Books - पाँच प्राण-पाँच देव
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Language: HINDI
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अन्तरंग में उतरे आत्म बल प्राप्त करें
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मनुष्य यों देखने में एक दुर्बल-सा प्राणी मालूम पड़ता है, पर वह प्राणि विद्युत की दृष्टि से सृष्टा की अद्भुत एवं अनुपम संरचना है। विशेषतया मस्तिष्क इतनी विलक्षणताओं का केन्द्र है जिसके आगे अद्यावधि आविष्कृत हुए समस्त मानवकृत यन्त्रों का एकत्रीकरण भी हलका पड़ेगा। उसमें अगणित चुम्बकीय केन्द्र हैं जो विविध-विधि रिसीवरों, ट्रान्सफार्मरों का कार्य सम्पादित करते हैं। ब्रह्माण्ड में असंख्य प्रकार के एक से एक रहस्यमय प्रवाह स्पन्दन गतिशील रहते हैं इनमें से मनुष्य को मात्र कुछेक की ही लंगड़ी लूली जानकारी है। यह जानकारी का क्षेत्र जितना-जितना विस्तृत होता जाता है उससे असीम शक्ति की—असंख्य धाराओं की हलकी-फुलकी झांकी मिलती है। कदाचित अबकी अपेक्षा मनुष्य के हाथ दूना चौगुना भी और लग गया तो सृष्टा की प्रतिद्वंदिता करने लगेगा। इतना होते हुए भी जो कुछ जानना और पाना शेष रह जायगा जिसकी कल्पना कर सकना भी कठिन है। ब्रह्माण्ड की भौतिकाएं और चेतनात्मक सम्भावनाएं इतनी अधिक हैं कि उन्हें अचिन्त्य, असीम, अनन्त, अनिर्वचनीय आदि कहकर ही सन्तोष किया जा सकता है।
सर्वविदित है कि पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र एवं सौरमण्डल के अन्य ग्रहों से बहु कुछ अनुदान प्राप्त करती है और उस उधार की पूंजी से अपनी दुकान चलाती है। सौर मण्डल से बाहर के ग्रह-नक्षत्र भी उसे बहुत कुछ देते हैं। वह हलका होने के कारण विनिर्मित यन्त्रों की पकड़ में नहीं आता तो भी वह स्वल्प या नगण्य नहीं है। कोई वस्तु हलकी होने के कारण उपहासास्पद नहीं बन जाती वरन् सच तो यह है कि सूक्ष्मता के अनुपात में शक्ति की गरिमा बढ़ती जाती है। होम्योपैथी विज्ञान ने इस सन्दर्भ में अच्छे गहरे और प्रामाणिक प्रयोग प्रस्तुत किये हैं। ब्रह्माण्ड में बिखरे पड़े कोटि-कोटि ग्रह-नक्षत्र अपनी-अपनी उपलब्धियां मिल बांटकर खाते हैं। तभी तो वे सब एक सूत्र में ‘मणिगण’ एवं पिरोये हुए हैं। यदि उनमें से प्रत्येक ने अपनी उपलब्धियों को अपने ही सीमित क्षेत्र में समेट सिकोड़ कर रखा होता तो ब्रह्माण्ड का सारा सीराजा बिखर जाता और यहां केवल धूलि के बादल इधर-उधर मारे-मारे फिरते दिखाई पड़ते। पृथ्वी की अगणित शक्ति केन्द्रों के छोटे बड़े उपहार मिलते रहते और वह उन खिलौनों से खेलती हुई अपना विनोद-प्रमोद स्थिर रखे रहती।
जिस प्रकार पृथ्वी अन्य ग्रहों से लेती है उसी प्रकार वह अपना उपार्जन ब्रह्माण्ड परिवार को बांटती भी है। ‘दो और लो’ का विनिमय क्रम ही इस सृष्टि की धुरी बनकर काम कर रहा है। पृथ्वी और ब्रह्माण्ड के बीच जो आदान-प्रदान क्रम चल रहा है वह चेतना के घटाकाश—मनुष्य और महादास—विश्व मानव के बीच भी चल रहा है। पिण्ड शब्द का प्रयोग ग्रह-नक्षत्रों की तरह मानव शरीर के लिए भी होता है। मनुष्य एक पिण्ड है उसका ब्रह्माण्ड व्यापी असंख्य चेतना पिण्डों के साथ वैसा ही सम्बन्ध है जैसा पृथ्वी का—सौरमण्डल से—देवयानी नीहारिका से अथवा ब्रह्माण्ड केन्द्र महा ध्रुव अनन्त शेष से। मनुष्य की चेतना अपनी उपलब्धियां विश्व चेतना को प्रदान करती है और वहां से अपने लिए उपयोगी अनुदान प्राप्त करती है।
यों चेतना शरीर के कण कण में बिखरी पड़ी है पर उसका उद्गम निर्झर मस्तिष्क से ही फूटता है। ध्रुवीय चुम्बक शक्ति की तरह मस्तिष्क में भी आकर्षक और विकर्षक केन्द्र हैं। वे ब्रह्माण्ड से बहुत कुछ ग्रहण करते और देते हैं। इन्हीं क्रिया केन्द्रों की रिसीवरों एवं ट्रान्सफार्मरों के रूप में व्याख्या की जाती है।
मनुष्य की स्वास्थ्य, चरित्र, संस्कार, शिक्षा आदि विशेषताएं मिलकर समग्र व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं और उसी के आधार पर उसकी प्रतिभा निखरती है। प्रतिभा न केवल सामने आने वाले कामों की सफलता के लिए वरन् दूसरों पर प्रभाव डालने की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण होती है। व्यक्तिगत जीवन में यह प्रतिभा धैर्य, साहस, सन्तुलन, विवेक, दूरदर्शिता एवं शालीनता के रूप में दृष्टिगोचर होती है। सामाजिक जीवन में वह सम्बन्धित लोगों को प्रभावित करती है। उन पर छाप डालती है—एवं सहयोग, उद्भव सम्मान प्रदान करने के लिए आकर्षित करती है। प्रतिभा प्रयत्नपूर्वक बढ़ाई जा सकती है। इन प्रयत्नों में लौकिक गतिविधियां भी शामिल हैं और आध्यात्मिक साधनाएं भी। साधनारत मनुष्य अपनी संकल्प शक्ति और उपासनात्मक तपश्चर्याओं द्वारा अतीन्द्रिय शक्ति का उद्भव करते हैं। अन्तराल में प्रसुप्त पड़ी क्षमताओं को जगाया जाना और इस विशाल ब्रह्माण्ड में बिखरे हुए शक्तिशाली चेतन तत्वों को खींचकर अपने में धारण करना यह दोनों ही प्रयत्न अध्यात्म साधनाओं द्वारा किये जाते हैं। जिनमें यह उभयपक्षीय विशेषताएं बढ़ती हैं उन्हें कई दृष्टियों से चमत्कारी विशेषताओं से सुसम्पन्न पाया जाता है।
जिस प्रकार हृदयस्पंदन की गतिविधियों की जानकारी इलेक्ट्रो कार्डियोग्राम यन्त्र से होती है। उसी प्रकार मस्तिष्क विद्युत् के आधार पर चलने वाली विचार-तरंगों का अंकन इलेक्ट्रो ऐसेंफैलो ग्राम यन्त्र से होता है। मनः क्षेत्र से चिन्तन स्तर के अनुरूप कितनी ही प्रकार की अल्फाबीटा, डेल्टा आदि किरणें निकलती हैं। उनके आयाम और दैर्ध्य चिन्तन का—स्थिति का विवरण प्रस्तुत करते हैं।
किन्हीं-किन्हीं व्यक्तियों की शारीरिक बनावट सामान्य होती है, देखने में उनका व्यक्तित्व सीधा सरल सा लगता है, पर उनमें विशिष्ठ विद्युत् शक्ति इतनी भरी होती है कि जो भी काम हाथ लेते हैं उसे संभालते चले जाते हैं जिसके भी सम्पर्क में आते हैं उन्हें प्रभावित किये बिना नहीं रहते।
