Books - सर्वोपयोगी गायत्री साधना
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Language: HINDI
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शक्ति के भंडार—‘अनुष्ठान’
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यों गायत्री नित्य उपासना करने योग्य है। त्रिकाल सन्ध्या में प्रातः, मध्यान्ह, सायं तीन बार उसी की उपासना करने का नित्यकर्म शास्त्रों में आवश्यक बतलाया गया है। जब भी जितनी अधिक मात्रा में गायत्री का जप, पूजन, चिन्तन, मनन किया जा सके उतना ही अच्छा है, क्योंकि—‘‘अधिकस्य अधिक फलम्’’।
परन्तु किसी विशेष प्रयोजन के लिये जब विशेष शक्ति का संचय करना पड़ता है तो उसके लिए एक विशेष क्रिया की जाती है। इस क्रिया को अनुष्ठान के नाम से पुकारते हैं, जब कहीं परदेश के लिये यात्रा की जाती है तो रास्ते के लिये कुछ भोजन सामग्री तथा खर्च को रुपये साथ रख लेना आवश्यक होता है। यदि यह मार्ग-व्यय साथ न हो तो यात्रा बड़ी कष्टसाध्य हो जाती है। अनुष्ठान एक प्रकार का मार्ग-व्यय है। इस साधना को करने से पूंजी जमा हो जाती है, उसे साथ लेकर किसी भी भौतिक या आध्यात्मिक कार्य में जुटा जाय तो यात्रा बड़ी सरल हो जाती है।
बच्चा दिन भर मां-मां पुकारता रहता है, माता दिन भर बेटा, लल्ला कहकर उसको उत्तर देती रहती है, यह लाड़-दुलार यों ही दिन भर चलता रहता है, पर जब कोई विशेष आवश्यकता पड़ती है, कष्ट होता है, कठिनाई आती है, आशंका होती है, या सहायता की जरूरत पड़ती है तो बालक विशेष बलपूर्वक, विशेष स्वर से माता को पुकारता है। इस विशेष पुकार को सुनकर माता अपने अन्य कामों को छोड़कर बालक के पास दौड़ आती है और उसकी सहायता करती है। अनुष्ठान साधक की ऐसी ही पुकार है। जिसमें विशेष एवं विशेष आकर्षण होता है, उस आकर्षण से गायत्री-शक्ति विशेष रूप से साधक के समीप एकत्रित हो जाती है।
सांसारिक कठिनाइयों में, मानसिक उलझनों आन्तरिक उद्वेगों में गायत्री-अनुष्ठान से साधारण सहायता मिलती है। यह ठीक है कि ‘‘किसी को सोने का घड़ा भर कर अशर्फियां गायत्री नहीं दे जाती’’ पर यह भी ठीक है कि उसके प्रभाव से मनोभूमि में भौतिक परिवर्तन होते हैं, जिनके कारण कठिनाई का उचित हल निकल आता है। उपासक में ऐसी बुद्धि, ऐसी प्रतिभा, ऐसी सूझ, ऐसी दूरदर्शिता पैदा हो जाती है, जिसके कारण वह ऐसा रास्ता प्राप्त कर लेता है जो कठिनाई के निवारण में रामबाण की तरह फलप्रद सिद्ध होता है। भ्रांत मस्तिष्क में कुछ असंगत, असम्भव और आवश्यक विचारधारायें, कामनायें मान्यतायें घुस पड़ती हैं, जिनके कारण वह व्यक्ति अकारण दुःखी बना रहता है। गायत्री-साधना से मस्तिष्क का ऐसा परिमार्जन हो जाता है, जिसमें कुछ समय पहले जो बातें अत्यन्त आवश्यक और महत्वपूर्ण लगती थीं, वे ही पीछे अनावश्यक और अनुपयुक्त लगने लगती हैं। वह उधर से मुंह मोड़ लेता है। इस प्रकार यह मानसिक परिवर्तन इतना आनन्दमय सिद्ध होता है, जितना कि पूर्व कल्पित भ्रांत कामनाओं के पूर्ण होने पर भी सुख न मिलता। अनुष्ठान द्वारा ऐसे ही ज्ञात और अज्ञात परिवर्तन होते हैं जिनके कारण दुःखी और चिन्ताओं से ग्रस्त मनुष्य थोड़े समय में सुख-शान्ति का स्वर्गीय जीवन बिताने की स्थिति में पहुंच जाता है।
चौबीस हजार मन्त्र जप का लघु अनुष्ठान एवं सवा लाख मन्त्रों के जप का मध्यम अनुष्ठान कहलाता है। अनुष्ठान से साधना को पकने में सहायता मिलती है। फल वनस्पति सभी पक कर ही पूरा लाभ पहुंचा पाते हैं। इसी तरह पकी हुई साधना ही प्रचुर फल देती है।
अनुष्ठान की विधि—
अनुष्ठान किसी भी मास में किया जा सकता है। तिथियों में पंचमी, एकादशी, पूर्णमासी शुभ मानी गई हैं। पंचमी को दुर्गा, एकादशी को सरस्वती, पूर्णमासी को लक्ष्मी तत्व की प्रधानता रहती है। शुक्ल पक्ष और कृष्णपक्ष दोनों में से किसी का निषेध नहीं है किन्तु कृष्ण पक्ष की अपेक्षा शुक्लपक्ष अधिक शुभ है।
अनुष्ठान आरम्भ करते हुए नित्य गायत्री का आह्वान और अंत करते हुए विसर्जन करना चाहिये। इस प्रतिष्ठा में भावना और निवेदन प्रधान हैं। श्रद्धापूर्वक ‘भगवती’ जगज्जननी भक्त वत्सला, गायत्री यहां प्रतिष्ठित होने का अनुग्रह कीजिये। ऐसी प्रार्थना संस्कृत या मातृभाषा में करनी चाहिये। विश्वास करना चाहिये कि प्रार्थना को स्वीकार करके वे कृपापूर्वक पधार गई है। विसर्जन करते समय प्रार्थना करनी चाहिये कि ‘‘आदि शक्ति भयहारिणी, शक्तिदायिनी, तरणतारिणी मातृके! अब विसर्जित हूजिये’’। इस भावना को संस्कृत या अपनी मातृभाषा में कह सकते हैं, इस प्रार्थना के साथ-साथ यह विश्वास करना चाहिए कि प्रार्थना स्वीकार करके वे विसर्जित हो गई हैं। किसी छोटी चौकी, चबूतरी या आसन पर फूलों का एक छोटा सुन्दर-सा आसन बनाना चाहिए और उस पर गायत्री की प्रतिष्ठा होने की भावना करनी चाहिये। साकार उपासना के समर्थक भगवती का कोई सुन्दर सा चित्र अथवा प्रतिमा को उन फूलों पर स्थापित कर सकते हैं। निराकार के उपासक निराकार भगवती की शक्ति पूजा का एक स्फुल्लिंग वहां प्रतिष्ठित होने की भावना कर सकते हैं। कोई-कोई साधक धूपबत्ती की, दीपक की अग्नि-शिक्षा में भगवती की चैतन्य ज्वाला का दर्शन करते हैं और उसी दीपक या धूपबत्ती को फूलों पर प्रतिष्ठित करके अपनी आराध्य शक्ति की उपस्थिति अनुभव करते हैं। विसर्जन के समय प्रतिमा को हटाकर शयन करा देना चाहिए, पुष्पों को जलाशय या पवित्र स्थान पर विसर्जित कर देना चाहिये। अधजली अगरबत्ती या रुई बत्ती को बुझाकर उसे भी पुष्पों के साथ विसर्जित कर देना चाहिए। दूसरे दिन जली हुई बत्ती का प्रयोग फिर न होना चाहिए।
पूर्ववर्णित विधि से प्रातःकाल पूर्वाभिमुख होकर शुद्ध भूमि पर शुद्ध होकर कुश के आसन पर बैठें। जल का पात्र समीप रखलें। धूप और दीपक जप के समय जलते रहना चाहिये। बुझ जाये तो उस बत्ती को हटाकर नई बत्ती डालकर पुनः जलाना चाहिये। दीपक या उसमें पड़े घृत को हटाने की आवश्यकता नहीं है।
पुष्प आसन पर गायत्री की प्रतिष्ठा और पूजा के अनन्तर जप प्रारम्भ कर देना चाहिए। नित्य यही क्रम रहे। प्रतिष्ठा और पूजा अनुष्ठान काल में नित्य होती रहनी चाहिये। जप के समय मन को श्रद्धान्वित रखना चाहिये, स्थिर बनाना चाहिये। मन चारों ओर न दौड़े इसलिये पूर्व वर्णित ध्यान भावना के अनुसार गायत्री का ध्यान करते हुए जप करना चाहिए। साधन के इस आवश्यक अंग ध्यान में मन लगा देने से वह एक कार्य में उलझा रहता है और जगह जगह नहीं भागता। भागे तो उसे रोक-रोक कर बार-बार ध्यान भावना पर लगाना चाहिये। इस विधि से एकाग्रता की दिन-दिन वृद्धि होती चलती है।
लघु अनुष्ठान के लिए नवरात्रियों का समय बहुत उपयुक्त होता है। जैसे दिन एवं रात्रि के संधिकाल में उपासना अधिक फलवती होती है वैसे ही ऋतुओं के संधिकाल नवरात्रियों में भी साधना का विशेष महत्व है आश्विन (क्वार) और चैत्रमास शुक्लपक्ष में प्रतिपदा (पड़वा) से लेकर नवमी तक नौ दुर्गायें रहती हैं। यह समय गायत्री-साधना के लिये सबसे अधिक उपयुक्त है। इन दिनों में उपवास रखकर चौबीस हजार मन्त्रों के जप का छोटा सा अनुष्ठान कर लेना चाहिए। यह छोटी साधना भी बड़ी के समान उपयोगी सिद्ध होती है।
एक समय अन्नाहार, एक समय फलाहार, दो समय दूध और फल एक समय आहार, एक समय फल दूध, का आहार, केवल दूध का आहार इसमें से जो उपवास अपनी सामर्थ्यानुकूल हो उसी के अनुसार साधना आरम्भ कर देनी चाहिए। प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में उठकर शौच, स्नान से निवृत्त होकर पूर्व वर्णित नियमों को ध्यान में रखते हुए बैठना चाहिये। नौ दिन में चौबीस हजार का जप करना है। प्रतिदिन 30 मालायें जपने से यह संख्या पूरी हो जाती है। तीन-चार घन्टे में अपनी गति के अनुसार इतनी मालायें आसानी से जपी जा सकती हैं। यदि एक बार इतना समय लगातार जप करना कठिन हो तो अधिकांश भाग प्रातः पूरा करके न्यून अंश सायंकाल को पूरा कर लेना चाहिये।
यदि छोटा नौ दिन का अनुष्ठान नवदुर्गाओं के समय में प्रति वर्ष करते रहा जाय तो सबसे उत्तम है। नौ दिन साधना के लिये बड़े ही उपयुक्त हैं। कष्ट निवारण, कामना-पूर्ति और आत्मबल बढ़ाने में इन दिनों की उपासना बहुत ही लाभदायक सिद्ध होती है।
साधकों के लिए कुछ आवश्यक नियम—
गायत्री-साधना करने वालों के लिये कुछ आवश्यक जानकारियां नीचे दी जाती हैं—
1—शरीर को शुद्ध करके साधना पर बैठना चाहिये। साधारणतः स्नान के द्वारा ही शुद्धि होती है, पर किसी विवशता, ऋतु प्रतिकूलता या अस्वस्थता की दशा में हाथ-मुंह धोकर या गीले कपड़े से शरीर पोंछकर भी काम चलाया जा सकता है।
