Books - भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व
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Language: HINDI
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प्रतीक चिन्ह
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गणेश की प्रतिमा की स्वस्तिक चिह्न के साथ संगति बैठ जाती है। गणपति की सूँड़, हाथ, पैर, सिर आदि को इस तरह चित्रित किया जा सकता है जिसमें स्वस्तिक की चार भुजाओं का ठीक तरह समन्वय हो जाय। "ॐ" को स्वस्तिक रूप में लिखा जा सकता है। लिपि विज्ञान के आरम्भिक काल में गोलाई के अक्षर नहीं रेखा आधार पर उनकी रचना हुई थी।
ॐ को लिपिबद्ध करने के आरम्भिक प्रयास में उसका स्वरूप स्वस्तिक जैसा बना था। ईश्वर के नामों में सर्वोपरि मान्यता 'ॐ' की है। उसको उच्चारण से जब लिपि लेखन में उतारा गया तो सहज ही उसकी आकृति स्वस्तिक जैसी बन गई।
आर्य, धर्म, और उसकी शाखा प्रशाखाओं में स्वस्तिक का समान रूप से सम्मान है। बौद्ध, जैन, सिख धर्मों में उसकी समान मान्यता है। यूरोप और अमेरिका की प्राचीन सभ्यता में स्वस्तिक का प्रयोग होते रहने के प्रमाण मिलते हैं। ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड के मावरी आदिवासी स्वस्तिक को अभी भी मंगल प्रतीक की तरह प्रयुक्त करते हैं। साइप्रस की खुदाई में जो मूर्तियाँ मिली हैं उन पर स्वस्तिक अंकित है। ऐसे ही प्रमाण मिस्र, यूनान आदि की खुदाई में उपलब्ध हुए हैं। जापानी लोग स्वस्तिक को 'मन जी' कहते हैं और धर्म प्रतीकों में उसका समावेश करते।
यास्क ने 'स्वस्तिक' को अविनाशी ब्रह्म की संज्ञा दी है। अमर कोश में उसे पुण्य, मंगल, क्षेम एवं आशीर्वाद के अर्थ में लिया है। निरुक्ति है "स्वस्ति क्षेमं कायति इति स्वस्तिक:। स्वस्तिक अर्थात कुशल एवं कल्याण, संस्कृत में 'सु- अस्' धातु से स्वस्तिक शब्द बनता है। सु अर्थात सुन्दर श्रेयस्कर अस् अर्थात उपस्थित अस्तित्व।
स्वस्ति वाचन के प्रथम मन्त्र में लगता है- स्वस्तिक का ही निरूपण हुआ है। उसकी चार भुजाओं को ईश्वर की चार दिव्य सत्ताओं का प्रतीक माना गया है। 'स्वस्ति न इन्द्रो वृद्ध श्रवा:" में कीर्तिवान इन्द्र को "स्वस्ति न पूषा: विश्व वेदा: सर्वज्ञ पूषा को- 'स्वस्तिनस्ताक्षर्यो अरिष्ट नेमि:" में अरिष्ट निवारक ताक्षर्य को और "स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु" में सर्वतोमुखी समृद्धि दाता बृहस्पति को कल्याण में योगदान देने के लिए आमन्त्रित किया गया है।
सिद्धान्त सार ग्रन्थ में उसे विश्व ब्रह्माण्ड का प्रतीक चित्र माना गया है। उसके मध्यभाग को विष्णु की कमल नाभि और रेखाओं को ब्रह्माजी के चार मुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में निरूपित किया गया है।
अन्य ग्रन्थों में चार युग, चार वर्ण, चार आश्रम एवं धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के चार प्रतिफल प्राप्त करने वाली समाज व्यवस्था एवं वैयक्तिक आस्था को जीवन्त रखने वाले संकेतों को स्वस्तिक में ओत- प्रोत बताया गया है। हम स्वस्तिक का महत्त्व समझें और उसे समुचित श्रद्धा मान्यता प्रदान करते हुए अभीष्ट प्रेरणा ग्रहण करें, यही उचित है।
