Books - हम सब एक दूसरे पर निर्भर
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Language: HINDI
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केवल स्वार्थ ही न सोचते रहिए
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मनुष्य इच्छाओं का पुतला है। उसके व्यावहारिक जीवन में अनेकों आकांक्षायें उठा करती हैं। स्वास्थ्य की, धन की, पुण्य परिवार और यश की अनेकों कामनायें प्रत्येक मनुष्य में होती हैं। इसके विविध काल्पनिक चित्र मस्तिष्क में बनते बिगड़ते रहते हैं। जैसे ही कोई स्थिर हुई कि मानसिक शक्तियां उसकी पूर्ति में जुट पड़ी, शारीरिक चेष्टायें उसी दिशा में कार्य करने लगती हैं। संसार की विभिन्न गतिविधियां व क्रिया कलाप चाहे भौतिक हों अथवा आध्यात्मिक, इच्छाओं की पृष्ठभूमि पर निरूपित होते हैं। रचनात्मक कदम तो पीछे का है, पहले तो सारी योजनाओं को निर्धारित कराने का श्रेय इन्हीं इच्छाओं को ही है।
स्थिर तालाब के जल में जब किसी मिट्टी के ढेले या कंकड़ को फेंकते हैं तो उसमें लहरें उठने लगती हैं। पत्थर के भार व फेंकने की गति के अनुरूप ही लहरें उठने लगती हैं। पत्थर के भार व फेंकने की गति के अनुरूप ही लहरों का उठना, तेजी व सुस्त गति से होता है। ठीक इसी प्रकार हमारी इच्छायें क्या हैं यह हमारी शारीरिक चेष्टाओं, चेहरे के हाव भाव बताते रहते हैं। व्यभिचारी व्यक्ति की आंखों से हर क्षण निर्लज्जता के भाव परिलक्षित होंगे। चेहरे का डरावनापन अपने आप व्यक्त कर देता है कि यह व्यक्ति चोर, डाकू, बदमाश है। कसाई की दुर्गन्ध से ही गाय यह पहचान लेती है कि वह वध करना चाहता है।
इसी प्रकार सदाचारी, दयाशील व्यक्ति के चेहरे से सौम्यता का ऐसा माधुर्य टपकता है कि देखने वाले अनायास ही उनकी ओर खिंच जाते हैं। विचार युक्त व गम्भीर मुखाकृति बता देती है कि यह व्यक्ति विद्वान्, चिन्तनशील व दार्शनिक है। प्रेम व आत्मीयता की भावना से आप चाहे किसी जीव-जन्तु को देखें वह भयभीत न होकर आपके उदार भाव की अन्तर मन से प्रशंसा करने लगेगा।
अनन्त आनन्द के केन्द्र परमात्मा के हृदय में एक भावना उठी—‘‘एकोऽहं बहुस्यामि’’ और इसी का मूर्तिमान रूप यह मंगलमय संसार बनकर तैयार हो गया। यह उनकी सदिच्छा का ही फल है कि संसार में मंगलदायक और सुखकर परिस्थितियां अधिक है। यदि ऐसा न होता तो यहां कोई एक क्षण के लिये भी जीना न चाहता। पर अनेकों दुःख तकलीफों के होने पर भी हम मरना नहीं चाहते, इसीलिए कि यहां आनन्द अधिक है।
इच्छा एक भाव है, जो किसी अभाव, सुख या आत्म–तुष्टि के लिए उदित होता है। इस प्रकार की इच्छाओं का सम्बन्ध भौतिक जगत से होता है। इनकी आवश्यकता या उपयोगिता न हो सो बात नहीं। दैनिक जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये धन चाहिए ही। सृष्टि संचालन का क्रम बना रहे इसके लिये दाम्पत्य जीवन की उपयोगिता से कौन इनकार करेगा। पर केवल भौतिक सुख के दांव-फेर में हम लगे रहें तो हमारा आध्यात्मिक विकास न हो पायेगा।
तब सौमनस्यता व सौहार्द पूर्ण सदिच्छाओं की आवश्यकता दिखाई देती है। प्रेम आत्मीयता और मैत्री की प्यास किसे नहीं होती। हर कोई दूसरों से स्नेह और सौजन्य की उपेक्षा रखता है। पर इनका प्रसार तो तभी सम्भव है जब हम भी शुभ इच्छायें जाग्रत करें। दूसरों से प्रेम करें, उन्हें विश्वास दें और उनके भी सम्मान का ध्यान रखें। इन इच्छाओं के प्रगाढ़ होने से सामाजिक व नैतिक व्यवस्था सुदृढ़ सुखद होती है पर इनके अभाव में चारों ओर शुष्कता का ही साम्राज्य छाया दिखाई देगा।
मानव जीवन गतिमान बना रहे इसके लिए सर्वप्रधान इच्छायें उपयोगी ही नहीं आवश्यक भी हैं। पर इनके पीछे फलासक्ति की प्रबलता रही तो उसकी तृप्ति न होने पर अत्यधिक दुःखी हो जाना स्वाभाविक है। इच्छाओं के अनुरूप परिस्थितियां भी मिल जायेंगी ऐसी कोई व्यवस्था यहां नहीं। कोई लखपति बनना चाहे पर व्यवसाय में लगाने के लिये कुछ भी पूंजी पास न हो तो इच्छा पूर्ति कैसे होगी, ऐसी स्थिति में दुःखी होना ही निश्चित है। हम जो भी इच्छायें करें वह पूरी ही होती रहें यह सम्भव नहीं। इनके साथ ही आवश्यक श्रम, योग्यता एवं परिस्थितियों का भी प्रचुर मात्रा में होना आवश्यक है। किसी की शैक्षणिक योग्यता मैट्रिक हो और वह कलक्टर बनना चाहे तो यह कैसे सम्भव होगा? इच्छाओं के साथ वैसी ही क्षमता भी नितान्त आवश्यक है। विचारवान् व्यक्ति सदैव ऐसी इच्छायें करते हैं जिनकी पूर्ति के योग्य साधन व परिस्थितियां उनके पास होती हैं।
इसका तात्पर्य यह नहीं कि हम जिन परिस्थितियों में आज हैं उन्हीं में पड़े रहें, जितनी हमारी क्षमता है उसी से सन्तोष कर लें। तब तो विकास की गाड़ी एक पग भी आगे न बढ़ेगी। आज जो प्राप्त है उसमें सन्तोष अनुभव करें और कल अपनी क्षमता बढ़े इसके लिए प्रयत्न शील हों तो इसे शुभ परिणित कहा जायेगा। नेपोलियन बोनापार्ट प्रारम्भ में मामूली सिपाही था। चीन के प्रथम राष्ट्रपति सनयान सेन अपने बाल्यकाल में किसी अस्पताल के मामूली चपरासी थे। इन्होंने अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए क्रमिक विकास का रास्ता चुना और अपना लक्ष्य पाने में सफल भी हुए।
इस व्यवस्था में लम्बी अवधि की प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है। पर व्यक्तित्व के निखार का यही रास्ता है। अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए पहले आप उस काम के करने की दृढ़ इच्छा मन में करलें। पीछे सारी मानसिक शक्तियों को उसमें लगा दें तो सफलता की सम्भावना बढ़ जाती है। दृढ़ इच्छा शक्ति से किये गये कार्यों को विघ्न बाधायें भी देर तक रोक नहीं पातीं। संसार में जिन लोगों ने भी बड़ी इच्छाओं की पूर्ति की उन्होंने पहले उसकी पृष्ठभूमि को अधिक सुदृढ़ बनाया। पीछे उन कार्यों में जुट पड़े। तीव्र विरोध के बावजूद भी सिकन्दर झेलम पार कर भारत विजय दृढ़ मनस्विता के बल पर ही कर सका। शाहजहां की उत्कट अभिलाषा का परिणाम ताजमहल आज भी इस धरती पर विद्यमान है।
जीवन लक्ष्य की प्राप्ति भी ऐसे ही महान कार्यों की श्रेणी में आती है। दूसरों से सिद्धियों सामर्थ्यों की बात सुनकर आवेश में आकार आत्मसाक्षात्कार की इच्छा कर लेना हर किसी के लिए आसान है। पर पीछे देर तक उस पर चलते रहना, तीव्र विरोध और अपने स्वयं के मानसिक झंझावातों को सहते हुए इच्छा पूर्ति की लम्बे समय तक प्रतीक्षा की लग्न हममें बनी रहे तो परमात्मा की प्राप्ति के भागीदार बन सकना भी असम्भव न होगा।
इसके विपरीत यदि हमारी इच्छा शक्ति ही निर्बल, क्षुद्र और कमजोर बनी रही तो हमें अभीष्ट लाभ कैसे मिल सकेगा? अधूरे मन से ही कार्य करते रहे तो लाभ के स्थान पर हानि हो जाना सम्भव है। इच्छायें जब तक बुद्धि द्वारा परिमार्जित होकर संकल्प का रूप नहीं ले लेतीं पूर्ति संदिग्ध ही बनी रहेगी। इच्छा-शक्ति यदि प्रबल न हुई तो वह लग्न और तत्परता कहां बन पायेगी जो उसकी सिद्धि के लिए आवश्यक है।
मनुष्य इच्छायें करे यह उचित ही नहीं आवश्यक भी है। इसके बिना प्राणि जगत निःचेष्ट एवं जड़वत् लगने लगेगा। किन्तु इसका एक विषाक्त पहलू भी है, वह है इनकी अति और अनौचित्य मनुष्य को क्लेशपूर्ण स्थिति में ले जा पटकने के लिये इच्छाओं की अति और उनकी अर्नमचित्यता ही प्रमुख कारण है।
अच्छी या बुरी जैसी भी इच्छा लेकर हम जीवन क्षेत्र में उतरते हैं वैसी ही परिस्थितियां सहयोग भी जुटते चले जाते हैं। हमारी इच्छा होती है एम.ए. पास करें तो स्कूल की शरण लेनी पड़ती है। अध्यापकों का सहचर्य प्राप्त करते हैं। पुस्तकें जुटाते हैं। तात्पर्य यह है कि इच्छाओं के अनुरूप ही साधन जुटाने की आदत मानवीय है। पर यदि यह इच्छायें अहितकर हो तो दुराचारिणी परिस्थितियां और बुरे लोगों का संग भी स्वाभाविक ही समझिये। ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपनी कामना भले ही पूर्ण कर ले पर उसे निन्दा, परिताप एवं बुरे परिणाम ही भोगने पड़ेंगे। व्यभिचारी व्यक्ति अपयश और स्वास्थ्य की खराबी से बचा रहे यह असम्भव है। चोर को अपने कुकृत्य का दण्ड न भोगना पड़े यह हो नहीं सकता। तब आवश्यकता इस बात की होती है कि अच्छी कामनायें ही करें।
शास्त्रकारों और मनीषियों ने इसलिए अपने स्वार्थ-हित की आवश्यकता भर चिन्ता करते हुए परमार्थ प्रयोजनों के लिये अधिक से अधिक प्रयास करते रहने का निर्देश दिया है। अपने निर्वाह और हित के लिये स्वार्थ रखना और उसे पूरा करना भी आवश्यक है पर उसे एक सीमा तक ही उचित कहा जा सकता है।
मनुष्य की अधिकांश इच्छाओं का केन्द्र उसका स्वयं का हित और स्वयं का स्वार्थ है। अधिकांश व्यक्ति यह सोचते और प्रयत्न करते हुए अपनी जिन्दगी गुजार देते हैं कि हम सुविधा पूर्वक अपना जीवन व्यतीत करें तथा जितना हो सके उतनी सुख सुविधाएं अर्जित करें।
लोग सोचते हैं कि हमें कोई बड़ा आदमी तो बनना नहीं और न कोई नाम वरी कमाने की कामना है फिर क्यों अपने को विभिन्न विधि निषेधों में बांधा जाय? क्यों दूसरों के लिए अपने आपको कष्ट दिया जाय। वस्तुतः यह सोचने समझने का एकांगी दृष्टिकोण है और स्वार्थपरता का परिचायक है।
अध्यात्म की दृष्टि से सारा विश्व ब्रह्माण्ड ही एक है। समग्र विश्व की चेतना का अधिष्ठाता विश्वात्मा है। बिखरी हुई आत्माएं इसी के छोटे छोटे घटक हैं। जब तक यह इकाइयां परस्पर मिलकर रहती हैं और एक दूसरे के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हैं तभी तक दृश्यमान सौन्दर्य का अस्तित्व है। यदि इनका विघटन होने लगे तो केवल धूलि मात्र ही इस संसार में शेष रह जायगी। विश्व-मानव की विश्वात्मा यदि अपनी समग्र चेतना से विघटित होकर संकीर्ण स्वार्थ परता में बिखरने लगे तो समझना चाहिए विश्व-सौन्दर्य की समाप्ति का समय निकट आ गया।
शरीर एक है। उसमें उंगलियां, उनके पोरुवे, जोड़, हड्डियां, मांस पेशियां आदि अनेक हैं। उन सबका मिला-जुला स्वरूप ही शरीर है। इन सभी का समन्वय जीवन-क्रम को चलाता है। वे सभी बिखरने लगें। अपनी अलग इकाई को ही सब कुछ मानें दूसरे अंगों को सहयोग करने की बात सोचना छोड़ दें तो फिर समझना चाहिए उन्हें भी दूसरों के सहयोग से वंचित होना पड़ेगा। ऐसी दशा में जिस स्वार्थ को साधने की उनकी इच्छा थी वह भी न सध सकेगा।
हाथ तभी तक सक्रिय रहेगा जब तक वह अपनी कमाई मुंह को देगा—मुंह पेट को देगा—पेट हृदय को और हृदय अपने उपार्जन रक्त का वितरण समस्त शरीर को सौंपने का अर्थ प्रकारान्तर से अनेक गुना लाभ अपने लिए उपार्जित करना। हाथ अपनी मुट्ठी में रखे रहे—मुंह या पेट को देने से इनकार कर दें तो फिर भूखा शरीर सूखता जायेगा और वे हाथ भी उस विपत्ति से संत्रस्त हुए बिना न रहेंगे। अपनी कमाई वे मुंह को देते हैं तो बदले में बहुमूल्य रक्त प्रवाह का लाभ लेते हैं और जितनी शक्ति कमाने में खर्च की थी उसकी भरपाई कर लेते हैं।
उंगली यदि शरीर की क्रमबद्ध सत्ता व्यवस्था में भाग लेने से इनकार करदें और अपने को अलग-अलग काट कर स्वतन्त्र रखने में विश्वास करे तो वह घाटे में रहेंगी। कटी हुई उंगली देखते-देखते निर्जीव हो जायेगी और सड़ने लगेगी। कट जाने पर मनमर्जी करने का जो लाभ सोचा था वह इसलिए न मिल सकेगा कि रक्त प्रवाह के लिए उसे दूसरे अंगों पर निर्भर रहना पड़ता था। सहयोग देने से इनकार करने का अर्थ सहयोग पाने का द्वार बन्द कर देना भी है। हमारे एक के सहयोग न देने से भी समाज शरीर क्रम चलता रहेगा पर अपने को स्वार्थी एवं असामाजिक सिद्ध करने के बाद समाज का सद्भाव खो देने की जो हानि उठानी पड़ेगी उससे अपनी ही क्षति अधिक होगी।
मनुष्य-शरीर विविध अंगों एवं अवयवों से मिलकर बना है। क्या शरीर का कोई अंग व्यक्तिगत रूप से इस बात का अधिकारी है कि वह अपना विकास त्याग दें और यह कहकर स्वस्थ रहना छोड़ दें कि यह तो हमारी इच्छा है कि हम उन्नत अवस्था में रहते हैं या गिरी दशा में। निश्चय ही शरीर के किसी अंग अथवा अवयव को ऐसा अधिकार नहीं है। उसकी दशा केवल उसकी अपनी व्यक्तिगत दशा नहीं है उसकी दशा सम्बन्ध पूरे शरीर से है। उसका अस्वस्थ अथवा अविकसित रहना पूरे शरीर पर प्रभाव डालेगा, उसकी अनुपयुक्तता समग्र शरीर को या तो अस्वस्थ कर देगी अथवा उसकी सुघरता सुन्दरता को बिगाड़ देगी।
उसी प्रकार हर मनुष्य समाज रूपी शरीर का एक अभिन्न अंग अथवा अवयव है। उसकी व्यक्तिगत कोई सत्ता नहीं है और न समाज से उसका अस्तित्व ही अलग है। उसकी हर दशा का प्रभाव शरीर पर पड़ना ही है। समाज के सदस्य जितने स्वस्थ, शिक्षित, शिष्ट और उन्नत अवस्था वाले होंगे, समाज भी उतना ही स्वस्थ, शिष्ट और उन्नत होगा और उसके सदस्य जितनी अवनत अवस्था के होंगे, समाज भी उतना पतित और निकृष्ट अवस्था वाला होगा। हममें से जिस प्रकार किसी को अपना अलग अस्तित्व मानने का अधिकार नहीं है, उसी प्रकार यह भी अधिकार नहीं है कि हम उन्नत दशा में रहकर समाज को नीचे घसीटने की चेष्टा करें, हम समाज के अभिन्न अंग हैं और इसके लिए नैतिकता बद्ध हैं कि आत्मोन्नति द्वारा समाज की स्थिति में उच्चता का समावेश करें।
अब एक बार उन्नति अथवा अनुन्नति को व्यक्तिगत बात भी उन्नत दिशा की ओर अग्रसर हुए बिना जीवन में सुख सन्तोष कहां? सुख-सन्तोष तो व्यक्तिगत जीवन का लक्ष्य है ही। इसके विषय में तो कोई यह कह ही नहीं सकता कि हमें सुख-सन्तोष की कामना नहीं है। हम दुख-दर्द का ही जीवन व्यतीत करते रहेंगे। यह हमारी व्यक्तिगत वस्तु होगी। इससे किसी का कोई सम्बन्ध नहीं। सुख-सन्तोष के लिये हम जीवन पर कोई प्रतिबन्ध अथवा नियम आरोपित करना पसन्द नहीं करते। कहने को कोई भले ही मुख से बकवास कर दे, किन्तु सुख-संतोष संसार का प्रत्येक व्यक्ति चाहता है। इसके अथवा इसकी आशा के बिना कोई जीवित ही नहीं रह सकता।
जो उन्नति की ओर बढ़ने का प्रयत्न नहीं करेगा, वह पतन की और फिसलेगा। यह स्वाभाविक क्रम है। कोई भी उन्नति अथवा अवनति के बीच खड़ा नहीं रह सकता। इस संसार में मनुष्य जीवन की दो ही गतियां हैं, उत्थान अथवा पतन। तीसरी कोई भी माध्यमिक गति नहीं है। मनुष्य उन्नति की ओर न बढ़ेगा तो समय उसे पतन के गर्त में गिरा देगा। उस अवस्था में उसके जीवन में दुःख पश्चाताप, आत्म-ग्लानि अथवा कष्ट–क्लेशों के सिवाय सुख-शान्ति की एक क्षीण किरण भी पास न आ सकेगी।
