Books - दीर्घ जीवन के रहस्य
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दीर्घ जीवन के रहस्य
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‘‘शतं जीव शरदो वर्धमानः’’
—अथर्ववेद 3।11।4
संसार के मनुष्यो! जीवन शक्ति को इस प्रकार व्यय करो कि सौ वर्ष जीवित रह सको। सौ वर्ष तक उन्नतिशील जीवन व्यतीत करना चाहिए।
सन् 1958 में सोवियत पत्रों में एक गांव में मनाये गये एक अजीब विवाह का समाचार प्रकाशित हुआ था। यह विवाह रजत या स्वर्ण, यहां तक कि हीरक जयन्ती भी नहीं था। पति का नाम मद अदामोव और उनकी पत्नी मन्ना अलीएवा ने अपने दाम्पत्य का सौवां बसन्त मनाया था, जिसका अभी तक कोई नाम नहीं रखा गया है।
158 वर्षीय कृषक मखमूद इवाजोव, जिन्होंने सोवियत संघ की कृषि प्रदर्शिनी में भाग लिया था, सोवियत संघ में विख्यात हैं। उनके कार्य की प्रशंसा में 1957 में सोवियत सरकार ने उन्हें आर्डर आफ रेड बैनर आफ लेबर (श्रम के लाल झण्डे) के पदक से विभूषित किया।
इसी प्रकार वहां की औसेतियां बासी महिला तेपो आबजीव ने वास्तव में दीर्घजीवी होने का उच्च स्तर कायम किया है। हाल ही में 180 वर्ष की आयु में उनका देहान्त हुआ था। फिर भी लोग गलती से यह मान लेते हैं कि दीर्घायु पर्वतों पर रहने वाले काकेशियाई जनतन्त्रों के निवासियों का ही सौभाग्य है। इसके विपरीत आंकड़ों के अनुसार वृद्ध लोगों की संख्या सोवियत संघ में है, वहां दो लाख से अधिक वृद्ध नामांकित किए गए हैं और देश के विभिन्न भागों में बसते हैं। मास्तको, लेनिन ग्राड, यूक्रेन तथा वेलो इत्यादि भागों में दीर्घजीवी रूसियों की संख्या अधिक है।
काकेशस की तुलना में साइबेरिया में सौ साल की दीर्घ आयु वालों की संख्या तिगुनी है, जब कि याकूतिया के कठोर जलवायु में उनकी संख्या अबखाजिया के समृद्ध जिलों की तुलना में कहीं अधिक है।
ऊपर लिखे उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि आज की इस बीसवीं सदी में भी दीर्घजीवी होना साधारण सी बात है। हम मनुष्य के जीवन की सीमा सौ वर्ष ही मानते हुए आश्चर्य करते हैं। कुछ तो पचास वर्ष को पार करने पर ही निराश हो वृद्ध जैसा अनुभव करने लगते हैं। अपना दैनिक कार्य छोड़ शिथिल हो मौत का रास्ता देखा करते हैं। उनके मन में एक ऐसी जहरीली मनः स्थिति का निर्माण हो जाता है, जो बरबस वृद्धावस्था घेर कर लाती है।
रूसी मनोवैज्ञानिक अब इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि प्राकृतिक वृद्धावस्था में और समय से पहले आने वाली वृद्धावस्था में अन्तर है और समय से पहले के बुढ़ापे के लिए स्वयं मनुष्य ही दोषी है। जीवांगों के मुख्य कार्य स्पष्ट रूप में केन्द्रीय स्नायु-तन्त्र की स्थिति और मस्तिष्क वाहक पर निर्भर करते हैं। हमारे जीवांगों में होने वाली संश्लिष्ट और प्रमुख प्रक्रियाओं में मस्तिष्क-बाह्यक सक्रिय भाग लेते हैं। उन्हीं में आयु बढ़ाने की प्रक्रिया निहित है। अब यह साबित हो चुका है कि ब्लड प्रेशर, धमनियों की कठोरता और कैंसर जैसे अच्छे स्वास्थ्य के शत्रु केन्द्रीय स्नायु-तन्त्र में लम्बी गड़बड़ी के कारण पनपते हैं। यह भी विदित होता जा रहा है कि तम्बाकू तथा शराब में पाये जाने वाले विष हमारे स्नायु-तन्त्र और रक्त धमनियों के लिए छिपे हुए घातक विष हैं और शरीर को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं।
