Books - भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व
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Language: HINDI
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आश्रम व्यवस्था से दीर्घ जीवन
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तचक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुन्नरत् ।। पश्येम शरद: शतं जीवेम शरदः शतं श्रणुयाम शरदः शतं प्रव्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं, भूयश्चशरदः शतात्॥ (यजु. ३६,२४)
''वह परमात्मा देवों का हित करने वाला हो, (जो)'' अनादि और विशुद्ध ज्ञान का उपदेश करता है ।। हम सौ वर्ष के जीवन काल में उसका दर्शन कर सकें ।। सौ वर्ष के जीवन में इसी ध्येय के लिए जीवित रहें ।। सौ वर्ष तक के जीवन में हम इस परमात्मा का श्रवण और मनन करते रहें ।। सौ वर्ष तक के जीवन काल में हम इस परमात्मा का गुणगान गाते रहें ।। सौ वर्ष तक के जीवन में हम कभी भी दीनता वृत्ति प्रकट न करें ।। सौ वर्षों से यदि अधिक जीवन भी मिले, तब भी हम अपने जीवनकाल में उक्त कार्य करते रहें ।।
उक्त वेद मंत्र से ज्ञात होता है कि मनुष्य की आयु १०० वर्ष से कम नहीं वरन् अधिक ही है ।। इस सम्बन्ध में भारत के प्राचीन इतिहास का अवलोकन करने पर पता चलता है कि रामायण और महाभारत काल में मनुष्यों की आयु १०० वर्ष से अधिक आयु होती थी ।। महाभारत के अधिकतर पात्र १०० वर्ष से अधिक आयु के थे ।। यहाँ तक कि इच्छा मृत्यु के भी उदाहरण मिलते हैं ।। तात्पर्य यह है कि मनुष्य की आयु १०० वर्ष है ।। ''शतापूर्वे पुरुषाः'' यह वेद भगवान् की साक्षी है ।। उस समय केवल सौ वर्ष की आयु ही नहीं होती थी वरन् जीवन की अन्तिम अवस्था तक शरीर में शक्ति, स्फूर्ति, तेज बने रहते थे ।।
हमारी सौ वर्ष की आयु और उसमें भी शक्ति, सामर्थ्य, तेज, ओज आदि होने का एक कारण यह था कि मानव- जीवन को बड़े सुव्यवस्थित एवं मर्यादापूर्ण नियम में बाँधा गया था, जिनको धार्मिक माध्यम से प्रत्येक मनुष्य के लिए आवश्यक निर्धारित किया गया ।। इनमें आश्रम व्यवस्था भी एक थी ।। भारतीय ऋषियों ने दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता पूर्वक आश्रम व्यवस्था बनाई थी ।। जीवन के चार भागों में विभक्त कर ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास इन चार आश्रम के विभिन्न धर्म- पालन करते हुए १०० वर्ष जीने का मार्ग प्रशस्त हुआ ।। इन चारों आश्रमों का यथाविधि पालन किया जाये तो मनुष्य को सौ वर्ष की आयु एवं सुंदर स्वास्थ्य, शक्ति, सामर्थ्य आदि की प्राप्ति हों ।। प्रत्येक आश्रम २५ वर्ष तक जीवन बिताना आवश्यक बताया गया है ।। आश्रम- व्यवस्था के अनुसार आचरण करने से जहाँ जीवन में शतायु, शक्ति बल आदि की वृद्धि होती है, वहाँ मनुष्य जीवन के अन्य अंगों का भी विकास होता है ।। अस्तु प्रत्येक आश्रम के बारे में आवश्यक जानकारी करना चाहिए ।।