2—साधना के समय शरीर पर कम से कम वस्त्र रहने चाहिये। शीत की अधिकता हो तो कसे हुए कपड़े पहनने की अपेक्षा कम्बल आदि ओढ़कर शीत-निवारण का लेना उत्तम है।
3—साधना के लिये एकान्त, खुली हवा की एक ऐसी जगह ढूंढ़नी चाहिए, जहां का वातावरण शान्तिमय हो। खेत, बगीचा, जलाशय का किनारा, देव-मन्दिर इस कार्य के लिये उपयुक्त होते हैं, पर जहां ऐसा स्थान मिलने में असुविधा हो, वहां घर का कोई स्वच्छ और शान्त भाग भी चुना जा सकता है।
4—पालती मारकर सीधे-साधे ढंग से बैठना चाहिये। कष्ट-साध्य आसन लगाकर बैठने से शरीर को कष्ट होता है और मन बार-बार उचटता है, इसलिए ऐसी तरह बैठना चाहिये कि देर तक बैठे रहने में असुविधा न हो।
5—रीढ़ की हड्डी को सदा सीधा रखना चाहिये। कमर झुकाकर बैठने से मेरुदण्ड टेढ़ा हो जाता है और सुषुम्ना नाड़ी में प्राण का आवागमन होने में बाधा पड़ती है। 6—बिना बिछाये जमीन पर साधना करके के लिए न बैठना चाहिये। इससे साधना-काल में उत्पन्न होने वाली शारीरिक विद्युत जमीन पर उतर जाती है। घास या पत्तों से बने हुए आसन सर्वश्रेष्ठ हैं। कुश का आसन, चटाई, रस्सियों का बना फर्श सबसे अच्छे हैं। इनके बाद सूती आसनों का नम्बर है। ऊन के तथा चर्म के आसन तांत्रिक कर्मों में प्रयुक्त होते हैं।
7—माला, तुलसी या चन्दन की लेनी चाहिये। रुद्राक्ष, लाल चन्दन, शंख आदि की माला गायत्री के तांत्रिक प्रयोगों में प्रयुक्त होती है।
8— जप के लिए प्रातःकाल एवं संध्याकाल का समय अधिक उपयुक्त है। अधिकांश जप इन्हीं आसनों पर पूरा करना चाहिये।
9—साधना के लिये चार बातों का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिये—(अ) चित्त एकाग्र रहे, मन इधर-उधर न उछलता फिरे। यदि चित्त बहुत दौड़े तो उसे माता की सुन्दर छवि के ध्यान में लगाना चाहिये। (ब) माता के प्रति अगाध श्रद्धा और विश्वास हो, अविश्वासी और शंका शंकित मति वाले पूरा लाभ नहीं पा सकते। (स) दृढ़ता के साथ साधना पर अड़े रहना चाहिये। अनुत्साह, मन उचटना, नीरसता प्रतीत होना, जल्दी लाभ न मिलना, अस्वस्थता तथा अन्य सांसारिक कठिनाइयों का मार्ग में आना साधना के विघ्न हैं। इन विघ्नों से लड़ते हुए अपने मार्ग पर दृढ़तापूर्वक बढ़ते चलना चाहिये। (द) निरन्तरता साधना का आवश्यक नियम है। अत्यन्त कार्य होने या विषम स्थिति आ जाने पर किसी-न-किसी रूप में चलते-फिरते ही सही, पर माता की उपासना अवश्य कर लेनी चाहिए। किसी भी दिन नागा या भूल नहीं करनी चाहिये। समय को रोज-रोज नहीं बदलना चाहिये। कभी सवेरे, कभी दोपहर, कभी तीन बजे तो कभी दस बजे ऐसी अनियमितता ठीक नहीं। इन चार नियमों के साथ की गई साधना बड़ी प्रभावशाली होती है।
10—कम से कम एक माला अर्थात् 108 मन्त्र नित्य जपने चाहिये, इससे अधिक जितने बन पड़े उतने उत्तम हैं।
11—प्रातःकाल की साधना के लिये पूर्व को मुंह करके बैठना चाहिये और शाम को पश्चिम को मुंह करके। प्रकाश की ओर, सूर्य की ओर मुंह करना उचित है।
12—पूजा के लिये फूल न मिलने पर चावल या नारियल की गिरी को कद्दूकस पर कस कर उसके बारीक पत्रों को काम में लाना चाहिये। यदि किसी विधान में रंगीन पुष्पों की आवश्यकता हो तो चावल या गिरी के पत्रों को केशर, हल्दी, गेरू, मेंहदी देशी रंगों से रंगा जा सकता है। विदेशी अशुद्ध चीजों से बने रंग काम में नहीं लेने चाहिए। 13—देर तक एक पालथी से, एक आसन में बैठे रहना कठिन होता है, इसलिए जब एक तरह से बैठे-बैठे पैर थक जावें, तब उन्हें बदला जा सकता है। इसे बदलने में दोष नहीं।
14—मल-मूत्र त्याग या किसी अनिवार्य कार्य के लिये साधना के बीच में उठना पड़े तो शुद्ध जल से हाथ-मुंह धोकर तब दुबारा बैठना चाहिये और विक्षेप के लिये एक माला का अतिरिक्त जप प्रायश्चित स्वरूप करना चाहिये।
15—यदि किसी दिन अनिवार्य कारण से साधना स्थगित करनी पड़े तो दूसरे दिन एक माला अतिरिक्त जप दण्डस्वरूप करना चाहिये।
16—जन्म या मृत्यु के सूतक हो जाने पर शुद्धि होने तक माला आदि की सहायता से किये जाने वाले विधिवत् जप स्थगित रखना चाहिए। केवल मानसिक जप मन ही मन चालू रख सकते हैं। यदि इस प्रकार का अवसर सवालक्ष जप के अनुष्ठान काल में आ जावे तो उतने दिनों अनुष्ठान स्थगित रखना चाहिये। सूतक निवृत्त होने पर उसी संख्या पर से आरम्भ किया जा सकता है, जहां से छोड़ा था। उसमें विक्षेप काल की शुद्धि के लिये एक हजार जप विशेष रूप से करना चाहिये।
17—लम्बे सफर में होने, स्वयं रोगी हो जाने या तीव्र रोगी की सेवा में संलग्न रहने की दशा में स्नान आदि पवित्रताओं की सुविधा नहीं रहती। ऐसी दशा में मानसिक जप बिस्तर पर पड़े-पड़े, रास्ता चलते या किसी भी अपवित्र दशा में किया जा सकता है।
18—साधक का आहार-विहार सात्विक होना चाहिये। आहार में सतोगुणी, सादा, सुपाच्य, ताजे तथा पवित्र हाथों से बनाये हुये पदार्थ होने चाहिये। अधिक मिर्च मसाले वाले तले हुए पकवान, मिष्ठान्न, बासी, बुसे, दुर्गन्धित, मांस, नशीले, अभक्ष्य, उष्ण, दाहक, अनीति उपार्जित, गन्दे मनुष्यों द्वारा बनाये हुए, तिरस्कार पूर्वक दिये हुए भोजन से जितना बचा जा सकेगा उतना ही अच्छा है।
19—व्यवहार जितना भी प्राकृतिक, धर्म, संगत, सरल एवं सात्विक रह सके, उतना ही उत्तम है। फैशनपरस्ती, रात्रि में अधिक जगना, दिन में सोना, सिनेमा, नाच-रंग अधिक देखना, पर निन्दा, छिद्रान्वेषण, कलह दुराचार, ईर्ष्या निष्ठुरता, आलस्य, प्रमाद, मद-मत्सर से जितना बचा जा सके, बचने का प्रयत्न करना चाहिये। 20—यों ब्रह्मचर्य तो सदा ही उत्तम है, पर गायत्री-अनुष्ठान के दिनों में उसकी विशेष आवश्यकता है।
21—एकान्त में जप करते समय माला खुले रूप से जपनी चाहिये। जहां बहुत आदमियों की दृष्टि पड़ती हो, वहां कपड़े से ढक लेना चाहिये या गौमुखी में हाथ डाल लेना चाहिये।
22—माला जपते समय सुमेरु (माला के आरम्भ का सबसे बड़ा दाना) का उल्लंघन नहीं करना चाहिये। एक माला पूरी करके उसे मस्तक तथा नेत्रों से लगाकर पीछे की तरफ उलटा ही वापिस कर लेना चाहिये। इस प्रकार माला पूरी होने पर हर बार उलट कर ही नया आरम्भ करना चाहिए।
23—साधना के उपरान्त पूजा के बचे हुए अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य, फूल, जल, दीपक की बत्ती हवन की भस्म आदि की यों ही जहां तहां ऐसी जगह नहीं फेंक देना चाहिये जहां पर पैर तले कुचलती फिरें। किसी तीर्थ, नदी, जलाशय, देव-मन्दिर, कपास, जौ, चावल का खेत आदि पवित्र स्थानों पर विसर्जन करना चाहिए। चावल चिड़ियों के लिये डाल देना चाहिये। नैवेद्य आदि बालकों को बांट देना चाहिये। जल को सूर्य के सम्मुख अर्घ्य देना चाहिये।
24—वेदोक्त रीति की यौगिक दक्षिण-मार्गी क्रियाओं में और तन्त्रोक्त वाममार्गी क्रियाओं में अन्तर है। योगमार्गी सरल विधियां इस पुस्तक में लिखी हुई हैं उनमें कोई विशेष कर्मकाण्ड की आवश्यकता नहीं है। शाप-मोचन कवच, कीलक, अर्गल, मुद्रा, अंग न्यास आदि कर्मकाण्ड तांत्रिक साधनाओं के लिये हैं। इस पुस्तक के आधार पर साधना करने वालों को उसकी आवश्यकता नहीं है।
25—गायत्री का अधिकार ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य इन तीन द्विजातियों को है। वर्ण जन्म से भी होते हैं और गुण, कर्म स्वभाव से भी। आजकल जन्म से जातियों में बड़ी गड़बड़ी हो गई है। कई उच्च वर्ण समय के फेर से नीच वर्णों में गिने जाने लगे हैं और कई नीच वंश उच्च कहलाते हैं। ऐसे लोग अपनी वर्तमान सामाजिक स्थिति को ही ध्यान में रखें।
26—वेद-मन्त्रों का सस्वर उच्चारण करना उचित होता है। पर सब लोग यथाविधि सस्वर गायत्री का उच्चारण नहीं कर सकते। इसलिए जप इस प्रकार करना चाहिये कि कंठ से ध्वनि होती रहे, होठ हिलते रहें, पर पास में बैठा हुआ मनुष्य भी स्पष्ट रूप से मन्त्र को न सुन सके। इस प्रकार किया जप स्वर-बन्धनों से मुक्त होता है। 27—गायत्री-साधना माता की चरण-वन्दना के समान है, यह कभी निष्फल नहीं होती। उल्टा परिणाम भी नहीं होता, भूल हो जाने से अनिष्ट होने की कोई आशंका नहीं। इसलिये निर्भय और प्रसन्न चित्त से उपासना करनी चाहिये। अन्य मन्त्र विधिपूर्वक जपे जाने पर अनिष्ट करते हैं, पर गायत्री से यह बात नहीं है वह सर्वसुलभ, अत्यन्त सुगम और सब प्रकार सुसाध्य हैं। हां, तांत्रिक विधि से की गई उपासना पूर्ण विधि-विधान के साथ ही होनी चाहिये उसमें अन्तर पड़ना हानिकारक है।
28—जैसे मिठाई को अकेले-अकेले ही चुपचाप खा लेना और समीपवर्ती लोगों को उसे न चखाना बुरा है, वैसे ही गायत्री-साधना को स्वयं तो करते रहना, पर अन्य प्रियजनों, मित्रों, कुटुम्बियों को उसके लिये प्रोत्साहित न करना, एक बहुत बड़ी बुराई तथा भूल है। इस बुराई से बचने के लिये हर साधक को चाहिये कि अधिक से अधिक लोगों को इस दिशा में प्रोत्साहित करे।
