Books - हम सब एक दूसरे पर निर्भर
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Language: HINDI
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सुख भोग में नहीं—त्याग परोपकार में है
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मनुष्य जैसे विकसित प्राणी के लिये सुख पाने की लालसा स्वाभाविक है। सुख पाने की चेष्टा प्रत्येक प्राणी करता है। यह चेष्टा ही एक ऐसी चाबी है जिससे जीवन रूपी घड़ी निरन्तर क्रियाशील रहती है। घड़ी में चाबी नहीं देने पर वह बन्द हो जाती है उसी प्रकार यदि सुख पाने की चेष्टा समाप्त हो जाय तो वह जीवित रहते हुए भी मर जाता है।
सुख का आधार व्यक्ति की मनोभूमि पर आधारित होता है। इस कारण यह नहीं कहा जा सकता कि अमुक वस्तु के उपभोग में सुख मिलता है। सुअर के लिये गन्दगी, कीचड़, दुर्गन्ध सुखदायक है, क्योंकि उसकी मनःस्थिति इसी प्रकार की है किन्तु मनुष्य के लिये वही सब दुःखदायी होती है। यही नहीं भिन्न-भिन्न मनःस्थिति के मनुष्यों में भी सुख सामग्रियां भिन्न-भिन्न होती हैं। शराब पीने वाले व्यक्ति के लिये शराब सुख प्रदान करती है किन्तु जो इस विभीषिका से परिचित है वह तो इसे छूना भी पाप समझता है। ईश्वर ने जितनी सुख सुविधायें मनुष्य को प्रदान की हैं अन्य जीव को प्रदान नहीं की। मनुष्य का अन्तःकरण विवेक से परिपूर्ण है। वह इन क्षमताओं तथा उपलब्धियों का प्रयोग उसकी सृष्टि को सुन्दर सुखी तथा सम्पन्न बनाने में लगाये इसी हेतु उसे यह सब प्राप्त हुआ है। इसी के आधार पर मनुष्य तथा पशुओं में सीमा रेखा निर्धारित की जानी चाहिये तभी मानव जीवन की उत्कृष्टता तथा सार्थकता सिद्ध हो सकती है।
मानवोचित सुख पशुओं के सुख से कुछ भिन्न अवश्य होना चाहिये। भोग से सुख मिलता है वह केवल इन्द्रियों को तृप्त करता है। यह तृप्ति क्षणिक होती है। आग में घी डालने की तरह मरुभूमि में प्यास बुझाने की लालसा से मृगतृष्णा के भुलावे में भटकाने वाली यह इन्द्रियजन्य वासना पाशविक सुख से भी निकृष्ट एक छलावा मात्र है। जो मनुष्य को अपनी गरिमा तथा कर्तव्य से भ्रष्ट करती है। मनुष्य विवेकशील प्राणी है, वह अन्तरात्मा की आवाज को सुनता है। उसको सच्चा सुख सेवा साधना में ही मिलता है। इससे बढ़कर कोई ऐसा कर्म नहीं जो मानव को अपनी गरिमा का भान कराता हो।
मेरे पास चार रोटी हैं इनसे मैं अपनी क्षुधा पूर्ति कर लेता हूं। मेरी इन्द्रियों को क्षणिक सुख मिल जाता है, किन्तु इससे मेरी भूख सदा के लिये मिट नहीं जाती। मुझसे भी अधिक भूखा कोई है और उसे उनमें से दो रोटियां दे देता हूं तो मेरी आत्मा में उस भूखे की तृप्ति देखकर जो आनन्द मिलेगा वही सच्चा है।
भगवान ने इसी कारण मनुष्य को सामर्थ्य इतनी अधिक दी है कि वह इतना उपार्जित कर सकता है जिसके दसवें हिस्से में उसकी शारीरिक आवश्यकतायें पूरी हो जाती हैं। शेष नौ भाग यदि वह उस समाज के हित में लोक-मंगल के लिये प्रयुक्त करे जिसका कि वह चिर ऋणी है तभी वह सुख पा सकता है। समाज का ऋण उतारने का कुछ प्रयास न करें तो हम सच्चे अर्थों में सुखी हो भी नहीं सकते।
किसी ने ठीक ही कहा है कि ईश्वर ने उपार्जन के लिये हाथ दो दिये हैं तथा उदर पोषण के लिये मुंह एक ही दिया है। इसके पीछे जो एक सिद्धान्त छिपा है वह यह है कि हम जो कुछ उपार्जित करें उसका आधा भाग स्वयं के शरीर तथा परिवार के लिए तथा शेष आधा भाग लोक मंगल के लिए प्रयुक्त करें।
अपने उपार्जन और शक्तियों का एक अंश कहना चाहिये अधिकांश भाग लोकमंगल के लिये लगाते रहने का नाम ही परमार्थ साधना है। इस सम्बन्ध में शंका उठ सकती है कि अपनी आवश्यकताओं को पूरा करना तथा लोकमंगल के लिये समय, साधन और शक्ति लगाते रहना दो अलग अलग मार्ग हैं। परन्तु, गम्भीरता पूर्वक विचार किया जाय तो स्वार्थ और परमार्थ को एक साथ भी सादा जा सकता है। स्वार्थ और परमार्थ को एक साथ भी पूरा किया जा सकता है। मनीषियों ने इस सम्बन्ध में एक सुनिश्चित मार्ग निर्धारित किया है।
परमार्थ का नाम सुनते ही लोग बहुधा यह समझकर घबरा उठते हैं कि परमार्थ की प्रेरणा देने वाले उन्हें अपने आवश्यक स्वार्थों से छुड़ाकर कुछ इस परोपकार तथा परसेवा के कार्यों में लगा देना चाहते हैं कि उनका परिवार छूट जाये। वे जीवन में आर्थिक उन्नति से वंचित रहकर न तो कोई तरक्की कर पायेंगे और न किसी ऊंचे पद पर पहुंच पायेंगे। वे गरीब रहकर सारे सुख से रहित हो जायेंगे।
कहना न होगा कि इस प्रकार का विचार करने वाले लोग वस्तुतः परमार्थ का वास्तविक अर्थ नहीं समझते। मनुष्य का सच्चा स्वार्थ परमार्थ ही माना गया है। जो काम भी ऊंचा और उज्ज्वल स्वार्थ लेकर किया जाता है उसका अन्तर्भाव एक प्रकार से परमार्थ ही होता है। स्वार्थ सिद्धि का परिणाम संतोष, आत्म-सुख और आत्म-कल्याण ही तो हो सकता है। यही परिणाम परमार्थ का भी माना गया है। अन्तर केवल इतना ही है कि स्वार्थ का सुख अस्थायी एवं अन्त दुःखद होता है। किन्तु परमार्थ से प्राप्त सुख स्थायी और विक्षोभ रहित होता है। कोई भी बुद्धिमान, किन्हीं ऐसे स्वार्थों द्वारा सुख क्यों न पाना चाहेगा जिनमें परमार्थ का भी अन्तर्भाव भरा हुआ हो।
आत्मा का स्वार्थ जिन विचारों और कार्यों द्वारा सिद्ध होता है उन्हीं के माध्यम से संसार का कल्याण करने वाले परमार्थ की भी सिद्धि होती है। फिर क्यों न ऐसी गतिविधि ही अपनाई जाये जिससे स्वार्थ की भी सिद्धि हो और परमार्थ का भी साधन बने। उदाहरण के लिये स्वार्थ का सबसे स्थूल रूप उपार्जन का ले लिया जाये। उपार्जन का यहां पर अर्थ है धन कमाना। धन कमाने के लिये लोग खेती करते हैं, व्यवसाय करते हैं और नौकरी करते हैं।
