Books - हम सब एक दूसरे पर निर्भर
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
अपनापन विकसित कीजिये
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
कितने लोग कहां इकट्ठे होते हैं, इसका कोई महत्व नहीं। भीड़ तो सदा अड़चन, गन्दगी और अव्यवस्था ही उत्पन्न करती है। मेलों-ठेलों में अधिक लोग जमा होते हैं, पर इससे कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। इसके विपरीत जहां थोड़े से लोग भी पारस्परिक सहयोग पूर्वक आदान-प्रदान करने और किसी निर्धारित लक्ष्य की ओर मिल-जुलकर चलने के लिए एकत्रित होते हैं, वे सम्मेलन जो निश्चय करते हैं उनके दूरगामी परिणाम उत्पन्न होते हैं। बड़ी संख्या में जमा होते हुए भी यदि लोगों में स्नेह, सहयोग और सामंजस्य नहीं है तो वे सभी अपने आपको एकाकी अनुभव करते रहेंगे। जहां घनिष्ठता की मनःस्थिति होगी, एक दूसरे के दुःख-सुख में सहायक बनकर रहे होंगे—जिनमें एक दूसरे के हित साधन और कष्ट निवारण में जितना उत्साह होगा, उनमें उतनी ही प्रसन्नता और निश्चिन्तता दिखाई पड़ेगी। वे उसी अनुपात में समर्थ सम्पन्न निर्भय और प्रभावशाली बनकर रह रहे होंगे। उस समूह का भविष्य उज्ज्वल ही बनता जा रहा होगा।
जिसका ‘अपनापन’ जितना संकुचित है वह आत्मिक दृष्टि से उतना ही छोटा है। जिसने अपनेपन की परिधि जितनी बड़ी बना ली है उसे उतना ही विकसित परिष्कृत माना जायेगा। स्वार्थी व्यक्ति समाज की चिन्ता तो दूर अपने परिवार के हित-अनहित तक का विचार नहीं करते और मात्र अपनी ही सुविधा समेटने में लगे रहते हैं। ऐसे लोग अपनी शरीर सुविधा और क्षणिक प्रसन्नता पा सकते हैं, पर उनकी अन्तरात्मा इस क्षुद्रता के लिए कचोटती ही रहती है। परिचित लोग घृणा करते हैं और सम्बद्ध व्यक्ति रुष्ट रहते हैं। उन्हें न कभी कहीं से सच्चा सम्मान मिलता है और न आड़े वक्त में किसी का कारगर सहयोग। जो दूसरों के दुःख-दर्द में शामिल नहीं होता उसे अपने आपत्तिग्रस्त होने पर किसी की सहायता नहीं मिलती। जिसे दूसरों से कुछ सहानुभूति नहीं उसके साथ भी सहानुभूति कौन व्यक्त करेगा।
उदारचित्त मनुष्य देखने में घाटा उठाते दीखते हैं क्योंकि उन्हें दूसरों की सहायता करने में अपना समय, मस्तिष्क और धन खर्च करते हुए देखा जाता है। मोटे तरीके से यह घाटा उठाने का चिह्न है। पर ध्यान पूर्वक देखा जाय तो बात ठीक उलटी दिखाई पड़ती है। बीज गलता है तो लगता है वह घाटे में रहा, पर जब उसका अंकुर फूटता है, पौधा बनता है, विशाल वृक्ष होकर फूलों-फलों से लदता है तो प्रतीत होता है बीज का गलना मूर्खतापूर्ण नहीं था, उसने जितना खोया उसकी तुलना में पाया कहीं अधिक है। दूसरों के साथ उदार सहयोग का बरतना—अपनी अन्य आत्मिक सत्प्रवृत्तियों को बढ़ाना है, दूसरों के मन में अपने लिए श्रद्धा, सम्मान का स्थान बनाता है और अपने चुम्बकत्व से अन्य लोगों का स्नेह-सहयोग आकर्षित करता है। इस प्रकार उदार व्यक्ति घटता नहीं बढ़ता ही है। सहयोग की प्रतिक्रिया सुखद सहायता बनकर चारों ओर से बरसती है। धर्म-शास्त्रों में दान-पुण्य की बहुत महिमा गाई गई है और उसे हर शुभ कार्य के साथ जोड़ा गया है। इसका