Books - पराक्रम और पुरुषार्थ से ओत-प्रोत यह मानवी सत्ता
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Language: HINDI
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प्रतिकूलताएं वस्तुतः विकास में सहायक
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संसार के अधिकांश व्यक्ति परिस्थितियों का रोना रोते रहते हैं और सोचते हैं कि अमुक तरह की अनुकूलताएं मिलें तो वे आगे बढ़ने का प्रयास करे। हर तरह की अनुकूलता का सुअवसर उनके लिए जीवन पर्यन्त नहीं आता और वे पिछड़ी अविकसित स्थिति में ही पड़े रहते हैं। जबकि इसके विपरीत साहसी पुरुषार्थी परिस्थितियों के अपने पक्ष में होने का इन्तजार नहीं करते, अपने बाहुबल एवं बुद्धिबल के सहारे वे स्वयं अपने लिए परिस्थितियां गढ़ते हैं। समय श्रम एवं बुद्धि रूपी सम्पदा के सदुपयोग द्वारा वे सफलता के शिखर पर जा चढ़ते हैं। सामान्य व्यक्ति उन सफलताओं को देखकर आश्चर्य चकित रह जाता है और आकस्मिक दैवी वरदान के रूप में स्वीकार करता है जबकि वे स्वयं के पुरुषार्थ, श्रम और समय के सदुपयोग के बलबूते अर्जित की गई होती हैं।
दूसरों के सहयोग से एक सीमा तक ही आगे बढ़ा जा सकता है। वास्तविक प्रयास तो स्वयं ही करना पड़ता है। अनुकूलताओं का भी एक सीमा तक ही महत्व है। असली सम्पदा तो हर व्यक्ति को समान रूप से परमात्मा द्वारा प्रदत्त की गई है। शरीर बुद्धि एवं समय लगभग सबको एक समान मिला है। शारीरिक एवं बौद्धिक दृष्टि से मनुष्य मनुष्य के बीच थोड़ा अन्तर हो भी सकता है किन्तु समय रूपी सम्पदा में तो राई रत्ती भर का भी अन्तर नहीं है। 24 घण्टे हर व्यक्ति को मिले हैं। यही मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी सम्पदा है। यह वह खेत है जिसमें पुरुषार्थ का बीजारोपण करके अनेकों प्रकार के सफलता रूपी फल प्राप्त किये जाते हैं।
अनुकूलताएं आगे बढ़ने के लिए किन्हीं-किन्हीं को ही जन्मजात प्राप्त होती हैं। अधिकांश तो प्रतिकूलताओं में ही आगे बढ़े और सफलता के उस शिखर पर जा चढ़े जो सामान्य व्यक्ति के लिए असम्भव प्रतीत होती हैं। ऐसे शूरवीरों-जीवट सम्पन्न साहसियों के समय अन्ततः परिस्थितियां भी नतमस्तक होती हैं।
बहुत समय पूर्व ग्रीस में गुलाम प्रथा का आतंक चरम सीमा पर था। गुलामों की खराद बिक्री का कार्य पशुओं की भांति चलता था। उनके साथ व्यवहार भी जानवरों की भांति होता था। गुलामों के विकास शिक्षा स्वास्थ्य की बातों पर ध्यान देने की तोबात ही दूर थी, यदि कोई गुलाम पढ़ने लिखने की बात सोचता था तो इसे अपराध माना जाता था। ऐसी ही विषम प्रतिकूल एवं आतंक भरी परिस्थितियों में एक गुलाम के घर जन्मे एक किशोर के मन में ललित कला सीखने की उत्कट इच्छा जागृत हुई। ग्रीस में यह कानून बन चुका था कि कोई भी गुलाम स्वाधीन व्यक्ति की भांति ललित कलाओं का अध्ययन नहीं कर सकता था। जबकि स्वाधीनों को हर प्रकार की सुविधा थी और उन पर किसी प्रकार की रोक-टोक न थी। ‘क्रियो’ का किशोर हृदय इस स्थिति को देखकर रोता रहता था। डर था कि उसकी कलाकृति पकड़ी गई तो कठोर दण्ड मिलेगा। सहयोगी के नाम पर एकमात्र उसकी बहिन उसे निरन्तर प्रोत्साहित किया करती थी और कहती थी— ‘‘भैया डरने की आवश्यकता नहीं तुम्हारी कला में शक्ति होगी तो स्थिति अवश्य बदलेगी, तुम अपनी आराधना में लगे भर रहो।’’ बहिन की प्रेरणा उसमें समय-समय पर शक्ति संचार करती थी। कला देवता की आराधना के लिए बहिन ने अपने टूटे-फूटे मकान के नीचे तहखाने में भाई के लिए सारी आवश्यक वस्तुयें जुटा दीं। भोजन शयन की व्यवस्था भी उसके लिए तहखाने में ही थीं। क्रियो ने अपनी समूची कलाकृति संगमरमर की एक मूर्ति बनाने में झोंक दी।
उन्हीं दिनों ग्रीस के एथेन्स नगर में विशाल कला प्रदर्शनी आयोजित हुई। पेरी क्लाज नामक विद्वान प्रदर्शनी के अध्यक्ष नियुक्त किये गये। एस्पेसिया, फीडीयस, दार्शनिक सुकरात, साफोक्लीज जैसे विद्वान भी कला की प्रदर्शनी में आमन्त्रित थे। ग्रीस के सभी प्रख्यात कलाकारों की कलाकृतियां वहां आयी थीं। एक-एक करके सभी कलाकृतियों के ऊपर से चादर हटा दी गई। दर्शकों को ऐसा लगा जैसे मानो ललित कलाओं के देवता अपोलो ने अपने हाथों मूर्ति को गढ़ा हो। उसको बनाने वाला कौन है, सभी का एक ही प्रश्न था? कोई उत्तर न मिला। लोग मूर्तिकार को देखने के लिए आतुर हो रहे थे। इतने में स्थानीय आयोजक एक लड़की को पकड़कर लाये जिसके कपड़े जरा-जीर्ण हो रहे थे, और बाल बिखरे वे। रक्षकों ने बताया कि यह लड़की कलाकार का नाम जानती है किन्तु बताती नहीं। स्थानीय कानून के अनुसार गुलाम व्यक्ति कला में कोई रुचि नहीं ले सकता। लड़की की चुप्पी पर उसे जेलखाने में डाल देने का आदेश हुआ। इतने में एक किशोर सामने आया और ‘क्रियो’ नाम से अपना परिचय दिया और दृढ़ता के साथ बोला मैंने कला को भगवान मानकर पूजा की है, आपका कानून यदि अपराध मानता है तो हम अपराधी हैं।