यों तो खेती, व्यवसाय अथवा नौकरी करना मूलतः स्वार्थ है। पर यदि इसमें ऊंची भावना के समावेश कर दिया जाये तो इसी स्वार्थ के साथ परमार्थ का भी लाभ होने लगे। खेती करते हैं, सोचते हैं इससे जो उपज होगी उससे अपना काम चलेगा, बच्चों का पालन होगा जीवन में सुख सुविधा की प्राप्ति होगी। इसके साथ यह भाव भी शामिल कर लिया जाय कि खेती करना हमारा पुनीत कर्तव्य है, इससे राष्ट्र को समाज को और प्राणियों को अन्न मिलेगा। इससे जो हमें लाभ होगा उससे हम संसार के एक अंश परिवार का पालन करेंगे, बच्चों को पढ़ा लिखाकर इस योग्य बना सकेंगे कि वे समाज और संसार का कुछ हित कर सकें अपनी आत्मा का उद्धार कर सकें।
ऐसा भाव जागते ही खेती का वह स्वार्थपूर्ण काम परमार्थ कार्य बन जायेगा। उसका आनन्द उस सुख से स्थायी उदात्त तथा अधिक होगा जो कि केवल संकीर्ण स्वार्थ रखने पर होता। विचारों की उदात्तता मनुष्य के कार्यों को भी ऊंचा बना देती है। खेती जैसे कार्य में भी परहित की परमार्थ भावना का समावेश हो जाने पर मनुष्य उसे अधिक लगन और अधिक गौरव के साथ करेगा। इससे आनन्द भी आयेगा, सन्तोष भी मिलेगा और लाभ भी होगा। स्वार्थ में ही परमार्थ की साधना हो जायगी।
इसी प्रकार व्यवसाय अथवा नौकरी की भी बात है। हम व्यवसाय करते हैं—इसलिये कि लोगों को वस्तुओं की सुविधा हो, राष्ट्र और देश की सम्पत्ति बढ़े, बहुत से आदमियों को काम मिले। व्यक्तिगत व्यवसाय को इस प्रकार सार्वजनिक सेवा कार्य मानकर चलने पर स्वार्थ परमार्थ बन जायेगा। व्यवसाय में ऊंची भावना के जुड़ते ही मुनाफाखोरी, भ्रष्टाचार अथवा चोरबाजारी और मिलावट की प्रवृत्ति पर आघात होगा और वे स्वयं ही नष्ट होने लगेंगी। ज्यों-ज्यों व्यवसायी निष्कलंक व्यवसाय का सुन्दर स्वरूप देखता जायेगा त्यों-त्यों वह उसे दृढ़ता पूर्वक अपनाता चला जायेगा। ज्यों-ज्यों वह इस क्षेत्र में उन्नत बनता जायेगा त्यों-त्यों उसका भय आशंका और संशय दूर होता और आत्मिक सुख मिलता जायेगा। इस प्रकार स्वार्थ भी बनेगा और परमार्थ भी।
नौकरी में जब तक संकीर्ण स्वार्थ का भाव साथ बंधा रहता है, मनुष्य अपने को पराधीन, दूसरों को चाकरी करने वाला और दीन-हीन समझता रहता है। पर ज्यों ही वह उसमें ऊंचे भावों को सम्मिलित करता है उसकी सारी दीनता चली जाती है। उसके सोचने का दृष्टिकोण इस प्रकार हो जाता है कि हम किसी एक व्यक्ति की चाकरी नहीं कर रहे हैं, हम पूरे राष्ट्र या पूरे समाज की सेवा कर रहे हैं। अपना काम पूरी जिम्मेदारी से करना हमारा पुनीत कर्तव्य है। जिनका पालन पूरी तत्परता से करना है और मैं कर भी रहा हूं। ऐसा भाव आते ही वह स्वार्थ परक कार्य भी परमार्थ परक बनकर अधिकाधिक सन्तोष, सुख और उत्साह देने लगेगा। मनुष्य अपने को पराधीन नहीं स्वावलम्बी अनुभव करने लगेगा। यही स्वाधीनता, यही अभय और यही आत्म-गौरव तो परमार्थ का परिणाम है। ऊंचे स्वार्थ में उन्नत भावों का समावेश स्वयं एक परमार्थ है जो हर प्रकार से सरल एवं सुगम है जो संसार का कोई भी व्यक्ति बिना कठिनाई के कर सकता है।
अब आइये, इसी न्याय द्वारा कुछ आगे बढ़िए। स्वार्थ की सिद्धि किस लिए की जाती है? आत्म–सन्तोष और आत्म-सुख के लिए। कोई व्यक्ति यदि अपने स्वार्थ के लिए यदि किसी दूसरे के स्वार्थ का हनन करता है तो क्या यह आशा की जा सकती है कि उसे सुख, सन्तोष और शान्ति मिलेगी। दूसरों को हानि अथवा कष्ट पहुंचा कर कितने ही बड़े स्वार्थ की सिद्धि क्यों न करली जाये उससे शान्ति नहीं मिल सकती। सबसे पहले तो जिसको कष्ट हुआ है वह शान्ति से बैठने न देगा, दूसरा शासन, समाज और लोक निन्दा का भय बना रहेगा—जहां भय वहां शान्ति की सम्भावना असम्भव है। तीसरे मनुष्य में जो परमात्मा का निष्कलंक एवं न्यायशील अंश आत्मा को प्रिय मानता है वह उसे सोते जागते किसी समय भी चैन न लेने देगी। हर समय टोकती ही रहेगी कि तुमने अमुक को कष्ट पहुंचाकर जो स्वार्थ की सिद्धि की है वह ठीक नहीं इसके लिए लोक अथवा परलोक में तुम्हें दण्ड का भागी बनना पड़ेगा। ऐसी दिशा में स्वार्थ की वह सिद्धि सुखदायक तो नहीं त्रासदायक अवश्य बन जायेगी। तब कहां तो स्वार्थ का मन्तव्य पूरा हुआ और कहां परमार्थ का उद्देश्य।
स्वार्थ परमार्थ बने इसका एक सरल सा उपाय यह है कि केवल अपने उचित स्वार्थ की सीमाओं तक ही नियंत्रित रहा जाये उसकी परिधि इतनी न बढ़ाई जाये कि वह दूसरों की मर्यादाओं का उल्लंघन करने लगे। वह सम्भव किस प्रकार हो? वह इस प्रकार कि अपने स्वार्थों में लोभ, लिप्सा और तृष्णा को स्थान न लेने देना चाहिए। स्वार्थ में जब इन विकारों का दोष आ जाना है तब अच्छा स्वार्थ भी निकृष्ट वासनाओं में बदल जाता है जिससे सारे पापों सन्तापों का श्री गणेश होने लगता है। मनुष्य का लोक-परलोक दोनों बिगड़ जाते हैं। ऊंचा स्वार्थ परमार्थ ही है। अस्तु, एक स्वार्थ और परमार्थ के दोहरा काम निकालने के लिए स्वार्थ भावना को ऊंचा उठाइये, उसे अपनी मर्यादा तक ही सीमित रखिये और उसमें लोभ, लिप्सा अथवा तृष्णा का विकार कदापि न आने दीजिये।
अब आइये यहीं से एक कदम और आगे बढ़ा जाये। फिर दोहरा लीजिये कि स्वार्थ का उद्देश्य सुख और शान्ति ही होता है। यदि ऐसा न हो तो फिर स्वार्थ का कौड़ी बराबर मोल न रह जाय। हमने उचित रूप से स्वार्थ लाभ किया। अब उस लाभ का यदि एक अंश लोक-सेवा में लगाते रहे, तो जानते हैं इसका क्या फल हो? वह यह कि हमें एक अनिवर्चनीय सुख, शान्ति और उल्लास मिले। वह ऐसे कि जब हम अपनी उपलब्धियों से किसी का कुछ हित सम्पादन करेंगे तो दूसरे लोग हमारी उपलब्धियों को आदर की दृष्टि से अपनत्व के भाव से देखेंगे और चाहेंगे कि उनको दिन-दिन उन्नति एवं बुद्धि हो, इतना ही नहीं वे अपनी-अपनी तरह उससे सहयोग तथा सहायता भी करेंगे। इस लोकायतन से आने वाला सुख कितना शीतल, कितना सन्तोषप्रद और कितना महान होगा? इसका अनुमान लगाया जा सकता है? जब किसी के हित और सेवा में हमारा भी भाग होगा तो क्या समाज में प्रशंसा तथा पात्रता का अवसर नहीं मिलेगा? जब यह सम्भव है तब कौन कह सकता है कि हमारा सुख शान्ति के परिणाम वाला स्वार्थ सिद्ध नहीं होगा। इसलिए लोक सेवा लोक हित और लोक में कल्याण के परमार्थ कहे जाने वाले कामों को भी स्वार्थ ही समझना चाहिए। परमार्थ भी वस्तुतः स्वार्थ ही है, एक ऊंचा स्वार्थ और बुद्धिमान व्यक्ति उसकी सिद्धि करने में कभी भी नहीं चूकते। परमार्थ परक स्वार्थ ही सच्चे सुख वास्तविक सन्तोष और यथार्थ कल्याण का हेतु है निकृष्ट अथवा निन्दित स्वार्थ नहीं।