कारण मात्र धन को एक से दूसरे के हाथ में पहुंचाना नहीं वरन् उदार सहयोग की सत्प्रवृत्ति को विकसित करना है। हम अपने ही दुःख को दुःख न समझें वरन् दूसरों के कष्टों में भी समान सम्वेदना अनुभव करें। किसी की पीड़ा अपने अन्तःकरण में करुणा और दया उत्पन्न करती हो तो समझना चाहिए आत्मा की कोमलता जागरूक है और व्यक्ति आत्मोत्कर्ष के मार्ग पर चल रहा है। जो जितना कठोर है उसे दूसरों को कष्ट पीड़ित देखकर तनिक भी दया नहीं आती ऐसे लोग पर पीड़ा का क्रूर-कर्म स्वयं भी करते रहते हैं और दूसरों को करते देखकर प्रसन्न होते हैं अथवा निरपेक्ष बने रहते हैं। इस आन्तरिक स्थिति को ही असुरता कहते हैं। ऐसे लोग अपने लाभ के लिए ही नहीं, अकारण भी पर पीड़ा का आनन्द लेते हैं और उस दुष्टता को वीरता का नाम देते हैं। कसाई, शिकारी, डाकू, हत्यारे प्रायः ऐसी ही असुर मनोवृत्ति के होते हैं। अपराधी मनोवृत्ति इसी कठोरता की पृष्ठभूमि पर पनपती है।
मनुष्य असुरता छोड़े और देवत्व की दिशा में अग्रसर हो इसका एक ही उपयोग है, उदार सहकारिता की मनोवृत्ति का विश्वास—उसे अन्तःभूमि में परिपक्व करने वाले क्रिया-कलापों का अभ्यास। दान-पुण्य की महिमा इसी प्रयोजन को ध्यान में रखकर गाई गई है। आज तो इस क्षेत्र में भी मूढ़ मान्यताओं का साम्राज्य है। लोग अमुक वंश या वेश के लोगों को दान लेने का ठेकेदार मानते हैं और देवी-देवताओं तथा पितरों को प्रसन्न करने की दृष्टि से पैसा पानी की तरह बहाते हैं। कुछ लोग अपने को उदार दानी होने का प्रचार विज्ञापन करने की दृष्टि से तीर्थयात्रा, ब्रह्मभोज, स्मारक आदि में धन खर्च करते हैं। यह आज के घटिया मनुष्य के घटिया चिन्तन का घटिया स्वरूप है। वस्तुतः दान एक सत्प्रवृत्ति है जो मात्र धन देकर ही नहीं, श्रम समय, प्रोत्साहन, स्नेह, सत्परामर्श, सहानुभूति आदि के माध्यम से भी उसे चरितार्थ किया जा सकता है। दानी के लिए धनी होना आवश्यक नहीं। निर्धन भी अपने उदारचित्त के आधार पर धन कुबेरों से भी बढ़ी-चढ़ी सेवा सहायता कर सकते हैं। सद्भावना की कमी न हो, स्वभाव में उदारता सम्मिलित हो, दूसरों के दुःख में सहायता करने की कसक उठती हो, किसी को सुखी बनाने में रस आता हो तो समझना चाहिए दानशीलता के अनेकानेक आचरण स्वयमेव होते चले जायेंगे और उसके लिए व्यस्त एवं त्रस्त स्थिति में भी पग-पग पर सुअवसर मिलते रहेंगे।
आवश्यक नहीं कि कोई पीड़ित या पतित मिले तब के लिये दान की प्रतीक्षा में बैठे रहा जाय अथवा उन्हें खोज-खोजकर बुलाया जाता रहे। यह तो आपत्ति धर्म है कि कभी कोई दुःखी व्यक्ति दिखाई पड़े तो उसकी उचित एवं शक्य सहायता विवेकपूर्वक की जाय। भावावेश में अनुचित सहायता करने से तो भिक्षावृत्ति पनपती है और कुपात्रों के लिये एक घिनौना व्यवसाय अपनाकर अकर्मण्य बनने का दुर्भाग्य पल्ले पड़ता है। इस क्षेत्र में पूरे विवेक का प्रयोग करने की आवश्यकता है। विवेकपूर्ण सहृदयता ही लाभदायक सिद्ध होती है। माता को बच्चे के फोड़े का आपरेशन कराते समय जो कठोरता धारण करनी पड़ती है वस्तुतः वह भी विवेकपूर्ण करुणा का ही एक अंग है। अपने स्वजन, सम्बन्धियों, पड़ोसी, परिचितों में