Books - नवयुग का मत्स्यावतार
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बड़े प्रयोजन के लिए बड़े कदम
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चुल्लू भर जल में से उत्पन्न हुआ, मत्स्यावतार, विराट् विश्व पर छा जाने और अन्तर्ध्यान होने तक एक ही रटन, एक ही ललक सँजोए रहा। विस्तार-विस्तार-विस्तार यही आकांक्षा युग चेतना के रूप में अवतरित हुए आज के प्रज्ञावतार आन्दोलन की है। उसे सुविस्तृत हुए बिना चैन नहीं। अल्पमत को सदा हारती हुई पाली में बैठना पड़ा हैं। शासन सत्ता तक पर अधिकार जमाने में केवल बहुमत ही सफल होता है। नरक उसी वातावरण को कहते हैं, जिसमें पिछड़े, प्रतिगामी और उद्दण्डों का बाहुल्य होता है। स्वर्ग और कुछ नहीं मात्र सज्जनों की, सत्प्रवृत्तियों की बहुलता उपलब्ध कर लेने की स्थिति भर है। सतयुग की बहुत सराहना की जाती रही है। उसमें एक ही विशेषता थी की जन समुदाय का बहुमत, श्रेष्ठता और शालीनता से भरा-पूरा था। कलियुग के नाम पर इसलिए नाक-भौंह सिकोड़ी जाती है कि उसमें दुर्जनों की, दुष्प्रवृत्तियों की बहुलता पाई जाती है। श्रेष्ठता के अभिवर्धन बिना संसार में सुख-शान्ति का वातावरण बन ही नहीं सकता। प्रतिगामिता की पक्षधर दुष्टता, भ्रष्टता का जितना भी विस्तार होगा, उतना ही पतन-पराभव प्रबल होता और अनेकानेक विपत्तियाँ, विभीषिकाएँ विनिर्मित करता चला जाएगा।
सर्वप्रथम अवतरित हुए मत्स्यावतार का एक ही उद्देश्य था कि श्रेष्ठता इतनी अधिक बलिष्ठ और सुविस्तृत हो कि संसार का कहीं कोई कोना भी उसके प्रभाव क्षेत्र से बाहर न रह जाए। युग परिवर्तन की, उज्ज्वल भविष्य की संरचना का लक्ष्य भी यही है। सज्जनता न केवल अकेली हो, वरन् सुविस्तृत भी होती चले। इसी प्रयास में सृजन चेतना अपनी समर्थता समेट कर प्राण-पण से संलग्न रह रही है।
चुल्लू भर पानी में उत्पन्न हुई मछली, अखण्ड-ज्योति पत्रिका को समझा जा सकता है। उसे उलट-पुलट कर देखने पर तो छपे कागजों का एक छोटा सा पैकिट भर ही समझा जा सकेगा और उसका प्रभाव विद्या-व्यसनियों का मनोरंजन समय क्षेप भर समझा जा सकता है, पर वस्तुत: बात इतनी छोटी है नहीं। कारण कि छपे कागज पढ़ते रहने वालों की जानकारी भर बढ़ सकती है। यह सम्भव नहीं कि इतने भर से उनकी उत्कृष्टता अनवरत रूप से समुन्नत होती चली जाए। यह अखण्ड ज्योति ही है, जिसने अपने पाठकों को एक विशेष स्तर तक समुन्नत करने में सफलता पाई है। यह परिकर अपनी विशेषता का परिचय, चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में निरन्तर देता चला आया है। विगत आधी शताब्दी से वट वृक्ष की तरह उसकी गरिमा हर दृष्टि से समुन्नत, सुविस्तृत, ही होती चली आई है।
पिछले पृष्ठों पर इस मिशन द्वारा जनमानस के परिष्कार एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन से सम्बन्धित अनेकानेक क्रिया-कलापों का न्यूनतम परिचय प्रस्तुत किया गया है। जो कुछ बन पड़ा या प्रकाश में आया है, उसे किसी व्यक्ति विशेष का वर्चस्व या कर्तृत्व नहीं माना जा सकता। तत्त्वत: यह अखण्ड ज्योति परिवार के सदस्यों घटकों का सामूहिक पुरुषार्थ-अनुदान है। व्यक्ति विशेष के लिए इतना कुछ कर दिखाना एक प्रकार से असम्भव ही समझा जा सकता है।