अब यहां पर छोटा प्रश्न और उठता है। वह यह कि आखिर निकृष्ट स्वार्थ भावना से निकल कर ऊंचे स्वार्थ की परिधि में जाया किस प्रकार जाये? उसका एक साधारण सा उपाय यह है कि अपने व्यक्तित्व को उज्ज्वल उन्नत और विस्तृत बनाया जाये। जब तक हम इस आत्म-गरिमा में नहीं प्रतिष्ठित होते कि हम समाज के एक उत्तरदायी अंग हैं परमात्मा के पवित्र अंश और संसार के प्राणी मात्र के शिर-मौर मानव हैं तब तक हमें अपनी निकृष्टताओं पर न तो लज्जा आयेगी और न आत्म-ग्लानि होगी। हम अपने व्यक्तित्व की महानता से अपनी निकृष्टताओं की तुलना करें और देखें कि कौन कौन से दोष हमारी प्रतिष्ठा के अनुरूप हमें नहीं बनने देते हैं। जिन वासनाओं, जिन अभीप्साओं और जिन भावनाओं को हम अपने व्यक्तित्व के अनुरूप न देखें उन्हें तुरन्त ही निकाल कर फेंक दें। हमारा व्यक्तित्व मूल रूप से उज्ज्वल एवं उत्कृष्ट ही है। दोष पाप और मल ही उसे मलीन तथा निकृष्ट बना देते हैं। जिस दिन हम अपने इन विकारों को निकाल कर फेंक देंगे उस दिन ही हमारा व्यक्तित्व दूध के समान उज्ज्वल तथा निर्विकार हो उठेगा। अपने मूल व्यक्तित्व का दर्शन पाते ही हमारे निकृष्ट स्वार्थ स्वयं ही हमें छोड़कर चले जायेंगे और उनके स्थान पर परमार्थ परक ऊंचे स्वार्थ स्थापित हो जायेंगे। तब न तो जीवन में अशांति की सम्भावना होगी और न असन्तोष का समावेश।
मनीषियों ने इसलिए कहा है कि मनुष्य को अपना व्यक्तित्व विकसित करने, लोक मंगल तथा परमार्थ भावना को जीवन में उतारने के लिए निरंतर सचेष्ट रहना चाहिए। निश्चित ही उसके लिए मनुष्य को अपने कई स्वार्थों पर प्रतिबंध लगाना पड़ेगा, और उसे ऐसे कार्यों का परित्याग करना पड़ेगा, जो उसके स्वार्थ की पूर्ति भले ही करते हों परन्तु उनसे समाज का अहित होता है।
परमार्थ के आदर्श को अपने व्यक्तित्व का अंग बनाने के लिए आवश्यक है कि मन में जब जब सत्कर्मों की पुण्य प्रवृत्ति का उदय होता हो तब तब तुरन्त सम्पन्न कर लिया जाय। सत्कर्मों की पुण्य प्रवृत्ति मन में कभी-कभी ही उत्पन्न होती है। ऐसा उत्साह भगवान की प्रेरणा और संचित शुभ कर्मों का उदय होने पर ही जागृत होता है। अन्यथा मनुष्य अधिकांश समय तो स्वार्थ और संकीर्ण परिधि में ही सोचते संकल्प विकल्प करते गुजार देता है। इसलिए परमार्थ की पुण्य प्रवृत्तियां जब कभी उत्पन्न हों तो उसे कार्यान्वित करने में किंचित भी विलम्ब नहीं करना चाहिए।
यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारे पिछड़े हुए देश में अगणित समस्याओं और कठिनाइयों से मनुष्य समाज बुरी तरह संत्रस्त है और उसकी दुष्प्रवृत्तियों से लोगों को भारी विपत्ति का सामना करना पड़ रहा है। इन उलझनों को सुलझाने और कठिनाइयों को हल करने के लिए हममें से प्रत्येक व्यक्ति कुछ न कुछ कर ही सकता है। सच्चे और विवेकपूर्ण परमार्थ के अवसर भी संसार में कम नहीं है।
यह सोचना ठीक नहीं कि जब ऐसा अवसर आवेगा तब यह करेंगे। हो सकता है कि हमारा इच्छित अवसर जीवन में कभी भी न आवे और वे आकांक्षाएं कल्पना ही बनकर रह जायें। जो साधन आज प्राप्त हैं उन्हीं के आधार पर वर्तमान परिस्थितियों में सम्भव हो सकने वाले सत्कर्मों के लिए हमें प्रयत्नशील हो जाना चाहिए। हजार मन सोचने से एक मन करना अच्छा है। आज तो परमार्थ भावना किसी सत्प्रेरणा या सौभाग्य से प्राप्त हुई है यदि उसे पीछे के लिये धकेल दिया गया तो कौन जाने कब वैसा उत्साह पुनः हो या न हो। अमुक सुविधा मिलने पर अमुक कार्य करने की शर्त लगाना एक प्रकार की बहानेबाजी है जिससे अपनी उस उठी हुई सत्प्रवृत्ति को बहका कर या बहलाकर पीछे के लिए टाल दिया जाया करता है। उचित यही है कि आज की परिस्थितियों में अपने लिए जो संभव है उतना ही सोचें और जो उपयुक्त प्रतीत हो उसे कार्यान्वित करने का भी साहस प्रदर्शित करें।
सत्यनारायण व्रत कथा में साधु वैश्य का उपाख्यान आता है जिससे सन्तान होने पर व्रत कथा के लिए प्रतीक्षा की थी। पर जब कलावती कन्या उत्पन्न हो गई तो फिर उसकी पूर्व रुचि हल्की पड़ गई आज-कल करते-करते कन्या का विवाह हो गया, जमाता व्यापार करने लगा तब भी वह संकल्प अपूर्ण ही बना रहा। इसी प्रकार एक कथा है कि कोई व्यक्ति खजूर पर चढ़ गया। नीचे उतरते हुए उसे मृत्यु भय दीखने लगा तो उसने मनौती मनाई कि नीचे उतरने पर इतना दान करूंगा। आधी दूर नीचे उतर आया तो उसने वह दान की राशि मन-ही-मन आधी करली। और आधा नीचे उतरा तो उसे घटाकर चौथाई कर लिया और नीचे जमीन पर उतरते-उतरते वह दान एक बहुत छोटी चिन्ह पूजा जैसा रह गया।
सत्कर्म करने में परिस्थितियां नहीं, भावना प्रधान होती है। भावना प्रबल हो तो निर्बल और असमर्थ दिखने वाले व्यक्ति भी वह कर गुजरते हैं जो असाधारण एवं आश्चर्यजनक होता है। इसके विपरीत जिनके पास बहुत कुछ है वे बड़ी कठिनाई से कभी-कभी राई रत्ती सत्कर्म कर पाते हैं। श्रेष्ठ सत्कर्म मनुष्य से सदा नहीं बन पड़ते। उनमें कितनी ही बाधायें आ खड़ी होती हैं। अपना स्वार्थी-मन कम बाधक नहीं होता। ऊंच-नीच, आगा-पीछा सोचकर वह यह निष्कर्ष निकालता है अभी अमुक आवश्यक कार्य करने को पड़े हैं पहले उन्हें पूरा करलें, यह दान धर्म तो पीछे भी कभी हो सकते हैं, अभी जल्दी ही क्या है?
