Books - हम सब एक दूसरे पर निर्भर
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Language: HINDI
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संतुलन और गतिशीलता का एकमात्र आधार
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सृष्टि में चारों ओर, जिधर भी दृष्टि जाय एक ही बात दृष्टिगोचर होगी कि सब कुछ शांत, सुव्यवस्थित, और योजनाबद्ध ढंग से चल रहा है। इस सुव्यवस्था और क्रमबद्ध गतिशीलता का एक प्रमुख आधार है। दूसरों के लिए अपनी सामर्थ्य और विशेषताओं का उपयोग-समर्पण। सृष्टि का कण-कण किस प्रकार अपनी विभूतियों का उपयोग दूसरों के लिए करने की छूट दिये हुए है—यह पग-पग पर देखा जा सकता है। शरीर की व्यवस्था और जीवन चेतना किस प्रकार जीवित बनी रहती है—इसी का अध्ययन किया जाय तो प्रतीत होगा कि स्थूल शरीर के क्रिया कलाप स्वेच्छया संचालित नहीं होते बल्कि कोई परमार्थ चेतना सम्पन्न दूसरों के लिए अपना उत्सर्ग करने की प्रवृत्ति वाले कुछ विशिष्ट तत्व उसमें अपनी विशिष्ट भूमिका निबाहते हैं।
कुछ समय पूर्व यह समझा जाता था कि रक्त मांस का पिण्ड शरीर आहार-विहार द्वारा संचालित होता है। यह तो पीछे मालूम पड़ा कि आहार शरीर रूपी इंजिन को गरम बनाये रहने के लिए ईंधन मात्र का काम करता है। उस आधार पर यह भी पाया गया कि पेट, हृदय और फेफड़ों को संचालक तत्व नहीं माना जा सकता। शरीर के समस्त क्रिया-कलापों का संचालन मूलतः चेतन और अचेतन मस्तिष्कों द्वारा होता है, उन्हीं की प्रेरणा से विविध अंग अपना-अपना काम चलाते हैं। अस्तु स्वास्थ्य बल एवम् बुद्धिबल को विकसित करने के लिए मस्तिष्क विद्या के गहरे पर्तों का अध्ययन आवश्यक समझा गया है और अभीष्ट परिस्थितियां उत्पन्न करने के लिए उसी क्षेत्र को प्रधानता दी गई। पिछले दिनों जीव विज्ञानियों ने शरीर शोध अन्वेषण की ओर से विरत होकर अपना मुंह मनःशास्त्र की ऊहापोह पर केन्द्रित किया है।
अब एक और नया रहस्य सामने आ खड़ा हुआ है—हारमोन ग्रन्थियों का। उनसे अत्यन्त स्वल्प मात्रा में निकलते रहने वाले स्राव ऐसे महत्वपूर्ण हैं जो केवल शारीरिक ही नहीं मानसिक स्थिति को भी प्रभावित करते हैं और उनमें आश्चर्यचकित करने वाले उतार चढ़ाव उत्पन्न करते हैं। यह हारमोन चेतन या अचेतन मस्तिष्क से भी प्रभावित नहीं होते। इनको घटाने बढ़ाने में एक शरीर से दूसरे शरीर में पहुंचाने के परम्परागत प्रयास प्रायः असफल ही हो चुके हैं। एक शरीर से निकाल कर दूसरे शरीर में प्रवेश कराने पर भी इन हारमोनों की वृद्धि न्यूनता अथवा नियंत्रण संतुलन नहीं प्राप्त किया जा सकता। लगता है इनका उद्भव और विकास ही शरीर की पुष्टि, अभिवृद्धि, सुन्दरता और संतुलन के लिए होता है। जीवन की सूक्ष्मतम सत्ता बड़ी विलक्षण और रहस्य पूर्ण है, अब तक ऐसी सूक्ष्म जीवन की इकाई का पता नहीं लगाया जा सका, जो अन्तिम (एब्सोल्यूट) और शाश्वत (इम्पार्शिअल) हो। किन्तु उसका पता लगाते-लगाते वैज्ञानिकों ने जिन सूक्ष्मताओं का पता लगा लिया है वह भी कम आश्चर्यजनक नहीं हैं।
वैज्ञानिकों के संसार में जीवन की जिन सूक्ष्मतम इकाइयों का पता चल पाया है, उनमें से ‘डायटम’ सबसे छोटा होता है। किन्तु इसमें भ्रमात्मक प्रक्रिया है। ‘डायटम’ को कुछ वैज्ञानिक जीवाणु मानते हैं, कुछ उसे वनस्पति जगत का सबसे छोटा कोश (सेल) मानते हैं। इसके बाद सबसे सूक्ष्म इकाई विषाणु (वायरस) है, यह इतना छोटा होता है कि अब तक खोजे गये, लगभग 300 वायरसों में से पोलियो वायरस के 100000000000000000 कण केवल एक छोटी-सी पिंगपौंग की गेंद में आ जायेंगे। विषाणु इतने सक्रिय होते हैं कि 1918 में आये एन्फलूएन्जा में उसने थोड़े ही दिनों में दो करोड़ स्त्री-पुरुषों और बच्चों को मृत्यु के द्वार पर पहुंचा दिया। सूक्ष्मतम की प्रबलतम शक्ति का इसी से अनुमान लगाया जा सकता है। कदाचित हमने भी अपने आपको बड़ा प्रदर्शित करने की भूल न की होती और इतने लघु होते गये होते कि संसार की सबसे छोटी इकाई में आत्मसात हो गये होते तो हमारी भी शक्ति ऐसी ही होती। उससे लाखों लोगों का हित कर सकने की स्थिति में होते।
बड़ी आकृति वाले थलचर प्राणियों से ही हमारा परिचय है। इससे आगे भी कहीं जीवधारियों का अस्तित्व है और उनकी भी कोई अपनी दुनिया है इस तथ्य की बहुत कम लोगों को जानकारी होती है। पृथ्वी पर रेंगने वाले प्राणियों की कितनी अधिक जातियां और उप-जातियां हैं—उनकी आकृति-प्रकृति क्या है? उनके सोचने और करने का उपक्रम क्या है? उन्हें किन साधनों से गुजारा करना पड़ता है और किन परिस्थितियों में रहना पड़ता है, इसकी जानकारी रखना तो दूर ठीक तरह कल्पना कर सकना भी हमारे लिए सम्भव नहीं।
