
गुरुवर ऐसी शक्ति हमें दो
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मुक्तक-
गुरुवर के अनुदानों से, जीवन को धन्य बनायें।
गुरु पूर्णिमा महापर्व में, श्रद्धा सुमन चढ़ायें।।
नकारः प्राणानामानं दकारमनलं विदुः।
जातः प्राणाग्रि संयोगात्तेन नादऽभिधीयते।।
(संगीत रत्नाकर)
गुरुवर ऐसी शक्ति हमें दो
गुरुवर ऐसी शक्ति हमें दो, सच्चे शिष्य कहाएँ हम।
नवयुग के इस नए सृजन में, सहयोगी बन जाएँ हम॥
हमने किया प्रचार अभी तक, नगर गाँव- गलियारों में।
यज्ञ और गायत्री पहुँचे घर- आँगन में॥
यह था पहला चरण वंन्दिनी माँ पहुँची सन्तानों तक।
ऐसी दो सामर्थ्य कि पहुँचे, हम अगले सोपानों तक॥
महाकाल के महाकार्य के, उपयोगी बन जाएँ हम॥
ऐसी देना दृष्टि न पल भर, लक्ष्य आँख से ओझल हो।
हर सूखी धरती पर झरता, भावों का गंगाजल हो॥
ऐसी देना शक्ति कि साहस, कभी नहीं चुकने पाए।
देख विघ्न अवरोध पाँव की, गति न कहीं रूकने पाए॥
कहीं सघन शीतल अमराई, देख नहीं ललचाएँ हम॥
ऐसा भरना भाव कि जग का, मन कृतज्ञ बनता जाए।
सारा जीवन बने साधना, कर्म यज्ञ बनता जाए॥
हम पदार्थ की आहुति से, सुख की आहुति देना सीखें।
हम समाज के अगणित मनकों में, हीरे जैसे दीखें॥
प्रभु की अनुकम्पा से सागर, पर पत्थर तैराएँ हम॥
गायत्री की शरणागति से, कायाकल्प हमारा हो।
मन का मंगलमय विचार तब, दृढ़ संकल्प हमारा हो॥
रोम- रोम में, मन प्राणों में, उसका तेज झलकता हो।
वह चरित्र चिन्तन में बनकर, स्वर्णिम सूर्य दमकता हो॥
उसका सही स्वरूप मनुजता को, साक्षात दिखाएँ हम॥
गुरुवर के अनुदानों से, जीवन को धन्य बनायें।
गुरु पूर्णिमा महापर्व में, श्रद्धा सुमन चढ़ायें।।
नकारः प्राणानामानं दकारमनलं विदुः।
जातः प्राणाग्रि संयोगात्तेन नादऽभिधीयते।।
(संगीत रत्नाकर)
गुरुवर ऐसी शक्ति हमें दो
गुरुवर ऐसी शक्ति हमें दो, सच्चे शिष्य कहाएँ हम।
नवयुग के इस नए सृजन में, सहयोगी बन जाएँ हम॥
हमने किया प्रचार अभी तक, नगर गाँव- गलियारों में।
यज्ञ और गायत्री पहुँचे घर- आँगन में॥
यह था पहला चरण वंन्दिनी माँ पहुँची सन्तानों तक।
ऐसी दो सामर्थ्य कि पहुँचे, हम अगले सोपानों तक॥
महाकाल के महाकार्य के, उपयोगी बन जाएँ हम॥
ऐसी देना दृष्टि न पल भर, लक्ष्य आँख से ओझल हो।
हर सूखी धरती पर झरता, भावों का गंगाजल हो॥
ऐसी देना शक्ति कि साहस, कभी नहीं चुकने पाए।
देख विघ्न अवरोध पाँव की, गति न कहीं रूकने पाए॥
कहीं सघन शीतल अमराई, देख नहीं ललचाएँ हम॥
ऐसा भरना भाव कि जग का, मन कृतज्ञ बनता जाए।
सारा जीवन बने साधना, कर्म यज्ञ बनता जाए॥
हम पदार्थ की आहुति से, सुख की आहुति देना सीखें।
हम समाज के अगणित मनकों में, हीरे जैसे दीखें॥
प्रभु की अनुकम्पा से सागर, पर पत्थर तैराएँ हम॥
गायत्री की शरणागति से, कायाकल्प हमारा हो।
मन का मंगलमय विचार तब, दृढ़ संकल्प हमारा हो॥
रोम- रोम में, मन प्राणों में, उसका तेज झलकता हो।
वह चरित्र चिन्तन में बनकर, स्वर्णिम सूर्य दमकता हो॥
उसका सही स्वरूप मनुजता को, साक्षात दिखाएँ हम॥