इसी प्रकार कुटुम्ब परिवार वाले, तथा मित्र हितैषी कहलाने वाले व्यक्ति आमतौर से यही चाहते हैं कि इस व्यक्ति के धन श्रम, सहयोग या व्यक्तित्व का पूरा लाभ हमें ही मिलता रहे। यदि सत्कर्म में उसका धन या श्रम लगता है तो उसमें उन्हें अपनी प्रत्यक्ष हानि दीखती है। ऐसी दशा में वे अनेक बहाने अनेक तर्क उपस्थित करके उस ओर से विरक्ति पैदा करने का प्रयत्न करते हैं।
आज यदि सत्कर्म कर सकने की परिस्थिति है तो कल भी वह बनी ही रहेगी इसका कोई ठिकाना नहीं। उलटती पलटती छाया की तरह मनुष्य के दिन फिरते रहते हैं। आज का युवा कल बूढ़ा होगा ही, आज के निरोग को कल रोग घेर सकता है। आज का धनी कल निर्धन हो जाय तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं, आज की चैन की जिंदगी बिताने वाले के सामने कल अनेकों चिन्ताएं और समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। ऐसी दशा में यह भी सम्भव है कि तब उस सत्कर्म कर सकने में सचमुच ही विवशता उत्पन्न हो जाय और मनोरथ अधूरे के अधूरे ही पड़े रहें।
रावण चाहता था कि स्वर्ग के लिये सीढ़ी बनाले, समुद्र के खारे जल को मीठा बनाले और देवताओं से लड़कर अमृत छीन लावे पर वह आजकल-आजकल टालता रहा। दैनिक जीवन के ‘जरूरी’ काम उसे घेरे रहे और यह महत्वाकांक्षा पीछे पड़ती गई। मौत का दिन आ पहुंचा। लक्ष्मणजी उससे राजनीति पढ़ने गये तो रावण ने कहा लक्ष्मण! मनुष्य की भारी भूल यह है कि वह महत्वपूर्ण सत्कर्मों की उपेक्षा करे और साधारण जीवनयापन के कार्यों में ही लगा रहे। मैंने यही भूल की और अपनी तीनों आकांक्षाएं अधूरी छोड़कर इस संसार से विदा हो रहा हूं।
ईसा मसीह ने कहा कि ‘‘जो तेरा दाहिना हाथ करना चाहे उसकी बायें हाथ को खबर न होने दें।’’ इस मन्त्र का एक अर्थ यह है अपने शुभ कर्मों का विज्ञापन न करो, वाहवाही लूटने और धर्मात्मापन जताने के लिये ढोल न पिटवाओ। वहां दूसरा अर्थ यह भी है कि जितनी जल्दी हो सके उतनी तत्परता से सत्कर्म सम्पन्न कर लिया जाय। हो सकता है दाहिने हाथ के कार्य में बायां हाथ कोई अड़ंगा लगादें। मनीषियों ने कहा है—‘‘दुष्कर्म करना हो तो उसे करते हुए कितनी ही बार विचारो और उसे आज की अपेक्षा कल परसों पर छोड़ो। किन्तु यदि कुछ शुभ करना है तो पहले ही भावना तरंग को कार्यान्वित होने दो। कल वाले काम को आज ही निपटाने का प्रयत्न करो। पाप तो रोज ही अपना जाल लेकर हमारी घात में फिरता रहता पर पुण्य का तो कभी-कभी ही होता है। उसे निराश, खाली हाथ लौटा दिया तो न जाने फिर कब आवे।
यदि अपना मन कुछ सत्कर्म करने की बात सोचे तो विचारणा का क्षेत्र इतना ही रहना चाहिए कि आज की परिस्थिति में हम क्या कर सकते हैं। जो कर सकते हों वही कर डालने का प्रयत्न करना चाहिए। पीछे कभी जब बहुत वैभव होगा तो उस समय बड़े-बड़े सत्कर्म करने की योजना भी बन सकती है। जो परिस्थिति आज नहीं है, या जो कर सकना सम्भव नहीं है उसके लिए कल्पना के बड़े-बड़े पुल बांधने से क्या लाभ?
