Books - भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व
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Language: HINDI
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परमसत्ता की सुनिश्चिता
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बुद्धि और इंद्रियों की सहायता से हमें विश्व ब्रह्माण्ड को थोड़ा परिचय प्राप्त होता है ।। यह ज्ञान बहुत ही स्वल्प है ।। इसके अतिरिक्त भी अनेक ब्रह्माण्ड ऐसे हैं जिनके सम्बन्ध में हम भूलोकवासी मनुष्य प्राणियों का कुछ भी ज्ञान नहीं है ।। समस्त सृष्टि इतनी विस्तीर्ण है कि बुद्धि की वहाँ तक पहुँच नहीं हो पाती ।। यह महान रचना किसी न किसी निर्माता की कृति है ।। बिना व्यवस्था के तो हमारे छोटे- मोटे काम भी नहीं चलते तो फिर इतनी बड़ी सृष्टि का कार्य बिना किसी संचालन के किस प्रकार चल सकता है? हमारे शरीर के कल- पुर्जे बड़ी भारी आश्चर्यजनक उत्तमता के साथ बने हुए हैं ।। इतना उत्तम यंत्र बनाने में कोई विधानवादी अब तक समर्थ नहीं हुआ ।। इसे चलाने वाले जीव के निकल जाने पर यह बेशकीमती यंत्र भी बेकार हो जाता है इसका एक भी कल- पुर्जा अपना काम नहीं कर पाता, फिर संसार का कार्य जो बिल्कुल नियमपूर्वक हो रहा है क्या बिना किसी संचालन के संभव है? सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, गह, नक्षत्र, इतने नियमबद्ध हो रहा है कि इनकी नियमितता में कभी एक सेकेण्ड का भी फर्क नहीं पड़ता, दिन के बाद रात होने की श्रृंखला कभी टूटने नहीं पाती ।। बचपन के बाद जवानी, फिर बुढ़ापा होता है, पेड़ों में फूल के बाद फल निकलते हैं, गेहूँ के बीज से गेहूँ ही उत्पन्न होता है, ऐसा कभी नहीं होता कि गेहूँ से चना पैदा हो या पहले फल आता हो पीछे फूल निकलता हो, न कभी ऐसा ही होता है कि बच्चा पहले बूढ़ा हो जाय फिर जवान हो, सारे काम बिल्कुल ठीक नियम से चल रहे हैं ।।
कभी- कभी भूकम्प, दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि, अन्तवृष्टि आदि अनियमित्ताएँ दिखाई पड़ती है पर यह सब भी एक विशेष नियम के आधार पर ही होता है ।। उन नियमों को समझाने वाले तत्त्वज्ञानी विवेकानन्द विवेकवानों को समस्त सृष्टि में एक रंचमात्र भी अव्यवस्था दृष्टिगोचर नहीं होती ।। इसलिए निःसंदेह इस सुव्यवस्थापूर्वक चलती हुई सृष्टि का चलाने वाला कोई अवश्य होना चाहिए ।। संसार एक यंत्र है ।। इसका संचालन करने वाली शक्ति को ईश्वर कहते हैं ।। मोटर जहाज या रेल को चलाने वाला कोई विवेकवान मनुष्य होता है इस सृष्टि को बनाने और चलाने वाली शक्ति ही ईश्वर है ।।
यह ठीक है कि ईश्वर को हम इन्द्रियों से अनुभव नहीं करते तो भी यह कहना उचित न होगा कि ईश्वर नहीं है ।। बहुत वस्तुओं को हम प्रत्यक्ष अनुभव नहीं करते तो भी अनुमान के आधार पर उनका अस्तित्व स्वीकार करना पड़ता है ।। इस समय हम जिस कलम का हाथ में पकड़कर वह पंक्तियाँ लिख रहे हैं, उसका कोई बनाने वाला है, यह बात हम इन्द्रियों की सहायता से नहीं जान सकते ।। आँखों से यह दिखाई पड़ता है तो भी यह अनुमान हो सकता है कि उसका बनाने वाला अवश्य रहा होगा ।। ईश्वर को छुआ या देखा नहीं जाता तो भी उसकी कृतियाँ पुकार- पुकार कर साक्षी दे रही हैं कि उनका रचयिता कोई न कोई अवश्य है ।।