किस व्यक्ति में कितनी अतिमानवी विद्युत शक्ति है उसका परिचय उसके चेहरे के इर्द-गिर्द और शरीर के चारों ओर बिखरे हुए तेजोवलय को देखकर जाना जा सकता है। यह तेजोवलय खुली आंखों से दिखाई नहीं पड़ता, पर उसे सूक्ष्मदर्शी दृष्टि से अनुभव किया जा सकता है। अब ऐसे यन्त्र भी बन गये हैं जो मानव शरीर में पाई जाने वाली विद्युत् शक्ति और उसके एक सीमा तक निकलने वाले विकरण का विवरण प्रस्तुत कर सकते हैं। देवी देवताओं के चेहरे पर एक प्रभामण्डल चित्रित किया जाता है यह विशिष्ठ मानवी विद्युत शक्ति है। इसका सम्बन्ध भौतिक प्रतिभा और आध्यात्मिक शक्ति धाराओं के साथ जुड़ा रहता है।
डा. चार्ल्स फारे ने अपने ग्रन्थ ‘एनल्स डिस साइन्सेज साइकिक्स’ नामक ग्रन्थ में अपने कुछ रोगियों के सिरोभाग पर छाये प्रभा मण्डल का विवरण दिया है और बताया है कि रोगों के कारण इस तेजोवलय में क्यों और क्या अन्तर उत्पन्न होते रहते हैं।
इटली में पिरानो अस्पताल में अन्नामोनारी नामक महिला के शरीर में डाक्टरों ने खुली आंखों से झिलमिलाता नील वर्ण प्रभा मण्डल देखा था। जब वह दीप्ति अधिक तीव्र होती थी तब वह महिला पसीने से लथपथ हो जाती थी सांसें तेजी से चलती और दिल की धड़कन बढ़ जाती थी। उस महिला की इस विद्युत स्थिति को देखने के लिए विश्व भर के जीव विज्ञानी, भौतिक शास्त्री और पत्रकार पहुंचे थे।
‘फिजीकल फेनासेना आफ मिस्टिसिज्म’ ग्रन्थ के लेखक हरबर्ट थर्स्टन ने अपनी खोजों में ऐसे ईसाई सन्तों का विवरण छापा है जिनके चेहरे पर लम्बे उपवास के उपरान्त दीप्तिमान, तेजोवलय देखे गये। उन्होंने अन्नामोनारो का विवरण विशेष रूप से लिखा जिनके शरीर में उपवास के उपरान्त सल्फाइडो की असाधारण वृद्धि हो गई थी। अल्ट्रावायलेट तरंगें अधिक बहने लगी थीं जिनका आभास दीप्तिमान चक्र के रूप में होता था। विद्वान थर्स्टन ने भी अपने विवरणों में ऐसे ही कई दीप्तिवान् सन्तों की चर्चा की है और उनकी विद्युतीय स्थिति में असामान्यता होने का उल्लेख किया है।
अमेरिकी वैज्ञानिक मनुष्य शरीर के चारों और बिखरे रहने वाले—विशेषतया चेहरे के इर्द-गिर्द अधिक प्रखर पाये जाने वाले तेजोवलय के सम्बन्ध में अपनी शोधें बहुत पहले प्रकाशित कर चुके हैं। अब रूसी वैज्ञानिकों ने भी उस प्रभामण्डल के छाया-चित्र उतारने में सफलता प्राप्त करली है। ‘सोवियत यूनियन’ पत्र के 145 वें अंक में इन खोजों का विस्तृत विवरण छपा है। यह प्रभामण्डल सदा एक रस नहीं रहता उसमें उतार-चढ़ाव आते रहते हैं जिनसे विदित होता है कि व्यक्ति के भीतर क्या-क्या विद्युतीय हलचलें हो रही हैं। यदि इस प्रभामण्डल के बारे में अधिक जाना जा सके तो न केवल शारीरिक स्थिति के बारे में वरन् मस्तिष्कीय हलचलों के बारे में भी वरन् मस्तिष्कीय हलचलों के बारे में भी किसी व्यक्ति का पूरा गहरा और विस्तृत परिचय प्राप्त हो सकता है।
शरीर संचार की समस्त गतिविधियां तथा मस्तिष्कीय उड़ान रक्त, मांस जैसे साधनों से नहीं उस विद्युत प्रवाह के द्वारा संभव होती हैं जो जीवन तत्व बनकर रोम-रोम में संव्याप्त हैं। इसी को मानवीय विद्युत कहते हैं। ओजस्वी, मनस्वी और तेजस्वी उसी विशेषता से सुसम्पन्न लोगों को कहते हैं। प्रतिभाशाली प्रगतिशील लोगों और शूरवीर साहसी लोगों में इसी क्षमता की बहुलता पाई जाती है।
यह जैव विद्युत उस भौतिक बिजली से भिन्न है जो विद्युत यन्त्रों में प्रयुक्त होती है। बैटरी, मैग्नेट, जनरेटर आदि का स्पर्श करने पर बिजली का झटका लगता है। उसके सम्पर्क से बल्ब, पंखे, रेडियो, हीटर आदि काम करने लगते हैं। जीव विद्युत का स्तर भिन्न है इसलिए वह यह कार्य तो नहीं करती पर अन्य प्रकार के प्राणी की अति महत्वपूर्ण आवश्यकता पूरी करने वाले कार्य सम्पन्न करती देखी जा सकती है।
कोशिकाओं की आन्तरिक संरचना में एक महत्वपूर्ण आधार है—माईटो कोन्द्रिया। इसे दूसरे शब्दों में कोशिका का पावर हाउस—विद्युत भण्डार कह सकते हैं। भोजन, रक्त, मांस, अस्थि आदि से आगे बढ़ते-बढ़ते अन्ततः इसी संस्थान में जाकर ऊर्जा का रूप होता है। यह ऊर्जा ही कोशिका को सक्रिय रखती है और उनकी सामूहिक सक्रियता जीव संचालक के रूप में दृष्टिगोचर होती है। इस ऊर्जा को लघुत्तम प्राणांश कह सकते हैं। काय-कलेवर में इसका एकत्रीकरण महाप्राण कहलाता है और उसी को ब्रह्माण्डव्यापी चेतना विश्व प्राण या विराट् प्राण के नाम से जानी जाती है। प्राणांश की लघुत्तम ऊर्जा इकाई कोशिका के अन्तर्गत ठीक उसी रूप में विद्यमान है जिसमें कि विराट् प्राण गतिशील है। बिन्दु-सिन्धु जैसा अन्तर इन दोनों बीच रहते हुए भी वस्तुतः वे दोनों अन्योन्याश्रित हैं। कोशिका के अन्तर्गत प्राणांश के घटक परस्पर संयुक्त न हों तो महाप्राण का अस्तित्व न बने। इसी प्रकार यदि विराट् प्राण की सत्ता न हो तो भोजन पाचन आदि का आधार न बने और वह लघु प्राण जैसी विद्युतधारा का संचार भी सम्भव न हो।
इसी मानवी विद्युत का ही यह प्रभाव है जो एक दूसरे को आकर्षित करता है। उभरती आयु में यह बिजली काय आकर्षण की भूमिका बनती है, पर यदि उसका सदुपयोग किया जाय तो बहुमुखी प्रतिभा, ओजस्विता, प्रभावशीलता के रूप में विकसित होकर कितने ही महत्वपूर्ण कार्य कर सकती है। ऊर्ध्व रेता, संयमी, ब्रह्मचारी लोग अपने ओजस् को मस्तिष्क में केन्द्रित करके उसे ब्रह्मवर्चस के रूप में परिणत करते हैं। विद्वान दार्शनिक, वैज्ञानिक, नेता, वक्ता, योद्धा, योगी, तपस्वी जैसी विशेषताओं से सम्पन्न व्यक्तियों के संबंध में यही कहा जा सकता है कि उन्होंने अपने ओजस् का प्राण तत्व का अभिवर्धन, नियन्त्रण एवं सदुपयोग किया है। यों यह शक्ति किन्हीं-किन्हीं में अनायास भी उभर पड़ती देखी गई है और उसके द्वारा उन्हें कुछ अद्भुत काम करते भी पाया गया है।
