Books - गायत्री साधना की सर्वसुलभ विधि
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Language: HINDI
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उपासना आवश्यक है—अनिवार्य है
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मनुष्य का अस्तित्व दो तत्वों के संयोग से है, एक है पदार्थपरक भौतिक शरीर और दूसरा है चेतनापरक अन्तःकरण। शरीर और चेतना दोनों ही मानवी गरिमा के अनुरूप हों तो ही परिपूर्ण गौरवमय मनुष्य बन सकता है अन्यथा एकांगी व्यक्तित्वों से मनुष्य का और उसके फलस्वरूप सारे संसार का संतुलन बिगड़ता रहेगा।
मनुष्य के भौतिक पक्ष शरीर से लेकर परिस्थितियों तक के सुधार-संभाल के लिए अनेकानेक माध्यम विकसित हो गये हैं और हो रहे हैं, किन्तु चेतना के परिष्कार की ओर काफी उपेक्षा पिछले दिनों बरती गयी है। वह उपेक्षा भौतिकता के नाम पर भी आयी और धार्मिक मूढ़ताओं के कारण भी। जो भी हो मानवी चेतना के परिष्कार का क्रम छूटने की अगणित हानियां मनुष्य समाज को उठानी पड़ी हैं। साधन सम्पन्नता बढ़ने पर भी सुख-संतोष न बढ़ने का कारण यही है।
चेतना परिष्कार का—मानवी अंतः संस्थान को पुष्ट और प्रामाणिक बनाने का बहुत ही सशक्त माध्यम ईश्वर उपासना है। आज बड़े से बड़े वैज्ञानिक भी ब्रह्माण्ड व्यापी किसी चेतन सत्ता कि अस्तित्व को स्वीकार करने लगे हैं। उसकी उपस्थिति का आभास ब्रह्माण्ड से लेकर परमाणु तक में होता है। उसी महत् चेतना का अंश मनुष्य के अन्दर भी है। उसी के नाते मनुष्य अद्भुत, अनुपम कहा जा सकता है। उस चेतना के धूमिल पड़ते ही मनुष्य और पशु में अन्तर नहीं के बराबर ही रह जाता है। अंतःचेतना को जीवन्त एवं प्रखर बनाए रखने का एक ही माध्यम है—उसे महत् चेतना से सम्बद्ध रखना। उस सम्बन्ध को अधिक सघन, अधिक सशक्त बनाना। ईश्वर उपासना इसी प्रक्रिया के विधि-विधान का नाम है।
बिजली घर के साथ सम्बन्ध जुड़े रहने पर ही घर के बल्ब, पंखे, हीटर, रेडियो आदि में गतिशीलता रहती है। सम्बन्ध कट जाने पर यह सब यन्त्र ठीक रहने पर भी निष्क्रिय बन जाते हैं—ईश्वर इस ब्रह्माण्ड में संव्याप्त वह दिव्य चेतना है जिसका एक छोटा अंश तो जीवन-यापन के लिए आवश्यक क्षमता प्राप्त करने जितनी मात्रा में हर किसी को मिला हुआ है। उतने से ही हर प्राणी को अपनी जीवन चर्या चलानी पड़ती है। जीव को ईश्वर का अंश इसी अर्थ में कहा जाता है कि उसे ब्रह्म चेतना की उतनी मात्रा सहज ही उपलब्ध है जिसके आधार पर शरीर में क्रिया शीलता और मन में विचारणा की उतनी क्षमता संजोये रहता है जिससे जीवन यापन के आवश्यक साधन जुटा सके। यह ईश्वरीय अनुदान की सहज स्वाभाविक प्रक्रिया हुई। इससे आगे की बात यह है कि चेतना के उस विशाल सागर में से प्रयत्न पूर्वक अधिक मात्रा में विशिष्टता खींची और धारण की जा सके। इसी प्रयास पुरुषार्थ को उपासना कहते हैं।
सूर्य की धूप हर जगह एक जैसी पड़ती है पर आतिशी शीशे पर कुछ किरणें एकत्रित करने भर से आग जलने जैसी गर्मी उत्पन्न हो सकती है। भगवान की बिखरी हुई सत्ता को आकर्षित एवं एकत्रित करने से व्यक्ति की आत्मिक क्षमता अत्यधिक बढ़ सकती है और उस संचय के बल पर भौतिक दृष्टि से सुसम्पन्न एवं आत्मिक दृष्टि से सुसंस्कृत बना जा सकता है। बिजलीघर में शक्ति का भण्डार भरा रहता है, उस के साथ संबंध जोड़ने वाले सूत्र जितने समर्थ दुर्बल होते हैं उसी अनुपात से बिजली की मात्र का आगमन होता है और उसे मशीनें चलती हैं। हलका फिटिंग तो हर किसी में है और उतने में से थोड़ी शक्ति के कुछ ही बल्ब जल सकते हैं, पर यदि मीटर तथा सम्बन्ध सूत्रों को बलिष्ठ बना दिया जाय तो उसी स्थान पर शक्तिशाली कारखाना धड़धड़ाने लगता है। यह बिजली की अधिक मात्रा प्राप्त होने का परिणाम है।