अनुष्ठान के नियम—
1—गायत्री अनुष्ठान तीन प्रकार के होते हैं। (अ) 24 हजार जप एवं 240 आहुतियों के हवन का लघु अनुष्ठान, (ब) सवा लाख जप एवं 1250 आहुतियों का मध्यम अनुष्ठान, (स) 24 लाख जप एवं 24 हजार आहुतियों का महापुरश्चरण। लघु अनुष्ठान में 24000 जप के स्थान पर 2400 गायत्री मन्त्र लेखन अथवा गायत्री चालीसा के 240 पाठ भी किये जा सकते हैं।
2—लघु अनुष्ठान 9 दिन में 27 माला प्रतिदिन के हिसाब से पूर्ण होता है। मध्यम अनुष्ठान 40 दिन में 33 माला प्रतिदिन के हिसाब से पूर्ण करना चाहिये। 24 लक्ष यदि एक वर्ष में करना हो तो 66 माला प्रतिदिन करनी पड़ती है। दूसरा तरीका यह है कि 4 हजार के 100 अनुष्ठानों में या सवालक्ष के 20 अनुष्ठानों में विभक्त करके इसे पूरा किया जाय।
3—अनुष्ठान किसी शुभ दिन से आरम्भ करना चाहिये। इसके लिए रविवार, गुरुवार एवं प्रतिपदा, पंचमी, एकादशी, पूर्णिमा तिथियां उत्तम हैं। तिथि या वार कोई एक ही उत्तम हो तो करने के लिये पर्याप्त है। चैत्र और आश्विन की नवरात्रियां 24 हजार लघु अनुष्ठान के लिये अधिक उपयुक्त हैं। वैसे कभी भी सुविधानुसार किया जा सकता है।
4—अनुष्ठान काल में पालन करने योग्य नियम ये हैं—(अ) ब्रह्मचर्य से रहना (आ) उपवास (फल, दूध, बिना नमक का भोजन) (इ) जमीन या तख्त पर सोना (ई) अपनी हजामत, कपड़े धोना आदि सेवायें स्वयं ही करना, चमड़े के जूते का त्याग।
5—नित्य जप की भांति ही अनुष्ठान में भी स्नान, संध्या करके जप आरम्भ कर दिया जाता है। निर्धारित हवन रोज कर सकते हैं या अनुष्ठान के अन्त में हो सकता है। जितने मन्त्र जप का अनुष्ठान किया हो उसकी सतांश संख्या से आहुतियां डालनी चाहिये। यदि यह सम्भव न हो तो कुल जप का दसवां भाग अतिरिक्त जप कर देने से उसकी पूर्ति हो जाती है।
6—गायत्री अनुष्ठान के बाद ब्राह्मण भोजन के स्थान पर कन्या भोजन कराना अधिक उपयुक्त रहता है। यथा शक्ति कन्याओं को भोजन कर देना चाहिये। इसी प्रकार सत्साहित्य, गायत्री ज्ञानवर्धक साहित्य का वितरण भी पुण्यदायी होता है। युग निर्माण मिशन द्वारा ऐसा साहित्य बड़ी मात्रा में—लागत मूल्य पर ही उपलब्ध किया जा सकता है।
7—साधना सम्बन्धी कठिनाइयों एवं शंकाओं के निवारण, अनुष्ठान काल में हुई भूलों के परिमार्जन, अनुष्ठान की निर्विघ्न समाप्ति के लिये ‘शान्तिकुंज’ हरिद्वार सूचना करनी चाहिये। जवाबी पत्र डालने से समुचित परामर्श वहां से उपलब्ध किया जा सकता है।
उपासना ही नहीं समय साधना—
न्यूनतम उपासना प्रक्रिया के अन्तर्गत ज्योति अवतरण ध्यान तथा नित्य पूजा एवं जप का सरल विधान बताया गया है और नवरात्रियों में अनुष्ठानों की तपश्चर्या करते रहने का सुझाव दिया गया है। यह क्रम व्यस्त समय वाले लोगों के लिए भी कुछ कठिन नहीं है। यदि अन्तःकरण में आकांक्षा जाग पड़े तो प्रातः सोकर उठते ही चारपाई पर पड़े-पड़े आधा घण्टे का ध्यान और नित्य-कर्म के उपरान्त आधा घण्टे की पूजा-प्रक्रिया यह समय अथवा विधान ऐसा नहीं है जिससे कहीं सांसारिक कामों में अड़चन पड़ती हो। प्रश्न केवल रुचि और आकांक्षा का है। यदि मन को जाग्रत किया जा सके तो जीवनोद्देश्य को पूर्ण करने की दिशा में इतने मात्र से महत्वपूर्ण प्रति हो सकती है। नवरात्रियों में कुछ समय तो अधिक लग जाता है और कुछ अड़चनें भी सहनी पड़ती हैं, पर इससे कई-कई गुने कष्ट सांसारिक कार्यों के लिये बार-बार सहने पड़ते हैं, तो आत्मकल्याण के लिये इतनी अड़चन सह लेनी भी कुछ मुश्किल नहीं है। जिनमें निष्ठा है, वे सांसारिक कार्यों का बहुत अधिक दबाव रहने पर भी इतना समय बड़ी आसानी से निकाल लेते हैं। यों उपासना का क्षेत्र बहुत विशाल और व्यापक है। जिनके पास यम है, अभिलाषा है, निष्ठा है, उनके लिये एक से एक महत्वपूर्ण साधन मौजूद हैं। उन्हें अपनी मनोभूमि और परिस्थितियों के अनुसार मार्ग दर्शन प्राप्त करना चाहिए।
जितना महत्व उपासना का है उतना साधना का भी है। हमें उपासना पर ही नहीं साधना पर भी ध्यान और जोर देना चाहिये। जीवन को पवित्र और परिष्कृत—संयत और सुसन्तुलित, उत्कृष्ट और आदर्श बनाने के लिए अपने गुण, कर्म, स्वभाव को उच्चस्तरीय बनाने के लिये निरन्तर प्रयत्न करना चाहिये। इस प्रयत्न का नाम ही जीवन-साधना अथवा साधना है। उपासना पूजा तो निर्धारित समय का क्रिया-कलाप पूरा कर लेने पर समाप्त हो जाती है, पर साधना चौबीस घन्टे चलानी पड़ती है। अपने हर विचार और हर कार्य पर एक चौकीदार की तरह कड़ी नजर रखनी पड़ती है कि कहीं कुछ अनुचित, अनुपयुक्त तो नहीं हो रहा है। जहां भूल दिखाई दी कि उसे तुरन्त सुधारा—जहां विकार पाया कि तुरन्त उसकी चिकित्सा की—जहां पाप देखा कि तुरन्त उससे लड़ पड़े। यही साधना है। जिस प्रकार सीमारक्षक प्रहरियों को हर घड़ी शत्रु की चालों और बातों का पता लगाना और जूझने के लिये लैस रहना पड़ता है, वैसे ही जीवन संग्राम के हर मोर्चे पर हमें सतर्क और तत्पर रहने की आवश्यकता पड़ती है, इसी तत्परता को साधना कहा जा सकता है।
यह सोचना ठीक नहीं कि भजन करने मात्र से पाप कट जायेंगे और ईश्वर प्रसन्न हो जायेंगे, अतएव जीवन को शुद्ध बनाना अथवा कुमार्गगामिता से बचाने की आवश्यकता नहीं, इसी भ्रमपूर्ण मान्यता ने अध्यात्म के लाभों से हमें वंचित रखा है। यह भ्रम दूर हटाना चाहिये और भारतीय अध्यात्म का तत्वज्ञान एवं ऋषि अनुभवों के आधार पर यही निष्कर्ष अपनाना चाहिये कि उपासना और साधना आध्यात्मिक प्रगति के दो अविच्छिन्न पहलू हैं दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरा अपूर्ण है। जिस तरह अन्न और जल, रात और दिन, शीत और ग्रीष्म, स्त्री, और पुरुष का जोड़ा है, उसी प्रकार उपासना और साधना भी अन्योन्याश्रित हैं। एक के बिना दूसरा अकेला, असहाय, एवं अपूर्ण ही बना रहेगा, इसलिये दोनों को साथ लेकर अध्यात्म मार्ग पर प्रगतिशील होना ही उचित और आवश्यक है।
जीवन साधना की चिन्तन पद्धति—
साधना के लिए उपासना की भांति ही आधे घण्टे या कम से कम 15 मिनट का समय प्रतिदिन प्रातःकाल निकालना चाहिए। यह सोकर उठते ही चारपाई पर बैठकर भी पूरा किया जा सकता है। अथवा नित्य-कर्म, पूजा आदि से निवृत्त होकर फिर थोड़ी ही देर इस चिन्तन क्रम को पूरा करना चाहिये। अपने कार्यक्रम में ही सवेरे ही इसको भी किसी स्थान पर फिट कर लेना चाहिये। पूजा में ही आगे-पीछे इसे भी मिला सकते हैं। समय और क्रम की बात परिजनों के ऊपर ही छोड़ी जा रही है, ताकि वे एक दो दिन में अपनी सुविधानुसार इसे भी यथावत् जमालें।
यों जीवन-साधना का क्रम सारे दिन हर समय चलने का है। उसका प्रारम्भ, शुभारम्भ एक चिन्तन पद्धति के साथ किया जाना चाहिये। इस पद्धति के तीन अंग हैं—(1) जीवन के स्वरूप, उद्देश्य एवं उपभोग को समझना और उसके अनुरूप गतिविधियों का निर्माण करना, (2) ‘‘हर दिन नया जन्म, हर रात नई मौत’’ सूत्र के अनुसार जीवन का श्रेष्ठतम उपयोग करने के लिए दिन भर की शारीरिक कार्य पद्धति एवं मानसिक विचार पद्धति का निर्धारण करना। (3) रात को सोते समय मृत्यु के समय आवश्यक वैराग्य का अनुभव करना। इन तीन चिन्तन क्रम में से दो को प्रातः और तीसरे को रात्रि के समय प्रयुक्त करना चाहिये।
वर्ष में जिस दिन अपना जन्म दिवस पड़ता हो उसे दिन उसे समारोहपूर्वक मनाना चाहिये और साथ ही दिन भर मानव-जीव की महत्ता का अनुभव करते हुये उसके श्रेष्ठतम उपयोग की भावी रीति-नीति निर्धारित करनी चाहिये। वर्तमान क्रिया पद्धति में जो दोष हों उन्हें सुधारना चाहिये और जो नया क्रम दिनचर्या में सम्मिलित करना हो उसे करना चाहिये। यह बात वर्ष में एक बार जन्म-दिन समारोहपूर्वक मनाने के बारे में हुई। पर उतने से ही काम न चलेगा। हर दिन प्रातःकाल उठते ही बिस्तर पर बैठकर अपने आपसे इस सन्दर्भ में तीन प्रश्न पूछने चाहिये उनके उत्तर भी स्वयं ही उपलब्ध करने चाहिये। पर प्रश्नोत्तर प्रातःकाल जीवन का क्रम आरम्भ करते हुये नित्य ही दुहराने चाहिये ताकि जीवन का स्वरूप, उद्देश्य और उपयोग सदा स्मरण बना रहे और उस स्मरण के आधार पर अपनी दिशाएं ठीक रखने में भूल-चूक न होने पावे।
अपने आप से तीन प्रश्न पूछने चाहिये—
(1) भगवान को सभी प्राणी समान रूप से प्रिय पात्र हैं। फिर मनुष्य को ही बोलने, सोचने, लिखने एवं असंख्य सुख-सुविधाएं प्राप्त करने का विशेष अनुदान क्यों मिला? मनुष्य को हर दृष्टि से उत्कृष्ट स्तर का प्राणी बनाने में इतना असाधारण श्रम क्यों किया?
