Books - पराक्रम और पुरुषार्थ से ओत-प्रोत यह मानवी सत्ता
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कठिनाइयों से डरिये मत, जूझिये
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जेम्स ऐलेन ने अपनी पुस्तक ‘फ्रॉम प्रॉपर्टी टू प्रॉस्पर्टी’ की शुरुआत इन पंक्तियों से की है, ‘वेदना दुख और अपवाद जीवन की परछाइयां हैं। संसार में एक भी हृदय ऐसा नहीं मिलेगा, जिसे दुःख ने स्पर्श न किया हो। एक भी मन ऐसा नहीं होगा जिस पर कोई न कोई घाव न लगा हो, एक भी आंख ऐसी नहीं होगी, जिसने कभी न कभी खून के आंसू न टपके हों। संसार में एक भी परिवार ऐसा नहीं है, जिसमें मृत्यु ने प्रवेश न किया हो और जो रोग और मृत्यु से त्रस्त न रहा हो, जिसने सगे-सम्बन्धियों का विछोह न देखा हो। बिल्ली जिस प्रकार चूहे को दबोचती है, दुख का मजबूत पंजा मनुष्य को उसी प्रकार अचानक आ दबोचता है। तो क्या दुःख और विषाद से बचने का कोई मार्ग नहीं? क्या विपदा की जंजीरों को तोड़ फेंकने का कोई उपाय नहीं? क्या स्थाई समृद्धि शक्ति और आनन्द के स्वप्न देखना मूढ़ता पूर्ण है? नहीं मुझे यह कहते हुए हर्ष होता है कि विपदा को समाप्त कर देना सम्भव है। ऐसा एक उपाय, ऐसी एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा रोग दरिद्रता अथवा विपरीत परिस्थितियों को हमेशा के लिए समाप्त करके स्थाई समृद्धि लाई जा सकती है और मनुष्य विपदा तथा दरिद्रता के दोबारा लौट आने के भय से मुक्ति प्राप्त करके स्थाई आनन्द और शान्तिमय जीवन जी सकता है। ऐसे सुख और समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करने का एक मात्र उपाय यह है कि मनुष्य दुःख के वास्तविक स्वरूप को भलीभांति समझ ले।
क्या है दुःख का वास्तविक स्वरूप? दुख और कुछ नहीं सुख के अभाव का ही नाम है। प्रकाश के अभाव का नाम अन्धकार है। प्रिय परिस्थितियां नहीं होतीं तो अप्रिय की अनुभूति होती है। अनुकूलता के अभाव में प्रतिकूलता भासती है। इन दोनों स्थितियों में सामंजस्य स्थापित किया जा सके तो प्रत्येक परिस्थिति में प्रसन्न और प्रफुल्ल रहा जा सकता है। प्रश्न उठता है कि यह सामंजस्य किस प्रकार स्थापित किया जाये? उत्तर एक ही है, तथ्यों के प्रति सन्तुलित और समझ पूर्ण दृष्टिकोण अपनाया जाय। यह मान्यता बनाकर चला जाये कि दिन और रात की तरह मनुष्य के जीवन में प्रिय और अप्रिय घटनाक्रम आते-जाते रहते हैं। इन उभयपक्षी अनुभूतियों से ही जीवन की सार्थकता और शोभा है। यदि एक ही प्रकार की परिस्थितियां सदा बनी रहें तो यहां सभी कुछ रूखा और नीरस लगने लगेगा। सदा दिन ही रहे रात कभी न हो, सदा मिठाई ही खाने को मिले, नमकीन के दर्शन ही न हों, सबकी उम्र एक सी ही रहे, न कोई छोटा और न बड़ा हो, सर्दी या गर्मी की एक ऋतु रहे, दूसरी बदले ही नहीं तो फिर इस संसार की क्या सुन्दरता रह जायेगी? सारी शोभा-सुषमा ही नष्ट हो जायेगी। सदा प्रिय अनुकूल और सुखद परिस्थितियां ही बनी रहें, कभी अप्रिय और प्रतिकूल स्थिति न आये तो कुशलता, कर्मठता और सहकारिता की जरूरत ही न पड़ेगी। लोग आलसी, निकम्मा और नीरस जीवन जीते हुए किसी प्रकार मृत्यु की प्रतीक्षा करते रहेंगे।
अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण सुविधायें उत्पन्न होना स्वाभाविक है। प्रश्न यह नहीं है कि उसकी क्या प्रतिक्रिया होती है। महत्व पूर्ण तो यह है कि प्रतिकूलताओं और अनुकूलताओं के चढ़ाव-उतार से मनुष्य में कई ऐसे गुण उत्पन्न होते हैं जो उसके व्यक्तित्व की गरिमा को बढ़ाते हैं। प्रतिकूलताओं में पुरुषार्थ, साहस, धैर्य, सन्तुलन, दूरदर्शिता जैसे सद्गुणों का विकास होता है। बल्कि कहा जाना चाहिए कि इन्हीं परिस्थितियों में ये सद्गुण उत्पन्न होते हैं। आवश्यकता केवल इस बात की है कि इन प्रतिकूलताओं में अपना सन्तुलन न खोया जाये। यदि सन्तुलन बना रहे तो जीवन के ऐसे विविध और उपयोगी अनुभव होते हैं जो व्यक्तित्व की शोभा-सुषमा में चार-चांद लगाते हैं। वे अनुभव व्यक्तित्व को गुण सम्पन्न-समृद्ध बनाते हैं।
प्रतिकूलताओं के सम्बन्ध में विधेयात्मक दृष्टि अपनाने की आवश्यकता और उपयोगिता बताते हुए किसी विचारक ने लिखा है, अगर कोई व्यक्ति अपने आपको अन्धेरे कमरे में बन्द करके यह सोचे कि प्रकाश का कोई अस्तित्व ही नहीं है तो यह उसकी भूल है। अन्धकार तो सिर्फ उसके छोटे कमरे में बन्द है बाहर उजाला ही उजाला है। बेहतर यह है कि आपने अपने इर्द-गिर्द भ्रम भ्रान्तियों की जो दीवारें खड़ी कर ली हैं, उन्हें गिराकर अंधेरे बन्द कमरे से बाहर निकलें और सर्वव्यापी प्रकाश से साक्षात्कार करें।’’
प्रतिकूलताओं के इस अन्धकार से निकलने के बाद जीवन का जो अनुभव होता है, उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए किसी शायर ने लिखा है—
‘‘गर्दिशे अय्याम तेरा शुक्रिया,हमने हर पहलू से दुनिया देख ली।’’
जीवन में एक रास्ता न आये, अनेक अनुभव प्राप्त हों इसके लिए परिस्थितियों का अदलना-बदलना आवश्यक है। यदि सदा अनुकूलता ही बनी रहे तो फिर ढर्रे का जीवन जीने वाले लोग गुणों की दृष्टि से पिछड़े ही पड़े रहेंगे और उन्हें विकास की, परिश्रम पुरुषार्थ की आवश्यकता ही अनुभव नहीं होगी। इस प्रकार के अगणित तथ्यों को ध्यान में रखते हुए सृष्टा ने इस दुनिया में अनुकूलता और प्रतिकूलता उत्पन्न की है। अनुकूल स्थिति से लाभ उठाकर हम अपने सुविधा साधनों को बढ़ायें और प्रतिकूलता के पत्थर से घिसकर अपनी प्रतिभा पैनी करें, यही उचित है और उपयुक्त भी।
