कला) हममें है, तो हमारे अवतारों की कलाओं का कुछ अपेक्षित महत्त्व हमारे सन्मुख आ सकता है ।। परशुराम तीन कला के अवतार थे, श्रीरामचन्द्र जी बारह कला और श्रीकृष्ण सोलह कला के अवतार माने गए हैं ।। रावण में भी दस कलाएँ थीं, पर उसमें दस आसुरी प्रवृत्तियाँ भी विकसित थी ।। अतः उसकी प्रवृत्ति विपरीत दिशा में चलती रही और उससे लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक हुई ।।
सगुण रूप में ईश्वर के साकार स्वरूप का नाम ही अवतार है ।। निर्गुण निराकार का ध्यान तो सम्भव नहीं है, पर सगुण रूप में आकर वह इस संसार के कार्यों में फिर क्रम और व्यवस्था उत्पन्न करते हैं ।। हमारा प्रत्येक अवतार सर्व व्यापक चेतना सत्ता का मूर्त रूप है ।। श्री सुदर्शन सिंह ने लिखा है-
''अवतार शरीर प्रभु का नित्य- विग्रह है ।। वह न मायिक है और न पाँच भौतिक ।। उसमें स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीरों का भेद भी नहीं होता ।। जैसे दीपक की ज्योति में विशुद्ध अग्नि है, दीपक की बत्ती की मोटाई केवल उस अग्नि क आकार का तटस्थ उपादान कारण है, ऐसे ही भगवान का श्री विग्रह शुद्ध सचिदानंदघन हैं ।। भक्त का भाव, भाव स्तर से उद्भूत है और भाव- बिस्तर नित्य धाम से ।। भगवान का नित्य- विग्रह कर्मजन्य नहीं है ।। जीवन की भाँति किसी कर्म का परिणाम नहीं है ।। वह स्वेच्छामय है, इसी प्रकार भगवानवतार कर्म भी आसक्ति की कामना या वासना के अवतार प्रेरित नहीं है, दिव्य लीला के रूप है ।। भगवान के अवतार के समय उनके शरीर का बाल्य- कौमारादि रूपों में परिवर्तन दीखता है, वह रूपों के आविर्भाव तथा तिरोभाव के कारण ।''
भगवान का अवतार नीति और धर्म की स्थापना के लिए होता रहा है ।। जब समाज में पापों, मिथ्याचारों, दूषितवृत्तियों, अन्याय का बाहुल्य को जाता है, तब किसी न किसी रूप में पाप- निवृत्ति के लिए भगवान का स्वरूप प्रकट होता है ।। वह एक असामान्य प्रतिभाशाली व्यक्ति के रूप में होता है ।। उसमें हर प्रकार की शक्ति भरी रहती थी ।। वह स्वार्थ, लिप्सा के मद को, पाप के पुञ्ज को अपने आत्म- बल से दूर कर देता है ।। दुराचार, छल कपट, धोखा, भय, अन्याय के वातावरण को दूर कर मनुष्य के हृदय में विराजमान देवत्व की स्थापना करता है ।।
पिता ने अपने पुत्र को, परमात्मा ने आत्मा को, राजा ने राजकुमारों को इसलिए भेजा है कि मेरी सृष्टि की न्यायपूर्ण व्यवस्था रखों ।। सत्य, प्रेम, विवेक को फैलाकर इस वाटिका को सुरम्य बनाओ पाप, अन्याय और अत्याचार फैला दे ।। ऐसी अव्यवस्था और अन्याय के समय के लिए शरीर का तीसरा नेत्र सुरक्षित है ।। जब मनुष्य के शरीर में फोड़े उठते हैं और बढ़ने लगते हैं, तो निर्दय डाक्टर की तरह भगवान चाकू घुसेड़ कर मवाद को निकाल डालना भी जानते है ।। भले ही रोगी हाय- हाय करता रहे और वेदना से विहृल होकर हाथ- पाँव छटपटाये ।। तात्पर्य यह है कि ईश्वर अधिक दिन तक जगत में पाप की प्रवृत्ति