कोई हारी-बीमारी हो तो उसकी दवादारू, परिचर्या पूछताछ, सहानुभूति, आश्वासन के लिये कुछ समय या प्रयत्न करके अपनी सद्भावना का परिचय दिया जा सकता है। अन्य प्रकार की मुसीबतें तथा कठिनाई भी लोगों के सामने आती रहती हैं। ऐसे अवसरों पर लोग अक्सर अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठते हैं और औंधे-सीधे विचार करके अवांछनीय मार्ग अपनाने लगते हैं, यह मनःस्थिति भी शारीरिक बीमारी से कम भयंकर नहीं। अपने सम्पर्क क्षेत्र में अक्सर कई व्यक्ति ऐसी आपत्ति में फंसे होते हैं। उनके साथ सहज आत्मीयता विकसित करनी चाहिये और अपने विश्वास क्षेत्र में लेना चाहिये। इतना कर सकने पर ही स्नेह, सिक्त, तर्क और तथ्यों से भरा परामर्श प्रभावी बनता है। ऐसा मार्ग-दर्शन कर सकना—धन-दान करके किसी दीन-दुःखी की सहायता करने से किसी भी प्रकार कम महत्व का नहीं है। साधारण वार्तालाप में भी सम्पर्क में आने वालों को बिना उसके स्वाभिमान को चोट पहुंचाये—बिना निन्दा, भर्त्सना किये सहज सत्परामर्श दिये जा सकते हैं और उनसे भी धन दान जैसे ही सत्प्रयोजन सिद्ध हो सकते हैं। अपना चरित्र आदर्श बनाकर उसे अनुकरणीय एवं प्रेरणाप्रद बना लिया जाय तो वह भी प्रकारान्तर से सम्पर्क क्षेत्र में बखेरा गया अयाचित अनुदान ही माना जायेगा।
घर में ऐसी परम्परा प्रचलित करनी चाहिये जिसमें सभी की एक दूसरे की सहायता करने की उत्सुकता बनी रहे। इसके लिये उन्हें बराबर अवसर भी मिलते रहने चाहिये। बड़ी क्लास के लड़के अपने से छोटी कक्षा के भाई-बहिनों को पढ़ाने के लिये नियमित रूप से हर रोज समय निकालें और उन्हें खिलाने, हंसाने, अच्छी आदतें अपनाने, ज्ञान बढ़ाने आदि में सहायता करें। छोटी आयु के बच्चे बड़ों के कामों में हाथ बंटाने में, उनकी छोटी-मोटी आवश्यकतायें स्वयं जुटा देने में रुचि रखें, बराबर वालों के साथ जी खोलकर हंसने, बोलने और मिल-जुलकर साथ-साथ काम करने का क्रम बनायें। दूसरों को बिखरी चीजों को यथा स्थान रख देना एक छोटा सा काम है, पर उससे यह छाप पड़ती है कि हमारे प्रति कितना ध्यान है। ऐसे छोटे-छोटे सहयोग देकर साथ वालों की सद्भावना एवं कृतज्ञता अर्जित की जा सकती है।
सार्वजनिक हित के सामूहिक कार्यों में सदा अग्रणी रहना चाहिये। लोक-मंगल के लिये चल रही गतिविधियों में पूरे उत्साह के साथ भाग लेना चाहिये। इन सत्प्रवृत्तियों में भाग लेने से विश्व सेवा के विशाल क्षेत्र में प्रवेश करने का अवसर मिलने से आत्म-विस्तार का लाभ मिलता है साथ ही समाज को समुन्नत बनाने का जीवनोद्देश्य भी प्राप्त होता है। जिस प्रकार व्यक्तिगत एवं पारिवारिक लाभ के कार्यों में रुचि रखी जाती है उसी प्रकार समाज को भी बड़ा परिवार मानकर उसे समुन्नत बनाने वाले सामूहिक सार्वजनिक कार्यों में हमारा भाव भरा अनुदान एवं सहयोग सदा ही सम्मिलित रहना चाहिये।
