Books - भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व
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Language: HINDI
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आस्तिकता
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भारतीय संस्कृति ईश्वर की सत्ता में अखण्ड विश्वास करती है ।। ईश्वर सर्वव्यापक है, यह मान्यता हिन्दू- धर्म का आधार रूप है ।।
''ब्रह्मैवदममृतं पुरस्ताब्रह्म दक्षिणतश्चोत्तेरण ।।
अधर्श्चाध्व च प्रसृतं ब्रह्मैवेदं विर्श्वामदं वरिष्ठान॥'' (मुण्डक २- २)
अर्थात 'वह अमृत स्वरूप परब्रह्म ही सामने है ।। ब्रह्म ही पीछे है, ब्रह्म ही दायीं ओर तथा बायीं ओर, नीचे की ओर तथा ऊपर की ओर भी फैला हुआ है ।। यह जो सम्पूर्ण जगत् है, वह सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म ही है ।''
हम जानते हैं कि परब्रह्म महान् परमात्मा दिव्य और अचिन्त्य स्वरूप है ।। वह सूक्ष्म में भी अत्यंत दूर है ।। इस शरीर में रहकर भी अति समीप है, यहाँ देखने वालों के भीतर ही उनकी हृदय रूपी गुफा है ।। जिस प्रकार बहती हुई नदियाँ नाम रूप को छोड़ कर समुद्र में विलीन हो जाती है, वैसे ही ज्ञानी, महात्मा नाम रूप से रहित होकर उत्तम से उत्तम दिव्य परम पुरुष परमात्मा को प्राप्त हो जाता है ।। कहा गया है किः-
''यस्यांतः सर्वमदच्युतस्यालयात्मनः ।।
तमाराधय गोविन्दं स्थानमग्रयं यदीच्छसि॥'' (विष्णु पुराण १- ११)
अर्थात् 'यदि तू श्रेष्ठ स्थान का इच्छुक है, तो जिन अविनाशी अच्युत में यह सम्पूर्ण जगत् ओत- प्रोत है, उन गोविन्द की ही आराधना कर ।''
तात्पर्य यह कि भारतीय संस्कृति मानव- जीवन का साफल्य आस्तिक्यं में ही मानती है ।। मनुष्य की उन्नति के लिए यह भावना आवश्यक भी है ।। वह अन्य प्राणियों के प्रति अत्याचार और स्वयं अपने बन्धु- बान्धवों के प्रति नृशंसता करना तब ही छोड़ सकता है, जबकि वह मनुष्य की सत्ता की अपेक्षा अन्य उच्चतर दृढ़तर शक्तिवान शासन को स्वीकार करे ।।
मनोविज्ञान का यह अटल सत्य है कि भय से प्राणी सन्मार्ग के निकट रहता है ।। उसे सदा मन ही मन यह गुप्त भय रहता है कि यदि मैं कोई गलती करूँगा, पाप- मार्ग पर जाऊँगा, किसी के ऊपर अन्याय, अत्याचार इत्यादि करूँगा, तो मुझे सजा मिलेगी ।। हमारे पाप, अन्याय, अत्याचार या नृशंसता की रोक करने वाली सत्ता का नाम ईश्वर है । हम यह समझते हैं कि पाप- मार्ग पर चलने से हमें नर्क की यातनाएँ भोगनी होंगी ।। इसलिए हम उत्तम मार्ग न छोड़कर नीच वृत्ति से सदा बचे रहते हैं ।। आस्तिक्य वह शक्ति है, जो हमें पाप कर्म की ओर जाने से रोकती है ।। दीनों, अनाथों, गरीबों के प्रति अनादर पीड़ा पहुँचाने से बचाती है ।। यदि यह भावना न हो, तो पापियों की संख्या और भी बढ़ जायेगी, जो अच्छी वृत्तियों वाले लोगों को भी पापों में धकेल कर इस पृथ्वी का सर्वनाश कर देंगे ।।
ईश्वर में विश्वास हमारे समाज के लिए कवच का काम करता है ।। जो दुष्ट विश्वासघाती हैं, व्रत का उल्लंघन करते है, समाज के द्वेषी हैं, वे इसी भाव से डरकर पाप कर्मों से बचते हैं ।।
भारतीय संस्कृति यह मानती है कि ईश्वर शक्तिशाली है ।। असंख्य नेत्रों से हमें और हमारे कार्यों, गुप्त मन्तव्यों, बुरी भावनाओं, झूठ, कपट, मिथ्या को देखते हैं ओर नाना रूपों में हमें उसकी सजा देते हैं ।। अतः हमें नीच वृत्तियों से बचना चाहिए ।।
एक विद्वान् के शब्दों में हम यों कह सकते हैं-
'भय से प्राणी सन्मार्ग के समीप रहता है ।। मानवी सभ्यता को उचित मार्ग पर बनाये रखने के लिए यह जरूरी है कि वह प्राणि- सत्ता से अधिक किसी विशेष बलशाली की सत्ता को स्वीकृत करे ।। उसके प्रति आदर की भावना हो ।। उसकी दया के लिए सदैव लालायित रहें उसके कोपभाजन होने का भय ही मनुष्य को सन्मार्ग- गामी बनाकर उसे कर्तव्य पर स्थिर रख सकता है ।। मनुष्य की ऐसी धारण ही उसे मनुष्य बनाये रखती है ।। यदि मनुष्य अपने को ही सर्वस्व मान ले तो अहमन्यता के कारण मानवता लुप्त होकर दानवता का ताण्डव प्रारम्भ हो जाता है ।। इसलिए आवश्यक है कि हम अपने ऊपर किसी के अस्तित्व को स्वीकार करें ।। मानव- जीवन का सर्वोत्कृष्ट साफल्य और बहुमूल्य निधि आस्तिक्य का यही मूल स्रोत है ।। ''
(भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व पृ. सं. २.२)
''ब्रह्मैवदममृतं पुरस्ताब्रह्म दक्षिणतश्चोत्तेरण ।।
अधर्श्चाध्व च प्रसृतं ब्रह्मैवेदं विर्श्वामदं वरिष्ठान॥'' (मुण्डक २- २)
अर्थात 'वह अमृत स्वरूप परब्रह्म ही सामने है ।। ब्रह्म ही पीछे है, ब्रह्म ही दायीं ओर तथा बायीं ओर, नीचे की ओर तथा ऊपर की ओर भी फैला हुआ है ।। यह जो सम्पूर्ण जगत् है, वह सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म ही है ।''
हम जानते हैं कि परब्रह्म महान् परमात्मा दिव्य और अचिन्त्य स्वरूप है ।। वह सूक्ष्म में भी अत्यंत दूर है ।। इस शरीर में रहकर भी अति समीप है, यहाँ देखने वालों के भीतर ही उनकी हृदय रूपी गुफा है ।। जिस प्रकार बहती हुई नदियाँ नाम रूप को छोड़ कर समुद्र में विलीन हो जाती है, वैसे ही ज्ञानी, महात्मा नाम रूप से रहित होकर उत्तम से उत्तम दिव्य परम पुरुष परमात्मा को प्राप्त हो जाता है ।। कहा गया है किः-
''यस्यांतः सर्वमदच्युतस्यालयात्मनः ।।
तमाराधय गोविन्दं स्थानमग्रयं यदीच्छसि॥'' (विष्णु पुराण १- ११)
अर्थात् 'यदि तू श्रेष्ठ स्थान का इच्छुक है, तो जिन अविनाशी अच्युत में यह सम्पूर्ण जगत् ओत- प्रोत है, उन गोविन्द की ही आराधना कर ।''
तात्पर्य यह कि भारतीय संस्कृति मानव- जीवन का साफल्य आस्तिक्यं में ही मानती है ।। मनुष्य की उन्नति के लिए यह भावना आवश्यक भी है ।। वह अन्य प्राणियों के प्रति अत्याचार और स्वयं अपने बन्धु- बान्धवों के प्रति नृशंसता करना तब ही छोड़ सकता है, जबकि वह मनुष्य की सत्ता की अपेक्षा अन्य उच्चतर दृढ़तर शक्तिवान शासन को स्वीकार करे ।।
मनोविज्ञान का यह अटल सत्य है कि भय से प्राणी सन्मार्ग के निकट रहता है ।। उसे सदा मन ही मन यह गुप्त भय रहता है कि यदि मैं कोई गलती करूँगा, पाप- मार्ग पर जाऊँगा, किसी के ऊपर अन्याय, अत्याचार इत्यादि करूँगा, तो मुझे सजा मिलेगी ।। हमारे पाप, अन्याय, अत्याचार या नृशंसता की रोक करने वाली सत्ता का नाम ईश्वर है । हम यह समझते हैं कि पाप- मार्ग पर चलने से हमें नर्क की यातनाएँ भोगनी होंगी ।। इसलिए हम उत्तम मार्ग न छोड़कर नीच वृत्ति से सदा बचे रहते हैं ।। आस्तिक्य वह शक्ति है, जो हमें पाप कर्म की ओर जाने से रोकती है ।। दीनों, अनाथों, गरीबों के प्रति अनादर पीड़ा पहुँचाने से बचाती है ।। यदि यह भावना न हो, तो पापियों की संख्या और भी बढ़ जायेगी, जो अच्छी वृत्तियों वाले लोगों को भी पापों में धकेल कर इस पृथ्वी का सर्वनाश कर देंगे ।।
ईश्वर में विश्वास हमारे समाज के लिए कवच का काम करता है ।। जो दुष्ट विश्वासघाती हैं, व्रत का उल्लंघन करते है, समाज के द्वेषी हैं, वे इसी भाव से डरकर पाप कर्मों से बचते हैं ।।
भारतीय संस्कृति यह मानती है कि ईश्वर शक्तिशाली है ।। असंख्य नेत्रों से हमें और हमारे कार्यों, गुप्त मन्तव्यों, बुरी भावनाओं, झूठ, कपट, मिथ्या को देखते हैं ओर नाना रूपों में हमें उसकी सजा देते हैं ।। अतः हमें नीच वृत्तियों से बचना चाहिए ।।
एक विद्वान् के शब्दों में हम यों कह सकते हैं-
'भय से प्राणी सन्मार्ग के समीप रहता है ।। मानवी सभ्यता को उचित मार्ग पर बनाये रखने के लिए यह जरूरी है कि वह प्राणि- सत्ता से अधिक किसी विशेष बलशाली की सत्ता को स्वीकृत करे ।। उसके प्रति आदर की भावना हो ।। उसकी दया के लिए सदैव लालायित रहें उसके कोपभाजन होने का भय ही मनुष्य को सन्मार्ग- गामी बनाकर उसे कर्तव्य पर स्थिर रख सकता है ।। मनुष्य की ऐसी धारण ही उसे मनुष्य बनाये रखती है ।। यदि मनुष्य अपने को ही सर्वस्व मान ले तो अहमन्यता के कारण मानवता लुप्त होकर दानवता का ताण्डव प्रारम्भ हो जाता है ।। इसलिए आवश्यक है कि हम अपने ऊपर किसी के अस्तित्व को स्वीकार करें ।। मानव- जीवन का सर्वोत्कृष्ट साफल्य और बहुमूल्य निधि आस्तिक्य का यही मूल स्रोत है ।। ''
(भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व पृ. सं. २.२)