उत्तर एक ही हो सकता है—‘‘अपने उद्यान—इस संसार को अधिक सुन्दर और सुव्यवस्थित बनाने के लिये परमेश्वर को साथी सहचरों की जरूरत पड़ी और अपनी क्षमताओं से सुसज्जित एक सर्वांगपूर्ण प्राणी—मनुष्य इस प्रयोजन की पूर्ति के लिये बनाया। विशेष साधना-सुविधाएं दीं कि इनके द्वारा यह ईश्वरीय प्रयोजनों की पूर्ति ठीक तरह कर सके।’’
(2) दूसरा प्रश्न अपने आप से पूछा चाहिए कि—‘जो सुविधाएं, विभूतियां सम्पदाएं हमें उपलब्ध हैं—उनका लाभ यदि हम अकेले ही उठाते हैं तो इसमें क्या कोई हर्ज है।’ उत्तर एक ही मिलेगा—‘‘अन्य प्राणियों के अतिरिक्त जितनी भी बौद्धिक, आर्थिक, प्रतिभायुक्त एवं अन्य किसी प्रकार की विशेषताएं हैं, वे विश्वमानव की ही पवित्र अमानत हैं और इनका उपभोग लोकमंगल के लिये ही किया जाना चाहिये। शरीर रक्षा भर के आवश्यक उपकरण के अतिरिक्त इन साधनों का विश्व-कल्याण के लिये ही उपयोग किया जाय।’’
(3) तीसरा प्रश्न अपने आप से करना चाहिये कि—‘‘क्या इस सुर दुर्लभ मानव-शरीर का सही उपयोग हो रहा है?’’
उत्तर यही मिलेगा—‘‘हम सदाचारी, संयमी, परिश्रमी, उदार, सज्जन, हंसमुख, सेवाभावी बने बिना मानव जीवन को सार्थक नहीं बना सकते। इसलिये इन सद्गुणों का अभ्यास बढ़ाने के लिए जीवनयापन की रीति-नीति में उत्कृष्टता और आदर्शवादिता का, सभ्यता और सज्जनता का—पुरुषार्थ और साहस का समुचित समावेश करना चाहिये।’’
इन्हीं प्रश्नोत्तरों में अध्यात्म तत्वज्ञान का सार सन्निहित हैं। यदि यह प्रश्न जीवन की महान समस्या के रूप में सामने आये और उन्हें सुलझाने के लिए हम अपने विवेक का उपयोग करें तो भावी जीवनयापन के लिये एक व्यवस्थित दर्शन और कार्यक्रम सामने आ खड़ा होगा। यदि इस तत्वज्ञान को ठीक तरह हृदयंगम किया जा सका तो आकांक्षाओं और कामनाओं का स्वरूप बदला हुआ होगा। रीति-नीति और कार्य पद्धति में वैसा परिवर्तन परिलक्षित होगा जैसे आत्म-ज्ञान सम्पन्न मनुष्य में प्रत्यक्षतः दृष्टिगोचर होना चाहिये।
(2) इसके बाद—‘‘हर दिन नया जन्म--हर रात नई मौत।’’ इस सूत्र को मन ही मन दुहराना चाहिये और भावना करनी चाहिये कि आज का दिन हमें एक नये जन्म के रूप में मिला है। वस्तुतः निद्रा और जागरण—मृत्यु और जन्म का ही एक छोटा नमूना है। इसमें असत्य भी कुछ नहीं। सचमुच की मृत्यु भी एक लम्बी रात की गहरी नींद मात्र है। हर दिन को एक जन्म कहा जाय तो ऊपर से ही हंसी की बात लगती है, वस्तुतः यह एक स्थिर सचाई है। अतएव इस मान्यता में अत्युक्ति और निराधार कल्पना जैसी भी कोई बात नहीं है।
आज का नया जन्म अपने लिये एक अनमोल अवसर है। कहते हैं कि 84 लाख योनियों के बाद एक बार मनुष्य शरीर मिलता है, उसका सदुपयोग कर लेना ही शास्त्रकारों ने सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता है। अस्तु हमें प्रातःकाल चारपाई पर पड़े पड़े ही विचारना चाहिये कि आज का दिन अनमोल अवसर है, उसे अधिक से अधिक उत्कृष्टता के साथ व्यतीत करना चाहिये। कोई भूल, उपेक्षा, अनीति, दुर्बुद्धि उसमें न रहे। आदर्शवादिता का, सद्भावना और सदाशयता का उसमें अधिकाधिक समावेश रहे, ऐसा दिन भर का कार्यक्रम बनाकर तैयार किया जाय।
पूर्ण करने और मंगलमयी उपलब्धियां प्राप्त कर सकने में सफल हो सकते हैं। समय की बर्बादी एक प्रकार की मन्द आत्म-हत्या है। संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं, उनमें से अपने समय का एक-एक क्षण ठीक तरह उपयोग करके ही अभीष्ट सफलताएं प्राप्त की हैं। इसलिये आज समय के सदुपयोग की, एक पल भी बर्बाद न होने की, आलस्य, शिथिलता एवं अन्यमनस्कता से लड़ने की पूरी तैयारी करनी चाहिये और दिन भर के समय विभाजन की दिनचर्या ऐसी बनानी चाहिये जिससे वक्त की बर्बादी के लिये तनिक भी गुंजाइश न रहे। जो आवश्यक काम पिछले कई दिनों से टलते चले जा रहे हों, जिनकी उपयोगिता अधिक हो उन सबको सुविधा हो तो आज ही करने के लिये नियम कर लेना चाहिए। दिनचर्या ऐसी बने जो सुविधा जनक भी हो और सुसन्तुलित भी। अति उत्साह से ऐसा कार्य-क्रम न बना लिया जाय जिसको पूरा कर सकना ही कठिन पड़ जाय।
शारीरिक कार्यक्रमों के साथ-साथ मानसिक क्रिया पद्धति भी निर्धारित करनी चाहिये। किस कार्य को किस भावना के साथ करना है, इसकी रूपरेखा मस्तिष्क में पहले से ही निश्चित रहनी चाहिए। समय-समय पर बड़े ओछे, संकीर्ण, स्वार्थपूर्ण विचार मन में उठते रहते हैं। सोचना चाहिये कि आज के अवसर पर किस प्रकार का अनुपयुक्त विचार उठने की सम्भावना है, उस अवसर के लिए विरोधी विचारों के शस्त्र पहले से ही तैयार कर लिये जायं।
लोहा कटता है, विचारों से विचार भी काटे जा सकते हैं। कामुकता के अश्लील विचार यदि किसी नारी के प्रति उठ रहे हैं तो उसे अपनी बेटी, बहिन, भानजी आदि के रिश्ते में सोचने की—सफेद चमड़ी के भीतर मल-मूत्र, रक्त-मांस की घृणित, दुर्गन्ध भरी होने की—कल्पना करके उनको शमन किया जा सकता है। आवेश, उत्तेजना, क्रोध, उतावली आदि आदतें कइयों की होती हैं। जब वैसे अवसर आयें और तब गम्भीरता, धैर्य, दूरदर्शिता, सज्जनता, शान्ति वैसे विचार अपने मन में उस समय तत्काल उठाने की तैयारी करनी चाहिये।
दिन भर के समय विभाजन तथा विचार-संघर्ष की योजना बनानी और ऐसी दिनचर्या तैयार करनी चाहिये, जिसमें शरीर से ठीक तरह कर्तव्य पालन और मन में ठीक तरह सद्भाव चिन्तन होता रहे। इस कार्य के लिये पन्द्रह मिनट से लेकर आधा घंटे का समय पर्याप्त होनी चाहिये। उस निर्धारित दिनचर्या को कागज पर नोट कर लेना चाहिये और समय-समय पर जांचते रहना चाहिये कि निर्धारण के अनुरूप कार्यक्रम चल रहा है या नहीं? जहां भी भूल हो वहीं उसे तुरन्त सुधारना चाहिये। यदि सतर्कता पूर्वक दिनचर्या के पालन का ध्यान रखा जाय, शारीरिक आलस्य और मानसिक प्रमाद से पग-पग पर लड़ते रहा जाय तो प्रातःकाल की निर्धारित योजना रात को सोते समय ठीक ही चलती रहेगी।
इस प्रकार हर दिन नया जन्म वाले मन्त्र का आधा भाग रात को सोते समय तक पूरा होता रहना चाहिये। हर घड़ी अपने को सतर्क, सक्रिय, जागरूक रखा जाय, चूकों को लिए सतर्क रहा जाय—उत्कृष्टता का जीवन में अधिकाधिक समावेश करने के लिये प्रयत्न किया जाय—तो निस्सन्देह वह दिन पिछले अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक सन्तोषप्रद, अधिक गौरवास्पद होगा। इस प्रकार हर दिन—पिछले दिन की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक आदर्श बनता चला जायगा और कर्मयोग के तत्व दर्शन में हमारी जीवन पद्धति ढलती चली जायेगी।
(1) अब मन्त्र का आधा भाग प्रयुक्त करने का अवसर आता है—‘‘हर रात नई मौत’’ इस भावना को रात्रि में सोते समय प्रयुक्त करना चाहिये। सब कामों से निवृत होकर जब निद्रा देवी की गोद में जाने की घड़ी आये, तब कल्पना करनी चाहिये कि—‘‘एक सुन्दर नाटक का अब पटाक्षेप हो चला। यह संसार एक नाट्यशाला है। आज का दिन अपने के अभिनय करने के लिये मिला था, सो उसको अच्छी तरह खेलने का ईमानदारी से प्रयत्न किया। जो भूलें रह गईं उन्हें याद रखेंगे और अगले दिन वैसी पुनरावृत्ति न होने देने की अधिक सावधानी बरतेंगे।
‘‘अनेक वस्तुएं इस अभिनय में प्रयोग करने को मिलीं। अनेक साथियों का साथ रहा। उनका सान्निध्य एवं उपयोग जितना आवश्यक था कर लिया गया, अब उन्हें यथा समय छोड़कर पूर्ण शान्ति के साथ अपनी आश्रयदात्री माता निद्रा—मृत्यु की—गोद में निश्चिन्त होकर शयन करते हैं।’’
इस भावना में वैराग्य का अभ्यास है। अनासक्ति का प्रयोग है। उपलब्ध वस्तुओं में से एक भी अपनी नहीं, साथी व्यक्तियों में से अपना एक भी नहीं। वे सब अपने परमेश्वर के और अपने कर्तव्य की उपज हैं। हमारा न किसी पर अधिकार है, न स्वामित्व। हर पदार्थ और हर प्राणी के साथ कर्तव्य बुद्धि से ठीक व्यवहार कर लिया जाय, यही अपने लिए उचित है। इस अधिक मोह-ममता के बन्धन, बांधना-स्वामित्व और अधिकार की अहन्ता जोड़ना—निरर्थक है। अपना तो यह शरीर भी नहीं—कल परसों इसे धूलि बनकर उड़ जाना है—तब जो सम्पदा, प्रयोग-सामग्री, पद, परिस्थिति उपलब्ध है उस पर अपना स्वामित्व जमाने का क्या हक? अनेक प्राणी सृष्टि के आदि से लेकर अपने कर्म-भोगों को भुगतने अनेकों के साथ आये दिन संयोग-वियोग करते रहते हैं। अपने साथ भी आज कितने ही प्राणी एक सज्जन साथी की तरह रह रहे हैं, इसके लिए कर्तव्य-धर्म का ठीक तरह पालन किया जाना इतना ही पर्याप्त है। उनसे अनावश्यक ममता जोड़कर ऐसा कुछ न किया जाय जिससे अनुचित पाप कर्मों में संलग्न होना पड़े। यह विवेक हमें रात को सोते समय जागृत करना चाहिये और यह अनुभव करना चाहिये कि अहन्ता और ममता के बन्धन तोड़कर एकाग्र भाव से भगवान की मंगलमय गोदी—निद्रा-मृत्यु में परम शान्ति और सन्तोषपूर्वक निमग्न हुआ जा रहा है।