भौतिक विज्ञान इस शक्ति का नाम 'प्रकृति' बनाने हैं ।। अध्यात्मवादी इसी को 'ईश्वर' कहते हैं ।। जिन्हें आज अनीश्वरवादी कहा जाता है, असल में वे भी ईश्वर को स्वीकार करते हैं ।। मतभेद ईश्वर के गुण- कर्म और स्वभाव के सम्बन्ध में है ।। ऐसे मतभेद तो हर सम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदायों के साथ रखता है परन्तु वह अनीश्वरवादी नहीं कहा जाता फिर भौतिक विज्ञानियों को नास्तिक कहना उचित न होगा ।। सृष्टि का निर्माण और संचालन करने वाला एक अदृश्य तत्व मौजूद है, इस महान सत्य से कोई भी इंकार नहीं कर सकता ।।
ईश्वर तत्व केवल निर्माण करने वाला और संचालन करने वाला ही हो सो बात नहीं है, वरन उसमें अनेक गुण हैं जैसे सूर्य की असंख्य किरणें अनेक प्रकार की हैं और उनमें अनेक गुण हैं ।। ईश्वर की निर्माण करने वाली शक्तियों को पृथ्वी, जल, तेज, वायु आकाश- पंचभूत नाम से पुकारते हैं ।। इन पंच भूतों से जड़ पदार्थ का, विवेकरहित वस्तुओं का बनना- बिगड़ना होता है ।।
निर्जीव रचना के अतिरिक्त सजीव रचना है जिसे 'प्राणी जगत' कहते हैं ।। जड़ और चेतन इन दो नामों से सृष्टि विभक्त है ।। चेतन प्राणियों में जीवन बनाये रहना, उन्नति करना तथा आनन्द भोगना, यह तीन गुण हैं, चेतन सृष्टि क इन तीन तत्वों को सचित आनन्द नाम से पुकारते हैं ।। जड़ चेतन की रचना पंचभूतों की क्रियाशील है ।। वैसे ही चेतन जगत की मूल प्रकृति सत्चित्आनन्द तत्वों के कारण से है । और जड़ चेतन दोनों ही पक्षों की रचना करने वाले यह पृथक-पृथक तत्व मूलतः एक ही आद्य शक्ति की धाराएँ हैं, एक ही सूर्य की किरणें हैं ।।
कुछ दिन पहले विज्ञानवादी ऐसा समझते थे कि केवल पंचभूतों की एक विशेष प्रकार की रचना में अपने आप चैतन्यता आ जाती है पर अब साइंसवादी अपनी भूल स्वीकार करते जाते हैं ।। उन्हें यह मानना पड़ रहा है कि जड़ तत्व ही सृष्टिकर्ता नहीं है वरन् यह पंचभूत भी एक आद्यशक्ति की धारा है ।। वह आद्यशक्ति अन्धी, निर्बुद्धि या जड़ नहीं है वरन् विवेकवान, फलवान, व्यवस्था रखने वाली, संशोधित करने वाली, संतुलन को बनाये रखने वाली भी, संशोधित करने वाली, संतुलन को बनाये रखना वाले इलेक्ट्रोन परमाणुओं को सूक्ष्म निरीक्षण यंत्रों की सहायता से मालूम कर लिया गया है पर वे विद्युत से अपनी धुरी पर कैसे घूम रहे हैं? इस संदेह का समाधान आद्यशक्ति को माने बिना और किसी प्रकार नहीं होता ।।