किशोर की दृढ़ता, अल्पायु में कला के प्रति अपार लगन और कलाकृति के अनुपम सौन्दर्य ने अध्यक्ष पेरी क्लीज को मुग्ध कर दिया कानून की कठोरता हृदय को द्रवीभूत होने से रोक न सकी और पेरी क्लीज ने घोषणा की ‘क्रियो’ दण्ड का नहीं सम्मान और पुरस्कार का पात्र है। हमें यह कानून बदलना होगा जिससे कला देवता का अपमान होता हो। उस दिन से पेरी क्लीज के प्रयत्नों से कानून बदला गया। गरीबी और विपन्न परिस्थितियों में भी किशोर कलाकार की कला के प्रति अपार लगन ध्येय के प्रति दृढ़ निष्ठा ने न केवल उसे विश्व के मूर्धन्य कलाकारों की श्रेणी में पहुंचा दिया वरन् उस कानून में भी परिवर्तन करने के लिए बाध्य किया जो अमानवीय था।
सच तो यह है कि प्रतिकूलताएं मानवी पुरुषार्थ की परीक्षा लेने आती हैं। और व्यक्तित्व भी अधिक प्रखर परिपक्व विपन्न परिस्थितियों में ही बनता है। लायोन्स नगर में एक भोज आयोजित था। नगर के प्रमुख विद्वान साहित्यकार एवं कलाकार आमन्त्रित थे। प्राचीन ग्रीस की पौराणिक कथाओं के चित्रों के सम्बन्ध में उपस्थित विद्वानों के बीच बहस छिड़ गयी और विवादों का रूप लेने लगी। गृह स्वामी ने इस स्थिति को देखकर नौकर को बुलाया और सम्बन्धित विषय में विवाद को निपटाने के लिए कहा सभी को आश्चर्य हुआ कि भला नौकर क्या समाधान देगा। साथ ही उन्हें अपनी विद्वता का अपमान भी अनुभव हो रहा था। किन्तु नौकर की विश्लेषणात्मक तार्किक विवेचना को सुनकर सभी हतप्रभ रह गये और तत्काल ही अपनी इस गलती का ज्ञान हुआ कि विद्वता प्रतिभा किसी व्यक्ति विशेष की बपौती नहीं है।
नौकर ने सम्बन्धित विषय पर जो तर्क तथ्य प्रस्तुत किये उससे विवाद समाप्त हुआ। एक विद्वान ने नौकर से पूछा ‘महाशय आपने किस विद्यालय में शिक्षा प्राप्त की?’ नौकर ने बड़ी ही नम्रता के साथ उत्तर दिया। श्रीमान मैंने कई स्कूलों में शिक्षा प्राप्त की है किन्तु मेरा सबसे अधिक प्रभावशाली शिक्षण विपत्ति रूपी स्कूल में हुआ है।’ यह तेजस्वी बालक ही आगे चलकर ‘जीन जेक रूसो’ के नाम से प्रख्यात हुआ जिसकी क्रान्तिकारी विचारधारा ने प्रजातन्त्र को जन्म दिया।
प्रसिद्ध विद्वान विलियम कॉवेट अपनी आत्म कथा में लिखा है कि ‘प्रतिकूलताएं मनुष्य के विकास में सबसे बड़ी सहचरी है। आज में जो कुछ भी बन पाया हूं विपन्न परिस्थितियों के कारण ही सम्भव हो सका है। जीवन की अनुकूलताएं सहज ही उपलब्ध होती तो मेरा विकास न हो पाता।’ कावेट के आरम्भिक दिन कितनी कठिनाइयों एवं गरीबी में बीते, यह उसके जीवन चरित्र को पढ़ने पर पता चलता है। वह लिखता है कि ‘‘आठ वर्ष की अवस्था में मैं हल चलाया करता था। ज्ञान अर्जन के प्रति अपार रुचि थी। घर से लन्दन भाग गया तथा सेना में भर्ती हो गया। रहने के लिए एक छोटा सा कमरा मिला जिनमें चार अन्य सैनिक भी रहते थे। जो पैसा मिलता था उससे किसी प्रकार दो समय की रोटी जुट जाती थी। मोमबत्ती और तेल खरीदने के लिए पैसा नहीं बचता था। अध्ययन में गहरी रुचि थी। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए मैंने आधा पेट भोजन करना आरम्भ किया। जो पैसा बचता था, उससे स्याही मोमबत्ती कागज खरीद कर लाता था। स्थानीय लाइब्रेरी से पुस्तकें अध्ययन के लिए मिल जाती थीं। कमरे के अन्य सिपाहियों के हंसने बोलने से मुझे निरन्तर बाधा बनी रहती थी किन्तु इसके बावजूद भी मैंने अध्यवसाय का क्रम सतत जारी रखा। समय को कभी व्यर्थ न गंवाया। आज उसी का प्रतिफल है कि मैं वर्तमान स्थिति तक पहुंच सका हूं। जीवन के संघर्षों से मैं कभी घबड़ाया नहीं वरन् उनको विकास का साधन माना।
प्रख्यात विचारक ‘टाल्पेज’ कहा करता था ‘युवको ! क्या तुम्हें कठिनाइयों को संघर्षों को देखकर डर लगता है? क्या गरीबी तुम्हारे विकास मार्ग में बाधक है? तुम्हारा यह सोचना गलत है। सफलताओं के शिखर पर जा चढ़ने वाले विद्वानों समृद्धों महापुरुषों के जीवन का अध्ययन करो। तुम पाओगे कि उनमें से अधिकांश तुमसे भी गई गुजरी स्थिति में थे किन्तु उन्होंने आत्म विश्वास नहीं खोया। अपने श्रम पुरुषार्थ एवं समय के सदुपयोग द्वारा वे असामान्य स्थिति में जा पहुंचे। देखो सुनहरा दिन तुम्हारे अभिनन्दन के लिए सफलताओं का हार लिए खड़ा है। जड़ता छोड़ो चैतन्यता अपनाओ। तुम्हारा निराशावादी चिन्तन ही विकास के अवरोध उत्पन्न कर रहा और आगे बढ़ने से रोक रहा है। तुम गरीब नहीं समृद्ध हो। परमात्मा ने तुम्हें अद्भुत शरीर, विलक्षण मस्तिष्क एवं समय की अपार पूंजी दी है उसकी तुलना किसी भौतिक वस्तु से नहीं की जा सकती है। इसका सदुपयोग करो सफलताएं तुम्हारे चरणों में झुकेंगी।
