Books - पराक्रम और पुरुषार्थ से ओत-प्रोत यह मानवी सत्ता
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Language: HINDI
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जो अपनी सहायता करने को तत्पर हो, उन्हें कोई नहीं रोक सकता
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दिन रात की तरह अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियां सभी के सामने आती रहती हैं। सामान्य व्यक्ति अनुकूल परिस्थितियों में तो हर्ष मनाते और विपरीतताओं के आने पर खिन्न हो जाते हैं। प्रतिकूलताओं से जूझने के बजाय वे अपना धैर्य खोते और निराश होते देखे जाते हैं। परन्तु आत्मविश्वासी, निष्ठा के धनी, अध्यवसायी व्यक्ति विषम परिस्थितियों को वरदान स्वरूप समझते हैं जिन्हें साधारण आदमी अभिशाप मान बैठते हैं। संसार में सफलतायें उन्हीं को मिली हैं जिन्होंने अपनी लगन प्रयत्नशीलता और आत्मविश्वास के सहारे कठिन से कठिन परिस्थितियों पर विजय पाई। कठिनाईयों का उन्हीं ने उस सान के पत्थर की तरह उपयोग किया जिसे चाकू कैंची आदि औजारों के तेज करने में प्रयोग किया जाता है। प्रतिकूल परिस्थितियों को वे प्रखरता बढ़ाने का उपयुक्त अवसर समझते हैं। ऐसे सैकड़ों व्यक्तियों के उदाहरण दुनिया में भरे पड़े हैं जिन्होंने न केवल विषम परिस्थितियों में अपना मानसिक सन्तुलन बनाये रखा वरन् प्रकृति के अभिशापों के बावजूद भी वह कर दिखाया जो सामान्य व्यक्ति सब कुछ होने पर भी नहीं कर पाते।
कुछ वर्ष पूर्व एक रूसी पत्रिका ने ‘गुगो पेटर्स’ नामक लंगड़े विमान चालक के साहस का वर्णन प्रस्तुत किया था। गूगो बचपन में ही अपने संगी-साथियों और घर-परिवार के लोगों से कहा करता था कि वह ‘पाइलेट’ बनेगा। किन्तु परिस्थितियों ने उसे ‘ट्रैक्टर चालक’ के कार्य में लगा दिया। लोग उसका उपहास करते तो भी वह यही कहता— ‘‘एक न एक दिन मैं पायलेट अवश्य बनूंगा और ट्रैक्टर के स्थान पर हवाई जहाज चलाऊंगा।’’
परन्तु कुछ ही दिनों बाद वह अचानक ट्रैक्टर के नीचे आ गया, उसकी एक टांग बेकार हो गई, उसे कटवा देना पड़ा। पर गूगो फिर भी मुस्कराते हुए कहता कि ‘गूगो परिस्थितियों से हार मानने वाला नहीं है।’
कुछ महीनों में वह ठीक हो गया और ‘कार-ड्राइविंग’ सीखकर कार चलाने लगा। अधिकांश लोगों को तो पता भी नहीं चल पता कि गूगो की एक टांग कृत्रिम है। उसने मन में ‘पायलट’ बनने का बीज ज्यों का त्यों विद्यमान तो था ही—अवसर पाकर उसने हवाबाजी के क्लब में मेकेनिक का कार्य करना आरम्भ कर दिया और धीरे-धीरे वायुयान चालक बनने के प्रयास भी शुरू कर दिये। किन्तु डाक्टरी परीक्षण में सफल होने में उसकी एक टांग बाधक हो रही थी।
पर सच्ची उत्कृष्ट अभिलाषा जहां भी होती हैं वह अपना रास्ता भी बना लेती है। गूगो ने ‘चेल्याविंस्क’ से मास्को में पहुंचकर हवाबाजी के केन्द्रिय चिकित्सा आयोग के डॉ. ग्रिगोरी ग्राइफर से ‘विमान-चालक’ का कार्य करने की अनुमति भी प्राप्त करली। यह ‘गूगो पेटर्स’ के अडिग विश्वास अटूट निष्ठा और अथक प्रयासों का ही परिणाम था उसके मित्र उसे ‘उड़ता होल्डर’ कहकर सम्बोधित करने लगे।