जैसे अग्नि, वायु, आदि स्थूल तत्व सर्वत्र अदृश्य रूप से व्याप्त हैं उसी प्रकार वह आद्यशक्ति इन जड़ पंचभूतों तथा अन्य चैतन्य तत्वों के भीतर अत्यन्त सूक्ष्म होकर विराज रही है ।। बल्ब को जलाने वाली सूक्ष्म विद्युत शक्ति तार में रहती है, इस विद्युत की बनाने वाली सूक्ष्म शक्ति चुम्बक में रहती है, चुम्बक में क्रियाशीलता विश्वव्यापक अग्नि तत्व से आती है ।। एक शक्ति का निर्माण दूसरी सूक्ष्म बीज शक्ति से होता है ।। पंच तत्वों की भी एक बीज शक्ति है ।। उस बीज शक्ति के बिना वे भी बेचारे अपना काम करने में समर्थ नहीं हो सकते ।। अग्नि में गर्मी कायम रखने वाली भी कोई सत्ता है ।। उस बीज शक्ति के ईश्वर कहते हैं, वह सूक्ष्म से सूक्ष्म है किन्तु इसी के द्वारा बने हुए पदार्थ हमारे चारों ओर फैले पड़े हैं इसलिए उसे स्थूल से स्थूल भी कहा जा सकता है ।।
जो वस्तु जितनी सूक्ष्म होगी वह उतनी ही व्यापक होगी ।। पंचभूतों में पृथ्वी से जल, जल से वायु, वायु से अग्नि और अग्नि से अधिक व्यापक है- ईथर तत्व हर जगह व्याप्त है ।। पर ईश्वर की सूक्ष्मता सर्वोपरि है इसलिए इसकी व्यापकता भी अधिक है ।। विश्व में रंचमात्र भी ऐसा स्थान नहीं है वहाँ ईश्वर न हो ।। अणु- अणु में ईश्वर की न्यूनाधिकता हो सकती है ।। जैसे कि चूल्हे के आसपास गर्मी अधिक होती है ।। इसलिए यह कहा जा सकता है कि उस स्थान पर अग्नि तत्व की विशेषता है, इसी प्रकार जलाशयों के समीप शीतल स्थान में अग्नि तत्व की न्यूनता की जायेगी ।। जहाँ सत्य का, विवेक का, आचरण अधिक है ।। जहाँ आलस्य, प्रमाद, पशुता, अज्ञान है वहाँ उस की न्यूनता कही जायेगी ।। सम्पूर्ण शरीर में जीव व्याप्त है, जीव के कारण ही शरीर की स्थिति और वृद्धि होती है परन्तु उनमें भी स्थान विशेष पर जीव की न्यूनाधिकता देखी जाती है ।। हृदय, मस्तिष्क, पेट और मर्म स्थानों पर तीव्र आघात लगने से मृत्यु हो जाती है परन्तु हाथ, पाँव, कान, नाक, नितंब आदि स्थानों पर उससे भी अधिक आघात सहन हो जाता है ।। बाल और पके हुए नाखून जीव की सत्ता से ही बढ़ते हैं पर उन्हें काट देने से जीव को कुछ हानि नहीं होती ।। संसार में सर्वत्र ईश्वर व्याप्त है ।। ईश्वर की शक्ति से ही सब कार्य होते हैं, परन्तु सत्य और धर्म के कामों में ईश्वरत्व की अधिकता है इसी प्रकार पाप प्रवृत्तियों में ईश्वरी तत्व की न्यूनता समझनी चाहिए ।। धर्मात्मा, मनस्वी, उपकारी, विवेकवान् और तेजस्वी महापुरुषों को 'अवतार' कहा जाता है क्योंकि उनकी सत्यनिष्ठा के आकर्षण से ईश्वर की मात्रा उनके अन्तर्गत अधिक होती है ।। अन्य पशुओं की अपेक्षा गौ में तथा अन्य जातियों की अपेक्षा ब्राह्मण में ईश्वर का अंश अधिक माना गया है क्योंकि उनका सत्यनिष्ठ उपकारी स्वभाव ईश्वरभक्ति को बलपूर्वक अपने अंदर अधिक मात्रा में खींचकर धारण कर लेता है ।।
उपरोक्त पंक्तियों में बताया जा चुका है कि सम्पूर्ण जड़- चेतन सृष्टि का निर्माण नियंत्रण, संचालन और व्यवस्था करने वाली आद्य बीज शक्ति को ईश्वर कहते हैं ।। यह सम्पूर्ण विश्व के तिल- मिल स्थान में व्याप्त है ।। परन्तु सत्य की, विवेक की, कर्तव्य की जहाँ अधिकता है वहाँ ईश्वरीय अंश अधिक है ।। जिन स्थानों में अधर्म का जितने अंशों में समावेश है वहाँ उतने ही अंश में ईश्वरीय दिव्य सत्ता की न्यूनता है- ईश्वर कौन है? कहाँ है? कैसा है? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर उपरोक्त पंक्तियों में मिल जाता है अब तक एक प्रश्न रह जाता है ''ईश्वर कैसा है?'' नीचे की पंक्तियों में इस सम्बन्ध में कुछ प्रकाश डालने का प्रयास किया जायेगा ।।