बादलों से वर्षा होती रहती है और गिरने वाला पानी नालियों से होकर थोड़ी ही देर में अन्यत्र चला जाता है किन्तु जहां जितनी गहराई है वहां उसी अनुपात से पानी के भण्डार जमा होने लगते हैं। सूर्य की किरणों—बिजली की मात्रा—बादलों के अनुदानों की भांति ही ईश्वरीय सामर्थ्य को आत्म सत्ता में एकत्रित कर लेने की बात है। यह कार्य उपासना द्वारा सम्भव होता है। यदि उसे मात्र क्रिया, कृत्य तक सीमित न किया जाय और चिन्तन मनन के तथ्यों को जोड़कर रखा जाय तो निस्संदेह उपासना बहुत ही फलवती हो सकती है। यह दैवी अनुदान भौतिक धन, सम्पत्ति, विद्या, बुद्धि-प्रतिभा, प्रगति आदि साधन जमाकर लेने की तुलना में कम नहीं अधिक ही लाभदायक सिद्ध होता है। मानवी सत्ता में उसकी चेतना ही सब कुछ है। पंच तत्वों से बना कायकलेवर तो औजार उपकरण मात्र है। चेतना में ईश्वरीय प्रखरता बढ़ने और भरने लगे तो समझना चाहिए कि सच्ची, चिरस्थायी एवं सर्वतोमुखी प्रगति का द्वार खुल गया। स्पष्ट है कि मनुष्य के बाह्य जीवन में जैसी भी कुछ परिस्थिति दिखाई पड़ती है वह उसकी आन्तरिक स्थिति का ही परिणाम है। यदि आंतरिक स्थिति में उत्कृष्टता का समावेश हो सके तो निश्चित रूप से बाह्य जीवन समृद्ध एवं सुसंस्कृत होकर ही रहेगा। उपासना से इसी सच्ची प्रगति की भूमिका विनिर्मित होती है।
उपासना का अर्थ है समीप बैठना। शक्तिशाली तत्वों के जितना ही निकट पहुंचते हैं उतना ही उनकी विशिष्टता का लाभ मिलता है। आग के पास जाने से गर्मी मिलती है। चन्दन वृक्ष के पास उगे हुए झाड़-झंखाड़ भी सुगन्धित हो जाते हैं। दुर्गन्ध अथवा सुगन्ध के जितने समीप पहुंचते हैं उतना ही उनकी भली-बुरी अनुभूति होती है। सत्संग और कुसंग के सुखद-दुखद परिणामों में समीपता ही कारण होती है। पारस को छूकर लोहे का सोना बन जाना प्रसिद्ध है। चुम्बक से कुछ समय लोहा सटा रहे तो वह लोह खंड भी चुम्बक की विशेषताओं से युक्त हो जाता है। ईश्वर की समीपता, उपासना—यदि इसी सिद्धान्त को समझते हुए की गई है तो उसका प्रभाव भी ऐसा मंगलमय होना चाहिए। पेड़ का आश्रय पाकर बेल ऊपर चढ़ सकती है जितनी कि वृक्ष की ऊंचाई होती है। वादक के होठों से लगने पर बांसुरी बजती है। पतंग अपनी डोरी-उड़ाने वाले के हाथ में सौंप कर आकाश में ऊंची उड़ने लगती है। कठपुतली के धागे जब बाजीगर की उंगलियों से बंध जाते हैं तो उन लकड़ी के टुकड़ों का मनोरम दिव्य कौशल देखते ही बनता है। उपासना से जीव और ईश्वर की ही निकटता बनती है फलतः उसका लाभ भी वैसा ही हो सकता है जैसा कि इतिहास के पृष्ठों पर अंकित अगणित भक्तजनों को मिलने का उल्लेख है।
उपासना का स्तर यदि और भी गहरा हो जाय और समीपता की श्रद्धा, एक कदम और आगे बढ़कर एकता के स्तर तक पहुंच जाय तो भक्त और भगवान की स्थिति एक जैसी हो जाती है। आग में पड़ी हुई लकड़ी भी जलने लगती है। गंगा में मिलने पर गन्दा नाला भी गंगा जल बन जाता है। पति पत्नी का मान एवं वैभव संयुक्त हो जाता है। बूंद जब समुद्र से मिलती है तो समुद्र ही बन जाती है। दूध और पानी जब परस्पर मिल जाते हैं तो दोनों का भाव एक जैसा हो जाता है। चेतना के संयोग से जड़ शरीर भी विभिन्न प्रकार के महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न करता है। जब यह संयोग वियोग में बदल जाता है तो फिर शरीर को सड़-गल कर नष्ट होते देर नहीं लगती। ऐसी दशा में कुछ काम कर सकना तो सम्भव ही नहीं रहता। ईश्वर और जीव की समीपता, सघनता की बात भी ऐसी ही है। यह महान प्रयोजन उपासना के माध्यम से ही सिद्ध होता है। व्यक्ति और समाज का वास्तविक हित-साधन आस्तिकता को अलग कर देने से संभव न हो सकेगा। आस्तिकता मात्र मान्यता तक सीमित रहे तो वह उथली रहेगी। गहराई और मजबूती रखनी हो तो उपासना द्वारा उसे निरन्तर परिपुष्ट करना होगा, इसलिए प्रत्येक विज्ञ व्यक्ति को निजी जीवन क्रम में उपासना की प्रक्रिया सम्मिलित रखनी चाहिए और उसे अपने-अपने परिवार में आरोपित करने के साथ साथ सामाजिक प्रचलन के रूप में अधिकाधिक व्यापक बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।
उपासना पद्धतियां अनेकानेक प्रचलित हैं। सम्प्रदाय भेद से उनके अनेकों स्वरूप और विधान दृष्टिगोचर होते हैं। इन सभी को मान्यता दी जाती रहे तो दार्शनिक और भावनात्मक विश्रृंखलता बनी ही रहेगी। अगला युग एकता का है। इसके बिना विग्रह बढ़ेंगे और संकट खड़े होंगे। एक भाषा—एक राष्ट्र एवं संस्कृति अपनाये बिना विश्व मानव का स्वरूप ही नहीं निखरेगा। वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना शब्दाडम्बर बनकर ही रह जायगी। मानवी संस्कृति—आचार व्यवहार में एकता स्थापित करनी होगी। साथ ही आस्तिकता का स्वरूप और व्यवहार भी एकता के केन्द्र पर ही केन्द्रित करना होगा। समस्त विश्व में प्रचलित आस्तिकता वादी मान्यताओं और उपासनाओं का सारतत्व ढूंढ़ना हो तो वह गायत्री मन्त्र में बीज रूप से विद्यमान पाया जा सकता है। इसमें सर्वजनीन एवं सार्वभौम बनने योग्य सभी विशिष्टताएं विद्यमान हैं। इन चौबीस अक्षरों में बीज रूप से वह तत्व दर्शन भरा पड़ा है जिसे व्यक्ति और समाज की सुव्यवस्था के लिए एक उच्चस्तरीय आचार संहिता कहा जा सके। इसी प्रकार साधना उपासना से जिन सिद्धियों और विभूतियों की अपेक्षा की जाती है उन समस्त संभावनाओं का आधार इस महामन्त्र में मौजूद है। नवयुग में एक ही उपासना पद्धति अपनानी होगी और तत्व दर्शन की एक धुरी ही रखनी होगी। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए गायत्री मंत्र से बढ़ कर और कोई माध्यम संसार भर में अन्य कोई ढूंढ़ा नहीं जा सकेगा। अस्तु उसका परिचय, प्रचलन एवं आलोक जितनी तत्परता पूर्वक व्यापक बनाया जा सके उतनी ही सरलता से लोक मानस को विश्व मानव के लिए उपयुक्त स्तर का बनाने में सरलता होगी और सफलता मिलती चली जायगी।
उपासना का आधार और प्रभाव
कहा जा चुका है कि उपासना का अर्थ है समीपता। ईश्वर और जीव में यों समीपता ही है। जब भगवान कण-कण में संव्याप्त हैं तब मानवी काया एवं चेतना में भी वे समाये हुए क्यों नहीं होंगे। जो अपने में ओत-प्रोत ही हैं वह दूर कैसे? और जो दूर नहीं है उसकी समीपता का क्या अर्थ? इस असमंजस की विवेचना इस प्रकार होती है कि यह समीपता उथली है, गहरी नहीं। माना कि शरीर में हलचलों के रूप में और मन में चिंतन के रूप में विश्वव्यापी चेतना ही काम कर रही है तो भी स्पष्ट है कि जीव की आस्थाएं एवं आकांक्षाएं दिव्य सत्ता के अनुरूप नहीं हैं। उनमें निकृष्टता का आसुरी अंश ही भरा पड़ा है, मनुष्यता की सार्थकता तभी है जब उसका स्वरूप एवं स्तर भी उसी के अनुरूप ऊंचा उठ सके। निम्न योनियों के जीवधारी पेट और प्रजनन के लिए जीते हैं। स्वार्थ सिद्धि ही उनकी नीति होती है। शरीर गत लाभ ही उनकी प्रेरणा-स्रोत होते हैं। दूसरों के साथ वे आत्मभाव बहुत थोड़ी मात्रा में मिला पाते हैं और परमार्थ परायणता के अंश नगण्य जितने ही देखे जाते हैं। यदि यही अन्तःस्थिति मनुष्य की बनी रहे तो समझना चाहिए कायिक विकास ही हुआ—चेतनात्मक नहीं। आयु की दृष्टि से प्रौढ़ हो जाने पर भी यदि सारा आचार-व्यवहार बच्चे जैसा ही बना रहे तो उस अविकसित स्थिति पर चिन्ता व्यक्त की जायगी। ठीक यही स्थिति उन मनुष्यों की है जो शरीर से तो सुरदुर्लभ काया में प्रवेश पा गये पर उन्होंने अपने दृष्टिकोण में क्रिया-कलाप में वही पिछड़ा हुआ क्रिया-कलाप संजोये रखा।
इस दयनीय स्थिति से पीछा छुड़ाने के लिए ईश्वर की समीपता का, उपासना का, उपक्रम बनाना पड़ता है। संगति का—समीपता का—प्रभाव सर्वविदित है। चन्दन के समीप उगे हुए झाड़-झंखाड़ सुगन्धित हो जाते हैं, कोयले की और गन्धी की दुकान पर बैठने वाले कालोंच का धब्बा और सुगन्ध की छींटा साथ लेकर जाते हैं। दुष्टों की समीपता से दुर्गति और सज्जनों के सान्निध्य से सद्गुणों की वृद्धि और प्रगति की संभावना का साकार होना सर्वविदित है। ईश्वर उत्कृष्टताओं का भाण्डागार है। उसकी समीपता—उपासना से वैसी ही विशेषताओं का बढ़ना स्वाभाविक है। कीट भृंग का उदाहरण प्रसिद्ध है। टिड्डे हरी घास में रहते हैं तो उनका शरीर हरा रहता है, पर जब वे सूखी घास में रहने लगते हैं तो पीले पड़ जाते हैं। तितलियां फूलों के अनुरूप अपने रंग बदलती रहती हैं। समीपता के अनुरूप ढलने के अगणित उदाहरण सर्वत्र पाये जाते हैं। वातावरण की प्रभाव शक्ति को कौन नहीं जानता। व्यक्तित्वों का भला-बुरा निर्माण करने में वातावरण की असाधारण भूमिका रहती है।
उपासना का क्रिया-कृत्य—अंतरंग और बहिरंग स्तर का ऐसा ‘माहौल’ बनना चाहिए जिससे व्यक्ति के भावनात्मक स्तर में उत्कृष्टता की अभिवृद्धि होती हो। बहिरंग वातावरण बनाने में पूजा-उपासना में प्रयुक्त होने वाली प्रतीक प्रतिमा—उसका सज्जा-श्रृंगार, पूजा उपचार में प्रयुक्त होने वाले पदार्थ उपकरण आदि का मिला-जुला स्वरूप अपना काम करता है। पूजा वेदी के समीप बैठने पर ऐसा लगना चाहिए मानो किन्हीं असाधारण दिव्य परिस्थितियों में जा पहुंचे। मन्दिर, देवालय, पूजागृह, देवीपीठ, आराधना कक्ष को बनाने में उपयुक्त वातावरण बनाने का तथ्य ही प्रधान रूप से काम करता है। वहां के सुसज्जा साधन संजोने में इसी बात का ध्यान रखा जाता है कि उस स्थान में जाते ही मन अपने आपको पवित्रता की दिव्य परिस्थितियों से घिरा हुआ अनुभव करने लगे। सामान्य वातावरण से उपासना कक्ष का वातावरण भिन्न रखा जाता है और वहां की परिस्थितियां ऐसी बनाई जाती हैं जिनमें बैठने पर उत्कृष्टता की अनुभूति बढ़ने में सुविधा मिल सके।