यह तो उस व्यक्ति की निष्ठा एवं लगन का प्रसंग है जिसने एक टांग के न होने पर भी विमान चालक बनने की अपनी चाह अन्ततः पूरी कर ही दिखाइए। चीन के प्रसिद्ध चित्रकार ‘होनेएकनान’ के बचपन में ही न तो हाथ रहे और न पांव। सामान्यतः हाथ-पैर विहिन बालक परिवार एवं समाज की कृपा पर ही जीवित रह सकता है परन्तु होनेएकनान ने इस धारणा को निराधार सिद्ध करके दिखा दिया।
इस विकलांग पर साहसी बालक ने वर्षों तक अभ्यास करके मुंह में पेन्सिल दबाकर चित्र बनाने में सफलता अर्जित कर ली और लोगों को यह दिखला दिया कि मनुष्य उपलब्ध साधनों से ही बहुत कुछ कर सकता है। पेन्सिल के चित्र बनाने के उपरान्त जीभ से ब्रुश का काम लेता, मुंह में रंग भरकर पेंटिंग करता। इस प्रकार अपंग होकर भी होनेएकनान ने चीन के चित्रकारों में अद्वितीय स्थान पाने का गौरव प्राप्त किया। उसने दुर्भाग्य का रोना कभी नहीं रोया।
ऐसा ही एक उदाहरण एक अमेरिकी सिपाही का है। अमेरिका के ‘कन्सास’ नगर का बहादुर सैनिक ‘विलियन मैकफर्सन’ युद्ध में लड़ रहा था। युद्ध में उसकी दोनों आंखें चली गईं। बम-विस्फोट की चपेट में आ जाने से दोनों पैर बेकार हो गये और हाथों से भी हाथ धो बैठा। फिर भी वह साहसी सैनिक जीवन से निराश नहीं हुआ वरन् यह करता कि जब तक उसका मन स्वस्थ है तब तक वह हर प्रकार की कठिन परिस्थितियों से संघर्ष करता रहेगा।
उसने सोचा कि हाथ-पांव भले ही नहीं रहे, मस्तिष्क तो सही सलामत है। उसने ज्ञान-साधना करने का निर्णय किया। इसके लिये चाहिये था गहन अध्ययन चिन्तन। आंखों की बात तो बहुत दूर थी, पुस्तक तक वह नहीं पकड़ पाता था। परन्तु ‘जहां चाह वहां राह’ वाली उक्ति को चरितार्थ करने वाले मैकफर्सन ने अपना अध्ययन का निर्णय अटल रखा। सुनकर व बोलते हुए दुहराकर उसने पढ़ना सीख लिया। और थोड़े ही दिनों में इतना निपुण हो गया जितना कि एक सामान्य साक्षर मेट्रोकुलेट को आवश्यकता होती है।
सफलताओं असफलताओं में बाह्य परिस्थितियों का उतना योगदान नहीं होता जितना स्वयं की मनःस्थिति का। सन्तुलन, धैर्य, साहस, उत्साह, और जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण बना रहे तो प्रतिकूल से प्रतिकूल और गई गुजरी परिस्थितियों में भी आगे बढ़ने के लिए मार्ग निकला जा सकता है। इसके विपरीत अपना दृष्टिकोण निराशावादी हो तो अनुकूलताएं भी प्रगति में सहायक नहीं हो पाती और कितने ही सफलता के स्वर्णिम अवसर देखते ही देखते निकल जाते हैं। किसी भी क्षेत्र में सफलता अर्जित करने के लिए मूलतः सिद्धान्त यहीं हैं।
कितने ही व्यक्ति इस फिराक में रहते हैं कि अमुक तरह की अनुकूलताएं उपलब्ध हों तो अभीष्ट दिशा में कदम उठाया जाय। ऐसे व्यक्तियों को प्रायः जीवन पर्यन्त निराश ही रहन पड़ता है। क्योंकि अपने आप ऐसा संयोग शायद ही कभी बैठ पाता है, जब बाहरी परिस्थितियां निर्धारित लक्ष्य की ओर अग्रगमन में सहयोग देने के लिए हाथ बांधे तैयार खड़ी हों। असफलताओं का परिस्थितियों का रोना रोते रहने वालों को उन व्यक्तियों से प्रेरणा लेनी चाहिये जो घोर विपन्नताओं से जन्मे। प्रकृति ने उन्हें शारीरिक दृष्टि से अक्षम बनाकर उनका उपहास किया और विपत्तियों की श्रृंखला में एक कड़ी और जोड़ दी। मुक्त कण्ठ से मनोबल, संकल्प बल के धनी इन सत्साहसी व्यक्तियों की सराहना करनी होगी जिन्होंने प्रकृति प्रदत्त अभिशाप को भी वरदान मानकर गले लगाया और घोर अन्धकार में टिमटिमाते दीपक की भांति प्रतिकूलताओं को चीरते हुए आगे बढ़ते गये।