हमारी चेतना मानवी मस्तिष्क-परिस्थिति एवं साधनों के अनुरूप ढली है, अस्तु उसे जो सीमित दृष्टिकोण एवं ज्ञान मिला है उसी को लेकर काम चलाना पड़ता है फिर अन्य प्राणियों की विलक्षण दुनिया के बारे में सही कल्पना कर सकना कैसे सम्भव हो। यही बात जानकारियों के सम्बन्ध में भी है। आंखों से देखे जा सकने वाले जल जीवों की जानकारी—उतनों तक ही सीमित है जो आंखों के सामने आते और अपना परिचय देते रहते हैं। समुद्र तल में ही निर्वाह करने वाले जल जीवों की नगण्य जितनी जानकारियां ही हैं। उनकी प्रकृति और परिस्थितियों का पता लगाने के लिए जैसा चिन्तन चाहिए—जैसे उपकरणों और साधनों की आवश्यकता है उन्हें जुटाना अन्तरिक्ष यन्त्रों से भी कठिन सिद्ध होगा। इतने पर भी यह एक तथ्य है कि अपनी धरती की ‘दुनिया’ उतनी छोटी नहीं है जितनी कि मनुष्यों द्वारा सोची और जानी गयी है। इसी धरती पर असंख्य जाति के जीवधारी निवास करते हैं। उनकी संख्या भी इतनी बड़ी है कि तुलनात्मक दृष्टि से 400 करोड़ मनुष्यों का संख्या बल बहुत ही नगण्य एवं उपहासास्पद प्रतीत होगा। संख्या बल के अतिरिक्त उनकी प्रकृति, आवश्यकता, पारस्परिक सहयोग व्यवस्था, निर्वाह, विनोद, वंशवृद्धि, प्रसन्नता, आयुष्य आदि की परिस्थितियां इतनी विचित्र मिलेंगी जिन्हें देखते हुए उन्हें मनुष्यों की ‘दुनिया’ से सर्वथा भिन्न एवं विलक्षण स्तर की कहा जा सकता है। आश्चर्य इस बात का है कि अपनी धरती पर असंख्य प्राणियों की, असंख्य स्तर की चित्र-विचित्र दुनिया बसी हुई हैं। असंख्य सभ्यताएं फल-फूल रही हैं। असंख्य जीवन विधाओं का कार्यान्वयन हो रहा है कि किन्तु हम अपनी ही दुनिया तक सीमित हैं और उस सीमित क्षेत्र को ही सब कुछ मानकर मूर्खों की दुनियां में रहने की उक्ति चरितार्थ कर रहे हैं।
सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में वैज्ञानिक आंनोफा ल्यूवेनाक ने सूक्ष्म जीवों को स्वनिर्मित लैंसों से देखा। उन्नीसवीं शताब्दी में लुई पास्चर ने सूक्ष्म जीवों की दुनिया की जानकारी प्राप्त कर उनकी भूमिका को प्रयोग द्वारा दिखाया। फिर यह सिलसिला बढ़ता ही गया। कोरव, मैक्निरवोव, फिनले, फ्लेमिंग द्वारा विकसित सूक्ष्म जीव विज्ञान आज विशाल अध्ययन-अन्वेषण का क्षेत्र बना है।
सूक्ष्म जीव इतने छोटे होते हैं कि आंखों से उन्हें नहीं देखा जा सकता। पास-पास रखने पर साधारणतः 25 हजार सूक्ष्म जीव एक इंच की जगह में समा जायेंगे। इनकी आकृति और वजन दोनों के आधार पर कई जातियां हैं। सामान्यतः बीस अरब सूक्ष्म जीवियों का वजन एक खस खस के दाने के बराबर होता है।
सूक्ष्म जीवी प्रत्येक जगह पर मिलते हैं। यहां तक कि ये ऐसे स्थानों पर भी पाये गये हैं, जहां जीवन की कोई सम्भावना नहीं मानी गई थी। पृथ्वी के वायुमण्डल की ऊपरी तह में, दक्षिणी ध्रुवों की बर्फ में, गरम सोतों के खौलते प्रवाह में, नाभिकीय रिएक्टरों की शीतलन प्रणालियों में भी इन्हें पाया गया है।
‘मृत सागर’ से साफ पानी तक, स्तनपाइयों की आंतों से लोहे के जमीनदोज नलों की सतहों तक इनका बोल-बाला है। प्रतिदिन अनेक सूक्ष्मजीवी हमारे शरीर के भीतर नाक और मुंह के रास्ते से घुसते हैं। वे हमारी त्वचा पर भी विहार करते हैं।
इन सूक्ष्म जीवियों की असंख्य जातियां हैं। कुछ सूक्ष्मजीवी अम्लीय माध्यम में रहते हैं, तो कुछ क्षारीय। कुछ ऊंचे तापक्रम पर, तो कुछ नीचे तापक्रम पर। कुछ हवा के बिना नहीं जी सकते तो कुछ हवा में ही नहीं जी सकते, बिना हवा के मजे में रह लेते हैं। यह माध्यम क्या है? जीवाणु जिस वस्तु में जन्म लेते, पलते, पनपते हैं, वही उनका माध्यम है। ये इतने छोटे होते हैं कि किसी भी द्रव माध्यम के एक घन सेन्टीमीटर में लगभग 1 करोड़ जीवाणु आराम से रह लेते हैं। जिस माध्यम में ये जीवाणु रहते हैं, उसी से आहार प्राप्त करते हैं। उसी माध्यम में ये बढ़ते, बच्चे पैदा करते और बलवान बनते हैं।
इनके बढ़ने और बच्चे पैदा करने का ढंग दिलचस्प है। प्रत्येक जीवाणु एक कोशिका भी है और एक जीव भी। इसीलिए यह एक कोशिकीय जीव कहलाता है। एक सूक्ष्मजीवी थोड़ा-सा लम्बा होकर स्वयं दो भागों में विभक्त हो जाता है। ये दोनों ही भाग मूल कोशिका के ही समान दो पृथक्-पृथक् सूक्ष्मजीवी बन जाते हैं। इनकी बढ़ने की रफ्तार भी गजब की होती है। एक सूक्ष्मजीवी चौबीस घण्टे में 70 पीढ़ियां पैदा कर सकता है। विषूचिका का एक सूक्ष्मजीवी एक दिन में अरब 80 करोड़ की संख्या में हो जाता है। तभी तो इस रोग के अधिकांश रोगी देर होने पर बच नहीं पाते। पोषक माध्यम की कुछ ही बूंदों में सूक्ष्म जीवियों की 7 अरब आबादी का आवास सम्भावित होता है। एक सूक्ष्मजीवी द्वारा स्वयं को दो भागों में बांटकर फिर पृथक्-पृथक यही क्रम अपनाते हुए बढ़ते जाने के कारण इनकी वंश वृद्धि की क्रिया को विखण्डन-क्रिया द्वारा वंश-वृद्धि कहा जाता है।
अब तक मनुष्य के सहायकों में श्रम, दूध, बाल, चर्म मांस आदि देने वाले प्राणियों की गणना होती थी और वनस्पति वर्ग को छाया, अन्न, शाक, फल, फूल, लकड़ी आदि देने वाले सहायकों में गिना जाता था। प्राणियों और वनस्पतियों के सहारे ही मानव जीवन की गाड़ी घिसटती दिखाई देती थी, अब सहायकों के वर्ग में सूक्ष्मजीवों की एक नई जाति सम्मिलित हुई है। विज्ञान ने धरातल की दूरी को ही समीपता में नहीं बदला है, वरन् प्राणियों की बीच की दूरी को भी घसीट कर एकता में परिणित कर दिया है। अब सूक्ष्म जीव हमारे लिए पशु और वृक्ष वनस्पतियों से भी अधिक उपयोगी एवं सहायक सिद्ध होते जा रहे हैं।
सतर्कता तो मित्रों से भी रखनी पड़ती है। अनियन्त्रित और अव्यवस्थित छोड़ देने पर तो सुई भी कांटे का काम करेगी और संकट में फंसा देगी। संक्रामक रोग कीटकों की हानि को ध्यान में रखते हुए उनसे सुरक्षा का प्रबन्ध भी करना होता है और उनके मारण निवारण का सरंजाम भी जुटाना होता है। इतने पर भी समूची सूक्ष्म जीवों की दुनिया हमारे लिए शत्रु का नहीं मित्र का ही काम करती है और निकट भविष्य में उनकी सहायता से भारी हित साधन हो सकने की अपेक्षा है।
