Books - नवयुग का मत्स्यावतार
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प्राण-चेतना प्रखर बनाए रखें
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अंगारे पर बार-बार राख जम जाती है और उसे प्रज्ज्वलित रखने के लिए बार-बार उसे हटाना पड़ता है। शरीर को स्नान और कपड़े को धोने की बार-बार आवश्यकता पड़ती है। बैटरी चार्ज करने के लिए उसे बार-बार विद्युत प्रवाह से जोड़ना पड़ता है। ठीक इसी स्तर का एक प्रसंग यह भी है कि प्रज्ञा-परिजन शान्तिकुञ्ज की-गंगोत्री यात्रा, वर्ष में एक बार नहीं, तो दो वर्ष में एक बार तो कर ही लेने की योजना बनाते रहें। युग- सन्धि के शेष वर्षों में यह उपक्रम नियमित चलता रहे, तो खर्च हुए समय और पैसे की तुलना में कुछ अधिक ही मिल सकेगा। भले ही वह चेतना क्षेत्र अनुदान चर्म चक्षुओं से न दीख पड़े।
सन् २००० तक युग सृजन के प्राणवान् परिजनों, अखण्ड ज्योति, युग निर्माण, युग शक्ति गायत्री के पाठकों-अनुपाठकों के लिए समूची अवधि में हर माह ९-९ दिन के सत्र शान्तिकुञ्ज में अनवरत रूप से चलते रहेंगे। ये सत्र लोक व्यवहार, भावी जीवन सम्बन्धी परामर्श परक होंगे। परस्पर विचार-विनिमय का क्रम भी चलेगा। प्रयास यह रहेगा कि युगसन्धि के वर्षों में प्राय: एक करोड़ से अधिक व्यक्तियों में प्राण फूँकते रहने का उपक्रम चलता रहे। इसी दृष्टि से आश्रम परिकर में आवास व्यवस्था हेतु नए कमरे भी बनाये गए हैं। थोड़ी हेर-फेर करके और अधिक व्यक्तियों के निवास की व्यवस्था बनाई जा रही है। इन सत्रों में युगसन्धि की विशेष साधना, प्राण-प्रेरणा के अभिनव संचार का क्रम चलेगा। अत: किसी भी परिजन को इस सुयोग से वंचित नहीं रहना चाहिए एवं समय निकाल कर कम से कम वर्ष में एक बार बैटरी चार्ज कराने आना ही चाहिए। ये सत्र हर माह १ से ९, ११ से १९, २१ से २९ तारीखों में चलते रहेंगे।
नेवले और साँप की लड़ाई में जब नेवला थकता और विष दंशन से उद्विग्न होता है, तो मुड़ कर किसी जड़ी बूटी को खाने चला जाता है। नई शक्ति सँजोकर फिर लड़ाई आरम्भ कर देता और शत्रु को परास्त करके रहता है। पौधों को बार-बार पानी देना पड़ता है। वह न मिले, तो वे सूख जाएँगे।
शान्तिकुञ्ज के नौ दिवसीय सत्रों में उन्हीं को बुलाया गया है, जो मिशन के साथ घनिष्ठतापूर्वक जुड़ चुके हैं। घुमक्कड़ अशिक्षित, रोगी, जराजीर्ण, छोटे बालकों के लिए धर्मशालाओं में ठहरना ही ठीक पड़ता है। अन्यथा वे शिक्षार्थियों को बिना कुछ पाए लौटाने के लिए बाधित करेंगे, आश्रम-व्यवस्था गड़बड़ाएँगे और उन लोगों की राह रोकेंगे, जो सत्रों में सम्मिलित होने के लिए अपनी पारी की उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा कर रहे थे।
पाँच दिवसीय सत्रों में सम्मिलित होने वालों को अपनी शारीरिक, मानसिक स्थिति का, अब तक की जीवनचर्या का विवरण लिखना चाहिए और साथ ही यह अवश्य लिखना चाहिए कि इन दिनों परिवार के नियमित सदस्यों की भाँति सम्मिलित हैं या नहीं। असंबद्ध लोग पहले मिशन के साथ सक्रिय रूप से जुड़े, बाद में सत्रों में सम्मिलित होने की बातें सोचें। आरम्भिक कक्षाएँ अपनी स्थानीय पाठशाला में पूरी करें। कालेज स्तर की योग्यता प्राप्त करने के लिए यहाँ आएँ।
सज्जनों का, सत्प्रवृत्तियों का विस्तार ही नवयुग के अवतरण का प्रधान लक्षण है। दुर्जनों की दुर्बुद्धि ने ही समय के साथ अगणित समस्याएँ जोड़ी हैं। उनका निवारण और निराकरण संयमशील उदारचेता ही अपने विस्तार-पुरुषार्थ से सम्भव कर सकते हैं। उन्हीं का उत्पादन, अभिवर्धन और प्रशिक्षण नवसृजन प्रक्रिया का प्रमुख और प्रधान अंग है। उसी को सम्भव बनाने, सम्पन्न करने के लिए हम सबको समुद्र सेतु बाँधने वाले वानरों की तरह, गोवर्धन उठाने में सहायक बने ग्वाल-बालों की तरह साहस सँजोना चाहिए, भले ही योग्यता, सम्पन्नता एवं सुविधा का अभाव ही क्यों न प्रतीत होता हो।
अपने समय का प्रज्ञावतार ही प्राचीनकाल का मत्स्यावतार है। उसकी, लगन और ललक निरन्तर विस्तार पर ही केन्द्रित रही है। आज भी हममें से प्रत्येक को एक से अनेक बनने का व्रत लेना चाहिए और उसे पूरा करने के लिए, जिसकी जितनी श्रद्धा उमगे, उससे कम पुरुषार्थ का परिचय नहीं ही देना चाहिए। प्रज्ञावतार के लक्ष्य को पूरा करने में कुछ ऐसा कर गुजरना चाहिए, जो अनुकरणीय और अभिनन्दनीय कहकर सराहा जा सके ।
