Books - देखन में छोटे लगें घाव करें गम्भीर (चतुर्थ भाग)
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Language: HINDI
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संत की सहिष्णुता
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एक जुलाहा रहता था किसी नगर में। स्वभाव से अत्यंत शांत, नम्र तथा उदार। क्रोध तो कभी आता ही न था। एक बार कुछ लड़कों को शरारत सूझी। वे सब उस जुलाहे के पास यह सोचकर गए कि देखें इसे गुस्सा कैसे नहीं आता? उनमें एक लड़का धनवान् माता-पिता का पुत्र था। वहां पहुंचकर वह बोला—‘‘यह साड़ी कितने की दोगे?’’ जुलाहे ने कहा—‘‘दो रुपये में।’’तब लड़के ने चिढ़ाने के उद्देश्य से साड़ी के दो टुकड़े कर दिए और एक टुकड़ा हाथ में लेकर कहा—‘‘मुझे पूरी साड़ी नहीं चाहिए, आधी चाहिए। इसका दाम क्या है?’’ जुलाहे ने बड़ी शांति से ,कहा—‘‘एक रुपया।’’लड़के ने उस टुकड़े के भी दो भाग करते हुए पूछा—‘‘और इसका दाम?’’संत अब भी शांत थे। उन्होंने बताया—‘‘आठ आना।’’लड़का इसी प्रकार साड़ी के टुकड़े पर टुकड़े करता गया। अंत में बोला—‘‘अब मुझे यह साड़ी नहीं लेनी। यह टुकड़े मेरे किस काम के?’’जुलाहे ने उसी गंभीर शांति के साथ कहा—‘‘बेटे! अब यह टुकड़े तुम्हारे ही क्या, किसी के भी काम के नहीं रहे।’’अब लड़के को कुछ शर्म आयी और वह कहने लगा—‘‘मैंने आपका नुकसान किया है। अतः मैं आपकी साड़ी का दाम दिए देता हूं।’’पर संत जुलाहे ने कहा कि जब आपने साड़ी ली ही नहीं तब मैं आपसे पैसे कैसे ले सकता हूं।लड़के का धनाभिमान जागा और वह कहने लगा कि मैं बहुत अमीर आदमी हूं। तुम गरीब हो। मैं रुपये दे दूंगा तो मुझे कुछ नहीं अखरेगा। पर तुम यह घाटा कैसे सह सकोगे? और नुकसान मैंने किया है तो घाटा भी मुझे ही पूरा करना चाहिए।संत अब कुछ मुस्कराये और कहने लगे—‘‘तुम यह घाटा पूरा नहीं कर सकते! सोचो, किसान का कितना श्रम लगा तब कपास पैदा हुई। फिर मेरी स्त्री ने अपनी मेहनत से उस कपास को बीना और सूत काता। फिर मैंने उसे रंगा और बुना। इतनी मेहनत तभी सफल होती जब इसे कोई पहनता, इससे लाभ उठाता, इसका उपयोग करता। पर तुमने उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। रुपये से यह घाटा कैसे पूरा होगा?’’ संत जुलाहे की आवाज में आक्रोश के स्थान पर अत्यंत दयार्द्र सौम्यता थी। लड़का शर्म से पानी-पानी हो गया। उसकी आंखें भर आईं और वह संत के पैरों में गिर गया।जुलाहे ने बड़े प्यार से उसे उठाकर पीठ पर हाथ फिराते हुए कहा—‘‘बेटा! यदि मैं तुम्हारे रुपये ले लेता, तो हो सकता है उससे मेरा बहुत काम चल जाता। पर तुम्हारी जिंदगी का वही हाल होता जो इस साड़ी का हुआ। कोई भी उससे लाभान्वित नहीं होता। साड़ी एक गयी, मैं दूसरी बना लूंगा। पर जिंदगी एक बार अहंकार में नष्ट हो गयी तो दूसरी कहां से लाओगे तुम? तुम्हारा यह पश्चाताप ही मेरे लिए बहुत कीमती है।’’लड़का तथा उसके साथी बहुत शर्मिंदा हुए।यह जुलाहे थे दक्षिण भारत के महान् संत तिरुवल्लुवर। इनका लिखा हुआ ग्रंथ ‘कुरल’ आज दो हजार वर्ष बाद भी बड़ी श्रद्धा से पढ़ा जाता है।(यु. नि. यो. सितंबर 1983 से संकलित)