Books - नवयुग का मत्स्यावतार
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समय की माँग के अनुरूप पुरुषार्थ
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युगसन्धि की इस बेला में वातावरण क्रमश: अधिक गरम होता जा रहा है। सृजन-
शिल्पियों का उत्साह, साहस और पुरुषार्थ किसी सशक्त फव्वारे की तरह उछल और
मचल रहा है। निर्धारित गतिविधियाँ तीव्र से तीव्रतम होती जा रही है। ऐसी
दशा में विस्तार का आरम्भिक तन्त्र भी बहुत गति से अग्रसर होना चाहिए।
अखण्ड ज्योति परिजनों की संख्या बढ़ने का क्रम रुकना नहीं चाहिए। उसे
संबद्धजनों को रुकने भी नहीं देना चाहिए। इस दिशा में इस वर्ष का सीमित
लक्ष्य यह है कि एक से पाँच, पाँच से पच्चीस बनने वाली गुणन अभिवर्द्धन
प्रक्रिया में कहीं कोई व्यवधान पड़ना नहीं चाहिए।
अखण्ड ज्योति के पाठक इस परम्परा को निष्ठापूर्वक निभाते रहे हैं। पहुँचने वाला हर अंक कम से कम पाँच लोगों द्वारा पढ़ा जाता रहे। इसी आधार पर तो पाँच लाख के परिकर को अनुपाठकों समेत पच्चीस लाख गिना और अपने परिकर को इतना बड़ा कहा, माना और समझा जाता है। अब एक ऊँची छलाँग लगाने का दूसरा सोपान, नई चुनौती लेकर सामने आ खड़ा हुआ है। एक से पाँच का सिलसिला मुद्दतों से चलता रहा है। अब पाँच को पच्चीस होना चाहिए। वे अनुपाठक जो दूसरों से माँगकर अपनी जिज्ञासा शान्त करते रहे हैं, अब उन्हें बचपन वाली सहायता पर निर्भर रहने की प्रकृति छोड़नी चाहिए और तरुणों जैसी वह रीति- नीति अपनानी चाहिए, जिसमें देना और बढ़ाना ही कर्तव्य बनकर लद पड़ता है और बढ़े- चढ़े पुरुषार्थ की अपेक्षा करता है।
एक सदस्य पाँच अनुपाठकों की सहायता करता है। अब अनुपाठकों का एक कदम बढ़ाकर सघन आत्मीयता बनाने के अनुबन्ध में बाँधना चाहिए। स्वयं पूर्ण सदस्य बनना चाहिए और अपनी- अपनी पत्रिका के पाँच- पाँच अनुपाठक बनाकर पाँच से पच्चीस वाला विस्तार क्रम पूरा कर दिखाना चाहिए। इन दिनों अखण्ड ज्योति का हर सदस्य और चार नए सदस्य बनाकर अपनी मण्डली पाँच की गठित करें। इससे अनुपाठक तो पच्चीस सहज ही हो जाएँगे। इस अभिनव विस्तार के चरण को एक नियमित प्रज्ञा मण्डल का गठन ही कह सकते हैं। पाँच सदस्य इस प्रकार चार- चार नए साथी बनाकर पच्चीस की मण्डली के सूत्र संचालक बन सकते हैं। आज के सदस्य कल स्वयं ही एक प्रज्ञा मण्डल के जन्मदाता कहलाने लगें। इतने भर से मिशन एक ही छलाँग में, एक ही वर्ष में अपना पाँच गुना विस्तार कर लेगा और अब तक जिस क्रम से सृजन संकल्प पूरा होता रहा है, उसकी तुलना में अगले ही दिनों विकास उपक्रम में पाँच गुनी अभिवृद्धि हो जाएगी।
इसी बात को दूसरे शब्दों में यों भी कहा जा सकता है कि जिस गति से पिछले दिनों गतिशीलता का उपक्रम रहा है, उसकी तुलना में अगले दिनों प्रगति का अनुपात पाँच गुना अधिक बढ़ जाएगा। वह सब कार्य एक वर्ष में ही बन पड़ेगा, जिसे पिछली सफलता की तुलना में पाँच गुनी अधिक तीव्र गति से चलने वाली प्रगति कहा जा सके। युगसन्धि के शेष अगले वर्षों में ऐसी ही सहकारिता का परिचय देते हुए हम उस लक्ष्य तक पहुँच सकेंगे, जिसमें मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण की सम्भावना का प्रतिपादन किया गया है।
एक से पाँच, पाँच से पच्चीस वाला विस्तार क्रम रखा जा सकेगा, तो कुछ ही छलाँगों में हम मत्स्यावतार का उपक्रम अपनाने वाले, सच्चे अर्थों में युग साधक बन सकते हैं। नवसृजन के क्षेत्र में मिल- जुलकर वह चमत्कार कर दिखा सकते हैं, जिसे सुनने में तो सर्वसाधारण रुचि लेते हैं, पर व्यवहार में प्रत्यक्ष बन पड़ने की बात को सन्देह एवं असमंजस जैसा ही कुछ मानते हैं।