बौद्ध मतावलम्बी आदि काल से ही स्वस्तिक को मानते बनाते आये हैं। ईसाइयों ने उसके अधोलिखित और बिगड़े हुये स्वरूप क्राअस (ष्टह्म्शह्यह्य रूड्डह्म्द्म) को अपनाया है और मुसलमानों ने हमारे अपने चन्द्रमा के शास्त्रीय स्वरूप को लेकर अर्द्धचन्द्र की प्रतिष्ठा से यथार्थ में स्वस्तिक की ही प्रतिष्ठा की है।
जैन जाति की मुख्यतः: दो श्रेणियाँ हैं- दिगम्बर और श्वेताम्बर तथाइन दो में से भी अन्य शाखायें प्रस्फुटित हुई हैं। इस सबों में 'स्वस्तिक' और 'ऊँ' दोनों का सचराचर व्यवहार होता हुआ हम पाते हैं। इनके २४ तीर्थंकरों में से एक का यह खास चिह्न भी माना जाता है। दिगम्बर संप्रदाय वाले जैन अपनी नित्य पूजा में केशर, चंदन, द्वारा अथवा अन्य पवित्र द्रव्य की सहायता से 'स्वस्तिक्' अंकित करते हैं और उसके चारों कोण तथा मध्य भाग को पाँच बिंदियाँ देअक्र और भी शोभायुक्त बनाते हैं। स्वस्तिक के ऊपरी भाग में 'ऊँ' ही लिख दिया जाता है। स्वस्तिक्से पंच परमेष्ठी और पाँच बिंदियों से अरहंत सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु पुरूषों के आवाहन या प्रतिष्ठा का तात्पर्य लिया जाता है।
इसी भाँति श्वेताम्बर समाज वाले नित्य पूजा में चावल चर्चित स्वस्तिक खींचकर उसके शिरो भाग में अर्द्ध चन्द्राकार बिंदी बना उसके नीचे तीन बिंदियां अलग से जोड़ते हैं जिसका भाव यह है कि सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र्य और सम्यक् दर्शन को लाभ करते हुए हम मोक्ष को प्राप्त हों। समग्र जैन जगत में स्वस्तिक का महात्म्य मानने और स्वस्तिक बनाने की प्रथा चिरकाल से चली आ रही है। इसकी पवित्रता और धार्मिकता का भाव जैन मतावलम्बियों के रोम- रोम में समाया है।
समुद्र पार सुदूर देशों में जर्मनी का उदाहरण सामने है। जर्मन लोग अपने को आर्य जाति का अभिहित करते हैं। स्वस्तिक को ये लोग राष्ट्रीय पवित्र चिह्न के रूप में धारण करते और मानते हैं। एडोल्फ हिटलर का बैज, और उसकी सेनावाहिनी के सैनिकों के बेजों में यही विश्व विश्रुत चिह्न स्वस्तिक रहता है।
स्वस्तिक, शुभ विषय, मंगल द्रव्य, कल्याण आदि के भाव का बोध करता है। हिन्दू, जैन, बौद्ध, आदि जातियों के प्रत्येक शुभ और कल्याणकारी कार्य में स्वस्तिक का चिह्न सर्वप्रथम प्रतिष्ठित करने का आदिकाल से ही नियम है। उनका यह चिर चरित विधान है। मंगल कार्यों में स्वस्तिक, गृह, प्रांगण, द्वार से लेकर मुहूर्त पात्रों, जन्मांगों आदि तक में सिन्दूर, हल्दी य अन्य पवित्र द्रव्य की सहायता से बनाया जाता है। इसी को 'साधिये रखना" भी कहते हैं। 'ऊँ' का यह रूपांतर अथवा ऊँ लिखने का यह दूसरा ढंग स्वस्तिक (!) धर्म प्रेमियों को पवित्रता, भलाई और निवृत्ति की ओर खींचता है।