लन्दन की एक गन्दी बस्ती में एक बालक रहता था। उसका अपना कोई नहीं था। अखबार बेचकर अपना गुजारा करता था। सात वर्ष की अल्पायु से ही एक जिल्द साज की दुकान में काम करने लगा। एक दिन एनसाइक्लोपीडिया ग्रन्थ की जिल्द बांधते समय उसकी निगाह विद्युत सम्बन्धी एक लेख पर पड़ी। मालिक से पुस्तक को पढ़ने की अनुमति मांगी। सम्बन्धित लेख को उसने एक ही रात में आद्योपान्त पढ़ डाला। जिज्ञासा बढ़ी। प्रयोग एवं परीक्षण के लिए उसने विद्युत की छोटी-मोटी आवश्यक वस्तुएं एकत्रित करनी आरम्भ कर दीं। बालक की अभिरुचि का देखकर एक ग्राहक बहुत प्रभावित हुआ। उसने बताया कि भौतिक शास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान हम्फ्री डेवी का भाषण उसी दिन होने वाला है। दुकान के मालिक से छुट्टी मांगकर वह भाषण सुनने चल पड़ा। बालक ने ध्यान पूर्वक सारी बातें सुनी और आवश्यक नोट्स भी लिए उसने हम्फ्री डेवी के भाषण की समीक्षा करते हुए अपने परामर्श लिख भेजे। हम्फ्री डेवी अत्यधिक प्रभावित हुए। उन्होंने यन्त्रों को व्यवस्थित रूप से रखने के लिए बच्चे को नौकर के रूप में रख लिया। बालक नौकरी और सहयोगी वैज्ञानिक दोनों की ही भूमिका निभाता रहा। दिन भर कामों में व्यस्त रहता और रात को अध्ययन करता। यही बालक अपने मनोयोग अध्यवसाय एवं पुरुषार्थ के बलबूते प्रसिद्ध वैज्ञानिक बना। भौतिक विज्ञान के जगत में माइकेल फैराडे और उसके प्रसिद्ध आविष्कारों के विषय में आज सभी जानते हैं।
अभाव, प्रतिकूलताएं, विपन्नताएं वस्तुतः अभिशाप उनके लिए हैं जो परिस्थितियों को ही सफलता असफलता का कारण मानते हैं। अन्यथा आत्म विश्वास एवं लगन के धनी ध्येय की प्रति दृढ़ व्यक्तियों के लिए तो वे वरदान सिद्ध होती हैं। भट्टी में तपने के बाद सोने में निखार आता है। प्रतिकूलताओं से जूझने से व्यक्तित्व निखरता और परिपक्व बनता है। गिने चुने अपवादों को छोड़कर विश्व के अधिकांशतः महापुरुषों का जीवन चरित्र पढ़ने पर यह पता चलता है कि वे अभावग्रस्त परिस्थितियों में पैदा हुए पले। पर उन्होंने जीवन की विषमताओं को वरदान माना संघर्षों को जीवन बनाने तथा पुरुषार्थ को जगाने का एक सशक्त माध्यम समझा, फलतः वे प्रतिकूलताओं को चीरते हुए सफलता के शिखर पर जा चढ़े। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि परिस्थितियां मानवी विकास में बाधक नहीं बन सकतीं अवरोध प्रचण्ड पुरुषार्थ के समक्ष टिक नहीं सकते।
दार्शनिक सुकरात का जन्म एक मूर्तिकार के घर हुआ। उसकी मां दाई का काम करती थी माता-पिता के अनवरत श्रम से किसी प्रकार घर का खर्च चल जाता था कुछ ही दिनों बाद पिता की छत्र छाया उठ गयी। मां के साथ गरीबी के दिन व्यतीत करते हुए भी वह अध्ययन में लगा रहा। मेहनत मजदूरी करते हुए भी वह अपने अध्यवसाय में निरत रहा। घर का खर्च चलाने का भी अतिरिक्त दायित्व बाल्यावस्था में ही उसके ऊपर आ गया पर गरीबी उसके विकास में बाधक नहीं बन सकी और अपने पुरुषार्थ एवं मनोयोग से एक दिन वह दर्शन शास्त्र का प्रकाण्ड विद्वान बना।
वियतनाम के राष्ट्रपिता ‘होचीमिन्ह’ को बचपन में ही अपने माता-पिता से अलग होना पड़ा। बचपन से लेकर युवावस्था तक वे संघर्ष करते रहे। फ्रांसीसी शासन का विरोध करने के अपराध में उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। जेल से निकलते ही वियतनाम की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष करने लगे। इसके लिए उन्हें जेल में ही कितनी बार कठोर यातनाएं सहनी पड़ी पर अन्ततः अपने ध्येय में सफल हुए। देश भक्ति के अनुपम त्याग के कारण उन्हें महात्मा गांधी की भांति राष्ट्रपिता का सम्मान मिला। शेक्सपियर की तुलना संस्कृत के महाकवि कालिदास से की जाती है। वह एक कसाई का बेटा था। परिवार की गाड़ी चलाने के लिए आरम्भ में उसे भी यही धन्धा करना पड़ा पर अपने पुरुषार्थ के कारण वह अंग्रेजी का सर्वश्रेष्ठ कवि तथा नाटककार बना।