इस प्रकार की मनोवृत्ति का विकास होने से जीवन के अनेक क्षेत्रों में प्रगति होने की सम्भावना रहती है और अन्त में मानव-जन्म की सार्थकता उपलब्ध हो सकती है, इस प्रकार की भावना बनी रहने से मनुष्य माया-मोह के हानिकर बन्धनों से अधिकांश में विमुक्त रहता है और आत्मोद्धार का वास्तविक लक्ष्य उसकी दृष्टि से ओझल नहीं होने पाता। इस प्रकार जो साधक जीवन के वास्तविक रहस्य को हस्तगत कर लेता है, उसको फिर बांधने के जंजाल में नहीं फंसना पड़ता।
किसी दिन सचमुच ही मृत्यु आ जाय तो इन परिपक्व वैराग्य भावनाओं के आधार पर बिना भय और उद्वेग के शान्तिपूर्वक विदा होते हुए-मरणोत्तर जीवन में परम शान्ति का अधिकारी बना जा सकता है। यह भावना लोभ और मोह की जड़ काटती है। कुकर्म प्रायः इन्हीं दो आन्तरिक दुर्बलताओं के कारण बन पड़ते हैं। हर रात को एक मृत्यु मानने से लोभ और मोह का निराकरण और हर दिन को नया जनम मानने में जीवन में आदर्शवादिता एवं उत्कृष्टता का समावेश करने की प्रेरणा मिलती है। यही प्रेरणा कर्मयोग की आधार शिला है।
इनमें से प्रत्येक को ‘‘हर दिन नया जन्म-हर रात में नई मौत’’ के भाव-मन्त्र की भावना करनी चाहिए। इससे स्थूल शरीर में कर्मयोग का समावेश इस क्षेत्र में होगा और देवत्व के जागरण की एक महती आवश्यकता पूरा करने का सरल मार्ग उपलब्ध होगा। उपासना की सफलता के लिए आत्मशोधन की यह प्रक्रिया कभी बन्द नहीं करनी चाहिये।
जीवन-साधना का दूसरा चरण अपने भीतर वस्तुओं का, उत्कृष्टताओं योग्यताओं और क्षमताओं का विकसित करना है। असत्य, हिंसा, चोरी, व्यभिचार, नशा आदि दुर्गुणों को छोड़ देना ऐसा ही है, जैसे किसी पौधे की जड़ को काटने में लगी हुई दीमक को हटा देना। इससे एक कठिनाई तो दूर हुई पर पौधे के विकास का पथ प्रशस्त कहां हुआ? इसके लिये खाद-पानी की उपयुक्त आवश्यकताएं भी पूरी करनी होंगी। अन्यथा बेचारा पौधा बढ़ेगा कैसे? मानवोचित योग्यताओं और विशेषताओं को बढ़ाने में उस शक्ति को लगा देना चाहिये जो दोष-दुर्गुणों में बर्बाद होने से बचाई गई है। बहुत-सा समय मनोयोग और धन बेकार बातों में नष्ट किया जाता रहता है। उस बर्बादी को बचा लेना ही काफी नहीं वरन् यह भी आवश्यक है कि उस बचत से अपनी विशेषताओं को बढ़ाया जाय। रोग दूर करने के लिये चिकित्सा उपचार करना चाहिये और यह भी ध्यान रखना चाहिये कि रोगजन्य दुर्बलता दूर करने के लिये पौष्टिक आहार बिहार का भी प्रबन्ध किया जाय। दोषों को हटा देना औषधि उपचार की तरह है और गुणों का अभिवर्धन उत्तम आहार-विहार का प्रबन्ध करने की तरह।
इस प्रकार की हुई साधना ही गायत्री उपासना का सर्वांगपूर्ण प्रतिफल प्रदान कर सकती है। आज की स्थिति में आत्म कल्याण के लिये इससे अच्छी और सरल साधना पद्धति और नहीं हो सकती है।
गायत्री मन्त्र के जप के साथ कई लोग उसके अर्थ चिन्तन का प्रयास करते हैं। किन्तु मन्त्र के साथ उसके अर्थ का चिन्तन सम्भव नहीं होता। या तो पूरा अर्थ चिन्तन नहीं होगा, अथवा एक ही मन्त्र जपने में कई मिनट लग जावेंगे। वैसे गायत्री मन्त्र का अर्थ, उसका भाव बहुत ही प्रेरक एवं कल्याणकारी है। उसका चिन्तन करना हर दृष्टि से लाभप्रद है। अस्तु मन्त्र के अर्थ के चिन्तन के लिये जप के अतिरिक्त सुविधानुसार समय निकालना ठीक रहता है इसे भी चिन्तन मनन की साधना का एक अंग बना लेना चाहिये। अर्थ चिन्तन के लिए गायत्री मन्त्र का अर्थ यहां दिया जा रहा है।
गायत्री मन्त्र — ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात् ।
अर्थ इस प्रकार है —
ॐ (परमात्मा) भूः (प्राण स्वरूप) भुवः (दुःख नाशक) स्वः (सुख स्वरूप) तत् (उस) सवितुः (तेजस्वी) वरेण्य (श्रेष्ठ) भर्गः (पाप नाशक) देवस्य (दिव्य) धीमहि (धारण करें) धियो (बुद्धि) यो (जो) नः (हमारी) प्रचोदयात् (प्रेरित करें)
अर्थात् उस सर्वव्यापी, प्राण स्वरूप दुःख नाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पाप नाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हर अन्तरात्मा में धारण करें। वह हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करें।
इस अर्थ पर विचार करने से तीन तथ्य प्रकट होते हैं। (1) ईश्वरीय सर्वव्यापी सत्ता एवं उसके दिव्य गुणों का चिन्तन (2) ईश्वर को अपने अन्दर धारण करना (3) सद्बुद्धि प्रेरित करने की प्रार्थना। यह तीनों ही बातें असाधारण महाबली हैं।
1—ईश्वर के प्राणवान् दुःखरहित, आनन्दस्वरूप, तेजस्वी, श्रेष्ठ पापरहित, देवगुण-सम्पन्न स्वरूप का ध्यान करने का तात्पर्य यह है कि इन्हीं गुणों को हम अपने में लावें। अपने विचार और स्वभाव को ऐसा बनावें कि उपर्युक्त विशेषताएं हमारे व्यावहारिक जीवन में परिलक्षित होने लगें। इस प्रकार की विचारधारा, कार्य-पद्धति एवं अनुभूति मनुष्य की आत्मिक और भौतिक स्थिति को दिन-दिन समुन्नत एवं श्रेष्ठतम बनाती चलती है।
2—गायत्री मन्त्र के दूसरे भाग में परमात्मा को अपने अन्दर धारण करने की प्रतिज्ञा है। उस ब्रह्म, उस दिव्य गुण सम्पन्न परमात्मा को संसार के कण-कण में व्याप्त देखने से मनुष्य को हर घड़ी ईश्वर दर्शन का आनन्द प्राप्त होता रहता है और वह अपने को ईश्वर के निकट स्वर्गीय स्थिति में ही रहता हुआ अनुभव करता है।
3—मन्त्र के तीसरे भाग में सद्बुद्धि का महत्व सर्वोपरि होने की मान्यता का प्रतिपादन है। भगवान् से यही प्रार्थना की गई है कि आप हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित कर दीजिये, क्योंकि यह एक ऐसी महान् भगवत् कृपा है कि इसके प्राप्त होने पर अन्य सब सुख-सम्पदायें अपने आप प्राप्त हो जाती हैं।
इस मन्त्र के प्रथम भाग में ईश्वरीय दिव्य गुणों को प्राप्त करने, दूसरे भाग में ईश्वरीय दृष्टिकोण धारण करने और तीसरे में बुद्धि को सन्मार्ग पर लगाने की प्रेरणा है। गायत्री की शिक्षा है कि अपनी बुद्धि की सात्विक बनाओ, आदर्शों को ऊंचा रखो, उच्च दार्शनिक विचारधाराओं में रमण करो और तुच्छ तृष्णाओं एवं वासनाओं के लिए हमें नचाने वाली कुबुद्धि को मानस-लोक में से बहिष्कृत कर दो। जैसे-जैसे कुबुद्धि का कल्मष दूर होगा वैसे ही वैसे दिव्य-गुण सम्पन्न परमात्मा के अंशों की अपने में वृद्धि होती जायगी और उसी अनुपात से लौकिक और पारलौकिक आनन्दों की अभिवृद्धि होती जायगी।
गायत्री मन्त्र में सन्निहित उपर्युक्त तथ्य में ज्ञान, भक्ति, कर्म उपासना तीनों हैं। सद्गुणों का चिन्तन ज्ञानयोग है। ब्रह्म की धारणा भक्तियोग है और बुद्धि की सात्विकता एवं अनासक्ति कर्मयोग है। वेदों में ज्ञान, कर्म और उपासना यह तीन विषय हैं। गायत्री में भी बीज रूप में यह तीनों ही तथ्य सर्वांगीण ढंग से प्रतिपादित हैं। इन भावनाओं का एकान्त में बैठकर नित्य अर्थ-चिन्तन करना चाहिए। यह ध्यान-साधना मनन के लिये अतीव उपयोगी है। मनन के लिए तीन संकल्प नीचे दिये जा रहे हैं। इन मनुष्यों को शानत चित्त से स्थिर आसन पर बैठकर, नेत्र बन्द रखकर मन ही मन दुहराना चाहिये और कल्पना शक्ति की सहायता से इस संकल्पों का ध्यान मनःक्षेत्र में भली प्रकार अंकित करना चाहिए—
(1) परमात्मा का ही पवित्र अंश—अविनाशी राजकुमार मैं आत्मा हूं। परमात्मा प्राणस्वरूप है, मैं भी अपने को प्राणवान् आत्मशक्ति-सम्पन्न बनाऊंगा। प्रभु दुःखरहित है—दुःखदायी मार्ग पर न चलूंगा। ईश्वर आनन्दस्वरूप है—अपने जीवन को आनन्दमय बनना तथा आनन्द की वृद्धि करना मेरा कर्त्तव्य है। भगवान् तेजस्वी है—मैं भी निर्भीक साहसी, वीर पुरुषार्थी और प्रतिभावान बनूंगा। ब्रह्म श्रेष्ठ है, श्रेष्ठता आदर्शवादिता एवं सिद्धान्तमय जीवन-नीति अपना कर मैं भी श्रेष्ठ बनूंगा, जगदीश्वर निष्पाप है—मैं भी पापों से, कुविचारों और कुकर्मों से बचकर रहूंगा। ईश्वर दिव्य है-मैं भी अपने को दिव्य गुणों से सुसज्जित करूंगा। संसार को कुछ देते रहने की देवनीति अपनाऊंगा। इसी मार्ग पर चलने से मेरा मनुष्य जीवन सफल हो सकता है।
(2) उपर्युक्त गुणों वाले परमात्मा को मैं अपने अन्दर धारण करता हूं। इस विश्व ब्रह्माण्ड के कण-कण में प्रभु समाये हुए हैं। वे मेरे चारों ओर भीतर बाहर सर्वत्र फैले हुए हैं। मैं रमण करूंगा। उन्हीं के साथ हसूंगा और खेलूंगा। वे ही मेरे चिर सहचर हैं। लोभ, मोह, वासना और तृष्णा का प्रलोभन दिखाकर पतन के गहरे गर्त में धकेल देने वाली कुबुद्धि से—माया से बचकर अपने को अन्तर्यामी परमात्मा की शरण में सौंपता हूं। उन्हें ही अपने हृदयासन पर अवस्थित करता हूं, अब वे मेरे हैं और मैं केवल उन्हीं का हूं। ईश्वरीय आदर्शों का पालन करना और विश्व मानव परमात्मा की सेवा करना ही अब मेरा लक्ष्य रहेगा।