एक इतिहासज्ञ का कथन है कि सावीं शताब्दी में 'स्वस्तिक' का चिह्न मवेशियों पर दाग दिया जाता था। विक्रम से २०० वर्ष पहले के बने हुए एक स्वर्ण पात्र के ऊपर भी स्वस्तिक बना हुआ पाया गया है। इस पात्र में ब्रह्मीभूत भगवान बुद्धदेव की अस्थि रखी हुई मिली हैं। २६०० वर्ष के प्राचीन यूनानी बर्तनों पर भी 'स्वस्तिक' खचित अवस्था में पाया गया है। अत्यंत प्राचीन स्वस्तिक का चिह्न एक चर्खे पर बना हुआ मिला है जो ट्रोय के तीसरे नगर से प्राप्त हुआ है और जो प्राय: ३८०० वर्ष पुराना बताया जाता है। भारत सरकार के पुरातत्व विभाग की अन्य कई महत्त्वपूर्ण खोजें भी स्वस्तिक की प्राचीनता और पवित्रता के प्रमाणों पर अच्छा प्रकाश डालती है।
कहने का हेतु यह कि 'स्वस्तिक' में व्यष्टि और समष्टि के कल्याण का भाव ग्रथित है। स्वस्तिक विश्व के प्राणियों को कल्याण की ओर जाने का अपूर्व और अमर संदेश देता है। स्वस्तिक अनादि है, अभेद्य है, अनन्त, पृथ्वी, स्वस्तिक में आबद्ध हैं और स्वस्तिक उनमें अपने जुदे- जुदे स्वरूप को लिये हुए अंकित और प्रकाशित है।
ऊँ और स्वस्तिक आर्य संस्कृति में ऐसे दो प्रतीक हैं, जो विश्व- ब्रह्मांड के भेदों को अपने मे बहुतायत में संजोये हुए हैं। इन्हें अक्षर और आकृति कहकर टाल देना उचित नहीं। यह सत्य और संदेश के दो महान तत्वो को धारण किये हुए हैं। प्रणव यानि ओंकार यदि उत्पत्ति संबंधी रहस्य उद्घाटित करता है, तो उस ब्रह्मांड के चराचर जीवों की स्वस्ति- कामना स्वस्तिक में सन्निहित है। इस दृष्टि से व्यावहारिक जीवन में स्वस्तिक अधिक उपयोगी और उद्देश्यपूर्ण है। यह स्वस्तिक ही है, जो व्यक्ति को लोकव्यवहार में सौमनस्य और सामंजस्य की प्रेरणा देता है। वह जीव- जीव और मनुष्य- मनुष्य के बीच विभेद की दीवार खड़ी नहीं करता, वरन् एक ही परमात्म तत्व की भिन्न- भिन्न अभिव्यक्तियाँ होने के कारण समान मानते हुए उनके सौभाग्य की मंगल कामना करता है। व्यक्तित्व में वह श्रेष्ठता का संदेशवाहक है। सदाचार, संयम, सेवा, सहिष्णुता, साहस, सात्विकता, श्रमशीलता, शुचिता, स्नेह, सौजन्यता जैसे मानवोचित गुण, जिनसे मनुष्य और समाज का सर्वोपरि कल्याण होता है, इन सभी का प्रेरणा स्रोत स्वस्तिक ही है। जहाँ अनुराग और प्रेम है वहाँ प्रच्छ्न्न रूप से इसकी ही शक्ति क्रियाशील होती है। यह शक्ति जहाँ जितनी अधिक होगी, वहाँ उसी परिमाण में देवत्व विद्यमान होगा। मांगलिक अवसरों पर दीवारों- दरवाजों, मकानों- दुकानों पर इस शुभ संकेत को अंकित करने के पीछे यही प्रयोजन होता है कि उस मुहूर्त में पवित्र शक्ति का अधिकाधिक परिमाण विद्यमान रहे और आयोजन निर्विघ्न संपन्न हो जाय, किसी प्रकार का कोई अवरोध- अड़चन न आने पाये। बच्चों के मुंडन संस्कार के समय मुण्डित मस्तक पर इसी चिह्न को बनाया जाता है, ताकि मस्तिष्क की उस सर्वथा खाली भूमि में श्रेष्ठता का आकर्षण होकर सुसंस्कारों का बीजारोपण हो सके। प्राचीन काल में इसी कारण इस आकार के आवास विनिर्मित किये जाते थे, ताकि उनमें व्याप्त शक्ति का ज्यादा से ज्यादा लाभ लिया जा सके।