उपासना का दूसरा आधार कर्मकाण्डों का क्रिया-कृत्य और तीसरा आधार भावना के क्षेत्र में दिव्य उभार उत्पन्न करना होता है। यह दोनों ही आधार अपने आप में अति महत्वपूर्ण हैं। उनसे चेतना को बदलने एवं ढालने में असाधारण सहायता मिलती है।
कर्मकाण्ड वे कृत्य हैं जो शरीर के विभिन्न अवयवों की सहायता से—उपचार उपकरणों के द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं। षोडशोपचार देव पूजन—आत्मशोधन के विभिन्न क्रिया-कृत्य इसी श्रेणी में आते हैं। मन पर छाप डालने में विचार और कर्म का समन्वय करना पड़ता है। चित्त पर स्थिर संस्कार डालने के लिए अभीष्ट विचारों के साथ-साथ उनके पूरक कृत्य होने ही चाहिए अन्यथा कल्पना केवल कल्पना बनकर हवा में उड़ जाती है। विचारणा के साथ क्रिया का समन्वय न कर सकने पर भी जो लोग सफलताएं चाहते हैं उन्हें शेख चिल्ली कहकर उपहासास्पद किया जाता है। हर क्षेत्र में विचार और कर्म का समन्वय ही प्रतिफल उत्पन्न करता है। उपासना में ईश्वरीय सान्निध्य की कल्पना ही नहीं अनुभूति भी अपेक्षित होती है। भावनिष्ठा को क्रियान्वित होते देखकर ही ऐसी मनःस्थिति बनती है। इसलिए यह सोचना होता है कि परमेश्वर प्रत्यक्ष ही सचमुच ही सामने विराजमान है और उनकी किसी जीवित व्यक्ति के उपस्थित होने पर, की जाने जैसी अभ्यर्थना की जा रही है। आत्मशोधन और देवपूजन के दोनों ही कृत्यों में इसी प्रकार का भाव समन्वय होता है। वह यदि बेगार भुगतने के उथले मन से किया गया है और जैसे-तैसे परम्परा गत लकीर पीटी गई हो तो बात दूसरी है अन्यथा जिस प्रयोजन के लिए यह प्रचलन हुआ है उसे ध्यान में रखकर चला जाय तो अन्तःक्षेत्र में अभीष्ट निष्ठा होगी और लगेगा कि निराकार परमेश्वर अपेक्षाकृत अधिक सघन—अधिक साकार—बनकर सामने आया है।
उपासना का तीसरा प्रयोजन है मनःक्षेत्र पर ईश्वरीय सान्निध्य का चिन्तन घटाटोप की तरह छाये रहना। सामान्य जीवन में आत्म-सत्ता शरीर रूप में ही काम करती है अस्तु अपना आपा शरीर मात्र ही अनुभव होने लगता है। शरीर से सम्बन्धित समस्याओं का विस्तार अत्यधिक है। उनके खट्टे-मीठे स्वाद भी चित्र-विचित्र हैं और वे सभी बड़े आकर्षक हैं। यों प्रिय-अप्रिय स्तर की परस्पर विरोधी अनुभूतियां सामने आती हैं, पर वे दोनों ही अपने-अपने ढंग के गहरे प्रभाव चेतना पर छोड़ती हैं। सफलताएं अपने ढंग का प्रभाव डालती हैं, असफलताएं दूसरे ढंग का। लाभ में एक प्रकार का अनुभव होता है, हानि में दूसरे तरह का। एक स्थिति प्रिय लगती है। दूसरी अप्रिय। इतना होते हुए भी दोनों की स्थितियों की गहरी छाप पड़ती है। सफलता का हर्षोन्माद और असफलता का शोक-सन्ताप दोनों ही अपने प्रभाव छोड़ते और चेतना को आवेशग्रस्त बनाते हैं। ज्वार-भाटे जैसे—यह आवेश-अवसाद सामयिक अनुभूति बनकर ही समाप्त नहीं हो जाते वरन् पीछे भी बहुत समय तक उनकी उत्तेजित प्रतिक्रिया बनी रहती है। ऐसे क्षण बहुत ही कम आते हैं जिनमें चित्त शान्त-सन्तुलित रहता हो और आत्म सत्ता के साथ जुड़ी हुई समस्याओं को हल करने की बात सूझ पड़ती हो। यही कारण है कि हम भौतिक आवश्यकता और समस्याओं को ही सब कुछ मान लेते हैं और उन्हीं के जाल-जंजाल में उलझे, जकड़े पड़े रहते हैं। आत्मिक जीवन का स्वरूप भी सामने नहीं आ पाता फिर उनका समाधान सूझे तो कैसे? स्पष्ट है कि आत्मिक समस्याओं का समाधान हुए बिना न तो भौतिक जीवन का रस पिया जा सकता है और न जीवन लक्ष्य को पूरा करने की बात बनती है।
आवश्यक है कि कुछ समय हमारे पास ऐसा हो जिसमें भौतिक जीवन को एक प्रकार से पूरी तरह ही भुला दिया जाय और उन क्षणों में केवल आत्मा का स्वरूप, जीवन लक्ष्य एवं परमात्म सान्निध्य के अतिरिक्त और कुछ सूझ ही न पड़े। यही उपासना काल है। यह सही हुई या गलत, इसकी पहचान इतनी ही है कि उन क्षणों में मनःक्षेत्र पर आत्मिक स्तर का चिन्तन छाया रहा या भौतिक स्तर का। यदि सांसारिक मनोकामनाओं की उथल-पुथल मची हुई है और इष्टदेव से तरह-तरह के भौतिक वरदान पाने की ललक उठ रही हो तो समझना चाहिए कि यह उपासना कृत्य भी विशुद्ध रूप से भौतिक है। इससे आत्मिक प्रगति जैसा कोई लाभ मिल नहीं सकेगा। यदि उतने समय शरीर रहित—भौतिक प्रभावों से मुक्त—ज्योतिर्मय आत्मा ही ध्यान में है और उसमें महा ज्योति के साथ समन्वित हो जाने की दीप-पतंग जैसी आकांक्षा उठ रही है, तो समझना चाहिए कि उपासना का सच्चा स्वरूप अपना लिया गया और उससे अभीष्ट उद्देश्य पूरा हो सकने की सम्भावना बन रही है।