इतना ही नहीं हम सब आध्यात्मिक दृष्टि से भी उन्नति की ओर बढ़ने में कर्त्तव्य बद्ध हैं। यह शरीर, यह जीवन और यह सारी सुविधायें हमारी व्यक्तिगत सम्पत्तियां नहीं हैं कि हम इन्हें जिस प्रकार चाहें सदुपयुक्त अथवा दुरुपयुक्त करते रहें। यह सब वस्तुयें किसी दूसरे की सम्पदा है जो हमें एक विशेष प्रयोजन के लिए प्रदान की गई हैं। यह सारी वस्तुयें ईश्वर की धरोहर हैं और जीवात्मा का उद्धार करने के लिए, प्रयोग करने के लिए दी गई है। हम इनको विषयों के भोग में समाप्त कर डालें, किसी प्रकार भी हमें यह अधिकार प्राप्त नहीं है। जो कोई इस सम्बन्ध में अनाधिकार चेष्टा करता है, उसे लोक से लेकर परलोक तक उसका समुचित दण्ड भोगना पड़ता है। यदि विषय-भोग ही इसका उद्देश्य रहा होता तो परमात्मा हमें पशु-योनियों से बढ़ाकर मनुष्य की योनि में क्यों बुद्धि, विवेक, विचार और भावनाओं की अनुपम विभूतियां ही अनुग्रह करता? हम आज मनुष्य हैं। यह स्थिति यों ही अनायास हमें प्राप्त नहीं हो गई है। यह सुफल है, जो हमें निरन्तर उन्नति करने के पुण्य प्रयास में दिया गया हैं। कीट पतंगों और पशु-पक्षियों की चौरासी लाख योनियों को क्रमशः पार करते हुए इस जीवात्मा को मनुष्य शरीर में ला सकने में सफल हो सके हैं। और यही वह अवसर करने में पहुंचा कर अपने कर्त्तव्य से निवृत हो जायें। निम्न एवं साधन रहित कीट-पतंगों की स्थिति से उन्नति करते-करते मनुष्य जैसे महान् जीवन में आकर हम उस अभियान को बन्द कर पतन की ओर जाने लगे, इसमें कोई बुद्धिमानी जैसी बात तो समझ नहीं आती। जबकि यही वह अवसर है, जिसमें उन्नति का प्रयास सबसे अधिक करने की आवश्यकता है। सामाजिक हित, सुख-शान्ति अथवा आत्मोद्धार कोई भी उद्देश्य लेकर क्यों क्यों न किया जाय, हम उन्नति की ओर अग्रसर होने को बाध्य हैं और हमें यह हितकर बन्धन स्वीकार ही करना चाहिए। इन सभी उन्नतियों की ओर एक साथ अग्रसर होने का एक ऐसा समन्वित मार्ग निकाला जा सकता है, जिसमें सामान्य जीवन से हट कर किसी विशेष प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं है। वह मार्ग है किसी सदुद्देश्यपूर्वक जीवन की धारा को मर्यादित मार्गों से चलाना और ऐसे मार्ग न अपनाना जिस पर चलने से आत्मा निषेध करे।
स्वार्थ पूर्ण जीवन सबसे दुःखदायी जीवन है। इसका परिणाम नरक जैसी परिस्थितियां उत्पन्न कर देता है। संघर्ष, द्वेष-ईर्ष्या, लोभ, लिप्सा आदि दोषों का मूल कारण स्वार्थपरता के कारण ही मनुष्य चोर छलिया बेईमान और दुष्ट बन जाता है ऐसा नहीं कि लोग इसको जानते न हों। लोग जानते हैं फिर भी इसी विभीषिका में गिरते चले जाते हैं। स्वार्थ की ओर पैर बढ़ाने से उन्हें आशंका होती है, आत्मा धिक्कारती है और लोग उसकी आवाज अनसुनी करके उस ओर बढ़ते रहते हैं। यह अप्राकृतिक प्रवृत्ति है, मनुष्य को इस निन्दनीय दुर्बलता को त्याग देना चाहिए। निःस्वार्थ भाव से अपने स्वत्वों की रक्षा और कर्त्तव्यों का पालन करने से सुन्दर शीतल और सन्तोष पूर्ण अन्तःशान्ति मिलती है।
स्वार्थ त्याग देने से परमार्थ का भाव स्वतः आ जाता है। परमार्थ पूर्ण जीवन स्वर्गीय सुख-शान्ति का अगार है। किसी का हित करना, आवश्यकता पीड़ितों की सेवा करना, किसी की सहायता में तत्पर रहना और किसी को दुःख न देना आदि ऐसी वृत्ति है, जिसमें आनन्द की अनिवर्चनीय पुलक समायी रहती है।
परमार्थी व्यक्ति बाहर से भले ही साधारण स्थिति का दिखाई दे, वह जोर-जोर से हंसता, खिलखिलाता भले ही दृष्टिगोचर न हो तथापि उसका अन्तःकरण परिपूर्ण ही बना रहता है। उसमें एक अहेतुक सम्पन्नता, गरिमा और गौरव की अनुभूति बनी रहती है। परमार्थी की आत्मा ही सन्तुष्ट नहीं रहती, बल्कि उसके सम्पर्क में आने वाला हर आदमी सन्तुष्ट और प्रसन्न रहता है, जिससे उसकी स्वयं आत्मा का आनन्द बढ़ जाता है। सारे लोग उसे प्यार करते हैं, उस पर श्रद्धा के फूल बरसाते हैं और प्रशंसा किया करते हैं। समाज का यह अनुदान किसी के लिये भी सदा-सर्वदा वांछनीय है।
परमार्थ बुद्धि रखने वाले व्यक्ति का सामाजिक ही नहीं पारिवारिक जीवन भी बड़ा सुखी व सन्तुष्ट रहता है। परिवारों में अधिकतर कलह का कारण स्वार्थपरता ही होती है। लोग अपनी-अपनी लगाए रहते हैं। अपने लिए ही अधिक से अधिक वस्तुयें और अपेक्षा चाहते रहते हैं। हर कोई यह चाहता है कि परिवार में उसकी महत्ता और नेतृत्व ही बना रहे, प्रौढ़ों सदस्य प्रौढ़ के बीच और अवयस्क सदस्य समवयस्कों के बीच इसी भावना से प्रेरित रहकर कलह उत्पन्न करते रहते हैं। स्थिति में तू-तू, मैं-मैं होना स्वाभाविक ही है। जिस पारिवारिक जीवन को स्वर्ग तुल्य सुखदायक बतलाया गया है, वह नरक तुल्य कष्टदायक बन जाता है।
जिन परिवारों के प्रमुख गृहस्थ परमार्थ दृष्टिकोण के होते हैं, वे सबसे पहले अपने स्वार्थ का त्याग कर अधिकारों को कर्त्तव्यों में समाविष्ट कर लिया करते हैं। सबके साथ समान प्रेम करते और सबको यथोचित आदर देते हैं। अपना कोई भाग न रखकर सारे का सारा परिजनों को बांट देते हैं। ऐसे समभावी मुखिया को कष्ट पहुंचाने वाला कोई काम करना किसी परिजन को पसन्द न होगा। फिर जिस परिवार में त्याग, निःस्वार्थ और स्नेह का त्रिविधि समीर बहता हो, वहां के किसी सदस्य का चित्त अवांछनीय ताप से व्याकुल रह भी कैसे सकता है। सुगन्ध का स्वभाव है कि वह जिसके सम्पर्क में आती है उसे भी अपने समान ही सुगन्धित कर देती है। गुणों के सम्पर्क दूसरों को भी गुणी बना देता है। परिवार नायक की त्यागमय गति-विधि अन्य सदस्यों को प्रभावित किये बिना नहीं रह सकती। एक बार अस्वार्थ का सुख अनुभव कर लेने पर फिर कोई भी व्यक्ति स्वार्थ को पास नहीं ठहरने देगा।
इस प्रकार जिसमें स्वार्थ के त्याग और परमार्थ के ग्रहण की महानता स्वीकार कर अपना जीवन तदनुरूप ढाल लिया, उसके लिए मानो इसी संसार में स्वर्ग का द्वार उद्घाटित हो गया। जिसके परिवार में सुख-शान्ति बनी रहे और समाज जिसके लिये स्नेह एवं श्रद्धा के सुमन लिए खड़ा रहे उसके लिये इससे बढ़कर स्वर्ग अन्यत्र कहां हो सकता है? हम सब देवताओं के जिस अनदेखे स्वर्ग की कल्पना करते हैं, उसमें भी तो इस प्रकार के सुख-सन्तोष और हर्ष, प्रसन्नता का आरोप किया करते हैं। वहां भी इससे अधिक और क्या होता है। और उसे पाने के लिए भी तो स्वार्थ का त्याग कर परमार्थ का ही पथ अपनाना पड़ता है।
परमार्थ परायण व्यक्ति का दृष्टिकोण यह रहता है कि परमात्मा की कृपा और माता-पिता का उपकार ही साकार होकर हम सबको शरीर रूप में मिला है। इस प्रकार भी कह सकते हैं कि मानव-जीवन की आधार शिला उपकार ही है। इसलिये हमारा यह जीवन परोपकार में ही लगाना चाहिये। इसी में इसकी सार्थकता है और इसी में कल्याण। परोपकार के सदृश इस संसार में कोई दूसरा धर्म नहीं है। अपने अस्तित्व को संसार के हित में बलिदान कर देने से जिस महान् धर्म फल की प्राप्ति होती है, उसकी तुलना अन्य धर्म काण्डों से नहीं की जा सकती है। प्रसिद्ध सन्त मोओतजे कहा करते थे कि ‘‘यदि मेरे शरीर को पीसकर चूर्ण बना लेने में संसार के एक भी प्राणी का भला हो सकता है तो मैं उसके लिये सहर्ष तैयार हूं।’’
परोपकार के समान पुण्यदाता कोई भी दूसरा धर्म नहीं है। यदि ऐसा होता तो तपस्या में निरत महर्षि दधीचि देवों की भलाई के लिए अपना शरीर नहीं दे देते। वे शरीर की रक्षा करते और तपस्या करके बड़ी-बड़ी सिद्धियां प्राप्त और मुक्ति के लिये प्रयत्न करते रहते। किन्तु अवसर पाते ही उन्होंने तुरन्त ही परोपकार में अपना शरीर दान कर दिया। वे जानते थे कि हजारों वर्ष तप करने पर भी जो मुक्ति कठिनता से मिलती है, वह परोपकार में शरीर त्याग देने से तत्काल सरलता पूर्वक मिल जाती है।
परोपकार में सर्वस्व दे देने वाले एक दधीचि ही नहीं। भारत में तो शिवि, हरिश्चन्द्र, मोरध्वज, कर्ण, दिलीप आदि ने जाने कितने महापुरुष ऐसे हुए हैं जिन्होंने परोपकार को ही सर्वश्रेष्ठ धर्म माना और अवसर आने पर उसका सहर्ष निर्वाह भी किया। वह सारे मनीषी इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं थे कि यह शरीर कल्याण का साधन होने पर भी नाशवान् है। मानव-जीवन का कोई ठीक नहीं कि किस समय समाप्त हो जाये। यह तब तक भी चल सकता है, जब तक साधना पूरी हो और बीच में समाप्त हो सकता है। जीवन का रहना सदा सन्दिग्ध बना रहता है। शरीर से जहां पुण्य कर्म बनते हैं वहां कभी प्रमादवश इससे कोई त्रुटि भी हो सकती है। यही साधना के बीच में व्यवधान भी खड़ा कर सकता है।
जीवन-प्रवाह तो ऊंचे-नीचे मार्गों के बीच से होकर बहता है। अस्तु, इस शरीर, इस जीवन को परोपकार में समर्पित कर साधना का सबसे निरापद मार्ग है। इसी विवेचना के आधार पर उन्होंने अवसर पाते ही अपना जीवन परोपकार में लगा दिया और ऐसे सत्पुरुष क्षण-क्षण अपना जीवन परोपकार में ही लगाये चलते हैं। परोपकार से बढ़कर निरापद दूसरा कोई धर्म नहीं है।
प्राणिमात्र का हित, उपकार और कल्याण में रत रहना। मन, वचन, कर्म से दूसरे का हित चाहना और करना, किसी के अहित अथवा पीड़ा का विचार न करना और विश्व-बन्धुत्व की भावना को विकसित और विस्तृत करते रहना आदि सारी सदाशयतायें परोपकार ही मानी गई हैं। तथापि इनमें आध्यात्मिक शांति और निष्कलंक धर्मफल का समावेश तभी होता है, जब इनके पीछे कोई स्वार्थ-भाव निहित न हो। अन्यथा यही पुण्य कर्म आत्मा के लिये एक प्रवंचना बन जायेगा।
परोपकार का भाव तो प्रकृति के समान निःस्वार्थ होना चाहिए। सूर्य, चन्द्र, वायु, नदी, वन, पहाड़ नित्य निरन्तर संसार के उपकार में ही लगे रहते हैं किन्तु उसके बदले में न कुछ मांगते हैं और न चाहते हैं। चुपचाप अपना सर्वस्व दान करते रहते हैं। सूर्य नित्य नियम से अपना प्रकाश और ऊष्मा संसार को देने के लिये पृथ्वी की परिक्रमा करते रहते हैं, किन्तु उसके बदले में किसी से कुछ चाहते नहीं। चन्द्रमा नियम से संसार को आलोक और शीतलता दान करते रहते हैं, किन्तु सर्वथा निःस्वार्थ भाव से। इसी प्रकार वन-वृक्ष, नदी और पर्वत भी सदैव निःस्वार्थ भाव से ही अपने फल-फूल, काष्ठ जल और वनस्पतियां संसार को देते हुये कभी कोई प्रतिकार नहीं चाहते।
लोग जाते हैं अधिकार पूर्वक उनकी सम्पत्ति का भाग लेकर चले आते हैं उनके भंडार, उनकी सम्पत्ति सदा सर्वदा संसार हित के लिए खुली पड़ी रहती है। वे उसके लिये न तो किसी का हाथ रोकते हैं और न प्रतिदान के लिये हाथ फैलाते हैं। धन्य हैं ऐसे निःस्वार्थ, निष्काम और उदार परोपकारी परमात्मा की कृपा और आत्मा की सच्ची शान्ति के अधिकारी बनते हैं।
जब जड़ प्रकृति संसार का उपकार करने में इस गहरे निष्काम भाव से लगी रहती है तो क्या चेतन होकर मनुष्य संसार के कल्याण में नहीं लग सकता? लग सकता है और अवश्य लग सकता है। उसे लगना भी चाहिये। परोपकार में निरत होने से केवल संसार का ही भला नहीं होता प्रत्युत अपना कल्याण भी होता है। मनुष्य के चरित्र की परीक्षा परोपकार की कसौटी पर ही होती है। जो इसमें अपने को उत्तीर्ण कर लेता है वह सहज रूप से भवसागर से उत्तीर्ण हो जाता है।
परोपकार का पुण्य मनुष्य को सभ्य-सुसंस्कृत, उच्च विचार और भावना वाला बना देता है। परोपकार से मनुष्य का मन निर्मल और विकार रहित बनता है। उसके जीवन में सतोगुण की वृद्धि और आत्मा में आध्यात्मिक आलोक का समावेश होता है। परोपकार की भावना जितनी उच्च-विशाल और निष्काम होती जाती है, मनुष्य उतना ही परमात्मा के सान्निध्य की ओर बढ़ता जाता है। इस आत्मिक उन्नति और विकास का सुख अनिवर्चनीय है। इसका अनुभव तो वही त्यागी पुरुष कर सकता है, जो परोपकार के यज्ञ में अपने सर्वस्व को समिधा मान कर समर्पित कर देता है।
सत्पुरुषों की पहचान का सबसे बड़ा लक्षण है परमार्थ। कोई कितना ही सभ्य, शिष्ट और सुशील क्यों न दिखाई दे। नम्रता और विनय उसके शब्द-शब्द से टपकती चली हो, मुख पर कितनी ही करुणा और कृतज्ञता का भाव विराजमान् क्यों न रहे, यदि उसका जीवन परमार्थ पूर्ण नहीं है, उसके जीवन और वैभव का कोई अंश परोपकार एवं परमार्थ में नहीं लगता तो, उसे उस प्रकार का वास्तविक मनुष्य नहीं माना जा सकता, जैसा कि वह ऊपर से दीखता है।
धनाढ्यता का लक्षण धन उपार्जन अथवा संचय की मात्रा नहीं है। उसका लक्षण उदारता ही है। जो जितना अधिक उदार और परोपकारी है, वह उतना ही अधिक धनवान् है। एक पैसे का उपकार करने वाला गरीब कहीं अधिक धनवान् है, उस व्यक्ति की तुलना में जो करोड़ों का स्वामी होकर भी परोपकार के विषय में कृपणता करता है। जो परमार्थ में लीन है, तन, मन, धन से परोपकार एक परहित में निरत हैं, वही सज्जन है, वही सत्पुरुष है और वही धनवान् है।
परोपकार केवल मानवीय गुण ही नहीं वह आध्यात्मिक सद्गुण भी है। इसकी आराधना करने से लोक और परलोक दोनों का बनाव बनता है। इसी गुण पर जहां आत्मा का उत्थान निर्भर है, वहां संसार और समाज सृजन की व्यवस्था और विकास की धुरी भी इसी पर निर्भर रहती है। आज यदि समाज के सारे लोग केवल स्वार्थी बन जायं और दूसरों के हित का सम्पादन न करें तो कल ही समाज में घोर अनर्थ घटित होने लगे। अराजकता, संघर्ष और छीना झपटी का बोल-बाला हो जाये, जो उद्दण्ड, बली और शक्तिशाली हों, वे सारे साधनों और सम्पत्ति पर अपना एकाधिपत्य स्थापित कर लें और जो सामान्य, साधारण अथवा अपेक्षाकृत निर्बल हों, वे बेचारे पिस कर ही रह जायें। परहित और परोपकार के बिना संसार का क्रम एक क्षण भी नहीं चल सकता। अस्तु आत्मा और समाज के कल्याण के लिये यथा साध्य परोपकार के कार्य करते ही रहना चाहिये।
माता-पिता सन्तान को जन्म देते हैं। उनके पालन-पोषण और विकास के लिए कष्ट उठाते हैं धन के लिए परिश्रम करते, सुख और सुविधा के लिए चिन्ता करते किन्तु वे यह सब करते हैं, निस्वार्थ भावना से ही। किन्तु माता-पिता को पहले से ही यही पता रहता है कि उनका पुत्र बड़ा होकर उनकी सेवा करेगा, उनके लिये सुख और आराम के साधन जुटायेगा। तब भी वे बच्चों की सेवा में हर प्रकार का त्याग एवं उत्सर्ग करते ही रहते हैं। इतना ही नहीं, संसार में कुपुत्रों का उदाहरण देख कर भी और स्वयं भी एक से कष्ट पाते हुए भी दूसरे का पालन-पोषण करते ही रहते हैं।
वे अपनी इस सेवा के पीछे किसी प्रकार के प्रतिकार की भावना नहीं रखते। बच्चे की सेवा वे सेवा-भाव से ही करते हैं। बच्चों द्वारा कष्ट पाने के उदाहरणों को देख कर भी वे सेवा से संकोच नहीं करते। उन्हें उसमें एक आनन्द किसी आशा के कारण नहीं होता है। वह सुख, उस परमार्थ भाव का ही होता है, जो सन्तान की सेवा में उनके अनजाने ही निहित रहता है। परोपकार के सम्बन्ध में इसी प्रकार माता-पिता की तरह ही निःस्वार्थ भाव रखने से उसके द्वारा अनिवर्चनीय आनन्द, की उपलब्धि होती है।