जर्मनी का अधिनायक हिटलर जब रुग्ण होता तो उसे सुयोग्य डाक्टरों की अपेक्षा एक ‘नीम हकीम’ किस्टन का सहारा लेना पड़ता। उसकी उंगलियों में जादू था। दवादारू वह कम करता था, हाथ का स्पर्श करके दर्द को भगाने की उसमें जादुई क्षमता प्राप्त थी। सन् 1898 में वह इस्टोनिया में जन्मा प्रथम विश्व युद्ध के बाद वह फिनलेण्ड नागरिक माना, पीछे उसने मालिस करके रोगोपचार करने की कला सीखी अपने कार्य में उसका कौशल इतना बड़ा कि उसे जादुई चिकित्सक कहा जाने लगा हिटलर ही नहीं, उसके जिगरी दोस्त हिमसर तक को उसने समय-समय पर अपनी चिकित्सा से चमत्कृत किया और भयंकर रुग्णता के पंजे से छुड़ाया। क्रिस्टन ने अपने परिचय और प्रभाव का उपयोग करके हिलटर के मृत्युपाश में जकड़े हुए लगभग एक लाख यहूदियों का छुटकारा कराया।
योग-साधना का उद्देश्य इस चेतना विद्युत शक्ति का अभिवर्धन करना भी है। इसे मनोबल, प्राणबल और आत्मबल भी कहते हैं। संकल्प शक्ति और इच्छा शक्ति के रूप में इसी के चमत्कार देखे जाते हैं।
अध्यात्म शास्त्र में प्राण-विद्या का एक स्वतन्त्र प्रकरण एवं विधान हैं इसके आधार पर साधनारत होकर मनुष्य इस प्राण विद्युत की इतनी अधिक मात्रा अपने में संग्रह कर सकता है कि उस आधार पर अपना ही नहीं अन्य अनेकों का भी उपकार, उद्धार कर सके।
योग-साधना इस मानवी विद्युत भण्डार को असाधारण रूप से उत्तेजित करती और उभारती है। यदि सही ढंग से साधना की जाय तो मनुष्य प्राणवान और ओजस्वी बनता है। उपार्जित प्राण विद्युत की ऊर्जा के सहारे स्वयं कितनी ही अद्भुत सफलताएं प्राप्त करता है और दूसरों को सहारा देकर ऊंचा उठाता है।
प्राण विद्युत के सम्बन्ध में शरीर विज्ञानी इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि पेशियों में काम करने वाली स्थिति तक ऊर्जा-पोटोन्शियल का तथा उसके साथ जुड़े रहने वाले आवेश—इन्टेन्सिटी का जीवन संचार में बहुत बड़ा हाथ है। इन विद्युत धाराओं का वर्गीकरण तथा नामकरण—सीफेलो ट्राइजमिल न्यूनैलाजिया की व्याख्या चर्चा के साथ प्रस्तुत किया जाता है। ताप विद्युत संयोजन—थर्मोलैरिक कपलिंग—के शोधकर्ता अब इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मानव शरीर का सारा क्रिया कलाप इसी विद्युतीय संचार के माध्यम से गतिशील रहता है।
मनुष्य शरीर में बिजली काम करती है, यह तथ्य सर्व विदित है। इलैक्ट्रो कर्डियो ग्राफी तथा इलैक्ट्रो इनसिफैलो ग्राफी द्वारा इस तथ्य को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। हमारी रक्त नलिकाओं में लौह युक्त हैमोग्लोबिन भरा पड़ा है। लौह चूर्ण और चुम्बक जिस प्रकार परस्पर चिपके रहते हैं उसी प्रकार हमारी जीवन सत्ता भी जीव कोशों को परस्पर सम्बद्ध किये रहती है। उनकी सम्मिश्रित चेतना से वे समस्त क्रिया कलाप चलते हैं जिन्हें हम जीवन संचार व्यवस्था कहते हैं।
शरीर में जो चमक, स्फूर्ति, ताजगी, उमंग, साहस, उत्साह, निष्ठा, तत्परता जैसी विशेषताएं दिखाई पड़ती हैं—वे प्राण ऊर्जा की ही प्रतिक्रियाएं हैं। मनस्वी, ओजस्वी, तेजस्वी, तपस्वी आदि शब्द इसी क्षमता का बाहुल्य व्यक्त करते हैं। ऐतिहासिक महामानवों में यही विशेषता प्रधान रूप से रही है।
ऊर्जा के सहारे ही यंत्रों का संचालन होता है। मनुष्य शरीर भी एक यंत्र है। उसके संचालन में जिस विद्युत की आवश्यकता पड़ती है उसे प्राण कहते हैं। प्राण एक अग्नि है जिसे ज्वलंत रखने के लिए आहार की आवश्यकता पड़ती है। आधुनिक वैज्ञानिक ने इसे ‘जीव विद्युत’ नाम दिया है।
निद्रा मात्र थकान मिटाने की, विश्राम प्रक्रिया मात्र नहीं है। वैज्ञानिक अनुसंधानों के अनुसार निद्रा में मस्तिष्क का सचेतन भाग अचेतन की स्थिति में इसलिए जाता है कि उस स्थिति में अन्तरिक्ष में प्रवाहित रहने वाली विद्युत धाराओं में से अपने उपयोग का अंश संग्रह सम्पादित कर सकने का अवसर मिल जाय ‘एरियल’ रेडियो तरंगों को पकड़ता है। निद्रावस्था में हमारा अचेतन मस्तिष्क उसी स्थिति का बन जाता है और आकाश से इतनी विद्युतीय खुराक प्राप्त कर लेता है जिससे शारीरिक और मानसिक क्रिया कलापों का संचालन ठीक प्रकार संभव हो सके। निद्रा की पूर्ति न होने पर शारीरिक और मानसिक स्थिति में जो गड़बड़ी उत्पन्न होती है उसे अभीष्ट मात्रा में विद्युतीय खुराक न मिलने को चेतनात्मक ‘वुभुक्षा’ कहते हैं। इसके बने रहने पर मनुष्य विक्षिप्त या अर्ध विक्षिप्त बन जाता है। पागलपन छा जाने से पूर्व प्रायः कुछ दिन पहले से अनिद्रा रोग उत्पन्न होता है। अनिद्रा में इस विद्युतीय आहार की ही कमी पड़ती है।
ठीक इससे विपरीत इस शक्ति का विकास होने अर्थात् सूक्ष्म शरीर के बलवान् होने पर वह सारी क्षमतायें उपार्जित हो सकती हैं, वह ऋतम्भरा प्रज्ञा जागृत की जा सकती है जिससे बिना किसी भौतिक माध्यम से भी व्यक्ति दूरवर्ती वस्तुओं, सम्बन्धियों का ज्ञान भविष्यवाणी, ऋतुओं का पूर्वानुमान सच सच कर सके। यह सारे क्रिया कलाप चेतना के अति गहन स्तर पर सम्पादित होते हैं। इस बात को तो कोई भी व्यक्ति प्राणायाम के थोड़े समय के अभ्यास से भी ज्ञात कर सकता है कि जैसे जैसे प्राणायाम का अभ्यास बढ़ता है बुद्धि तीक्ष्ण होती है और गहरी निद्रा आती है। गहन निद्रा का एक गुण शारीरिक हलकापन और प्रसन्नता भी है दूसरे इसी स्तर पर भविष्यदर्शी स्वप्न भी दिखाई देते हैं।
‘नोवोत्सी न्यूज एजेन्सी ने—सोते समय ‘अंग्रेजी पढ़ाने का परीक्षण’ शीर्षक से समाचार छापा है। समाचार पीछे पहले शीर्षक पढ़कर ही पाठक चौंक पड़ेंगे। जागृत अवस्था में कई बार पुस्तकें पढ़ते हैं, अध्यापक पाठ याद कराते हैं तो भी विद्यार्थियों को एक ही रोना बना रहता है, पाठ याद नहीं होता। फिर सोते हुए व्यक्ति को पढ़ाना तो असम्भव बात है। इसी बात को हम यह कहते हैं कि आत्मा इतनी संवेदनशील है कि अपने सूक्ष्म प्रकाश-शरीर से वह सोते-जागते किसी भी अवस्था में पढ़ती और ज्ञान सम्पादन करता रह सकता है। कोई सामर्थ्यवान् व्यक्ति अपने विचार, ज्ञान, प्रज्ञायें और सन्देश कैसी भी अवस्था में किसी और को भी दे सकता है। तब तो लोग यह बात न मानते पर मास्को के पास दूबना स्थान पर विज्ञान इस बात को प्रत्यक्ष सत्य सिद्ध करने में लगा हुआ है, लगभग एक हजार लोगों को सोते समय गहरी निद्रा में अंग्रेजी सिखाई जा रही है। प्रयोग कर्त्ताओं का कहना है कि ये लोग 40 दिन में सोते-सोते ही अंग्रेजी सीख जायेंगे।