इसके अतिरिक्त इसका एक मनोवैज्ञानिक पहलू भी है। शुभ सूचक होने के कारण जब भी जिस किसी की भी नजर इस पर पड़ती है, तो उसका अवचेतन इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। उसमें एक सात्विक भाव संचार हो जाता है। विवाह अवसर पर परिणय- मंडप और घर में यत्र- तत्र इसी निमित्त इसका अंकन किया जाता है। शादी के निमंत्रण पत्रों पर इसे प्रमुख स्थान प्राप्त होता है। इसके अलावा पूजा की वेदी पर सुशोभित होकर यह आकृति वातावरण की दिव्यता को और अधिक बढ़ाती है। दक्षिण भारत के द्वारों पर बनी अल्पनाओं में इन्हीं के विविध रूपों के दर्शन होते हैं। कर्नाटक में 'स्वस्तिक्' नाम का एक व्रत अत्यन्त प्रसिद्ध है। इसमें बहुरंगी स्वस्तिक निर्माण कर भगवान विष्णु की अर्चना की जाती है। इस प्रकार इस आकृति- निर्माण के पीछे दो ही उद्देश्य कारण भूत माने जाते हैं- प्रथम इसमें निहित देवशक्ति को आकर्षित करना और द्वितीय मन की भीतरी परतों को प्रभावित- उत्तेजित कर उन्हें अधिक सक्रिय बनाना। इसे देखते ही एक प्रकार का उत्साह उमड़ पड़ना उसके इसी मनोवैज्ञानिक प्रभाव को इंगित करता है। इसी कारण तंत्र शास्त्रों में इसे एक मांगलिक यंत्र की संज्ञा दी गई है। यंत्रों में यही एकमात्र ऐसी आकृति है, जो निर्द्वन्द्व है, अन्यथा संसार की हर एक वस्तु द्वंद्वात्मक है, उनमें से प्रत्येक में दो विपरीत सत्ताओं की उपस्थिति है। स्वयं सृष्टि भी इसका अपवाद नहीं। वह प्रकृति और पुरुष के विरोधी युग्म का परिणाम है। द्रव्यों में ऋण- धन नामक दो प्रकार के विद्युत कण मौजूद हैं। आग जलाती है, तो यह जीवनरक्षक भी है। भोजन पकाने में उसका रचनात्मक गुण काम आता है, तो मकान को भस्मीभूत करने में ध्वंसात्मक प्रकृति निमित्त बनती है। वायु सबसे बडी़ जीवनदायी है, तो तूफान उतना ही बड़ा विनाशलीला मचाने वाला, किंतु स्वस्तिक इन सबसे परे कल्याण का उद्घोषक है। उसमें मात्र शुभ- ही की कामना है। अशुभ का रंचमात्र भी नहीं। इस दृष्टि से जीवन में उसकी उपादेयता कहीं अधिक बढ़ जाती है
मनुष्य की वास्तविक उन्नति और संसार में शांति स्वस्तिक में छिपी अवधारणा के बिना हो ही नहीं सकती। आकृति विज्ञान की यह अनुपम देन सार्थक तभी समझी जायेगी, जब हम इसकी शिक्षा को समझ कर अंगीकार कर सकें।
ॐ को लिपिबद्ध करने के आरम्भिक प्रयास में उसका स्वरूप स्वस्तिक जैसा बना था। ईश्वर के नामों में सर्वोपरि मान्यता 'ॐ' की है। उसको उच्चारण से जब लिपि लेखन में उतारा गया तो सहज ही उसकी आकृति स्वस्तिक जैसी बन गई।
आर्य, धर्म, और उसकी शाखा प्रशाखाओं में स्वस्तिक का समान रूप से सम्मान है। बौद्ध, जैन, सिख धर्मों में उसकी समान मान्यता है। यूरोप और अमेरिका की प्राचीन सभ्यता में स्वस्तिक का प्रयोग होते रहने के प्रमाण मिलते हैं। ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड के मावरी आदिवासी स्वस्तिक को अभी भी मंगल प्रतीक की तरह प्रयुक्त करते हैं। साइप्रस की खुदाई में जो मूर्तियाँ मिली हैं उन पर स्वस्तिक अंकित है। ऐसे ही प्रमाण मिस्र, यूनान आदि की खुदाई में उपलब्ध हुए हैं। जापानी लोग स्वस्तिक को 'मन जी' कहते हैं और धर्म प्रतीकों में उसका समावेश करते।
यास्क ने 'स्वस्तिक' को अविनाशी ब्रह्म की संज्ञा दी है। अमर कोश में उसे पुण्य, मंगल, क्षेम एवं आशीर्वाद के अर्थ में लिया है। निरुक्ति है "स्वस्ति क्षेमं कायति इति स्वस्तिक:। स्वस्तिक अर्थात कुशल एवं कल्याण, संस्कृत में 'सु- अस्' धातु से स्वस्तिक शब्द बनता है। सु अर्थात सुन्दर श्रेयस्कर अस् अर्थात उपस्थित अस्तित्व।