परमार्थ परायणता आध्यात्मिक प्रौढ़ता का चिन्ह है—पेड़ जब पुष्ट हो जाते हैं, तब मांगते किसी से नहीं हर घड़ी देते ही देते हैं। लकड़ी, पत्ते, पुष्प, फल, छाया, सुगन्ध का अनुदान वे निरन्तर अपरिचित रूप से दूसरों को देते रहते हैं, यही उनका स्वाभाविक धर्म बन जाता है। अध्यात्म की भूमिका में जैसे-जैसे मनुष्य विकसित होता जाता है, वैसे-वैसे उसका परमार्थ पराग भी खिले हुए कमल पुष्प की तरह दशों दिशाओं में उड़ने लगता है। उसकी उदारता करुणा, महानता, सदाशयता एक घड़ी चैन से नहीं बैठती, वह लुटाने के लिये व्याकुल रहती है, गाय के थन में जरा भी दूध जमा हुआ कि वह कराहने लगती है, जब तक उसे खाली नहीं कर देती, तब-तक बेचैनी अनुभव करती है। पेड़ अपने परिपक्व फलों को बिना किसी के मांगें धरती पर टपकाते रहते हैं ताकि आवश्यकता ग्रस्तों को मधुर अनुदान अनायास ही बिना मूल्य मिल जाय। यही आध्यात्मिकता है।
जैसे-जैसे मनुष्य का आन्तरिक स्तर विकसित होता जाता है, वह इस विश्व वसुन्धरा को अधिक सुन्दर अधिक सुविकसित, अधिक सुसंस्कृत बनाने के लिये तत्पर दिखाई देता है। सेवा और अनुदान ही उसके प्रिय विषय और प्रिय व्यसन बन जाते हैं। अपने लिये वह स्वर्ग, मुक्ति या सिद्धि में से किसी की कामना नहीं करता वरन् यही सोचता रहता है कि जो कुछ मुझे मिला है, उसे विश्वभानना को अधिक सुसज्जित बनाने के लिये किस तरह उस सबको लौटा दूं।
देवत्व का स्वरूप है दया और दान। इस संसार में जो दुख और दैन्य है, उसे देखना पड़ता है, उससे उसका हृदय पिघल पड़ता है। ‘सन्त हृदय नवनीत समाना’ सूक्ति के अनुसार उसकी पिघलती हुई करुणा एवं सदाशयता इस बात के लिए विवश करती है कि पीड़ित मानवता के घावों पर मरहम लगाने के लिए उसके पास जो कुछ बल, बुद्धि, विद्या, सम्पत्ति तथा स्थिति है उसका अधिकाधिक भाग समर्पण करे। ऐसी स्थिति में वह अपना घर परिवार थोड़े लोगों में सीमाबद्ध नहीं करता। बेटे, पोतों को ही उसकी सारी विभूतियों का लाभ मिलना चाहिये ऐसा नहीं सोचता, वरन् सभी को अपना समझता है और मोहवश किन्हीं सम्बन्धियों के लिये मरते-खपते रहने की संकीर्णता छोड़ कर हर दर्दमन्द की—हर पिछड़े व्यक्ति की सेवा सहायता करने में तत्पर हो जाता है।
परमार्थ ही सच्चा स्वार्थ
कहा जा सकता है कि परमार्थ मानव जीवन का सच्चा स्वार्थ है। परम माने बड़ा, वास्तविक अर्थ माने प्रयोजन स्वार्थ। जो वास्तविक स्वार्थ बड़ा स्वार्थ है, उसी को परमार्थ कहते हैं। धन कमाना, स्वाद चखना, अहंकार जताना, यह बहुत छोटे और क्षणिक लाभ हैं। वास्तविक चिरस्थायी लाभ वह है जिसके आधार पर आत्मा की सुख शान्ति और मुक्ति का पथ प्रशस्त हो सके। शरीर वाहन है आत्मा स्वामी वाहन की सुविधा, सुरक्षा, का ध्यान तो रखा जाय पर स्वामी की सर्वथा उपेक्षा न कर दी जाय। यह तथ्य जिसकी समझ में आ जाता है वह आत्म-कल्याण की विचारणा और क्रिया पद्धति को प्राथमिकता देता है। शरीर और परिवार के निर्वाह की भी वह व्यवस्था करता है पर आत्मा के लक्ष्य और उद्देश्य को साधने के लिए भी वह समुचित प्रयत्न करता है। उन महान् प्रयोजनों में भी उसका समय, श्रम, पुरुषार्थ और मनोयोग कम-से-कम उतना तो लगता ही है, जितना शरीर निर्वाह में। हर दूरदर्शी और विवेकशील व्यक्ति की गतिविधि यही हो सकती है। वह जानता है कि शरीर तो कुछ दिन का साथी है।
सुख-दुःख, उत्थान-पतन का प्रतिफल तो अनन्त काल तक आत्मा के सामने ही आने वाले हैं। इसलिए शरीर मोह को एक सीमा होनी चाहिए और उसकी वासनाओं की पूर्ति में इतना न उलझ जाना चाहिए कि आत्मिक स्वार्थों की पूर्ण उपेक्षा ही होने लगे। उसके लिए फुरसत न मिलने आर्थिक तंगी का बहाना करके अब तो मन वह लाया जा सकता है पर जब शरीर वृद्ध, रुग्ण अथवा मृत हो जाता है, तब भूल समझ में आती है और सूझता है कि इस तुच्छ वाहन के मनोरंजन में बहुमूल्य मानव जीवन चला गया और जो करना चाहिए था, उसको सर्वथा भुला दिया गया। वह घड़ी घोर पश्चात्ताप की होती है। तब अपनी भूल का पता चलता है किन्तु समय बीत चुका होता है और हाथ मल-मल कर पछताने के अतिरिक्त और कुछ शेष नहीं रहता।
--------------------------------- पेज मिसिंग 51-66 --------------------------------- जाती है जैसी कि प्रकृति प्रेरणा मनुष्य को उपलब्ध है। जो जीवन विद्या का मर्म जानते हैं वे अपनी आन्तरिक विशेषताओं को बीज सत्ता की तरह परिपक्व करने के लिए अपनी हलचलों को गूदा संजोये, साथ ही यह भी ध्यान रखे कि यह समस्त उपार्जन वितरण के लिए है ताकि संसार की शोभा सुषमा का विस्तार होता रहे उसमें कमी न आने पाये।
मनुष्य की सेवा सहायता पशु करते हैं। अब तो कुछ दिन से उनका श्रम मशीनें भी हलका करने लगी हैं, पहले जब वे नहीं बनी थीं तब तो मनुष्य का जीवन आधार एक प्रकार से पशुओं का श्रम ही था, वह स्वयं तो अपने दुर्बल शरीर से बहुत कम कर पाता था जो करता था वह इतना नहीं होता था कि सुख-सुविधा युक्त जीवन जी सके। पशुओं का श्रम दूध, बाल, चर्म आदि की सहायता से ही उसकी समृद्धि भूतकाल में बनी रही। आज भी विश्व का अर्थ उत्पादन पशुओं के माध्यम से इतना होता है जो विश्व उपार्जन का दो तिहाई है। एक तिहाई ही मशीनें उत्पन्न करती हैं।
जिस प्रकार पशु मनुष्य जाति के जीवनाधार रहे हैं उसी प्रकार वनस्पति न केवल मनुष्यों की वरन् पशु-पक्षियों की जीवनाधार रही है। यहां तक कि कीट-पतंग भी उसी के अंचल में पलते पनपते रहें हैं। विशाल दृष्टि से देखा जाय तो वनस्पति ही जीवन का मूल स्वरूप है। उसी को खोकर जीवधारी जीवित हैं।
जलजीवों का जीवन क्रम भी यही है। समुद्र सरोवरों में एक हल्के किस्म की वनस्पति होती है, वही जल जीवों का मुख्य आधार है अकेले पापी पर ही वे जीवित नहीं रह सकते। जीवन रक्षा के लिए उन्हें भी वनस्पति चाहिए और वह जिन जलाशयों में छोटे या बड़े रूपों में होगी उसी में जलजीव जन्मेंगे बढ़ेंगे।
वनस्पति जगत का सर्व प्रधान सर्वत्र और उपलब्ध पौधा है—घास। यह घास पैरों तले कुचलती रहती और तुच्छ नगण्य प्रतीत होती है पर उसकी गरिमा पर विचार करें तो वह आश्चर्य जनक महत्व की प्रतीत होती है। घास अपने आपको जीव जगत की रक्षा अभिवृद्धि और पोषण के लिये किस प्रकार खपाती है यह दृष्टव्य है।
वनस्पति शास्त्रियों का कथन है कि घास धरती के पांचवें हिस्से उसे छाई हुई है। उसकी छह हजार जातियां अब तक ढूंढ़ी जा चुकी हैं। एक प्रकार से जीवधारियों का जीवन ही कहना चाहिए। पानी की बाढ़ पर रोकने के लिये बांध जो काम करते हैं उससे लाखों गुना अधिक काम घास करती है। यदि घास न हो तो वर्षा का पानी इतनी तेजी से बहे कि नदियों में विकराल बाढ़ें आयें और जमीन का बहुत बड़ा भाग कट कर खड्ड बनने लगे और उपयोगी मिट्टी समुद्र में पहुंच कर उपजाऊ क्षेत्र घटा दें। वह मिट्टी समुद्र को उथला करके और भरा हुआ पानी बाहर फैलने से तटवर्ती स्थानों के डूबने का खतरा हो जाय। जमीन में पानी सोखने की शक्ति घास की जड़ों से ही पैदा होती है यदि घास न हो तो सूखी मिट्टी ठोस या रेतीली पानी की अधिक मात्रा देर तक पचा सकने में समर्थ न हो।
हर मौसम और हर परिस्थिति में घास अपने आपको जीवित रखती है। घोर गर्मियों में जबकि वह सूख जाती है और जल गई प्रतीत होती है। तब भी उसका जड़ वाला भाग गीला और जीवित रहता है। यही कारण है कि वर्षा होते ही वह देखते देखते उग आती है और चारों और हरियाली छा जाती है। पहाड़, मैदान, मरुस्थल, शीत प्रधान, अति उष्ण प्रदेशों में ही नहीं अथाह समुद्र की तली में भी उसका अस्तित्व पाया जाता है। ‘काई’ के रूप में वह जलाशयों में भी छाई रहती है। अमरबेल की तरह बिना जड़ के भी बिना जमीन की सहायता लिये हुए भी वह अपना अस्तित्व बनाये रह सकती है।
घास का सूक्ष्म रूप है उसका पराग। वह हवा के साथ चार हजार फुट की ऊंचाई तक उड़ जाता है और आंधी-तूफानों के साथ हजारों मील की यात्रा करके कहीं से कहीं जा पहुंचता है मनुष्य के समान तथा जानवरों के शरीरों के साथ लिपट कर भी वह छूत की बीमारी की तरह लम्बी यात्रायें करता है और जहां भी अवसर मिलता है वहीं अपनी वंश वृद्धि करने में लग जाता है। पुराने जमाने में अफ्रीका से आदिवासी, अमेरिका में मजूरी के लिये लाये गये थे। घास के पराग भी उनके साथ चले आये और वह घास जो अफ्रीका में ही होती थी अमेरिका में भी उगने लगी।
हम गेहूं, जौ, चना, मक्का, आदि अन्न खाते हैं। यह सब क्या है घास के बीज ही तो हैं। पालक, बथुआ, धनिया, पोदीना, मेथी आदि छोटी घास है। बड़ी घास शाक भाजियों और खीरा, ककड़ी, खरबूज, तरबूज आदि के रूप में फलती है। ईख एक बड़े किस्म की घास ही तो है। चीनी की मिठास वस्तुतः घास का ही अनुदान है।
कीड़े मकोड़े, पशु-पक्षी, सब घास पर ही जीवित रहते हैं। पौधों पर चिपकने वाले कृमि कीटकों से लेकर कीड़े-मकोड़ों तक की संख्या इस पृथ्वी के जीव जगत का नौ बंटे दसवां भाग है। पशु, पक्षी, मनुष्य और बड़े जलचरों की संख्या एक बंटे दस ही है। इनमें से अधिकांश का अधिकांश जीवन घास पर ही निर्भर है। पशु तो घास पर ही जीवित हैं। प्रकारान्तर से और सबका भोजन भी उसी पर निर्भर रहता है। छोटे कीड़े मकोड़े घास की पत्तियां जड़ें आदि खाते हैं। उन्हें चिड़ियां खा जाती हैं। चिड़ियां या पशु मांसाहारियों के पेट में चले जाते हैं। इस प्रकार मांस भक्षी जीवों का घुमा फिरा कर मूल भोजन घास ही है। इसलिए उसे जीव धारियों का मूलभूत आधार कहा गया है। जड़ी-बूटियां खाने वाला यदि दो सेर घास खा ले तो उसे उतनी ही शक्ति मिल सकती है। समझा यह जाता है कि दाल, दूध, अण्डा, मांस से ही प्रोटीन प्राप्त होता है पर यह भूल जाते हैं कि घास में भी प्रोटीन की मात्रा कम नहीं है और वह अपने ढंग की सबसे निर्दोष प्रोटीन है। टूटी-फूटी मांस पेशियों की मरम्मत का उसमें अनुपम गुण है।
घास ऊपर जितनी लम्बी दीखती है उसकी जड़ें जमीन के अन्दर उससे कहीं अधिक लम्बी होती हैं। यही कारण है कि मिट्टी को बांधे रहती हैं, उसे पोला रखती है। जिससे वह पानी, खाद और हवा सोख कर उत्पादक बनी रह सके। मिट्टी से जितना जीवन वह लेती है उससे भी ज्यादा उसे प्रदान भी करती है। जमीन का उपजाऊ पन घास पर ही निर्भर है। जहां घास नहीं जमेगी वह जमीन अनुत्पादक और वीरान जैसी रहेगी।
मनुष्य शरीर भी भौतिक शास्त्रियों की दृष्टि से एक प्रकार का वृक्ष ही है। उसकी सारी आवश्यकता भूमि द्वारा उत्पन्न वनस्पतियों से ही पूरी होती है। हवा और जल को छोड़कर मुख से खाये जाने वाले पदार्थों में वनस्पति ही एक मात्र वह आधार है जिसे ‘अन्न’ या आहार कहते हैं। उसके बिना किसी का भी निर्वाह नहीं हो सकता। घास हर जगह उपलब्ध होने से उसे सस्ती समझकर उपेक्षणीय समझा भर जाता है पर वस्तुतः उसका महत्व किसी भी बहुमूल्य पदार्थ से कम नहीं है। एक पौण्ड घास में इतनी कैलोरी शक्ति रहती है कि आदमी उतने से ही डेढ़ घण्टे तक लकड़ी काट सके। बीजों में इससे चार गुनी अधिक शक्ति होती है।
संसार में आय के साधन कारखाने व्यापार आदि को समझा जाता है पर सच बात यह है कि मनुष्य जाति का आय का सबसे बड़ा साधन पशु है और वे घास पर निर्भर रहते हैं। इस प्रकार घास को आर्थिक दृष्टि से संसार का सबसे बड़ा आय-साधन भी माना जा सकता है। साफ सुथरी जमीन को घास की ही देन कह सकते हैं यदि वह न हो तो सर्वत्र धूलि उड़ती दिखाई पड़े या फिर चट्टानों जैसी निर्जीव स्थिति दीख पड़े।
मकान, किवाड़, फर्नीचर, फल, चूल्हा, चटाई, कपड़े, कागज, जिधर भी नजर उठाकर देखें घास, वृक्ष और वनस्पति का ही वरदान, अनुदान बिखरा पड़ा है। वह मनुष्य की लकड़दादी है। सृष्टि के निर्माण काल में सबसे पहले वनस्पति को ही उद्भव हुआ था। एक कोषीय बहुकोशीय जीवन तो उसके बहुत बाद में बने और मनुष्य तो उन प्राणधारियों की शृंखला से हजारों पीढ़ी पश्चात जन्मा है।
घास का ही विकसित रूप है वृक्ष। गुल्म झाड़ियों, पौधे और विशाल वृक्ष उसी प्रकार छोटे हैं जिस प्रकार चतुष्पदों में छोटी चुहिया और विशालकाय हाथी। छोटा मच्छर और बड़ा सारस। इनके आकार प्रकार बड़े छोटे हैं वह वर्गीकरण तो उसी स्तर पर होगा। वनस्पति में छोटी घास और बड़े विशालकाय वृक्ष गिने जा सकते हैं। उन सबकी अपनी विशेषताएं ऐसी हैं जो सृष्टि की सुन्दरता और सन्तुलन बनाये रखने में महत्व पूर्ण योगदान करती हैं।
कैलीफोनिया में पाया जाने वाला उगलस वृक्ष 300 से 400 फुट तक लम्बा होता है इसका तना 50 फुट व्यास तक का पाया जाता है। ‘फर’ नामक वृक्ष की आयु हजारों वर्ष मानी जाती है। यदि इन विशाल वृक्षों का तना खोखला कर दिया जाय तो उसमें 200 बच्चों को पढ़ाने जैसा एक स्कूल आसानी से बन सकता है। अमेरिका में कई ऐसे फर के वृक्ष हैं जिनके तने को खोखला करके उनमें बीच में सड़क निकाल दी गई है। सड़क बनाने में उनके काटने की अपेक्षा यह तरीका अधिक अच्छा समझा गया। सन्त, ब्राह्मण, दानी परोपकारी मनुष्य ही नहीं होते। गाय जैसे पशु भी उसी स्तर के वन्दनीय वर्ग में आते हैं। वृक्षों में भी कुछ वृक्ष ऐसे ही हैं जिन्हें सन्त या दानवीर की उपाधि दी जा सकती है।
उत्तरी आस्ट्रेलिया में एक विशालकाय गोरख इमली का वृक्ष है। यह पेड़ दो हजार वर्ष पुराना है। इसका खोखला तना किसी समय नगर जेल की तरह काम में लाया जाता था। ऐन्डोनियम वृक्षों के तनों में पानी भरा होता है और यह कई वर्षों तक सूख पड़ने पर भी हरे ही बने रहते हैं। दक्षिण अमेरिका के ब्राजील और पेरु के जंगलों में एक ऐसा वृक्ष होता है जिसके तने से दूध जैसा तरल पदार्थ निकलता है जो मीठा भी होता है और स्वादिष्ट भी। वन वाले इसे देवताओं की कामधेनु समझते हैं और बड़े चाव से उसका दूध पीते हैं।
इन्डोनेशिया के सुमात्रा द्वीप में और अमेरिका के चिली देश में एक ऐसा वृक्ष पाया जाता है जिससे पानी टपकता रहता है और उसके नीचे एक छोटा गड्ढा उस पानी से भरा रहता है। यह पेड़ अपनी पत्तियों द्वारा हवा में उड़ती हुई भाप बड़ी मात्रा में सोखता है और फिर अपनी आवश्यकता जितना जल पास में रखकर शेष को बूंदों के रूप में बरसा देता है।
अफ्रीका में एक ऐसा पेड़ पाया जाता है जिसकी छाल को आटे की तरह पीसकर रोटी बनाई जाती है। यह अन्न की तरह पौष्टिक और स्वादिष्ट होती है। वनस्पतियों का विकसित रूप ही सचेतन जन्तुओं में परिणत हुआ है। विकास क्रम की शृंखला यही बताती है कि सृष्टि के आदि में जीवन वनस्पति के रूप में था फिर वह क्रमशः सचेतन प्राणियों के रूप में उन्नति करता चला गया। इसका प्रमाण अभी भी समुद्रों में उपलब्ध है। कुछ ऐसे पौधे अभी भी पाये जाते हैं जो वनस्पति भी कहे जा सकते हैं और प्राणधारी भी। उनमें दोनों ही गुण विद्यमान हैं।
वनस्पति और जीवधारियों के बीच की कुछ जातियां समुद्र में पाई जाती हैं। एस्पेरिआपसिस जीव सड़ी लकड़ी से उगने वाले कुकुरमुत्ते की तरह का होता है। यह पीले, भूरे और हरे रंग का—लगभग तीन इंच व्यास का होता है। अमेरिका के पूर्वी तट पर यह लगभग 20 प्रकार की जातियों में पाया जाता है।
हाइड्रो देखने में तैरती हुई सूखी डाली जैसा लगता है। पर छेड़ते ही उसमें हरकत शुरू हो जाती है। इसके कई मुंह होते हैं। हर मुंह पर बाल उगे होते हैं जिनकी संख्या छह से दस तक होती है। इन बालों को वह सकोड़ और फैला लेता है। असल में यह ही उसके हाथ हैं जिनकी सहायता से वह आहार पकड़ता और मुंह में डालता है। तैरने में यह बाल उसके लिए पैरों का काम देते हैं। समुद्री जन्तु ‘केरोपहोलिया’ दूर से देखने में ऐसा लगता है मानो पत्थर पर सुन्दर गुलाबी फूल खिला हो। जब जंभाई लेता है तो उस फूल जैसे मुंह को खुलते और बन्द होते देखा जा सकता है। यह पीले हरे, और भूरे होते हैं। मुंह पर छोटी-छोटी कई जीभें उभरी होती हैं इन्हीं से वे अपना आहार पकड़ते हैं। फ्लोरिडा, वेस्ट इंडीज, कैलीफोर्निया की खाड़ी में यह कैरोपहोलिया आसानी से पाया जाता है।
प्रायः छह इंच लम्बा एल्कोनियम नन्हें असंख्य फूलों से लदी किसी सुन्दर डाली जैसा लगता है। उसके सहस्रों मुख होते हैं। तने जैसा मोटा पेट बीच में होता है। वेस्ट इन्डीज तथा उत्तरी अटलांटिक में यह पाया जाता है।
आस्ट्रेलिया के वैरियर रीफ नामक क्षेत्र में रंग-बिरंगी घास जैसा एक जल जन्तु होता है—एक्टीनेरिया। इसके हाथ पैर सदा हिलते रहते हैं और हर घड़ी कुछ पाने पकड़ने और खाने में ही लगा रहता है।
वनस्पति की जीवधारियों के रूप में विकसित होने की परम्परा यह दर्शाती है कि अपनी उपलब्धियों और विभूतियों को परमार्थ प्रयोजनों के लिए समर्पित कर दिया जाय तो उससे कुछ खोता मिटता नहीं है, वरन् नये रूप में मनुष्य का विकास होता है उसकी विभूतियां बढ़ती हैं और उपलब्धियों में अभिवृद्धि होती है। बीज जिस प्रकार अपने को मिटा देने के लिए तैयार होकर ही वृक्ष बनने में समर्थ होता है, बूंद जब मिटती है तभी ‘सागर’ बनती है उसी प्रकार आत्म विस्तार के इच्छुकों को अपने उद्देश्य में तभी सफलता मिलती है जबकि वे स्वयं को मिटाने का साहस जुटा सकें।
परमार्थ कार्यों का साहस जुटा भर लेने की आवश्यकता है। उसके लिए न कोई विपुल साधन चाहिए न अपरिमित-क्षमता की। परमार्थ प्रयोजन के लिए स्वयं को समर्पित करने की—अपने आपको मिटा देने की सामर्थ्य हो तो अन्य कमियां-त्रुटियां भी प्रकृति किसी न किसी प्रकार पूरा कर देती है, उदाहरण के लिए श्वास क्रिया गति और जीवन का प्रथम लक्षण है, स्थूल दृष्टि से पौधों में नाक नहीं होती, फेफड़े भी नहीं होते पर यदि सूक्ष्मदर्शी (माइक्रोस्कोप) से देखें तो पौधे के पत्ते-पत्ते में श्वास छिद्र देखे जा सकते हैं। इन छिद्रों से ही वे श्वास लेते हैं यह अलग बात है कि प्राकृतिक सन्तुलन बनाये रखने के लिए पौधे मनुष्य और अन्य जीवधारियों द्वारा छोड़ी हुई दूषित वायु कार्बन डाई ऑक्साइड ग्रहण करते हैं और एवज में उनके लिए अमृत तुल्य ऑक्सीजन निकालते हैं। कार्बन डाई ऑक्साइड मूर्छित और अर्द्धचेतन रखने वाली गैस है इसी का प्रभाव है कि वृक्ष संधियोनि में अचेत और मूर्छित पड़े रहते हैं।
कोई नाक और मुंह दोनों बन्द कर दे तो मनुष्य मर जाता है। पौधे के किसी पत्ते में छेद कर दिया जाये या उसके दोनों तरफ कागज चिपका दिया जाय तो पत्ता कुछ ही समय में पीला पड़ कर गिर जायगा। यदि तमाम पत्ते न होते तो सम्भवतः पेड़ ही नष्ट हो जाता। मानना चाहिये कि प्रकृति की हर रचना परमात्मा की कृपा और सृष्टि व्यवस्था का अंग है कोई ऊबड़-खाबड़ बनावट मात्र नहीं। कुछ पौधे जो जल के भीतर रहते हैं सांस उन्हें भी आवश्यक होती है। योरोप के तालाबों में एक पौधा पाया जाता है जिसके पत्तों में झिल्ली नहीं होती। इसके लिए मछलियां पानी में मिली हुई वायु के कण अलग कर देती हैं इसी से वह अपना जीवन चलाता रहता है पर श्वास के बिना जीवित वह नहीं रह सकता।
प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि वृक्ष वनस्पति किस प्रकार अपने जीवन अस्तित्व को परमार्थ प्रयोजनों के लिए घुलाते रहते हैं।
कुछ समय पूर्व इण्डोनेशिया ने यूनेस्को के तत्वावधान में 150 वन विशेषज्ञों की एक अन्तर्राष्ट्रीय गोष्ठी हुई थी, जिसमें विश्व की घटती हुई वन सम्पदा पर चिन्ता प्रकट की गई थी। आमतौर से लोग वृक्षों का महत्व नहीं समझते। लकड़ी का लोभ और खेती के लिए अधिक जगह मिलने के लालच में पेड़ों को काटते चले जाते हैं वे यह भूल जाते हैं कि इन तुच्छ लाभों की तुलना में वृक्ष विनाश से होने वाली हानि कितनी अधिक भयंकर है। उपरोक्त प्रो पैसिफिक साइन्स कान्फ्रैन्स ने संसार को चेतावनी दी कि वृक्ष सम्पदा विनाश का वर्तमान क्रम चलता रहा तो उसके भयानक परिणाम भुगतने पड़ेंगे।
उपरोक्त गोष्ठी में जापान, आस्ट्रेलिया, कनाडा, अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैंड, नीदरलैण्ड, भारत आदि 20 देशों के वन विज्ञानी उपस्थित थे। गोष्ठी में कनाडा के प्रतिनिधि डा. ब्लादीमीर क्रजीना ने कहा—मनुष्य को सांस लेने के लिए शुद्ध वायु मिलती है। वृक्ष हमारी इस आवश्यकता को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करते हैं। संसार में बढ़ते हुए वायु प्रदूषण का समाधान करने के लिए वृक्षों की रक्षा की जानी चाहिए। यदि हम वन सम्पदा को गंवा बैठेंगे तो फिर शुद्ध सांस का अभाव इतना जटिल हो जायगा कि उसका समाधान अन्य किसी उपाय से सम्भव न हो सकेगा।
अन्य देशों के प्रतिनिधियों ने भी जो विचार व्यक्त किये उनसे स्पष्ट था कि वृक्ष रक्षा एवं अभिवर्धन का प्रश्न उतना उपेक्षणीय नहीं है जितना कि उसे समझा जा रहा है। उसे पशु पालन के स्तर पर रखा जाना चाहिए। सच तो यह है कि इससे भी अधिक महत्व उसे दिया जाना चाहिए। पशुओं को गंवाकर उनके द्वारा मिलने वाले श्रम, दूध, मांस, चमड़े से एवं गोबर से वंचित होना पड़ता है वृक्षों को गंवाने की हानि उनसे भी अधिक है। वायु शोधन—वर्षा का सन्तुलन और पत्तों से मिलने वाली खाद, धरती के कटाव का बचाव, कीड़े खाकर फसल की रक्षा करने वाले पक्षियों के आश्रय के अभाव में सफाया आदि कितने ही ऐसे संकट हैं जो वृक्षों के घटने के साथ-साथ बढ़ते ही चले जायेंगे।
पिछले दिनों कर कारखानों की वृद्धि को-विकास का आधार माना जाता रहा है। खाद्य उत्पादन के लिए कृषि तथा सिंचाई पर भी जोर दिया जाता रहा है। बहुत हुआ तो यातायात के साधनों को बढ़ाने की बात भी आर्थिक प्रगति के लिए जोड़ दी गई। वन सम्पदा की महत्ता समझने की ओर जितना ध्यान देना आवश्यक था उतना दिया ही नहीं। सच तो यह है वनों की जमीन घेरने वाला माना जाता रहा और उन्हें काटकर कृषि करने की बात सोची जाती रही। जलाऊ लकड़ी तथा इमारती आवश्यकता के लिए भी वृक्षों को अन्धाधुन्ध काटा जाता रहा और उनके स्थान पर नये लगाने की ओर उपेक्षा बरती जाती रही। आज हम वन की सम्पदा की दृष्टि से निर्धन होते चले जा रहे हैं और उसके कितने ही परोक्ष दुष्परिणामों को प्रत्यक्ष हानि के रूप में सामने खड़ा देख रहे हैं।
‘सहारा कान्ववेस्ट’ ग्रन्थ के लेखक सेन्टवार्व वेकर ने सहारा रेगिस्तान की 20 लाख मील भूमि के सम्बन्ध में लम्बा और गहरा सर्वेक्षण करके लिखा है यह क्षेत्र किसी समय बहुत ही हरा-भरा था, पर लोगों ने नासमझी से उसे उजाड़ दिया। इससे यह रेगिस्तान बन गया। तेज हवा, सूर्य की सीधी धूप और पाले ने अच्छी खासी उपजाऊ मिट्टी को रेत बना दिया। तेज हवाएं उस धूल को भी इधर से उधर उड़ाने लगीं, सिर्फ ऊसर और पथरीली जमीन ही टिकी हुई है। यह रेगिस्तानी विशाल भूखण्ड अब निकटवर्ती हरी-भरी जमीन को भी महासर्प की तरह निगलता चल जा रहा है। हर साल तीस वर्ग मील हरी-भरी जमीन उस रेगिस्तान की चपेट में आकर सदा सर्वदा के लिए मृतक बन जाती है। द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् एक बार अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट हवाई जहाज से मिश्र की भूमि से गुजरे, उन्होंने लेवनान के इतिहास प्रसिद्ध सिडार वृक्षों के वन्य प्रदेश की बड़ी प्रशंसा पढ़ी थी। पर जब उन्होंने नीचे झांक कर देखा कि वहां नंगे पहाड़ खड़े हैं और जहां-तहां दस-बीस वृक्ष दीख रहे हैं, तब उन्हें इसका बड़ा दुख हुआ। संसार में अन्यत्र भी ऐसी ही मूर्खता बरती जा रही है इसकी विस्तृत जानकारी प्राप्त करके उन्हें और भी अधिक वेदना हुई। उनके आदेश पर राष्ट्रसंघ पर अमेरिकी प्रतिनिधियों ने दबाव डाला कि विश्व खाद्य और कृषि संगठन में वन सम्पदा के संरक्षण को भी महत्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिए वैसा हुआ भी। राष्ट्रसंघ के तत्वावधान में वन सम्पदा बढ़ाने के लिए जो प्रयत्न चल रहे हैं उन्हीं के अन्तर्गत एक बड़ी आर्थिक सहायता देकर लेवनान में नये सिरे से सिड़ार वन लगाये गये हैं और हजारों एकड़ जमीन फिर से हरी-भरी बनाई गई है। ऐसे ही प्रयास अन्यत्र भी हुए हैं।
इस्राइल में हरा-भरा क्षेत्र एक तिहाई और सूखा रेगिस्तानी दो तिहाई है। उन लोगों ने इस सूखे भूखण्ड को हरा-भरा बनाने का संकल्प किया है और इन दिनों इस दिशा में अथक परिश्रम किया जा रहा है। पिछले दिनों ही 10 करोड़ नये पौधे उन लोगों ने लगाये हैं।
आइलैंड वाले बहुत दिनों से अपनी वन सम्पदा उजाड़ते चले आ रहे थे फलस्वरूप वे अपनी उपजाऊ भूमि से हाथ धो बैठे। सन् 1946 के बाद उनकी आंखें खुली और योजनाबद्ध रूप से 20 लाख नये पेड़ लगाये। टस्मानिया का भी यही हाल हुआ। उन लोगों ने वृक्ष सम्पदा गंवाई फलस्वरूप रेतीली आंधियों का सर्वनाशी सिलसिला आरम्भ हो गया। घास-पात तक को उनने अपने पेट में निगल लिया। जब जीवन-मरण का सवाल पैदा हुआ तो उन्होंने ऊंचे चीड़ और देवदारू के लगाकर रेतीली हवाओं से रोकथाम की है और 1500 रेगिस्तान के मुंह में से उगलवाई है। स्काटलैण्ड में कुल्विन सेन्डस नामक छह मील लम्बा और दो मील चौड़ा एक छोटा-सा रेगिस्तान था। उन लोगों ने इस अजगर का मुंह कुचल कर रख दिया है और अब वहां हरे-भरे उद्यान लहलहा रहे हैं। लीविया ने अपने रेगिस्तानों को छोटी झाड़ियों से पाट देने का निश्चय किया है और वे उस प्रयास में भली प्रकार सफल हो रहे हैं। आस्ट्रेलिया ने अपने 7 इंच जितनी स्वल्प वर्षा वाले क्षेत्र में संसार भर से 83 जाति के ऐसे पौधे मंगाकर वहां रोपे हैं जो सूखी आव हवा में भी पनप सकते हैं। आग की तरह तपने वाले बूमेटा रेगिस्तान का एक बड़ा भाग अब वृक्षारोपण के अभिनव प्रयासों से हरा-भरा बनाया जा चुका है। उस क्षेत्र के एक किसान डेस्मांड फाइलिस ने अपने एकाकी प्रयत्न से 6000 वृक्ष लगाये हैं जो अब 20 फुट से भी ऊंचे हो गये हैं। इस वृक्षों ने उस क्षेत्र की भयंकर खुश्की को मनुष्यों और पशुओं के रहने योग्य बना दिया है।
मोरक्को ने अपनी कुम्भकर्णी नींद त्यागकर अपनी नष्ट होती वन सम्पदा को संभाला है। इन्हीं दिनों उन लोगों में 65 हजार जैतून के 2700 बादाम के और 1,3100 सदा बहार के बड़े वृक्ष लगाये हैं। इस कार्य के लिए उन्हें राष्ट्रसंघ से भी अनुदान मिला।
चीन अपनी उत्तरी पश्चिमी सीमा को सुरक्षित रखने के लिए फ्रांस की प्रसिद्ध लौह प्राचीर की तरह वृक्षों की हरी दीवार खड़ी कर रहा है यह दीवार 3000 मील लम्बी और कई मील चौड़ी होगी। वहां बंजर प्रदेशों को वृक्षों से पाट देने का कार्यक्रम चल रहा है।
अब संसार का हर देश समझ गया है कि मनुष्य जीवन के लिए पशु सम्पदा से बढ़कर वन सम्पदा का महत्व है इसलिए उसे राष्ट्रीय सम्पत्ति में उच्च स्थान दिया जा रहा है और इसे बढ़ाने के प्रयास को खाद्य उत्पादन स्तर का महत्व दिया जा रहा है।
स्काटलैण्ड के वनस्पति विज्ञानी राबर्ट चेम्बर्स ने लिखा है—वन नष्ट होंगे तो पानी का अकाल पड़ेगा। भूमि की उर्वरा शक्ति घटेगी और फसलों की पैदावार कम होती चलेगी। पशु नष्ट होंगे। पक्षी घटेंगे और मछली प्राप्त करना कठिन हो जायगा। वन विनाश का अभिशाप जिन पांच पुराने प्रेतों की भयंकर विभीषिका बनाकर सामने खड़ा कर देगा वे हैं बाढ़, सूखा, गर्मी, अकाल और बीमारी। हम जान और अनजान में वन सम्पदा नष्ट करते हैं और उससे जो पाते हैं उसकी तुलना में कहीं अधिक गंवाते हैं।
धर्म शास्त्रों में वट, पीपल, आंवला आदि वृक्षों को देव संज्ञज्ञ में गिना है। उनके प्रति किसी समय कितनी गहरी श्रद्धा रही है इसका परिचय इस बात से मिलता है कि अभी भी वृक्षों के साथ लड़कियों का विवाह होने की प्रथा जहां-तहां पाई जाती है।
तिरहुत में मंगली लड़की का विवाह पीपल के पेड़ के साथ कर दिया जाता है। ताकि नक्षत्र दोष का अनिष्ट पीपल पर पड़े और मनुष्य वर को किसी विपत्ति का सामना न करना पड़े।
आन्ध्र के कुडप वंशी ग्रामीणों में कन्या का विवाह बारह वर्ष तक कर देने का रिवाज था, पर यदि किसी कारणवश विवाह न हो सका तो किसी फलदार पेड़ से उसका विवाह कर देते हैं और उसे सुहाग के सभी प्रतीक धारण करा देते हैं। इसके पश्चात् उसका ‘पुनर्विवाह’ किसी भी आयु में हो सकता है। यदि विवाह न हो तो भी उसे सुहागिन के सभी सामाजिक अधिकार मिल जाते हैं और बिरादरी के लोग विवाह न होने का लांछन नहीं लगाते।
नेपाल की नेवार जाति के लोग अपनी लड़कियों का विवाह विल्व वृक्ष के साथ करते हैं। इसके पश्चात् जब किसी पुरुष के साथ विवाह होता है तो वह उपपति कहलाता है। उपपति को कोई स्त्री कभी भी बहिष्कृत कर देती है, उसे भृत्य जितने ही अधिकार प्राप्त होते हैं।
हिसार जिले की घुमकूड बावरिया जाति में और सरगुजा के भीलों में यह प्रथा है कि विवाह की अनिच्छुक लड़कियों का विवाह पीपल के वृक्ष से कर देते हैं और यह मान लेते हैं कि उसका कुमारी रहने का ‘दोष’ निपट गया।
हरियाली को मनुष्य जीवन सहचरी का स्थान मिलना चाहिये और उसके परिपोषण के लिये प्रत्येक नागरिक में व्यक्तिगत रूप से दिलचस्पी उत्पन्न की जानी चाहिये। महाकवि अलेक्जेण्डर स्मिथ प्रकृति को असीम प्यार करते थे और विचारशील लोगों को सम्बोधन करके कहते थे—अपनी स्मृति पीछे के लिये छोड़ जाना चाहते हो तो भवन बनाने और पदक प्राप्त करने की अपेक्षा वृक्ष लगाने पर ध्यान दो वे इन दोनों की अपेक्षा अधिक चिरस्थायी होते हैं।
संसार में सबसे पुराना वट वृक्ष ताईवान में ढूंढ़ निकाला गया है। ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर अब उसकी आयु 4128 वर्ष है। वह 48 मीटर ऊंचा है। तने की मोटाई का व्यास 40 फीट से अधिक है। चिजायी प्राप्त के मिएन युएह ग्राम के पास की पहाड़ी पर यह उगा हुआ है। वहां के निवासियों ने उस महावृक्ष का नाम ‘चेनी पौरिस’ रखा है। यह वृक्ष वृद्ध होने पर भी अभी सैकड़ों वर्षों तक मजे में अपना अस्तित्व बनाये रहने योग्य सुदृढ़ है।
