Books - देखन में छोटे लगें घाव करें गम्भीर (चतुर्थ भाग)
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Language: HINDI
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पाप का प्रायश्चित पाप करने से नहीं होता
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निर्जन और सुनसान राह पर भगवान् बुद्ध सौम्य और शांत मुद्रा में कदम-कदम आगे बढ़ रहे थे। मंथर गति से गंभीर और सौम्य शांति की दीप्ति बिखेरते हुए तथागत के साथ उनके अन्य शिष्य भी थे और सभी शिष्य उनके पीछे पंक्तिबद्ध होकर चल रहे थे। लक्ष्य था राजगृह। वहां पहुंचकर वहां के निवासियों को धर्म का उपदेश देना था। तभी राह में भेड़ों का एक झुंड निकला और उस झुंड के पीछे उन भेड़ों का मालिक गड़रिया चल रहा था।गड़रिये के कंधे पर भेड़ का बच्चा था जिसे वह उठाकर ले जा रहा था। शायद उसके शरीर में कोई पीड़ा रही होगी जिसके कारण वह चलने में असमर्थ था। यह सोचकर तथागत ने गड़रिये को रोका और पूछा—‘‘तुम इस मेमने को कंधे पर क्यों उठाये हुए हो?’’गड़रिये ने साधु वेश में एक तेजस्वी पुरुष को अपने सामने देखा तो वह अनायास ही श्रद्धा से नतमस्तक हो उठा और बोला—‘‘भगवन्! मेमने के पैर में चोट है। इसलिए इसे कंधे पर रखना पड़ा है।’’बुद्ध कातर हो उठे और उन्होंने मेमने के उस अंग पर हाथ रखा जहां कि गड़रिये ने चोट बतायी थी। करुणा और दया की प्रतिमूर्ति तथागत का स्पर्श पाकर उस मूक पशु को जैसे राहत मिली हो। उसने आंखें मूंद लीं और चुपचाप मुंदी पलकों से दो चार आंसू टपका दिए। भगवान् बुद्ध मेमने की यह स्थिति देखकर और भी दयार्द्र हो गए।तभी गड़रिये ने पूछा—‘‘भंते! आपको इस मेमने के पैर की चोट से इतनी व्यथा है तो फिर थोड़ी देर बाद जब इन भेड़ों को एक साथ अग्नि में समर्पित किया जायगा तब कितनी व्यथा होगी।’’‘‘क्या कहा?’’—सदैव शांत रहने वाले बुद्ध के मुखमंडल पर व्यग्रता आ गयी—‘‘क्या ये सब भेड़ें बलि चढ़ाने के लिए ही ले जायी जा रही हैं। कौन है वह अभागा जो इन निरीह निरपराध भेड़ों की बलि चढ़ाकर स्वर्ग प्राप्ति का सौभाग्य लूटना चाहता है।’’‘‘राजगृह का अधिपति अजातशत्रु। कहते हैं उस पर अपने पिता की हत्या का दोष लगा है। उसी पाप के प्रायश्चित स्वरूप वह यज्ञ रचाकर एक हजार पशुओं की बलि चढ़ाने जा रहा है’’—और इतना कहकर जल्दी के कारण वह गड़रिया वहां से चल दिया।भगवान् बुद्ध जब राजभवन पहुंचे तो पाया कि गड़रिये ने जो कहा था वह सच है। राजभवन के आंगन में स्त्री-पुरुषों की भीड़ लगी हुई थी। यज्ञ वेदी के चारों ओर बैठकर ब्राह्मण पुरोहित मंत्रोच्चार कर रहे थे और अजातशत्रु पीत वस्त्र धारण कर यजमान के वेष में बैठे हुए थे। चारों ओर पशुओं की लंबी कतारें लगी हुई थीं तथा उनके पास ही हाथ में नंगी तलवार लिए वधिक खड़े हुए थे। तभी आयोजन स्थल पर तथागत ने पदार्पण किया। सारे सभास्थल में खलबली मच गयी। अजातशत्रु भी भगवान् की अभ्यर्थना हेतु अपने आसन से उठ खड़ा हुआ और बिना पूछे ही इस समारोह के संबंध में बताने लगा। सारी बातें सुनकर भगवान् बुद्ध ने भेड़ों के सामने रखी हुई वनस्पतियों में से घास का एक तिनका उठाया और बोले—‘‘राजन्! इस तिनके को तोड़कर दिखाना तो जरा।’’जिन लोगों ने इस विचित्र बात को सुना वे आश्चर्य में पड़ गए। अजातशत्रु ने भी आश्चर्यपूर्वक तथागत का कहना मानकर वह तिनका तोड़ा और अगले आदेश की प्रतीक्षा करने लगा। तब भगवान् ने कहा—‘‘राजन्! अब इन टूटे हुए तिनकों को पहले जैसा जोड़ दो।’’राजा चुपचाप खड़ा रहा। तब भगवान् ने कहा—‘‘राजन्! मैं तुमसे यही बात इस समारोह के संबंध में भी कहना चाहता था। पिता के वध का जो पाप हुआ है उसे किसी भी प्रयत्न द्वारा मिटाया नहीं जा सकता जैसे इस टूटे तिनके को नहीं जोड़ा जा सकता।’’ तथागत से यह कथन सुनकर अजातशत्रु ने वह आयोजन निरस्त कर दिया।(यु. नि. यो. अक्टूबर 1974 से संकलित)