कई व्यक्ति प्रतिकूल परिस्थितियों में अपना सन्तुलन खो बैठते हैं और वे बेहिसाब दुखी रहने लगते हैं। एक बार प्रयत्न करने पर भी कष्ट दूर नहीं हुआ या सफलता नहीं मिली तो वे निराश होकर बैठ जाते हैं। कई व्यक्ति इससे भी आगे बढ़े-चढ़े होते हैं और बैठे-ठाले भविष्य में विपत्ति आने की शंका करते रहते हैं। यही नहीं होता कि प्रस्तुत असुविधा या प्रतिकूलताओं के समाधान का पुरुषार्थ करें या उपाय सोचें। उल्टे इसके विपरीत वे चिन्ता, भय, निराशा, आशंका और उद्विग्नता जैसी उलझनें खड़ी करके अपने को उसमें फंसा लेते हैं और खुद ही नई विपत्ति गढ़कर खड़ी कर लेते हैं। इस वैभव के अवसाद प्रभावों और हानियों को समय रहते समझ लेना चाहिए ताकि इस दलदल में फंसने की विपत्ति से बचा जा सके।
देखा गया है कि जिन आशंकाओं से त्रस्त होकर चिन्तित रहा जाता है उनमें से अधिकांश निराधार ही हैं। इस सन्दर्भ में जर्मन वैज्ञानिकों द्वारा किया गया एक सर्वेक्षण बहुत महत्वपूर्ण है। वहां के मनःशास्त्रियों के एक दल ने जनवरी सन् 1979 में चिन्तातुर लोगों की पड़ताल के लिए एक प्रश्नावली तैयार की और उसे एक प्रसिद्ध पत्रिका में इस आग्रह के साथ प्रकाशित किया कि पाठक उसके उत्तर दें। करीब पांच हजार पाठकों ने उत्तर दिये। इन उत्तरों का विश्लेषण किया गया। और उनसे जो निष्कर्ष प्राप्त हुए उनके अनुसार 40 प्रतिशत व्यक्तियों की चिन्ता ऐसी समस्याओं को लेकर थी, जिनकी केवल आशंका थी, वे सामने नहीं आई थीं। 30 प्रतिशत समस्यायें ऐसी थीं जिनके कारण बहुत मामूली से और उन्हें थोड़ी सी सूझबूझ से सुलझाया जा सकता था। 12 प्रतिशत व्यक्तियों की चिन्तायें स्वास्थ्य सम्बन्धी थीं और वह भी ऐसी नहीं जो उपचार से ठीक न हो सकें। 10 प्रतिशत समस्यायें ऐसी थीं जिनके लिए दौड़-धूप करना, दूसरों का सहयोग लेना और थोड़ी परेशानी उठाना आवश्यक प्रतीत हुआ। केवल 8 प्रतिशत चिन्तायें ही ऐसी थीं, जिन्हें कुछ वजनदार कहा जा सकता था और जिन्हें पूरी तरह हल न किया जा सका तो उनके कारण कुछ हानि उठाने की सम्भावना विद्यमान थी।
यह तो हुआ चिन्ताओं का विश्लेषण। अधिकांश व्यक्ति ऐसे कारणों से चिन्तित रहते हैं जो वास्तव में कोई कारण नहीं होते। उनके कारणों को देखकर यही कहा जा सकता है कि उन्हें चिन्तित रहने की आदत है। हालांकि चिन्ता से किसी समस्या का, वास्तव में कोई समस्या है तो भी समाधान नहीं होता। देखा गया है कि चिंताग्रस्त रहने वाले व्यक्ति निश्चिन्त व्यक्तियों की अपेक्षा कहीं अधिक घाटे में रहते हैं। निश्चिन्त रहने वाले, मन-मौजी और मस्त लोगों की नियत समय पर ही समस्या का सामना करना पड़ता है, जबकि चिन्तातुर लोग बहुत पहले से ही मानसिक सन्तुलन खो बैठते हैं और हड़बड़ी के कारण अपना अच्छा स्वास्थ्य भी गंवा बैठते हैं। मस्तिष्क जितना भी अधिक समस्याओं से उलझा रहेगा, उतना ही वह समस्याओं को सुलझाने में असमर्थ हो जायेगा। क्रोधी, आवेश, ग्रस्त, आक्रोश भरे हुए दिमाग एक प्रकार से विक्षिप्त जैसे हो जाते हैं।
इन चिन्ताओं के कारण उत्पन्न हुए विक्षेपों का कारण क्या है? जीवन के प्रति, सुलझे हुए दृष्टिकोण का अभाव। जीवन के प्रति यदि सहज दृष्टिकोण अपनाकर चला जायेगा, अनुकूलताओं और प्रतिकूलताओं को दिन और रात की तरह स्वाभाविक समझा जायेगा तो कोई कारण नहीं है कि प्रगति पथ अवरुद्ध हो जाय। दृष्टिकोण इच्छाओं— आकांक्षाओं के सम्बन्ध में किसी विचारक का कथन है आप जैसे है वैसे ही आपकी दुनिया है। सृष्टि की प्रत्येक वस्तु आपके अभ्यन्तर की छाया है। बाहर जो कुछ है वह गौण है क्योंकि वह सब आपकी मनःस्थिति का ही प्रतिबिम्ब है। महत्वपूर्ण तो यह है कि आप भीतर से क्या है? भीतर से आप जो कुछ भी हैं उसी के अनुरूप आपकी दुनिया ढल जायेगी। जो कुछ आप जानते हैं, अनुभव द्वारा प्राप्त हुआ है और जो कुछ आप भविष्य में जान सकेंगे वह भी आपके अनुभव द्वारा ही प्राप्त होगा तथा आपके व्यक्तित्व का अविच्छिन्न अंग बन जायेगा’’
इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जीवन और जगत के प्रति मनुष्य की अपनी दृष्टि ही उसकी दुनिया का निर्माण करती है। इसीलिये परिस्थितियां उतनी महत्वपूर्ण नहीं हैं जितनी कि मनःस्थिति। इसीलिए सौन्दर्य, हर्ष और उल्लास अथवा दुःख और विषाद और पीड़ा का अनुभव मनुष्य बाहरी कारणों से अनुभव करता है। अस्तु, प्रस्तुत प्रतिकूलताओं का समाधान करने के लिए स्थिर चित्त से तन्मय होता तो उपयुक्त है किन्तु इसके लिए चिन्तित होने, निराश हो जाने से कोई बात नहीं बनती। चिन्ता और निराशा तो समाधान के मार्ग में व्यवधान उत्पन्न करती हैं। प्रतिकूलताओं को देखकर घबड़ाना और उनके लिए चिन्तित होते रहना व्यर्थ ही नहीं हानिकारक भी है।
‘‘मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है’’ इस सिद्धान्त को यदि जीवन का मूल मन्त्र बना लिया जाय तो इसमें सन्देह नहीं कि पुरुषार्थ परायण होकर अभीष्ट प्रकार की सफलता सम्पादित की जा सकती है। कहते हैं मनुष्य का भाग्य उसके हाथ एवं मस्तक की रेखाओं पर लिखा होता है। तार्किक बुद्धि इस बात को स्वीकार करती है पर थोड़ी गहराई में चलें तथा उक्त कथन का गम्भीरता से विश्लेषण करें तो यही तथ्य निकलता है कि मनुष्य को हाथ अर्थात् पुरुषार्थ का प्रतीक तथा मस्तिष्क अर्थात् बुद्धिरूपी दो ऐसी सम्पदाएं प्राप्त हैं जिनका भली भांति सदुपयोग करके मन चाही दिशा में सफलताएं अर्जित की जा सकती है।