इससे अधिक सस्ता, अच्छा, ऊंचा, चिरस्थायी एवं अतीव उपयोगी स्मारक और क्या हो सकता है। मनुष्य अपना नाम चाहने की दृष्टि से ही सही वृक्षारोपण को महत्व दे तो भी उससे बहुत हित साधन हो सकता है। बिहार के हजारी बाग जिले का नामकरण इसी आधार पर हुआ है कि उस क्षेत्र के हजारी किसान ने अनवरत श्रम करके उस क्षेत्र में हजार बाग लगवाने में सफलता प्राप्त की थी।
वृक्ष मनुष्य परिवार के ही अंग हैं। वे हमें प्राणवायु प्रदान करके जीवित रखते हैं। इतने अधिक मार्गों से हमारी सहायता करते हैं जिनका मूल्यांकन करना कठिन है।
स्थिर तालाब के जल में जब किसी मिट्टी के ढेले या कंकड़ को फेंकते हैं तो उसमें लहरें उठने लगती हैं। पत्थर के भार व फेंकने की गति के अनुरूप ही लहरें उठने लगती हैं। पत्थर के भार व फेंकने की गति के अनुरूप ही लहरों का उठना, तेजी व सुस्त गति से होता है। ठीक इसी प्रकार हमारी इच्छायें क्या हैं यह हमारी शारीरिक चेष्टाओं, चेहरे के हाव भाव बताते रहते हैं। व्यभिचारी व्यक्ति की आंखों से हर क्षण निर्लज्जता के भाव परिलक्षित होंगे। चेहरे का डरावनापन अपने आप व्यक्त कर देता है कि यह व्यक्ति चोर, डाकू, बदमाश है। कसाई की दुर्गन्ध से ही गाय यह पहचान लेती है कि वह वध करना चाहता है।
इसी प्रकार सदाचारी, दयाशील व्यक्ति के चेहरे से सौम्यता का ऐसा माधुर्य टपकता है कि देखने वाले अनायास ही उनकी ओर खिंच जाते हैं। विचार युक्त व गम्भीर मुखाकृति बता देती है कि यह व्यक्ति विद्वान्, चिन्तनशील व दार्शनिक है। प्रेम व आत्मीयता की भावना से आप चाहे किसी जीव-जन्तु को देखें वह भयभीत न होकर आपके उदार भाव की अन्तर मन से प्रशंसा करने लगेगा।
अनन्त आनन्द के केन्द्र परमात्मा के हृदय में एक भावना उठी—‘‘एकोऽहं बहुस्यामि’’ और इसी का मूर्तिमान रूप यह मंगलमय संसार बनकर तैयार हो गया। यह उनकी सदिच्छा का ही फल है कि संसार में मंगलदायक और सुखकर परिस्थितियां अधिक है। यदि ऐसा न होता तो यहां कोई एक क्षण के लिये भी जीना न चाहता। पर अनेकों दुःख तकलीफों के होने पर भी हम मरना नहीं चाहते, इसीलिए कि यहां आनन्द अधिक है।
इच्छा एक भाव है, जो किसी अभाव, सुख या आत्म–तुष्टि के लिए उदित होता है। इस प्रकार की इच्छाओं का सम्बन्ध भौतिक जगत से होता है। इनकी आवश्यकता या उपयोगिता न हो सो बात नहीं। दैनिक जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये धन चाहिए ही। सृष्टि संचालन का क्रम बना रहे इसके लिये दाम्पत्य जीवन की उपयोगिता से कौन इनकार करेगा। पर केवल भौतिक सुख के दांव-फेर में हम लगे रहें तो हमारा आध्यात्मिक विकास न हो पायेगा।
तब सौमनस्यता व सौहार्द पूर्ण सदिच्छाओं की आवश्यकता दिखाई देती है। प्रेम आत्मीयता और मैत्री की प्यास किसे नहीं होती। हर कोई दूसरों से स्नेह और सौजन्य की उपेक्षा रखता है। पर इनका प्रसार तो तभी सम्भव है जब हम भी शुभ इच्छायें जाग्रत करें। दूसरों से प्रेम करें, उन्हें विश्वास दें और उनके भी सम्मान का ध्यान रखें। इन इच्छाओं के प्रगाढ़ होने से सामाजिक व नैतिक व्यवस्था सुदृढ़ सुखद होती है पर इनके अभाव में चारों ओर शुष्कता का ही साम्राज्य छाया दिखाई देगा।
मानव जीवन गतिमान बना रहे इसके लिए सर्वप्रधान इच्छायें उपयोगी ही नहीं आवश्यक भी हैं। पर इनके पीछे फलासक्ति की प्रबलता रही तो उसकी तृप्ति न होने पर अत्यधिक दुःखी हो जाना स्वाभाविक है। इच्छाओं के अनुरूप परिस्थितियां भी मिल जायेंगी ऐसी कोई व्यवस्था यहां नहीं। कोई लखपति बनना चाहे पर व्यवसाय में लगाने के लिये कुछ भी पूंजी पास न हो तो इच्छा पूर्ति कैसे होगी, ऐसी स्थिति में दुःखी होना ही निश्चित है। हम जो भी इच्छायें करें वह पूरी ही होती रहें यह सम्भव नहीं। इनके साथ ही आवश्यक श्रम, योग्यता एवं परिस्थितियों का भी प्रचुर मात्रा में होना आवश्यक है। किसी की शैक्षणिक योग्यता मैट्रिक हो और वह कलक्टर बनना चाहे तो यह कैसे सम्भव होगा? इच्छाओं के साथ वैसी ही क्षमता भी नितान्त आवश्यक है। विचारवान् व्यक्ति सदैव ऐसी इच्छायें करते हैं जिनकी पूर्ति के योग्य साधन व परिस्थितियां उनके पास होती हैं।
इसका तात्पर्य यह नहीं कि हम जिन परिस्थितियों में आज हैं उन्हीं में पड़े रहें, जितनी हमारी क्षमता है उसी से सन्तोष कर लें। तब तो विकास की गाड़ी एक पग भी आगे न बढ़ेगी। आज जो प्राप्त है उसमें सन्तोष अनुभव करें और कल अपनी क्षमता बढ़े इसके लिए प्रयत्न शील हों तो इसे शुभ परिणित कहा जायेगा। नेपोलियन बोनापार्ट प्रारम्भ में मामूली सिपाही था। चीन के प्रथम राष्ट्रपति सनयान सेन अपने बाल्यकाल में किसी अस्पताल के मामूली चपरासी थे। इन्होंने अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए क्रमिक विकास का रास्ता चुना और अपना लक्ष्य पाने में सफल भी हुए।
इस व्यवस्था में लम्बी अवधि की प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है। पर व्यक्तित्व के निखार का यही रास्ता है। अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए पहले आप उस काम के करने की दृढ़ इच्छा मन में करलें। पीछे सारी मानसिक शक्तियों को उसमें लगा दें तो सफलता की सम्भावना बढ़ जाती है। दृढ़ इच्छा शक्ति से किये गये कार्यों को विघ्न बाधायें भी देर तक रोक नहीं पातीं। संसार में जिन लोगों ने भी बड़ी इच्छाओं की पूर्ति की उन्होंने पहले उसकी पृष्ठभूमि को अधिक सुदृढ़ बनाया। पीछे उन कार्यों में जुट पड़े। तीव्र विरोध के बावजूद भी सिकन्दर झेलम पार कर भारत विजय दृढ़ मनस्विता के बल पर ही कर सका। शाहजहां की उत्कट अभिलाषा का परिणाम ताजमहल आज भी इस धरती पर विद्यमान है।
जीवन लक्ष्य की प्राप्ति भी ऐसे ही महान कार्यों की श्रेणी में आती है। दूसरों से सिद्धियों सामर्थ्यों की बात सुनकर आवेश में आकार आत्मसाक्षात्कार की इच्छा कर लेना हर किसी के लिए आसान है। पर पीछे देर तक उस पर चलते रहना, तीव्र विरोध और अपने स्वयं के मानसिक झंझावातों को सहते हुए इच्छा पूर्ति की लम्बे समय तक प्रतीक्षा की लग्न हममें बनी रहे तो परमात्मा की प्राप्ति के भागीदार बन सकना भी असम्भव न होगा।
इसके विपरीत यदि हमारी इच्छा शक्ति ही निर्बल, क्षुद्र और कमजोर बनी रही तो हमें अभीष्ट लाभ कैसे मिल सकेगा? अधूरे मन से ही कार्य करते रहे तो लाभ के स्थान पर हानि हो जाना सम्भव है। इच्छायें जब तक बुद्धि द्वारा परिमार्जित होकर संकल्प का रूप नहीं ले लेतीं पूर्ति संदिग्ध ही बनी रहेगी। इच्छा-शक्ति यदि प्रबल न हुई तो वह लग्न और तत्परता कहां बन पायेगी जो उसकी सिद्धि के लिए आवश्यक है।
मनुष्य इच्छायें करे यह उचित ही नहीं आवश्यक भी है। इसके बिना प्राणि जगत निःचेष्ट एवं जड़वत् लगने लगेगा। किन्तु इसका एक विषाक्त पहलू भी है, वह है इनकी अति और अनौचित्य मनुष्य को क्लेशपूर्ण स्थिति में ले जा पटकने के लिये इच्छाओं की अति और उनकी अर्नमचित्यता ही प्रमुख कारण है।
अच्छी या बुरी जैसी भी इच्छा लेकर हम जीवन क्षेत्र में उतरते हैं वैसी ही परिस्थितियां सहयोग भी जुटते चले जाते हैं। हमारी इच्छा होती है एम.ए. पास करें तो स्कूल की शरण लेनी पड़ती है। अध्यापकों का सहचर्य प्राप्त करते हैं। पुस्तकें जुटाते हैं। तात्पर्य यह है कि इच्छाओं के अनुरूप ही साधन जुटाने की आदत मानवीय है। पर यदि यह इच्छायें अहितकर हो तो दुराचारिणी परिस्थितियां और बुरे लोगों का संग भी स्वाभाविक ही समझिये। ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपनी कामना भले ही पूर्ण कर ले पर उसे निन्दा, परिताप एवं बुरे परिणाम ही भोगने पड़ेंगे। व्यभिचारी व्यक्ति अपयश और स्वास्थ्य की खराबी से बचा रहे यह असम्भव है। चोर को अपने कुकृत्य का दण्ड न भोगना पड़े यह हो नहीं सकता। तब आवश्यकता इस बात की होती है कि अच्छी कामनायें ही करें।
शास्त्रकारों और मनीषियों ने इसलिए अपने स्वार्थ-हित की आवश्यकता भर चिन्ता करते हुए परमार्थ प्रयोजनों के लिये अधिक से अधिक प्रयास करते रहने का निर्देश दिया है। अपने निर्वाह और हित के लिये स्वार्थ रखना और उसे पूरा करना भी आवश्यक है पर उसे एक सीमा तक ही उचित कहा जा सकता है।
मनुष्य की अधिकांश इच्छाओं का केन्द्र उसका स्वयं का हित और स्वयं का स्वार्थ है। अधिकांश व्यक्ति यह सोचते और प्रयत्न करते हुए अपनी जिन्दगी गुजार देते हैं कि हम सुविधा पूर्वक अपना जीवन व्यतीत करें तथा जितना हो सके उतनी सुख सुविधाएं अर्जित करें।
लोग सोचते हैं कि हमें कोई बड़ा आदमी तो बनना नहीं और न कोई नाम वरी कमाने की कामना है फिर क्यों अपने को विभिन्न विधि निषेधों में बांधा जाय? क्यों दूसरों के लिए अपने आपको कष्ट दिया जाय। वस्तुतः यह सोचने समझने का एकांगी दृष्टिकोण है और स्वार्थपरता का परिचायक है।
अध्यात्म की दृष्टि से सारा विश्व ब्रह्माण्ड ही एक है। समग्र विश्व की चेतना का अधिष्ठाता विश्वात्मा है। बिखरी हुई आत्माएं इसी के छोटे छोटे घटक हैं। जब तक यह इकाइयां परस्पर मिलकर रहती हैं और एक दूसरे के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हैं तभी तक दृश्यमान सौन्दर्य का अस्तित्व है। यदि इनका विघटन होने लगे तो केवल धूलि मात्र ही इस संसार में शेष रह जायगी। विश्व-मानव की विश्वात्मा यदि अपनी समग्र चेतना से विघटित होकर संकीर्ण स्वार्थ परता में बिखरने लगे तो समझना चाहिए विश्व-सौन्दर्य की समाप्ति का समय निकट आ गया।
शरीर एक है। उसमें उंगलियां, उनके पोरुवे, जोड़, हड्डियां, मांस पेशियां आदि अनेक हैं। उन सबका मिला-जुला स्वरूप ही शरीर है। इन सभी का समन्वय जीवन-क्रम को चलाता है। वे सभी बिखरने लगें। अपनी अलग इकाई को ही सब कुछ मानें दूसरे अंगों को सहयोग करने की बात सोचना छोड़ दें तो फिर समझना चाहिए उन्हें भी दूसरों के सहयोग से वंचित होना पड़ेगा। ऐसी दशा में जिस स्वार्थ को साधने की उनकी इच्छा थी वह भी न सध सकेगा।
हाथ तभी तक सक्रिय रहेगा जब तक वह अपनी कमाई मुंह को देगा—मुंह पेट को देगा—पेट हृदय को और हृदय अपने उपार्जन रक्त का वितरण समस्त शरीर को सौंपने का अर्थ प्रकारान्तर से अनेक गुना लाभ अपने लिए उपार्जित करना। हाथ अपनी मुट्ठी में रखे रहे—मुंह या पेट को देने से इनकार कर दें तो फिर भूखा शरीर सूखता जायेगा और वे हाथ भी उस विपत्ति से संत्रस्त हुए बिना न रहेंगे। अपनी कमाई वे मुंह को देते हैं तो बदले में बहुमूल्य रक्त प्रवाह का लाभ लेते हैं और जितनी शक्ति कमाने में खर्च की थी उसकी भरपाई कर लेते हैं।
उंगली यदि शरीर की क्रमबद्ध सत्ता व्यवस्था में भाग लेने से इनकार करदें और अपने को अलग-अलग काट कर स्वतन्त्र रखने में विश्वास करे तो वह घाटे में रहेंगी। कटी हुई उंगली देखते-देखते निर्जीव हो जायेगी और सड़ने लगेगी। कट जाने पर मनमर्जी करने का जो लाभ सोचा था वह इसलिए न मिल सकेगा कि रक्त प्रवाह के लिए उसे दूसरे अंगों पर निर्भर रहना पड़ता था। सहयोग देने से इनकार करने का अर्थ सहयोग पाने का द्वार बन्द कर देना भी है। हमारे एक के सहयोग न देने से भी समाज शरीर क्रम चलता रहेगा पर अपने को स्वार्थी एवं असामाजिक सिद्ध करने के बाद समाज का सद्भाव खो देने की जो हानि उठानी पड़ेगी उससे अपनी ही क्षति अधिक होगी।
मनुष्य-शरीर विविध अंगों एवं अवयवों से मिलकर बना है। क्या शरीर का कोई अंग व्यक्तिगत रूप से इस बात का अधिकारी है कि वह अपना विकास त्याग दें और यह कहकर स्वस्थ रहना छोड़ दें कि यह तो हमारी इच्छा है कि हम उन्नत अवस्था में रहते हैं या गिरी दशा में। निश्चय ही शरीर के किसी अंग अथवा अवयव को ऐसा अधिकार नहीं है। उसकी दशा केवल उसकी अपनी व्यक्तिगत दशा नहीं है उसकी दशा सम्बन्ध पूरे शरीर से है। उसका अस्वस्थ अथवा अविकसित रहना पूरे शरीर पर प्रभाव डालेगा, उसकी अनुपयुक्तता समग्र शरीर को या तो अस्वस्थ कर देगी अथवा उसकी सुघरता सुन्दरता को बिगाड़ देगी।
उसी प्रकार हर मनुष्य समाज रूपी शरीर का एक अभिन्न अंग अथवा अवयव है। उसकी व्यक्तिगत कोई सत्ता नहीं है और न समाज से उसका अस्तित्व ही अलग है। उसकी हर दशा का प्रभाव शरीर पर पड़ना ही है। समाज के सदस्य जितने स्वस्थ, शिक्षित, शिष्ट और उन्नत अवस्था वाले होंगे, समाज भी उतना ही स्वस्थ, शिष्ट और उन्नत होगा और उसके सदस्य जितनी अवनत अवस्था के होंगे, समाज भी उतना पतित और निकृष्ट अवस्था वाला होगा। हममें से जिस प्रकार किसी को अपना अलग अस्तित्व मानने का अधिकार नहीं है, उसी प्रकार यह भी अधिकार नहीं है कि हम उन्नत दशा में रहकर समाज को नीचे घसीटने की चेष्टा करें, हम समाज के अभिन्न अंग हैं और इसके लिए नैतिकता बद्ध हैं कि आत्मोन्नति द्वारा समाज की स्थिति में उच्चता का समावेश करें।
अब एक बार उन्नति अथवा अनुन्नति को व्यक्तिगत बात भी उन्नत दिशा की ओर अग्रसर हुए बिना जीवन में सुख सन्तोष कहां? सुख-सन्तोष तो व्यक्तिगत जीवन का लक्ष्य है ही। इसके विषय में तो कोई यह कह ही नहीं सकता कि हमें सुख-सन्तोष की कामना नहीं है। हम दुख-दर्द का ही जीवन व्यतीत करते रहेंगे। यह हमारी व्यक्तिगत वस्तु होगी। इससे किसी का कोई सम्बन्ध नहीं। सुख-सन्तोष के लिये हम जीवन पर कोई प्रतिबन्ध अथवा नियम आरोपित करना पसन्द नहीं करते। कहने को कोई भले ही मुख से बकवास कर दे, किन्तु सुख-संतोष संसार का प्रत्येक व्यक्ति चाहता है। इसके अथवा इसकी आशा के बिना कोई जीवित ही नहीं रह सकता।
जो उन्नति की ओर बढ़ने का प्रयत्न नहीं करेगा, वह पतन की और फिसलेगा। यह स्वाभाविक क्रम है। कोई भी उन्नति अथवा अवनति के बीच खड़ा नहीं रह सकता। इस संसार में मनुष्य जीवन की दो ही गतियां हैं, उत्थान अथवा पतन। तीसरी कोई भी माध्यमिक गति नहीं है। मनुष्य उन्नति की ओर न बढ़ेगा तो समय उसे पतन के गर्त में गिरा देगा। उस अवस्था में उसके जीवन में दुःख पश्चाताप, आत्म-ग्लानि अथवा कष्ट–क्लेशों के सिवाय सुख-शान्ति की एक क्षीण किरण भी पास न आ सकेगी।