जिस प्रकार कमाना, खाना, सोना, नहाना, जीवन के आवश्यक नित्य कर्म होते हैं उसी प्रकार परमार्थ भी मानव-जीवन का एक अत्यन्त आवश्यक धर्म कर्तव्य है। इसकी उपेक्षा करते रहने से अपनी आध्यात्मिक पूंजी घटती है, आत्मबल नष्ट होता और अन्तः भूमिका दिन-दिन निम्नस्तर की बनती चली जाती है। यही तो पतन है। सद्भावनाओं का स्वार्थ एवं निष्ठुरता कहलाता है। यह दुष्प्रवृत्ति बढ़ते-बढ़ते पाप का रूप धारण कर लेती है जिसके अन्तःकरण में परमार्थ बुद्धि विकसित है, जो उद्दात्त दृष्टिकोण के अनुसार सोचता रहता है, उसके लिये कोई बड़े पाप कर्म बन पड़ने सम्भव नहीं। पापी मनुष्य मूलतः संकीर्ण और स्वार्थी होता है। धन के अभाव में मनुष्य गरीब कहलाता है उसी प्रकार सत्प्रवृत्तियों का स्रोत सूख जाने पर उसके चरितार्थ कर सकने का, अवसर न मिलने पर हमें पापी बनना पड़ता है। जहां प्रकाश न होगा वहां अन्धकार का रहना स्वाभाविक है इसी प्रकार जिसे परमार्थ में तो रुचि होगी ही। दोनों से रहित स्थिति या तो जड़ जीवन-मुक्त दशा में। पाप से बोलने लिये पुण्य प्रवृत्तियों का चरितार्थ करते रहना आवश्यक है और वह तभी सम्भव है जब वैसा उत्साह उत्पन्न होने पर उसे कार्यान्वित करने के लिये भी साहस किया जा सके।
सुख का आधार व्यक्ति की मनोभूमि पर आधारित होता है। इस कारण यह नहीं कहा जा सकता कि अमुक वस्तु के उपभोग में सुख मिलता है। सुअर के लिये गन्दगी, कीचड़, दुर्गन्ध सुखदायक है, क्योंकि उसकी मनःस्थिति इसी प्रकार की है किन्तु मनुष्य के लिये वही सब दुःखदायी होती है। यही नहीं भिन्न-भिन्न मनःस्थिति के मनुष्यों में भी सुख सामग्रियां भिन्न-भिन्न होती हैं। शराब पीने वाले व्यक्ति के लिये शराब सुख प्रदान करती है किन्तु जो इस विभीषिका से परिचित है वह तो इसे छूना भी पाप समझता है। ईश्वर ने जितनी सुख सुविधायें मनुष्य को प्रदान की हैं अन्य जीव को प्रदान नहीं की। मनुष्य का अन्तःकरण विवेक से परिपूर्ण है। वह इन क्षमताओं तथा उपलब्धियों का प्रयोग उसकी सृष्टि को सुन्दर सुखी तथा सम्पन्न बनाने में लगाये इसी हेतु उसे यह सब प्राप्त हुआ है। इसी के आधार पर मनुष्य तथा पशुओं में सीमा रेखा निर्धारित की जानी चाहिये तभी मानव जीवन की उत्कृष्टता तथा सार्थकता सिद्ध हो सकती है।
मानवोचित सुख पशुओं के सुख से कुछ भिन्न अवश्य होना चाहिये। भोग से सुख मिलता है वह केवल इन्द्रियों को तृप्त करता है। यह तृप्ति क्षणिक होती है। आग में घी डालने की तरह मरुभूमि में प्यास बुझाने की लालसा से मृगतृष्णा के भुलावे में भटकाने वाली यह इन्द्रियजन्य वासना पाशविक सुख से भी निकृष्ट एक छलावा मात्र है। जो मनुष्य को अपनी गरिमा तथा कर्तव्य से भ्रष्ट करती है। मनुष्य विवेकशील प्राणी है, वह अन्तरात्मा की आवाज को सुनता है। उसको सच्चा सुख सेवा साधना में ही मिलता है। इससे बढ़कर कोई ऐसा कर्म नहीं जो मानव को अपनी गरिमा का भान कराता हो।
मेरे पास चार रोटी हैं इनसे मैं अपनी क्षुधा पूर्ति कर लेता हूं। मेरी इन्द्रियों को क्षणिक सुख मिल जाता है, किन्तु इससे मेरी भूख सदा के लिये मिट नहीं जाती। मुझसे भी अधिक भूखा कोई है और उसे उनमें से दो रोटियां दे देता हूं तो मेरी आत्मा में उस भूखे की तृप्ति देखकर जो आनन्द मिलेगा वही सच्चा है।
भगवान ने इसी कारण मनुष्य को सामर्थ्य इतनी अधिक दी है कि वह इतना उपार्जित कर सकता है जिसके दसवें हिस्से में उसकी शारीरिक आवश्यकतायें पूरी हो जाती हैं। शेष नौ भाग यदि वह उस समाज के हित में लोक-मंगल के लिये प्रयुक्त करे जिसका कि वह चिर ऋणी है तभी वह सुख पा सकता है। समाज का ऋण उतारने का कुछ प्रयास न करें तो हम सच्चे अर्थों में सुखी हो भी नहीं सकते।
किसी ने ठीक ही कहा है कि ईश्वर ने उपार्जन के लिये हाथ दो दिये हैं तथा उदर पोषण के लिये मुंह एक ही दिया है। इसके पीछे जो एक सिद्धान्त छिपा है वह यह है कि हम जो कुछ उपार्जित करें उसका आधा भाग स्वयं के शरीर तथा परिवार के लिए तथा शेष आधा भाग लोक मंगल के लिए प्रयुक्त करें।
अपने उपार्जन और शक्तियों का एक अंश कहना चाहिये अधिकांश भाग लोकमंगल के लिये लगाते रहने का नाम ही परमार्थ साधना है। इस सम्बन्ध में शंका उठ सकती है कि अपनी आवश्यकताओं को पूरा करना तथा लोकमंगल के लिये समय, साधन और शक्ति लगाते रहना दो अलग अलग मार्ग हैं। परन्तु, गम्भीरता पूर्वक विचार किया जाय तो स्वार्थ और परमार्थ को एक साथ भी सादा जा सकता है। स्वार्थ और परमार्थ को एक साथ भी पूरा किया जा सकता है। मनीषियों ने इस सम्बन्ध में एक सुनिश्चित मार्ग निर्धारित किया है।
परमार्थ का नाम सुनते ही लोग बहुधा यह समझकर घबरा उठते हैं कि परमार्थ की प्रेरणा देने वाले उन्हें अपने आवश्यक स्वार्थों से छुड़ाकर कुछ इस परोपकार तथा परसेवा के कार्यों में लगा देना चाहते हैं कि उनका परिवार छूट जाये। वे जीवन में आर्थिक उन्नति से वंचित रहकर न तो कोई तरक्की कर पायेंगे और न किसी ऊंचे पद पर पहुंच पायेंगे। वे गरीब रहकर सारे सुख से रहित हो जायेंगे।
कहना न होगा कि इस प्रकार का विचार करने वाले लोग वस्तुतः परमार्थ का वास्तविक अर्थ नहीं समझते। मनुष्य का सच्चा स्वार्थ परमार्थ ही माना गया है। जो काम भी ऊंचा और उज्ज्वल स्वार्थ लेकर किया जाता है उसका अन्तर्भाव एक प्रकार से परमार्थ ही होता है। स्वार्थ सिद्धि का परिणाम संतोष, आत्म-सुख और आत्म-कल्याण ही तो हो सकता है। यही परिणाम परमार्थ का भी माना गया है। अन्तर केवल इतना ही है कि स्वार्थ का सुख अस्थायी एवं अन्त दुःखद होता है। किन्तु परमार्थ से प्राप्त सुख स्थायी और विक्षोभ रहित होता है। कोई भी बुद्धिमान, किन्हीं ऐसे स्वार्थों द्वारा सुख क्यों न पाना चाहेगा जिनमें परमार्थ का भी अन्तर्भाव भरा हुआ हो।