विषाणुओं से डरना और सतर्क रहना उचित है, पर यह भी ध्यान में रखा जाना है कि सूक्ष्म जीवियों की अधिकांश जातियां हमारी शत्रु नहीं मित्र हैं। वे अनायास ही हमें बहुत लाभ पहुंचाती हैं, पर जब उनका सहयोग विधिवत् आमन्त्रित किया जायेगा तब तो वे अपनी मित्रता का उससे भी बड़ा परिचय देंगी जैसा कि अब तक उपयोगी प्राणियों और वनस्पतियों का मिलता रहा है।
कोई वस्तु देखने में बहुत ही छोटी हो सकती है। उसका आकार और विस्तार भी नगण्य दृष्टिगोचर हो सकती है। लेकिन औरों के लिए इस कारण वह कम उपयोगी नहीं हो जाता। यदि वह भी किन्हीं प्रयोजनों में घुल−मिल जाय तो उसका असाधारण महत्व हो जाता है। उदाहरण के लिए खमीर को ही लिया जाय। यह पौधों की दुनिया में सबसे छोटा है। इसे अंग्रेजी में ‘यीस्ट’ कहते हैं। इसकी संरचना अन्य वनस्पतिक जीव कोषों जैसी ही होती है। वह अण्डाकार भी होता है और गोलाकार भी। आकार में वह एक इंच का पच्चीसवां भाग और वजन में एक ग्राम का दस अरबवां हिस्सा। इसे एक भिन्न वर्ग का पौधा मानना पड़ेगा, फफूंद की तरह पराश्रयी-परावलम्बी। इसके अतिरिक्त खमीर एक कोषीय है जब कि हर पौधे की रचना अनेक कोषों से मिल कर हुई होती है।
पेड़ों पर, पत्थरों पर, पानी की सतह पर काई की तरह वनस्पतियां उगती हुई आमतौर से देखी जाती हैं, पर खमीर ऐसा पौधा है जो फलों के छिलकों से लेकर पशुओं और मनुष्यों की त्वचा तक पर उगता है। कई दिन तक स्नान न किया जाय तो पसीने की परत हवा, पानी और गर्मी के प्रभाव से वनस्पति की शकल में बदलने लगती है तो बैक्टीरिया की उपस्थिति के अनुरूप वह खमीर बनने लगता है। ऐसी स्थिति में उस शरीर को एक अच्छा खासा खेत भी कहा जा सकता है।
शराब बनाने में और रोटियों का फुलाव पैदा करने के लिये खमीर का उपयोग सबसे अधिक होता है। जौ, चावल, अंगूर, महुआ, शीरा आदि कितने ही पदार्थों को सड़ा कर उनमें खमीर पैदा किया जाता है और फिर उसे भट्टी द्वारा अर्क बना कर शराब तैयार कर ली जाती है। आटे में इसका थोड़ा अंश मिल जाने से उसमें यह तत्व फैल जाता है। डबल रोटी, बिस्कुट, जलेबी, गोलगप्पे आदि में जो फुलाव दीखता है वह खमीर जन्य ही होता है।
हालैंड वैज्ञानिक ल्यूफेकन हाक, से लेकर बैक्टीरियालॉजी के सुप्रसिद्ध अन्वेषक लुई पाश्चर तक अनेकों शोधकर्ता ‘खमीर’ के सम्बन्ध में गहरी खोजें करते रहे हैं और इसके विकास परिष्कार के अनेक आधारों का पता लगाते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मानवी उपयोग में खमीर की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।
शराब का नशे के लिए उपयोग बुरा है, पर इस सड़न प्रक्रिया से जो अल्कोहल बनता है वह औषधि जगत की एक महती आवश्यकता है। खमीर का पौधा ही उस उत्पादन का आधार है। आटे में रहने वाली शर्करा का खमीर ही कार्बनडाइऑक्साइड के रूप में बदलता है, जिससे रोटी फूलती है—सुपाच्य और स्वादिष्ट बनती है।
खमीर के छोटे से कृमि कीटक ‘खमीर’ की उपयोगिता बढ़ाते हैं। यदि उसे सही रूप में प्रयुक्त करने के लिए विशाल परिणाम में उत्पन्न किया जाय तो जीवनोपयोगी महत्वपूर्ण निधि हाथ लग सकती है जिसके आधार पर आहार को पौष्टिक एवं सुपाच्य बनाने की आवश्यकता को सरलता पूर्वक किया जा सकता है।
यही बात सामान्य समझे जाने वाले मनुष्यों पर भी लागू होती है। यदि उनकी उपयोगिता, समझी बढ़ाई और काम में लायी जाय तो क्षुद्र और नगण्य से दीखने वाले व्यक्ति भी महान और देवता बन जाते हैं।
आत्मा के लिए भगवान् ने जितने शरीर बनाये हैं, उनमें से एक मनुष्य शरीर ही सर्वांगपूर्ण और सुन्दर है। मनुष्य शरीर के एक-एक अवयव, चक्र, कोण और उपत्यिकाओं में भगवान् ने ऐसी-ऐसी शक्तियां भरी हैं, जिनके द्वारा वह सम्पूर्ण त्रैलोक्य में शासन कर सकता है। बुद्धि, विवेक, ज्ञान, श्रवण, दर्शन, घ्राण, सन्देश, सम्प्रेषण के लिए वाणी, लेखनी आदि के ऐसे-ऐसे सुन्दर साधन उसे मिले हैं, जैसे सृष्टि के किसी भी प्राणी को नहीं मिले। भगवान् की शक्तियां अनन्त हैं पर वह प्रकाश में नहीं आ सकतीं। मनुष्य को उसने अपना प्रतिनिधि बनाकर इस आशा से भेजा कि वह अपनी क्षमताओं का उपयोग विश्व-कल्याण और प्राणि मात्र के हित में करेगा। किन्तु मनुष्य ने उन ईश्वर प्रदत्त शक्तियों का दुरुपयोग ही किया। बेईमान और रिश्वतखोर ऑफिसर की तरह उसने किया तो परपीड़न, शोषण और अत्याचार ढाये या फिर रोटी-बेटी, रुपया पैसा वाले निकृष्ट जीवन में गलकर मर गया और अपने पीछे परमात्मा की दी हुई विभूति—मनुष्य शरीर को भी कलंकित कर गया।
मनुष्य से तो अच्छे रहे पेड़-पौधे जो अपने बन्धन-युक्त मूक जीवन से भी प्रेरणाओं के स्रोत उड़ेलते रहते हैं। योग वशिष्ठ में महर्षि वशिष्ठ ने भगवान् राम से तत्व-चर्चा करते समय कहा था—
ये च मध्यमधर्माणो मृतिमोहादनन्तरम् । ते व्योमवायु बलिताः प्रयान्त्योषधि पल्लवम् ।।3।55।24,
हे राम! ऐसे जीव जिनके पुण्य मध्यम श्रेणी के होते हैं, वह वायु द्वारा उड़कर औषधि फल-फूल आदि वृक्षों की योनियों में जन्म लेते हैं। अपने-अपने कर्मों का फल भोग कर वे पुनः पुण्यार्जन के लिये मनुष्य शरीर में आते हैं।