इतना ही नहीं हम सब आध्यात्मिक दृष्टि से भी उन्नति की ओर बढ़ने में कर्त्तव्य बद्ध हैं। यह शरीर, यह जीवन और यह सारी सुविधायें हमारी व्यक्तिगत सम्पत्तियां नहीं हैं कि हम इन्हें जिस प्रकार चाहें सदुपयुक्त अथवा दुरुपयुक्त करते रहें। यह सब वस्तुयें किसी दूसरे की सम्पदा है जो हमें एक विशेष प्रयोजन के लिए प्रदान की गई हैं। यह सारी वस्तुयें ईश्वर की धरोहर हैं और जीवात्मा का उद्धार करने के लिए, प्रयोग करने के लिए दी गई है। हम इनको विषयों के भोग में समाप्त कर डालें, किसी प्रकार भी हमें यह अधिकार प्राप्त नहीं है। जो कोई इस सम्बन्ध में अनाधिकार चेष्टा करता है, उसे लोक से लेकर परलोक तक उसका समुचित दण्ड भोगना पड़ता है। यदि विषय-भोग ही इसका उद्देश्य रहा होता तो परमात्मा हमें पशु-योनियों से बढ़ाकर मनुष्य की योनि में क्यों बुद्धि, विवेक, विचार और भावनाओं की अनुपम विभूतियां ही अनुग्रह करता? हम आज मनुष्य हैं। यह स्थिति यों ही अनायास हमें प्राप्त नहीं हो गई है। यह सुफल है, जो हमें निरन्तर उन्नति करने के पुण्य प्रयास में दिया गया हैं। कीट पतंगों और पशु-पक्षियों की चौरासी लाख योनियों को क्रमशः पार करते हुए इस जीवात्मा को मनुष्य शरीर में ला सकने में सफल हो सके हैं। और यही वह अवसर करने में पहुंचा कर अपने कर्त्तव्य से निवृत हो जायें। निम्न एवं साधन रहित कीट-पतंगों की स्थिति से उन्नति करते-करते मनुष्य जैसे महान् जीवन में आकर हम उस अभियान को बन्द कर पतन की ओर जाने लगे, इसमें कोई बुद्धिमानी जैसी बात तो समझ नहीं आती। जबकि यही वह अवसर है, जिसमें उन्नति का प्रयास सबसे अधिक करने की आवश्यकता है। सामाजिक हित, सुख-शान्ति अथवा आत्मोद्धार कोई भी उद्देश्य लेकर क्यों क्यों न किया जाय, हम उन्नति की ओर अग्रसर होने को बाध्य हैं और हमें यह हितकर बन्धन स्वीकार ही करना चाहिए। इन सभी उन्नतियों की ओर एक साथ अग्रसर होने का एक ऐसा समन्वित मार्ग निकाला जा सकता है, जिसमें सामान्य जीवन से हट कर किसी विशेष प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं है। वह मार्ग है किसी सदुद्देश्यपूर्वक जीवन की धारा को मर्यादित मार्गों से चलाना और ऐसे मार्ग न अपनाना जिस पर चलने से आत्मा निषेध करे।
स्वार्थ पूर्ण जीवन सबसे दुःखदायी जीवन है। इसका परिणाम नरक जैसी परिस्थितियां उत्पन्न कर देता है। संघर्ष, द्वेष-ईर्ष्या, लोभ, लिप्सा आदि दोषों का मूल कारण स्वार्थपरता के कारण ही मनुष्य चोर छलिया बेईमान और दुष्ट बन जाता है ऐसा नहीं कि लोग इसको जानते न हों। लोग जानते हैं फिर भी इसी विभीषिका में गिरते चले जाते हैं। स्वार्थ की ओर पैर बढ़ाने से उन्हें आशंका होती है, आत्मा धिक्कारती है और लोग उसकी आवाज अनसुनी करके उस ओर बढ़ते रहते हैं। यह अप्राकृतिक प्रवृत्ति है, मनुष्य को इस निन्दनीय दुर्बलता को त्याग देना चाहिए। निःस्वार्थ भाव से अपने स्वत्वों की रक्षा और कर्त्तव्यों का पालन करने से सुन्दर शीतल और सन्तोष पूर्ण अन्तःशान्ति मिलती है।
स्वार्थ त्याग देने से परमार्थ का भाव स्वतः आ जाता है। परमार्थ पूर्ण जीवन स्वर्गीय सुख-शान्ति का अगार है। किसी का हित करना, आवश्यकता पीड़ितों की सेवा करना, किसी की सहायता में तत्पर रहना और किसी को दुःख न देना आदि ऐसी वृत्ति है, जिसमें आनन्द की अनिवर्चनीय पुलक समायी रहती है।
परमार्थी व्यक्ति बाहर से भले ही साधारण स्थिति का दिखाई दे, वह जोर-जोर से हंसता, खिलखिलाता भले ही दृष्टिगोचर न हो तथापि उसका अन्तःकरण परिपूर्ण ही बना रहता है। उसमें एक अहेतुक सम्पन्नता, गरिमा और गौरव की अनुभूति बनी रहती है। परमार्थी की आत्मा ही सन्तुष्ट नहीं रहती, बल्कि उसके सम्पर्क में आने वाला हर आदमी सन्तुष्ट और प्रसन्न रहता है, जिससे उसकी स्वयं आत्मा का आनन्द बढ़ जाता है। सारे लोग उसे प्यार करते हैं, उस पर श्रद्धा के फूल बरसाते हैं और प्रशंसा किया करते हैं। समाज का यह अनुदान किसी के लिये भी सदा-सर्वदा वांछनीय है।
परमार्थ बुद्धि रखने वाले व्यक्ति का सामाजिक ही नहीं पारिवारिक जीवन भी बड़ा सुखी व सन्तुष्ट रहता है। परिवारों में अधिकतर कलह का कारण स्वार्थपरता ही होती है। लोग अपनी-अपनी लगाए रहते हैं। अपने लिए ही अधिक से अधिक वस्तुयें और अपेक्षा चाहते रहते हैं। हर कोई यह चाहता है कि परिवार में उसकी महत्ता और नेतृत्व ही बना रहे, प्रौढ़ों सदस्य प्रौढ़ के बीच और अवयस्क सदस्य समवयस्कों के बीच इसी भावना से प्रेरित रहकर कलह उत्पन्न करते रहते हैं। स्थिति में तू-तू, मैं-मैं होना स्वाभाविक ही है। जिस पारिवारिक जीवन को स्वर्ग तुल्य सुखदायक बतलाया गया है, वह नरक तुल्य कष्टदायक बन जाता है।
जिन परिवारों के प्रमुख गृहस्थ परमार्थ दृष्टिकोण के होते हैं, वे सबसे पहले अपने स्वार्थ का त्याग कर अधिकारों को कर्त्तव्यों में समाविष्ट कर लिया करते हैं। सबके साथ समान प्रेम करते और सबको यथोचित आदर देते हैं। अपना कोई भाग न रखकर सारे का सारा परिजनों को बांट देते हैं। ऐसे समभावी मुखिया को कष्ट पहुंचाने वाला कोई काम करना किसी परिजन को पसन्द न होगा। फिर जिस परिवार में त्याग, निःस्वार्थ और स्नेह का त्रिविधि समीर बहता हो, वहां के किसी सदस्य का चित्त अवांछनीय ताप से व्याकुल रह भी कैसे सकता है। सुगन्ध का स्वभाव है कि वह जिसके सम्पर्क में आती है उसे भी अपने समान ही सुगन्धित कर देती है। गुणों के सम्पर्क दूसरों को भी गुणी बना देता है। परिवार नायक की त्यागमय गति-विधि अन्य सदस्यों को प्रभावित किये बिना नहीं रह सकती। एक बार अस्वार्थ का सुख अनुभव कर लेने पर फिर कोई भी व्यक्ति स्वार्थ को पास नहीं ठहरने देगा।
इस प्रकार जिसमें स्वार्थ के त्याग और परमार्थ के ग्रहण की महानता स्वीकार कर अपना जीवन तदनुरूप ढाल लिया, उसके लिए मानो इसी संसार में स्वर्ग का द्वार उद्घाटित हो गया। जिसके परिवार में सुख-शान्ति बनी रहे और समाज जिसके लिये स्नेह एवं श्रद्धा के सुमन लिए खड़ा रहे उसके लिये इससे बढ़कर स्वर्ग अन्यत्र कहां हो सकता है? हम सब देवताओं के जिस अनदेखे स्वर्ग की कल्पना करते हैं, उसमें भी तो इस प्रकार के सुख-सन्तोष और हर्ष, प्रसन्नता का आरोप किया करते हैं। वहां भी इससे अधिक और क्या होता है। और उसे पाने के लिए भी तो स्वार्थ का त्याग कर परमार्थ का ही पथ अपनाना पड़ता है।
परमार्थ परायण व्यक्ति का दृष्टिकोण यह रहता है कि परमात्मा की कृपा और माता-पिता का उपकार ही साकार होकर हम सबको शरीर रूप में मिला है। इस प्रकार भी कह सकते हैं कि मानव-जीवन की आधार शिला उपकार ही है। इसलिये हमारा यह जीवन परोपकार में ही लगाना चाहिये। इसी में इसकी सार्थकता है और इसी में कल्याण। परोपकार के सदृश इस संसार में कोई दूसरा धर्म नहीं है। अपने अस्तित्व को संसार के हित में बलिदान कर देने से जिस महान् धर्म फल की प्राप्ति होती है, उसकी तुलना अन्य धर्म काण्डों से नहीं की जा सकती है। प्रसिद्ध सन्त मोओतजे कहा करते थे कि ‘‘यदि मेरे शरीर को पीसकर चूर्ण बना लेने में संसार के एक भी प्राणी का भला हो सकता है तो मैं उसके लिये सहर्ष तैयार हूं।’’
परोपकार के समान पुण्यदाता कोई भी दूसरा धर्म नहीं है। यदि ऐसा होता तो तपस्या में निरत महर्षि दधीचि देवों की भलाई के लिए अपना शरीर नहीं दे देते। वे शरीर की रक्षा करते और तपस्या करके बड़ी-बड़ी सिद्धियां प्राप्त और मुक्ति के लिये प्रयत्न करते रहते। किन्तु अवसर पाते ही उन्होंने तुरन्त ही परोपकार में अपना शरीर दान कर दिया। वे जानते थे कि हजारों वर्ष तप करने पर भी जो मुक्ति कठिनता से मिलती है, वह परोपकार में शरीर त्याग देने से तत्काल सरलता पूर्वक मिल जाती है।
परोपकार में सर्वस्व दे देने वाले एक दधीचि ही नहीं। भारत में तो शिवि, हरिश्चन्द्र, मोरध्वज, कर्ण, दिलीप आदि ने जाने कितने महापुरुष ऐसे हुए हैं जिन्होंने परोपकार को ही सर्वश्रेष्ठ धर्म माना और अवसर आने पर उसका सहर्ष निर्वाह भी किया। वह सारे मनीषी इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं थे कि यह शरीर कल्याण का साधन होने पर भी नाशवान् है। मानव-जीवन का कोई ठीक नहीं कि किस समय समाप्त हो जाये। यह तब तक भी चल सकता है, जब तक साधना पूरी हो और बीच में समाप्त हो सकता है। जीवन का रहना सदा सन्दिग्ध बना रहता है। शरीर से जहां पुण्य कर्म बनते हैं वहां कभी प्रमादवश इससे कोई त्रुटि भी हो सकती है। यही साधना के बीच में व्यवधान भी खड़ा कर सकता है।
जीवन-प्रवाह तो ऊंचे-नीचे मार्गों के बीच से होकर बहता है। अस्तु, इस शरीर, इस जीवन को परोपकार में समर्पित कर साधना का सबसे निरापद मार्ग है। इसी विवेचना के आधार पर उन्होंने अवसर पाते ही अपना जीवन परोपकार में लगा दिया और ऐसे सत्पुरुष क्षण-क्षण अपना जीवन परोपकार में ही लगाये चलते हैं। परोपकार से बढ़कर निरापद दूसरा कोई धर्म नहीं है।
प्राणिमात्र का हित, उपकार और कल्याण में रत रहना। मन, वचन, कर्म से दूसरे का हित चाहना और करना, किसी के अहित अथवा पीड़ा का विचार न करना और विश्व-बन्धुत्व की भावना को विकसित और विस्तृत करते रहना आदि सारी सदाशयतायें परोपकार ही मानी गई हैं। तथापि इनमें आध्यात्मिक शांति और निष्कलंक धर्मफल का समावेश तभी होता है, जब इनके पीछे कोई स्वार्थ-भाव निहित न हो। अन्यथा यही पुण्य कर्म आत्मा के लिये एक प्रवंचना बन जायेगा।
परोपकार का भाव तो प्रकृति के समान निःस्वार्थ होना चाहिए। सूर्य, चन्द्र, वायु, नदी, वन, पहाड़ नित्य निरन्तर संसार के उपकार में ही लगे रहते हैं किन्तु उसके बदले में न कुछ मांगते हैं और न चाहते हैं। चुपचाप अपना सर्वस्व दान करते रहते हैं। सूर्य नित्य नियम से अपना प्रकाश और ऊष्मा संसार को देने के लिये पृथ्वी की परिक्रमा करते रहते हैं, किन्तु उसके बदले में किसी से कुछ चाहते नहीं। चन्द्रमा नियम से संसार को आलोक और शीतलता दान करते रहते हैं, किन्तु सर्वथा निःस्वार्थ भाव से। इसी प्रकार वन-वृक्ष, नदी और पर्वत भी सदैव निःस्वार्थ भाव से ही अपने फल-फूल, काष्ठ जल और वनस्पतियां संसार को देते हुये कभी कोई प्रतिकार नहीं चाहते।
लोग जाते हैं अधिकार पूर्वक उनकी सम्पत्ति का भाग लेकर चले आते हैं उनके भंडार, उनकी सम्पत्ति सदा सर्वदा संसार हित के लिए खुली पड़ी रहती है। वे उसके लिये न तो किसी का हाथ रोकते हैं और न प्रतिदान के लिये हाथ फैलाते हैं। धन्य हैं ऐसे निःस्वार्थ, निष्काम और उदार परोपकारी परमात्मा की कृपा और आत्मा की सच्ची शान्ति के अधिकारी बनते हैं।
जब जड़ प्रकृति संसार का उपकार करने में इस गहरे निष्काम भाव से लगी रहती है तो क्या चेतन होकर मनुष्य संसार के कल्याण में नहीं लग सकता? लग सकता है और अवश्य लग सकता है। उसे लगना भी चाहिये। परोपकार में निरत होने से केवल संसार का ही भला नहीं होता प्रत्युत अपना कल्याण भी होता है। मनुष्य के चरित्र की परीक्षा परोपकार की कसौटी पर ही होती है। जो इसमें अपने को उत्तीर्ण कर लेता है वह सहज रूप से भवसागर से उत्तीर्ण हो जाता है।
परोपकार का पुण्य मनुष्य को सभ्य-सुसंस्कृत, उच्च विचार और भावना वाला बना देता है। परोपकार से मनुष्य का मन निर्मल और विकार रहित बनता है। उसके जीवन में सतोगुण की वृद्धि और आत्मा में आध्यात्मिक आलोक का समावेश होता है। परोपकार की भावना जितनी उच्च-विशाल और निष्काम होती जाती है, मनुष्य उतना ही परमात्मा के सान्निध्य की ओर बढ़ता जाता है। इस आत्मिक उन्नति और विकास का सुख अनिवर्चनीय है। इसका अनुभव तो वही त्यागी पुरुष कर सकता है, जो परोपकार के यज्ञ में अपने सर्वस्व को समिधा मान कर समर्पित कर देता है।
सत्पुरुषों की पहचान का सबसे बड़ा लक्षण है परमार्थ। कोई कितना ही सभ्य, शिष्ट और सुशील क्यों न दिखाई दे। नम्रता और विनय उसके शब्द-शब्द से टपकती चली हो, मुख पर कितनी ही करुणा और कृतज्ञता का भाव विराजमान् क्यों न रहे, यदि उसका जीवन परमार्थ पूर्ण नहीं है, उसके जीवन और वैभव का कोई अंश परोपकार एवं परमार्थ में नहीं लगता तो, उसे उस प्रकार का वास्तविक मनुष्य नहीं माना जा सकता, जैसा कि वह ऊपर से दीखता है।
धनाढ्यता का लक्षण धन उपार्जन अथवा संचय की मात्रा नहीं है। उसका लक्षण उदारता ही है। जो जितना अधिक उदार और परोपकारी है, वह उतना ही अधिक धनवान् है। एक पैसे का उपकार करने वाला गरीब कहीं अधिक धनवान् है, उस व्यक्ति की तुलना में जो करोड़ों का स्वामी होकर भी परोपकार के विषय में कृपणता करता है। जो परमार्थ में लीन है, तन, मन, धन से परोपकार एक परहित में निरत हैं, वही सज्जन है, वही सत्पुरुष है और वही धनवान् है।
परोपकार केवल मानवीय गुण ही नहीं वह आध्यात्मिक सद्गुण भी है। इसकी आराधना करने से लोक और परलोक दोनों का बनाव बनता है। इसी गुण पर जहां आत्मा का उत्थान निर्भर है, वहां संसार और समाज सृजन की व्यवस्था और विकास की धुरी भी इसी पर निर्भर रहती है। आज यदि समाज के सारे लोग केवल स्वार्थी बन जायं और दूसरों के हित का सम्पादन न करें तो कल ही समाज में घोर अनर्थ घटित होने लगे। अराजकता, संघर्ष और छीना झपटी का बोल-बाला हो जाये, जो उद्दण्ड, बली और शक्तिशाली हों, वे सारे साधनों और सम्पत्ति पर अपना एकाधिपत्य स्थापित कर लें और जो सामान्य, साधारण अथवा अपेक्षाकृत निर्बल हों, वे बेचारे पिस कर ही रह जायें। परहित और परोपकार के बिना संसार का क्रम एक क्षण भी नहीं चल सकता। अस्तु आत्मा और समाज के कल्याण के लिये यथा साध्य परोपकार के कार्य करते ही रहना चाहिये।
माता-पिता सन्तान को जन्म देते हैं। उनके पालन-पोषण और विकास के लिए कष्ट उठाते हैं धन के लिए परिश्रम करते, सुख और सुविधा के लिए चिन्ता करते किन्तु वे यह सब करते हैं, निस्वार्थ भावना से ही। किन्तु माता-पिता को पहले से ही यही पता रहता है कि उनका पुत्र बड़ा होकर उनकी सेवा करेगा, उनके लिये सुख और आराम के साधन जुटायेगा। तब भी वे बच्चों की सेवा में हर प्रकार का त्याग एवं उत्सर्ग करते ही रहते हैं। इतना ही नहीं, संसार में कुपुत्रों का उदाहरण देख कर भी और स्वयं भी एक से कष्ट पाते हुए भी दूसरे का पालन-पोषण करते ही रहते हैं।
वे अपनी इस सेवा के पीछे किसी प्रकार के प्रतिकार की भावना नहीं रखते। बच्चे की सेवा वे सेवा-भाव से ही करते हैं। बच्चों द्वारा कष्ट पाने के उदाहरणों को देख कर भी वे सेवा से संकोच नहीं करते। उन्हें उसमें एक आनन्द किसी आशा के कारण नहीं होता है। वह सुख, उस परमार्थ भाव का ही होता है, जो सन्तान की सेवा में उनके अनजाने ही निहित रहता है। परोपकार के सम्बन्ध में इसी प्रकार माता-पिता की तरह ही निःस्वार्थ भाव रखने से उसके द्वारा अनिवर्चनीय आनन्द, की उपलब्धि होती है।
परमार्थ परायणता आध्यात्मिक प्रौढ़ता का चिन्ह है—पेड़ जब पुष्ट हो जाते हैं, तब मांगते किसी से नहीं हर घड़ी देते ही देते हैं। लकड़ी, पत्ते, पुष्प, फल, छाया, सुगन्ध का अनुदान वे निरन्तर अपरिचित रूप से दूसरों को देते रहते हैं, यही उनका स्वाभाविक धर्म बन जाता है। अध्यात्म की भूमिका में जैसे-जैसे मनुष्य विकसित होता जाता है, वैसे-वैसे उसका परमार्थ पराग भी खिले हुए कमल पुष्प की तरह दशों दिशाओं में उड़ने लगता है। उसकी उदारता करुणा, महानता, सदाशयता एक घड़ी चैन से नहीं बैठती, वह लुटाने के लिये व्याकुल रहती है, गाय के थन में जरा भी दूध जमा हुआ कि वह कराहने लगती है, जब तक उसे खाली नहीं कर देती, तब-तक बेचैनी अनुभव करती है। पेड़ अपने परिपक्व फलों को बिना किसी के मांगें धरती पर टपकाते रहते हैं ताकि आवश्यकता ग्रस्तों को मधुर अनुदान अनायास ही बिना मूल्य मिल जाय। यही आध्यात्मिकता है।