जन्म से ही तरह-तरह की अनुकूलताएं किन्हीं-किन्हीं विरलों को ही प्राप्त होती हैं। अधिकांश को प्रतिकूलताओं का सामना करना पड़ता तथा अपना मार्ग स्वयं गढ़ना पड़ता है। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी व्यक्ति अपना आत्म विश्वास साहस एवं सूझ बूझ बनाये रखे तो कोई कारण नहीं कि उन पर विजय न प्राप्त कर सके। निराशा जन्य मनःस्थिति ही जीवन की असफलताओं का प्रमुख कारण बनती है तथा चट्टान की भांति प्रगति के मार्ग में अवरोध बनकर अड़ी रहती है अस्तु प्रगति के इच्छुक व्यक्तियों को सर्वप्रथम इस अवरोध को हटाना पड़ता है।
अर्थाभाव के कारण हजारों लाखों नहीं करोड़ों लोग दिन रात चिन्ता और निराशा की अग्नि में जलते रहते तथा उत्तुंग लहरों के बीच थपेड़े खाती नाव की भांति अपनी जीवन नैया खेने का प्रयास करते रहते हैं। पर जिन्होंने निराशा के घोर क्षणों में भी आशा और पुरुषार्थ की पतवार का आश्रय लिया उनने न केवल परिस्थितियों को परास्त कर दिखाया वरन् यह भी सिद्ध कर दिया कि प्रयास करने पर मनुष्य के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। ढूंढ़ने पर ऐसे अनुकरणीय उदाहरण असंख्यों मिल जायेंगे।
बहु प्रख्यात नोबुल पुरस्कार से अधिकांश व्यक्ति परिचित होंगे। इसके प्रवर्तक थे अल्फ्रेड नोवल। इस तथ्य के कम ही व्यक्ति अवगत होंगे कि नोबेल ने अपना प्रारम्भिक जीवन घोर कष्टों में बिताया। उनके पिता एक जहाज में कैविन बॉय के रूप में काम करते थे। बाद में उनकी रुचि विस्फोटक पदार्थों के आविष्कार में हुई। इस कार्य में ही उन्हें अपना जीवन गंवा देना पड़ा। अल्फ्रेड नोवेल और उनकी विधवा मां के पास गुजारे के लिए पैतृक सम्पत्ति के नाम पर एक कौड़ी भी नहीं थी। निर्वाह के लिए नोवेल मेहनत मजदूरी करने लगे। सामान्य व्यक्तियों की तरह सम्पन्नता अर्जित करने की चाह तो अल्फ्रेड में भी थी पर इसके पीछे लक्ष्य महान था आमोद-प्रमोद से भरा विलासिता युक्त जीवन बिताने को वे एक अपराध मानते थे। व्यवस्थारत होकर उन्होंने सम्पत्ति तो जुटा ली पर कभी भी अपव्यय में उसका दुरुपयोग नहीं किया सदा सदा जीवन उच्च विचार का ही सिद्धान्त अपनाया। समृद्धि उनकी चेरी बनी पर व्यक्तिगत उपभोग के लिए नहीं, लोक मंगल के लिए। जब वे मरे तो वे बीस लाख पौण्ड से भी अधिक धनराशि छोड़ गये। सामान्य व्यक्तियों की भांति आगामी पीढ़ियों को गुलछर्रे उड़ाने मौज मजा करने के लिए उन्होंने अपनी सम्पदा को नहीं छोड़ा वे एक वसीयत बनाकर गये जो उन्हें अमर कर गई। मानव की विशिष्ट सेवा में लगे विभिन्न क्षेत्रों के पांच व्यक्तियों को जो पुरस्कार हर वर्ष वितरित किया जाता है वह अल्फ्रेड नोबुल की उदारता का ही परिणाम है।
अमेरिका के प्रसिद्ध अरबपति रॉकफेलर की गणना विश्व के समृद्धतम व्यक्तियों में होती है। पर यह कम ही व्यक्ति जानते हैं कि उन्होंने अपना आरम्भिक जीवन घोर विपन्नता में बिताया। अपना तथा अपनी मां का पेट भरने के लिए वे एक पड़ौसी के मुर्गी खाने में सवा रुपया रोज पर काम करते। यह कार्य भी हफ्ते में कुछ ही दिन मिल पाता था। अतएव मेहनत मजदूरी का अन्य मार्ग भी ढूंढ़ना पड़ता था। बचत करने का गुण बचपन से ही उनमें था। थोड़ी-थोड़ी राशि बचाते हुए आगे चलकर उन्होंने स्वतन्त्र व्यवसाय आरम्भ कर दिया पचास वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते अपने प्रचण्ड पुरुषार्थ एवं आत्म-विश्वास के सहारे वे मूर्धन्य समृद्धों की श्रेणी में जा पहुंचे।
आज सारे विश्व के सम्पन्न और प्रसिद्ध व्यक्ति जिस कम्पनी की कारें प्रयोग में लाते हैं तथा जो समृद्धि-प्रतिष्ठा का चिन्ह समझी जाती हैं वे फोर्ड कम्पनी की ही हैं। इसके अधिष्ठाता एवं संचालक हैं हैनरी फोर्ड। प्रतिवर्ष फोर्ड मोटर कम्पनी की गाड़ियां करोड़ों की संख्या में बिकती हैं। हैनरी के पिता एक सामान्य किसान थे। आजीविका का एक मात्र साधन था कृषि। अर्थाभाव के कारण हैनरी की उच्च शिक्षा की व्यवस्था नहीं बन सकी। पढ़ने के साथ-साथ परिवार के भरण-पोषण के लिए भी स्वयं हैनरी को ही प्रयास करना पड़ता था। एक फर्म में अन्ततः उन्हें पढ़ाई छोड़कर नौकरी करनी पड़ी, नौकरी से ही थोड़ी-थोड़ी बचत करते हुए उनने इतनी रकम एकत्रित कर ली कि फोर्ड मोटर कम्पनी की नींव पड़ सके। सत्तर वर्ष के भीतर ही भीतर यह कम्पनी प्रतिवर्ष दस लाख गाड़ियां तैयार करके बेचने लगी। गाड़ियां अपनी कार्य क्षमता एवं टिकाऊपन के कारण दिन प्रतिदिन लोकप्रिय होती गयीं।
दुनिया के घर घर में पी जाने वाली लिप्टन चाय के निर्माता की प्रगति की कहानी उन्हीं शब्दों में इस प्रकार है ‘‘मैंने अपना जीवन एक स्टेशनरी की दुकान में काम करने वाले एक नौकर के रूप में आरम्भ किया। उस समय मुझे पांच शिलिंग प्रतिदिन मिलते थे। परिवार का खर्च इससे मुश्किल से चलता था पर मैंने निश्चय कर रखा था जैसे भी होगा थोड़ी बचत अवश्य करेंगे। मेरा लक्ष्य स्वतन्त्र व्यवसाय करने का था। चाय का व्यवसाय मैंने बचत की न्यूनतम राशि से आरम्भ किया। ईमानदारी और श्रम शीलता का पल्ला मैंने कभी नहीं छोड़ा। फिजूलखर्ची से मुझे सख्त घृणा थी। जो काम दो डालर में हो सकता था। उसके लिए कभी भी दो डालर नहीं खर्च किये। यही मेरी सफलता की कहानी है।