(अमेरिका) के अलवामा राज्य के टस्कानिया नामक स्थान में जन्मी हेलनकेलर जब 6 माह की थी तभी कुदरत ने एक क्रूर मजाक किया। मस्तिष्क ज्वर में वह अबोध बालिका अपनी नेत्र ज्योति और श्रवण क्षमता दोनों ही गंवा बैठी। विकास की प्रारम्भिक अवस्था में होने के कारण बहरे होने के साथ गूंगेपन का एक अतिरिक्त श्राप भी जुड़ गया। पर इस बालक ने जीवन के प्रति आशा की ज्योति को बुझने नहीं दिया। सोचने समझने योग्य होते ही वह आशावादी सपने संजोने लगी। उसने सोचा वह समाज के ऊपर भार बनकर नहीं दीन-हीन के रूप में नहीं स्वावलम्बी बनकर जीयेगी प्रतिभा संवर्धन के लिए वह दिन रात एक कर देगी और संसार को यह बता देगी कि देखो! शारीरिक अक्षमता विकास में बाधक नहीं बन सकती।
अपने संकल्प को साकार करने में वह तन मन से पूरी तत्परता पूर्वक जुट पड़ी। कहावत है कि भगवान भी उन्हीं की सहायता करता है जो अपनी सहायता के लिये स्वयं सचेष्ट रहते हों। लगन निष्ठा और असाधारण उत्साह की धनी इस गूंगी, बहरी और अन्धी बालिका के लिए ईश्वरीय वरदान के रूप में सहचरी मार्ग दर्शिका बनी, ‘‘कुमारी मैन्सफील्ड’’। डॉ. होवे द्वारा आविष्कृत सांकेतिक प्रणाली के माध्यम से उन्होंने ‘केलर’ को पढ़ना लिखना सिखाया। धीरे-धीरे केलर का गूंगापन कुछ सीमा तक दूर हो गया। वह भावाभिव्यक्ति में सक्षम हो गई। अनवरत अध्यवसाय के बलबूते वह ग्रीक, लैटिन जैसी अनेकों भाषाओं की विशेषज्ञ बनी गणित और दर्शन जैसे गूढ़ विषयों में प्रवीणता हासिल कर उसने अपनी प्रखरता का परिचय दिया।
हेलन केलर की प्रतिभा को देखकर प्रसिद्ध साहित्यकार मार्कट्वेन ने उसे उन्नीसवीं सदी का मानवीय चमत्कार कहा। जब कोई हेलन की विलक्षण प्रतिभा को देखकर आश्चर्य व्यक्त करते तो वह यही कहती कि— ‘मुझे अपनी प्रगति पर तनिक भी आश्चर्य नहीं है। यह सब आशा, लगन, उत्साह और मनोबल का चमत्कार है।’
बिलासपुर (म.प्र.) के एक युवक समीर कुमार घोष ने बी.ए. की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पैर के अंगूठे से लिखकर पास की। आठ वर्ष की आयु में ही वह एक दुर्घटना में दोनों हाथ गंवा बैठे। पर उन्होंने हार नहीं मानी। पैर के अंगूठे से लिखने का अभ्यास करते रहे। इस वर्ष बी.ए. की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि शरीर की अक्षमता अपंगता सफलता में बाधक नहीं बन सकती। अभी आगे उन्हें भी पढ़ने की इच्छा है। उन्होंने इस वर्ष बम्बई के टाटा इन्स्टीट्यूट ऑफ सोशल साइन्सेस में सामाजिक कार्य के दो वर्षीय पाठ्यक्रम में प्रवेश लिया है।
विकलांगता को चलने-फिरने कठोर श्रम करने दुस्साहसी यात्राएं करने में बाधक समझा जाता है पर इस मान्यता को झूठा सिद्ध किया ब्रिटेन के एक पर्वतारोही ने। प्रकृति के अन्तराल में बिखरे सौन्दर्य का दर्शन करने का मन कितने ही व्यक्तियों का करता है। विशाल पर्वत श्रृंखलाओं में वह सौन्दर्य प्रचुर परिणाम में बिखरा पड़ा है। पर उसका दर्शन तो दुस्साहसी व्यक्ति ही कर पाते हैं। जो इतनी ऊंचाई पर चढ़ने ही हिम्मत संजोते हैं वे ही प्रकृति की छटा का आनन्द लेते हैं। पर्वतारोहण आदि में दुहरा उद्देश्य होता है सौन्दर्य का दिग्दर्शन और श्रेय सम्पादन। आये