(3) सद्बुद्धि से बढ़कर और कोई दैवी वरदान नहीं। इस दिव्य सम्पत्ति को प्राप्त करने के लिए मैं घोर तप करूंगा। आत्मचिंतन करके अपने अन्तःकरण चतुष्टय में (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार में) छिपकर बैठी हुई कुबुद्धि को बारीकी के साथ ढूंढूंगा और उसे बहिष्कृत करने में कोई कसर न रहने दूंगा। अपनी आदतों, मान्यताओं, भावनाओं, विचारधाराओं में जहां भी कुबुद्धि पाऊंगा, वहीं से इसे हटाऊंगा। असत्य को त्यागने और सत्य को ग्रहण करने में रत्तीभर भी दुराग्रह न करूंगा। अपनी भूलें मानने और विवेक संगत बातों को मानने में तनिक भी दुराग्रह न करूंगा। अपने स्वभाव, विचारों और कर्मों की सफाई करना, सड़े-गले, कूड़े-कचरे को हटाकर सत्य, शिव, सुन्दर भावना से अपनी मनोभूमि को सजाना अब मेरी प्रधान पूजा-पद्धति होगी, इसी पूजा-पद्धति से प्रसन्न होकर भगवान् मेरे अन्तःकरण में निवास करेंगे, तब मैं उनकी कृपा से जीवन-लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होऊंगा।
इन संकल्पों में अपनी रुचि के अनुसार शब्दों का हेर-फेर किया जा सकता है, पर भाव यही होने चाहिये। नित्य-प्रति शान्त चित्त से भाव-पूर्वक इन संकल्पों को देर तक अपने हृदय में स्थान दिया जाय तो गायत्री के मन्त्रार्थ की सच्ची अनुभूति हो सकती है। उस अनुभूति से मनुष्य दिन-दिन अध्यात्म मार्ग में ऊंचा उठ सकता है।
यह दिव्य पदार्थ औरों को भी दीजिए—
पुण्य कर्मों के साथ प्रसाद बांटना एक आवश्यक धर्मकृत्य माना गया है। सत्यनारायण की कथा के अन्त में पंचामृत, पंजीरी बांटी जाती है, यज्ञ के अन्त में उपस्थित व्यक्तियों को हलुआ या अन्य मिष्ठान बांटते हैं। गीत-मंगल, पूजा-कीर्तन आदि के पश्चात् प्रसाद बांटा जाता है, देवता पीर-मुरीद आदि की प्रसन्नता के लिये बताशे, रेवड़ी या अन्य प्रसाद बांटा जाता है। मंदिरों में जहां अधिक भीड़ होती है और अधिक धन खर्चने को नहीं होता वहां जल में तुलसी पात्र डालकर चरणामृत को ही प्रसाद के रूप में बांटते हैं। तात्पर्य यह है कि शुभ कार्यों के पश्चात् कोई न कोई प्रसाद बांटना आवश्यक होता है। इसका कारण यह है कि शुभ कार्य के साथ जो शुभ वातावरण पैदा होता है, उसे खाद्य पदार्थों के साथ सम्बन्धित करके उपस्थित व्यक्तियों को देते हैं ताकि वे भी उन शुभ तत्वों को ग्रहण करके आत्मसात् कर सके। दूसरी बात यह है कि उस प्रसाद के साथ दिव्य तत्वों के प्रति श्रद्धा की धारणा होती है और मधुर पदार्थों को ग्रहण करते समय प्रसन्नता का आविर्भाव होता है। इन दोनों तत्वों की अभिवृद्धि से प्रसाद ग्रहण करने वाला अध्यात्म की ओर आकर्षित होता है और यह आकर्षण अन्ततः उसके लिये सर्वतोमुखी कल्याण को प्राप्त कराने वाला सिद्ध होता है। यह परम्परा एक से दूसरे में, दूसरे से तीसरे में चलती रहे और धर्म वृद्धि का यह क्रम बराबर बढ़ता रहे, इस लाभ को ध्यान में रखते हुए आध्यात्म-विद्या के आचार्यों ने यह आदेश किया है कि प्रत्येक शुभ कार्य के अन्त में प्रसाद बांटना आवश्यक है। शास्त्रों में ऐसे आदेश मिलते हैं जिनमें कहा गया है कि अन्त में प्रसाद वितरण न करने से यह कर्म निष्फल हो जाता है, इसका तात्पर्य प्रसाद के महत्व की ओर लोगों को सावधान करने का है।
गायत्री साधना भी एक यज्ञ है। यह साधारण है। अग्नि में सामग्री की आहुति देना स्थूल कर्मकांड है, पर आत्मा में परमात्मा की स्थापना, सूक्ष्म यज्ञ है, जिसकी महत्ता स्थूल अग्निहोत्र की अपेक्षा अनेक गुनी अधिक होती है। इतने महान् धर्मकृत्य के साथ-साथ प्रसाद का वितरण भी ऐसा होना चाहिए जो उसकी महत्ता के अनुरूप हो। रेवड़ी, बताशे, लड्डू या हलुआ पूरी बांट देने मात्र से यह कार्य पूरा नहीं हो सकता। गायत्री का प्रसाद तो ऐसा होना चाहिए, जिसे ग्रहण करने वाले को स्वर्गीय स्वाद मिले, जिसे खाकर उसकी आत्मा तृप्त हो जाय। गायत्री ब्राह्मी शक्ति है, उसका प्रसाद भी ‘ब्राह्मी प्रसाद’ होना चाहिए तभी वह उपयुक्त गौरव का कार्य होगा। इस प्रकार का प्रसाद हो सकता है—ब्रह्मदान, ब्राह्मी स्थिति की ओर चलाने का आकर्षण प्रोत्साहन! जिस व्यक्ति को ब्रह्म प्रसाद देना है उसे आत्म-कल्याण की दिशा में आकर्षित करना और उस ओर चलने के लिये उसे प्रोत्साहित करना ही प्रसाद है।
यह प्रकट है कि भौतिक और आत्मिक आनन्द के समस्त स्रोत मानव प्राणी के अन्तःकरण में छिपे हुए हैं। सम्पत्तियां संसार से बाहर नहीं हैं, बाहर तो पत्थर, धातुओं के टुकड़े और निर्जीव पदार्थ भरे पड़े हैं, सम्पत्तियों के समस्त कोष आत्मा में सन्निहित हैं जिनके दर्शन मात्र से मनुष्य को तृप्ति मिल जाती है और उसके उपभोग करने पर आनन्द का पाराबार नहीं रहता। उन आनन्द भण्डारों को खोलने की कुंजी आध्यात्मिक साधनों में है और उन समस्त साधनाओं में गायत्री-साधना सर्वश्रेष्ठ है। यह श्रेष्ठता अतुलनीय है, असाधारण है, उसकी सिद्धियां चमत्कारों का कोई पाराबार नहीं। ऐसी श्रेष्ठ साधना के मार्ग पर यदि किसी को आकर्षित किया जाय, प्रोत्साहित किया जाय और जुटा दिया जाय तो इससे बढ़कर उस व्यक्ति का और कोई उपकार नहीं हो सकता जैसे-जैसे उसके अन्दर सात्विक तत्वों की वृद्धि होगी, वैसे-वैसे उसके विचार और कार्य पुण्यमय होते जायेंगे और उसका प्रभाव दूसरों पर पड़ने से वे भी सन्मार्ग का अवलम्बन करेंगे। यह श्रृंखला जैसे जैसे बढ़ेंगी वैसे ही वैसे संसार में सुख-शांति की, पुण्य की मात्रा पढ़ेगी और उस कर्म के पुण्य फल में उस व्यक्ति का भी भाग होगा जिसने किसी को आत्म-मार्ग में प्रोत्साहित किया था।
जो व्यक्ति गायत्री की साधना करे उसे प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि मैं भगवती को प्रसन्न करने के लिए उसका महाप्रसाद, ब्रह्म प्रसाद अवश्य वितरण करूंगा। यह वितरण इस प्रकार होना चाहिये कि अपने परिचितों में अपरिचितों में ऐसे व्यक्ति तलाश करने चाहिए, जिनमें पहले से कुछ शुभ संस्कारों के बीज मौजूद हों उन्हें धीरे-धीरे गायत्री का माहात्म्य, रहस्य लाभ समझाते रहा जाय, जो लोग आध्यात्मिक उन्नति के महत्व को नहीं समझते उन्हें गायत्री से होने वाले भौतिक लाभों का सविस्तार वर्णन किया जाय, ‘अखण्ड ज्योति संस्थान’ द्वारा प्रकाशित गायत्री साहित्य पढ़ाया जाय। इस प्रकार उनकी रुचि को इस दिशा में मोड़ा जाय जिससे वे आरम्भ में भले ही सकाम भावना से सही, वेद-माता का आश्रय ग्रहण करें, पीछे तो वे स्वयं ही इस महा-लाभ पर मुग्ध होकर छोड़ने का नाम न लेंगे। एक बार रास्ते पर डाल देने से गाड़ी अपने आप ठीक मार्ग पर चलती जाती है। किसी की जीवन धारा को सही दिशा देना धार्मिक एवं सामाजिक, दोनों ही दृष्टियों से श्रेष्ठ फलदायी कार्य है।
किसी व्यक्ति की मित्रता किसी श्रेष्ठ समर्थ प्रभावशाली व्यक्ति से करा देना उसके विकास के हजार मार्ग खोल देने से जितना लाभप्रद होता है। आदि शक्ति-वेदमाता से सच्चा सम्बन्ध स्थापित कराना, किसी भी जीव को सही दिशा प्रदान करना, किसी भी पुण्य परमार्थ से कम नहीं अधिक फलदायक होता है।
मां से सम्बन्ध जोड़ने का कार्य विवेकपूर्वक किया जाता है। किसी को पहलवान बनाना हो तो उससे प्रारम्भ में हल्के व्यायाम ही कराये जाते हैं। प्रारम्भ में सद्बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी—गायत्री को छवि रूप में या मन्त्र रूप में संस्थापित करके उनके प्रति श्रद्धा भाव बढ़ाना भर पर्याप्त है। पर अपना कार्य प्रारम्भ करने के पूर्व उसके सामने बैठकर अथवा खड़े होकर ही 5-7 मन्त्र जपें तथा मां से अधिक निकटता का अवसर देने की प्रार्थना करें। जीवन में सही दिशा प्रदान करने का भाव भरा आह्वान करें। यह 2-4 मिनट का क्रम भी एक अच्छी शुरुआत हो सकती है। बाद में क्रमशः व्यवस्थित उपासना क्रम में प्रवेश कराया जा सकता है।
जिन्हें मन् जपने में कठिनाई हो उन्हें लेखन की साधना भी बतलाई जा सकती है। पूजा स्थल पर एक कापी रखें नियमित समय पर नित्य जप की तरह कम से कम 24 मन्त्र लिखें। अन्य कृत्य सुविधानुसार करें। जप के स्थान पर गायत्री चालीसा पाठ का क्रम भी श्रद्धा वृद्धि का अच्छा माध्यम है। बच्चों एवं महिलाओं के लिए यह काफी अनुकूल पड़ता है।