आत्मा का स्वार्थ जिन विचारों और कार्यों द्वारा सिद्ध होता है उन्हीं के माध्यम से संसार का कल्याण करने वाले परमार्थ की भी सिद्धि होती है। फिर क्यों न ऐसी गतिविधि ही अपनाई जाये जिससे स्वार्थ की भी सिद्धि हो और परमार्थ का भी साधन बने। उदाहरण के लिये स्वार्थ का सबसे स्थूल रूप उपार्जन का ले लिया जाये। उपार्जन का यहां पर अर्थ है धन कमाना। धन कमाने के लिये लोग खेती करते हैं, व्यवसाय करते हैं और नौकरी करते हैं।
यों तो खेती, व्यवसाय अथवा नौकरी करना मूलतः स्वार्थ है। पर यदि इसमें ऊंची भावना के समावेश कर दिया जाये तो इसी स्वार्थ के साथ परमार्थ का भी लाभ होने लगे। खेती करते हैं, सोचते हैं इससे जो उपज होगी उससे अपना काम चलेगा, बच्चों का पालन होगा जीवन में सुख सुविधा की प्राप्ति होगी। इसके साथ यह भाव भी शामिल कर लिया जाय कि खेती करना हमारा पुनीत कर्तव्य है, इससे राष्ट्र को समाज को और प्राणियों को अन्न मिलेगा। इससे जो हमें लाभ होगा उससे हम संसार के एक अंश परिवार का पालन करेंगे, बच्चों को पढ़ा लिखाकर इस योग्य बना सकेंगे कि वे समाज और संसार का कुछ हित कर सकें अपनी आत्मा का उद्धार कर सकें।
ऐसा भाव जागते ही खेती का वह स्वार्थपूर्ण काम परमार्थ कार्य बन जायेगा। उसका आनन्द उस सुख से स्थायी उदात्त तथा अधिक होगा जो कि केवल संकीर्ण स्वार्थ रखने पर होता। विचारों की उदात्तता मनुष्य के कार्यों को भी ऊंचा बना देती है। खेती जैसे कार्य में भी परहित की परमार्थ भावना का समावेश हो जाने पर मनुष्य उसे अधिक लगन और अधिक गौरव के साथ करेगा। इससे आनन्द भी आयेगा, सन्तोष भी मिलेगा और लाभ भी होगा। स्वार्थ में ही परमार्थ की साधना हो जायगी।
इसी प्रकार व्यवसाय अथवा नौकरी की भी बात है। हम व्यवसाय करते हैं—इसलिये कि लोगों को वस्तुओं की सुविधा हो, राष्ट्र और देश की सम्पत्ति बढ़े, बहुत से आदमियों को काम मिले। व्यक्तिगत व्यवसाय को इस प्रकार सार्वजनिक सेवा कार्य मानकर चलने पर स्वार्थ परमार्थ बन जायेगा। व्यवसाय में ऊंची भावना के जुड़ते ही मुनाफाखोरी, भ्रष्टाचार अथवा चोरबाजारी और मिलावट की प्रवृत्ति पर आघात होगा और वे स्वयं ही नष्ट होने लगेंगी। ज्यों-ज्यों व्यवसायी निष्कलंक व्यवसाय का सुन्दर स्वरूप देखता जायेगा त्यों-त्यों वह उसे दृढ़ता पूर्वक अपनाता चला जायेगा। ज्यों-ज्यों वह इस क्षेत्र में उन्नत बनता जायेगा त्यों-त्यों उसका भय आशंका और संशय दूर होता और आत्मिक सुख मिलता जायेगा। इस प्रकार स्वार्थ भी बनेगा और परमार्थ भी।
नौकरी में जब तक संकीर्ण स्वार्थ का भाव साथ बंधा रहता है, मनुष्य अपने को पराधीन, दूसरों को चाकरी करने वाला और दीन-हीन समझता रहता है। पर ज्यों ही वह उसमें ऊंचे भावों को सम्मिलित करता है उसकी सारी दीनता चली जाती है। उसके सोचने का दृष्टिकोण इस प्रकार हो जाता है कि हम किसी एक व्यक्ति की चाकरी नहीं कर रहे हैं, हम पूरे राष्ट्र या पूरे समाज की सेवा कर रहे हैं। अपना काम पूरी जिम्मेदारी से करना हमारा पुनीत कर्तव्य है। जिनका पालन पूरी तत्परता से करना है और मैं कर भी रहा हूं। ऐसा भाव आते ही वह स्वार्थ परक कार्य भी परमार्थ परक बनकर अधिकाधिक सन्तोष, सुख और उत्साह देने लगेगा। मनुष्य अपने को पराधीन नहीं स्वावलम्बी अनुभव करने लगेगा। यही स्वाधीनता, यही अभय और यही आत्म-गौरव तो परमार्थ का परिणाम है। ऊंचे स्वार्थ में उन्नत भावों का समावेश स्वयं एक परमार्थ है जो हर प्रकार से सरल एवं सुगम है जो संसार का कोई भी व्यक्ति बिना कठिनाई के कर सकता है।
अब आइये, इसी न्याय द्वारा कुछ आगे बढ़िए। स्वार्थ की सिद्धि किस लिए की जाती है? आत्म–सन्तोष और आत्म-सुख के लिए। कोई व्यक्ति यदि अपने स्वार्थ के लिए यदि किसी दूसरे के स्वार्थ का हनन करता है तो क्या यह आशा की जा सकती है कि उसे सुख, सन्तोष और शान्ति मिलेगी। दूसरों को हानि अथवा कष्ट पहुंचा कर कितने ही बड़े स्वार्थ की सिद्धि क्यों न करली जाये उससे शान्ति नहीं मिल सकती। सबसे पहले तो जिसको कष्ट हुआ है वह शान्ति से बैठने न देगा, दूसरा शासन, समाज और लोक निन्दा का भय बना रहेगा—जहां भय वहां शान्ति की सम्भावना असम्भव है। तीसरे मनुष्य में जो परमात्मा का निष्कलंक एवं न्यायशील अंश आत्मा को प्रिय मानता है वह उसे सोते जागते किसी समय भी चैन न लेने देगी। हर समय टोकती ही रहेगी कि तुमने अमुक को कष्ट पहुंचाकर जो स्वार्थ की सिद्धि की है वह ठीक नहीं इसके लिए लोक अथवा परलोक में तुम्हें दण्ड का भागी बनना पड़ेगा। ऐसी दिशा में स्वार्थ की वह सिद्धि सुखदायक तो नहीं त्रासदायक अवश्य बन जायेगी। तब कहां तो स्वार्थ का मन्तव्य पूरा हुआ और कहां परमार्थ का उद्देश्य।
स्वार्थ परमार्थ बने इसका एक सरल सा उपाय यह है कि केवल अपने उचित स्वार्थ की सीमाओं तक ही नियंत्रित रहा जाये उसकी परिधि इतनी न बढ़ाई जाये कि वह दूसरों की मर्यादाओं का उल्लंघन करने लगे। वह सम्भव किस प्रकार हो? वह इस प्रकार कि अपने स्वार्थों में लोभ, लिप्सा और तृष्णा को स्थान न लेने देना चाहिए। स्वार्थ में जब इन विकारों का दोष आ जाना है तब अच्छा स्वार्थ भी निकृष्ट वासनाओं में बदल जाता है जिससे सारे पापों सन्तापों का श्री गणेश होने लगता है। मनुष्य का लोक-परलोक दोनों बिगड़ जाते हैं। ऊंचा स्वार्थ परमार्थ ही है। अस्तु, एक स्वार्थ और परमार्थ के दोहरा काम निकालने के लिए स्वार्थ भावना को ऊंचा उठाइये, उसे अपनी मर्यादा तक ही सीमित रखिये और उसमें लोभ, लिप्सा अथवा तृष्णा का विकार कदापि न आने दीजिये।