इस प्रणाली के अन्तर्गत गहरी नींद में सोने वाले लोग ही भाषा शिक्षण के लिये छांटे जाते हैं, उन्हें सोते समय भाषा के टेप-रिकार्ड सुनाये जाते हैं। वे नींद में ही व्याकरण के नियम और शब्द और उनका प्रयोग सीख लेते हैं। अब तक छुपे परीक्षण बहुत सफल हुये हैं।
एक ओर यह प्रयोग और दूसरी ओर वैज्ञानिकों की निरन्तर की शोध दोनों प्रक्रियाओं ने यह सिद्ध करना प्रारम्भ कर दिया है कि स्थूल शरीर में सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व और उस सूक्ष्म शरीर में मन आदि सम्पूर्ण इन्द्रियों व चेष्टाओं को पाया जाना असम्भव नहीं।
इन घटनाओं के कारण जो अनेक देशों एवं अनेक लोगों के साथ घटी हैं, वैज्ञानिकों का ध्यान भी इस ओर जाने लगा है। विज्ञान भी यह सोचने के लिए विवश हुआ है कि क्या स्थूल शरीर से परे भी मनुष्य का कोई अस्तित्व है, जो उसके संदेशों को सुदूर क्षेत्रों में पहुंचाता है। तथा ऐसे-ऐसे काम कर डालता है, जो शरीर द्वारा ही किये जा सकते हैं। बिना किसी स्थूल माध्यम के एक मनुष्य के विचारों ओर संदेशों को पहुंचाने की इस प्रक्रिया का नाम है, परामानसिक संचार (टैलीपैथी)। रूप के लेनिनग्राड विश्वविद्यालय में फिजियोलौजी विभाग के अध्यक्ष प्रो. लियोनिद वासिलयेव ने अभी कुछ समय पूर्व एक अनूठा प्रयोग किया है। स्मरणीय रूस का शासन-तन्त्र, धर्म, ईश्वर और आत्मतत्व की मान्यता की न केवल अनावश्यक मानता है वरन् उसे अफीम भी बताता है। फिर भी इस तरह की घटनाओं के कारण वास्तविकता की ओर उनका ध्यान गये बिना नहीं रहा। प्रो. वासिलयेव ने टेलीपैथी द्वारा कई मील दूर स्थित एक प्रयोगशाला में कार्यरत अनुसंधानकर्ताओं को सम्मोहित कर दिया और वे लोग जो प्रयोग कर रहे थे, उनसे वह प्रयोग छुड़वा कर किसी दूसरे प्रयोग में लगा दिया। अनुसंधानकर्त्ता वैज्ञानिक अनजाने ही परवश से होकर वासिलयेव के सन्देशों का पालन करने लगे और उन्हें यह भान तक नहीं हुआ कि वे क्या कर रहे हैं। इस प्रयोग के द्वारा प्रो. वासिलयेव इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को केवल अपने संकल्पों के द्वारा ही प्रभावित कर सकता है और उसे अपना आज्ञानुवर्ती बना लेता है। इसके लिए न किसी भौतिक माध्यम की आवश्यकता होती है तथा न ही किसी और साधन की। यहां तक कि स्थान की दूरी भी इस प्रक्रिया में कोई अवरोध उत्पन्न नहीं करती।
मनुष्य एक हंसने, बोलने, सोचने और निर्णय निर्धारण करने वाला कल-कारखाना है। किसी भी कारखाने को चलाने के लिए ‘शक्ति’ की जरूरत पड़ती है। इसे तेल, भाप, कोयला, बिजली आदि के सहारे ताप रूप में प्राप्त किया जाता है। प्राणियों द्वारा धकेले जाने पर भी यह शक्ति प्राप्त होती है। शरीर का कारखाना भी शक्ति चाहता है। इसके लिए उसे ईश्वर का दिया हुआ स्वसंचालित यन्त्र प्राप्त है। अन्न, जल और वायु के ईंधन से यह भट्टी गरम भर होती है, इससे आगे का सब कुछ अपने आप चलता है। पेट में पाचक रासायनिक द्रव्य अन्न से नहीं अपने परम्परागत शक्ति स्रोतों से उत्पन्न होते हैं। आहार तो उन स्रोतों को धकेलने वाली गर्मी भर उत्पन्न करते हैं। यों चेतना का केन्द्र मस्तिष्क माना गया है और उसका पोषक रक्त संस्थान हृदय कहा गया है। हृदय को सामग्री पेट से मिलती है। पेट को भरना मुंह का काम है। मुंह से लिए साधन हाथ जुटाते हैं। यह चक्र तो चलता ही है, पर असल में पूरा शरीर ही शक्ति भण्डार है। यह शक्ति असामान्य विद्युत स्तर की है। असामान्य इस अर्थ में है कि वह भौतिक बिजली की तरह अन्धी दौड़ नहीं लगती वरन् सामने वाले को देखकर ही अपनी गतिविधियां फैलाती, सिकोड़ती है।
मानवी विद्युत हर व्यक्ति की अपनी विशिष्ट संपत्ति है। वह इसी के आधार पर ऐसे अनुदान देता है—ऐसे आदान-प्रदान करता है जो पैसे या किसी वस्तु के आधार पर उपलब्ध नहीं हो सकते। एक व्यक्ति से दूसरा प्रभाव ग्रहण करता है यह तथ्य सर्वविदित है। संगति की महिमा गाई गई है। कुसंग के दुष्परिणाम और सत्संग के सत्परिणामों को सिद्ध करने वाले उदाहरण हर जगह पाये जाते हैं। यह प्रभाव मात्र वार्तालाप व्यवहार, लोभ या दबाव से उतना नहीं पड़ता जितना मनुष्य के शरीर में रहने वाली बिजली के आदान-प्रदान से सम्भव होता है।
ताप और बिजली का गुण है कि जहां अनुकूलता होती है वह वहां अपना विस्तार करती और प्रभाव क्षेत्र बढ़ाती है। प्राणवान शक्तिशाली व्यक्तित्व अपने से दुर्बलों को प्रभावित करते हैं। यों दुर्बल भी अपनी न्यूनता के कारण समर्थों में सहज करुणा उत्पन्न करते हैं और उन्हें कुछ देने के लिए विवश करते हैं। बच्चे को देखकर माता की छाती से दूध उतरने लगता है—मन हुलसने लगता है इस प्रकार शक्तिवान अपने से दुर्बलों को अनुदान देकर घाटे में नहीं रहते। उदारताजन्य आत्म-सन्तोष से उनकी क्षति पूर्ति भी हो जाती है। दूध पिलाने में माता को प्रत्यक्षतया घाटा ही है, पर वात्सल्यजन्य तृप्ति से उसकी भी भावनात्मक पूर्ति हो जाती है।
भावोद्रेक प्राणवान होने का ही लक्षण है ऐसे व्यक्ति शरीर से दुर्बल भी दिखाई दें तो भी उनका आत्मबल सब प्रकार से बढ़ा चढ़ा हुआ होता है और वे उन मोटे ताजे लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक नीरोग और सुखी होते हैं जो मांस की दृष्टि से तो बहुत भारी होते हैं पर प्राणवान् न होने के कारण न तो नीरोग रह पाते हैं न ही दूसरों के भावात्मक स्पर्श का आनन्द ले पाते हैं।