अस्तु, हर साधक को अपने प्रभाव क्षेत्र के, परिचय क्षेत्र के व्यक्तियों को भी माता के सान्निध्य सहचरत्व का लाभ दिलाने का प्रयास करना चाहिए। इसे अपनी साधना, आत्म विकास की साधना का ही एक महत्वपूर्ण अंग मानकर चलना उचित है।
परन्तु किसी विशेष प्रयोजन के लिये जब विशेष शक्ति का संचय करना पड़ता है तो उसके लिए एक विशेष क्रिया की जाती है। इस क्रिया को अनुष्ठान के नाम से पुकारते हैं, जब कहीं परदेश के लिये यात्रा की जाती है तो रास्ते के लिये कुछ भोजन सामग्री तथा खर्च को रुपये साथ रख लेना आवश्यक होता है। यदि यह मार्ग-व्यय साथ न हो तो यात्रा बड़ी कष्टसाध्य हो जाती है। अनुष्ठान एक प्रकार का मार्ग-व्यय है। इस साधना को करने से पूंजी जमा हो जाती है, उसे साथ लेकर किसी भी भौतिक या आध्यात्मिक कार्य में जुटा जाय तो यात्रा बड़ी सरल हो जाती है।
बच्चा दिन भर मां-मां पुकारता रहता है, माता दिन भर बेटा, लल्ला कहकर उसको उत्तर देती रहती है, यह लाड़-दुलार यों ही दिन भर चलता रहता है, पर जब कोई विशेष आवश्यकता पड़ती है, कष्ट होता है, कठिनाई आती है, आशंका होती है, या सहायता की जरूरत पड़ती है तो बालक विशेष बलपूर्वक, विशेष स्वर से माता को पुकारता है। इस विशेष पुकार को सुनकर माता अपने अन्य कामों को छोड़कर बालक के पास दौड़ आती है और उसकी सहायता करती है। अनुष्ठान साधक की ऐसी ही पुकार है। जिसमें विशेष एवं विशेष आकर्षण होता है, उस आकर्षण से गायत्री-शक्ति विशेष रूप से साधक के समीप एकत्रित हो जाती है।
सांसारिक कठिनाइयों में, मानसिक उलझनों आन्तरिक उद्वेगों में गायत्री-अनुष्ठान से साधारण सहायता मिलती है। यह ठीक है कि ‘‘किसी को सोने का घड़ा भर कर अशर्फियां गायत्री नहीं दे जाती’’ पर यह भी ठीक है कि उसके प्रभाव से मनोभूमि में भौतिक परिवर्तन होते हैं, जिनके कारण कठिनाई का उचित हल निकल आता है। उपासक में ऐसी बुद्धि, ऐसी प्रतिभा, ऐसी सूझ, ऐसी दूरदर्शिता पैदा हो जाती है, जिसके कारण वह ऐसा रास्ता प्राप्त कर लेता है जो कठिनाई के निवारण में रामबाण की तरह फलप्रद सिद्ध होता है। भ्रांत मस्तिष्क में कुछ असंगत, असम्भव और आवश्यक विचारधारायें, कामनायें मान्यतायें घुस पड़ती हैं, जिनके कारण वह व्यक्ति अकारण दुःखी बना रहता है। गायत्री-साधना से मस्तिष्क का ऐसा परिमार्जन हो जाता है, जिसमें कुछ समय पहले जो बातें अत्यन्त आवश्यक और महत्वपूर्ण लगती थीं, वे ही पीछे अनावश्यक और अनुपयुक्त लगने लगती हैं। वह उधर से मुंह मोड़ लेता है। इस प्रकार यह मानसिक परिवर्तन इतना आनन्दमय सिद्ध होता है, जितना कि पूर्व कल्पित भ्रांत कामनाओं के पूर्ण होने पर भी सुख न मिलता। अनुष्ठान द्वारा ऐसे ही ज्ञात और अज्ञात परिवर्तन होते हैं जिनके कारण दुःखी और चिन्ताओं से ग्रस्त मनुष्य थोड़े समय में सुख-शान्ति का स्वर्गीय जीवन बिताने की स्थिति में पहुंच जाता है।
चौबीस हजार मन्त्र जप का लघु अनुष्ठान एवं सवा लाख मन्त्रों के जप का मध्यम अनुष्ठान कहलाता है। अनुष्ठान से साधना को पकने में सहायता मिलती है। फल वनस्पति सभी पक कर ही पूरा लाभ पहुंचा पाते हैं। इसी तरह पकी हुई साधना ही प्रचुर फल देती है।
अनुष्ठान की विधि—
अनुष्ठान किसी भी मास में किया जा सकता है। तिथियों में पंचमी, एकादशी, पूर्णमासी शुभ मानी गई हैं। पंचमी को दुर्गा, एकादशी को सरस्वती, पूर्णमासी को लक्ष्मी तत्व की प्रधानता रहती है। शुक्ल पक्ष और कृष्णपक्ष दोनों में से किसी का निषेध नहीं है किन्तु कृष्ण पक्ष की अपेक्षा शुक्लपक्ष अधिक शुभ है।
अनुष्ठान आरम्भ करते हुए नित्य गायत्री का आह्वान और अंत करते हुए विसर्जन करना चाहिये। इस प्रतिष्ठा में भावना और निवेदन प्रधान हैं। श्रद्धापूर्वक ‘भगवती’ जगज्जननी भक्त वत्सला, गायत्री यहां प्रतिष्ठित होने का अनुग्रह कीजिये। ऐसी प्रार्थना संस्कृत या मातृभाषा में करनी चाहिये। विश्वास करना चाहिये कि प्रार्थना को स्वीकार करके वे कृपापूर्वक पधार गई है। विसर्जन करते समय प्रार्थना करनी चाहिये कि ‘‘आदि शक्ति भयहारिणी, शक्तिदायिनी, तरणतारिणी मातृके! अब विसर्जित हूजिये’’। इस भावना को संस्कृत या अपनी मातृभाषा में कह सकते हैं, इस प्रार्थना के साथ-साथ यह विश्वास करना चाहिए कि प्रार्थना स्वीकार करके वे विसर्जित हो गई हैं। किसी छोटी चौकी, चबूतरी या आसन पर फूलों का एक छोटा सुन्दर-सा आसन बनाना चाहिए और उस पर गायत्री की प्रतिष्ठा होने की भावना करनी चाहिये। साकार उपासना के समर्थक भगवती का कोई सुन्दर सा चित्र अथवा प्रतिमा को उन फूलों पर स्थापित कर सकते हैं। निराकार के उपासक निराकार भगवती की शक्ति पूजा का एक स्फुल्लिंग वहां प्रतिष्ठित होने की भावना कर सकते हैं। कोई-कोई साधक धूपबत्ती की, दीपक की अग्नि-शिक्षा में भगवती की चैतन्य ज्वाला का दर्शन करते हैं और उसी दीपक या धूपबत्ती को फूलों पर प्रतिष्ठित करके अपनी आराध्य शक्ति की उपस्थिति अनुभव करते हैं। विसर्जन के समय प्रतिमा को हटाकर शयन करा देना चाहिए, पुष्पों को जलाशय या पवित्र स्थान पर विसर्जित कर देना चाहिये। अधजली अगरबत्ती या रुई बत्ती को बुझाकर उसे भी पुष्पों के साथ विसर्जित कर देना चाहिए। दूसरे दिन जली हुई बत्ती का प्रयोग फिर न होना चाहिए।
पूर्ववर्णित विधि से प्रातःकाल पूर्वाभिमुख होकर शुद्ध भूमि पर शुद्ध होकर कुश के आसन पर बैठें। जल का पात्र समीप रखलें। धूप और दीपक जप के समय जलते रहना चाहिये। बुझ जाये तो उस बत्ती को हटाकर नई बत्ती डालकर पुनः जलाना चाहिये। दीपक या उसमें पड़े घृत को हटाने की आवश्यकता नहीं है।
पुष्प आसन पर गायत्री की प्रतिष्ठा और पूजा के अनन्तर जप प्रारम्भ कर देना चाहिए। नित्य यही क्रम रहे। प्रतिष्ठा और पूजा अनुष्ठान काल में नित्य होती रहनी चाहिये। जप के समय मन को श्रद्धान्वित रखना चाहिये, स्थिर बनाना चाहिये। मन चारों ओर न दौड़े इसलिये पूर्व वर्णित ध्यान भावना के अनुसार गायत्री का ध्यान करते हुए जप करना चाहिए। साधन के इस आवश्यक अंग ध्यान में मन लगा देने से वह एक कार्य में उलझा रहता है और जगह जगह नहीं भागता। भागे तो उसे रोक-रोक कर बार-बार ध्यान भावना पर लगाना चाहिये। इस विधि से एकाग्रता की दिन-दिन वृद्धि होती चलती है।
लघु अनुष्ठान के लिए नवरात्रियों का समय बहुत उपयुक्त होता है। जैसे दिन एवं रात्रि के संधिकाल में उपासना अधिक फलवती होती है वैसे ही ऋतुओं के संधिकाल नवरात्रियों में भी साधना का विशेष महत्व है आश्विन (क्वार) और चैत्रमास शुक्लपक्ष में प्रतिपदा (पड़वा) से लेकर नवमी तक नौ दुर्गायें रहती हैं। यह समय गायत्री-साधना के लिये सबसे अधिक उपयुक्त है। इन दिनों में उपवास रखकर चौबीस हजार मन्त्रों के जप का छोटा सा अनुष्ठान कर लेना चाहिए। यह छोटी साधना भी बड़ी के समान उपयोगी सिद्ध होती है।
एक समय अन्नाहार, एक समय फलाहार, दो समय दूध और फल एक समय आहार, एक समय फल दूध, का आहार, केवल दूध का आहार इसमें से जो उपवास अपनी सामर्थ्यानुकूल हो उसी के अनुसार साधना आरम्भ कर देनी चाहिए। प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में उठकर शौच, स्नान से निवृत्त होकर पूर्व वर्णित नियमों को ध्यान में रखते हुए बैठना चाहिये। नौ दिन में चौबीस हजार का जप करना है। प्रतिदिन 30 मालायें जपने से यह संख्या पूरी हो जाती है। तीन-चार घन्टे में अपनी गति के अनुसार इतनी मालायें आसानी से जपी जा सकती हैं। यदि एक बार इतना समय लगातार जप करना कठिन हो तो अधिकांश भाग प्रातः पूरा करके न्यून अंश सायंकाल को पूरा कर लेना चाहिये।
यदि छोटा नौ दिन का अनुष्ठान नवदुर्गाओं के समय में प्रति वर्ष करते रहा जाय तो सबसे उत्तम है। नौ दिन साधना के लिये बड़े ही उपयुक्त हैं। कष्ट निवारण, कामना-पूर्ति और आत्मबल बढ़ाने में इन दिनों की उपासना बहुत ही लाभदायक सिद्ध होती है।
साधकों के लिए कुछ आवश्यक नियम—
गायत्री-साधना करने वालों के लिये कुछ आवश्यक जानकारियां नीचे दी जाती हैं—
1—शरीर को शुद्ध करके साधना पर बैठना चाहिये। साधारणतः स्नान के द्वारा ही शुद्धि होती है, पर किसी विवशता, ऋतु प्रतिकूलता या अस्वस्थता की दशा में हाथ-मुंह धोकर या गीले कपड़े से शरीर पोंछकर भी काम चलाया जा सकता है।
2—साधना के समय शरीर पर कम से कम वस्त्र रहने चाहिये। शीत की अधिकता हो तो कसे हुए कपड़े पहनने की अपेक्षा कम्बल आदि ओढ़कर शीत-निवारण का लेना उत्तम है।
3—साधना के लिये एकान्त, खुली हवा की एक ऐसी जगह ढूंढ़नी चाहिए, जहां का वातावरण शान्तिमय हो। खेत, बगीचा, जलाशय का किनारा, देव-मन्दिर इस कार्य के लिये उपयुक्त होते हैं, पर जहां ऐसा स्थान मिलने में असुविधा हो, वहां घर का कोई स्वच्छ और शान्त भाग भी चुना जा सकता है।