कार्लमार्क्स का जन्म गरीबी में हुआ। मरते दम तक विपन्नताओं ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। पर घोर गरीबी में भी वह वैचारिक साधना करता रहा। एक दिन वह समाज की नई व्यवस्था ‘साम्यवाद’ का प्रणेता बना। जीवन भर संघर्षरत रहते हुए भी उसने ‘कैपिटल’ जैसे विश्व विख्यात ग्रन्थ की रचना की। समानता एवं न्याय के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले अब्राहम लिंकन को अनेकों बार असफलताओं का मुंह देखना पड़ा। एक दुकान खोली तो उसका दिवाला निकल गया। किसी मित्र के साथ साझेदारी में व्यापार प्रारम्भ किया पर उसमें घाटा उठाना पड़ा। जैसे-तैसे वकालत पास की पर वकालत चल नहीं सकी। पत्नी जीवन भर उनकी विरोधी बनी रही। चार बार चुनाव में हारे पर हर असफलता को शिरोधार्य करते हुए वे मानवता की सेवा में लगे रहे। उनकी लगन निष्ठा एवं त्याग ने चमत्कार दिखाया और वे अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गये। उनके विषय में यह कहा जाता है कि यदि लिंकन संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के राष्ट्रपति नहीं चुने गये होते तो अमेरिका में अमानवीय दास प्रथा का अन्त नहीं होता और बढ़ते हुए विद्रोह के कारण एक न एक दिन देश दो भागों में विभक्त हो जाता।
प्रसिद्ध कवि मार्कट्वेन जिस घर में रहता था वह वस्तुतः गायों एवं घोड़ों के लिए बनायी गयी कोठरी थी, माता-पिता सहित वह उसी में रहता था। अर्थाभाव के कारण उसके पिता ऊंची शिक्षा दिलाने की व्यवस्था न जुटा सके। स्कूली पढ़ाई छूट जाने पर भी ट्वेन ने अध्ययन बन्द नहीं किया। साहित्य अभिरुचि से उसकी प्रतिभा निखरती गई और वह विश्व विख्यात साहित्यकार बना उसकी रचनाओं के लिए अनेकों विश्वविद्यालयों ने उसे डॉक्टर की उपाधि से विभूषित किया। दार्शनिक कन्फ्यूशियस जब तीन वर्ष का था तभी पितृ स्नेह से उसे वंचित हो जाना पड़ा। अल्पायु में ही उसे जीविकोपार्जन जैसे कठोर कामों में लगना पड़ा। गरीबी और तंगी की स्थिति में बड़े परिवार का भार ढोते हुए भी उसने अपनी ज्ञान साधना जारी रखी। दर्शन शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वानों में आज भी कन्फ्यूशियस का नाम विश्व भर में श्रद्धापूर्वक लिया जाता है।
भूमध्य सागर में इटली के निकट एक छोटे से द्वीप में जन्म लेने वाला नेपोलियन 16 वर्ष की आयु में ही अनाथ हो गया। छोटे कद लम्बे चेहरे बेडौल शरीर की आकृति वाले इस बच्चे को कभी भी साथियों से प्यार प्रोत्साहन नहीं मिला। सदा उपहास और तिरष्कार ही सहना पड़ा। बुद्धि की दृष्टि से भी यह सामान्य बच्चों की तुलना में मन्द था। पर लगन और आत्म विश्वास की पूंजी उसके पास प्रचुर मात्रा में थी, जिसको लेकर वह एकाकी ही बढ़ता चला गया। एक अनाथ असहाय लड़का विश्व विजयी बना यह उसके संकल्प पुरुषार्थ और आत्म विश्वास का ही प्रतिफल था।
माजस्किलो दोवास्का नामक बालिका को अपने गुजारे के लिए एक कुलीन परिवार में नौकरी करनी पड़ी। बच्चों की देखभाल घर की सफाई जैसे काम करने पड़े। उसी परिवार के एक युवक ने ‘मार्जा’ से विवाह करने की इच्छा अपने माता-पिता से व्यक्त की। फलस्वरूप उसके माता पिता ने ‘मार्जा’ को नौकरी से निकाल दिया इस अपमान से उसकी दिशा धारा बदल गई। बालिका ने निर्वाह के लिए छोटे-छोटे काम करते रहने के साथ-साथ अध्ययन आरम्भ किया आगे चलकर उसने पीयो क्यूरी नामक एक युवक से विवाह कर लिया। दोनों ने मिलकर रेडियम नामक तत्व खोजकर विज्ञान जगत को एक अनुपम भेंट प्रस्तुत की। इस बालिका को आज भी दुनिया मैडम क्यूरी के नाम से जानती है।
यों तो हिटलर को एक खूंखार अहं केन्द्रित तानाशाह के रूप में ख्याति मिली है। फिर भी उस ख्याति और जीवन में प्राप्त सफलताओं के लिए उसे कठोर संघर्ष करना पड़ा तथा भारी मूल्य चुकाना पड़ा। बचपन में ही माता-पिता दिवंगत हो गये। मजदूरी करके उसे अपना निर्वाह करना पड़ा। पर सामान्य से असामान्य बनने की महत्वाकांक्षा और तदुपरान्त प्रयास एवं पुरुषार्थ के कारण वह सफल होता चला गया। रूस के लौह पुरुष स्टालिन का जन्म जार्जिया प्रान्त में एक गरीब परिवार में हुआ। माता-पिता गुलाम थे इन दिनों गुलामों का पढ़ना लिखाना भी अपराध घोषित था। ऐसी विषम परिस्थितियों में भी यह बालक अध्ययन में जुटा रहा। अपनी देश भक्ति सिद्धान्तवादिता एवं ध्येय निष्ठा के बल पर वह रूस का भाग्य विधाता बना।
अपनी शारीरिक कुरूपता के कारण सैमुअल जॉनसन को किसी भी विद्यालय में नौकरी नहीं मिल सकी। बचपन से साथ चली आ रही घोर विपन्नता ने पल्ला नहीं छोड़ा। नौकरी की आशा छोड़कर वह अध्ययन में लगे रहे। मेहनत मजदूरी करके वे अपना गुजारा करते रहे। कुछ ही समय बाद उनकी साधना ने चमत्कार दिखाया और एक विद्वान साहित्यकार के रूप में इंग्लैण्ड में ख्याति मिली। जॉनसन का अंग्रेजी विश्व कोष आज भी एक अनुपम कृति माना जाता है। ऑक्सफोर्ड विश्व विद्यालय ने उनकी सेवाओं के लिए उन्हें ‘डॉक्टर’ की उपाधि प्रदान की। ‘टाम काका की कुटिया’ की प्रसिद्ध लेखिका हैरियट स्टो को परिवार का खर्च चलाने के लिए कठिन श्रम करना पड़ता था गरीबी और कठिनाइयों के बीच घिरे रहकर भी उन्होंने थोड़ा-थोड़ा समय निकालकर पुस्तक पूरी की। अन्तःप्रेरणा से अभिप्रेरित होकर लिखी गयी उनकी यह पुस्तक अमेरिका में गुलामी प्रथा के अन्त के लिए एक वरदान साबित हुई।