उपरोक्त निर्धारण के अनुसार वर्तमान सदस्य यदि चार नए सदस्य बना लेंगे, तो अपने प्रज्ञा मण्डल के एक समर्थ सूत्र संचालक बन जाएँगे। उनमें से पाँच- पाँच अनुपाठक मिलाकर पच्चीस का एक समुदाय बन जाएगा और उसकी संयुक्त शक्ति से ऐसा कुछ बन पड़ने की सम्भावना उग सकती है, जिसे २४ अवतारों, २४ देवताओं, २४ ऋषियों, २४ देवियों ने मिल- जुलकर एक समग्र अध्यात्म विज्ञान की संरचना की थी और नर- वानरों के समूह को मानवी गरिमा से सुसम्पन्न ईश्वर का राजकुमार बनाने का करिश्मा दिखाया था। हमें अपनी २५ की छोटी मण्डली को भी ऐसा ही मानकर चलना चाहिए कि बन्दर जैसी दिख पड़ने पर भी, हनुमान जैसे पराक्रम में समर्थ हो सकेगी।
अखण्ड ज्योति के पाठक इस परम्परा को निष्ठापूर्वक निभाते रहे हैं। पहुँचने वाला हर अंक कम से कम पाँच लोगों द्वारा पढ़ा जाता रहे। इसी आधार पर तो पाँच लाख के परिकर को अनुपाठकों समेत पच्चीस लाख गिना और अपने परिकर को इतना बड़ा कहा, माना और समझा जाता है। अब एक ऊँची छलाँग लगाने का दूसरा सोपान, नई चुनौती लेकर सामने आ खड़ा हुआ है। एक से पाँच का सिलसिला मुद्दतों से चलता रहा है। अब पाँच को पच्चीस होना चाहिए। वे अनुपाठक जो दूसरों से माँगकर अपनी जिज्ञासा शान्त करते रहे हैं, अब उन्हें बचपन वाली सहायता पर निर्भर रहने की प्रकृति छोड़नी चाहिए और तरुणों जैसी वह रीति- नीति अपनानी चाहिए, जिसमें देना और बढ़ाना ही कर्तव्य बनकर लद पड़ता है और बढ़े- चढ़े पुरुषार्थ की अपेक्षा करता है।
एक सदस्य पाँच अनुपाठकों की सहायता करता है। अब अनुपाठकों का एक कदम बढ़ाकर सघन आत्मीयता बनाने के अनुबन्ध में बाँधना चाहिए। स्वयं पूर्ण सदस्य बनना चाहिए और अपनी- अपनी पत्रिका के पाँच- पाँच अनुपाठक बनाकर पाँच से पच्चीस वाला विस्तार क्रम पूरा कर दिखाना चाहिए। इन दिनों अखण्ड ज्योति का हर सदस्य और चार नए सदस्य बनाकर अपनी मण्डली पाँच की गठित करें। इससे अनुपाठक तो पच्चीस सहज ही हो जाएँगे। इस अभिनव विस्तार के चरण को एक नियमित प्रज्ञा मण्डल का गठन ही कह सकते हैं। पाँच सदस्य इस प्रकार चार- चार नए साथी बनाकर पच्चीस की मण्डली के सूत्र संचालक बन सकते हैं। आज के सदस्य कल स्वयं ही एक प्रज्ञा मण्डल के जन्मदाता कहलाने लगें। इतने भर से मिशन एक ही छलाँग में, एक ही वर्ष में अपना पाँच गुना विस्तार कर लेगा और अब तक जिस क्रम से सृजन संकल्प पूरा होता रहा है, उसकी तुलना में अगले ही दिनों विकास उपक्रम में पाँच गुनी अभिवृद्धि हो जाएगी।
इसी बात को दूसरे शब्दों में यों भी कहा जा सकता है कि जिस गति से पिछले दिनों गतिशीलता का उपक्रम रहा है, उसकी तुलना में अगले दिनों प्रगति का अनुपात पाँच गुना अधिक बढ़ जाएगा। वह सब कार्य एक वर्ष में ही बन पड़ेगा, जिसे पिछली सफलता की तुलना में पाँच गुनी अधिक तीव्र गति से चलने वाली प्रगति कहा जा सके। युगसन्धि के शेष अगले वर्षों में ऐसी ही सहकारिता का परिचय देते हुए हम उस लक्ष्य तक पहुँच सकेंगे, जिसमें मनुष्य में देवत्व के उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण की सम्भावना का प्रतिपादन किया गया है।
एक से पाँच, पाँच से पच्चीस वाला विस्तार क्रम रखा जा सकेगा, तो कुछ ही छलाँगों में हम मत्स्यावतार का उपक्रम अपनाने वाले, सच्चे अर्थों में युग साधक बन सकते हैं। नवसृजन के क्षेत्र में मिल- जुलकर वह चमत्कार कर दिखा सकते हैं, जिसे सुनने में तो सर्वसाधारण रुचि लेते हैं, पर व्यवहार में प्रत्यक्ष बन पड़ने की बात को सन्देह एवं असमंजस जैसा ही कुछ मानते हैं।
उपरोक्त निर्धारण के अनुसार वर्तमान सदस्य यदि चार नए सदस्य बना लेंगे, तो अपने प्रज्ञा मण्डल के एक समर्थ सूत्र संचालक बन जाएँगे। उनमें से पाँच- पाँच अनुपाठक मिलाकर पच्चीस का एक समुदाय बन जाएगा और उसकी संयुक्त शक्ति से ऐसा कुछ बन पड़ने की सम्भावना उग सकती है, जिसे २४ अवतारों, २४ देवताओं, २४ ऋषियों, २४ देवियों ने मिल- जुलकर एक समग्र अध्यात्म विज्ञान की संरचना की थी और नर- वानरों के समूह को मानवी गरिमा से सुसम्पन्न ईश्वर का राजकुमार बनाने का करिश्मा दिखाया था। हमें अपनी २५ की छोटी मण्डली को भी ऐसा ही मानकर चलना चाहिए कि बन्दर जैसी दिख पड़ने पर भी, हनुमान जैसे पराक्रम में समर्थ हो सकेगी।