शरीर बल, बुद्धि बल, धन बल, शस्त्र बल, सत्ता बल आदि कितनी ही सामर्थ्यों के लाभ सर्वविदित हैं। यदि आत्मबल की क्षमता एवं उपयोगिता का भी लोगों को पता होता तो वे जानते कि यह उपलब्धि भी इन सबसे कम नहीं, वरन् कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। आत्मशक्ति न केवल व्यक्तित्व को तेजस्वी बनाती है वरन् बाह्य जगत में लोगों को प्रभावित करने—उनका सहयोग सम्पादन करने में समर्थ रहती है। कठिन कामों को सरलता पूर्वक सम्पन्न करने की विशेषता जिनमें देखी जाती है उनकी प्रमुख विशेषता यही आन्तरिक प्रतिभा होती है, जिस सर्वतोमुखी सफलताओं का आधार कह सकते हैं। हमारे प्रयत्न यदि उस क्षमता को प्राप्त करने की दिशा में चल पड़े तो सचमुच हम सच्चे अर्थों में सामर्थ्यवान कहे जा सकने योग्य बन सकते हैं।
सर्वविदित है कि पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र एवं सौरमण्डल के अन्य ग्रहों से बहु कुछ अनुदान प्राप्त करती है और उस उधार की पूंजी से अपनी दुकान चलाती है। सौर मण्डल से बाहर के ग्रह-नक्षत्र भी उसे बहुत कुछ देते हैं। वह हलका होने के कारण विनिर्मित यन्त्रों की पकड़ में नहीं आता तो भी वह स्वल्प या नगण्य नहीं है। कोई वस्तु हलकी होने के कारण उपहासास्पद नहीं बन जाती वरन् सच तो यह है कि सूक्ष्मता के अनुपात में शक्ति की गरिमा बढ़ती जाती है। होम्योपैथी विज्ञान ने इस सन्दर्भ में अच्छे गहरे और प्रामाणिक प्रयोग प्रस्तुत किये हैं। ब्रह्माण्ड में बिखरे पड़े कोटि-कोटि ग्रह-नक्षत्र अपनी-अपनी उपलब्धियां मिल बांटकर खाते हैं। तभी तो वे सब एक सूत्र में ‘मणिगण’ एवं पिरोये हुए हैं। यदि उनमें से प्रत्येक ने अपनी उपलब्धियों को अपने ही सीमित क्षेत्र में समेट सिकोड़ कर रखा होता तो ब्रह्माण्ड का सारा सीराजा बिखर जाता और यहां केवल धूलि के बादल इधर-उधर मारे-मारे फिरते दिखाई पड़ते। पृथ्वी की अगणित शक्ति केन्द्रों के छोटे बड़े उपहार मिलते रहते और वह उन खिलौनों से खेलती हुई अपना विनोद-प्रमोद स्थिर रखे रहती।
जिस प्रकार पृथ्वी अन्य ग्रहों से लेती है उसी प्रकार वह अपना उपार्जन ब्रह्माण्ड परिवार को बांटती भी है। ‘दो और लो’ का विनिमय क्रम ही इस सृष्टि की धुरी बनकर काम कर रहा है। पृथ्वी और ब्रह्माण्ड के बीच जो आदान-प्रदान क्रम चल रहा है वह चेतना के घटाकाश—मनुष्य और महादास—विश्व मानव के बीच भी चल रहा है। पिण्ड शब्द का प्रयोग ग्रह-नक्षत्रों की तरह मानव शरीर के लिए भी होता है। मनुष्य एक पिण्ड है उसका ब्रह्माण्ड व्यापी असंख्य चेतना पिण्डों के साथ वैसा ही सम्बन्ध है जैसा पृथ्वी का—सौरमण्डल से—देवयानी नीहारिका से अथवा ब्रह्माण्ड केन्द्र महा ध्रुव अनन्त शेष से। मनुष्य की चेतना अपनी उपलब्धियां विश्व चेतना को प्रदान करती है और वहां से अपने लिए उपयोगी अनुदान प्राप्त करती है।
यों चेतना शरीर के कण कण में बिखरी पड़ी है पर उसका उद्गम निर्झर मस्तिष्क से ही फूटता है। ध्रुवीय चुम्बक शक्ति की तरह मस्तिष्क में भी आकर्षक और विकर्षक केन्द्र हैं। वे ब्रह्माण्ड से बहुत कुछ ग्रहण करते और देते हैं। इन्हीं क्रिया केन्द्रों की रिसीवरों एवं ट्रान्सफार्मरों के रूप में व्याख्या की जाती है।
मनुष्य की स्वास्थ्य, चरित्र, संस्कार, शिक्षा आदि विशेषताएं मिलकर समग्र व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं और उसी के आधार पर उसकी प्रतिभा निखरती है। प्रतिभा न केवल सामने आने वाले कामों की सफलता के लिए वरन् दूसरों पर प्रभाव डालने की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण होती है। व्यक्तिगत जीवन में यह प्रतिभा धैर्य, साहस, सन्तुलन, विवेक, दूरदर्शिता एवं शालीनता के रूप में दृष्टिगोचर होती है। सामाजिक जीवन में वह सम्बन्धित लोगों को प्रभावित करती है। उन पर छाप डालती है—एवं सहयोग, उद्भव सम्मान प्रदान करने के लिए आकर्षित करती है। प्रतिभा प्रयत्नपूर्वक बढ़ाई जा सकती है। इन प्रयत्नों में लौकिक गतिविधियां भी शामिल हैं और आध्यात्मिक साधनाएं भी। साधनारत मनुष्य अपनी संकल्प शक्ति और उपासनात्मक तपश्चर्याओं द्वारा अतीन्द्रिय शक्ति का उद्भव करते हैं। अन्तराल में प्रसुप्त पड़ी क्षमताओं को जगाया जाना और इस विशाल ब्रह्माण्ड में बिखरे हुए शक्तिशाली चेतन तत्वों को खींचकर अपने में धारण करना यह दोनों ही प्रयत्न अध्यात्म साधनाओं द्वारा किये जाते हैं। जिनमें यह उभयपक्षीय विशेषताएं बढ़ती हैं उन्हें कई दृष्टियों से चमत्कारी विशेषताओं से सुसम्पन्न पाया जाता है।
जिस प्रकार हृदयस्पंदन की गतिविधियों की जानकारी इलेक्ट्रो कार्डियोग्राम यन्त्र से होती है। उसी प्रकार मस्तिष्क विद्युत् के आधार पर चलने वाली विचार-तरंगों का अंकन इलेक्ट्रो ऐसेंफैलो ग्राम यन्त्र से होता है। मनः क्षेत्र से चिन्तन स्तर के अनुरूप कितनी ही प्रकार की अल्फाबीटा, डेल्टा आदि किरणें निकलती हैं। उनके आयाम और दैर्ध्य चिन्तन का—स्थिति का विवरण प्रस्तुत करते हैं।
किन्हीं-किन्हीं व्यक्तियों की शारीरिक बनावट सामान्य होती है, देखने में उनका व्यक्तित्व सीधा सरल सा लगता है, पर उनमें विशिष्ठ विद्युत् शक्ति इतनी भरी होती है कि जो भी काम हाथ लेते हैं उसे संभालते चले जाते हैं जिसके भी सम्पर्क में आते हैं उन्हें प्रभावित किये बिना नहीं रहते।
किस व्यक्ति में कितनी अतिमानवी विद्युत शक्ति है उसका परिचय उसके चेहरे के इर्द-गिर्द और शरीर के चारों ओर बिखरे हुए तेजोवलय को देखकर जाना जा सकता है। यह तेजोवलय खुली आंखों से दिखाई नहीं पड़ता, पर उसे सूक्ष्मदर्शी दृष्टि से अनुभव किया जा सकता है। अब ऐसे यन्त्र भी बन गये हैं जो मानव शरीर में पाई जाने वाली विद्युत् शक्ति और उसके एक सीमा तक निकलने वाले विकरण का विवरण प्रस्तुत कर सकते हैं। देवी देवताओं के चेहरे पर एक प्रभामण्डल चित्रित किया जाता है यह विशिष्ठ मानवी विद्युत शक्ति है। इसका सम्बन्ध भौतिक प्रतिभा और आध्यात्मिक शक्ति धाराओं के साथ जुड़ा रहता है।