हिन्दुस्तान में ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं है जो अपने आरम्भिक जीवन में अत्यन्त निर्धन और अभाव ग्रस्त रहे पर आगे चलकर परिश्रम, पुरुषार्थ व लगन के बल पर समृद्ध बने। शापुर जी बारोचा का नाम इनमें उल्लेखनीय हैं। बारोचा जब छः वर्ष के थे तभी उनके पिता का निधन हो गया। पिता की मृत्यु के चार दिन बाद ही बड़े भाई का भी देहान्त हो गया मां ने अपने पहले, पति का समान आदि बेचकर किसी तरह बच्चों का पालन पोषण किया। शापुराजी पढ़ने के साथ-साथ खाली समय में मेहनत मजदूरी करते मां के ऊपर आये आर्थिक दबाव को कम करने का प्रयास करते थे। मैट्रिक पास करके उन्होंने रेलवे में नौकरी की, बाद में बैंक में नौकरी मिल गयी। थोड़े समय बाद वे नौकरी छोड़कर स्वतन्त्र व्यवसाय के क्षेत्र में उतर गये। अपनी सूझ बूझ ईमानदारी एवं परिश्रम शीलता के कारण वे निरन्तर उन्नति करते गये। सम्पत्ति तो एकत्रित की पर लोकोपयोगी कार्यों में बिना किसी नाम अथवा यश के उद्देश्य से खर्च किया। उनके एक मित्र तथा प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी पं. गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने एक संस्मरण में लिखा है कि बरोचा जी मात्र एक सफल व्यवसायी ही नहीं थे वरन् एक उदार व्यक्ति भी थे। उन्होंने लगभग साठ लाख रुपया जनहित कार्यों में खर्च किया।
विशालकाय रेल इंजन से लेकर छोटी सुई तक बड़ी से बड़ी तथा छोटी से छोटी वस्तुओं के निर्माता जमशेद जी टाटा का बचपन घोर अभावों में बीता। वे नवसारी में जन्मे। पिता पुरोहित थे। आरम्भिक शिक्षा प्राप्ति के लिए जमशेद जी एक सम्बन्धी का सहारा लेना पड़ा। विद्यार्थी काल में वे एक ऐसे कमरे में रहे जिसकी छत बारिश में हमेशा टपकती रहती। इतना पैसा नहीं था कि अधिक पैसे वाला कमरा किराये पर ले सकें। शिक्षा प्राप्ति के बाद एक कपड़े के कारखाने का उद्योग आरम्भ किया और उनकी परिश्रम शीलता व्यवहार कुशलता के बलबूते निरन्तर आगे बढ़ते गये।
सम्पन्नता ही नहीं प्रतिभा के क्षेत्र में भी सामान्य से असामान्य स्थिति में जा पहुंचने वालों की एक दास्तान है कि उन्होंने परिस्थितियों को कभी भी अधिक महत्व नहीं दिया। हमेशा अपनी आन्तरिक क्षमताओं पर भरोसा किया। उनका भली भांति नियोजन करके आगे बढ़ते गये। बहुमुखी प्रतिभा के धनी पत्रकार, राजनीतिज्ञ, वैज्ञानिक, दार्शनिक एवं समाज सेवी बैंजामिन फ्रेंकलिन प्रेस में टाइप धोने, मशीन सफाई करने, झाड़ू लगाने आदि का काम करते रहे पर उस काम को भी उन्होंने कभी छोटा नहीं माना और पूरे मनोयोग का परिचय देकर प्रेस का काम भी सीखते रहे। पन्द्रह व्यक्तियों का बड़ा परिवार था। दस वर्ष की आयु से ही उन्होंने घर की अर्थ व्यवस्था में हाथ बटाने के लिए आगे आना पड़ा। प्रेस के कार्य में उन्होंने प्रवीणता प्राप्त कर ली पर विज्ञान में अधिक अभिरुचि होने के कारण सम्बन्धित पुस्तकों का खाली समय में अध्ययन करते रहे। जिज्ञासा और मनोयोग की परिणति ही सफलता है। उनकी वैज्ञानिक प्रतिभा भी उभरती चली गयी। एक साथ कई क्षेत्रों में विशेषता हासिल करके उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि प्रतिकूलताएं मानवी विकास में बाधक नहीं पुरुषार्थ एवं जीवन को निवारने का एक माध्यम भर है।
अमेरिका के इतिहास में अब्राहीम लिंकन का नाम सदा अमर रहेगा। यों तो वहां राष्ट्रपति कई हुए हैं पर जिस आदर और सम्मान के साथ लिंकन का नाम लिया जाता है, उतना अन्य किसी का नहीं। इसका कारण है उनकी आन्तरिक महानता। लिंकन के पिता जंगल से लकड़ियां काटकर परिवार का गुजारा चलाते थे। किसी तरह काम चलाऊ अक्षर ज्ञान जितनी शिक्षा उन्हें पिता से मिल पायी पैसे की तंगी के कारण उन्हें विद्यालय में प्रवेश लेने से वंचित रहना पड़ा। पर बालक के मन में पढ़ने की गहरी अभिरुचि थी। लैम्प पोस्ट के उजाले में वे पढ़ते रहे तथा अपनी ज्ञान वृद्धि करते रहे। प्रतिकूलताओं के आंगन में ही उन्होंने अपनी प्रतिभा निखारी और आगे चलकर राजनीति में प्रवेश किया। कई बार हारे पर निराश नहीं हुए और अपनी आन्तरिक महानता के कारण वे राष्ट्रपति के सर्वोच्च पद पर चुने गये।
शिक्षा एवं प्रतिभा के सम्बन्ध में अधिकांश व्यक्ति अनुकूल परिस्थितियों को अधिक महत्व देते तथा उन्हें ही सफलता का कारण मानते हैं। सोचते हैं कि यदि अच्छे घर में जन्म न हो, पढ़ने लिखने की सुविधाएं न मिलें, उपयुक्त परिस्थितियां लक्ष्य न रहें तब तो आदमी कुछ भी नहीं कर सकता। जबकि सच्चाई यह है कि अन्य क्षेत्रों में न्यूनाधिक परिस्थितियों का भले ही योगदान हो, विद्या और ज्ञान के क्षेत्र में उनका जरा भी वश नहीं चलता। अनुकूल परिस्थितियां होते हुए भी धनवानों के बच्चे अनपढ़ और गंवार रह जाते हैं तथा अनुकूलताएं व साधन न होते हुए भी कितने ही गरीब बच्चे विद्वान एवं ज्ञानी बन जाते हैं। एक कहावत प्रसिद्ध है कि ‘‘लक्ष्मी और सरस्वती की कृपा कभी एक साथ नहीं होती।’’ इस कहावत में सच्चाई का कितना अंश है यह तो विवादास्पद हो सकता है पर यह उतना ही सुनिश्चित और ठोस सत्य है कि गरीब व्यक्ति भले ही धनवान न बने, ज्ञानवान तो बन ही सकता है। कालीदास, सूरदास, तुलसीदास से लेकर प्रेमचन्द्र, शरतचन्द्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, जगन्नाथ दास रत्नाकर आदि कितने ही विद्वान एवं साहित्यकार हुए हैं जिनकी पूर्व और अन्त को आर्थिक स्थिति अत्यन्त सोचनीय बनी रही फिर भी अपने प्रयासों के बलबूते वे संसार को कुछ दे सकने में सफल रहे।