अन्तःकरण की उदारता को विकसित करना—अपना स्तर बढ़ाना और दूसरों का सम्मान सद्भाव अर्जित करना है। यह लाभ जो कमाता है वह देने की अपेक्षा प्रकारान्तर से कहीं अधिक प्राप्त कर लेता है। स्वार्थपरायण व्यक्ति चतुर दीखता है, पर वह एकाकी रहकर खोता ही अधिक है। अस्तु हर विवेकवान का प्रयत्न यह होना चाहिये कि वह अपनी आत्मीयता का क्षेत्र विस्तृत करे, दूसरों के दुःख को बंटाने और अपने सुख को बांटने में उत्साह रखें। सहयोग का स्वभाव बनायें और जहां भी आवश्यकता हो—अवसर हो सहकारिता की सत्प्रवृत्ति चरितार्थ करने में पूरी तत्परता बरतें। सद्भाव और सहयोग के बल पर ही बनते, सुदृढ़ होते और बढ़ते हैं। संगठन का मूल तत्व यही है। मानवी प्रगति सहयोग के आधार पर ही सम्भव हुई है उस मनुष्य को दिये गये ईश्वरीय अनुदान का हमें अधिकाधिक विकास करना चाहिये ताकि सुख-शान्ति का अधिकाधिक सम्वर्धन सम्भव हो सके।
जिसका ‘अपनापन’ जितना संकुचित है वह आत्मिक दृष्टि से उतना ही छोटा है। जिसने अपनेपन की परिधि जितनी बड़ी बना ली है उसे उतना ही विकसित परिष्कृत माना जायेगा। स्वार्थी व्यक्ति समाज की चिन्ता तो दूर अपने परिवार के हित-अनहित तक का विचार नहीं करते और मात्र अपनी ही सुविधा समेटने में लगे रहते हैं। ऐसे लोग अपनी शरीर सुविधा और क्षणिक प्रसन्नता पा सकते हैं, पर उनकी अन्तरात्मा इस क्षुद्रता के लिए कचोटती ही रहती है। परिचित लोग घृणा करते हैं और सम्बद्ध व्यक्ति रुष्ट रहते हैं। उन्हें न कभी कहीं से सच्चा सम्मान मिलता है और न आड़े वक्त में किसी का कारगर सहयोग। जो दूसरों के दुःख-दर्द में शामिल नहीं होता उसे अपने आपत्तिग्रस्त होने पर किसी की सहायता नहीं मिलती। जिसे दूसरों से कुछ सहानुभूति नहीं उसके साथ भी सहानुभूति कौन व्यक्त करेगा।
उदारचित्त मनुष्य देखने में घाटा उठाते दीखते हैं क्योंकि उन्हें दूसरों की सहायता करने में अपना समय, मस्तिष्क और धन खर्च करते हुए देखा जाता है। मोटे तरीके से यह घाटा उठाने का चिह्न है। पर ध्यान पूर्वक देखा जाय तो बात ठीक उलटी दिखाई पड़ती है। बीज गलता है तो लगता है वह घाटे में रहा, पर जब उसका अंकुर फूटता है, पौधा बनता है, विशाल वृक्ष होकर फूलों-फलों से लदता है तो प्रतीत होता है बीज का गलना मूर्खतापूर्ण नहीं था, उसने जितना खोया उसकी तुलना में पाया कहीं अधिक है। दूसरों के साथ उदार सहयोग का बरतना—अपनी अन्य आत्मिक सत्प्रवृत्तियों को बढ़ाना है, दूसरों के मन में अपने लिए श्रद्धा, सम्मान का स्थान बनाता है और अपने चुम्बकत्व से अन्य लोगों का स्नेह-सहयोग आकर्षित करता है। इस प्रकार उदार व्यक्ति घटता नहीं बढ़ता ही है। सहयोग की प्रतिक्रिया सुखद सहायता बनकर चारों ओर से बरसती है। धर्म-शास्त्रों में दान-पुण्य की बहुत महिमा गाई गई है और उसे हर शुभ कार्य के साथ जोड़ा गया है। इसका कारण मात्र धन को एक से दूसरे के हाथ में पहुंचाना नहीं वरन् उदार सहयोग की सत्प्रवृत्ति को विकसित करना है। हम अपने ही दुःख को दुःख न समझें वरन् दूसरों के कष्टों में भी समान सम्वेदना अनुभव करें। किसी की पीड़ा अपने अन्तःकरण में करुणा और दया उत्पन्न करती हो तो समझना चाहिए आत्मा की कोमलता जागरूक है और व्यक्ति आत्मोत्कर्ष के मार्ग पर चल रहा है। जो जितना कठोर है उसे दूसरों को कष्ट पीड़ित देखकर तनिक भी दया नहीं आती ऐसे लोग पर पीड़ा का क्रूर-कर्म स्वयं भी करते रहते हैं और दूसरों को करते देखकर प्रसन्न होते हैं अथवा निरपेक्ष बने रहते हैं। इस आन्तरिक स्थिति को ही असुरता कहते हैं। ऐसे लोग अपने लाभ के लिए ही नहीं, अकारण भी पर पीड़ा का आनन्द लेते हैं और उस दुष्टता को वीरता का नाम देते हैं। कसाई, शिकारी, डाकू, हत्यारे प्रायः ऐसी ही असुर मनोवृत्ति के होते हैं। अपराधी मनोवृत्ति इसी कठोरता की पृष्ठभूमि पर पनपती है।