नहीं देख सकते ।। कारण आत्मा की अखण्डता ऐसी है कि एक व्यक्ति पापों का फल अन्य व्यक्तियों को भी भोगना पड़ता है ।। इस प्रकार कुछ व्यक्तियों द्वारा फैलाये हुए पापों का फल सभी सृष्टि को परेशान कर देता है ।। शेष जीवित प्राणी अनीति के, अत्याचार और आपत्ति के राक्षस के कराल डाढ़ों में फँस जाते है ।। जगत पिता अपनी सान्त्वनापूर्ण भुजाएँ फैलाकर करुण नेत्रों से संदेश देते हुए मानों कह उठते हैं- ''पुत्रों! इस अत्याचारी को दण्ड देकर तो मैं दूर किए देता हूँ, पर भविष्य में कभी ऐसी भूल मत करना ।। तुम्हें इस पृथ्वी पर, संसार में सत्य, प्रेम और न्याय के सुमधुर फल चखने के लिए भेजा गया है, न कि इस सुरम्य वाटिका में दुराचार, छल, कपट, धोखा, अन्याय की आग लगाने के लिए ।। शैतान के पंजे से सावधान रहना ।। दण्ड सहकर तुम्हारे पास संस्कार निवृत्त हो गये हैं ।। अब अपने कर्तव्य धर्म को समझो ।। तुम भोग- विलास या काम- वासना रत कीड़े नहीं हो, पवित्र निष्कंलक सात्विक प्रवृत्ति का आत्मा हो, निर्विकार हो ।। इन्द्रिय लालसा के लिए कदम मत बनाना ।। पिछली भूलों का प्रायश्चित करो और नवीन सतयुग का निर्माण करो ।''
इस प्रकार हिन्दू अवतार का सत्य स्वरूप यह है कि आप दंडित हो ।। दुराचार, छल- कपट से मनुष्य बचते रहें ।। उन पर दंडित होने का आतंक छाया रहे ।। मनुष्यता शोधित होकर, अपने विकार छोड़कर कर्तव्य धर्म पर आरूढ़ होती रहे ।। प्रभु का न्याय, सत्य विवेक और प्रेम का संतुलन ठीक बना रहे ।। अवतार के बाद सतयुग का आरंभ होता है ।। निर्विकार आत्माओं को राज्य छा जाता है ।। दुराचार का वायुमण्डल समाप्त हो जाता है और उज्ज्वल भविष्य दृष्टिगत होने लगता है ।।
सगुण रूप में ईश्वर के साकार स्वरूप का नाम ही अवतार है ।। निर्गुण निराकार का ध्यान तो सम्भव नहीं है, पर सगुण रूप में आकर वह इस संसार के कार्यों में फिर क्रम और व्यवस्था उत्पन्न करते हैं ।। हमारा प्रत्येक अवतार सर्व व्यापक चेतना सत्ता का मूर्त रूप है ।। श्री सुदर्शन सिंह ने लिखा है-
''अवतार शरीर प्रभु का नित्य- विग्रह है ।। वह न मायिक है और न पाँच भौतिक ।। उसमें स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीरों का भेद भी नहीं होता ।। जैसे दीपक की ज्योति में विशुद्ध अग्नि है, दीपक की बत्ती की मोटाई केवल उस अग्नि क आकार का तटस्थ उपादान कारण है, ऐसे ही भगवान का श्री विग्रह शुद्ध सचिदानंदघन हैं ।। भक्त का भाव, भाव स्तर से उद्भूत है और भाव- बिस्तर नित्य धाम से ।। भगवान का नित्य- विग्रह कर्मजन्य नहीं है ।। जीवन की भाँति किसी कर्म का परिणाम नहीं है ।। वह स्वेच्छामय है, इसी प्रकार भगवानवतार कर्म भी आसक्ति की कामना या वासना के अवतार प्रेरित नहीं है, दिव्य लीला के रूप है ।। भगवान के अवतार के समय उनके शरीर का बाल्य- कौमारादि रूपों में परिवर्तन दीखता है, वह रूपों के आविर्भाव तथा तिरोभाव के कारण ।''