सृष्टि के निर्माण में ईश्वर का क्या उद्देश्य है? इसका ठीक- ठीक कारण जान लेना मानव बुद्धि के लिए अभी तक शक्य नहीं हुआ ।। शास्त्रकारों ने अनेक अटकलें इस सम्बन्ध में लगाई है पर उनमें से एक भी ऐसी नहीं है जिससे पूरा संतोष हो सके ।। सृष्टि रचना में ईश्वर का उद्देश्य अभी तक अक्षय बना हुआ है ।। भारतीय अध्यात्मवेत्ता इसे ईश्वर की 'लीला' कहते हैं ।। खेल- खेल में उसने इच्छा कि 'मैं एक हूँ बहुत हो जाऊँगा' इसलिए उस अदृश्य शक्ति ने दृश्य संसार की रचना कर डाली ।। 'एकोऽहं बहुभ्याम' की उक्ति पर अभी हमें संतोष करना होगा ।। संभव है भविष्य में इस सम्बन्ध में कुछ अधिक जानकारी प्राप्त की जा सके पर आज तो उस अज्ञेय मर्म के सम्बन्ध में बेचारी मानव बुद्धि केवल 'लीलाधर की लीला' ही कहने में समर्थ है ।।
कभी- कभी भूकम्प, दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि, अन्तवृष्टि आदि अनियमित्ताएँ दिखाई पड़ती है पर यह सब भी एक विशेष नियम के आधार पर ही होता है ।। उन नियमों को समझाने वाले तत्त्वज्ञानी विवेकानन्द विवेकवानों को समस्त सृष्टि में एक रंचमात्र भी अव्यवस्था दृष्टिगोचर नहीं होती ।। इसलिए निःसंदेह इस सुव्यवस्थापूर्वक चलती हुई सृष्टि का चलाने वाला कोई अवश्य होना चाहिए ।। संसार एक यंत्र है ।। इसका संचालन करने वाली शक्ति को ईश्वर कहते हैं ।। मोटर जहाज या रेल को चलाने वाला कोई विवेकवान मनुष्य होता है इस सृष्टि को बनाने और चलाने वाली शक्ति ही ईश्वर है ।।
यह ठीक है कि ईश्वर को हम इन्द्रियों से अनुभव नहीं करते तो भी यह कहना उचित न होगा कि ईश्वर नहीं है ।। बहुत वस्तुओं को हम प्रत्यक्ष अनुभव नहीं करते तो भी अनुमान के आधार पर उनका अस्तित्व स्वीकार करना पड़ता है ।। इस समय हम जिस कलम का हाथ में पकड़कर वह पंक्तियाँ लिख रहे हैं, उसका कोई बनाने वाला है, यह बात हम इन्द्रियों की सहायता से नहीं जान सकते ।। आँखों से यह दिखाई पड़ता है तो भी यह अनुमान हो सकता है कि उसका बनाने वाला अवश्य रहा होगा ।। ईश्वर को छुआ या देखा नहीं जाता तो भी उसकी कृतियाँ पुकार- पुकार कर साक्षी दे रही हैं कि उनका रचयिता कोई न कोई अवश्य है ।।
भौतिक विज्ञान इस शक्ति का नाम 'प्रकृति' बनाने हैं ।। अध्यात्मवादी इसी को 'ईश्वर' कहते हैं ।। जिन्हें आज अनीश्वरवादी कहा जाता है, असल में वे भी ईश्वर को स्वीकार करते हैं ।। मतभेद ईश्वर के गुण- कर्म और स्वभाव के सम्बन्ध में है ।। ऐसे मतभेद तो हर सम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदायों के साथ रखता है परन्तु वह अनीश्वरवादी नहीं कहा जाता फिर भौतिक विज्ञानियों को नास्तिक कहना उचित न होगा ।। सृष्टि का निर्माण और संचालन करने वाला एक अदृश्य तत्व मौजूद है, इस महान सत्य से कोई भी इंकार नहीं कर सकता ।।