डा. चार्ल्स फारे ने अपने ग्रन्थ ‘एनल्स डिस साइन्सेज साइकिक्स’ नामक ग्रन्थ में अपने कुछ रोगियों के सिरोभाग पर छाये प्रभा मण्डल का विवरण दिया है और बताया है कि रोगों के कारण इस तेजोवलय में क्यों और क्या अन्तर उत्पन्न होते रहते हैं।
इटली में पिरानो अस्पताल में अन्नामोनारी नामक महिला के शरीर में डाक्टरों ने खुली आंखों से झिलमिलाता नील वर्ण प्रभा मण्डल देखा था। जब वह दीप्ति अधिक तीव्र होती थी तब वह महिला पसीने से लथपथ हो जाती थी सांसें तेजी से चलती और दिल की धड़कन बढ़ जाती थी। उस महिला की इस विद्युत स्थिति को देखने के लिए विश्व भर के जीव विज्ञानी, भौतिक शास्त्री और पत्रकार पहुंचे थे।
‘फिजीकल फेनासेना आफ मिस्टिसिज्म’ ग्रन्थ के लेखक हरबर्ट थर्स्टन ने अपनी खोजों में ऐसे ईसाई सन्तों का विवरण छापा है जिनके चेहरे पर लम्बे उपवास के उपरान्त दीप्तिमान, तेजोवलय देखे गये। उन्होंने अन्नामोनारो का विवरण विशेष रूप से लिखा जिनके शरीर में उपवास के उपरान्त सल्फाइडो की असाधारण वृद्धि हो गई थी। अल्ट्रावायलेट तरंगें अधिक बहने लगी थीं जिनका आभास दीप्तिमान चक्र के रूप में होता था। विद्वान थर्स्टन ने भी अपने विवरणों में ऐसे ही कई दीप्तिवान् सन्तों की चर्चा की है और उनकी विद्युतीय स्थिति में असामान्यता होने का उल्लेख किया है।
अमेरिकी वैज्ञानिक मनुष्य शरीर के चारों और बिखरे रहने वाले—विशेषतया चेहरे के इर्द-गिर्द अधिक प्रखर पाये जाने वाले तेजोवलय के सम्बन्ध में अपनी शोधें बहुत पहले प्रकाशित कर चुके हैं। अब रूसी वैज्ञानिकों ने भी उस प्रभामण्डल के छाया-चित्र उतारने में सफलता प्राप्त करली है। ‘सोवियत यूनियन’ पत्र के 145 वें अंक में इन खोजों का विस्तृत विवरण छपा है। यह प्रभामण्डल सदा एक रस नहीं रहता उसमें उतार-चढ़ाव आते रहते हैं जिनसे विदित होता है कि व्यक्ति के भीतर क्या-क्या विद्युतीय हलचलें हो रही हैं। यदि इस प्रभामण्डल के बारे में अधिक जाना जा सके तो न केवल शारीरिक स्थिति के बारे में वरन् मस्तिष्कीय हलचलों के बारे में भी वरन् मस्तिष्कीय हलचलों के बारे में भी किसी व्यक्ति का पूरा गहरा और विस्तृत परिचय प्राप्त हो सकता है।
शरीर संचार की समस्त गतिविधियां तथा मस्तिष्कीय उड़ान रक्त, मांस जैसे साधनों से नहीं उस विद्युत प्रवाह के द्वारा संभव होती हैं जो जीवन तत्व बनकर रोम-रोम में संव्याप्त हैं। इसी को मानवीय विद्युत कहते हैं। ओजस्वी, मनस्वी और तेजस्वी उसी विशेषता से सुसम्पन्न लोगों को कहते हैं। प्रतिभाशाली प्रगतिशील लोगों और शूरवीर साहसी लोगों में इसी क्षमता की बहुलता पाई जाती है।
यह जैव विद्युत उस भौतिक बिजली से भिन्न है जो विद्युत यन्त्रों में प्रयुक्त होती है। बैटरी, मैग्नेट, जनरेटर आदि का स्पर्श करने पर बिजली का झटका लगता है। उसके सम्पर्क से बल्ब, पंखे, रेडियो, हीटर आदि काम करने लगते हैं। जीव विद्युत का स्तर भिन्न है इसलिए वह यह कार्य तो नहीं करती पर अन्य प्रकार के प्राणी की अति महत्वपूर्ण आवश्यकता पूरी करने वाले कार्य सम्पन्न करती देखी जा सकती है।
कोशिकाओं की आन्तरिक संरचना में एक महत्वपूर्ण आधार है—माईटो कोन्द्रिया। इसे दूसरे शब्दों में कोशिका का पावर हाउस—विद्युत भण्डार कह सकते हैं। भोजन, रक्त, मांस, अस्थि आदि से आगे बढ़ते-बढ़ते अन्ततः इसी संस्थान में जाकर ऊर्जा का रूप होता है। यह ऊर्जा ही कोशिका को सक्रिय रखती है और उनकी सामूहिक सक्रियता जीव संचालक के रूप में दृष्टिगोचर होती है। इस ऊर्जा को लघुत्तम प्राणांश कह सकते हैं। काय-कलेवर में इसका एकत्रीकरण महाप्राण कहलाता है और उसी को ब्रह्माण्डव्यापी चेतना विश्व प्राण या विराट् प्राण के नाम से जानी जाती है। प्राणांश की लघुत्तम ऊर्जा इकाई कोशिका के अन्तर्गत ठीक उसी रूप में विद्यमान है जिसमें कि विराट् प्राण गतिशील है। बिन्दु-सिन्धु जैसा अन्तर इन दोनों बीच रहते हुए भी वस्तुतः वे दोनों अन्योन्याश्रित हैं। कोशिका के अन्तर्गत प्राणांश के घटक परस्पर संयुक्त न हों तो महाप्राण का अस्तित्व न बने। इसी प्रकार यदि विराट् प्राण की सत्ता न हो तो भोजन पाचन आदि का आधार न बने और वह लघु प्राण जैसी विद्युतधारा का संचार भी सम्भव न हो।
इसी मानवी विद्युत का ही यह प्रभाव है जो एक दूसरे को आकर्षित करता है। उभरती आयु में यह बिजली काय आकर्षण की भूमिका बनती है, पर यदि उसका सदुपयोग किया जाय तो बहुमुखी प्रतिभा, ओजस्विता, प्रभावशीलता के रूप में विकसित होकर कितने ही महत्वपूर्ण कार्य कर सकती है। ऊर्ध्व रेता, संयमी, ब्रह्मचारी लोग अपने ओजस् को मस्तिष्क में केन्द्रित करके उसे ब्रह्मवर्चस के रूप में परिणत करते हैं। विद्वान दार्शनिक, वैज्ञानिक, नेता, वक्ता, योद्धा, योगी, तपस्वी जैसी विशेषताओं से सम्पन्न व्यक्तियों के संबंध में यही कहा जा सकता है कि उन्होंने अपने ओजस् का प्राण तत्व का अभिवर्धन, नियन्त्रण एवं सदुपयोग किया है। यों यह शक्ति किन्हीं-किन्हीं में अनायास भी उभर पड़ती देखी गई है और उसके द्वारा उन्हें कुछ अद्भुत काम करते भी पाया गया है।
जर्मनी का अधिनायक हिटलर जब रुग्ण होता तो उसे सुयोग्य डाक्टरों की अपेक्षा एक ‘नीम हकीम’ किस्टन का सहारा लेना पड़ता। उसकी उंगलियों में जादू था। दवादारू वह कम करता था, हाथ का स्पर्श करके दर्द को भगाने की उसमें जादुई क्षमता प्राप्त थी। सन् 1898 में वह इस्टोनिया में जन्मा प्रथम विश्व युद्ध के बाद वह फिनलेण्ड नागरिक माना, पीछे उसने मालिस करके रोगोपचार करने की कला सीखी अपने कार्य में उसका कौशल इतना बड़ा कि उसे जादुई चिकित्सक कहा जाने लगा हिटलर ही नहीं, उसके जिगरी दोस्त हिमसर तक को उसने समय-समय पर अपनी चिकित्सा से चमत्कृत किया और भयंकर रुग्णता के पंजे से छुड़ाया। क्रिस्टन ने अपने परिचय और प्रभाव का उपयोग करके हिलटर के मृत्युपाश में जकड़े हुए लगभग एक लाख यहूदियों का छुटकारा कराया।