स्वस्ति वाचन के प्रथम मन्त्र में लगता है- स्वस्तिक का ही निरूपण हुआ है। उसकी चार भुजाओं को ईश्वर की चार दिव्य सत्ताओं का प्रतीक माना गया है। 'स्वस्ति न इन्द्रो वृद्ध श्रवा:" में कीर्तिवान इन्द्र को "स्वस्ति न पूषा: विश्व वेदा: सर्वज्ञ पूषा को- 'स्वस्तिनस्ताक्षर्यो अरिष्ट नेमि:" में अरिष्ट निवारक ताक्षर्य को और "स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु" में सर्वतोमुखी समृद्धि दाता बृहस्पति को कल्याण में योगदान देने के लिए आमन्त्रित किया गया है।
सिद्धान्त सार ग्रन्थ में उसे विश्व ब्रह्माण्ड का प्रतीक चित्र माना गया है। उसके मध्यभाग को विष्णु की कमल नाभि और रेखाओं को ब्रह्माजी के चार मुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में निरूपित किया गया है।
अन्य ग्रन्थों में चार युग, चार वर्ण, चार आश्रम एवं धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के चार प्रतिफल प्राप्त करने वाली समाज व्यवस्था एवं वैयक्तिक आस्था को जीवन्त रखने वाले संकेतों को स्वस्तिक में ओत- प्रोत बताया गया है। हम स्वस्तिक का महत्त्व समझें और उसे समुचित श्रद्धा मान्यता प्रदान करते हुए अभीष्ट प्रेरणा ग्रहण करें, यही उचित है।
बौद्ध मतावलम्बी आदि काल से ही स्वस्तिक को मानते बनाते आये हैं। ईसाइयों ने उसके अधोलिखित और बिगड़े हुये स्वरूप क्राअस (ष्टह्म्शह्यह्य रूड्डह्म्द्म) को अपनाया है और मुसलमानों ने हमारे अपने चन्द्रमा के शास्त्रीय स्वरूप को लेकर अर्द्धचन्द्र की प्रतिष्ठा से यथार्थ में स्वस्तिक की ही प्रतिष्ठा की है।
जैन जाति की मुख्यतः: दो श्रेणियाँ हैं- दिगम्बर और श्वेताम्बर तथाइन दो में से भी अन्य शाखायें प्रस्फुटित हुई हैं। इस सबों में 'स्वस्तिक' और 'ऊँ' दोनों का सचराचर व्यवहार होता हुआ हम पाते हैं। इनके २४ तीर्थंकरों में से एक का यह खास चिह्न भी माना जाता है। दिगम्बर संप्रदाय वाले जैन अपनी नित्य पूजा में केशर, चंदन, द्वारा अथवा अन्य पवित्र द्रव्य की सहायता से 'स्वस्तिक्' अंकित करते हैं और उसके चारों कोण तथा मध्य भाग को पाँच बिंदियाँ देअक्र और भी शोभायुक्त बनाते हैं। स्वस्तिक के ऊपरी भाग में 'ऊँ' ही लिख दिया जाता है। स्वस्तिक्से पंच परमेष्ठी और पाँच बिंदियों से अरहंत सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु पुरूषों के आवाहन या प्रतिष्ठा का तात्पर्य लिया जाता है।
इसी भाँति श्वेताम्बर समाज वाले नित्य पूजा में चावल चर्चित स्वस्तिक खींचकर उसके शिरो भाग में अर्द्ध चन्द्राकार बिंदी बना उसके नीचे तीन बिंदियां अलग से जोड़ते हैं जिसका भाव यह है कि सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र्य और सम्यक् दर्शन को लाभ करते हुए हम मोक्ष को प्राप्त हों। समग्र जैन जगत में स्वस्तिक का महात्म्य मानने और स्वस्तिक बनाने की प्रथा चिरकाल से चली आ रही है। इसकी पवित्रता और धार्मिकता का भाव जैन मतावलम्बियों के रोम- रोम में समाया है।