ईश्वर तत्व केवल निर्माण करने वाला और संचालन करने वाला ही हो सो बात नहीं है, वरन उसमें अनेक गुण हैं जैसे सूर्य की असंख्य किरणें अनेक प्रकार की हैं और उनमें अनेक गुण हैं ।। ईश्वर की निर्माण करने वाली शक्तियों को पृथ्वी, जल, तेज, वायु आकाश- पंचभूत नाम से पुकारते हैं ।। इन पंच भूतों से जड़ पदार्थ का, विवेकरहित वस्तुओं का बनना- बिगड़ना होता है ।।
निर्जीव रचना के अतिरिक्त सजीव रचना है जिसे 'प्राणी जगत' कहते हैं ।। जड़ और चेतन इन दो नामों से सृष्टि विभक्त है ।। चेतन प्राणियों में जीवन बनाये रहना, उन्नति करना तथा आनन्द भोगना, यह तीन गुण हैं, चेतन सृष्टि क इन तीन तत्वों को सचित आनन्द नाम से पुकारते हैं ।। जड़ चेतन की रचना पंचभूतों की क्रियाशील है ।। वैसे ही चेतन जगत की मूल प्रकृति सत्चित्आनन्द तत्वों के कारण से है । और जड़ चेतन दोनों ही पक्षों की रचना करने वाले यह पृथक-पृथक तत्व मूलतः एक ही आद्य शक्ति की धाराएँ हैं, एक ही सूर्य की किरणें हैं ।।
कुछ दिन पहले विज्ञानवादी ऐसा समझते थे कि केवल पंचभूतों की एक विशेष प्रकार की रचना में अपने आप चैतन्यता आ जाती है पर अब साइंसवादी अपनी भूल स्वीकार करते जाते हैं ।। उन्हें यह मानना पड़ रहा है कि जड़ तत्व ही सृष्टिकर्ता नहीं है वरन् यह पंचभूत भी एक आद्यशक्ति की धारा है ।। वह आद्यशक्ति अन्धी, निर्बुद्धि या जड़ नहीं है वरन् विवेकवान, फलवान, व्यवस्था रखने वाली, संशोधित करने वाली, संतुलन को बनाये रखने वाली भी, संशोधित करने वाली, संतुलन को बनाये रखना वाले इलेक्ट्रोन परमाणुओं को सूक्ष्म निरीक्षण यंत्रों की सहायता से मालूम कर लिया गया है पर वे विद्युत से अपनी धुरी पर कैसे घूम रहे हैं? इस संदेह का समाधान आद्यशक्ति को माने बिना और किसी प्रकार नहीं होता ।।
जैसे अग्नि, वायु, आदि स्थूल तत्व सर्वत्र अदृश्य रूप से व्याप्त हैं उसी प्रकार वह आद्यशक्ति इन जड़ पंचभूतों तथा अन्य चैतन्य तत्वों के भीतर अत्यन्त सूक्ष्म होकर विराज रही है ।। बल्ब को जलाने वाली सूक्ष्म विद्युत शक्ति तार में रहती है, इस विद्युत की बनाने वाली सूक्ष्म शक्ति चुम्बक में रहती है, चुम्बक में क्रियाशीलता विश्वव्यापक अग्नि तत्व से आती है ।। एक शक्ति का निर्माण दूसरी सूक्ष्म बीज शक्ति से होता है ।। पंच तत्वों की भी एक बीज शक्ति है ।। उस बीज शक्ति के बिना वे भी बेचारे अपना काम करने में समर्थ नहीं हो सकते ।। अग्नि में गर्मी कायम रखने वाली भी कोई सत्ता है ।। उस बीज शक्ति के ईश्वर कहते हैं, वह सूक्ष्म से सूक्ष्म है किन्तु इसी के द्वारा बने हुए पदार्थ हमारे चारों ओर फैले पड़े हैं इसलिए उसे स्थूल से स्थूल भी कहा जा सकता है ।।
जो वस्तु जितनी सूक्ष्म होगी वह उतनी ही व्यापक होगी ।। पंचभूतों में पृथ्वी से जल, जल से वायु, वायु से अग्नि और अग्नि से अधिक व्यापक है- ईथर तत्व हर जगह व्याप्त है ।। पर ईश्वर की सूक्ष्मता सर्वोपरि है इसलिए इसकी व्यापकता भी अधिक है ।। विश्व में रंचमात्र भी ऐसा स्थान नहीं है वहाँ ईश्वर न हो ।। अणु- अणु में ईश्वर की न्यूनाधिकता हो सकती है ।। जैसे कि चूल्हे के आसपास गर्मी अधिक होती है ।। इसलिए यह कहा जा सकता