जैसे-जैसे मनुष्य का आन्तरिक स्तर विकसित होता जाता है, वह इस विश्व वसुन्धरा को अधिक सुन्दर अधिक सुविकसित, अधिक सुसंस्कृत बनाने के लिये तत्पर दिखाई देता है। सेवा और अनुदान ही उसके प्रिय विषय और प्रिय व्यसन बन जाते हैं। अपने लिये वह स्वर्ग, मुक्ति या सिद्धि में से किसी की कामना नहीं करता वरन् यही सोचता रहता है कि जो कुछ मुझे मिला है, उसे विश्वभानना को अधिक सुसज्जित बनाने के लिये किस तरह उस सबको लौटा दूं।
देवत्व का स्वरूप है दया और दान। इस संसार में जो दुख और दैन्य है, उसे देखना पड़ता है, उससे उसका हृदय पिघल पड़ता है। ‘सन्त हृदय नवनीत समाना’ सूक्ति के अनुसार उसकी पिघलती हुई करुणा एवं सदाशयता इस बात के लिए विवश करती है कि पीड़ित मानवता के घावों पर मरहम लगाने के लिए उसके पास जो कुछ बल, बुद्धि, विद्या, सम्पत्ति तथा स्थिति है उसका अधिकाधिक भाग समर्पण करे। ऐसी स्थिति में वह अपना घर परिवार थोड़े लोगों में सीमाबद्ध नहीं करता। बेटे, पोतों को ही उसकी सारी विभूतियों का लाभ मिलना चाहिये ऐसा नहीं सोचता, वरन् सभी को अपना समझता है और मोहवश किन्हीं सम्बन्धियों के लिये मरते-खपते रहने की संकीर्णता छोड़ कर हर दर्दमन्द की—हर पिछड़े व्यक्ति की सेवा सहायता करने में तत्पर हो जाता है।
परमार्थ ही सच्चा स्वार्थ
कहा जा सकता है कि परमार्थ मानव जीवन का सच्चा स्वार्थ है। परम माने बड़ा, वास्तविक अर्थ माने प्रयोजन स्वार्थ। जो वास्तविक स्वार्थ बड़ा स्वार्थ है, उसी को परमार्थ कहते हैं। धन कमाना, स्वाद चखना, अहंकार जताना, यह बहुत छोटे और क्षणिक लाभ हैं। वास्तविक चिरस्थायी लाभ वह है जिसके आधार पर आत्मा की सुख शान्ति और मुक्ति का पथ प्रशस्त हो सके। शरीर वाहन है आत्मा स्वामी वाहन की सुविधा, सुरक्षा, का ध्यान तो रखा जाय पर स्वामी की सर्वथा उपेक्षा न कर दी जाय। यह तथ्य जिसकी समझ में आ जाता है वह आत्म-कल्याण की विचारणा और क्रिया पद्धति को प्राथमिकता देता है। शरीर और परिवार के निर्वाह की भी वह व्यवस्था करता है पर आत्मा के लक्ष्य और उद्देश्य को साधने के लिए भी वह समुचित प्रयत्न करता है। उन महान् प्रयोजनों में भी उसका समय, श्रम, पुरुषार्थ और मनोयोग कम-से-कम उतना तो लगता ही है, जितना शरीर निर्वाह में। हर दूरदर्शी और विवेकशील व्यक्ति की गतिविधि यही हो सकती है। वह जानता है कि शरीर तो कुछ दिन का साथी है।
सुख-दुःख, उत्थान-पतन का प्रतिफल तो अनन्त काल तक आत्मा के सामने ही आने वाले हैं। इसलिए शरीर मोह को एक सीमा होनी चाहिए और उसकी वासनाओं की पूर्ति में इतना न उलझ जाना चाहिए कि आत्मिक स्वार्थों की पूर्ण उपेक्षा ही होने लगे। उसके लिए फुरसत न मिलने आर्थिक तंगी का बहाना करके अब तो मन वह लाया जा सकता है पर जब शरीर वृद्ध, रुग्ण अथवा मृत हो जाता है, तब भूल समझ में आती है और सूझता है कि इस तुच्छ वाहन के मनोरंजन में बहुमूल्य मानव जीवन चला गया और जो करना चाहिए था, उसको सर्वथा भुला दिया गया। वह घड़ी घोर पश्चात्ताप की होती है। तब अपनी भूल का पता चलता है किन्तु समय बीत चुका होता है और हाथ मल-मल कर पछताने के अतिरिक्त और कुछ शेष नहीं रहता।
--------------------------------- पेज मिसिंग 51-66 --------------------------------- जाती है जैसी कि प्रकृति प्रेरणा मनुष्य को उपलब्ध है। जो जीवन विद्या का मर्म जानते हैं वे अपनी आन्तरिक विशेषताओं को बीज सत्ता की तरह परिपक्व करने के लिए अपनी हलचलों को गूदा संजोये, साथ ही यह भी ध्यान रखे कि यह समस्त उपार्जन वितरण के लिए है ताकि संसार की शोभा सुषमा का विस्तार होता रहे उसमें कमी न आने पाये।
मनुष्य की सेवा सहायता पशु करते हैं। अब तो कुछ दिन से उनका श्रम मशीनें भी हलका करने लगी हैं, पहले जब वे नहीं बनी थीं तब तो मनुष्य का जीवन आधार एक प्रकार से पशुओं का श्रम ही था, वह स्वयं तो अपने दुर्बल शरीर से बहुत कम कर पाता था जो करता था वह इतना नहीं होता था कि सुख-सुविधा युक्त जीवन जी सके। पशुओं का श्रम दूध, बाल, चर्म आदि की सहायता से ही उसकी समृद्धि भूतकाल में बनी रही। आज भी विश्व का अर्थ उत्पादन पशुओं के माध्यम से इतना होता है जो विश्व उपार्जन का दो तिहाई है। एक तिहाई ही मशीनें उत्पन्न करती हैं।
जिस प्रकार पशु मनुष्य जाति के जीवनाधार रहे हैं उसी प्रकार वनस्पति न केवल मनुष्यों की वरन् पशु-पक्षियों की जीवनाधार रही है। यहां तक कि कीट-पतंग भी उसी के अंचल में पलते पनपते रहें हैं। विशाल दृष्टि से देखा जाय तो वनस्पति ही जीवन का मूल स्वरूप है। उसी को खोकर जीवधारी जीवित हैं।
जलजीवों का जीवन क्रम भी यही है। समुद्र सरोवरों में एक हल्के किस्म की वनस्पति होती है, वही जल जीवों का मुख्य आधार है अकेले पापी पर ही वे जीवित नहीं रह सकते। जीवन रक्षा के लिए उन्हें भी वनस्पति चाहिए और वह जिन जलाशयों में छोटे या बड़े रूपों में होगी उसी में जलजीव जन्मेंगे बढ़ेंगे।
वनस्पति जगत का सर्व प्रधान सर्वत्र और उपलब्ध पौधा है—घास। यह घास पैरों तले कुचलती रहती और तुच्छ नगण्य प्रतीत होती है पर उसकी गरिमा पर विचार करें तो वह आश्चर्य जनक महत्व की प्रतीत होती है। घास अपने आपको जीव जगत की रक्षा अभिवृद्धि और पोषण के लिये किस प्रकार खपाती है यह दृष्टव्य है।
वनस्पति शास्त्रियों का कथन है कि घास धरती के पांचवें हिस्से उसे छाई हुई है। उसकी छह हजार जातियां अब तक ढूंढ़ी जा चुकी हैं। एक प्रकार से जीवधारियों का जीवन ही कहना चाहिए। पानी की बाढ़ पर रोकने के लिये बांध जो काम करते हैं उससे लाखों गुना अधिक काम घास करती है। यदि घास न हो तो वर्षा का पानी इतनी तेजी से बहे कि नदियों में विकराल बाढ़ें आयें और जमीन का बहुत बड़ा भाग कट कर खड्ड बनने लगे और उपयोगी मिट्टी समुद्र में पहुंच कर उपजाऊ क्षेत्र घटा दें। वह मिट्टी समुद्र को उथला करके और भरा हुआ पानी बाहर फैलने से तटवर्ती स्थानों के डूबने का खतरा हो जाय। जमीन में पानी सोखने की शक्ति घास की जड़ों से ही पैदा होती है यदि घास न हो तो सूखी मिट्टी ठोस या रेतीली पानी की अधिक मात्रा देर तक पचा सकने में समर्थ न हो।
हर मौसम और हर परिस्थिति में घास अपने आपको जीवित रखती है। घोर गर्मियों में जबकि वह सूख जाती है और जल गई प्रतीत होती है। तब भी उसका जड़ वाला भाग गीला और जीवित रहता है। यही कारण है कि वर्षा होते ही वह देखते देखते उग आती है और चारों और हरियाली छा जाती है। पहाड़, मैदान, मरुस्थल, शीत प्रधान, अति उष्ण प्रदेशों में ही नहीं अथाह समुद्र की तली में भी उसका अस्तित्व पाया जाता है। ‘काई’ के रूप में वह जलाशयों में भी छाई रहती है। अमरबेल की तरह बिना जड़ के भी बिना जमीन की सहायता लिये हुए भी वह अपना अस्तित्व बनाये रह सकती है।
घास का सूक्ष्म रूप है उसका पराग। वह हवा के साथ चार हजार फुट की ऊंचाई तक उड़ जाता है और आंधी-तूफानों के साथ हजारों मील की यात्रा करके कहीं से कहीं जा पहुंचता है मनुष्य के समान तथा जानवरों के शरीरों के साथ लिपट कर भी वह छूत की बीमारी की तरह लम्बी यात्रायें करता है और जहां भी अवसर मिलता है वहीं अपनी वंश वृद्धि करने में लग जाता है। पुराने जमाने में अफ्रीका से आदिवासी, अमेरिका में मजूरी के लिये लाये गये थे। घास के पराग भी उनके साथ चले आये और वह घास जो अफ्रीका में ही होती थी अमेरिका में भी उगने लगी।
हम गेहूं, जौ, चना, मक्का, आदि अन्न खाते हैं। यह सब क्या है घास के बीज ही तो हैं। पालक, बथुआ, धनिया, पोदीना, मेथी आदि छोटी घास है। बड़ी घास शाक भाजियों और खीरा, ककड़ी, खरबूज, तरबूज आदि के रूप में फलती है। ईख एक बड़े किस्म की घास ही तो है। चीनी की मिठास वस्तुतः घास का ही अनुदान है।
कीड़े मकोड़े, पशु-पक्षी, सब घास पर ही जीवित रहते हैं। पौधों पर चिपकने वाले कृमि कीटकों से लेकर कीड़े-मकोड़ों तक की संख्या इस पृथ्वी के जीव जगत का नौ बंटे दसवां भाग है। पशु, पक्षी, मनुष्य और बड़े जलचरों की संख्या एक बंटे दस ही है। इनमें से अधिकांश का अधिकांश जीवन घास पर ही निर्भर है। पशु तो घास पर ही जीवित हैं। प्रकारान्तर से और सबका भोजन भी उसी पर निर्भर रहता है। छोटे कीड़े मकोड़े घास की पत्तियां जड़ें आदि खाते हैं। उन्हें चिड़ियां खा जाती हैं। चिड़ियां या पशु मांसाहारियों के पेट में चले जाते हैं। इस प्रकार मांस भक्षी जीवों का घुमा फिरा कर मूल भोजन घास ही है। इसलिए उसे जीव धारियों का मूलभूत आधार कहा गया है। जड़ी-बूटियां खाने वाला यदि दो सेर घास खा ले तो उसे उतनी ही शक्ति मिल सकती है। समझा यह जाता है कि दाल, दूध, अण्डा, मांस से ही प्रोटीन प्राप्त होता है पर यह भूल जाते हैं कि घास में भी प्रोटीन की मात्रा कम नहीं है और वह अपने ढंग की सबसे निर्दोष प्रोटीन है। टूटी-फूटी मांस पेशियों की मरम्मत का उसमें अनुपम गुण है।
घास ऊपर जितनी लम्बी दीखती है उसकी जड़ें जमीन के अन्दर उससे कहीं अधिक लम्बी होती हैं। यही कारण है कि मिट्टी को बांधे रहती हैं, उसे पोला रखती है। जिससे वह पानी, खाद और हवा सोख कर उत्पादक बनी रह सके। मिट्टी से जितना जीवन वह लेती है उससे भी ज्यादा उसे प्रदान भी करती है। जमीन का उपजाऊ पन घास पर ही निर्भर है। जहां घास नहीं जमेगी वह जमीन अनुत्पादक और वीरान जैसी रहेगी।
मनुष्य शरीर भी भौतिक शास्त्रियों की दृष्टि से एक प्रकार का वृक्ष ही है। उसकी सारी आवश्यकता भूमि द्वारा उत्पन्न वनस्पतियों से ही पूरी होती है। हवा और जल को छोड़कर मुख से खाये जाने वाले पदार्थों में वनस्पति ही एक मात्र वह आधार है जिसे ‘अन्न’ या आहार कहते हैं। उसके बिना किसी का भी निर्वाह नहीं हो सकता। घास हर जगह उपलब्ध होने से उसे सस्ती समझकर उपेक्षणीय समझा भर जाता है पर वस्तुतः उसका महत्व किसी भी बहुमूल्य पदार्थ से कम नहीं है। एक पौण्ड घास में इतनी कैलोरी शक्ति रहती है कि आदमी उतने से ही डेढ़ घण्टे तक लकड़ी काट सके। बीजों में इससे चार गुनी अधिक शक्ति होती है।
संसार में आय के साधन कारखाने व्यापार आदि को समझा जाता है पर सच बात यह है कि मनुष्य जाति का आय का सबसे बड़ा साधन पशु है और वे घास पर निर्भर रहते हैं। इस प्रकार घास को आर्थिक दृष्टि से संसार का सबसे बड़ा आय-साधन भी माना जा सकता है। साफ सुथरी जमीन को घास की ही देन कह सकते हैं यदि वह न हो तो सर्वत्र धूलि उड़ती दिखाई पड़े या फिर चट्टानों जैसी निर्जीव स्थिति दीख पड़े।
मकान, किवाड़, फर्नीचर, फल, चूल्हा, चटाई, कपड़े, कागज, जिधर भी नजर उठाकर देखें घास, वृक्ष और वनस्पति का ही वरदान, अनुदान बिखरा पड़ा है। वह मनुष्य की लकड़दादी है। सृष्टि के निर्माण काल में सबसे पहले वनस्पति को ही उद्भव हुआ था। एक कोषीय बहुकोशीय जीवन तो उसके बहुत बाद में बने और मनुष्य तो उन प्राणधारियों की शृंखला से हजारों पीढ़ी पश्चात जन्मा है।
घास का ही विकसित रूप है वृक्ष। गुल्म झाड़ियों, पौधे और विशाल वृक्ष उसी प्रकार छोटे हैं जिस प्रकार चतुष्पदों में छोटी चुहिया और विशालकाय हाथी। छोटा मच्छर और बड़ा सारस। इनके आकार प्रकार बड़े छोटे हैं वह वर्गीकरण तो उसी स्तर पर होगा। वनस्पति में छोटी घास और बड़े विशालकाय वृक्ष गिने जा सकते हैं। उन सबकी अपनी विशेषताएं ऐसी हैं जो सृष्टि की सुन्दरता और सन्तुलन बनाये रखने में महत्व पूर्ण योगदान करती हैं।
कैलीफोनिया में पाया जाने वाला उगलस वृक्ष 300 से 400 फुट तक लम्बा होता है इसका तना 50 फुट व्यास तक का पाया जाता है। ‘फर’ नामक वृक्ष की आयु हजारों वर्ष मानी जाती है। यदि इन विशाल वृक्षों का तना खोखला कर दिया जाय तो उसमें 200 बच्चों को पढ़ाने जैसा एक स्कूल आसानी से बन सकता है। अमेरिका में कई ऐसे फर के वृक्ष हैं जिनके तने को खोखला करके उनमें बीच में सड़क निकाल दी गई है। सड़क बनाने में उनके काटने की अपेक्षा यह तरीका अधिक अच्छा समझा गया। सन्त, ब्राह्मण, दानी परोपकारी मनुष्य ही नहीं होते। गाय जैसे पशु भी उसी स्तर के वन्दनीय वर्ग में आते हैं। वृक्षों में भी कुछ वृक्ष ऐसे ही हैं जिन्हें सन्त या दानवीर की उपाधि दी जा सकती है।
उत्तरी आस्ट्रेलिया में एक विशालकाय गोरख इमली का वृक्ष है। यह पेड़ दो हजार वर्ष पुराना है। इसका खोखला तना किसी समय नगर जेल की तरह काम में लाया जाता था। ऐन्डोनियम वृक्षों के तनों में पानी भरा होता है और यह कई वर्षों तक सूख पड़ने पर भी हरे ही बने रहते हैं। दक्षिण अमेरिका के ब्राजील और पेरु के जंगलों में एक ऐसा वृक्ष होता है जिसके तने से दूध जैसा तरल पदार्थ निकलता है जो मीठा भी होता है और स्वादिष्ट भी। वन वाले इसे देवताओं की कामधेनु समझते हैं और बड़े चाव से उसका दूध पीते हैं।
इन्डोनेशिया के सुमात्रा द्वीप में और अमेरिका के चिली देश में एक ऐसा वृक्ष पाया जाता है जिससे पानी टपकता रहता है और उसके नीचे एक छोटा गड्ढा उस पानी से भरा रहता है। यह पेड़ अपनी पत्तियों द्वारा हवा में उड़ती हुई भाप बड़ी मात्रा में सोखता है और फिर अपनी आवश्यकता जितना जल पास में रखकर शेष को बूंदों के रूप में बरसा देता है।
अफ्रीका में एक ऐसा पेड़ पाया जाता है जिसकी छाल को आटे की तरह पीसकर रोटी बनाई जाती है। यह अन्न की तरह पौष्टिक और स्वादिष्ट होती है। वनस्पतियों का विकसित रूप ही सचेतन जन्तुओं में परिणत हुआ है। विकास क्रम की शृंखला यही बताती है कि सृष्टि के आदि में जीवन वनस्पति के रूप में था फिर वह क्रमशः सचेतन प्राणियों के रूप में उन्नति करता चला गया। इसका प्रमाण अभी भी समुद्रों में उपलब्ध है। कुछ ऐसे पौधे अभी भी पाये जाते हैं जो वनस्पति भी कहे जा सकते हैं और प्राणधारी भी। उनमें दोनों ही गुण विद्यमान हैं।
वनस्पति और जीवधारियों के बीच की कुछ जातियां समुद्र में पाई जाती हैं। एस्पेरिआपसिस जीव सड़ी लकड़ी से उगने वाले कुकुरमुत्ते की तरह का होता है। यह पीले, भूरे और हरे रंग का—लगभग तीन इंच व्यास का होता है। अमेरिका के पूर्वी तट पर यह लगभग 20 प्रकार की जातियों में पाया जाता है।
हाइड्रो देखने में तैरती हुई सूखी डाली जैसा लगता है। पर छेड़ते ही उसमें हरकत शुरू हो जाती है। इसके कई मुंह होते हैं। हर मुंह पर बाल उगे होते हैं जिनकी संख्या छह से दस तक होती है। इन बालों को वह सकोड़ और फैला लेता है। असल में यह ही उसके हाथ हैं जिनकी सहायता से वह आहार पकड़ता और मुंह में डालता है। तैरने में यह बाल उसके लिए पैरों का काम देते हैं। समुद्री जन्तु ‘केरोपहोलिया’ दूर से देखने में ऐसा लगता है मानो पत्थर पर सुन्दर गुलाबी फूल खिला हो। जब जंभाई लेता है तो उस फूल जैसे मुंह को खुलते और बन्द होते देखा जा सकता है। यह पीले हरे, और भूरे होते हैं। मुंह पर छोटी-छोटी कई जीभें उभरी होती हैं इन्हीं से वे अपना आहार पकड़ते हैं। फ्लोरिडा, वेस्ट इंडीज, कैलीफोर्निया की खाड़ी में यह कैरोपहोलिया आसानी से पाया जाता है।