श्रेय यदि मत्स्यावतार, प्रज्ञावतार को देना हो, तो इसी बात को यों भी समझा जा सकता है कि टेलीविजन के बोलते दृश्य चित्रों का उच्चारण-प्रसारण किसी एक विशेष केन्द्र से होता है। उसे सशक्त एवं व्यापक बनाने हेतु ट्रांसमीटर उन तरंगों को फैलाते हैं और फिर उसी प्रेरणा-संवेदना को असंख्यों टी.वी. पकड़ या बना लेते हैं और वही सब दिखाने लगते हैं, जो उद्गम स्टेशन में बना या चल रहा था। सतयुग के संचालक सूत्र भी यही करते थे। उन दिनों उत्कृष्टता को लोक व्यवहार में उतारने के लिए अनेक देव मानव, अपना सृजन-प्रयास एक से एक बढ़कर अधिक सशक्त सिद्ध करने के लिए उत्साह भरी स्पर्धा जुटाएँ रहते थे। इतने भर से समूचा वातावरण और जन समुदाय उत्कृष्टता से अनुप्राणित हो जाता था और ऐसी परिस्थितियाँ बनती थीं, जिन्हें स्वर्गोपम कहने-मानने में किसी को कोई असमंजस नहीं होना चाहिए।
सर्वप्रथम अवतरित हुए मत्स्यावतार का एक ही उद्देश्य था कि श्रेष्ठता इतनी अधिक बलिष्ठ और सुविस्तृत हो कि संसार का कहीं कोई कोना भी उसके प्रभाव क्षेत्र से बाहर न रह जाए। युग परिवर्तन की, उज्ज्वल भविष्य की संरचना का लक्ष्य भी यही है। सज्जनता न केवल अकेली हो, वरन् सुविस्तृत भी होती चले। इसी प्रयास में सृजन चेतना अपनी समर्थता समेट कर प्राण-पण से संलग्न रह रही है।
चुल्लू भर पानी में उत्पन्न हुई मछली, अखण्ड-ज्योति पत्रिका को समझा जा सकता है। उसे उलट-पुलट कर देखने पर तो छपे कागजों का एक छोटा सा पैकिट भर ही समझा जा सकेगा और उसका प्रभाव विद्या-व्यसनियों का मनोरंजन समय क्षेप भर समझा जा सकता है, पर वस्तुत: बात इतनी छोटी है नहीं। कारण कि छपे कागज पढ़ते रहने वालों की जानकारी भर बढ़ सकती है। यह सम्भव नहीं कि इतने भर से उनकी उत्कृष्टता अनवरत रूप से समुन्नत होती चली जाए। यह अखण्ड ज्योति ही है, जिसने अपने पाठकों को एक विशेष स्तर तक समुन्नत करने में सफलता पाई है। यह परिकर अपनी विशेषता का परिचय, चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में निरन्तर देता चला आया है। विगत आधी शताब्दी से वट वृक्ष की तरह उसकी गरिमा हर दृष्टि से समुन्नत, सुविस्तृत, ही होती चली आई है।
पिछले पृष्ठों पर इस मिशन द्वारा जनमानस के परिष्कार एवं सत्प्रवृत्ति संवर्धन से सम्बन्धित अनेकानेक क्रिया-कलापों का न्यूनतम परिचय प्रस्तुत किया गया है। जो कुछ बन पड़ा या प्रकाश में आया है, उसे किसी व्यक्ति विशेष का वर्चस्व या कर्तृत्व नहीं माना जा सकता। तत्त्वत: यह अखण्ड ज्योति परिवार के सदस्यों घटकों का सामूहिक पुरुषार्थ-अनुदान है। व्यक्ति विशेष के लिए इतना कुछ कर दिखाना एक प्रकार से असम्भव ही समझा जा सकता है।
श्रेय यदि मत्स्यावतार, प्रज्ञावतार को देना हो, तो इसी बात को यों भी समझा जा सकता है कि टेलीविजन के बोलते दृश्य चित्रों का उच्चारण-प्रसारण किसी एक विशेष केन्द्र से होता है। उसे सशक्त एवं व्यापक बनाने हेतु ट्रांसमीटर उन तरंगों को फैलाते हैं और फिर उसी प्रेरणा-संवेदना को असंख्यों टी.वी. पकड़ या बना लेते हैं और वही सब दिखाने लगते हैं, जो उद्गम स्टेशन में बना या चल रहा था। सतयुग के संचालक सूत्र भी यही करते थे। उन दिनों उत्कृष्टता को लोक व्यवहार में उतारने के लिए अनेक देव मानव, अपना सृजन-प्रयास एक से एक बढ़कर अधिक सशक्त सिद्ध करने के लिए उत्साह भरी स्पर्धा जुटाएँ रहते थे। इतने भर से समूचा वातावरण और जन समुदाय उत्कृष्टता से अनुप्राणित हो जाता था और ऐसी परिस्थितियाँ बनती थीं, जिन्हें स्वर्गोपम कहने-मानने में किसी को कोई असमंजस नहीं होना चाहिए।