खेद है कि जिस मनुष्य को अपना जीवन पुण्य और परमार्थ की साधना में व्यतीत करना चाहिये था, वह निकृष्ट और हेय जिन्दगी जीता है, जब कि निकृष्ट कहे जाने वाले पेड़-पौधों के आचरण बड़े प्रेरक और प्रकाश देने वाले होते हैं। मनुष्य चाहे तो इन तुच्छ जीवों से भी बड़ी महत्वपूर्ण शिक्षायें ग्रहण कर सकता है।
जैसे पिछड़े और दलित वर्ग को आगे बढ़ाने के लिए अपना समय व श्रम लगाना एक मानवीय कर्तव्य है। इस कर्तव्य को मनुष्य पूरा करते हों अथवा न करते हों, पेड़-पौधे जरूर इस प्रकृति प्रेरणा का पालन करते हैं। वस्तुतः पिछड़े व्यक्ति इसलिए पिछड़े नहीं रह जाते कि उनमें कोई कमी अथवा त्रुटि होती है। बल्कि उसके लिए बहुत कुछ वातावरण और व्यवस्था भी उत्तरदायी होते हैं। कर्मफल देने वाले पौधों के बीज ऐसी जगह ले जायं, जहां उसे विकसित होने के लिए पर्याप्त जल-वायु, ताप, खाद्य पदार्थ और हवा की नमी (माएश्चर) उपलब्ध हो तो, वह बीज भी अधिक फल देने वाली जाति में बदल जाते हैं। वही सिद्धान्त मानवीय जीवन में भी काम करता है। हमारे समाज में अनेक पिछड़े और पद दलित लोग पड़े हैं, वह भगवान् के बनाये या कर्मभोग के दोषी नहीं। मनुष्य की योनि कर्मभोग प्राप्त कर लेने के बाद ही मिलती है, यहां जन्म लेने के बाद उसका अच्छा बुरा होना, बढ़ना विकसित होना या दीनता, दरिद्रता की स्थिति में पड़े रहना अधिकांश परिस्थिति वश होता है। इसलिए विचारशील लोग अपनी योग्यता का थोड़ा भाग अपने स्वार्थ में लगाकर अधिकांश शक्तियां समाज सेवा में जुटाते हैं। शिक्षा, स्वाध्याय, स्वास्थ्य, सहयोग आदि के द्वारा कम शिक्षित और दलित लोगों को भी आगे बढ़ाते हैं, इसका सामूहिक फल प्रत्येक मनुष्य के लिए लाभदायक ही होता है। इसका एक दूसरा पहलू भी है और वह यह कि कमजोर मनुष्य अविकसित मनुष्य बाह्य परिस्थितियों से सीखकर भी अपनी क्षमतायें और योग्यतायें इसी प्रकार बढ़ा सकता है।
मनुष्य सामाजिक प्राणी है, वर परस्पर सहयोग, दूसरों के अनुभवों और ज्ञान के सहारे से ही तो आज की इस विकसित अवस्था तक पहुंचा है। इसलिये वह भी केवल लेने का ही अधिकारी नहीं, वह जन्म से ही समाज का ऋणी है, इस ऋण का भुगतान उसे परस्पर सहयोग और सहानुभूति द्वारा करना चाहिये।
वृक्ष वनस्पतियों में एक सिम्बायसिस सिद्धान्त काम करता है। द्विदल वनस्पतियां (लिग्विम कार्प्स) जैसे चना, मटर, अरहर, मूंगफली मूंग, मोठ आदि की जड़ों में एक प्रकार की गांठें होती हैं, जिनमें गुलाबी रंग का एक विशेष रस (सिरप) भरा होता है। उस रस में जीवाणु (बैक्टीरिया) होते हैं, जो एरियेशन क्रिया के द्वारा वायु मण्डल से बहुत सा नाइट्रोजन एकत्रित करते रहते हैं। यह संचित नाइट्रोजन उस पौधे के ही काम आता हो, जिसकी वह जड़ है ऐसा नहीं। ऊपर की पौध काट ली जाती है, तब वह जड़ें मिट्टी में ही रह जाती हैं। गांठों के रूप में सुरक्षित नाइट्रोजन अब मिट्टी में मिल जाती है और उसकी खोई हुई उर्वरता को फिर से जगा देती है। सामाजिक जीवन में मनुष्य जन्म उनका सराहा जाता है, जो अपने संचय का थोड़ा लाभ ही अपने लिये रखते हैं, शेष समाज की उपयोगिता और समर्थता बढ़ाने में व्यय कर देते हैं।
यह क्रिया परस्पर आदान-प्रदान द्वारा ही सम्भव है। धान के खेतों में चना बहुत अच्छा उगता है, क्योंकि धान अपना वह अंश छोड़ जाता है, जो चने के लिये उपयोगी होता है, बदले में चना भी वैसा ही करता है, जिससे दुबारा उस खेत में धान की फसल अच्छी होती है। दोनों एक दूसरे की कृतज्ञता निबाहते हैं और मनुष्य से कहते हैं कि और अधिक नहीं तो जितना दूसरों से ग्रहण करता है, अपनी योग्यताओं, विशेषताओं के अनुसार कम से कम उतना तो औरों के विकास में योगदान दिया ही जाना चाहिये। अरहर और ज्वार साथ-साथ बोये जाते हैं, दोनों दो जाति के पौधे हैं पर परस्पर सहयोग से दोनों फलते-फूलते रहते हैं। अरहर नाइट्रोजन खींचती है और उसका थोड़ा-सा अंश अपने काम में लेकर ज्वार को दे देती है और इस तरह दोनों ही विकसित होते रहते हैं।
आम की सघन छाया में पान की बेलें बड़ी आसानी से विकसित हो लेती हैं, आम ऐसा करने से इनकार कर दे तो पानों का अस्तित्व ही कहां रहे। नारियल की छाया में ही इलायची फलती-फूलती है। छोटों को बड़े खा जाते हैं, यह सिद्धान्त गलत है। सच्ची बात यह है कि छोटों को बड़ों से संरक्षण, प्रेम, स्नेह और उदारता मिलनी चाहिये। प्रभाव (रैसीडुअल इफैक्ट) वनस्पति पर ही नहीं, मनुष्य जीवन पर भी लागू होता है। यदि हम उसका पालन करें तो समाज की शान्ति और व्यवस्था में भारी योगदान दे सकते हैं।
वृक्षों में सामूहिकता की भावना का आदर्श चीकू के पेड़ में देखने को मिलता है। लोग कहते हैं कि अकेला हो तो शक्ति का मनमाना उपभोग करने को मिलता है पर उससे मनुष्य की प्रसन्नता नहीं बढ़ सकती। एकाकी मनुष्य न किसी से प्रेम कर सकता है, न उदारता व्यक्त कर सकता है। न्याय-नीति, सेवा और सदाचार के फलितार्थ भी अकेले में नहीं भोगे जा सकते, यह बात मनुष्य को चीकू से सीखनी पड़ेगी। अकेला चीकू फल तो देता है पर कम, लेकिन जब उसके बहुत से साथी भी आ जाते हैं तो यद्यपि उसकी खुराक के साझीदार बढ़ जाते हैं तो भी वह अधिक फल देने लगता है। उसकी आत्मिक प्रसन्नता बढ़ती, सौजन्य और सौहार्द्र को आधार मिलता है, तब चीकू अधिक फल देने लगता है। यदि मनुष्य भी उस धरातल पर विचारपूर्वक काम कर सका होता तो आज संसार में जो अशान्ति और संघर्ष है, वह न होता उसके स्थान पर परस्पर प्रेम, सहयोग, उदारता, सहानुभूति की परिस्थितियां होतीं। स्थायी विश्व-शांति के यही आधार हैं, यदि उन्हें हम अपने अन्दर से विकसित नहीं कर सकते तो अब पेड़-पौधों से वह शिक्षायें ग्रहण करनी होंगी और उनकी तरह अपना सम्पूर्ण जीवन सेवा, सेवा, सेवा, उत्सर्ग, उत्सर्ग, उत्सर्ग में ही बिताना पड़ेगा।