मनुष्य के भौतिक पक्ष शरीर से लेकर परिस्थितियों तक के सुधार-संभाल के लिए अनेकानेक माध्यम विकसित हो गये हैं और हो रहे हैं, किन्तु चेतना के परिष्कार की ओर काफी उपेक्षा पिछले दिनों बरती गयी है। वह उपेक्षा भौतिकता के नाम पर भी आयी और धार्मिक मूढ़ताओं के कारण भी। जो भी हो मानवी चेतना के परिष्कार का क्रम छूटने की अगणित हानियां मनुष्य समाज को उठानी पड़ी हैं। साधन सम्पन्नता बढ़ने पर भी सुख-संतोष न बढ़ने का कारण यही है।
चेतना परिष्कार का—मानवी अंतः संस्थान को पुष्ट और प्रामाणिक बनाने का बहुत ही सशक्त माध्यम ईश्वर उपासना है। आज बड़े से बड़े वैज्ञानिक भी ब्रह्माण्ड व्यापी किसी चेतन सत्ता कि अस्तित्व को स्वीकार करने लगे हैं। उसकी उपस्थिति का आभास ब्रह्माण्ड से लेकर परमाणु तक में होता है। उसी महत् चेतना का अंश मनुष्य के अन्दर भी है। उसी के नाते मनुष्य अद्भुत, अनुपम कहा जा सकता है। उस चेतना के धूमिल पड़ते ही मनुष्य और पशु में अन्तर नहीं के बराबर ही रह जाता है। अंतःचेतना को जीवन्त एवं प्रखर बनाए रखने का एक ही माध्यम है—उसे महत् चेतना से सम्बद्ध रखना। उस सम्बन्ध को अधिक सघन, अधिक सशक्त बनाना। ईश्वर उपासना इसी प्रक्रिया के विधि-विधान का नाम है।
बिजली घर के साथ सम्बन्ध जुड़े रहने पर ही घर के बल्ब, पंखे, हीटर, रेडियो आदि में गतिशीलता रहती है। सम्बन्ध कट जाने पर यह सब यन्त्र ठीक रहने पर भी निष्क्रिय बन जाते हैं—ईश्वर इस ब्रह्माण्ड में संव्याप्त वह दिव्य चेतना है जिसका एक छोटा अंश तो जीवन-यापन के लिए आवश्यक क्षमता प्राप्त करने जितनी मात्रा में हर किसी को मिला हुआ है। उतने से ही हर प्राणी को अपनी जीवन चर्या चलानी पड़ती है। जीव को ईश्वर का अंश इसी अर्थ में कहा जाता है कि उसे ब्रह्म चेतना की उतनी मात्रा सहज ही उपलब्ध है जिसके आधार पर शरीर में क्रिया शीलता और मन में विचारणा की उतनी क्षमता संजोये रहता है जिससे जीवन यापन के आवश्यक साधन जुटा सके। यह ईश्वरीय अनुदान की सहज स्वाभाविक प्रक्रिया हुई। इससे आगे की बात यह है कि चेतना के उस विशाल सागर में से प्रयत्न पूर्वक अधिक मात्रा में विशिष्टता खींची और धारण की जा सके। इसी प्रयास पुरुषार्थ को उपासना कहते हैं।
सूर्य की धूप हर जगह एक जैसी पड़ती है पर आतिशी शीशे पर कुछ किरणें एकत्रित करने भर से आग जलने जैसी गर्मी उत्पन्न हो सकती है। भगवान की बिखरी हुई सत्ता को आकर्षित एवं एकत्रित करने से व्यक्ति की आत्मिक क्षमता अत्यधिक बढ़ सकती है और उस संचय के बल पर भौतिक दृष्टि से सुसम्पन्न एवं आत्मिक दृष्टि से सुसंस्कृत बना जा सकता है। बिजलीघर में शक्ति का भण्डार भरा रहता है, उस के साथ संबंध जोड़ने वाले सूत्र जितने समर्थ दुर्बल होते हैं उसी अनुपात से बिजली की मात्र का आगमन होता है और उसे मशीनें चलती हैं। हलका फिटिंग तो हर किसी में है और उतने में से थोड़ी शक्ति के कुछ ही बल्ब जल सकते हैं, पर यदि मीटर तथा सम्बन्ध सूत्रों को बलिष्ठ बना दिया जाय तो उसी स्थान पर शक्तिशाली कारखाना धड़धड़ाने लगता है। यह बिजली की अधिक मात्रा प्राप्त होने का परिणाम है।
बादलों से वर्षा होती रहती है और गिरने वाला पानी नालियों से होकर थोड़ी ही देर में अन्यत्र चला जाता है किन्तु जहां जितनी गहराई है वहां उसी अनुपात से पानी के भण्डार जमा होने लगते हैं। सूर्य की किरणों—बिजली की मात्रा—बादलों के अनुदानों की भांति ही ईश्वरीय सामर्थ्य को आत्म सत्ता में एकत्रित कर लेने की बात है। यह कार्य उपासना द्वारा सम्भव होता है। यदि उसे मात्र क्रिया, कृत्य तक सीमित न किया जाय और चिन्तन मनन के तथ्यों को जोड़कर रखा जाय तो निस्संदेह उपासना बहुत ही फलवती हो सकती है। यह दैवी अनुदान भौतिक धन, सम्पत्ति, विद्या, बुद्धि-प्रतिभा, प्रगति आदि साधन जमाकर लेने की तुलना में कम नहीं अधिक ही लाभदायक सिद्ध होता है। मानवी सत्ता में उसकी चेतना ही सब कुछ है। पंच तत्वों से बना कायकलेवर तो औजार उपकरण मात्र है। चेतना में ईश्वरीय प्रखरता बढ़ने और भरने लगे तो समझना चाहिए कि सच्ची, चिरस्थायी एवं सर्वतोमुखी प्रगति का द्वार खुल गया। स्पष्ट है कि मनुष्य के बाह्य जीवन में जैसी भी कुछ परिस्थिति दिखाई पड़ती है वह उसकी आन्तरिक स्थिति का ही परिणाम है। यदि आंतरिक स्थिति में उत्कृष्टता का समावेश हो सके तो निश्चित रूप से बाह्य जीवन समृद्ध एवं सुसंस्कृत होकर ही रहेगा। उपासना से इसी सच्ची प्रगति की भूमिका विनिर्मित होती है।