ये उदाहरण इस तथ्य के प्रमाण हैं कि सफलता के लिए परिस्थितियों का उतना महत्व नहीं है जितना कि स्वयं की मनःस्थिति का। आशावादी दृष्टिकोण, संकल्पों के प्रति दृढ़ता और आत्मविश्वास बना रहे तदनुरूप प्रयास पुरुषार्थ चल पड़े तो अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति कर सकना हर किसी के लिए संभव है।
दूसरों के सहयोग से एक सीमा तक ही आगे बढ़ा जा सकता है। वास्तविक प्रयास तो स्वयं ही करना पड़ता है। अनुकूलताओं का भी एक सीमा तक ही महत्व है। असली सम्पदा तो हर व्यक्ति को समान रूप से परमात्मा द्वारा प्रदत्त की गई है। शरीर बुद्धि एवं समय लगभग सबको एक समान मिला है। शारीरिक एवं बौद्धिक दृष्टि से मनुष्य मनुष्य के बीच थोड़ा अन्तर हो भी सकता है किन्तु समय रूपी सम्पदा में तो राई रत्ती भर का भी अन्तर नहीं है। 24 घण्टे हर व्यक्ति को मिले हैं। यही मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी सम्पदा है। यह वह खेत है जिसमें पुरुषार्थ का बीजारोपण करके अनेकों प्रकार के सफलता रूपी फल प्राप्त किये जाते हैं।
अनुकूलताएं आगे बढ़ने के लिए किन्हीं-किन्हीं को ही जन्मजात प्राप्त होती हैं। अधिकांश तो प्रतिकूलताओं में ही आगे बढ़े और सफलता के उस शिखर पर जा चढ़े जो सामान्य व्यक्ति के लिए असम्भव प्रतीत होती हैं। ऐसे शूरवीरों-जीवट सम्पन्न साहसियों के समय अन्ततः परिस्थितियां भी नतमस्तक होती हैं।
बहुत समय पूर्व ग्रीस में गुलाम प्रथा का आतंक चरम सीमा पर था। गुलामों की खराद बिक्री का कार्य पशुओं की भांति चलता था। उनके साथ व्यवहार भी जानवरों की भांति होता था। गुलामों के विकास शिक्षा स्वास्थ्य की बातों पर ध्यान देने की तोबात ही दूर थी, यदि कोई गुलाम पढ़ने लिखने की बात सोचता था तो इसे अपराध माना जाता था। ऐसी ही विषम प्रतिकूल एवं आतंक भरी परिस्थितियों में एक गुलाम के घर जन्मे एक किशोर के मन में ललित कला सीखने की उत्कट इच्छा जागृत हुई। ग्रीस में यह कानून बन चुका था कि कोई भी गुलाम स्वाधीन व्यक्ति की भांति ललित कलाओं का अध्ययन नहीं कर सकता था। जबकि स्वाधीनों को हर प्रकार की सुविधा थी और उन पर किसी प्रकार की रोक-टोक न थी। ‘क्रियो’ का किशोर हृदय इस स्थिति को देखकर रोता रहता था। डर था कि उसकी कलाकृति पकड़ी गई तो कठोर दण्ड मिलेगा। सहयोगी के नाम पर एकमात्र उसकी बहिन उसे निरन्तर प्रोत्साहित किया करती थी और कहती थी— ‘‘भैया डरने की आवश्यकता नहीं तुम्हारी कला में शक्ति होगी तो स्थिति अवश्य बदलेगी, तुम अपनी आराधना में लगे भर रहो।’’ बहिन की प्रेरणा उसमें समय-समय पर शक्ति संचार करती थी। कला देवता की आराधना के लिए बहिन ने अपने टूटे-फूटे मकान के नीचे तहखाने में भाई के लिए सारी आवश्यक वस्तुयें जुटा दीं। भोजन शयन की व्यवस्था भी उसके लिए तहखाने में ही थीं। क्रियो ने अपनी समूची कलाकृति संगमरमर की एक मूर्ति बनाने में झोंक दी।
उन्हीं दिनों ग्रीस के एथेन्स नगर में विशाल कला प्रदर्शनी आयोजित हुई। पेरी क्लाज नामक विद्वान प्रदर्शनी के अध्यक्ष नियुक्त किये गये। एस्पेसिया, फीडीयस, दार्शनिक सुकरात, साफोक्लीज जैसे विद्वान भी कला की प्रदर्शनी में आमन्त्रित थे। ग्रीस के सभी प्रख्यात कलाकारों की कलाकृतियां वहां आयी थीं। एक-एक करके सभी कलाकृतियों के ऊपर से चादर हटा दी गई। दर्शकों को ऐसा लगा जैसे मानो ललित कलाओं के देवता अपोलो ने अपने हाथों मूर्ति को गढ़ा हो। उसको बनाने वाला कौन है, सभी का एक ही प्रश्न था? कोई उत्तर न मिला। लोग मूर्तिकार को देखने के लिए आतुर हो रहे थे। इतने में स्थानीय आयोजक एक लड़की को पकड़कर लाये जिसके कपड़े जरा-जीर्ण हो रहे थे, और बाल बिखरे वे। रक्षकों ने बताया कि यह लड़की कलाकार का नाम जानती है किन्तु बताती नहीं। स्थानीय कानून के अनुसार गुलाम व्यक्ति कला में कोई रुचि नहीं ले सकता। लड़की की चुप्पी पर उसे जेलखाने में डाल देने का आदेश हुआ। इतने में एक किशोर सामने आया और ‘क्रियो’ नाम से अपना परिचय दिया और दृढ़ता के साथ बोला मैंने कला को भगवान मानकर पूजा की है, आपका कानून यदि अपराध मानता है तो हम अपराधी हैं।