योग-साधना का उद्देश्य इस चेतना विद्युत शक्ति का अभिवर्धन करना भी है। इसे मनोबल, प्राणबल और आत्मबल भी कहते हैं। संकल्प शक्ति और इच्छा शक्ति के रूप में इसी के चमत्कार देखे जाते हैं।
अध्यात्म शास्त्र में प्राण-विद्या का एक स्वतन्त्र प्रकरण एवं विधान हैं इसके आधार पर साधनारत होकर मनुष्य इस प्राण विद्युत की इतनी अधिक मात्रा अपने में संग्रह कर सकता है कि उस आधार पर अपना ही नहीं अन्य अनेकों का भी उपकार, उद्धार कर सके।
योग-साधना इस मानवी विद्युत भण्डार को असाधारण रूप से उत्तेजित करती और उभारती है। यदि सही ढंग से साधना की जाय तो मनुष्य प्राणवान और ओजस्वी बनता है। उपार्जित प्राण विद्युत की ऊर्जा के सहारे स्वयं कितनी ही अद्भुत सफलताएं प्राप्त करता है और दूसरों को सहारा देकर ऊंचा उठाता है।
प्राण विद्युत के सम्बन्ध में शरीर विज्ञानी इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि पेशियों में काम करने वाली स्थिति तक ऊर्जा-पोटोन्शियल का तथा उसके साथ जुड़े रहने वाले आवेश—इन्टेन्सिटी का जीवन संचार में बहुत बड़ा हाथ है। इन विद्युत धाराओं का वर्गीकरण तथा नामकरण—सीफेलो ट्राइजमिल न्यूनैलाजिया की व्याख्या चर्चा के साथ प्रस्तुत किया जाता है। ताप विद्युत संयोजन—थर्मोलैरिक कपलिंग—के शोधकर्ता अब इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मानव शरीर का सारा क्रिया कलाप इसी विद्युतीय संचार के माध्यम से गतिशील रहता है।
मनुष्य शरीर में बिजली काम करती है, यह तथ्य सर्व विदित है। इलैक्ट्रो कर्डियो ग्राफी तथा इलैक्ट्रो इनसिफैलो ग्राफी द्वारा इस तथ्य को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। हमारी रक्त नलिकाओं में लौह युक्त हैमोग्लोबिन भरा पड़ा है। लौह चूर्ण और चुम्बक जिस प्रकार परस्पर चिपके रहते हैं उसी प्रकार हमारी जीवन सत्ता भी जीव कोशों को परस्पर सम्बद्ध किये रहती है। उनकी सम्मिश्रित चेतना से वे समस्त क्रिया कलाप चलते हैं जिन्हें हम जीवन संचार व्यवस्था कहते हैं।
शरीर में जो चमक, स्फूर्ति, ताजगी, उमंग, साहस, उत्साह, निष्ठा, तत्परता जैसी विशेषताएं दिखाई पड़ती हैं—वे प्राण ऊर्जा की ही प्रतिक्रियाएं हैं। मनस्वी, ओजस्वी, तेजस्वी, तपस्वी आदि शब्द इसी क्षमता का बाहुल्य व्यक्त करते हैं। ऐतिहासिक महामानवों में यही विशेषता प्रधान रूप से रही है।
ऊर्जा के सहारे ही यंत्रों का संचालन होता है। मनुष्य शरीर भी एक यंत्र है। उसके संचालन में जिस विद्युत की आवश्यकता पड़ती है उसे प्राण कहते हैं। प्राण एक अग्नि है जिसे ज्वलंत रखने के लिए आहार की आवश्यकता पड़ती है। आधुनिक वैज्ञानिक ने इसे ‘जीव विद्युत’ नाम दिया है।
निद्रा मात्र थकान मिटाने की, विश्राम प्रक्रिया मात्र नहीं है। वैज्ञानिक अनुसंधानों के अनुसार निद्रा में मस्तिष्क का सचेतन भाग अचेतन की स्थिति में इसलिए जाता है कि उस स्थिति में अन्तरिक्ष में प्रवाहित रहने वाली विद्युत धाराओं में से अपने उपयोग का अंश संग्रह सम्पादित कर सकने का अवसर मिल जाय ‘एरियल’ रेडियो तरंगों को पकड़ता है। निद्रावस्था में हमारा अचेतन मस्तिष्क उसी स्थिति का बन जाता है और आकाश से इतनी विद्युतीय खुराक प्राप्त कर लेता है जिससे शारीरिक और मानसिक क्रिया कलापों का संचालन ठीक प्रकार संभव हो सके। निद्रा की पूर्ति न होने पर शारीरिक और मानसिक स्थिति में जो गड़बड़ी उत्पन्न होती है उसे अभीष्ट मात्रा में विद्युतीय खुराक न मिलने को चेतनात्मक ‘वुभुक्षा’ कहते हैं। इसके बने रहने पर मनुष्य विक्षिप्त या अर्ध विक्षिप्त बन जाता है। पागलपन छा जाने से पूर्व प्रायः कुछ दिन पहले से अनिद्रा रोग उत्पन्न होता है। अनिद्रा में इस विद्युतीय आहार की ही कमी पड़ती है।
ठीक इससे विपरीत इस शक्ति का विकास होने अर्थात् सूक्ष्म शरीर के बलवान् होने पर वह सारी क्षमतायें उपार्जित हो सकती हैं, वह ऋतम्भरा प्रज्ञा जागृत की जा सकती है जिससे बिना किसी भौतिक माध्यम से भी व्यक्ति दूरवर्ती वस्तुओं, सम्बन्धियों का ज्ञान भविष्यवाणी, ऋतुओं का पूर्वानुमान सच सच कर सके। यह सारे क्रिया कलाप चेतना के अति गहन स्तर पर सम्पादित होते हैं। इस बात को तो कोई भी व्यक्ति प्राणायाम के थोड़े समय के अभ्यास से भी ज्ञात कर सकता है कि जैसे जैसे प्राणायाम का अभ्यास बढ़ता है बुद्धि तीक्ष्ण होती है और गहरी निद्रा आती है। गहन निद्रा का एक गुण शारीरिक हलकापन और प्रसन्नता भी है दूसरे इसी स्तर पर भविष्यदर्शी स्वप्न भी दिखाई देते हैं।
‘नोवोत्सी न्यूज एजेन्सी ने—सोते समय ‘अंग्रेजी पढ़ाने का परीक्षण’ शीर्षक से समाचार छापा है। समाचार पीछे पहले शीर्षक पढ़कर ही पाठक चौंक पड़ेंगे। जागृत अवस्था में कई बार पुस्तकें पढ़ते हैं, अध्यापक पाठ याद कराते हैं तो भी विद्यार्थियों को एक ही रोना बना रहता है, पाठ याद नहीं होता। फिर सोते हुए व्यक्ति को पढ़ाना तो असम्भव बात है। इसी बात को हम यह कहते हैं कि आत्मा इतनी संवेदनशील है कि अपने सूक्ष्म प्रकाश-शरीर से वह सोते-जागते किसी भी अवस्था में पढ़ती और ज्ञान सम्पादन करता रह सकता है। कोई सामर्थ्यवान् व्यक्ति अपने विचार, ज्ञान, प्रज्ञायें और सन्देश कैसी भी अवस्था में किसी और को भी दे सकता है। तब तो लोग यह बात न मानते पर मास्को के पास दूबना स्थान पर विज्ञान इस बात को प्रत्यक्ष सत्य सिद्ध करने में लगा हुआ है, लगभग एक हजार लोगों को सोते समय गहरी निद्रा में अंग्रेजी सिखाई जा रही है। प्रयोग कर्त्ताओं का कहना है कि ये लोग 40 दिन में सोते-सोते ही अंग्रेजी सीख जायेंगे।
इस प्रणाली के अन्तर्गत गहरी नींद में सोने वाले लोग ही भाषा शिक्षण के लिये छांटे जाते हैं, उन्हें सोते समय भाषा के टेप-रिकार्ड सुनाये जाते हैं। वे नींद में ही व्याकरण के नियम और शब्द और उनका प्रयोग सीख लेते हैं। अब तक छुपे परीक्षण बहुत सफल हुये हैं।