प्रतिकूलताओं का रोने रोते रहने की अपेक्षा यदि मनुष्य प्रयास करे तो किसी भी प्रकार की सफलता सम्पादित कर सकना कठिन नहीं है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, उपरोक्त उदाहरण इसी तथ्य की पुष्टि करते तथा हर मनुष्य को अपना भाग्य अपने हाथों बनाने की प्रेरणा देते हैं।
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क्या है दुःख का वास्तविक स्वरूप? दुख और कुछ नहीं सुख के अभाव का ही नाम है। प्रकाश के अभाव का नाम अन्धकार है। प्रिय परिस्थितियां नहीं होतीं तो अप्रिय की अनुभूति होती है। अनुकूलता के अभाव में प्रतिकूलता भासती है। इन दोनों स्थितियों में सामंजस्य स्थापित किया जा सके तो प्रत्येक परिस्थिति में प्रसन्न और प्रफुल्ल रहा जा सकता है। प्रश्न उठता है कि यह सामंजस्य किस प्रकार स्थापित किया जाये? उत्तर एक ही है, तथ्यों के प्रति सन्तुलित और समझ पूर्ण दृष्टिकोण अपनाया जाय। यह मान्यता बनाकर चला जाये कि दिन और रात की तरह मनुष्य के जीवन में प्रिय और अप्रिय घटनाक्रम आते-जाते रहते हैं। इन उभयपक्षी अनुभूतियों से ही जीवन की सार्थकता और शोभा है। यदि एक ही प्रकार की परिस्थितियां सदा बनी रहें तो यहां सभी कुछ रूखा और नीरस लगने लगेगा। सदा दिन ही रहे रात कभी न हो, सदा मिठाई ही खाने को मिले, नमकीन के दर्शन ही न हों, सबकी उम्र एक सी ही रहे, न कोई छोटा और न बड़ा हो, सर्दी या गर्मी की एक ऋतु रहे, दूसरी बदले ही नहीं तो फिर इस संसार की क्या सुन्दरता रह जायेगी? सारी शोभा-सुषमा ही नष्ट हो जायेगी। सदा प्रिय अनुकूल और सुखद परिस्थितियां ही बनी रहें, कभी अप्रिय और प्रतिकूल स्थिति न आये तो कुशलता, कर्मठता और सहकारिता की जरूरत ही न पड़ेगी। लोग आलसी, निकम्मा और नीरस जीवन जीते हुए किसी प्रकार मृत्यु की प्रतीक्षा करते रहेंगे।
अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण सुविधायें उत्पन्न होना स्वाभाविक है। प्रश्न यह नहीं है कि उसकी क्या प्रतिक्रिया होती है। महत्व पूर्ण तो यह है कि प्रतिकूलताओं और अनुकूलताओं के चढ़ाव-उतार से मनुष्य में कई ऐसे गुण उत्पन्न होते हैं जो उसके व्यक्तित्व की गरिमा को बढ़ाते हैं। प्रतिकूलताओं में पुरुषार्थ, साहस, धैर्य, सन्तुलन, दूरदर्शिता जैसे सद्गुणों का विकास होता है। बल्कि कहा जाना चाहिए कि इन्हीं परिस्थितियों में ये सद्गुण उत्पन्न होते हैं। आवश्यकता केवल इस बात की है कि इन प्रतिकूलताओं में अपना सन्तुलन न खोया जाये। यदि सन्तुलन बना रहे तो जीवन के ऐसे विविध और उपयोगी अनुभव होते हैं जो व्यक्तित्व की शोभा-सुषमा में चार-चांद लगाते हैं। वे अनुभव व्यक्तित्व को गुण सम्पन्न-समृद्ध बनाते हैं।
प्रतिकूलताओं के सम्बन्ध में विधेयात्मक दृष्टि अपनाने की आवश्यकता और उपयोगिता बताते हुए किसी विचारक ने लिखा है, अगर कोई व्यक्ति अपने आपको अन्धेरे कमरे में बन्द करके यह सोचे कि प्रकाश का कोई अस्तित्व ही नहीं है तो यह उसकी भूल है। अन्धकार तो सिर्फ उसके छोटे कमरे में बन्द है बाहर उजाला ही उजाला है। बेहतर यह है कि आपने अपने इर्द-गिर्द भ्रम भ्रान्तियों की जो दीवारें खड़ी कर ली हैं, उन्हें गिराकर अंधेरे बन्द कमरे से बाहर निकलें और सर्वव्यापी प्रकाश से साक्षात्कार करें।’’
प्रतिकूलताओं के इस अन्धकार से निकलने के बाद जीवन का जो अनुभव होता है, उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए किसी शायर ने लिखा है—
‘‘गर्दिशे अय्याम तेरा शुक्रिया,हमने हर पहलू से दुनिया देख ली।’’
जीवन में एक रास्ता न आये, अनेक अनुभव प्राप्त हों इसके लिए परिस्थितियों का अदलना-बदलना आवश्यक है। यदि सदा अनुकूलता ही बनी रहे तो फिर ढर्रे का जीवन जीने वाले लोग गुणों की दृष्टि से पिछड़े ही पड़े रहेंगे और उन्हें विकास की, परिश्रम पुरुषार्थ की आवश्यकता ही अनुभव नहीं होगी। इस प्रकार के अगणित तथ्यों को ध्यान में रखते हुए सृष्टा ने इस दुनिया में अनुकूलता और प्रतिकूलता उत्पन्न की है। अनुकूल स्थिति से लाभ उठाकर हम अपने सुविधा साधनों को बढ़ायें और प्रतिकूलता के पत्थर से घिसकर अपनी प्रतिभा पैनी करें, यही उचित है और उपयुक्त भी।
कई व्यक्ति प्रतिकूल परिस्थितियों में अपना सन्तुलन खो बैठते हैं और वे बेहिसाब दुखी रहने लगते हैं। एक बार प्रयत्न करने पर भी कष्ट दूर नहीं हुआ या सफलता नहीं मिली तो वे निराश होकर बैठ जाते हैं। कई व्यक्ति इससे भी आगे बढ़े-चढ़े होते हैं और बैठे-ठाले भविष्य में विपत्ति आने की शंका करते रहते हैं। यही नहीं होता कि प्रस्तुत असुविधा या प्रतिकूलताओं के समाधान का पुरुषार्थ करें या उपाय सोचें। उल्टे इसके विपरीत वे चिन्ता, भय, निराशा, आशंका और उद्विग्नता जैसी उलझनें खड़ी करके अपने को उसमें फंसा लेते हैं और खुद ही नई विपत्ति गढ़कर खड़ी कर लेते हैं। इस वैभव के अवसाद प्रभावों और हानियों को समय रहते समझ लेना चाहिए ताकि इस दलदल में फंसने की विपत्ति से बचा जा सके।