किशोर की दृढ़ता, अल्पायु में कला के प्रति अपार लगन और कलाकृति के अनुपम सौन्दर्य ने अध्यक्ष पेरी क्लीज को मुग्ध कर दिया कानून की कठोरता हृदय को द्रवीभूत होने से रोक न सकी और पेरी क्लीज ने घोषणा की ‘क्रियो’ दण्ड का नहीं सम्मान और पुरस्कार का पात्र है। हमें यह कानून बदलना होगा जिससे कला देवता का अपमान होता हो। उस दिन से पेरी क्लीज के प्रयत्नों से कानून बदला गया। गरीबी और विपन्न परिस्थितियों में भी किशोर कलाकार की कला के प्रति अपार लगन ध्येय के प्रति दृढ़ निष्ठा ने न केवल उसे विश्व के मूर्धन्य कलाकारों की श्रेणी में पहुंचा दिया वरन् उस कानून में भी परिवर्तन करने के लिए बाध्य किया जो अमानवीय था।
सच तो यह है कि प्रतिकूलताएं मानवी पुरुषार्थ की परीक्षा लेने आती हैं। और व्यक्तित्व भी अधिक प्रखर परिपक्व विपन्न परिस्थितियों में ही बनता है। लायोन्स नगर में एक भोज आयोजित था। नगर के प्रमुख विद्वान साहित्यकार एवं कलाकार आमन्त्रित थे। प्राचीन ग्रीस की पौराणिक कथाओं के चित्रों के सम्बन्ध में उपस्थित विद्वानों के बीच बहस छिड़ गयी और विवादों का रूप लेने लगी। गृह स्वामी ने इस स्थिति को देखकर नौकर को बुलाया और सम्बन्धित विषय में विवाद को निपटाने के लिए कहा सभी को आश्चर्य हुआ कि भला नौकर क्या समाधान देगा। साथ ही उन्हें अपनी विद्वता का अपमान भी अनुभव हो रहा था। किन्तु नौकर की विश्लेषणात्मक तार्किक विवेचना को सुनकर सभी हतप्रभ रह गये और तत्काल ही अपनी इस गलती का ज्ञान हुआ कि विद्वता प्रतिभा किसी व्यक्ति विशेष की बपौती नहीं है।
नौकर ने सम्बन्धित विषय पर जो तर्क तथ्य प्रस्तुत किये उससे विवाद समाप्त हुआ। एक विद्वान ने नौकर से पूछा ‘महाशय आपने किस विद्यालय में शिक्षा प्राप्त की?’ नौकर ने बड़ी ही नम्रता के साथ उत्तर दिया। श्रीमान मैंने कई स्कूलों में शिक्षा प्राप्त की है किन्तु मेरा सबसे अधिक प्रभावशाली शिक्षण विपत्ति रूपी स्कूल में हुआ है।’ यह तेजस्वी बालक ही आगे चलकर ‘जीन जेक रूसो’ के नाम से प्रख्यात हुआ जिसकी क्रान्तिकारी विचारधारा ने प्रजातन्त्र को जन्म दिया।
प्रसिद्ध विद्वान विलियम कॉवेट अपनी आत्म कथा में लिखा है कि ‘प्रतिकूलताएं मनुष्य के विकास में सबसे बड़ी सहचरी है। आज में जो कुछ भी बन पाया हूं विपन्न परिस्थितियों के कारण ही सम्भव हो सका है। जीवन की अनुकूलताएं सहज ही उपलब्ध होती तो मेरा विकास न हो पाता।’ कावेट के आरम्भिक दिन कितनी कठिनाइयों एवं गरीबी में बीते, यह उसके जीवन चरित्र को पढ़ने पर पता चलता है। वह लिखता है कि ‘‘आठ वर्ष की अवस्था में मैं हल चलाया करता था। ज्ञान अर्जन के प्रति अपार रुचि थी। घर से लन्दन भाग गया तथा सेना में भर्ती हो गया। रहने के लिए एक छोटा सा कमरा मिला जिनमें चार अन्य सैनिक भी रहते थे। जो पैसा मिलता था उससे किसी प्रकार दो समय की रोटी जुट जाती थी। मोमबत्ती और तेल खरीदने के लिए पैसा नहीं बचता था। अध्ययन में गहरी रुचि थी। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए मैंने आधा पेट भोजन करना आरम्भ किया। जो पैसा बचता था, उससे स्याही मोमबत्ती कागज खरीद कर लाता था। स्थानीय लाइब्रेरी से पुस्तकें अध्ययन के लिए मिल जाती थीं। कमरे के अन्य सिपाहियों के हंसने बोलने से मुझे निरन्तर बाधा बनी रहती थी किन्तु इसके बावजूद भी मैंने अध्यवसाय का क्रम सतत जारी रखा। समय को कभी व्यर्थ न गंवाया। आज उसी का प्रतिफल है कि मैं वर्तमान स्थिति तक पहुंच सका हूं। जीवन के संघर्षों से मैं कभी घबड़ाया नहीं वरन् उनको विकास का साधन माना।
प्रख्यात विचारक ‘टाल्पेज’ कहा करता था ‘युवको ! क्या तुम्हें कठिनाइयों को संघर्षों को देखकर डर लगता है? क्या गरीबी तुम्हारे विकास मार्ग में बाधक है? तुम्हारा यह सोचना गलत है। सफलताओं के शिखर पर जा चढ़ने वाले विद्वानों समृद्धों महापुरुषों के जीवन का अध्ययन करो। तुम पाओगे कि उनमें से अधिकांश तुमसे भी गई गुजरी स्थिति में थे किन्तु उन्होंने आत्म विश्वास नहीं खोया। अपने श्रम पुरुषार्थ एवं समय के सदुपयोग द्वारा वे असामान्य स्थिति में जा पहुंचे। देखो सुनहरा दिन तुम्हारे अभिनन्दन के लिए सफलताओं का हार लिए खड़ा है। जड़ता छोड़ो चैतन्यता अपनाओ। तुम्हारा निराशावादी चिन्तन ही विकास के अवरोध उत्पन्न कर रहा और आगे बढ़ने से रोक रहा है। तुम गरीब नहीं समृद्ध हो। परमात्मा ने तुम्हें अद्भुत शरीर, विलक्षण मस्तिष्क एवं समय की अपार पूंजी दी है उसकी तुलना किसी भौतिक वस्तु से नहीं की जा सकती है। इसका सदुपयोग करो सफलताएं तुम्हारे चरणों में झुकेंगी।