उपासना का अर्थ है समीप बैठना। शक्तिशाली तत्वों के जितना ही निकट पहुंचते हैं उतना ही उनकी विशिष्टता का लाभ मिलता है। आग के पास जाने से गर्मी मिलती है। चन्दन वृक्ष के पास उगे हुए झाड़-झंखाड़ भी सुगन्धित हो जाते हैं। दुर्गन्ध अथवा सुगन्ध के जितने समीप पहुंचते हैं उतना ही उनकी भली-बुरी अनुभूति होती है। सत्संग और कुसंग के सुखद-दुखद परिणामों में समीपता ही कारण होती है। पारस को छूकर लोहे का सोना बन जाना प्रसिद्ध है। चुम्बक से कुछ समय लोहा सटा रहे तो वह लोह खंड भी चुम्बक की विशेषताओं से युक्त हो जाता है। ईश्वर की समीपता, उपासना—यदि इसी सिद्धान्त को समझते हुए की गई है तो उसका प्रभाव भी ऐसा मंगलमय होना चाहिए। पेड़ का आश्रय पाकर बेल ऊपर चढ़ सकती है जितनी कि वृक्ष की ऊंचाई होती है। वादक के होठों से लगने पर बांसुरी बजती है। पतंग अपनी डोरी-उड़ाने वाले के हाथ में सौंप कर आकाश में ऊंची उड़ने लगती है। कठपुतली के धागे जब बाजीगर की उंगलियों से बंध जाते हैं तो उन लकड़ी के टुकड़ों का मनोरम दिव्य कौशल देखते ही बनता है। उपासना से जीव और ईश्वर की ही निकटता बनती है फलतः उसका लाभ भी वैसा ही हो सकता है जैसा कि इतिहास के पृष्ठों पर अंकित अगणित भक्तजनों को मिलने का उल्लेख है।
उपासना का स्तर यदि और भी गहरा हो जाय और समीपता की श्रद्धा, एक कदम और आगे बढ़कर एकता के स्तर तक पहुंच जाय तो भक्त और भगवान की स्थिति एक जैसी हो जाती है। आग में पड़ी हुई लकड़ी भी जलने लगती है। गंगा में मिलने पर गन्दा नाला भी गंगा जल बन जाता है। पति पत्नी का मान एवं वैभव संयुक्त हो जाता है। बूंद जब समुद्र से मिलती है तो समुद्र ही बन जाती है। दूध और पानी जब परस्पर मिल जाते हैं तो दोनों का भाव एक जैसा हो जाता है। चेतना के संयोग से जड़ शरीर भी विभिन्न प्रकार के महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न करता है। जब यह संयोग वियोग में बदल जाता है तो फिर शरीर को सड़-गल कर नष्ट होते देर नहीं लगती। ऐसी दशा में कुछ काम कर सकना तो सम्भव ही नहीं रहता। ईश्वर और जीव की समीपता, सघनता की बात भी ऐसी ही है। यह महान प्रयोजन उपासना के माध्यम से ही सिद्ध होता है। व्यक्ति और समाज का वास्तविक हित-साधन आस्तिकता को अलग कर देने से संभव न हो सकेगा। आस्तिकता मात्र मान्यता तक सीमित रहे तो वह उथली रहेगी। गहराई और मजबूती रखनी हो तो उपासना द्वारा उसे निरन्तर परिपुष्ट करना होगा, इसलिए प्रत्येक विज्ञ व्यक्ति को निजी जीवन क्रम में उपासना की प्रक्रिया सम्मिलित रखनी चाहिए और उसे अपने-अपने परिवार में आरोपित करने के साथ साथ सामाजिक प्रचलन के रूप में अधिकाधिक व्यापक बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।
उपासना पद्धतियां अनेकानेक प्रचलित हैं। सम्प्रदाय भेद से उनके अनेकों स्वरूप और विधान दृष्टिगोचर होते हैं। इन सभी को मान्यता दी जाती रहे तो दार्शनिक और भावनात्मक विश्रृंखलता बनी ही रहेगी। अगला युग एकता का है। इसके बिना विग्रह बढ़ेंगे और संकट खड़े होंगे। एक भाषा—एक राष्ट्र एवं संस्कृति अपनाये बिना विश्व मानव का स्वरूप ही नहीं निखरेगा। वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना शब्दाडम्बर बनकर ही रह जायगी। मानवी संस्कृति—आचार व्यवहार में एकता स्थापित करनी होगी। साथ ही आस्तिकता का स्वरूप और व्यवहार भी एकता के केन्द्र पर ही केन्द्रित करना होगा। समस्त विश्व में प्रचलित आस्तिकता वादी मान्यताओं और उपासनाओं का सारतत्व ढूंढ़ना हो तो वह गायत्री मन्त्र में बीज रूप से विद्यमान पाया जा सकता है। इसमें सर्वजनीन एवं सार्वभौम बनने योग्य सभी विशिष्टताएं विद्यमान हैं। इन चौबीस अक्षरों में बीज रूप से वह तत्व दर्शन भरा पड़ा है जिसे व्यक्ति और समाज की सुव्यवस्था के लिए एक उच्चस्तरीय आचार संहिता कहा जा सके। इसी प्रकार साधना उपासना से जिन सिद्धियों और विभूतियों की अपेक्षा की जाती है उन समस्त संभावनाओं का आधार इस महामन्त्र में मौजूद है। नवयुग में एक ही उपासना पद्धति अपनानी होगी और तत्व दर्शन की एक धुरी ही रखनी होगी। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए गायत्री मंत्र से बढ़ कर और कोई माध्यम संसार भर में अन्य कोई ढूंढ़ा नहीं जा सकेगा। अस्तु उसका परिचय, प्रचलन एवं आलोक जितनी तत्परता पूर्वक व्यापक बनाया जा सके उतनी ही सरलता से लोक मानस को विश्व मानव के लिए उपयुक्त स्तर का बनाने में सरलता होगी और सफलता मिलती चली जायगी।