रूसी वैज्ञानिक इस राय पर आये हैं कि यौवन और शक्ति को बढ़ाये रखने वाला तत्व काम, (कार्यशीलता) है। अधिक काम करने से चिंताएं भी कम सताती हैं और शरीर एक शिकंजे में कसा रहता है। उसमें आलस्य का ढीलापन नहीं आने पाता। कुछ उम्र बढ़ जाने पर अनेक लोग यह गलती करते हैं कि वे अपना चलना, फिरना, खेत जोतना, बोना, टहलना, घूमना या शरीर के अन्य अंगों से श्रम करना छोड़ देते हैं। काम में न आने से अनेक अंग जंग लग कर अपनी स्वाभाविक कार्य शक्ति छोड़ने लगते हैं। उन्हें निष्क्रिय रहने की ही आदत पड़ने लगती है। फलतः कार्य विहीन होकर वे अव्यवस्थित और बेकार होने लगते हैं।
रूसी शरीर विज्ञान-शास्त्री अकादमिशियन पावतोव के शब्दों में ‘‘प्रत्येक शरीर एक चलता फिरता जीव है। अपने जीवन काल में ही वह एक निश्चित गति अथवा ढर्रा बना लेता है। जितने दिनों तक उसे उसका यह सौंपा हुआ कार्य दिया जाता रहता है, उतने दिन तक तो वह बराबर चलता रहता है। पर ज्यों ज्यों वह कार्य कम होने लगता है, त्यों-त्यों उसमें पाचन विकार होने लगता है, रक्त कम बनता है, फलतः कर्म शक्ति के साथ साथ शरीर शक्ति भी कम होती जाती है। यदि इसी ढर्रे पर उसे चलते रहने दिया जाय, या जबरदस्ती उससे यह शारीरिक कार्य लिया जाय, तो निश्चित ही वह कुछ वर्षों के लिए युवक बना रह सकता है।
रूसी लेखक इवान पत्रोविच पावलोव कहा करते थे, ‘‘एक क्लर्क अपना काम करते हुए जो बहुत ज्यादा कठिन नहीं होता, 70 वर्षों तक ठीक चलता रहता है, परन्तु ज्यों ही वह उसे छोड़कर अवकाश ग्रहण करता है और फलतः रोज का सक्रिय ढर्रा छोड़ देता है, तो शनैः शनैः उसके शरीर के अवयव ढीले होकर काम करने में असमर्थ हो जाते हैं और वह 75-80 का होते-होते मर जाता है। बढ़ती आयु में शारीरिक या मानसिक कार्य छोड़ देने वालों में से बहुतों का आमतौर पर यही बुरा हाल होता है। हमें ऐसे अनेक मामलों का पता है, जिनमें अपेक्षाकृत स्फूर्तिवान, प्रसन्नचित्त तथा हृष्ट पुष्ट व्यक्ति पेंशन अथवा अवकाश ग्रहण करते ही सहसा निर्बल हो गए और बीमार पड़ गये। यही कारण है कि अवकाश ग्रहण करने के बाद व्यक्ति को कदापि काम-काज करना पूरी तरह नहीं छोड़ना चाहिए। उसे कुछ हलके काम, बागवानी जैसे शौकिया कार्य यहां तक कि टहलना, घूमना, गौर सेवा, घर की सफाई, स्वयं अपने मैले वस्त्र धोना और संभव हो तो व्यायाम और मालिश भी करना चाहिए। शरीर को अधिक से अधिक सक्रिय और गत्यात्मक बनाये रखना चाहिए। इसी से वह अधिक दिनों आगे तक चलता रहता है। किसानों और चरवाहों का जीवन इस अधिक घूमने फिरने के कारण ही बहुत लम्बी आयु तक सक्रिय रहता है।
अतएव दीर्घायु की प्रमुख सबसे बड़ी दवाई काम है। खूब काम कीजिए। शरीर को अधिक से अधिक चलाइये श्रम, करते रहिये। काम करते रहने से आपका शरीर अभी बहुत दिन चल सकता है। कार्य से ही मनुष्य की सृष्टि हुई है तथा यह क्रियाशीलता ही अन्त तक उसे स्वस्थ बनाये रखने वाली है।