दिन पर्वतारोहियों की टोली इन्हीं उद्देश्यों को लेकर दुर्गम शिखरों पर चढ़ने का दुस्साहस करती हैं। ब्रिटिश नागरिक नीरमन क्राउचर के मन में भी पर्वतारोहण की उमंग उठी। इस उद्देश्य में विकलांगता अवरोध खड़ा कर रही थी पर वे निराश नहीं हुये। एक ब्रिटिश पर्वतारोही टोली के साथ वैशाखी के सहारे वे भी पर्वतारोहण अभियान में चल पड़े। कश्मीर के निकट हिमालय के नूर शिखर की चढ़ाई में कितने ही संकटों का सामना करना पड़ा। पर सभी को पार करते हुए वे 22 हजार फुट की ऊंची चोटी पर पहुंचे। अपनी इस सफलता के बाद क्राउचर का इरादा है हिमालय के और भी उच्च शिखरों पर आरोहण करने का।
ऐसी ही एक दुस्साहसी उदाहरण प्रस्तुत किया—पैराडाइस, वाशिंगटन के नौ विकलांग पर्वतारोहियों ने। शंकर जी की बारात की भांति इनमें से पांच नेत्रविहीन थे, दो की कृत्रिम टांगें थी। एक की टांग मुड़ी हुई थी और दो गूंगे, बहरे तथा हाथों से रहित। इन नौ विकलांगों ने पर्वतारोहण का निश्चय किया। स्थानीय व्यक्तियों ने आरम्भ में उनके इस संकल्प का मजाक उड़ाया पर मनोबल के धनी इन व्यक्तियों ने उनके परिहास की ओर ध्यान न दिया और चल पड़े अपने गन्तव्य को।
चढ़ाई शुरू हुई। लक्ष्य था साढ़े चार हजार मीटर ऊंचाई पर अवस्थित पर्वत की चोटी। कितने ही व्यक्तियों ने इनकी शारीरिक स्थित पर दया दिखाते हुए इस संकट से भरे अभियान के लिए रोका और कितनों ने मार्ग में आने वाले अवरोधों चलने वाली बर्फीली आंधियों का भय दिखाया। पर वे अपने निश्चय पर अडिग रहे। साथ में ब्रेल मानचित्र लेकर चल पड़े। अपंग पर्वतारोहियों की सबसे बड़ी विशेषता थी उनमें परस्पर अपनी सद्भाव, स्नेह और सहयोग की। एक साथ चलने एक साथ जीने मरने के भाव भरे संकल्प के समक्ष प्रतिकूलताएं भी नत मस्तक हो गयी। कठिनाइयों को झेलते अवरोधों को चीरते हुए वे निरन्तर आगे बढ़ते गये। 4 जुलाई 1981 को उनका आरोहण अभियान पूरा हुआ। साढ़े चार हजार मीटर ऊंचे शिखर पर अन्ततः पहुंचने में यह दल सफल हुआ। शिखर पर पहुंचकर उन्होंने झण्डा फहराया हर्ष से एक दूसरे के गले मिले। इस टीम के एक सदस्य 29 वर्षीय ‘जस्टिन मेक्डीविट’ ने अभियान की सफलता का श्रेय सामूहिक संकल्प शक्ति को दिया ज्ञातव्य है कि प्रस्तुत वर्ष विकलांगों का वर्ष है। इस सन्दर्भ में यह सफलता और भी स्तुत्य अभिवन्दनीय है।
अपंग अपाहिज, शारीरिक दृष्टि से अक्षम होते हुए भी ये व्यक्ति विभिन्न क्षेत्रों से सफल और दुस्साहसी कार्य करने में भी समर्थ हो सकते हैं तो कोई कारण नहीं कि जो शरीर से स्वस्थ और मन मस्तिष्क से समर्थ हैं अपने निर्धारित लक्ष्य में सफल न हो सकें। असफलता का कारण एक ही बनता है निश्चित लक्ष्य के प्रति मनोयोग-तत्परता का अभाव। परिस्थितियों को अत्यधिक महत्व वे ही देते हैं जिन्हें अपनी आन्तरिक शक्ति पर विश्वास नहीं होता। बाह्य अनुकूलताएं अभीष्ट मात्रा में मिले तो प्रगति के लिए प्रयास करे यह कल्पना मात्र कल्पना ही बनकर रह जाती है। अनुकूलताओं की राह ताकते रहने की अपेक्षा ईश्वर प्रदत्त साधन शरीर और मन-मस्तिष्क के रूप में मिले हैं उनका ही भली-भांति सदुपयोग कर लिया जाय तो किसी भी दिशा में सफलता अर्जित कर लेना सम्भव है।
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*समाप्त*