कुछ समय पूर्व यह समझा जाता था कि रक्त मांस का पिण्ड शरीर आहार-विहार द्वारा संचालित होता है। यह तो पीछे मालूम पड़ा कि आहार शरीर रूपी इंजिन को गरम बनाये रहने के लिए ईंधन मात्र का काम करता है। उस आधार पर यह भी पाया गया कि पेट, हृदय और फेफड़ों को संचालक तत्व नहीं माना जा सकता। शरीर के समस्त क्रिया-कलापों का संचालन मूलतः चेतन और अचेतन मस्तिष्कों द्वारा होता है, उन्हीं की प्रेरणा से विविध अंग अपना-अपना काम चलाते हैं। अस्तु स्वास्थ्य बल एवम् बुद्धिबल को विकसित करने के लिए मस्तिष्क विद्या के गहरे पर्तों का अध्ययन आवश्यक समझा गया है और अभीष्ट परिस्थितियां उत्पन्न करने के लिए उसी क्षेत्र को प्रधानता दी गई। पिछले दिनों जीव विज्ञानियों ने शरीर शोध अन्वेषण की ओर से विरत होकर अपना मुंह मनःशास्त्र की ऊहापोह पर केन्द्रित किया है।
अब एक और नया रहस्य सामने आ खड़ा हुआ है—हारमोन ग्रन्थियों का। उनसे अत्यन्त स्वल्प मात्रा में निकलते रहने वाले स्राव ऐसे महत्वपूर्ण हैं जो केवल शारीरिक ही नहीं मानसिक स्थिति को भी प्रभावित करते हैं और उनमें आश्चर्यचकित करने वाले उतार चढ़ाव उत्पन्न करते हैं। यह हारमोन चेतन या अचेतन मस्तिष्क से भी प्रभावित नहीं होते। इनको घटाने बढ़ाने में एक शरीर से दूसरे शरीर में पहुंचाने के परम्परागत प्रयास प्रायः असफल ही हो चुके हैं। एक शरीर से निकाल कर दूसरे शरीर में प्रवेश कराने पर भी इन हारमोनों की वृद्धि न्यूनता अथवा नियंत्रण संतुलन नहीं प्राप्त किया जा सकता। लगता है इनका उद्भव और विकास ही शरीर की पुष्टि, अभिवृद्धि, सुन्दरता और संतुलन के लिए होता है। जीवन की सूक्ष्मतम सत्ता बड़ी विलक्षण और रहस्य पूर्ण है, अब तक ऐसी सूक्ष्म जीवन की इकाई का पता नहीं लगाया जा सका, जो अन्तिम (एब्सोल्यूट) और शाश्वत (इम्पार्शिअल) हो। किन्तु उसका पता लगाते-लगाते वैज्ञानिकों ने जिन सूक्ष्मताओं का पता लगा लिया है वह भी कम आश्चर्यजनक नहीं हैं।
वैज्ञानिकों के संसार में जीवन की जिन सूक्ष्मतम इकाइयों का पता चल पाया है, उनमें से ‘डायटम’ सबसे छोटा होता है। किन्तु इसमें भ्रमात्मक प्रक्रिया है। ‘डायटम’ को कुछ वैज्ञानिक जीवाणु मानते हैं, कुछ उसे वनस्पति जगत का सबसे छोटा कोश (सेल) मानते हैं। इसके बाद सबसे सूक्ष्म इकाई विषाणु (वायरस) है, यह इतना छोटा होता है कि अब तक खोजे गये, लगभग 300 वायरसों में से पोलियो वायरस के 100000000000000000 कण केवल एक छोटी-सी पिंगपौंग की गेंद में आ जायेंगे। विषाणु इतने सक्रिय होते हैं कि 1918 में आये एन्फलूएन्जा में उसने थोड़े ही दिनों में दो करोड़ स्त्री-पुरुषों और बच्चों को मृत्यु के द्वार पर पहुंचा दिया। सूक्ष्मतम की प्रबलतम शक्ति का इसी से अनुमान लगाया जा सकता है। कदाचित हमने भी अपने आपको बड़ा प्रदर्शित करने की भूल न की होती और इतने लघु होते गये होते कि संसार की सबसे छोटी इकाई में आत्मसात हो गये होते तो हमारी भी शक्ति ऐसी ही होती। उससे लाखों लोगों का हित कर सकने की स्थिति में होते।
बड़ी आकृति वाले थलचर प्राणियों से ही हमारा परिचय है। इससे आगे भी कहीं जीवधारियों का अस्तित्व है और उनकी भी कोई अपनी दुनिया है इस तथ्य की बहुत कम लोगों को जानकारी होती है। पृथ्वी पर रेंगने वाले प्राणियों की कितनी अधिक जातियां और उप-जातियां हैं—उनकी आकृति-प्रकृति क्या है? उनके सोचने और करने का उपक्रम क्या है? उन्हें किन साधनों से गुजारा करना पड़ता है और किन परिस्थितियों में रहना पड़ता है, इसकी जानकारी रखना तो दूर ठीक तरह कल्पना कर सकना भी हमारे लिए सम्भव नहीं।
हमारी चेतना मानवी मस्तिष्क-परिस्थिति एवं साधनों के अनुरूप ढली है, अस्तु उसे जो सीमित दृष्टिकोण एवं ज्ञान मिला है उसी को लेकर काम चलाना पड़ता है फिर अन्य प्राणियों की विलक्षण दुनिया के बारे में सही कल्पना कर सकना कैसे सम्भव हो। यही बात जानकारियों के सम्बन्ध में भी है। आंखों से देखे जा सकने वाले जल जीवों की जानकारी—उतनों तक ही सीमित है जो आंखों के सामने आते और अपना परिचय देते रहते हैं। समुद्र तल में ही निर्वाह करने वाले जल जीवों की नगण्य जितनी जानकारियां ही हैं। उनकी प्रकृति और परिस्थितियों का पता लगाने के लिए जैसा चिन्तन चाहिए—जैसे उपकरणों और साधनों की आवश्यकता है उन्हें जुटाना अन्तरिक्ष यन्त्रों से भी कठिन सिद्ध होगा। इतने पर भी यह एक तथ्य है कि अपनी धरती की ‘दुनिया’ उतनी छोटी नहीं है जितनी कि मनुष्यों द्वारा सोची और जानी गयी है। इसी धरती पर असंख्य जाति के जीवधारी निवास करते हैं। उनकी संख्या भी इतनी बड़ी है कि तुलनात्मक दृष्टि से 400 करोड़ मनुष्यों का संख्या बल बहुत ही नगण्य एवं उपहासास्पद प्रतीत होगा। संख्या बल के अतिरिक्त उनकी प्रकृति, आवश्यकता, पारस्परिक सहयोग व्यवस्था, निर्वाह, विनोद, वंशवृद्धि, प्रसन्नता, आयुष्य आदि की परिस्थितियां इतनी विचित्र मिलेंगी जिन्हें देखते हुए उन्हें मनुष्यों की ‘दुनिया’ से सर्वथा भिन्न एवं विलक्षण स्तर की कहा जा सकता है। आश्चर्य इस बात का है कि अपनी धरती पर असंख्य प्राणियों की, असंख्य स्तर की चित्र-विचित्र दुनिया बसी हुई हैं। असंख्य सभ्यताएं फल-फूल रही हैं। असंख्य जीवन विधाओं का कार्यान्वयन हो रहा है कि किन्तु हम अपनी ही दुनिया तक सीमित हैं और उस सीमित क्षेत्र को ही सब कुछ मानकर मूर्खों की दुनियां में रहने की उक्ति चरितार्थ कर रहे हैं।
सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में वैज्ञानिक आंनोफा ल्यूवेनाक ने सूक्ष्म जीवों को स्वनिर्मित लैंसों से देखा। उन्नीसवीं शताब्दी में लुई पास्चर ने सूक्ष्म जीवों की दुनिया की जानकारी प्राप्त कर उनकी भूमिका को प्रयोग द्वारा दिखाया। फिर यह सिलसिला बढ़ता ही गया। कोरव, मैक्निरवोव, फिनले, फ्लेमिंग द्वारा विकसित सूक्ष्म जीव विज्ञान आज विशाल अध्ययन-अन्वेषण का क्षेत्र बना है।
सूक्ष्म जीव इतने छोटे होते हैं कि आंखों से उन्हें नहीं देखा जा सकता। पास-पास रखने पर साधारणतः 25 हजार सूक्ष्म जीव एक इंच की जगह में समा जायेंगे। इनकी आकृति और वजन दोनों के आधार पर कई जातियां हैं। सामान्यतः बीस अरब सूक्ष्म जीवियों का वजन एक खस खस के दाने के बराबर होता है।
सूक्ष्म जीवी प्रत्येक जगह पर मिलते हैं। यहां तक कि ये ऐसे स्थानों पर भी पाये गये हैं, जहां जीवन की कोई सम्भावना नहीं मानी गई थी। पृथ्वी के वायुमण्डल की ऊपरी तह में, दक्षिणी ध्रुवों की बर्फ में, गरम सोतों के खौलते प्रवाह में, नाभिकीय रिएक्टरों की शीतलन प्रणालियों में भी इन्हें पाया गया है।
‘मृत सागर’ से साफ पानी तक, स्तनपाइयों की आंतों से लोहे के जमीनदोज नलों की सतहों तक इनका बोल-बाला है। प्रतिदिन अनेक सूक्ष्मजीवी हमारे शरीर के भीतर नाक और मुंह के रास्ते से घुसते हैं। वे हमारी त्वचा पर भी विहार करते हैं।
इन सूक्ष्म जीवियों की असंख्य जातियां हैं। कुछ सूक्ष्मजीवी अम्लीय माध्यम में रहते हैं, तो कुछ क्षारीय। कुछ ऊंचे तापक्रम पर, तो कुछ नीचे तापक्रम पर। कुछ हवा के बिना नहीं जी सकते तो कुछ हवा में ही नहीं जी सकते, बिना हवा के मजे में रह लेते हैं। यह माध्यम क्या है? जीवाणु जिस वस्तु में जन्म लेते, पलते, पनपते हैं, वही उनका माध्यम है। ये इतने छोटे होते हैं कि किसी भी द्रव माध्यम के एक घन सेन्टीमीटर में लगभग 1 करोड़ जीवाणु आराम से रह लेते हैं। जिस माध्यम में ये जीवाणु रहते हैं, उसी से आहार प्राप्त करते हैं। उसी माध्यम में ये बढ़ते, बच्चे पैदा करते और बलवान बनते हैं।
इनके बढ़ने और बच्चे पैदा करने का ढंग दिलचस्प है। प्रत्येक जीवाणु एक कोशिका भी है और एक जीव भी। इसीलिए यह एक कोशिकीय जीव कहलाता है। एक सूक्ष्मजीवी थोड़ा-सा लम्बा होकर स्वयं दो भागों में विभक्त हो जाता है। ये दोनों ही भाग मूल कोशिका के ही समान दो पृथक्-पृथक् सूक्ष्मजीवी बन जाते हैं। इनकी बढ़ने की रफ्तार भी गजब की होती है। एक सूक्ष्मजीवी चौबीस घण्टे में 70 पीढ़ियां पैदा कर सकता है। विषूचिका का एक सूक्ष्मजीवी एक दिन में अरब 80 करोड़ की संख्या में हो जाता है। तभी तो इस रोग के अधिकांश रोगी देर होने पर बच नहीं पाते। पोषक माध्यम की कुछ ही बूंदों में सूक्ष्म जीवियों की 7 अरब आबादी का आवास सम्भावित होता है। एक सूक्ष्मजीवी द्वारा स्वयं को दो भागों में बांटकर फिर पृथक्-पृथक यही क्रम अपनाते हुए बढ़ते जाने के कारण इनकी वंश वृद्धि की क्रिया को विखण्डन-क्रिया द्वारा वंश-वृद्धि कहा जाता है।
अब तक मनुष्य के सहायकों में श्रम, दूध, बाल, चर्म मांस आदि देने वाले प्राणियों की गणना होती थी और वनस्पति वर्ग को छाया, अन्न, शाक, फल, फूल, लकड़ी आदि देने वाले सहायकों में गिना जाता था। प्राणियों और वनस्पतियों के सहारे ही मानव जीवन की गाड़ी घिसटती दिखाई देती थी, अब सहायकों के वर्ग में सूक्ष्मजीवों की एक नई जाति सम्मिलित हुई है। विज्ञान ने धरातल की दूरी को ही समीपता में नहीं बदला है, वरन् प्राणियों की बीच की दूरी को भी घसीट कर एकता में परिणित कर दिया है। अब सूक्ष्म जीव हमारे लिए पशु और वृक्ष वनस्पतियों से भी अधिक उपयोगी एवं सहायक सिद्ध होते जा रहे हैं।
सतर्कता तो मित्रों से भी रखनी पड़ती है। अनियन्त्रित और अव्यवस्थित छोड़ देने पर तो सुई भी कांटे का काम करेगी और संकट में फंसा देगी। संक्रामक रोग कीटकों की हानि को ध्यान में रखते हुए उनसे सुरक्षा का प्रबन्ध भी करना होता है और उनके मारण निवारण का सरंजाम भी जुटाना होता है। इतने पर भी समूची सूक्ष्म जीवों की दुनिया हमारे लिए शत्रु का नहीं मित्र का ही काम करती है और निकट भविष्य में उनकी सहायता से भारी हित साधन हो सकने की अपेक्षा है।
विषाणुओं से डरना और सतर्क रहना उचित है, पर यह भी ध्यान में रखा जाना है कि सूक्ष्म जीवियों की अधिकांश जातियां हमारी शत्रु नहीं मित्र हैं। वे अनायास ही हमें बहुत लाभ पहुंचाती हैं, पर जब उनका सहयोग विधिवत् आमन्त्रित किया जायेगा तब तो वे अपनी मित्रता का उससे भी बड़ा परिचय देंगी जैसा कि अब तक उपयोगी प्राणियों और वनस्पतियों का मिलता रहा है।