अब आइये यहीं से एक कदम और आगे बढ़ा जाये। फिर दोहरा लीजिये कि स्वार्थ का उद्देश्य सुख और शान्ति ही होता है। यदि ऐसा न हो तो फिर स्वार्थ का कौड़ी बराबर मोल न रह जाय। हमने उचित रूप से स्वार्थ लाभ किया। अब उस लाभ का यदि एक अंश लोक-सेवा में लगाते रहे, तो जानते हैं इसका क्या फल हो? वह यह कि हमें एक अनिवर्चनीय सुख, शान्ति और उल्लास मिले। वह ऐसे कि जब हम अपनी उपलब्धियों से किसी का कुछ हित सम्पादन करेंगे तो दूसरे लोग हमारी उपलब्धियों को आदर की दृष्टि से अपनत्व के भाव से देखेंगे और चाहेंगे कि उनको दिन-दिन उन्नति एवं बुद्धि हो, इतना ही नहीं वे अपनी-अपनी तरह उससे सहयोग तथा सहायता भी करेंगे। इस लोकायतन से आने वाला सुख कितना शीतल, कितना सन्तोषप्रद और कितना महान होगा? इसका अनुमान लगाया जा सकता है? जब किसी के हित और सेवा में हमारा भी भाग होगा तो क्या समाज में प्रशंसा तथा पात्रता का अवसर नहीं मिलेगा? जब यह सम्भव है तब कौन कह सकता है कि हमारा सुख शान्ति के परिणाम वाला स्वार्थ सिद्ध नहीं होगा। इसलिए लोक सेवा लोक हित और लोक में कल्याण के परमार्थ कहे जाने वाले कामों को भी स्वार्थ ही समझना चाहिए। परमार्थ भी वस्तुतः स्वार्थ ही है, एक ऊंचा स्वार्थ और बुद्धिमान व्यक्ति उसकी सिद्धि करने में कभी भी नहीं चूकते। परमार्थ परक स्वार्थ ही सच्चे सुख वास्तविक सन्तोष और यथार्थ कल्याण का हेतु है निकृष्ट अथवा निन्दित स्वार्थ नहीं।
अब यहां पर छोटा प्रश्न और उठता है। वह यह कि आखिर निकृष्ट स्वार्थ भावना से निकल कर ऊंचे स्वार्थ की परिधि में जाया किस प्रकार जाये? उसका एक साधारण सा उपाय यह है कि अपने व्यक्तित्व को उज्ज्वल उन्नत और विस्तृत बनाया जाये। जब तक हम इस आत्म-गरिमा में नहीं प्रतिष्ठित होते कि हम समाज के एक उत्तरदायी अंग हैं परमात्मा के पवित्र अंश और संसार के प्राणी मात्र के शिर-मौर मानव हैं तब तक हमें अपनी निकृष्टताओं पर न तो लज्जा आयेगी और न आत्म-ग्लानि होगी। हम अपने व्यक्तित्व की महानता से अपनी निकृष्टताओं की तुलना करें और देखें कि कौन कौन से दोष हमारी प्रतिष्ठा के अनुरूप हमें नहीं बनने देते हैं। जिन वासनाओं, जिन अभीप्साओं और जिन भावनाओं को हम अपने व्यक्तित्व के अनुरूप न देखें उन्हें तुरन्त ही निकाल कर फेंक दें। हमारा व्यक्तित्व मूल रूप से उज्ज्वल एवं उत्कृष्ट ही है। दोष पाप और मल ही उसे मलीन तथा निकृष्ट बना देते हैं। जिस दिन हम अपने इन विकारों को निकाल कर फेंक देंगे उस दिन ही हमारा व्यक्तित्व दूध के समान उज्ज्वल तथा निर्विकार हो उठेगा। अपने मूल व्यक्तित्व का दर्शन पाते ही हमारे निकृष्ट स्वार्थ स्वयं ही हमें छोड़कर चले जायेंगे और उनके स्थान पर परमार्थ परक ऊंचे स्वार्थ स्थापित हो जायेंगे। तब न तो जीवन में अशांति की सम्भावना होगी और न असन्तोष का समावेश।
मनीषियों ने इसलिए कहा है कि मनुष्य को अपना व्यक्तित्व विकसित करने, लोक मंगल तथा परमार्थ भावना को जीवन में उतारने के लिए निरंतर सचेष्ट रहना चाहिए। निश्चित ही उसके लिए मनुष्य को अपने कई स्वार्थों पर प्रतिबंध लगाना पड़ेगा, और उसे ऐसे कार्यों का परित्याग करना पड़ेगा, जो उसके स्वार्थ की पूर्ति भले ही करते हों परन्तु उनसे समाज का अहित होता है।
परमार्थ के आदर्श को अपने व्यक्तित्व का अंग बनाने के लिए आवश्यक है कि मन में जब जब सत्कर्मों की पुण्य प्रवृत्ति का उदय होता हो तब तब तुरन्त सम्पन्न कर लिया जाय। सत्कर्मों की पुण्य प्रवृत्ति मन में कभी-कभी ही उत्पन्न होती है। ऐसा उत्साह भगवान की प्रेरणा और संचित शुभ कर्मों का उदय होने पर ही जागृत होता है। अन्यथा मनुष्य अधिकांश समय तो स्वार्थ और संकीर्ण परिधि में ही सोचते संकल्प विकल्प करते गुजार देता है। इसलिए परमार्थ की पुण्य प्रवृत्तियां जब कभी उत्पन्न हों तो उसे कार्यान्वित करने में किंचित भी विलम्ब नहीं करना चाहिए।
यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारे पिछड़े हुए देश में अगणित समस्याओं और कठिनाइयों से मनुष्य समाज बुरी तरह संत्रस्त है और उसकी दुष्प्रवृत्तियों से लोगों को भारी विपत्ति का सामना करना पड़ रहा है। इन उलझनों को सुलझाने और कठिनाइयों को हल करने के लिए हममें से प्रत्येक व्यक्ति कुछ न कुछ कर ही सकता है। सच्चे और विवेकपूर्ण परमार्थ के अवसर भी संसार में कम नहीं है।
यह सोचना ठीक नहीं कि जब ऐसा अवसर आवेगा तब यह करेंगे। हो सकता है कि हमारा इच्छित अवसर जीवन में कभी भी न आवे और वे आकांक्षाएं कल्पना ही बनकर रह जायें। जो साधन आज प्राप्त हैं उन्हीं के आधार पर वर्तमान परिस्थितियों में सम्भव हो सकने वाले सत्कर्मों के लिए हमें प्रयत्नशील हो जाना चाहिए। हजार मन सोचने से एक मन करना अच्छा है। आज तो परमार्थ भावना किसी सत्प्रेरणा या सौभाग्य से प्राप्त हुई है यदि उसे पीछे के लिये धकेल दिया गया तो कौन जाने कब वैसा उत्साह पुनः हो या न हो। अमुक सुविधा मिलने पर अमुक कार्य करने की शर्त लगाना एक प्रकार की बहानेबाजी है जिससे अपनी उस उठी हुई सत्प्रवृत्ति को बहका कर या बहलाकर पीछे के लिए टाल दिया जाया करता है। उचित यही है कि आज की परिस्थितियों में अपने लिए जो संभव है उतना ही सोचें और जो उपयुक्त प्रतीत हो उसे कार्यान्वित करने का भी साहस प्रदर्शित करें।
सत्यनारायण व्रत कथा में साधु वैश्य का उपाख्यान आता है जिससे सन्तान होने पर व्रत कथा के लिए प्रतीक्षा की थी। पर जब कलावती कन्या उत्पन्न हो गई तो फिर उसकी पूर्व रुचि हल्की पड़ गई आज-कल करते-करते कन्या का विवाह हो गया, जमाता व्यापार करने लगा तब भी वह संकल्प अपूर्ण ही बना रहा। इसी प्रकार एक कथा है कि कोई व्यक्ति खजूर पर चढ़ गया। नीचे उतरते हुए उसे मृत्यु भय दीखने लगा तो उसने मनौती मनाई कि नीचे उतरने पर इतना दान करूंगा। आधी दूर नीचे उतर आया तो उसने वह दान की राशि मन-ही-मन आधी करली। और आधा नीचे उतरा तो उसे घटाकर चौथाई कर लिया और नीचे जमीन पर उतरते-उतरते वह दान एक बहुत छोटी चिन्ह पूजा जैसा रह गया।
सत्कर्म करने में परिस्थितियां नहीं, भावना प्रधान होती है। भावना प्रबल हो तो निर्बल और असमर्थ दिखने वाले व्यक्ति भी वह कर गुजरते हैं जो असाधारण एवं आश्चर्यजनक होता है। इसके विपरीत जिनके पास बहुत कुछ है वे बड़ी कठिनाई से कभी-कभी राई रत्ती सत्कर्म कर पाते हैं। श्रेष्ठ सत्कर्म मनुष्य से सदा नहीं बन पड़ते। उनमें कितनी ही बाधायें आ खड़ी होती हैं। अपना स्वार्थी-मन कम बाधक नहीं होता। ऊंच-नीच, आगा-पीछा सोचकर वह यह निष्कर्ष निकालता है अभी अमुक आवश्यक कार्य करने को पड़े हैं पहले उन्हें पूरा करलें, यह दान धर्म तो पीछे भी कभी हो सकते हैं, अभी जल्दी ही क्या है?