मनुष्य असुरता छोड़े और देवत्व की दिशा में अग्रसर हो इसका एक ही उपयोग है, उदार सहकारिता की मनोवृत्ति का विश्वास—उसे अन्तःभूमि में परिपक्व करने वाले क्रिया-कलापों का अभ्यास। दान-पुण्य की महिमा इसी प्रयोजन को ध्यान में रखकर गाई गई है। आज तो इस क्षेत्र में भी मूढ़ मान्यताओं का साम्राज्य है। लोग अमुक वंश या वेश के लोगों को दान लेने का ठेकेदार मानते हैं और देवी-देवताओं तथा पितरों को प्रसन्न करने की दृष्टि से पैसा पानी की तरह बहाते हैं। कुछ लोग अपने को उदार दानी होने का प्रचार विज्ञापन करने की दृष्टि से तीर्थयात्रा, ब्रह्मभोज, स्मारक आदि में धन खर्च करते हैं। यह आज के घटिया मनुष्य के घटिया चिन्तन का घटिया स्वरूप है। वस्तुतः दान एक सत्प्रवृत्ति है जो मात्र धन देकर ही नहीं, श्रम समय, प्रोत्साहन, स्नेह, सत्परामर्श, सहानुभूति आदि के माध्यम से भी उसे चरितार्थ किया जा सकता है। दानी के लिए धनी होना आवश्यक नहीं। निर्धन भी अपने उदारचित्त के आधार पर धन कुबेरों से भी बढ़ी-चढ़ी सेवा सहायता कर सकते हैं। सद्भावना की कमी न हो, स्वभाव में उदारता सम्मिलित हो, दूसरों के दुःख में सहायता करने की कसक उठती हो, किसी को सुखी बनाने में रस आता हो तो समझना चाहिए दानशीलता के अनेकानेक आचरण स्वयमेव होते चले जायेंगे और उसके लिए व्यस्त एवं त्रस्त स्थिति में भी पग-पग पर सुअवसर मिलते रहेंगे।
आवश्यक नहीं कि कोई पीड़ित या पतित मिले तब के लिये दान की प्रतीक्षा में बैठे रहा जाय अथवा उन्हें खोज-खोजकर बुलाया जाता रहे। यह तो आपत्ति धर्म है कि कभी कोई दुःखी व्यक्ति दिखाई पड़े तो उसकी उचित एवं शक्य सहायता विवेकपूर्वक की जाय। भावावेश में अनुचित सहायता करने से तो भिक्षावृत्ति पनपती है और कुपात्रों के लिये एक घिनौना व्यवसाय अपनाकर अकर्मण्य बनने का दुर्भाग्य पल्ले पड़ता है। इस क्षेत्र में पूरे विवेक का प्रयोग करने की आवश्यकता है। विवेकपूर्ण सहृदयता ही लाभदायक सिद्ध होती है। माता को बच्चे के फोड़े का आपरेशन कराते समय जो कठोरता धारण करनी पड़ती है वस्तुतः वह भी विवेकपूर्ण करुणा का ही एक अंग है। अपने स्वजन, सम्बन्धियों, पड़ोसी, परिचितों में कोई हारी-बीमारी हो तो उसकी दवादारू, परिचर्या पूछताछ, सहानुभूति, आश्वासन के लिये कुछ समय या प्रयत्न करके अपनी सद्भावना का परिचय दिया जा सकता है। अन्य प्रकार की मुसीबतें तथा कठिनाई भी लोगों के सामने आती रहती हैं। ऐसे अवसरों पर लोग अक्सर अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठते हैं और औंधे-सीधे विचार करके अवांछनीय मार्ग अपनाने लगते हैं, यह मनःस्थिति भी शारीरिक बीमारी से कम भयंकर नहीं। अपने सम्पर्क क्षेत्र में अक्सर कई व्यक्ति ऐसी आपत्ति में फंसे होते हैं। उनके साथ सहज आत्मीयता विकसित करनी चाहिये