—अथर्ववेद 3।11।4
संसार के मनुष्यो! जीवन शक्ति को इस प्रकार व्यय करो कि सौ वर्ष जीवित रह सको। सौ वर्ष तक उन्नतिशील जीवन व्यतीत करना चाहिए।
सन् 1958 में सोवियत पत्रों में एक गांव में मनाये गये एक अजीब विवाह का समाचार प्रकाशित हुआ था। यह विवाह रजत या स्वर्ण, यहां तक कि हीरक जयन्ती भी नहीं था। पति का नाम मद अदामोव और उनकी पत्नी मन्ना अलीएवा ने अपने दाम्पत्य का सौवां बसन्त मनाया था, जिसका अभी तक कोई नाम नहीं रखा गया है।
158 वर्षीय कृषक मखमूद इवाजोव, जिन्होंने सोवियत संघ की कृषि प्रदर्शिनी में भाग लिया था, सोवियत संघ में विख्यात हैं। उनके कार्य की प्रशंसा में 1957 में सोवियत सरकार ने उन्हें आर्डर आफ रेड बैनर आफ लेबर (श्रम के लाल झण्डे) के पदक से विभूषित किया।
इसी प्रकार वहां की औसेतियां बासी महिला तेपो आबजीव ने वास्तव में दीर्घजीवी होने का उच्च स्तर कायम किया है। हाल ही में 180 वर्ष की आयु में उनका देहान्त हुआ था। फिर भी लोग गलती से यह मान लेते हैं कि दीर्घायु पर्वतों पर रहने वाले काकेशियाई जनतन्त्रों के निवासियों का ही सौभाग्य है। इसके विपरीत आंकड़ों के अनुसार वृद्ध लोगों की संख्या सोवियत संघ में है, वहां दो लाख से अधिक वृद्ध नामांकित किए गए हैं और देश के विभिन्न भागों में बसते हैं। मास्तको, लेनिन ग्राड, यूक्रेन तथा वेलो इत्यादि भागों में दीर्घजीवी रूसियों की संख्या अधिक है।
काकेशस की तुलना में साइबेरिया में सौ साल की दीर्घ आयु वालों की संख्या तिगुनी है, जब कि याकूतिया के कठोर जलवायु में उनकी संख्या अबखाजिया के समृद्ध जिलों की तुलना में कहीं अधिक है।
ऊपर लिखे उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि आज की इस बीसवीं सदी में भी दीर्घजीवी होना साधारण सी बात है। हम मनुष्य के जीवन की सीमा सौ वर्ष ही मानते हुए आश्चर्य करते हैं। कुछ तो पचास वर्ष को पार करने पर ही निराश हो वृद्ध जैसा अनुभव करने लगते हैं। अपना दैनिक कार्य छोड़ शिथिल हो मौत का रास्ता देखा करते हैं। उनके मन में एक ऐसी जहरीली मनः स्थिति का निर्माण हो जाता है, जो बरबस वृद्धावस्था घेर कर लाती है।
रूसी मनोवैज्ञानिक अब इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि प्राकृतिक वृद्धावस्था में और समय से पहले आने वाली वृद्धावस्था में अन्तर है और समय से पहले के बुढ़ापे के लिए स्वयं मनुष्य ही दोषी है। जीवांगों के मुख्य कार्य स्पष्ट रूप में केन्द्रीय स्नायु-तन्त्र की स्थिति और मस्तिष्क वाहक पर निर्भर करते हैं। हमारे जीवांगों में होने वाली संश्लिष्ट और प्रमुख प्रक्रियाओं में मस्तिष्क-बाह्यक सक्रिय भाग लेते हैं। उन्हीं में आयु बढ़ाने की प्रक्रिया निहित है। अब यह साबित हो चुका है कि ब्लड प्रेशर, धमनियों की कठोरता और कैंसर जैसे अच्छे स्वास्थ्य के शत्रु केन्द्रीय स्नायु-तन्त्र में लम्बी गड़बड़ी के कारण पनपते हैं। यह भी विदित होता जा रहा है कि तम्बाकू तथा शराब में पाये जाने वाले विष हमारे स्नायु-तन्त्र और रक्त धमनियों के लिए छिपे हुए घातक विष हैं और शरीर को बहुत नुकसान पहुंचाते हैं।