देखा गया है कि जिन आशंकाओं से त्रस्त होकर चिन्तित रहा जाता है उनमें से अधिकांश निराधार ही हैं। इस सन्दर्भ में जर्मन वैज्ञानिकों द्वारा किया गया एक सर्वेक्षण बहुत महत्वपूर्ण है। वहां के मनःशास्त्रियों के एक दल ने जनवरी सन् 1979 में चिन्तातुर लोगों की पड़ताल के लिए एक प्रश्नावली तैयार की और उसे एक प्रसिद्ध पत्रिका में इस आग्रह के साथ प्रकाशित किया कि पाठक उसके उत्तर दें। करीब पांच हजार पाठकों ने उत्तर दिये। इन उत्तरों का विश्लेषण किया गया। और उनसे जो निष्कर्ष प्राप्त हुए उनके अनुसार 40 प्रतिशत व्यक्तियों की चिन्ता ऐसी समस्याओं को लेकर थी, जिनकी केवल आशंका थी, वे सामने नहीं आई थीं। 30 प्रतिशत समस्यायें ऐसी थीं जिनके कारण बहुत मामूली से और उन्हें थोड़ी सी सूझबूझ से सुलझाया जा सकता था। 12 प्रतिशत व्यक्तियों की चिन्तायें स्वास्थ्य सम्बन्धी थीं और वह भी ऐसी नहीं जो उपचार से ठीक न हो सकें। 10 प्रतिशत समस्यायें ऐसी थीं जिनके लिए दौड़-धूप करना, दूसरों का सहयोग लेना और थोड़ी परेशानी उठाना आवश्यक प्रतीत हुआ। केवल 8 प्रतिशत चिन्तायें ही ऐसी थीं, जिन्हें कुछ वजनदार कहा जा सकता था और जिन्हें पूरी तरह हल न किया जा सका तो उनके कारण कुछ हानि उठाने की सम्भावना विद्यमान थी।
यह तो हुआ चिन्ताओं का विश्लेषण। अधिकांश व्यक्ति ऐसे कारणों से चिन्तित रहते हैं जो वास्तव में कोई कारण नहीं होते। उनके कारणों को देखकर यही कहा जा सकता है कि उन्हें चिन्तित रहने की आदत है। हालांकि चिन्ता से किसी समस्या का, वास्तव में कोई समस्या है तो भी समाधान नहीं होता। देखा गया है कि चिंताग्रस्त रहने वाले व्यक्ति निश्चिन्त व्यक्तियों की अपेक्षा कहीं अधिक घाटे में रहते हैं। निश्चिन्त रहने वाले, मन-मौजी और मस्त लोगों की नियत समय पर ही समस्या का सामना करना पड़ता है, जबकि चिन्तातुर लोग बहुत पहले से ही मानसिक सन्तुलन खो बैठते हैं और हड़बड़ी के कारण अपना अच्छा स्वास्थ्य भी गंवा बैठते हैं। मस्तिष्क जितना भी अधिक समस्याओं से उलझा रहेगा, उतना ही वह समस्याओं को सुलझाने में असमर्थ हो जायेगा। क्रोधी, आवेश, ग्रस्त, आक्रोश भरे हुए दिमाग एक प्रकार से विक्षिप्त जैसे हो जाते हैं।
इन चिन्ताओं के कारण उत्पन्न हुए विक्षेपों का कारण क्या है? जीवन के प्रति, सुलझे हुए दृष्टिकोण का अभाव। जीवन के प्रति यदि सहज दृष्टिकोण अपनाकर चला जायेगा, अनुकूलताओं और प्रतिकूलताओं को दिन और रात की तरह स्वाभाविक समझा जायेगा तो कोई कारण नहीं है कि प्रगति पथ अवरुद्ध हो जाय। दृष्टिकोण इच्छाओं— आकांक्षाओं के सम्बन्ध में किसी विचारक का कथन है आप जैसे है वैसे ही आपकी दुनिया है। सृष्टि की प्रत्येक वस्तु आपके अभ्यन्तर की छाया है। बाहर जो कुछ है वह गौण है क्योंकि वह सब आपकी मनःस्थिति का ही प्रतिबिम्ब है। महत्वपूर्ण तो यह है कि आप भीतर से क्या है? भीतर से आप जो कुछ भी हैं उसी के अनुरूप आपकी दुनिया ढल जायेगी। जो कुछ आप जानते हैं, अनुभव द्वारा प्राप्त हुआ है और जो कुछ आप भविष्य में जान सकेंगे वह भी आपके अनुभव द्वारा ही प्राप्त होगा तथा आपके व्यक्तित्व का अविच्छिन्न अंग बन जायेगा’’
इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जीवन और जगत के प्रति मनुष्य की अपनी दृष्टि ही उसकी दुनिया का निर्माण करती है। इसीलिये परिस्थितियां उतनी महत्वपूर्ण नहीं हैं जितनी कि मनःस्थिति। इसीलिए सौन्दर्य, हर्ष और उल्लास अथवा दुःख और विषाद और पीड़ा का अनुभव मनुष्य बाहरी कारणों से अनुभव करता है। अस्तु, प्रस्तुत प्रतिकूलताओं का समाधान करने के लिए स्थिर चित्त से तन्मय होता तो उपयुक्त है किन्तु इसके लिए चिन्तित होने, निराश हो जाने से कोई बात नहीं बनती। चिन्ता और निराशा तो समाधान के मार्ग में व्यवधान उत्पन्न करती हैं। प्रतिकूलताओं को देखकर घबड़ाना और उनके लिए चिन्तित होते रहना व्यर्थ ही नहीं हानिकारक भी है।
‘‘मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है’’ इस सिद्धान्त को यदि जीवन का मूल मन्त्र बना लिया जाय तो इसमें सन्देह नहीं कि पुरुषार्थ परायण होकर अभीष्ट प्रकार की सफलता सम्पादित की जा सकती है। कहते हैं मनुष्य का भाग्य उसके हाथ एवं मस्तक की रेखाओं पर लिखा होता है। तार्किक बुद्धि इस बात को स्वीकार करती है पर थोड़ी गहराई में चलें तथा उक्त कथन का गम्भीरता से विश्लेषण करें तो यही तथ्य निकलता है कि मनुष्य को हाथ अर्थात् पुरुषार्थ का प्रतीक तथा मस्तिष्क अर्थात् बुद्धिरूपी दो ऐसी सम्पदाएं प्राप्त हैं जिनका भली भांति सदुपयोग करके मन चाही दिशा में सफलताएं अर्जित की जा सकती है।
जन्म से ही तरह-तरह की अनुकूलताएं किन्हीं-किन्हीं विरलों को ही प्राप्त होती हैं। अधिकांश को प्रतिकूलताओं का सामना करना पड़ता तथा अपना मार्ग स्वयं गढ़ना पड़ता है। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी व्यक्ति अपना आत्म विश्वास साहस एवं सूझ बूझ बनाये रखे तो कोई कारण नहीं कि उन पर विजय न प्राप्त कर सके। निराशा जन्य मनःस्थिति ही जीवन की असफलताओं का प्रमुख कारण बनती है तथा चट्टान की भांति प्रगति के मार्ग में अवरोध बनकर अड़ी रहती है अस्तु प्रगति के इच्छुक व्यक्तियों को सर्वप्रथम इस अवरोध को हटाना पड़ता है।