भगवान का अवतार नीति और धर्म की स्थापना के लिए होता रहा है ।। जब समाज में पापों, मिथ्याचारों, दूषितवृत्तियों, अन्याय का बाहुल्य को जाता है, तब किसी न किसी रूप में पाप- निवृत्ति के लिए भगवान का स्वरूप प्रकट होता है ।। वह एक असामान्य प्रतिभाशाली व्यक्ति के रूप में होता है ।। उसमें हर प्रकार की शक्ति भरी रहती थी ।। वह स्वार्थ, लिप्सा के मद को, पाप के पुञ्ज को अपने आत्म- बल से दूर कर देता है ।। दुराचार, छल कपट, धोखा, भय, अन्याय के वातावरण को दूर कर मनुष्य के हृदय में विराजमान देवत्व की स्थापना करता है ।।
पिता ने अपने पुत्र को, परमात्मा ने आत्मा को, राजा ने राजकुमारों को इसलिए भेजा है कि मेरी सृष्टि की न्यायपूर्ण व्यवस्था रखों ।। सत्य, प्रेम, विवेक को फैलाकर इस वाटिका को सुरम्य बनाओ पाप, अन्याय और अत्याचार फैला दे ।। ऐसी अव्यवस्था और अन्याय के समय के लिए शरीर का तीसरा नेत्र सुरक्षित है ।। जब मनुष्य के शरीर में फोड़े उठते हैं और बढ़ने लगते हैं, तो निर्दय डाक्टर की तरह भगवान चाकू घुसेड़ कर मवाद को निकाल डालना भी जानते है ।। भले ही रोगी हाय- हाय करता रहे और वेदना से विहृल होकर हाथ- पाँव छटपटाये ।। तात्पर्य यह है कि ईश्वर अधिक दिन तक जगत में पाप की प्रवृत्ति नहीं देख सकते ।। कारण आत्मा की अखण्डता ऐसी है कि एक व्यक्ति पापों का फल अन्य व्यक्तियों को भी भोगना पड़ता है ।। इस प्रकार कुछ व्यक्तियों द्वारा फैलाये हुए पापों का फल सभी सृष्टि को परेशान कर देता है ।। शेष जीवित प्राणी अनीति के, अत्याचार और आपत्ति के राक्षस के कराल डाढ़ों में फँस जाते है ।। जगत पिता अपनी सान्त्वनापूर्ण भुजाएँ फैलाकर करुण नेत्रों से संदेश देते हुए मानों कह उठते हैं- ''पुत्रों! इस अत्याचारी को दण्ड देकर तो मैं दूर किए देता हूँ, पर भविष्य में कभी ऐसी भूल मत करना ।। तुम्हें इस पृथ्वी पर, संसार में सत्य, प्रेम और न्याय के सुमधुर फल चखने के लिए भेजा गया है, न कि इस सुरम्य वाटिका में दुराचार, छल, कपट, धोखा, अन्याय की आग लगाने के लिए ।। शैतान के पंजे से सावधान रहना ।। दण्ड सहकर तुम्हारे पास संस्कार निवृत्त हो गये हैं ।। अब अपने कर्तव्य धर्म को समझो ।। तुम भोग- विलास या काम- वासना रत कीड़े नहीं हो, पवित्र निष्कंलक सात्विक प्रवृत्ति का आत्मा हो, निर्विकार हो ।। इन्द्रिय लालसा के लिए कदम मत बनाना ।। पिछली भूलों का प्रायश्चित करो और नवीन सतयुग का निर्माण करो ।''
इस प्रकार हिन्दू अवतार का सत्य स्वरूप यह है कि आप दंडित हो ।। दुराचार, छल- कपट से मनुष्य बचते रहें ।। उन पर दंडित होने का आतंक छाया रहे ।। मनुष्यता शोधित होकर, अपने विकार छोड़कर कर्तव्य धर्म पर आरूढ़ होती रहे ।। प्रभु का न्याय, सत्य विवेक और प्रेम का संतुलन ठीक बना रहे ।। अवतार के बाद सतयुग का आरंभ होता है ।। निर्विकार आत्माओं को राज्य छा जाता है ।। दुराचार का वायुमण्डल समाप्त हो जाता है और उज्ज्वल भविष्य दृष्टिगत होने लगता है ।।