प्रायः छह इंच लम्बा एल्कोनियम नन्हें असंख्य फूलों से लदी किसी सुन्दर डाली जैसा लगता है। उसके सहस्रों मुख होते हैं। तने जैसा मोटा पेट बीच में होता है। वेस्ट इन्डीज तथा उत्तरी अटलांटिक में यह पाया जाता है।
आस्ट्रेलिया के वैरियर रीफ नामक क्षेत्र में रंग-बिरंगी घास जैसा एक जल जन्तु होता है—एक्टीनेरिया। इसके हाथ पैर सदा हिलते रहते हैं और हर घड़ी कुछ पाने पकड़ने और खाने में ही लगा रहता है।
वनस्पति की जीवधारियों के रूप में विकसित होने की परम्परा यह दर्शाती है कि अपनी उपलब्धियों और विभूतियों को परमार्थ प्रयोजनों के लिए समर्पित कर दिया जाय तो उससे कुछ खोता मिटता नहीं है, वरन् नये रूप में मनुष्य का विकास होता है उसकी विभूतियां बढ़ती हैं और उपलब्धियों में अभिवृद्धि होती है। बीज जिस प्रकार अपने को मिटा देने के लिए तैयार होकर ही वृक्ष बनने में समर्थ होता है, बूंद जब मिटती है तभी ‘सागर’ बनती है उसी प्रकार आत्म विस्तार के इच्छुकों को अपने उद्देश्य में तभी सफलता मिलती है जबकि वे स्वयं को मिटाने का साहस जुटा सकें।
परमार्थ कार्यों का साहस जुटा भर लेने की आवश्यकता है। उसके लिए न कोई विपुल साधन चाहिए न अपरिमित-क्षमता की। परमार्थ प्रयोजन के लिए स्वयं को समर्पित करने की—अपने आपको मिटा देने की सामर्थ्य हो तो अन्य कमियां-त्रुटियां भी प्रकृति किसी न किसी प्रकार पूरा कर देती है, उदाहरण के लिए श्वास क्रिया गति और जीवन का प्रथम लक्षण है, स्थूल दृष्टि से पौधों में नाक नहीं होती, फेफड़े भी नहीं होते पर यदि सूक्ष्मदर्शी (माइक्रोस्कोप) से देखें तो पौधे के पत्ते-पत्ते में श्वास छिद्र देखे जा सकते हैं। इन छिद्रों से ही वे श्वास लेते हैं यह अलग बात है कि प्राकृतिक सन्तुलन बनाये रखने के लिए पौधे मनुष्य और अन्य जीवधारियों द्वारा छोड़ी हुई दूषित वायु कार्बन डाई ऑक्साइड ग्रहण करते हैं और एवज में उनके लिए अमृत तुल्य ऑक्सीजन निकालते हैं। कार्बन डाई ऑक्साइड मूर्छित और अर्द्धचेतन रखने वाली गैस है इसी का प्रभाव है कि वृक्ष संधियोनि में अचेत और मूर्छित पड़े रहते हैं।
कोई नाक और मुंह दोनों बन्द कर दे तो मनुष्य मर जाता है। पौधे के किसी पत्ते में छेद कर दिया जाये या उसके दोनों तरफ कागज चिपका दिया जाय तो पत्ता कुछ ही समय में पीला पड़ कर गिर जायगा। यदि तमाम पत्ते न होते तो सम्भवतः पेड़ ही नष्ट हो जाता। मानना चाहिये कि प्रकृति की हर रचना परमात्मा की कृपा और सृष्टि व्यवस्था का अंग है कोई ऊबड़-खाबड़ बनावट मात्र नहीं। कुछ पौधे जो जल के भीतर रहते हैं सांस उन्हें भी आवश्यक होती है। योरोप के तालाबों में एक पौधा पाया जाता है जिसके पत्तों में झिल्ली नहीं होती। इसके लिए मछलियां पानी में मिली हुई वायु के कण अलग कर देती हैं इसी से वह अपना जीवन चलाता रहता है पर श्वास के बिना जीवित वह नहीं रह सकता।
प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि वृक्ष वनस्पति किस प्रकार अपने जीवन अस्तित्व को परमार्थ प्रयोजनों के लिए घुलाते रहते हैं।
कुछ समय पूर्व इण्डोनेशिया ने यूनेस्को के तत्वावधान में 150 वन विशेषज्ञों की एक अन्तर्राष्ट्रीय गोष्ठी हुई थी, जिसमें विश्व की घटती हुई वन सम्पदा पर चिन्ता प्रकट की गई थी। आमतौर से लोग वृक्षों का महत्व नहीं समझते। लकड़ी का लोभ और खेती के लिए अधिक जगह मिलने के लालच में पेड़ों को काटते चले जाते हैं वे यह भूल जाते हैं कि इन तुच्छ लाभों की तुलना में वृक्ष विनाश से होने वाली हानि कितनी अधिक भयंकर है। उपरोक्त प्रो पैसिफिक साइन्स कान्फ्रैन्स ने संसार को चेतावनी दी कि वृक्ष सम्पदा विनाश का वर्तमान क्रम चलता रहा तो उसके भयानक परिणाम भुगतने पड़ेंगे।
उपरोक्त गोष्ठी में जापान, आस्ट्रेलिया, कनाडा, अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैंड, नीदरलैण्ड, भारत आदि 20 देशों के वन विज्ञानी उपस्थित थे। गोष्ठी में कनाडा के प्रतिनिधि डा. ब्लादीमीर क्रजीना ने कहा—मनुष्य को सांस लेने के लिए शुद्ध वायु मिलती है। वृक्ष हमारी इस आवश्यकता को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करते हैं। संसार में बढ़ते हुए वायु प्रदूषण का समाधान करने के लिए वृक्षों की रक्षा की जानी चाहिए। यदि हम वन सम्पदा को गंवा बैठेंगे तो फिर शुद्ध सांस का अभाव इतना जटिल हो जायगा कि उसका समाधान अन्य किसी उपाय से सम्भव न हो सकेगा।
अन्य देशों के प्रतिनिधियों ने भी जो विचार व्यक्त किये उनसे स्पष्ट था कि वृक्ष रक्षा एवं अभिवर्धन का प्रश्न उतना उपेक्षणीय नहीं है जितना कि उसे समझा जा रहा है। उसे पशु पालन के स्तर पर रखा जाना चाहिए। सच तो यह है कि इससे भी अधिक महत्व उसे दिया जाना चाहिए। पशुओं को गंवाकर उनके द्वारा मिलने वाले श्रम, दूध, मांस, चमड़े से एवं गोबर से वंचित होना पड़ता है वृक्षों को गंवाने की हानि उनसे भी अधिक है। वायु शोधन—वर्षा का सन्तुलन और पत्तों से मिलने वाली खाद, धरती के कटाव का बचाव, कीड़े खाकर फसल की रक्षा करने वाले पक्षियों के आश्रय के अभाव में सफाया आदि कितने ही ऐसे संकट हैं जो वृक्षों के घटने के साथ-साथ बढ़ते ही चले जायेंगे।
पिछले दिनों कर कारखानों की वृद्धि को-विकास का आधार माना जाता रहा है। खाद्य उत्पादन के लिए कृषि तथा सिंचाई पर भी जोर दिया जाता रहा है। बहुत हुआ तो यातायात के साधनों को बढ़ाने की बात भी आर्थिक प्रगति के लिए जोड़ दी गई। वन सम्पदा की महत्ता समझने की ओर जितना ध्यान देना आवश्यक था उतना दिया ही नहीं। सच तो यह है वनों की जमीन घेरने वाला माना जाता रहा और उन्हें काटकर कृषि करने की बात सोची जाती रही। जलाऊ लकड़ी तथा इमारती आवश्यकता के लिए भी वृक्षों को अन्धाधुन्ध काटा जाता रहा और उनके स्थान पर नये लगाने की ओर उपेक्षा बरती जाती रही। आज हम वन की सम्पदा की दृष्टि से निर्धन होते चले जा रहे हैं और उसके कितने ही परोक्ष दुष्परिणामों को प्रत्यक्ष हानि के रूप में सामने खड़ा देख रहे हैं।
‘सहारा कान्ववेस्ट’ ग्रन्थ के लेखक सेन्टवार्व वेकर ने सहारा रेगिस्तान की 20 लाख मील भूमि के सम्बन्ध में लम्बा और गहरा सर्वेक्षण करके लिखा है यह क्षेत्र किसी समय बहुत ही हरा-भरा था, पर लोगों ने नासमझी से उसे उजाड़ दिया। इससे यह रेगिस्तान बन गया। तेज हवा, सूर्य की सीधी धूप और पाले ने अच्छी खासी उपजाऊ मिट्टी को रेत बना दिया। तेज हवाएं उस धूल को भी इधर से उधर उड़ाने लगीं, सिर्फ ऊसर और पथरीली जमीन ही टिकी हुई है। यह रेगिस्तानी विशाल भूखण्ड अब निकटवर्ती हरी-भरी जमीन को भी महासर्प की तरह निगलता चल जा रहा है। हर साल तीस वर्ग मील हरी-भरी जमीन उस रेगिस्तान की चपेट में आकर सदा सर्वदा के लिए मृतक बन जाती है। द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् एक बार अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट हवाई जहाज से मिश्र की भूमि से गुजरे, उन्होंने लेवनान के इतिहास प्रसिद्ध सिडार वृक्षों के वन्य प्रदेश की बड़ी प्रशंसा पढ़ी थी। पर जब उन्होंने नीचे झांक कर देखा कि वहां नंगे पहाड़ खड़े हैं और जहां-तहां दस-बीस वृक्ष दीख रहे हैं, तब उन्हें इसका बड़ा दुख हुआ। संसार में अन्यत्र भी ऐसी ही मूर्खता बरती जा रही है इसकी विस्तृत जानकारी प्राप्त करके उन्हें और भी अधिक वेदना हुई। उनके आदेश पर राष्ट्रसंघ पर अमेरिकी प्रतिनिधियों ने दबाव डाला कि विश्व खाद्य और कृषि संगठन में वन सम्पदा के संरक्षण को भी महत्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिए वैसा हुआ भी। राष्ट्रसंघ के तत्वावधान में वन सम्पदा बढ़ाने के लिए जो प्रयत्न चल रहे हैं उन्हीं के अन्तर्गत एक बड़ी आर्थिक सहायता देकर लेवनान में नये सिरे से सिड़ार वन लगाये गये हैं और हजारों एकड़ जमीन फिर से हरी-भरी बनाई गई है। ऐसे ही प्रयास अन्यत्र भी हुए हैं।
इस्राइल में हरा-भरा क्षेत्र एक तिहाई और सूखा रेगिस्तानी दो तिहाई है। उन लोगों ने इस सूखे भूखण्ड को हरा-भरा बनाने का संकल्प किया है और इन दिनों इस दिशा में अथक परिश्रम किया जा रहा है। पिछले दिनों ही 10 करोड़ नये पौधे उन लोगों ने लगाये हैं।
आइलैंड वाले बहुत दिनों से अपनी वन सम्पदा उजाड़ते चले आ रहे थे फलस्वरूप वे अपनी उपजाऊ भूमि से हाथ धो बैठे। सन् 1946 के बाद उनकी आंखें खुली और योजनाबद्ध रूप से 20 लाख नये पेड़ लगाये। टस्मानिया का भी यही हाल हुआ। उन लोगों ने वृक्ष सम्पदा गंवाई फलस्वरूप रेतीली आंधियों का सर्वनाशी सिलसिला आरम्भ हो गया। घास-पात तक को उनने अपने पेट में निगल लिया। जब जीवन-मरण का सवाल पैदा हुआ तो उन्होंने ऊंचे चीड़ और देवदारू के लगाकर रेतीली हवाओं से रोकथाम की है और 1500 रेगिस्तान के मुंह में से उगलवाई है। स्काटलैण्ड में कुल्विन सेन्डस नामक छह मील लम्बा और दो मील चौड़ा एक छोटा-सा रेगिस्तान था। उन लोगों ने इस अजगर का मुंह कुचल कर रख दिया है और अब वहां हरे-भरे उद्यान लहलहा रहे हैं। लीविया ने अपने रेगिस्तानों को छोटी झाड़ियों से पाट देने का निश्चय किया है और वे उस प्रयास में भली प्रकार सफल हो रहे हैं। आस्ट्रेलिया ने अपने 7 इंच जितनी स्वल्प वर्षा वाले क्षेत्र में संसार भर से 83 जाति के ऐसे पौधे मंगाकर वहां रोपे हैं जो सूखी आव हवा में भी पनप सकते हैं। आग की तरह तपने वाले बूमेटा रेगिस्तान का एक बड़ा भाग अब वृक्षारोपण के अभिनव प्रयासों से हरा-भरा बनाया जा चुका है। उस क्षेत्र के एक किसान डेस्मांड फाइलिस ने अपने एकाकी प्रयत्न से 6000 वृक्ष लगाये हैं जो अब 20 फुट से भी ऊंचे हो गये हैं। इस वृक्षों ने उस क्षेत्र की भयंकर खुश्की को मनुष्यों और पशुओं के रहने योग्य बना दिया है।
मोरक्को ने अपनी कुम्भकर्णी नींद त्यागकर अपनी नष्ट होती वन सम्पदा को संभाला है। इन्हीं दिनों उन लोगों में 65 हजार जैतून के 2700 बादाम के और 1,3100 सदा बहार के बड़े वृक्ष लगाये हैं। इस कार्य के लिए उन्हें राष्ट्रसंघ से भी अनुदान मिला।
चीन अपनी उत्तरी पश्चिमी सीमा को सुरक्षित रखने के लिए फ्रांस की प्रसिद्ध लौह प्राचीर की तरह वृक्षों की हरी दीवार खड़ी कर रहा है यह दीवार 3000 मील लम्बी और कई मील चौड़ी होगी। वहां बंजर प्रदेशों को वृक्षों से पाट देने का कार्यक्रम चल रहा है।
अब संसार का हर देश समझ गया है कि मनुष्य जीवन के लिए पशु सम्पदा से बढ़कर वन सम्पदा का महत्व है इसलिए उसे राष्ट्रीय सम्पत्ति में उच्च स्थान दिया जा रहा है और इसे बढ़ाने के प्रयास को खाद्य उत्पादन स्तर का महत्व दिया जा रहा है।
स्काटलैण्ड के वनस्पति विज्ञानी राबर्ट चेम्बर्स ने लिखा है—वन नष्ट होंगे तो पानी का अकाल पड़ेगा। भूमि की उर्वरा शक्ति घटेगी और फसलों की पैदावार कम होती चलेगी। पशु नष्ट होंगे। पक्षी घटेंगे और मछली प्राप्त करना कठिन हो जायगा। वन विनाश का अभिशाप जिन पांच पुराने प्रेतों की भयंकर विभीषिका बनाकर सामने खड़ा कर देगा वे हैं बाढ़, सूखा, गर्मी, अकाल और बीमारी। हम जान और अनजान में वन सम्पदा नष्ट करते हैं और उससे जो पाते हैं उसकी तुलना में कहीं अधिक गंवाते हैं।
धर्म शास्त्रों में वट, पीपल, आंवला आदि वृक्षों को देव संज्ञज्ञ में गिना है। उनके प्रति किसी समय कितनी गहरी श्रद्धा रही है इसका परिचय इस बात से मिलता है कि अभी भी वृक्षों के साथ लड़कियों का विवाह होने की प्रथा जहां-तहां पाई जाती है।
तिरहुत में मंगली लड़की का विवाह पीपल के पेड़ के साथ कर दिया जाता है। ताकि नक्षत्र दोष का अनिष्ट पीपल पर पड़े और मनुष्य वर को किसी विपत्ति का सामना न करना पड़े।
आन्ध्र के कुडप वंशी ग्रामीणों में कन्या का विवाह बारह वर्ष तक कर देने का रिवाज था, पर यदि किसी कारणवश विवाह न हो सका तो किसी फलदार पेड़ से उसका विवाह कर देते हैं और उसे सुहाग के सभी प्रतीक धारण करा देते हैं। इसके पश्चात् उसका ‘पुनर्विवाह’ किसी भी आयु में हो सकता है। यदि विवाह न हो तो भी उसे सुहागिन के सभी सामाजिक अधिकार मिल जाते हैं और बिरादरी के लोग विवाह न होने का लांछन नहीं लगाते।
नेपाल की नेवार जाति के लोग अपनी लड़कियों का विवाह विल्व वृक्ष के साथ करते हैं। इसके पश्चात् जब किसी पुरुष के साथ विवाह होता है तो वह उपपति कहलाता है। उपपति को कोई स्त्री कभी भी बहिष्कृत कर देती है, उसे भृत्य जितने ही अधिकार प्राप्त होते हैं।
हिसार जिले की घुमकूड बावरिया जाति में और सरगुजा के भीलों में यह प्रथा है कि विवाह की अनिच्छुक लड़कियों का विवाह पीपल के वृक्ष से कर देते हैं और यह मान लेते हैं कि उसका कुमारी रहने का ‘दोष’ निपट गया।
हरियाली को मनुष्य जीवन सहचरी का स्थान मिलना चाहिये और उसके परिपोषण के लिये प्रत्येक नागरिक में व्यक्तिगत रूप से दिलचस्पी उत्पन्न की जानी चाहिये। महाकवि अलेक्जेण्डर स्मिथ प्रकृति को असीम प्यार करते थे और विचारशील लोगों को सम्बोधन करके कहते थे—अपनी स्मृति पीछे के लिये छोड़ जाना चाहते हो तो भवन बनाने और पदक प्राप्त करने की अपेक्षा वृक्ष लगाने पर ध्यान दो वे इन दोनों की अपेक्षा अधिक चिरस्थायी होते हैं।
संसार में सबसे पुराना वट वृक्ष ताईवान में ढूंढ़ निकाला गया है। ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर अब उसकी आयु 4128 वर्ष है। वह 48 मीटर ऊंचा है। तने की मोटाई का व्यास 40 फीट से अधिक है। चिजायी प्राप्त के मिएन युएह ग्राम के पास की पहाड़ी पर यह उगा हुआ है। वहां के निवासियों ने उस महावृक्ष का नाम ‘चेनी पौरिस’ रखा है। यह वृक्ष वृद्ध होने पर भी अभी सैकड़ों वर्षों तक मजे में अपना अस्तित्व बनाये रहने योग्य सुदृढ़ है।
इससे अधिक सस्ता, अच्छा, ऊंचा, चिरस्थायी एवं अतीव उपयोगी स्मारक और क्या हो सकता है। मनुष्य अपना नाम चाहने की दृष्टि से ही सही वृक्षारोपण को महत्व दे तो भी उससे बहुत हित साधन हो सकता है। बिहार के हजारी बाग जिले का नामकरण इसी आधार पर हुआ है कि उस क्षेत्र के हजारी किसान ने अनवरत श्रम करके उस क्षेत्र में हजार बाग लगवाने में सफलता प्राप्त की थी।
वृक्ष मनुष्य परिवार के ही अंग हैं। वे हमें प्राणवायु प्रदान करके जीवित रखते हैं। इतने अधिक मार्गों से हमारी सहायता करते हैं जिनका मूल्यांकन करना कठिन है।