ब्रह्मचर्याश्रम :- ब्रह्मचर्याश्रम जीवन के प्रारम्भिक वर्षों तक पालन किया जाता है ।। इन २५ वर्षों में मनुष्य के लिए ब्रह्मचर्यपूर्वक रहने का आदेश है ।। इसके साथ- साथ अपनी विभिन्न शक्तियों को विकसित करने एवं बढ़ाने का भी अवसर यही है ।। ब्रह्मचर्याश्रम मानव- जीवन की नींव है ।। जिसमें शक्ति संयम योग्यताओं का बढ़ाना, ज्ञान विज्ञान की सतत साधना तपश्चर्यामय जीवन बिताना, सेवा आदि से मनुष्य जीवन क सर्वांगीण विकास होता है ।। पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन शतायु होने के लिए अत्यावश्यक बताया गया है ।। ब्रह्मचर्य ही मृत्यु पर विजय प्राप्त करता है ।। कहा भी गया है ।। ''ब्रह्मचर्यतपसां देवा मृत्यु मुपाघ्नतः ।'' ब्रह्मचर्य तप से देवताओं ने मृत्यु पर विजय प्राप्त की ।। अतः ऋषियों ने मनुष्य को शतायु होने के लिए सर्वप्रथम २५ साल तक ब्रह्मचर्याश्रम में रहने की आज्ञा दी, जिससे शक्ति संचय, स्वास्थ्य, तेज, बल स्फूर्ति आदि की वृद्धि होकर सौ वर्ष तक के सुखी जीवन का निर्माण होता है ।।
गृहस्थाश्रम :- मानव जीवन की दूसरी अवस्था २५ से ५० वर्ष तक गृहस्थाश्रम में प्राप्त शिक्षा, ज्ञान, स्वास्थ्य, अनुभव आदि से अपने गृहस्थ जीवन को सफल बनाया जाता है ।। गृहस्थाश्रमों में आवश्यक नियमो का पालन कर संयमी, सदाचारी नैतिक एवं पवित्र जीवन बिताना आवश्यक है ।। गृहस्थाश्रम में आवश्यक नियमो का पालन करता हुआ मनुष्य सौ वर्ष तक जीने का अधिकारी होता है ।। गृहस्थ संचालन के लिए किये जाने वाले परिश्रम, पुरुषार्थ, व्यस्तता, परस्पर सहयोग, परम पिता परमात्मा के इस सृष्टि उद्यान में उसका युवराज बनकर आनंद भोग करना, आदि मनुष्य जीवन में सरसता आदि को बनाये रखते हैं जिससे मनुष्य शतायु को प्राप्त होता है ।।
वानप्रस्थाश्रम :- मानव जीवन की तीसरी अवस्था ५०से ७५ वर्ष तक वानप्रस्थ आश्रम में बिताने की आज्ञा है, जिसमें वह लोक कल्याण जनहित परोपकार आदि में जीवन बिताये ।। इस आश्रम में मनुष्य को ब्रह्यचर्यपूर्वक रहने का भी आदेश है ।। इस प्रकार परमार्थ साधना में रत, देश और समाज के कल्याण के लिए अथक परिश्रम, आदि मनुष्य जीवन में नवीन उत्साह, स्वास्थ्य, उच्च भावनायें, शक्ति आदि को बनाये रखते हैं ।। साथ ही ब्रह्मचर्य का पालन भी जीवन- शक्ति को नष्ट होने से बचाकर बढ़ाने में सहायक होता है ।। वानप्रस्थ आश्रम में मनुष्य का आत्म- संबंध विस्तृत होकर अखण्ड देश- प्रेम, समाज- सेवा, राष्ट्र- भक्ति आदि से मनुष्य में आत्मबल, साहस, सहनशीलता, समानता, उदारता, शक्ति पुरुषार्थ की निर्झरिणी बहती रहती है जो उसकी उम्र को बढ़ती है ।। यही कारण था कि महात्मा गाँधी कहते थे ''मैं १२५ वर्ष तक जिन्दा रहूँगा ।''
सन्यास आश्रम :- मनुष्य जीवन में अन्तिम आयु ७५ से १०० तक संन्यास आश्रम में बिताना चाहिए ।। इस अवस्था में मनुष्य का आत्म- विस्तार समस्त विश्व ही नहीं चराचर मात्र के लिए हो जाता है ।। उसका जीवन सेवा, परमार्थ एवं कल्याण का प्रत्यक्ष स्वरूप बन जाता है ।। संन्यासी अपनी शारीरिक आवश्यकताओं, सुख- दुःखों की परवाह न करते हुए निरन्तर जनहित, जनसेवा में प्रवृत्त हो जाता है ।। उसके अन्तःकरण में प्राणिमात्र की सेवा के लिए प्रबल भावनाएँ जाग उठती हैं जिनके संयोग से उसकी शान्ति, सामर्थ्य, स्वास्थ्य, प्रतिभा अनेकों गुना बढ़ जाती हैं । प्रकृति भी अपनी मर्यादाओं को व्यतिरेक कर उस सर्वजनहिताय, परमार्थगामी, विश्वबन्धु संन्यासी को अनुकूल परिणाम प्रदान करती है ।। फलतः उसकी आयु क्षीण नहीं होती और पूर्ण आयु प्राप्त होता है ।।
(भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व पृ.सं.४.३४- ३५)
''वह परमात्मा देवों का हित करने वाला हो, (जो)'' अनादि और विशुद्ध ज्ञान का उपदेश करता है ।। हम सौ वर्ष के जीवन काल में उसका दर्शन कर सकें ।। सौ वर्ष के जीवन में इसी ध्येय के लिए जीवित रहें ।। सौ वर्ष तक के जीवन में हम इस परमात्मा का श्रवण और मनन करते रहें ।। सौ वर्ष तक के जीवन काल में हम इस परमात्मा का गुणगान गाते रहें ।। सौ वर्ष तक के जीवन में हम कभी भी दीनता वृत्ति प्रकट न करें ।। सौ वर्षों से यदि अधिक जीवन भी मिले, तब भी हम अपने जीवनकाल में उक्त कार्य करते रहें ।।
उक्त वेद मंत्र से ज्ञात होता है कि मनुष्य की आयु १०० वर्ष से कम नहीं वरन् अधिक ही है ।। इस सम्बन्ध में भारत के प्राचीन इतिहास का अवलोकन करने पर पता चलता है कि रामायण और महाभारत काल में मनुष्यों की आयु १०० वर्ष से अधिक आयु होती थी ।। महाभारत के अधिकतर पात्र १०० वर्ष से अधिक आयु के थे ।। यहाँ तक कि इच्छा मृत्यु के भी उदाहरण मिलते हैं ।। तात्पर्य यह है कि मनुष्य की आयु १०० वर्ष है ।। ''शतापूर्वे पुरुषाः'' यह वेद भगवान् की साक्षी है ।। उस समय केवल सौ वर्ष की आयु ही नहीं होती थी वरन् जीवन की अन्तिम अवस्था तक शरीर में शक्ति, स्फूर्ति, तेज बने रहते थे ।।
हमारी सौ वर्ष की आयु और उसमें भी शक्ति, सामर्थ्य, तेज, ओज आदि होने का एक कारण यह था कि मानव- जीवन को बड़े सुव्यवस्थित एवं मर्यादापूर्ण नियम में बाँधा गया था, जिनको धार्मिक माध्यम से प्रत्येक मनुष्य के लिए आवश्यक निर्धारित किया गया ।। इनमें आश्रम व्यवस्था भी एक थी ।। भारतीय ऋषियों ने दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता पूर्वक आश्रम व्यवस्था बनाई थी ।। जीवन के चार भागों में विभक्त कर ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास इन चार आश्रम के विभिन्न धर्म- पालन करते हुए १०० वर्ष जीने का मार्ग प्रशस्त हुआ ।। इन चारों आश्रमों का यथाविधि पालन किया जाये तो मनुष्य को सौ वर्ष की आयु एवं सुंदर स्वास्थ्य, शक्ति, सामर्थ्य आदि की प्राप्ति हों ।। प्रत्येक आश्रम २५ वर्ष तक जीवन बिताना आवश्यक बताया गया है ।। आश्रम- व्यवस्था के अनुसार आचरण करने से जहाँ जीवन में शतायु, शक्ति बल आदि की वृद्धि होती है, वहाँ मनुष्य जीवन के अन्य अंगों का भी विकास होता है ।। अस्तु प्रत्येक आश्रम के बारे में आवश्यक जानकारी करना चाहिए ।।
ब्रह्मचर्याश्रम :- ब्रह्मचर्याश्रम जीवन के प्रारम्भिक वर्षों तक पालन किया जाता है ।। इन २५ वर्षों में मनुष्य के लिए ब्रह्मचर्यपूर्वक रहने का आदेश है ।। इसके साथ- साथ अपनी विभिन्न शक्तियों को विकसित करने एवं बढ़ाने का भी अवसर यही है ।। ब्रह्मचर्याश्रम मानव- जीवन की नींव है ।। जिसमें शक्ति संयम योग्यताओं का बढ़ाना, ज्ञान विज्ञान की सतत साधना तपश्चर्यामय जीवन बिताना, सेवा आदि से मनुष्य जीवन क सर्वांगीण विकास होता है ।। पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन शतायु होने के लिए अत्यावश्यक बताया गया है ।। ब्रह्मचर्य ही मृत्यु पर विजय प्राप्त करता है ।। कहा भी गया है ।। ''ब्रह्मचर्यतपसां देवा मृत्यु मुपाघ्नतः ।'' ब्रह्मचर्य तप से देवताओं ने मृत्यु पर विजय प्राप्त की ।। अतः ऋषियों ने मनुष्य को शतायु होने के लिए सर्वप्रथम २५ साल तक ब्रह्मचर्याश्रम में रहने की आज्ञा दी, जिससे शक्ति संचय, स्वास्थ्य, तेज, बल स्फूर्ति आदि की वृद्धि होकर सौ वर्ष तक के सुखी जीवन का निर्माण होता है ।।
गृहस्थाश्रम :- मानव जीवन की दूसरी अवस्था २५ से ५० वर्ष तक गृहस्थाश्रम में प्राप्त शिक्षा, ज्ञान, स्वास्थ्य, अनुभव आदि से अपने गृहस्थ जीवन को सफल बनाया जाता है ।। गृहस्थाश्रमों में आवश्यक नियमो का पालन कर संयमी, सदाचारी नैतिक एवं पवित्र जीवन बिताना आवश्यक है ।। गृहस्थाश्रम में आवश्यक नियमो का पालन करता हुआ मनुष्य सौ वर्ष तक जीने का अधिकारी होता है ।। गृहस्थ संचालन के लिए किये जाने वाले परिश्रम, पुरुषार्थ, व्यस्तता, परस्पर सहयोग, परम पिता परमात्मा के इस सृष्टि उद्यान में उसका युवराज बनकर आनंद भोग करना, आदि मनुष्य जीवन में सरसता आदि को बनाये रखते हैं जिससे मनुष्य शतायु को प्राप्त होता है ।।
वानप्रस्थाश्रम :- मानव जीवन की तीसरी अवस्था ५०से ७५ वर्ष तक वानप्रस्थ आश्रम में बिताने की आज्ञा है, जिसमें वह लोक कल्याण जनहित परोपकार आदि में जीवन बिताये ।। इस आश्रम में मनुष्य को ब्रह्यचर्यपूर्वक रहने का भी आदेश है ।। इस प्रकार परमार्थ साधना में रत, देश और समाज के कल्याण के लिए अथक परिश्रम, आदि मनुष्य जीवन में नवीन उत्साह, स्वास्थ्य, उच्च भावनायें, शक्ति आदि को बनाये रखते हैं ।। साथ ही ब्रह्मचर्य का पालन भी जीवन- शक्ति को नष्ट होने से बचाकर बढ़ाने में सहायक होता है ।। वानप्रस्थ आश्रम में मनुष्य का आत्म- संबंध विस्तृत होकर अखण्ड देश- प्रेम, समाज- सेवा, राष्ट्र- भक्ति आदि से मनुष्य में आत्मबल, साहस, सहनशीलता, समानता, उदारता, शक्ति पुरुषार्थ की निर्झरिणी बहती रहती है जो उसकी उम्र को बढ़ती है ।। यही कारण था कि महात्मा गाँधी कहते थे ''मैं १२५ वर्ष तक जिन्दा रहूँगा ।''
सन्यास आश्रम :- मनुष्य जीवन में अन्तिम आयु ७५ से १०० तक संन्यास आश्रम में बिताना चाहिए ।। इस अवस्था में मनुष्य का आत्म- विस्तार समस्त विश्व ही नहीं चराचर मात्र के लिए हो जाता है ।। उसका जीवन सेवा, परमार्थ एवं कल्याण का प्रत्यक्ष स्वरूप बन जाता है ।। संन्यासी अपनी शारीरिक आवश्यकताओं, सुख- दुःखों की परवाह न करते हुए निरन्तर जनहित, जनसेवा में प्रवृत्त हो जाता है ।। उसके अन्तःकरण में प्राणिमात्र की सेवा के लिए प्रबल भावनाएँ जाग उठती हैं जिनके संयोग से उसकी शान्ति, सामर्थ्य, स्वास्थ्य, प्रतिभा अनेकों गुना बढ़ जाती हैं । प्रकृति भी अपनी मर्यादाओं को व्यतिरेक कर उस सर्वजनहिताय, परमार्थगामी, विश्वबन्धु संन्यासी को अनुकूल परिणाम प्रदान करती है ।। फलतः उसकी आयु क्षीण नहीं होती और पूर्ण आयु प्राप्त होता है ।।
(भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व पृ.सं.४.३४- ३५)