अर्थाभाव के कारण हजारों लाखों नहीं करोड़ों लोग दिन रात चिन्ता और निराशा की अग्नि में जलते रहते तथा उत्तुंग लहरों के बीच थपेड़े खाती नाव की भांति अपनी जीवन नैया खेने का प्रयास करते रहते हैं। पर जिन्होंने निराशा के घोर क्षणों में भी आशा और पुरुषार्थ की पतवार का आश्रय लिया उनने न केवल परिस्थितियों को परास्त कर दिखाया वरन् यह भी सिद्ध कर दिया कि प्रयास करने पर मनुष्य के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। ढूंढ़ने पर ऐसे अनुकरणीय उदाहरण असंख्यों मिल जायेंगे।
बहु प्रख्यात नोबुल पुरस्कार से अधिकांश व्यक्ति परिचित होंगे। इसके प्रवर्तक थे अल्फ्रेड नोवल। इस तथ्य के कम ही व्यक्ति अवगत होंगे कि नोबेल ने अपना प्रारम्भिक जीवन घोर कष्टों में बिताया। उनके पिता एक जहाज में कैविन बॉय के रूप में काम करते थे। बाद में उनकी रुचि विस्फोटक पदार्थों के आविष्कार में हुई। इस कार्य में ही उन्हें अपना जीवन गंवा देना पड़ा। अल्फ्रेड नोवेल और उनकी विधवा मां के पास गुजारे के लिए पैतृक सम्पत्ति के नाम पर एक कौड़ी भी नहीं थी। निर्वाह के लिए नोवेल मेहनत मजदूरी करने लगे। सामान्य व्यक्तियों की तरह सम्पन्नता अर्जित करने की चाह तो अल्फ्रेड में भी थी पर इसके पीछे लक्ष्य महान था आमोद-प्रमोद से भरा विलासिता युक्त जीवन बिताने को वे एक अपराध मानते थे। व्यवस्थारत होकर उन्होंने सम्पत्ति तो जुटा ली पर कभी भी अपव्यय में उसका दुरुपयोग नहीं किया सदा सदा जीवन उच्च विचार का ही सिद्धान्त अपनाया। समृद्धि उनकी चेरी बनी पर व्यक्तिगत उपभोग के लिए नहीं, लोक मंगल के लिए। जब वे मरे तो वे बीस लाख पौण्ड से भी अधिक धनराशि छोड़ गये। सामान्य व्यक्तियों की भांति आगामी पीढ़ियों को गुलछर्रे उड़ाने मौज मजा करने के लिए उन्होंने अपनी सम्पदा को नहीं छोड़ा वे एक वसीयत बनाकर गये जो उन्हें अमर कर गई। मानव की विशिष्ट सेवा में लगे विभिन्न क्षेत्रों के पांच व्यक्तियों को जो पुरस्कार हर वर्ष वितरित किया जाता है वह अल्फ्रेड नोबुल की उदारता का ही परिणाम है।
अमेरिका के प्रसिद्ध अरबपति रॉकफेलर की गणना विश्व के समृद्धतम व्यक्तियों में होती है। पर यह कम ही व्यक्ति जानते हैं कि उन्होंने अपना आरम्भिक जीवन घोर विपन्नता में बिताया। अपना तथा अपनी मां का पेट भरने के लिए वे एक पड़ौसी के मुर्गी खाने में सवा रुपया रोज पर काम करते। यह कार्य भी हफ्ते में कुछ ही दिन मिल पाता था। अतएव मेहनत मजदूरी का अन्य मार्ग भी ढूंढ़ना पड़ता था। बचत करने का गुण बचपन से ही उनमें था। थोड़ी-थोड़ी राशि बचाते हुए आगे चलकर उन्होंने स्वतन्त्र व्यवसाय आरम्भ कर दिया पचास वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते अपने प्रचण्ड पुरुषार्थ एवं आत्म-विश्वास के सहारे वे मूर्धन्य समृद्धों की श्रेणी में जा पहुंचे।
आज सारे विश्व के सम्पन्न और प्रसिद्ध व्यक्ति जिस कम्पनी की कारें प्रयोग में लाते हैं तथा जो समृद्धि-प्रतिष्ठा का चिन्ह समझी जाती हैं वे फोर्ड कम्पनी की ही हैं। इसके अधिष्ठाता एवं संचालक हैं हैनरी फोर्ड। प्रतिवर्ष फोर्ड मोटर कम्पनी की गाड़ियां करोड़ों की संख्या में बिकती हैं। हैनरी के पिता एक सामान्य किसान थे। आजीविका का एक मात्र साधन था कृषि। अर्थाभाव के कारण हैनरी की उच्च शिक्षा की व्यवस्था नहीं बन सकी। पढ़ने के साथ-साथ परिवार के भरण-पोषण के लिए भी स्वयं हैनरी को ही प्रयास करना पड़ता था। एक फर्म में अन्ततः उन्हें पढ़ाई छोड़कर नौकरी करनी पड़ी, नौकरी से ही थोड़ी-थोड़ी बचत करते हुए उनने इतनी रकम एकत्रित कर ली कि फोर्ड मोटर कम्पनी की नींव पड़ सके। सत्तर वर्ष के भीतर ही भीतर यह कम्पनी प्रतिवर्ष दस लाख गाड़ियां तैयार करके बेचने लगी। गाड़ियां अपनी कार्य क्षमता एवं टिकाऊपन के कारण दिन प्रतिदिन लोकप्रिय होती गयीं।
दुनिया के घर घर में पी जाने वाली लिप्टन चाय के निर्माता की प्रगति की कहानी उन्हीं शब्दों में इस प्रकार है ‘‘मैंने अपना जीवन एक स्टेशनरी की दुकान में काम करने वाले एक नौकर के रूप में आरम्भ किया। उस समय मुझे पांच शिलिंग प्रतिदिन मिलते थे। परिवार का खर्च इससे मुश्किल से चलता था पर मैंने निश्चय कर रखा था जैसे भी होगा थोड़ी बचत अवश्य करेंगे। मेरा लक्ष्य स्वतन्त्र व्यवसाय करने का था। चाय का व्यवसाय मैंने बचत की न्यूनतम राशि से आरम्भ किया। ईमानदारी और श्रम शीलता का पल्ला मैंने कभी नहीं छोड़ा। फिजूलखर्ची से मुझे सख्त घृणा थी। जो काम दो डालर में हो सकता था। उसके लिए कभी भी दो डालर नहीं खर्च किये। यही मेरी सफलता की कहानी है।