एक ओर यह प्रयोग और दूसरी ओर वैज्ञानिकों की निरन्तर की शोध दोनों प्रक्रियाओं ने यह सिद्ध करना प्रारम्भ कर दिया है कि स्थूल शरीर में सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व और उस सूक्ष्म शरीर में मन आदि सम्पूर्ण इन्द्रियों व चेष्टाओं को पाया जाना असम्भव नहीं।
इन घटनाओं के कारण जो अनेक देशों एवं अनेक लोगों के साथ घटी हैं, वैज्ञानिकों का ध्यान भी इस ओर जाने लगा है। विज्ञान भी यह सोचने के लिए विवश हुआ है कि क्या स्थूल शरीर से परे भी मनुष्य का कोई अस्तित्व है, जो उसके संदेशों को सुदूर क्षेत्रों में पहुंचाता है। तथा ऐसे-ऐसे काम कर डालता है, जो शरीर द्वारा ही किये जा सकते हैं। बिना किसी स्थूल माध्यम के एक मनुष्य के विचारों ओर संदेशों को पहुंचाने की इस प्रक्रिया का नाम है, परामानसिक संचार (टैलीपैथी)। रूप के लेनिनग्राड विश्वविद्यालय में फिजियोलौजी विभाग के अध्यक्ष प्रो. लियोनिद वासिलयेव ने अभी कुछ समय पूर्व एक अनूठा प्रयोग किया है। स्मरणीय रूस का शासन-तन्त्र, धर्म, ईश्वर और आत्मतत्व की मान्यता की न केवल अनावश्यक मानता है वरन् उसे अफीम भी बताता है। फिर भी इस तरह की घटनाओं के कारण वास्तविकता की ओर उनका ध्यान गये बिना नहीं रहा। प्रो. वासिलयेव ने टेलीपैथी द्वारा कई मील दूर स्थित एक प्रयोगशाला में कार्यरत अनुसंधानकर्ताओं को सम्मोहित कर दिया और वे लोग जो प्रयोग कर रहे थे, उनसे वह प्रयोग छुड़वा कर किसी दूसरे प्रयोग में लगा दिया। अनुसंधानकर्त्ता वैज्ञानिक अनजाने ही परवश से होकर वासिलयेव के सन्देशों का पालन करने लगे और उन्हें यह भान तक नहीं हुआ कि वे क्या कर रहे हैं। इस प्रयोग के द्वारा प्रो. वासिलयेव इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को केवल अपने संकल्पों के द्वारा ही प्रभावित कर सकता है और उसे अपना आज्ञानुवर्ती बना लेता है। इसके लिए न किसी भौतिक माध्यम की आवश्यकता होती है तथा न ही किसी और साधन की। यहां तक कि स्थान की दूरी भी इस प्रक्रिया में कोई अवरोध उत्पन्न नहीं करती।
मनुष्य एक हंसने, बोलने, सोचने और निर्णय निर्धारण करने वाला कल-कारखाना है। किसी भी कारखाने को चलाने के लिए ‘शक्ति’ की जरूरत पड़ती है। इसे तेल, भाप, कोयला, बिजली आदि के सहारे ताप रूप में प्राप्त किया जाता है। प्राणियों द्वारा धकेले जाने पर भी यह शक्ति प्राप्त होती है। शरीर का कारखाना भी शक्ति चाहता है। इसके लिए उसे ईश्वर का दिया हुआ स्वसंचालित यन्त्र प्राप्त है। अन्न, जल और वायु के ईंधन से यह भट्टी गरम भर होती है, इससे आगे का सब कुछ अपने आप चलता है। पेट में पाचक रासायनिक द्रव्य अन्न से नहीं अपने परम्परागत शक्ति स्रोतों से उत्पन्न होते हैं। आहार तो उन स्रोतों को धकेलने वाली गर्मी भर उत्पन्न करते हैं। यों चेतना का केन्द्र मस्तिष्क माना गया है और उसका पोषक रक्त संस्थान हृदय कहा गया है। हृदय को सामग्री पेट से मिलती है। पेट को भरना मुंह का काम है। मुंह से लिए साधन हाथ जुटाते हैं। यह चक्र तो चलता ही है, पर असल में पूरा शरीर ही शक्ति भण्डार है। यह शक्ति असामान्य विद्युत स्तर की है। असामान्य इस अर्थ में है कि वह भौतिक बिजली की तरह अन्धी दौड़ नहीं लगती वरन् सामने वाले को देखकर ही अपनी गतिविधियां फैलाती, सिकोड़ती है।
मानवी विद्युत हर व्यक्ति की अपनी विशिष्ट संपत्ति है। वह इसी के आधार पर ऐसे अनुदान देता है—ऐसे आदान-प्रदान करता है जो पैसे या किसी वस्तु के आधार पर उपलब्ध नहीं हो सकते। एक व्यक्ति से दूसरा प्रभाव ग्रहण करता है यह तथ्य सर्वविदित है। संगति की महिमा गाई गई है। कुसंग के दुष्परिणाम और सत्संग के सत्परिणामों को सिद्ध करने वाले उदाहरण हर जगह पाये जाते हैं। यह प्रभाव मात्र वार्तालाप व्यवहार, लोभ या दबाव से उतना नहीं पड़ता जितना मनुष्य के शरीर में रहने वाली बिजली के आदान-प्रदान से सम्भव होता है।
ताप और बिजली का गुण है कि जहां अनुकूलता होती है वह वहां अपना विस्तार करती और प्रभाव क्षेत्र बढ़ाती है। प्राणवान शक्तिशाली व्यक्तित्व अपने से दुर्बलों को प्रभावित करते हैं। यों दुर्बल भी अपनी न्यूनता के कारण समर्थों में सहज करुणा उत्पन्न करते हैं और उन्हें कुछ देने के लिए विवश करते हैं। बच्चे को देखकर माता की छाती से दूध उतरने लगता है—मन हुलसने लगता है इस प्रकार शक्तिवान अपने से दुर्बलों को अनुदान देकर घाटे में नहीं रहते। उदारताजन्य आत्म-सन्तोष से उनकी क्षति पूर्ति भी हो जाती है। दूध पिलाने में माता को प्रत्यक्षतया घाटा ही है, पर वात्सल्यजन्य तृप्ति से उसकी भी भावनात्मक पूर्ति हो जाती है।
भावोद्रेक प्राणवान होने का ही लक्षण है ऐसे व्यक्ति शरीर से दुर्बल भी दिखाई दें तो भी उनका आत्मबल सब प्रकार से बढ़ा चढ़ा हुआ होता है और वे उन मोटे ताजे लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक नीरोग और सुखी होते हैं जो मांस की दृष्टि से तो बहुत भारी होते हैं पर प्राणवान् न होने के कारण न तो नीरोग रह पाते हैं न ही दूसरों के भावात्मक स्पर्श का आनन्द ले पाते हैं।
शरीर बल, बुद्धि बल, धन बल, शस्त्र बल, सत्ता बल आदि कितनी ही सामर्थ्यों के लाभ सर्वविदित हैं। यदि आत्मबल की क्षमता एवं उपयोगिता का भी लोगों को पता होता तो वे जानते कि यह उपलब्धि भी इन सबसे कम नहीं, वरन् कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। आत्मशक्ति न केवल व्यक्तित्व को तेजस्वी बनाती है वरन् बाह्य जगत में लोगों को प्रभावित करने—उनका सहयोग सम्पादन करने में समर्थ रहती है। कठिन कामों को सरलता पूर्वक सम्पन्न करने की विशेषता जिनमें देखी जाती है उनकी प्रमुख विशेषता यही आन्तरिक प्रतिभा होती है, जिस सर्वतोमुखी सफलताओं का आधार कह सकते हैं। हमारे प्रयत्न यदि उस क्षमता को प्राप्त करने की दिशा में चल पड़े तो सचमुच हम सच्चे अर्थों में सामर्थ्यवान कहे जा सकने योग्य बन सकते हैं।