समुद्र पार सुदूर देशों में जर्मनी का उदाहरण सामने है। जर्मन लोग अपने को आर्य जाति का अभिहित करते हैं। स्वस्तिक को ये लोग राष्ट्रीय पवित्र चिह्न के रूप में धारण करते और मानते हैं। एडोल्फ हिटलर का बैज, और उसकी सेनावाहिनी के सैनिकों के बेजों में यही विश्व विश्रुत चिह्न स्वस्तिक रहता है।
स्वस्तिक, शुभ विषय, मंगल द्रव्य, कल्याण आदि के भाव का बोध करता है। हिन्दू, जैन, बौद्ध, आदि जातियों के प्रत्येक शुभ और कल्याणकारी कार्य में स्वस्तिक का चिह्न सर्वप्रथम प्रतिष्ठित करने का आदिकाल से ही नियम है। उनका यह चिर चरित विधान है। मंगल कार्यों में स्वस्तिक, गृह, प्रांगण, द्वार से लेकर मुहूर्त पात्रों, जन्मांगों आदि तक में सिन्दूर, हल्दी य अन्य पवित्र द्रव्य की सहायता से बनाया जाता है। इसी को 'साधिये रखना" भी कहते हैं। 'ऊँ' का यह रूपांतर अथवा ऊँ लिखने का यह दूसरा ढंग स्वस्तिक (!) धर्म प्रेमियों को पवित्रता, भलाई और निवृत्ति की ओर खींचता है।
एक इतिहासज्ञ का कथन है कि सावीं शताब्दी में 'स्वस्तिक' का चिह्न मवेशियों पर दाग दिया जाता था। विक्रम से २०० वर्ष पहले के बने हुए एक स्वर्ण पात्र के ऊपर भी स्वस्तिक बना हुआ पाया गया है। इस पात्र में ब्रह्मीभूत भगवान बुद्धदेव की अस्थि रखी हुई मिली हैं। २६०० वर्ष के प्राचीन यूनानी बर्तनों पर भी 'स्वस्तिक' खचित अवस्था में पाया गया है। अत्यंत प्राचीन स्वस्तिक का चिह्न एक चर्खे पर बना हुआ मिला है जो ट्रोय के तीसरे नगर से प्राप्त हुआ है और जो प्राय: ३८०० वर्ष पुराना बताया जाता है। भारत सरकार के पुरातत्व विभाग की अन्य कई महत्त्वपूर्ण खोजें भी स्वस्तिक की प्राचीनता और पवित्रता के प्रमाणों पर अच्छा प्रकाश डालती है।
कहने का हेतु यह कि 'स्वस्तिक' में व्यष्टि और समष्टि के कल्याण का भाव ग्रथित है। स्वस्तिक विश्व के प्राणियों को कल्याण की ओर जाने का अपूर्व और अमर संदेश देता है। स्वस्तिक अनादि है, अभेद्य है, अनन्त, पृथ्वी, स्वस्तिक में आबद्ध हैं और स्वस्तिक उनमें अपने जुदे- जुदे स्वरूप को लिये हुए अंकित और प्रकाशित है।
ऊँ और स्वस्तिक आर्य संस्कृति में ऐसे दो प्रतीक हैं, जो विश्व- ब्रह्मांड के भेदों को अपने मे बहुतायत में संजोये हुए हैं। इन्हें अक्षर और आकृति कहकर टाल देना उचित नहीं। यह सत्य और संदेश के दो महान तत्वो को धारण किये हुए हैं। प्रणव यानि ओंकार यदि उत्पत्ति संबंधी रहस्य उद्घाटित करता है, तो उस ब्रह्मांड के चराचर जीवों की स्वस्ति- कामना स्वस्तिक में सन्निहित है। इस दृष्टि से व्यावहारिक जीवन में स्वस्तिक अधिक उपयोगी और उद्देश्यपूर्ण है। यह स्वस्तिक ही है, जो व्यक्ति को लोकव्यवहार में सौमनस्य और सामंजस्य की प्रेरणा देता है। वह जीव- जीव और मनुष्य- मनुष्य के बीच विभेद की दीवार खड़ी नहीं करता, वरन् एक ही परमात्म तत्व की भिन्न- भिन्न अभिव्यक्तियाँ होने के कारण समान मानते हुए उनके सौभाग्य की मंगल कामना करता है। व्यक्तित्व में वह श्रेष्ठता का संदेशवाहक है। सदाचार, संयम, सेवा, सहिष्णुता, साहस, सात्विकता, श्रमशीलता, शुचिता, स्नेह, सौजन्यता जैसे मानवोचित गुण, जिनसे मनुष्य और समाज का सर्वोपरि कल्याण होता है, इन सभी का प्रेरणा स्रोत स्वस्तिक ही है। जहाँ अनुराग और प्रेम है वहाँ प्रच्छ्न्न रूप से इसकी ही शक्ति क्रियाशील होती है। यह शक्ति जहाँ जितनी अधिक होगी, वहाँ उसी परिमाण में देवत्व विद्यमान होगा। मांगलिक अवसरों पर दीवारों- दरवाजों, मकानों- दुकानों पर इस शुभ संकेत को अंकित करने के पीछे यही प्रयोजन होता है कि उस मुहूर्त में पवित्र शक्ति का अधिकाधिक परिमाण विद्यमान रहे और आयोजन निर्विघ्न संपन्न हो जाय, किसी प्रकार का कोई अवरोध- अड़चन न आने पाये। बच्चों के मुंडन संस्कार के समय मुण्डित मस्तक पर इसी चिह्न को बनाया जाता है, ताकि मस्तिष्क की उस सर्वथा खाली भूमि में श्रेष्ठता का आकर्षण होकर सुसंस्कारों का बीजारोपण हो सके। प्राचीन काल में इसी कारण इस आकार के आवास विनिर्मित किये जाते थे, ताकि उनमें व्याप्त शक्ति का ज्यादा से ज्यादा लाभ लिया जा सके।
इसके अतिरिक्त इसका एक मनोवैज्ञानिक पहलू भी है। शुभ सूचक होने के कारण जब भी जिस किसी की भी नजर इस पर पड़ती है, तो उसका अवचेतन इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। उसमें एक सात्विक भाव संचार हो जाता है। विवाह अवसर पर परिणय- मंडप और घर में यत्र- तत्र इसी निमित्त इसका अंकन किया जाता है। शादी के निमंत्रण पत्रों पर इसे प्रमुख स्थान प्राप्त होता है। इसके अलावा पूजा की वेदी पर सुशोभित होकर यह आकृति वातावरण की दिव्यता को और अधिक बढ़ाती है। दक्षिण भारत के द्वारों पर बनी अल्पनाओं में इन्हीं के विविध रूपों के दर्शन होते हैं। कर्नाटक में 'स्वस्तिक्' नाम का एक व्रत अत्यन्त प्रसिद्ध है। इसमें बहुरंगी स्वस्तिक निर्माण कर भगवान विष्णु की अर्चना की जाती है। इस प्रकार इस आकृति- निर्माण के पीछे दो ही उद्देश्य कारण भूत माने जाते हैं- प्रथम इसमें निहित देवशक्ति को आकर्षित करना और द्वितीय मन की भीतरी परतों को प्रभावित- उत्तेजित कर उन्हें अधिक सक्रिय बनाना। इसे देखते ही एक प्रकार का उत्साह उमड़ पड़ना उसके इसी मनोवैज्ञानिक प्रभाव को इंगित करता है। इसी कारण तंत्र शास्त्रों में इसे एक मांगलिक यंत्र की संज्ञा दी गई है। यंत्रों में यही एकमात्र ऐसी आकृति है, जो निर्द्वन्द्व है, अन्यथा संसार की हर एक वस्तु द्वंद्वात्मक है, उनमें से प्रत्येक में दो विपरीत सत्ताओं की उपस्थिति है। स्वयं सृष्टि भी इसका अपवाद नहीं। वह प्रकृति और पुरुष के विरोधी युग्म का परिणाम है। द्रव्यों में ऋण- धन नामक दो प्रकार के विद्युत कण मौजूद हैं। आग जलाती है, तो यह जीवनरक्षक भी है। भोजन पकाने में उसका रचनात्मक गुण काम आता है, तो मकान को भस्मीभूत करने में ध्वंसात्मक प्रकृति निमित्त बनती है। वायु सबसे बडी़ जीवनदायी है, तो तूफान उतना ही बड़ा विनाशलीला मचाने वाला, किंतु स्वस्तिक इन सबसे परे कल्याण का उद्घोषक है। उसमें मात्र शुभ- ही की कामना है। अशुभ का रंचमात्र भी नहीं। इस दृष्टि से जीवन में उसकी उपादेयता कहीं अधिक बढ़ जाती है
मनुष्य की वास्तविक उन्नति और संसार में शांति स्वस्तिक में छिपी अवधारणा के बिना हो ही नहीं सकती। आकृति विज्ञान की यह अनुपम देन सार्थक तभी समझी जायेगी, जब हम इसकी शिक्षा को समझ कर अंगीकार कर सकें।