हिन्दुस्तान में ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं है जो अपने आरम्भिक जीवन में अत्यन्त निर्धन और अभाव ग्रस्त रहे पर आगे चलकर परिश्रम, पुरुषार्थ व लगन के बल पर समृद्ध बने। शापुर जी बारोचा का नाम इनमें उल्लेखनीय हैं। बारोचा जब छः वर्ष के थे तभी उनके पिता का निधन हो गया। पिता की मृत्यु के चार दिन बाद ही बड़े भाई का भी देहान्त हो गया मां ने अपने पहले, पति का समान आदि बेचकर किसी तरह बच्चों का पालन पोषण किया। शापुराजी पढ़ने के साथ-साथ खाली समय में मेहनत मजदूरी करते मां के ऊपर आये आर्थिक दबाव को कम करने का प्रयास करते थे। मैट्रिक पास करके उन्होंने रेलवे में नौकरी की, बाद में बैंक में नौकरी मिल गयी। थोड़े समय बाद वे नौकरी छोड़कर स्वतन्त्र व्यवसाय के क्षेत्र में उतर गये। अपनी सूझ बूझ ईमानदारी एवं परिश्रम शीलता के कारण वे निरन्तर उन्नति करते गये। सम्पत्ति तो एकत्रित की पर लोकोपयोगी कार्यों में बिना किसी नाम अथवा यश के उद्देश्य से खर्च किया। उनके एक मित्र तथा प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी पं. गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने एक संस्मरण में लिखा है कि बरोचा जी मात्र एक सफल व्यवसायी ही नहीं थे वरन् एक उदार व्यक्ति भी थे। उन्होंने लगभग साठ लाख रुपया जनहित कार्यों में खर्च किया।
विशालकाय रेल इंजन से लेकर छोटी सुई तक बड़ी से बड़ी तथा छोटी से छोटी वस्तुओं के निर्माता जमशेद जी टाटा का बचपन घोर अभावों में बीता। वे नवसारी में जन्मे। पिता पुरोहित थे। आरम्भिक शिक्षा प्राप्ति के लिए जमशेद जी एक सम्बन्धी का सहारा लेना पड़ा। विद्यार्थी काल में वे एक ऐसे कमरे में रहे जिसकी छत बारिश में हमेशा टपकती रहती। इतना पैसा नहीं था कि अधिक पैसे वाला कमरा किराये पर ले सकें। शिक्षा प्राप्ति के बाद एक कपड़े के कारखाने का उद्योग आरम्भ किया और उनकी परिश्रम शीलता व्यवहार कुशलता के बलबूते निरन्तर आगे बढ़ते गये।
सम्पन्नता ही नहीं प्रतिभा के क्षेत्र में भी सामान्य से असामान्य स्थिति में जा पहुंचने वालों की एक दास्तान है कि उन्होंने परिस्थितियों को कभी भी अधिक महत्व नहीं दिया। हमेशा अपनी आन्तरिक क्षमताओं पर भरोसा किया। उनका भली भांति नियोजन करके आगे बढ़ते गये। बहुमुखी प्रतिभा के धनी पत्रकार, राजनीतिज्ञ, वैज्ञानिक, दार्शनिक एवं समाज सेवी बैंजामिन फ्रेंकलिन प्रेस में टाइप धोने, मशीन सफाई करने, झाड़ू लगाने आदि का काम करते रहे पर उस काम को भी उन्होंने कभी छोटा नहीं माना और पूरे मनोयोग का परिचय देकर प्रेस का काम भी सीखते रहे। पन्द्रह व्यक्तियों का बड़ा परिवार था। दस वर्ष की आयु से ही उन्होंने घर की अर्थ व्यवस्था में हाथ बटाने के लिए आगे आना पड़ा। प्रेस के कार्य में उन्होंने प्रवीणता प्राप्त कर ली पर विज्ञान में अधिक अभिरुचि होने के कारण सम्बन्धित पुस्तकों का खाली समय में अध्ययन करते रहे। जिज्ञासा और मनोयोग की परिणति ही सफलता है। उनकी वैज्ञानिक प्रतिभा भी उभरती चली गयी। एक साथ कई क्षेत्रों में विशेषता हासिल करके उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि प्रतिकूलताएं मानवी विकास में बाधक नहीं पुरुषार्थ एवं जीवन को निवारने का एक माध्यम भर है।
अमेरिका के इतिहास में अब्राहीम लिंकन का नाम सदा अमर रहेगा। यों तो वहां राष्ट्रपति कई हुए हैं पर जिस आदर और सम्मान के साथ लिंकन का नाम लिया जाता है, उतना अन्य किसी का नहीं। इसका कारण है उनकी आन्तरिक महानता। लिंकन के पिता जंगल से लकड़ियां काटकर परिवार का गुजारा चलाते थे। किसी तरह काम चलाऊ अक्षर ज्ञान जितनी शिक्षा उन्हें पिता से मिल पायी पैसे की तंगी के कारण उन्हें विद्यालय में प्रवेश लेने से वंचित रहना पड़ा। पर बालक के मन में पढ़ने की गहरी अभिरुचि थी। लैम्प पोस्ट के उजाले में वे पढ़ते रहे तथा अपनी ज्ञान वृद्धि करते रहे। प्रतिकूलताओं के आंगन में ही उन्होंने अपनी प्रतिभा निखारी और आगे चलकर राजनीति में प्रवेश किया। कई बार हारे पर निराश नहीं हुए और अपनी आन्तरिक महानता के कारण वे राष्ट्रपति के सर्वोच्च पद पर चुने गये।
शिक्षा एवं प्रतिभा के सम्बन्ध में अधिकांश व्यक्ति अनुकूल परिस्थितियों को अधिक महत्व देते तथा उन्हें ही सफलता का कारण मानते हैं। सोचते हैं कि यदि अच्छे घर में जन्म न हो, पढ़ने लिखने की सुविधाएं न मिलें, उपयुक्त परिस्थितियां लक्ष्य न रहें तब तो आदमी कुछ भी नहीं कर सकता। जबकि सच्चाई यह है कि अन्य क्षेत्रों में न्यूनाधिक परिस्थितियों का भले ही योगदान हो, विद्या और ज्ञान के क्षेत्र में उनका जरा भी वश नहीं चलता। अनुकूल परिस्थितियां होते हुए भी धनवानों के बच्चे अनपढ़ और गंवार रह जाते हैं तथा अनुकूलताएं व साधन न होते हुए भी कितने ही गरीब बच्चे विद्वान एवं ज्ञानी बन जाते हैं। एक कहावत प्रसिद्ध है कि ‘‘लक्ष्मी और सरस्वती की कृपा कभी एक साथ नहीं होती।’’ इस कहावत में सच्चाई का कितना अंश है यह तो विवादास्पद हो सकता है पर यह उतना ही सुनिश्चित और ठोस सत्य है कि गरीब व्यक्ति भले ही धनवान न बने, ज्ञानवान तो बन ही सकता है। कालीदास, सूरदास, तुलसीदास से लेकर प्रेमचन्द्र, शरतचन्द्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचन्द्र शुक्ल, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, जगन्नाथ दास रत्नाकर आदि कितने ही विद्वान एवं साहित्यकार हुए हैं जिनकी पूर्व और अन्त को आर्थिक स्थिति अत्यन्त सोचनीय बनी रही फिर भी अपने प्रयासों के बलबूते वे संसार को कुछ दे सकने में सफल रहे।
प्रतिकूलताओं का रोने रोते रहने की अपेक्षा यदि मनुष्य प्रयास करे तो किसी भी प्रकार की सफलता सम्पादित कर सकना कठिन नहीं है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, उपरोक्त उदाहरण इसी तथ्य की पुष्टि करते तथा हर मनुष्य को अपना भाग्य अपने हाथों बनाने की प्रेरणा देते हैं।
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