लन्दन की एक गन्दी बस्ती में एक बालक रहता था। उसका अपना कोई नहीं था। अखबार बेचकर अपना गुजारा करता था। सात वर्ष की अल्पायु से ही एक जिल्द साज की दुकान में काम करने लगा। एक दिन एनसाइक्लोपीडिया ग्रन्थ की जिल्द बांधते समय उसकी निगाह विद्युत सम्बन्धी एक लेख पर पड़ी। मालिक से पुस्तक को पढ़ने की अनुमति मांगी। सम्बन्धित लेख को उसने एक ही रात में आद्योपान्त पढ़ डाला। जिज्ञासा बढ़ी। प्रयोग एवं परीक्षण के लिए उसने विद्युत की छोटी-मोटी आवश्यक वस्तुएं एकत्रित करनी आरम्भ कर दीं। बालक की अभिरुचि का देखकर एक ग्राहक बहुत प्रभावित हुआ। उसने बताया कि भौतिक शास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान हम्फ्री डेवी का भाषण उसी दिन होने वाला है। दुकान के मालिक से छुट्टी मांगकर वह भाषण सुनने चल पड़ा। बालक ने ध्यान पूर्वक सारी बातें सुनी और आवश्यक नोट्स भी लिए उसने हम्फ्री डेवी के भाषण की समीक्षा करते हुए अपने परामर्श लिख भेजे। हम्फ्री डेवी अत्यधिक प्रभावित हुए। उन्होंने यन्त्रों को व्यवस्थित रूप से रखने के लिए बच्चे को नौकर के रूप में रख लिया। बालक नौकरी और सहयोगी वैज्ञानिक दोनों की ही भूमिका निभाता रहा। दिन भर कामों में व्यस्त रहता और रात को अध्ययन करता। यही बालक अपने मनोयोग अध्यवसाय एवं पुरुषार्थ के बलबूते प्रसिद्ध वैज्ञानिक बना। भौतिक विज्ञान के जगत में माइकेल फैराडे और उसके प्रसिद्ध आविष्कारों के विषय में आज सभी जानते हैं।
अभाव, प्रतिकूलताएं, विपन्नताएं वस्तुतः अभिशाप उनके लिए हैं जो परिस्थितियों को ही सफलता असफलता का कारण मानते हैं। अन्यथा आत्म विश्वास एवं लगन के धनी ध्येय की प्रति दृढ़ व्यक्तियों के लिए तो वे वरदान सिद्ध होती हैं। भट्टी में तपने के बाद सोने में निखार आता है। प्रतिकूलताओं से जूझने से व्यक्तित्व निखरता और परिपक्व बनता है। गिने चुने अपवादों को छोड़कर विश्व के अधिकांशतः महापुरुषों का जीवन चरित्र पढ़ने पर यह पता चलता है कि वे अभावग्रस्त परिस्थितियों में पैदा हुए पले। पर उन्होंने जीवन की विषमताओं को वरदान माना संघर्षों को जीवन बनाने तथा पुरुषार्थ को जगाने का एक सशक्त माध्यम समझा, फलतः वे प्रतिकूलताओं को चीरते हुए सफलता के शिखर पर जा चढ़े। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि परिस्थितियां मानवी विकास में बाधक नहीं बन सकतीं अवरोध प्रचण्ड पुरुषार्थ के समक्ष टिक नहीं सकते।
दार्शनिक सुकरात का जन्म एक मूर्तिकार के घर हुआ। उसकी मां दाई का काम करती थी माता-पिता के अनवरत श्रम से किसी प्रकार घर का खर्च चल जाता था कुछ ही दिनों बाद पिता की छत्र छाया उठ गयी। मां के साथ गरीबी के दिन व्यतीत करते हुए भी वह अध्ययन में लगा रहा। मेहनत मजदूरी करते हुए भी वह अपने अध्यवसाय में निरत रहा। घर का खर्च चलाने का भी अतिरिक्त दायित्व बाल्यावस्था में ही उसके ऊपर आ गया पर गरीबी उसके विकास में बाधक नहीं बन सकी और अपने पुरुषार्थ एवं मनोयोग से एक दिन वह दर्शन शास्त्र का प्रकाण्ड विद्वान बना।
वियतनाम के राष्ट्रपिता ‘होचीमिन्ह’ को बचपन में ही अपने माता-पिता से अलग होना पड़ा। बचपन से लेकर युवावस्था तक वे संघर्ष करते रहे। फ्रांसीसी शासन का विरोध करने के अपराध में उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। जेल से निकलते ही वियतनाम की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष करने लगे। इसके लिए उन्हें जेल में ही कितनी बार कठोर यातनाएं सहनी पड़ी पर अन्ततः अपने ध्येय में सफल हुए। देश भक्ति के अनुपम त्याग के कारण उन्हें महात्मा गांधी की भांति राष्ट्रपिता का सम्मान मिला। शेक्सपियर की तुलना संस्कृत के महाकवि कालिदास से की जाती है। वह एक कसाई का बेटा था। परिवार की गाड़ी चलाने के लिए आरम्भ में उसे भी यही धन्धा करना पड़ा पर अपने पुरुषार्थ के कारण वह अंग्रेजी का सर्वश्रेष्ठ कवि तथा नाटककार बना।
कार्लमार्क्स का जन्म गरीबी में हुआ। मरते दम तक विपन्नताओं ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। पर घोर गरीबी में भी वह वैचारिक साधना करता रहा। एक दिन वह समाज की नई व्यवस्था ‘साम्यवाद’ का प्रणेता बना। जीवन भर संघर्षरत रहते हुए भी उसने ‘कैपिटल’ जैसे विश्व विख्यात ग्रन्थ की रचना की। समानता एवं न्याय के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले अब्राहम लिंकन को अनेकों बार असफलताओं का मुंह देखना पड़ा। एक दुकान खोली तो उसका दिवाला निकल गया। किसी मित्र के साथ साझेदारी में व्यापार प्रारम्भ किया पर उसमें घाटा उठाना पड़ा। जैसे-तैसे वकालत पास की पर वकालत चल नहीं सकी। पत्नी जीवन भर उनकी विरोधी बनी रही। चार बार चुनाव में हारे पर हर असफलता को शिरोधार्य करते हुए वे मानवता की सेवा में लगे रहे। उनकी लगन निष्ठा एवं त्याग ने चमत्कार दिखाया और वे अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गये। उनके विषय में यह कहा जाता है कि यदि लिंकन संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के राष्ट्रपति नहीं चुने गये होते तो अमेरिका में अमानवीय दास प्रथा का अन्त नहीं होता और बढ़ते हुए विद्रोह के कारण एक न एक दिन देश दो भागों में विभक्त हो जाता।