कोई वस्तु देखने में बहुत ही छोटी हो सकती है। उसका आकार और विस्तार भी नगण्य दृष्टिगोचर हो सकती है। लेकिन औरों के लिए इस कारण वह कम उपयोगी नहीं हो जाता। यदि वह भी किन्हीं प्रयोजनों में घुल−मिल जाय तो उसका असाधारण महत्व हो जाता है। उदाहरण के लिए खमीर को ही लिया जाय। यह पौधों की दुनिया में सबसे छोटा है। इसे अंग्रेजी में ‘यीस्ट’ कहते हैं। इसकी संरचना अन्य वनस्पतिक जीव कोषों जैसी ही होती है। वह अण्डाकार भी होता है और गोलाकार भी। आकार में वह एक इंच का पच्चीसवां भाग और वजन में एक ग्राम का दस अरबवां हिस्सा। इसे एक भिन्न वर्ग का पौधा मानना पड़ेगा, फफूंद की तरह पराश्रयी-परावलम्बी। इसके अतिरिक्त खमीर एक कोषीय है जब कि हर पौधे की रचना अनेक कोषों से मिल कर हुई होती है।
पेड़ों पर, पत्थरों पर, पानी की सतह पर काई की तरह वनस्पतियां उगती हुई आमतौर से देखी जाती हैं, पर खमीर ऐसा पौधा है जो फलों के छिलकों से लेकर पशुओं और मनुष्यों की त्वचा तक पर उगता है। कई दिन तक स्नान न किया जाय तो पसीने की परत हवा, पानी और गर्मी के प्रभाव से वनस्पति की शकल में बदलने लगती है तो बैक्टीरिया की उपस्थिति के अनुरूप वह खमीर बनने लगता है। ऐसी स्थिति में उस शरीर को एक अच्छा खासा खेत भी कहा जा सकता है।
शराब बनाने में और रोटियों का फुलाव पैदा करने के लिये खमीर का उपयोग सबसे अधिक होता है। जौ, चावल, अंगूर, महुआ, शीरा आदि कितने ही पदार्थों को सड़ा कर उनमें खमीर पैदा किया जाता है और फिर उसे भट्टी द्वारा अर्क बना कर शराब तैयार कर ली जाती है। आटे में इसका थोड़ा अंश मिल जाने से उसमें यह तत्व फैल जाता है। डबल रोटी, बिस्कुट, जलेबी, गोलगप्पे आदि में जो फुलाव दीखता है वह खमीर जन्य ही होता है।
हालैंड वैज्ञानिक ल्यूफेकन हाक, से लेकर बैक्टीरियालॉजी के सुप्रसिद्ध अन्वेषक लुई पाश्चर तक अनेकों शोधकर्ता ‘खमीर’ के सम्बन्ध में गहरी खोजें करते रहे हैं और इसके विकास परिष्कार के अनेक आधारों का पता लगाते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मानवी उपयोग में खमीर की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।
शराब का नशे के लिए उपयोग बुरा है, पर इस सड़न प्रक्रिया से जो अल्कोहल बनता है वह औषधि जगत की एक महती आवश्यकता है। खमीर का पौधा ही उस उत्पादन का आधार है। आटे में रहने वाली शर्करा का खमीर ही कार्बनडाइऑक्साइड के रूप में बदलता है, जिससे रोटी फूलती है—सुपाच्य और स्वादिष्ट बनती है।
खमीर के छोटे से कृमि कीटक ‘खमीर’ की उपयोगिता बढ़ाते हैं। यदि उसे सही रूप में प्रयुक्त करने के लिए विशाल परिणाम में उत्पन्न किया जाय तो जीवनोपयोगी महत्वपूर्ण निधि हाथ लग सकती है जिसके आधार पर आहार को पौष्टिक एवं सुपाच्य बनाने की आवश्यकता को सरलता पूर्वक किया जा सकता है।
यही बात सामान्य समझे जाने वाले मनुष्यों पर भी लागू होती है। यदि उनकी उपयोगिता, समझी बढ़ाई और काम में लायी जाय तो क्षुद्र और नगण्य से दीखने वाले व्यक्ति भी महान और देवता बन जाते हैं।
आत्मा के लिए भगवान् ने जितने शरीर बनाये हैं, उनमें से एक मनुष्य शरीर ही सर्वांगपूर्ण और सुन्दर है। मनुष्य शरीर के एक-एक अवयव, चक्र, कोण और उपत्यिकाओं में भगवान् ने ऐसी-ऐसी शक्तियां भरी हैं, जिनके द्वारा वह सम्पूर्ण त्रैलोक्य में शासन कर सकता है। बुद्धि, विवेक, ज्ञान, श्रवण, दर्शन, घ्राण, सन्देश, सम्प्रेषण के लिए वाणी, लेखनी आदि के ऐसे-ऐसे सुन्दर साधन उसे मिले हैं, जैसे सृष्टि के किसी भी प्राणी को नहीं मिले। भगवान् की शक्तियां अनन्त हैं पर वह प्रकाश में नहीं आ सकतीं। मनुष्य को उसने अपना प्रतिनिधि बनाकर इस आशा से भेजा कि वह अपनी क्षमताओं का उपयोग विश्व-कल्याण और प्राणि मात्र के हित में करेगा। किन्तु मनुष्य ने उन ईश्वर प्रदत्त शक्तियों का दुरुपयोग ही किया। बेईमान और रिश्वतखोर ऑफिसर की तरह उसने किया तो परपीड़न, शोषण और अत्याचार ढाये या फिर रोटी-बेटी, रुपया पैसा वाले निकृष्ट जीवन में गलकर मर गया और अपने पीछे परमात्मा की दी हुई विभूति—मनुष्य शरीर को भी कलंकित कर गया।
मनुष्य से तो अच्छे रहे पेड़-पौधे जो अपने बन्धन-युक्त मूक जीवन से भी प्रेरणाओं के स्रोत उड़ेलते रहते हैं। योग वशिष्ठ में महर्षि वशिष्ठ ने भगवान् राम से तत्व-चर्चा करते समय कहा था—
ये च मध्यमधर्माणो मृतिमोहादनन्तरम् । ते व्योमवायु बलिताः प्रयान्त्योषधि पल्लवम् ।।3।55।24,
हे राम! ऐसे जीव जिनके पुण्य मध्यम श्रेणी के होते हैं, वह वायु द्वारा उड़कर औषधि फल-फूल आदि वृक्षों की योनियों में जन्म लेते हैं। अपने-अपने कर्मों का फल भोग कर वे पुनः पुण्यार्जन के लिये मनुष्य शरीर में आते हैं।
खेद है कि जिस मनुष्य को अपना जीवन पुण्य और परमार्थ की साधना में व्यतीत करना चाहिये था, वह निकृष्ट और हेय जिन्दगी जीता है, जब कि निकृष्ट कहे जाने वाले पेड़-पौधों के आचरण बड़े प्रेरक और प्रकाश देने वाले होते हैं। मनुष्य चाहे तो इन तुच्छ जीवों से भी बड़ी महत्वपूर्ण शिक्षायें ग्रहण कर सकता है।