उपासना का आधार और प्रभाव
कहा जा चुका है कि उपासना का अर्थ है समीपता। ईश्वर और जीव में यों समीपता ही है। जब भगवान कण-कण में संव्याप्त हैं तब मानवी काया एवं चेतना में भी वे समाये हुए क्यों नहीं होंगे। जो अपने में ओत-प्रोत ही हैं वह दूर कैसे? और जो दूर नहीं है उसकी समीपता का क्या अर्थ? इस असमंजस की विवेचना इस प्रकार होती है कि यह समीपता उथली है, गहरी नहीं। माना कि शरीर में हलचलों के रूप में और मन में चिंतन के रूप में विश्वव्यापी चेतना ही काम कर रही है तो भी स्पष्ट है कि जीव की आस्थाएं एवं आकांक्षाएं दिव्य सत्ता के अनुरूप नहीं हैं। उनमें निकृष्टता का आसुरी अंश ही भरा पड़ा है, मनुष्यता की सार्थकता तभी है जब उसका स्वरूप एवं स्तर भी उसी के अनुरूप ऊंचा उठ सके। निम्न योनियों के जीवधारी पेट और प्रजनन के लिए जीते हैं। स्वार्थ सिद्धि ही उनकी नीति होती है। शरीर गत लाभ ही उनकी प्रेरणा-स्रोत होते हैं। दूसरों के साथ वे आत्मभाव बहुत थोड़ी मात्रा में मिला पाते हैं और परमार्थ परायणता के अंश नगण्य जितने ही देखे जाते हैं। यदि यही अन्तःस्थिति मनुष्य की बनी रहे तो समझना चाहिए कायिक विकास ही हुआ—चेतनात्मक नहीं। आयु की दृष्टि से प्रौढ़ हो जाने पर भी यदि सारा आचार-व्यवहार बच्चे जैसा ही बना रहे तो उस अविकसित स्थिति पर चिन्ता व्यक्त की जायगी। ठीक यही स्थिति उन मनुष्यों की है जो शरीर से तो सुरदुर्लभ काया में प्रवेश पा गये पर उन्होंने अपने दृष्टिकोण में क्रिया-कलाप में वही पिछड़ा हुआ क्रिया-कलाप संजोये रखा।
इस दयनीय स्थिति से पीछा छुड़ाने के लिए ईश्वर की समीपता का, उपासना का, उपक्रम बनाना पड़ता है। संगति का—समीपता का—प्रभाव सर्वविदित है। चन्दन के समीप उगे हुए झाड़-झंखाड़ सुगन्धित हो जाते हैं, कोयले की और गन्धी की दुकान पर बैठने वाले कालोंच का धब्बा और सुगन्ध की छींटा साथ लेकर जाते हैं। दुष्टों की समीपता से दुर्गति और सज्जनों के सान्निध्य से सद्गुणों की वृद्धि और प्रगति की संभावना का साकार होना सर्वविदित है। ईश्वर उत्कृष्टताओं का भाण्डागार है। उसकी समीपता—उपासना से वैसी ही विशेषताओं का बढ़ना स्वाभाविक है। कीट भृंग का उदाहरण प्रसिद्ध है। टिड्डे हरी घास में रहते हैं तो उनका शरीर हरा रहता है, पर जब वे सूखी घास में रहने लगते हैं तो पीले पड़ जाते हैं। तितलियां फूलों के अनुरूप अपने रंग बदलती रहती हैं। समीपता के अनुरूप ढलने के अगणित उदाहरण सर्वत्र पाये जाते हैं। वातावरण की प्रभाव शक्ति को कौन नहीं जानता। व्यक्तित्वों का भला-बुरा निर्माण करने में वातावरण की असाधारण भूमिका रहती है।
उपासना का क्रिया-कृत्य—अंतरंग और बहिरंग स्तर का ऐसा ‘माहौल’ बनना चाहिए जिससे व्यक्ति के भावनात्मक स्तर में उत्कृष्टता की अभिवृद्धि होती हो। बहिरंग वातावरण बनाने में पूजा-उपासना में प्रयुक्त होने वाली प्रतीक प्रतिमा—उसका सज्जा-श्रृंगार, पूजा उपचार में प्रयुक्त होने वाले पदार्थ उपकरण आदि का मिला-जुला स्वरूप अपना काम करता है। पूजा वेदी के समीप बैठने पर ऐसा लगना चाहिए मानो किन्हीं असाधारण दिव्य परिस्थितियों में जा पहुंचे। मन्दिर, देवालय, पूजागृह, देवीपीठ, आराधना कक्ष को बनाने में उपयुक्त वातावरण बनाने का तथ्य ही प्रधान रूप से काम करता है। वहां के सुसज्जा साधन संजोने में इसी बात का ध्यान रखा जाता है कि उस स्थान में जाते ही मन अपने आपको पवित्रता की दिव्य परिस्थितियों से घिरा हुआ अनुभव करने लगे। सामान्य वातावरण से उपासना कक्ष का वातावरण भिन्न रखा जाता है और वहां की परिस्थितियां ऐसी बनाई जाती हैं जिनमें बैठने पर उत्कृष्टता की अनुभूति बढ़ने में सुविधा मिल सके।