प्रस्तुत पुस्तक को ज्यादा से ज्यादा प्रचार-प्रसार कर अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने एवं पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने का अनुरोध है।
सन् २००० तक युग सृजन के प्राणवान् परिजनों, अखण्ड ज्योति, युग निर्माण, युग शक्ति गायत्री के पाठकों-अनुपाठकों के लिए समूची अवधि में हर माह ९-९ दिन के सत्र शान्तिकुञ्ज में अनवरत रूप से चलते रहेंगे। ये सत्र लोक व्यवहार, भावी जीवन सम्बन्धी परामर्श परक होंगे। परस्पर विचार-विनिमय का क्रम भी चलेगा। प्रयास यह रहेगा कि युगसन्धि के वर्षों में प्राय: एक करोड़ से अधिक व्यक्तियों में प्राण फूँकते रहने का उपक्रम चलता रहे। इसी दृष्टि से आश्रम परिकर में आवास व्यवस्था हेतु नए कमरे भी बनाये गए हैं। थोड़ी हेर-फेर करके और अधिक व्यक्तियों के निवास की व्यवस्था बनाई जा रही है। इन सत्रों में युगसन्धि की विशेष साधना, प्राण-प्रेरणा के अभिनव संचार का क्रम चलेगा। अत: किसी भी परिजन को इस सुयोग से वंचित नहीं रहना चाहिए एवं समय निकाल कर कम से कम वर्ष में एक बार बैटरी चार्ज कराने आना ही चाहिए। ये सत्र हर माह १ से ९, ११ से १९, २१ से २९ तारीखों में चलते रहेंगे।
नेवले और साँप की लड़ाई में जब नेवला थकता और विष दंशन से उद्विग्न होता है, तो मुड़ कर किसी जड़ी बूटी को खाने चला जाता है। नई शक्ति सँजोकर फिर लड़ाई आरम्भ कर देता और शत्रु को परास्त करके रहता है। पौधों को बार-बार पानी देना पड़ता है। वह न मिले, तो वे सूख जाएँगे।
शान्तिकुञ्ज के नौ दिवसीय सत्रों में उन्हीं को बुलाया गया है, जो मिशन के साथ घनिष्ठतापूर्वक जुड़ चुके हैं। घुमक्कड़ अशिक्षित, रोगी, जराजीर्ण, छोटे बालकों के लिए धर्मशालाओं में ठहरना ही ठीक पड़ता है। अन्यथा वे शिक्षार्थियों को बिना कुछ पाए लौटाने के लिए बाधित करेंगे, आश्रम-व्यवस्था गड़बड़ाएँगे और उन लोगों की राह रोकेंगे, जो सत्रों में सम्मिलित होने के लिए अपनी पारी की उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा कर रहे थे।
पाँच दिवसीय सत्रों में सम्मिलित होने वालों को अपनी शारीरिक, मानसिक स्थिति का, अब तक की जीवनचर्या का विवरण लिखना चाहिए और साथ ही यह अवश्य लिखना चाहिए कि इन दिनों परिवार के नियमित सदस्यों की भाँति सम्मिलित हैं या नहीं। असंबद्ध लोग पहले मिशन के साथ सक्रिय रूप से जुड़े, बाद में सत्रों में सम्मिलित होने की बातें सोचें। आरम्भिक कक्षाएँ अपनी स्थानीय पाठशाला में पूरी करें। कालेज स्तर की योग्यता प्राप्त करने के लिए यहाँ आएँ।
सज्जनों का, सत्प्रवृत्तियों का विस्तार ही नवयुग के अवतरण का प्रधान लक्षण है। दुर्जनों की दुर्बुद्धि ने ही समय के साथ अगणित समस्याएँ जोड़ी हैं। उनका निवारण और निराकरण संयमशील उदारचेता ही अपने विस्तार-पुरुषार्थ से सम्भव कर सकते हैं। उन्हीं का उत्पादन, अभिवर्धन और प्रशिक्षण नवसृजन प्रक्रिया का प्रमुख और प्रधान अंग है। उसी को सम्भव बनाने, सम्पन्न करने के लिए हम सबको समुद्र सेतु बाँधने वाले वानरों की तरह, गोवर्धन उठाने में सहायक बने ग्वाल-बालों की तरह साहस सँजोना चाहिए, भले ही योग्यता, सम्पन्नता एवं सुविधा का अभाव ही क्यों न प्रतीत होता हो।
अपने समय का प्रज्ञावतार ही प्राचीनकाल का मत्स्यावतार है। उसकी, लगन और ललक निरन्तर विस्तार पर ही केन्द्रित रही है। आज भी हममें से प्रत्येक को एक से अनेक बनने का व्रत लेना चाहिए और उसे पूरा करने के लिए, जिसकी जितनी श्रद्धा उमगे, उससे कम पुरुषार्थ का परिचय नहीं ही देना चाहिए। प्रज्ञावतार के लक्ष्य को पूरा करने में कुछ ऐसा कर गुजरना चाहिए, जो अनुकरणीय और अभिनन्दनीय कहकर सराहा जा सके ।
प्रस्तुत पुस्तक को ज्यादा से ज्यादा प्रचार-प्रसार कर अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने एवं पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने का अनुरोध है।