प्रसिद्ध कवि मार्कट्वेन जिस घर में रहता था वह वस्तुतः गायों एवं घोड़ों के लिए बनायी गयी कोठरी थी, माता-पिता सहित वह उसी में रहता था। अर्थाभाव के कारण उसके पिता ऊंची शिक्षा दिलाने की व्यवस्था न जुटा सके। स्कूली पढ़ाई छूट जाने पर भी ट्वेन ने अध्ययन बन्द नहीं किया। साहित्य अभिरुचि से उसकी प्रतिभा निखरती गई और वह विश्व विख्यात साहित्यकार बना उसकी रचनाओं के लिए अनेकों विश्वविद्यालयों ने उसे डॉक्टर की उपाधि से विभूषित किया। दार्शनिक कन्फ्यूशियस जब तीन वर्ष का था तभी पितृ स्नेह से उसे वंचित हो जाना पड़ा। अल्पायु में ही उसे जीविकोपार्जन जैसे कठोर कामों में लगना पड़ा। गरीबी और तंगी की स्थिति में बड़े परिवार का भार ढोते हुए भी उसने अपनी ज्ञान साधना जारी रखी। दर्शन शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वानों में आज भी कन्फ्यूशियस का नाम विश्व भर में श्रद्धापूर्वक लिया जाता है।
भूमध्य सागर में इटली के निकट एक छोटे से द्वीप में जन्म लेने वाला नेपोलियन 16 वर्ष की आयु में ही अनाथ हो गया। छोटे कद लम्बे चेहरे बेडौल शरीर की आकृति वाले इस बच्चे को कभी भी साथियों से प्यार प्रोत्साहन नहीं मिला। सदा उपहास और तिरष्कार ही सहना पड़ा। बुद्धि की दृष्टि से भी यह सामान्य बच्चों की तुलना में मन्द था। पर लगन और आत्म विश्वास की पूंजी उसके पास प्रचुर मात्रा में थी, जिसको लेकर वह एकाकी ही बढ़ता चला गया। एक अनाथ असहाय लड़का विश्व विजयी बना यह उसके संकल्प पुरुषार्थ और आत्म विश्वास का ही प्रतिफल था।
माजस्किलो दोवास्का नामक बालिका को अपने गुजारे के लिए एक कुलीन परिवार में नौकरी करनी पड़ी। बच्चों की देखभाल घर की सफाई जैसे काम करने पड़े। उसी परिवार के एक युवक ने ‘मार्जा’ से विवाह करने की इच्छा अपने माता-पिता से व्यक्त की। फलस्वरूप उसके माता पिता ने ‘मार्जा’ को नौकरी से निकाल दिया इस अपमान से उसकी दिशा धारा बदल गई। बालिका ने निर्वाह के लिए छोटे-छोटे काम करते रहने के साथ-साथ अध्ययन आरम्भ किया आगे चलकर उसने पीयो क्यूरी नामक एक युवक से विवाह कर लिया। दोनों ने मिलकर रेडियम नामक तत्व खोजकर विज्ञान जगत को एक अनुपम भेंट प्रस्तुत की। इस बालिका को आज भी दुनिया मैडम क्यूरी के नाम से जानती है।
यों तो हिटलर को एक खूंखार अहं केन्द्रित तानाशाह के रूप में ख्याति मिली है। फिर भी उस ख्याति और जीवन में प्राप्त सफलताओं के लिए उसे कठोर संघर्ष करना पड़ा तथा भारी मूल्य चुकाना पड़ा। बचपन में ही माता-पिता दिवंगत हो गये। मजदूरी करके उसे अपना निर्वाह करना पड़ा। पर सामान्य से असामान्य बनने की महत्वाकांक्षा और तदुपरान्त प्रयास एवं पुरुषार्थ के कारण वह सफल होता चला गया। रूस के लौह पुरुष स्टालिन का जन्म जार्जिया प्रान्त में एक गरीब परिवार में हुआ। माता-पिता गुलाम थे इन दिनों गुलामों का पढ़ना लिखाना भी अपराध घोषित था। ऐसी विषम परिस्थितियों में भी यह बालक अध्ययन में जुटा रहा। अपनी देश भक्ति सिद्धान्तवादिता एवं ध्येय निष्ठा के बल पर वह रूस का भाग्य विधाता बना।
अपनी शारीरिक कुरूपता के कारण सैमुअल जॉनसन को किसी भी विद्यालय में नौकरी नहीं मिल सकी। बचपन से साथ चली आ रही घोर विपन्नता ने पल्ला नहीं छोड़ा। नौकरी की आशा छोड़कर वह अध्ययन में लगे रहे। मेहनत मजदूरी करके वे अपना गुजारा करते रहे। कुछ ही समय बाद उनकी साधना ने चमत्कार दिखाया और एक विद्वान साहित्यकार के रूप में इंग्लैण्ड में ख्याति मिली। जॉनसन का अंग्रेजी विश्व कोष आज भी एक अनुपम कृति माना जाता है। ऑक्सफोर्ड विश्व विद्यालय ने उनकी सेवाओं के लिए उन्हें ‘डॉक्टर’ की उपाधि प्रदान की। ‘टाम काका की कुटिया’ की प्रसिद्ध लेखिका हैरियट स्टो को परिवार का खर्च चलाने के लिए कठिन श्रम करना पड़ता था गरीबी और कठिनाइयों के बीच घिरे रहकर भी उन्होंने थोड़ा-थोड़ा समय निकालकर पुस्तक पूरी की। अन्तःप्रेरणा से अभिप्रेरित होकर लिखी गयी उनकी यह पुस्तक अमेरिका में गुलामी प्रथा के अन्त के लिए एक वरदान साबित हुई।
ये उदाहरण इस तथ्य के प्रमाण हैं कि सफलता के लिए परिस्थितियों का उतना महत्व नहीं है जितना कि स्वयं की मनःस्थिति का। आशावादी दृष्टिकोण, संकल्पों के प्रति दृढ़ता और आत्मविश्वास बना रहे तदनुरूप प्रयास पुरुषार्थ चल पड़े तो अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति कर सकना हर किसी के लिए संभव है।