उपासना का दूसरा आधार कर्मकाण्डों का क्रिया-कृत्य और तीसरा आधार भावना के क्षेत्र में दिव्य उभार उत्पन्न करना होता है। यह दोनों ही आधार अपने आप में अति महत्वपूर्ण हैं। उनसे चेतना को बदलने एवं ढालने में असाधारण सहायता मिलती है।
कर्मकाण्ड वे कृत्य हैं जो शरीर के विभिन्न अवयवों की सहायता से—उपचार उपकरणों के द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं। षोडशोपचार देव पूजन—आत्मशोधन के विभिन्न क्रिया-कृत्य इसी श्रेणी में आते हैं। मन पर छाप डालने में विचार और कर्म का समन्वय करना पड़ता है। चित्त पर स्थिर संस्कार डालने के लिए अभीष्ट विचारों के साथ-साथ उनके पूरक कृत्य होने ही चाहिए अन्यथा कल्पना केवल कल्पना बनकर हवा में उड़ जाती है। विचारणा के साथ क्रिया का समन्वय न कर सकने पर भी जो लोग सफलताएं चाहते हैं उन्हें शेख चिल्ली कहकर उपहासास्पद किया जाता है। हर क्षेत्र में विचार और कर्म का समन्वय ही प्रतिफल उत्पन्न करता है। उपासना में ईश्वरीय सान्निध्य की कल्पना ही नहीं अनुभूति भी अपेक्षित होती है। भावनिष्ठा को क्रियान्वित होते देखकर ही ऐसी मनःस्थिति बनती है। इसलिए यह सोचना होता है कि परमेश्वर प्रत्यक्ष ही सचमुच ही सामने विराजमान है और उनकी किसी जीवित व्यक्ति के उपस्थित होने पर, की जाने जैसी अभ्यर्थना की जा रही है। आत्मशोधन और देवपूजन के दोनों ही कृत्यों में इसी प्रकार का भाव समन्वय होता है। वह यदि बेगार भुगतने के उथले मन से किया गया है और जैसे-तैसे परम्परा गत लकीर पीटी गई हो तो बात दूसरी है अन्यथा जिस प्रयोजन के लिए यह प्रचलन हुआ है उसे ध्यान में रखकर चला जाय तो अन्तःक्षेत्र में अभीष्ट निष्ठा होगी और लगेगा कि निराकार परमेश्वर अपेक्षाकृत अधिक सघन—अधिक साकार—बनकर सामने आया है।
उपासना का तीसरा प्रयोजन है मनःक्षेत्र पर ईश्वरीय सान्निध्य का चिन्तन घटाटोप की तरह छाये रहना। सामान्य जीवन में आत्म-सत्ता शरीर रूप में ही काम करती है अस्तु अपना आपा शरीर मात्र ही अनुभव होने लगता है। शरीर से सम्बन्धित समस्याओं का विस्तार अत्यधिक है। उनके खट्टे-मीठे स्वाद भी चित्र-विचित्र हैं और वे सभी बड़े आकर्षक हैं। यों प्रिय-अप्रिय स्तर की परस्पर विरोधी अनुभूतियां सामने आती हैं, पर वे दोनों ही अपने-अपने ढंग के गहरे प्रभाव चेतना पर छोड़ती हैं। सफलताएं अपने ढंग का प्रभाव डालती हैं, असफलताएं दूसरे ढंग का। लाभ में एक प्रकार का अनुभव होता है, हानि में दूसरे तरह का। एक स्थिति प्रिय लगती है। दूसरी अप्रिय। इतना होते हुए भी दोनों की स्थितियों की गहरी छाप पड़ती है। सफलता का हर्षोन्माद और असफलता का शोक-सन्ताप दोनों ही अपने प्रभाव छोड़ते और चेतना को आवेशग्रस्त बनाते हैं। ज्वार-भाटे जैसे—यह आवेश-अवसाद सामयिक अनुभूति बनकर ही समाप्त नहीं हो जाते वरन् पीछे भी बहुत समय तक उनकी उत्तेजित प्रतिक्रिया बनी रहती है। ऐसे क्षण बहुत ही कम आते हैं जिनमें चित्त शान्त-सन्तुलित रहता हो और आत्म सत्ता के साथ जुड़ी हुई समस्याओं को हल करने की बात सूझ पड़ती हो। यही कारण है कि हम भौतिक आवश्यकता और समस्याओं को ही सब कुछ मान लेते हैं और उन्हीं के जाल-जंजाल में उलझे, जकड़े पड़े रहते हैं। आत्मिक जीवन का स्वरूप भी सामने नहीं आ पाता फिर उनका समाधान सूझे तो कैसे? स्पष्ट है कि आत्मिक समस्याओं का समाधान हुए बिना न तो भौतिक जीवन का रस पिया जा सकता है और न जीवन लक्ष्य को पूरा करने की बात बनती है।
आवश्यक है कि कुछ समय हमारे पास ऐसा हो जिसमें भौतिक जीवन को एक प्रकार से पूरी तरह ही भुला दिया जाय और उन क्षणों में केवल आत्मा का स्वरूप, जीवन लक्ष्य एवं परमात्म सान्निध्य के अतिरिक्त और कुछ सूझ ही न पड़े। यही उपासना काल है। यह सही हुई या गलत, इसकी पहचान इतनी ही है कि उन क्षणों में मनःक्षेत्र पर आत्मिक स्तर का चिन्तन छाया रहा या भौतिक स्तर का। यदि सांसारिक मनोकामनाओं की उथल-पुथल मची हुई है और इष्टदेव से तरह-तरह के भौतिक वरदान पाने की ललक उठ रही हो तो समझना चाहिए कि यह उपासना कृत्य भी विशुद्ध रूप से भौतिक है। इससे आत्मिक प्रगति जैसा कोई लाभ मिल नहीं सकेगा। यदि उतने समय शरीर रहित—भौतिक प्रभावों से मुक्त—ज्योतिर्मय आत्मा ही ध्यान में है और उसमें महा ज्योति के साथ समन्वित हो जाने की दीप-पतंग जैसी आकांक्षा उठ रही है, तो समझना चाहिए कि उपासना का सच्चा स्वरूप अपना लिया गया और उससे अभीष्ट उद्देश्य पूरा हो सकने की सम्भावना बन रही है।