रूसी वैज्ञानिक इस राय पर आये हैं कि यौवन और शक्ति को बढ़ाये रखने वाला तत्व काम, (कार्यशीलता) है। अधिक काम करने से चिंताएं भी कम सताती हैं और शरीर एक शिकंजे में कसा रहता है। उसमें आलस्य का ढीलापन नहीं आने पाता। कुछ उम्र बढ़ जाने पर अनेक लोग यह गलती करते हैं कि वे अपना चलना, फिरना, खेत जोतना, बोना, टहलना, घूमना या शरीर के अन्य अंगों से श्रम करना छोड़ देते हैं। काम में न आने से अनेक अंग जंग लग कर अपनी स्वाभाविक कार्य शक्ति छोड़ने लगते हैं। उन्हें निष्क्रिय रहने की ही आदत पड़ने लगती है। फलतः कार्य विहीन होकर वे अव्यवस्थित और बेकार होने लगते हैं।
रूसी शरीर विज्ञान-शास्त्री अकादमिशियन पावतोव के शब्दों में ‘‘प्रत्येक शरीर एक चलता फिरता जीव है। अपने जीवन काल में ही वह एक निश्चित गति अथवा ढर्रा बना लेता है। जितने दिनों तक उसे उसका यह सौंपा हुआ कार्य दिया जाता रहता है, उतने दिन तक तो वह बराबर चलता रहता है। पर ज्यों ज्यों वह कार्य कम होने लगता है, त्यों-त्यों उसमें पाचन विकार होने लगता है, रक्त कम बनता है, फलतः कर्म शक्ति के साथ साथ शरीर शक्ति भी कम होती जाती है। यदि इसी ढर्रे पर उसे चलते रहने दिया जाय, या जबरदस्ती उससे यह शारीरिक कार्य लिया जाय, तो निश्चित ही वह कुछ वर्षों के लिए युवक बना रह सकता है।
रूसी लेखक इवान पत्रोविच पावलोव कहा करते थे, ‘‘एक क्लर्क अपना काम करते हुए जो बहुत ज्यादा कठिन नहीं होता, 70 वर्षों तक ठीक चलता रहता है, परन्तु ज्यों ही वह उसे छोड़कर अवकाश ग्रहण करता है और फलतः रोज का सक्रिय ढर्रा छोड़ देता है, तो शनैः शनैः उसके शरीर के अवयव ढीले होकर काम करने में असमर्थ हो जाते हैं और वह 75-80 का होते-होते मर जाता है। बढ़ती आयु में शारीरिक या मानसिक कार्य छोड़ देने वालों में से बहुतों का आमतौर पर यही बुरा हाल होता है। हमें ऐसे अनेक मामलों का पता है, जिनमें अपेक्षाकृत स्फूर्तिवान, प्रसन्नचित्त तथा हृष्ट पुष्ट व्यक्ति पेंशन अथवा अवकाश ग्रहण करते ही सहसा निर्बल हो गए और बीमार पड़ गये। यही कारण है कि अवकाश ग्रहण करने के बाद व्यक्ति को कदापि काम-काज करना पूरी तरह नहीं छोड़ना चाहिए। उसे कुछ हलके काम, बागवानी जैसे शौकिया कार्य यहां तक कि टहलना, घूमना, गौर सेवा, घर की सफाई, स्वयं अपने मैले वस्त्र धोना और संभव हो तो व्यायाम और मालिश भी करना चाहिए। शरीर को अधिक से अधिक सक्रिय और गत्यात्मक बनाये रखना चाहिए। इसी से वह अधिक दिनों आगे तक चलता रहता है। किसानों और चरवाहों का जीवन इस अधिक घूमने फिरने के कारण ही बहुत लम्बी आयु तक सक्रिय रहता है।
अतएव दीर्घायु की प्रमुख सबसे बड़ी दवाई काम है। खूब काम कीजिए। शरीर को अधिक से अधिक चलाइये श्रम, करते रहिये। काम करते रहने से आपका शरीर अभी बहुत दिन चल सकता है। कार्य से ही मनुष्य की सृष्टि हुई है तथा यह क्रियाशीलता ही अन्त तक उसे स्वस्थ बनाये रखने वाली है।