है कि उस स्थान पर अग्नि तत्व की विशेषता है, इसी प्रकार जलाशयों के समीप शीतल स्थान में अग्नि तत्व की न्यूनता की जायेगी ।। जहाँ सत्य का, विवेक का, आचरण अधिक है ।। जहाँ आलस्य, प्रमाद, पशुता, अज्ञान है वहाँ उस की न्यूनता कही जायेगी ।। सम्पूर्ण शरीर में जीव व्याप्त है, जीव के कारण ही शरीर की स्थिति और वृद्धि होती है परन्तु उनमें भी स्थान विशेष पर जीव की न्यूनाधिकता देखी जाती है ।। हृदय, मस्तिष्क, पेट और मर्म स्थानों पर तीव्र आघात लगने से मृत्यु हो जाती है परन्तु हाथ, पाँव, कान, नाक, नितंब आदि स्थानों पर उससे भी अधिक आघात सहन हो जाता है ।। बाल और पके हुए नाखून जीव की सत्ता से ही बढ़ते हैं पर उन्हें काट देने से जीव को कुछ हानि नहीं होती ।। संसार में सर्वत्र ईश्वर व्याप्त है ।। ईश्वर की शक्ति से ही सब कार्य होते हैं, परन्तु सत्य और धर्म के कामों में ईश्वरत्व की अधिकता है इसी प्रकार पाप प्रवृत्तियों में ईश्वरी तत्व की न्यूनता समझनी चाहिए ।। धर्मात्मा, मनस्वी, उपकारी, विवेकवान् और तेजस्वी महापुरुषों को 'अवतार' कहा जाता है क्योंकि उनकी सत्यनिष्ठा के आकर्षण से ईश्वर की मात्रा उनके अन्तर्गत अधिक होती है ।। अन्य पशुओं की अपेक्षा गौ में तथा अन्य जातियों की अपेक्षा ब्राह्मण में ईश्वर का अंश अधिक माना गया है क्योंकि उनका सत्यनिष्ठ उपकारी स्वभाव ईश्वरभक्ति को बलपूर्वक अपने अंदर अधिक मात्रा में खींचकर धारण कर लेता है ।।
उपरोक्त पंक्तियों में बताया जा चुका है कि सम्पूर्ण जड़- चेतन सृष्टि का निर्माण नियंत्रण, संचालन और व्यवस्था करने वाली आद्य बीज शक्ति को ईश्वर कहते हैं ।। यह सम्पूर्ण विश्व के तिल- मिल स्थान में व्याप्त है ।। परन्तु सत्य की, विवेक की, कर्तव्य की जहाँ अधिकता है वहाँ ईश्वरीय अंश अधिक है ।। जिन स्थानों में अधर्म का जितने अंशों में समावेश है वहाँ उतने ही अंश में ईश्वरीय दिव्य सत्ता की न्यूनता है- ईश्वर कौन है? कहाँ है? कैसा है? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर उपरोक्त पंक्तियों में मिल जाता है अब तक एक प्रश्न रह जाता है ''ईश्वर कैसा है?'' नीचे की पंक्तियों में इस सम्बन्ध में कुछ प्रकाश डालने का प्रयास किया जायेगा ।।
सृष्टि के निर्माण में ईश्वर का क्या उद्देश्य है? इसका ठीक- ठीक कारण जान लेना मानव बुद्धि के लिए अभी तक शक्य नहीं हुआ ।। शास्त्रकारों ने अनेक अटकलें इस सम्बन्ध में लगाई है पर उनमें से एक भी ऐसी नहीं है जिससे पूरा संतोष हो सके ।। सृष्टि रचना में ईश्वर का उद्देश्य अभी तक अक्षय बना हुआ है ।। भारतीय अध्यात्मवेत्ता इसे ईश्वर की 'लीला' कहते हैं ।। खेल- खेल में उसने इच्छा कि 'मैं एक हूँ बहुत हो जाऊँगा' इसलिए उस अदृश्य शक्ति ने दृश्य संसार की रचना कर डाली ।। 'एकोऽहं बहुभ्याम' की उक्ति पर अभी हमें संतोष करना होगा ।। संभव है भविष्य में इस सम्बन्ध में कुछ अधिक जानकारी प्राप्त की जा सके पर आज तो उस अज्ञेय मर्म के सम्बन्ध में बेचारी मानव बुद्धि केवल 'लीलाधर की लीला' ही कहने में समर्थ है ।।