इसी प्रकार कुटुम्ब परिवार वाले, तथा मित्र हितैषी कहलाने वाले व्यक्ति आमतौर से यही चाहते हैं कि इस व्यक्ति के धन श्रम, सहयोग या व्यक्तित्व का पूरा लाभ हमें ही मिलता रहे। यदि सत्कर्म में उसका धन या श्रम लगता है तो उसमें उन्हें अपनी प्रत्यक्ष हानि दीखती है। ऐसी दशा में वे अनेक बहाने अनेक तर्क उपस्थित करके उस ओर से विरक्ति पैदा करने का प्रयत्न करते हैं।
आज यदि सत्कर्म कर सकने की परिस्थिति है तो कल भी वह बनी ही रहेगी इसका कोई ठिकाना नहीं। उलटती पलटती छाया की तरह मनुष्य के दिन फिरते रहते हैं। आज का युवा कल बूढ़ा होगा ही, आज के निरोग को कल रोग घेर सकता है। आज का धनी कल निर्धन हो जाय तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं, आज की चैन की जिंदगी बिताने वाले के सामने कल अनेकों चिन्ताएं और समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। ऐसी दशा में यह भी सम्भव है कि तब उस सत्कर्म कर सकने में सचमुच ही विवशता उत्पन्न हो जाय और मनोरथ अधूरे के अधूरे ही पड़े रहें।
रावण चाहता था कि स्वर्ग के लिये सीढ़ी बनाले, समुद्र के खारे जल को मीठा बनाले और देवताओं से लड़कर अमृत छीन लावे पर वह आजकल-आजकल टालता रहा। दैनिक जीवन के ‘जरूरी’ काम उसे घेरे रहे और यह महत्वाकांक्षा पीछे पड़ती गई। मौत का दिन आ पहुंचा। लक्ष्मणजी उससे राजनीति पढ़ने गये तो रावण ने कहा लक्ष्मण! मनुष्य की भारी भूल यह है कि वह महत्वपूर्ण सत्कर्मों की उपेक्षा करे और साधारण जीवनयापन के कार्यों में ही लगा रहे। मैंने यही भूल की और अपनी तीनों आकांक्षाएं अधूरी छोड़कर इस संसार से विदा हो रहा हूं।
ईसा मसीह ने कहा कि ‘‘जो तेरा दाहिना हाथ करना चाहे उसकी बायें हाथ को खबर न होने दें।’’ इस मन्त्र का एक अर्थ यह है अपने शुभ कर्मों का विज्ञापन न करो, वाहवाही लूटने और धर्मात्मापन जताने के लिये ढोल न पिटवाओ। वहां दूसरा अर्थ यह भी है कि जितनी जल्दी हो सके उतनी तत्परता से सत्कर्म सम्पन्न कर लिया जाय। हो सकता है दाहिने हाथ के कार्य में बायां हाथ कोई अड़ंगा लगादें। मनीषियों ने कहा है—‘‘दुष्कर्म करना हो तो उसे करते हुए कितनी ही बार विचारो और उसे आज की अपेक्षा कल परसों पर छोड़ो। किन्तु यदि कुछ शुभ करना है तो पहले ही भावना तरंग को कार्यान्वित होने दो। कल वाले काम को आज ही निपटाने का प्रयत्न करो। पाप तो रोज ही अपना जाल लेकर हमारी घात में फिरता रहता पर पुण्य का तो कभी-कभी ही होता है। उसे निराश, खाली हाथ लौटा दिया तो न जाने फिर कब आवे।
यदि अपना मन कुछ सत्कर्म करने की बात सोचे तो विचारणा का क्षेत्र इतना ही रहना चाहिए कि आज की परिस्थिति में हम क्या कर सकते हैं। जो कर सकते हों वही कर डालने का प्रयत्न करना चाहिए। पीछे कभी जब बहुत वैभव होगा तो उस समय बड़े-बड़े सत्कर्म करने की योजना भी बन सकती है। जो परिस्थिति आज नहीं है, या जो कर सकना सम्भव नहीं है उसके लिए कल्पना के बड़े-बड़े पुल बांधने से क्या लाभ?
जिस प्रकार कमाना, खाना, सोना, नहाना, जीवन के आवश्यक नित्य कर्म होते हैं उसी प्रकार परमार्थ भी मानव-जीवन का एक अत्यन्त आवश्यक धर्म कर्तव्य है। इसकी उपेक्षा करते रहने से अपनी आध्यात्मिक पूंजी घटती है, आत्मबल नष्ट होता और अन्तः भूमिका दिन-दिन निम्नस्तर की बनती चली जाती है। यही तो पतन है। सद्भावनाओं का स्वार्थ एवं निष्ठुरता कहलाता है। यह दुष्प्रवृत्ति बढ़ते-बढ़ते पाप का रूप धारण कर लेती है जिसके अन्तःकरण में परमार्थ बुद्धि विकसित है, जो उद्दात्त दृष्टिकोण के अनुसार सोचता रहता है, उसके लिये कोई बड़े पाप कर्म बन पड़ने सम्भव नहीं। पापी मनुष्य मूलतः संकीर्ण और स्वार्थी होता है। धन के अभाव में मनुष्य गरीब कहलाता है उसी प्रकार सत्प्रवृत्तियों का स्रोत सूख जाने पर उसके चरितार्थ कर सकने का, अवसर न मिलने पर हमें पापी बनना पड़ता है। जहां प्रकाश न होगा वहां अन्धकार का रहना स्वाभाविक है इसी प्रकार जिसे परमार्थ में तो रुचि होगी ही। दोनों से रहित स्थिति या तो जड़ जीवन-मुक्त दशा में। पाप से बोलने लिये पुण्य प्रवृत्तियों का चरितार्थ करते रहना आवश्यक है और वह तभी सम्भव है जब वैसा उत्साह उत्पन्न होने पर उसे कार्यान्वित करने के लिये भी साहस किया जा सके।