Books - देखन में छोटे लगें घाव करें गम्भीर (चतुर्थ भाग)
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Language: HINDI
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पापी स्वयं अपने पाप का द्रष्टा तो है ही
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बोधिसत्व ने एक बार किसी उच्च कुलीन ब्राह्मण परिवार में जन्म लिया था। यह परिवार अपनी विद्वत्ता, शील, सदाचार और उत्कृष्ट चरित्र के कारण वहां के समाज में महा श्रद्धा और अत्यधिक सम्मान का पात्र था। शास्त्रों में पारंगत, धर्मज्ञान में निपुण और नीति-अनीति, सद्-असद् विवेक से युक्त उनके पिता ने बोधिसत्व का लालन-पालन भी अपने परिवार की कुल मर्यादा और आदर्श जीवन की सतर्कताओं को ध्यान में रखकर किया।जब बोधिसत्व की आयु शिक्षा प्राप्त करने योग्य हुई तो उन्हें गुरुकुल भेज दिया गया। पैतृक विरासत में प्राप्त गुरुभक्ति और अध्ययनशीलता ने उनके गुरुजनों को बड़ा प्रभावित किया। उन दिनों अक्षर ज्ञान या जानकारियां देना मात्र ही शिक्षा का अर्थ नहीं था। वरन् शिक्षा का अर्थ था मनुष्य की अंतर्निहित शक्तियों का उद्घाटन तथा उन्हें सुसंस्कृत बनाना। इस उद्देश्य के लिए विद्यार्थी के चरित्र, स्वभाव, गुणों और प्रवृत्तियों को भी आदर्शोन्मुख बनाना उतना ही आवश्यक समझा जाता था जितना कि अन्य शिक्षा प्रकरणों को।विद्यार्थी का व्यक्तित्व किन दिशाओं में प्रवाही हो रहा है, यह जानने के लिए अध्यापकगण समय-समय पर परीक्षाएं भी लिया करते थे और यह जानने का प्रयत्न करते थे कि विद्यार्थी का विकास किस किस क्षेत्र में हो रहा है। कहीं कोई त्रुटि होती दिखाई देती तो उसका संशोधन भी तत्काल किया जाता क्योंकि पतन के मार्ग पर कदम रखते ही यदि तुरंत न सम्हाला जाय तो फिर बाद में सम्हल पाना मुश्किल है।एक बार गुरुजनों ने इसी उद्देश्य से अपने विद्यार्थियों की परीक्षा अनूठे ढंग से ली। उस समय आश्रम का निर्वाह चलाने के लिए शिष्यों को भिक्षाटन के लिए भेजा जाता था। चाहे कोई राजा का पुत्र हो या रंक का, आश्रम में रहते हुए सभी समान समझे जाते और उन्हें समान रूप से ही गुरुकुल के नियमों का पालन करना पड़ता। इसी भिक्षाटन का प्रसंग छेड़कर एक दिन गुरुजी ने कहा, उस समय शिष्यगण भिक्षा प्राप्त कर लौटे ही थे—‘‘आप लोगों का यह सारा परिश्रम मेरी दृष्टि में व्यर्थ है क्योंकि इससे हम लोगों को कभी पेट भर अन्न नहीं मिलता।’’आचार्य के इस कथन पर एक शिष्य ने कहा—‘‘पर हम क्या करें गुरुदेव! अपने वश में जितना है उतना कर लेते हैं। आश्रम की दरिद्रता हमें भी कष्ट देती है।’’‘‘कष्ट का अनुभव ही पर्याप्त नहीं है वत्स’’—आचार्य ने कहा—‘‘उसे दूर करने के प्रयास से ही व्यक्ति कष्टों से त्राण पा सकता है।’’‘‘हमें तो अपनी बाल बुद्धि से कोई उपाय सूझता नहीं’’—दूसरे शिष्य ने कहा।‘‘उपाय तो है। पर पता नहीं तुम लोग करना चाहो या न करना चाहो।’’‘‘आपकी आज्ञा के उल्लंघन का पाप हमने अपनी जानकारी में तो आज तक नहीं किया है। अपनी शक्ति भर आश्रम की दरिद्रता को दूर करेंगे। आप उपाय बताइये’’—सभी ने समवेत स्वर में कहा।‘‘जिस प्रकार तुम श्रमपूर्वक भिक्षा में अन्नादि लाते हो उसी प्रकार धन मांग कर लाया करो तो सुविधा होगी’’—आचार्य ने कहा। फलतः दूसरे दिन भिक्षा में विद्यार्थियों ने अर्थ याचना की।सहज श्रद्धावश लोगों ने जितना बन सका उतना धन दिया। शिष्यों ने भिक्षा में प्राप्त मुद्रा आचार्य को सौंप दी जिसे देखकर आचार्य ने कहा—‘‘यह तो हमारी आवश्यकताओं की दशमांश भी पूर्ति नहीं कर सकेगा।’’‘‘तब फिर हमें क्या करना चाहिए’’—शिष्यों ने पूछा।‘‘क्यों न तुम सब रात के अंधेरे में राहगीरों को लूटने का काम करो’’—आचार्य ने सुझाव देते हुए कहा।शिष्यगण अवाक् होकर आचार्य की ओर देखने लगे।‘‘पर यह तो पाप है’’—शिष्यों ने कहा।‘‘पाप तब है जब किसी के सामने किया जाय, किसी एकांत स्थान पर तुम लोग ऐसा क्यों नहीं करते’’—आचार्य ने समाधान दिया।शिष्य कुछ नहीं बोले पर बोधिसत्व से नहीं रहा गया, उन्होंने कहा—‘‘पाप तो किसी न किसी के सामने ही किया जायेगा गुरुदेव! वहां देखने वाला तो रहेगा ही। सब लोगों से भले ही छुपा लिया जाय पर अपने से कौन छुपा सकता है।’’ यह उत्तर सुनकर आचार्य ने बोधिसत्व को छाती से लगा लिया।(यु. नि. यो. दिसंबर 1975 से संकलित)