और अपने विश्वास क्षेत्र में लेना चाहिये। इतना कर सकने पर ही स्नेह, सिक्त, तर्क और तथ्यों से भरा परामर्श प्रभावी बनता है। ऐसा मार्ग-दर्शन कर सकना—धन-दान करके किसी दीन-दुःखी की सहायता करने से किसी भी प्रकार कम महत्व का नहीं है। साधारण वार्तालाप में भी सम्पर्क में आने वालों को बिना उसके स्वाभिमान को चोट पहुंचाये—बिना निन्दा, भर्त्सना किये सहज सत्परामर्श दिये जा सकते हैं और उनसे भी धन दान जैसे ही सत्प्रयोजन सिद्ध हो सकते हैं। अपना चरित्र आदर्श बनाकर उसे अनुकरणीय एवं प्रेरणाप्रद बना लिया जाय तो वह भी प्रकारान्तर से सम्पर्क क्षेत्र में बखेरा गया अयाचित अनुदान ही माना जायेगा।
घर में ऐसी परम्परा प्रचलित करनी चाहिये जिसमें सभी की एक दूसरे की सहायता करने की उत्सुकता बनी रहे। इसके लिये उन्हें बराबर अवसर भी मिलते रहने चाहिये। बड़ी क्लास के लड़के अपने से छोटी कक्षा के भाई-बहिनों को पढ़ाने के लिये नियमित रूप से हर रोज समय निकालें और उन्हें खिलाने, हंसाने, अच्छी आदतें अपनाने, ज्ञान बढ़ाने आदि में सहायता करें। छोटी आयु के बच्चे बड़ों के कामों में हाथ बंटाने में, उनकी छोटी-मोटी आवश्यकतायें स्वयं जुटा देने में रुचि रखें, बराबर वालों के साथ जी खोलकर हंसने, बोलने और मिल-जुलकर साथ-साथ काम करने का क्रम बनायें। दूसरों को बिखरी चीजों को यथा स्थान रख देना एक छोटा सा काम है, पर उससे यह छाप पड़ती है कि हमारे प्रति कितना ध्यान है। ऐसे छोटे-छोटे सहयोग देकर साथ वालों की सद्भावना एवं कृतज्ञता अर्जित की जा सकती है।
सार्वजनिक हित के सामूहिक कार्यों में सदा अग्रणी रहना चाहिये। लोक-मंगल के लिये चल रही गतिविधियों में पूरे उत्साह के साथ भाग लेना चाहिये। इन सत्प्रवृत्तियों में भाग लेने से विश्व सेवा के विशाल क्षेत्र में प्रवेश करने का अवसर मिलने से आत्म-विस्तार का लाभ मिलता है साथ ही समाज को समुन्नत बनाने का जीवनोद्देश्य भी प्राप्त होता है। जिस प्रकार व्यक्तिगत एवं पारिवारिक लाभ के कार्यों में रुचि रखी जाती है उसी प्रकार समाज को भी बड़ा परिवार मानकर उसे समुन्नत बनाने वाले सामूहिक सार्वजनिक कार्यों में हमारा भाव भरा अनुदान एवं सहयोग सदा ही सम्मिलित रहना चाहिये।
अन्तःकरण की उदारता को विकसित करना—अपना स्तर बढ़ाना और दूसरों का सम्मान सद्भाव अर्जित करना है। यह लाभ जो कमाता है वह देने की अपेक्षा प्रकारान्तर से कहीं अधिक प्राप्त कर लेता है। स्वार्थपरायण व्यक्ति चतुर दीखता है, पर वह एकाकी रहकर खोता ही अधिक है। अस्तु हर विवेकवान का प्रयत्न यह होना चाहिये कि वह अपनी आत्मीयता का क्षेत्र विस्तृत करे, दूसरों के दुःख को बंटाने और अपने सुख को बांटने में उत्साह रखें। सहयोग का स्वभाव बनायें और जहां भी आवश्यकता हो—अवसर हो सहकारिता की सत्प्रवृत्ति चरितार्थ करने में पूरी तत्परता बरतें। सद्भाव और सहयोग के बल पर ही बनते, सुदृढ़ होते और बढ़ते हैं। संगठन का मूल तत्व यही है। मानवी प्रगति सहयोग के आधार पर ही सम्भव हुई है उस मनुष्य को दिये गये ईश्वरीय अनुदान का हमें अधिकाधिक विकास करना चाहिये ताकि सुख-शान्ति का अधिकाधिक सम्वर्धन सम्भव हो सके।