जैसे पिछड़े और दलित वर्ग को आगे बढ़ाने के लिए अपना समय व श्रम लगाना एक मानवीय कर्तव्य है। इस कर्तव्य को मनुष्य पूरा करते हों अथवा न करते हों, पेड़-पौधे जरूर इस प्रकृति प्रेरणा का पालन करते हैं। वस्तुतः पिछड़े व्यक्ति इसलिए पिछड़े नहीं रह जाते कि उनमें कोई कमी अथवा त्रुटि होती है। बल्कि उसके लिए बहुत कुछ वातावरण और व्यवस्था भी उत्तरदायी होते हैं। कर्मफल देने वाले पौधों के बीज ऐसी जगह ले जायं, जहां उसे विकसित होने के लिए पर्याप्त जल-वायु, ताप, खाद्य पदार्थ और हवा की नमी (माएश्चर) उपलब्ध हो तो, वह बीज भी अधिक फल देने वाली जाति में बदल जाते हैं। वही सिद्धान्त मानवीय जीवन में भी काम करता है। हमारे समाज में अनेक पिछड़े और पद दलित लोग पड़े हैं, वह भगवान् के बनाये या कर्मभोग के दोषी नहीं। मनुष्य की योनि कर्मभोग प्राप्त कर लेने के बाद ही मिलती है, यहां जन्म लेने के बाद उसका अच्छा बुरा होना, बढ़ना विकसित होना या दीनता, दरिद्रता की स्थिति में पड़े रहना अधिकांश परिस्थिति वश होता है। इसलिए विचारशील लोग अपनी योग्यता का थोड़ा भाग अपने स्वार्थ में लगाकर अधिकांश शक्तियां समाज सेवा में जुटाते हैं। शिक्षा, स्वाध्याय, स्वास्थ्य, सहयोग आदि के द्वारा कम शिक्षित और दलित लोगों को भी आगे बढ़ाते हैं, इसका सामूहिक फल प्रत्येक मनुष्य के लिए लाभदायक ही होता है। इसका एक दूसरा पहलू भी है और वह यह कि कमजोर मनुष्य अविकसित मनुष्य बाह्य परिस्थितियों से सीखकर भी अपनी क्षमतायें और योग्यतायें इसी प्रकार बढ़ा सकता है।
मनुष्य सामाजिक प्राणी है, वर परस्पर सहयोग, दूसरों के अनुभवों और ज्ञान के सहारे से ही तो आज की इस विकसित अवस्था तक पहुंचा है। इसलिये वह भी केवल लेने का ही अधिकारी नहीं, वह जन्म से ही समाज का ऋणी है, इस ऋण का भुगतान उसे परस्पर सहयोग और सहानुभूति द्वारा करना चाहिये।
वृक्ष वनस्पतियों में एक सिम्बायसिस सिद्धान्त काम करता है। द्विदल वनस्पतियां (लिग्विम कार्प्स) जैसे चना, मटर, अरहर, मूंगफली मूंग, मोठ आदि की जड़ों में एक प्रकार की गांठें होती हैं, जिनमें गुलाबी रंग का एक विशेष रस (सिरप) भरा होता है। उस रस में जीवाणु (बैक्टीरिया) होते हैं, जो एरियेशन क्रिया के द्वारा वायु मण्डल से बहुत सा नाइट्रोजन एकत्रित करते रहते हैं। यह संचित नाइट्रोजन उस पौधे के ही काम आता हो, जिसकी वह जड़ है ऐसा नहीं। ऊपर की पौध काट ली जाती है, तब वह जड़ें मिट्टी में ही रह जाती हैं। गांठों के रूप में सुरक्षित नाइट्रोजन अब मिट्टी में मिल जाती है और उसकी खोई हुई उर्वरता को फिर से जगा देती है। सामाजिक जीवन में मनुष्य जन्म उनका सराहा जाता है, जो अपने संचय का थोड़ा लाभ ही अपने लिये रखते हैं, शेष समाज की उपयोगिता और समर्थता बढ़ाने में व्यय कर देते हैं।
यह क्रिया परस्पर आदान-प्रदान द्वारा ही सम्भव है। धान के खेतों में चना बहुत अच्छा उगता है, क्योंकि धान अपना वह अंश छोड़ जाता है, जो चने के लिये उपयोगी होता है, बदले में चना भी वैसा ही करता है, जिससे दुबारा उस खेत में धान की फसल अच्छी होती है। दोनों एक दूसरे की कृतज्ञता निबाहते हैं और मनुष्य से कहते हैं कि और अधिक नहीं तो जितना दूसरों से ग्रहण करता है, अपनी योग्यताओं, विशेषताओं के अनुसार कम से कम उतना तो औरों के विकास में योगदान दिया ही जाना चाहिये। अरहर और ज्वार साथ-साथ बोये जाते हैं, दोनों दो जाति के पौधे हैं पर परस्पर सहयोग से दोनों फलते-फूलते रहते हैं। अरहर नाइट्रोजन खींचती है और उसका थोड़ा-सा अंश अपने काम में लेकर ज्वार को दे देती है और इस तरह दोनों ही विकसित होते रहते हैं।
आम की सघन छाया में पान की बेलें बड़ी आसानी से विकसित हो लेती हैं, आम ऐसा करने से इनकार कर दे तो पानों का अस्तित्व ही कहां रहे। नारियल की छाया में ही इलायची फलती-फूलती है। छोटों को बड़े खा जाते हैं, यह सिद्धान्त गलत है। सच्ची बात यह है कि छोटों को बड़ों से संरक्षण, प्रेम, स्नेह और उदारता मिलनी चाहिये। प्रभाव (रैसीडुअल इफैक्ट) वनस्पति पर ही नहीं, मनुष्य जीवन पर भी लागू होता है। यदि हम उसका पालन करें तो समाज की शान्ति और व्यवस्था में भारी योगदान दे सकते हैं।
वृक्षों में सामूहिकता की भावना का आदर्श चीकू के पेड़ में देखने को मिलता है। लोग कहते हैं कि अकेला हो तो शक्ति का मनमाना उपभोग करने को मिलता है पर उससे मनुष्य की प्रसन्नता नहीं बढ़ सकती। एकाकी मनुष्य न किसी से प्रेम कर सकता है, न उदारता व्यक्त कर सकता है। न्याय-नीति, सेवा और सदाचार के फलितार्थ भी अकेले में नहीं भोगे जा सकते, यह बात मनुष्य को चीकू से सीखनी पड़ेगी। अकेला चीकू फल तो देता है पर कम, लेकिन जब उसके बहुत से साथी भी आ जाते हैं तो यद्यपि उसकी खुराक के साझीदार बढ़ जाते हैं तो भी वह अधिक फल देने लगता है। उसकी आत्मिक प्रसन्नता बढ़ती, सौजन्य और सौहार्द्र को आधार मिलता है, तब चीकू अधिक फल देने लगता है। यदि मनुष्य भी उस धरातल पर विचारपूर्वक काम कर सका होता तो आज संसार में जो अशान्ति और संघर्ष है, वह न होता उसके स्थान पर परस्पर प्रेम, सहयोग, उदारता, सहानुभूति की परिस्थितियां होतीं। स्थायी विश्व-शांति के यही आधार हैं, यदि उन्हें हम अपने अन्दर से विकसित नहीं कर सकते तो अब पेड़-पौधों से वह शिक्षायें ग्रहण करनी होंगी और उनकी तरह अपना सम्पूर्ण जीवन सेवा, सेवा, सेवा, उत्सर्ग, उत्सर्ग, उत्सर्ग में ही बिताना पड़ेगा।