4—पालती मारकर सीधे-साधे ढंग से बैठना चाहिये। कष्ट-साध्य आसन लगाकर बैठने से शरीर को कष्ट होता है और मन बार-बार उचटता है, इसलिए ऐसी तरह बैठना चाहिये कि देर तक बैठे रहने में असुविधा न हो।
5—रीढ़ की हड्डी को सदा सीधा रखना चाहिये। कमर झुकाकर बैठने से मेरुदण्ड टेढ़ा हो जाता है और सुषुम्ना नाड़ी में प्राण का आवागमन होने में बाधा पड़ती है। 6—बिना बिछाये जमीन पर साधना करके के लिए न बैठना चाहिये। इससे साधना-काल में उत्पन्न होने वाली शारीरिक विद्युत जमीन पर उतर जाती है। घास या पत्तों से बने हुए आसन सर्वश्रेष्ठ हैं। कुश का आसन, चटाई, रस्सियों का बना फर्श सबसे अच्छे हैं। इनके बाद सूती आसनों का नम्बर है। ऊन के तथा चर्म के आसन तांत्रिक कर्मों में प्रयुक्त होते हैं।
7—माला, तुलसी या चन्दन की लेनी चाहिये। रुद्राक्ष, लाल चन्दन, शंख आदि की माला गायत्री के तांत्रिक प्रयोगों में प्रयुक्त होती है।
8— जप के लिए प्रातःकाल एवं संध्याकाल का समय अधिक उपयुक्त है। अधिकांश जप इन्हीं आसनों पर पूरा करना चाहिये।
9—साधना के लिये चार बातों का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिये—(अ) चित्त एकाग्र रहे, मन इधर-उधर न उछलता फिरे। यदि चित्त बहुत दौड़े तो उसे माता की सुन्दर छवि के ध्यान में लगाना चाहिये। (ब) माता के प्रति अगाध श्रद्धा और विश्वास हो, अविश्वासी और शंका शंकित मति वाले पूरा लाभ नहीं पा सकते। (स) दृढ़ता के साथ साधना पर अड़े रहना चाहिये। अनुत्साह, मन उचटना, नीरसता प्रतीत होना, जल्दी लाभ न मिलना, अस्वस्थता तथा अन्य सांसारिक कठिनाइयों का मार्ग में आना साधना के विघ्न हैं। इन विघ्नों से लड़ते हुए अपने मार्ग पर दृढ़तापूर्वक बढ़ते चलना चाहिये। (द) निरन्तरता साधना का आवश्यक नियम है। अत्यन्त कार्य होने या विषम स्थिति आ जाने पर किसी-न-किसी रूप में चलते-फिरते ही सही, पर माता की उपासना अवश्य कर लेनी चाहिए। किसी भी दिन नागा या भूल नहीं करनी चाहिये। समय को रोज-रोज नहीं बदलना चाहिये। कभी सवेरे, कभी दोपहर, कभी तीन बजे तो कभी दस बजे ऐसी अनियमितता ठीक नहीं। इन चार नियमों के साथ की गई साधना बड़ी प्रभावशाली होती है।
10—कम से कम एक माला अर्थात् 108 मन्त्र नित्य जपने चाहिये, इससे अधिक जितने बन पड़े उतने उत्तम हैं।
11—प्रातःकाल की साधना के लिये पूर्व को मुंह करके बैठना चाहिये और शाम को पश्चिम को मुंह करके। प्रकाश की ओर, सूर्य की ओर मुंह करना उचित है।
12—पूजा के लिये फूल न मिलने पर चावल या नारियल की गिरी को कद्दूकस पर कस कर उसके बारीक पत्रों को काम में लाना चाहिये। यदि किसी विधान में रंगीन पुष्पों की आवश्यकता हो तो चावल या गिरी के पत्रों को केशर, हल्दी, गेरू, मेंहदी देशी रंगों से रंगा जा सकता है। विदेशी अशुद्ध चीजों से बने रंग काम में नहीं लेने चाहिए। 13—देर तक एक पालथी से, एक आसन में बैठे रहना कठिन होता है, इसलिए जब एक तरह से बैठे-बैठे पैर थक जावें, तब उन्हें बदला जा सकता है। इसे बदलने में दोष नहीं।
14—मल-मूत्र त्याग या किसी अनिवार्य कार्य के लिये साधना के बीच में उठना पड़े तो शुद्ध जल से हाथ-मुंह धोकर तब दुबारा बैठना चाहिये और विक्षेप के लिये एक माला का अतिरिक्त जप प्रायश्चित स्वरूप करना चाहिये।
15—यदि किसी दिन अनिवार्य कारण से साधना स्थगित करनी पड़े तो दूसरे दिन एक माला अतिरिक्त जप दण्डस्वरूप करना चाहिये।
16—जन्म या मृत्यु के सूतक हो जाने पर शुद्धि होने तक माला आदि की सहायता से किये जाने वाले विधिवत् जप स्थगित रखना चाहिए। केवल मानसिक जप मन ही मन चालू रख सकते हैं। यदि इस प्रकार का अवसर सवालक्ष जप के अनुष्ठान काल में आ जावे तो उतने दिनों अनुष्ठान स्थगित रखना चाहिये। सूतक निवृत्त होने पर उसी संख्या पर से आरम्भ किया जा सकता है, जहां से छोड़ा था। उसमें विक्षेप काल की शुद्धि के लिये एक हजार जप विशेष रूप से करना चाहिये।
17—लम्बे सफर में होने, स्वयं रोगी हो जाने या तीव्र रोगी की सेवा में संलग्न रहने की दशा में स्नान आदि पवित्रताओं की सुविधा नहीं रहती। ऐसी दशा में मानसिक जप बिस्तर पर पड़े-पड़े, रास्ता चलते या किसी भी अपवित्र दशा में किया जा सकता है।
18—साधक का आहार-विहार सात्विक होना चाहिये। आहार में सतोगुणी, सादा, सुपाच्य, ताजे तथा पवित्र हाथों से बनाये हुये पदार्थ होने चाहिये। अधिक मिर्च मसाले वाले तले हुए पकवान, मिष्ठान्न, बासी, बुसे, दुर्गन्धित, मांस, नशीले, अभक्ष्य, उष्ण, दाहक, अनीति उपार्जित, गन्दे मनुष्यों द्वारा बनाये हुए, तिरस्कार पूर्वक दिये हुए भोजन से जितना बचा जा सकेगा उतना ही अच्छा है।
19—व्यवहार जितना भी प्राकृतिक, धर्म, संगत, सरल एवं सात्विक रह सके, उतना ही उत्तम है। फैशनपरस्ती, रात्रि में अधिक जगना, दिन में सोना, सिनेमा, नाच-रंग अधिक देखना, पर निन्दा, छिद्रान्वेषण, कलह दुराचार, ईर्ष्या निष्ठुरता, आलस्य, प्रमाद, मद-मत्सर से जितना बचा जा सके, बचने का प्रयत्न करना चाहिये। 20—यों ब्रह्मचर्य तो सदा ही उत्तम है, पर गायत्री-अनुष्ठान के दिनों में उसकी विशेष आवश्यकता है।
21—एकान्त में जप करते समय माला खुले रूप से जपनी चाहिये। जहां बहुत आदमियों की दृष्टि पड़ती हो, वहां कपड़े से ढक लेना चाहिये या गौमुखी में हाथ डाल लेना चाहिये।
22—माला जपते समय सुमेरु (माला के आरम्भ का सबसे बड़ा दाना) का उल्लंघन नहीं करना चाहिये। एक माला पूरी करके उसे मस्तक तथा नेत्रों से लगाकर पीछे की तरफ उलटा ही वापिस कर लेना चाहिये। इस प्रकार माला पूरी होने पर हर बार उलट कर ही नया आरम्भ करना चाहिए।
23—साधना के उपरान्त पूजा के बचे हुए अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य, फूल, जल, दीपक की बत्ती हवन की भस्म आदि की यों ही जहां तहां ऐसी जगह नहीं फेंक देना चाहिये जहां पर पैर तले कुचलती फिरें। किसी तीर्थ, नदी, जलाशय, देव-मन्दिर, कपास, जौ, चावल का खेत आदि पवित्र स्थानों पर विसर्जन करना चाहिए। चावल चिड़ियों के लिये डाल देना चाहिये। नैवेद्य आदि बालकों को बांट देना चाहिये। जल को सूर्य के सम्मुख अर्घ्य देना चाहिये।
24—वेदोक्त रीति की यौगिक दक्षिण-मार्गी क्रियाओं में और तन्त्रोक्त वाममार्गी क्रियाओं में अन्तर है। योगमार्गी सरल विधियां इस पुस्तक में लिखी हुई हैं उनमें कोई विशेष कर्मकाण्ड की आवश्यकता नहीं है। शाप-मोचन कवच, कीलक, अर्गल, मुद्रा, अंग न्यास आदि कर्मकाण्ड तांत्रिक साधनाओं के लिये हैं। इस पुस्तक के आधार पर साधना करने वालों को उसकी आवश्यकता नहीं है।
25—गायत्री का अधिकार ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य इन तीन द्विजातियों को है। वर्ण जन्म से भी होते हैं और गुण, कर्म स्वभाव से भी। आजकल जन्म से जातियों में बड़ी गड़बड़ी हो गई है। कई उच्च वर्ण समय के फेर से नीच वर्णों में गिने जाने लगे हैं और कई नीच वंश उच्च कहलाते हैं। ऐसे लोग अपनी वर्तमान सामाजिक स्थिति को ही ध्यान में रखें।
26—वेद-मन्त्रों का सस्वर उच्चारण करना उचित होता है। पर सब लोग यथाविधि सस्वर गायत्री का उच्चारण नहीं कर सकते। इसलिए जप इस प्रकार करना चाहिये कि कंठ से ध्वनि होती रहे, होठ हिलते रहें, पर पास में बैठा हुआ मनुष्य भी स्पष्ट रूप से मन्त्र को न सुन सके। इस प्रकार किया जप स्वर-बन्धनों से मुक्त होता है। 27—गायत्री-साधना माता की चरण-वन्दना के समान है, यह कभी निष्फल नहीं होती। उल्टा परिणाम भी नहीं होता, भूल हो जाने से अनिष्ट होने की कोई आशंका नहीं। इसलिये निर्भय और प्रसन्न चित्त से उपासना करनी चाहिये। अन्य मन्त्र विधिपूर्वक जपे जाने पर अनिष्ट करते हैं, पर गायत्री से यह बात नहीं है वह सर्वसुलभ, अत्यन्त सुगम और सब प्रकार सुसाध्य हैं। हां, तांत्रिक विधि से की गई उपासना पूर्ण विधि-विधान के साथ ही होनी चाहिये उसमें अन्तर पड़ना हानिकारक है।
28—जैसे मिठाई को अकेले-अकेले ही चुपचाप खा लेना और समीपवर्ती लोगों को उसे न चखाना बुरा है, वैसे ही गायत्री-साधना को स्वयं तो करते रहना, पर अन्य प्रियजनों, मित्रों, कुटुम्बियों को उसके लिये प्रोत्साहित न करना, एक बहुत बड़ी बुराई तथा भूल है। इस बुराई से बचने के लिये हर साधक को चाहिये कि अधिक से अधिक लोगों को इस दिशा में प्रोत्साहित करे।
अनुष्ठान के नियम—
1—गायत्री अनुष्ठान तीन प्रकार के होते हैं। (अ) 24 हजार जप एवं 240 आहुतियों के हवन का लघु अनुष्ठान, (ब) सवा लाख जप एवं 1250 आहुतियों का मध्यम अनुष्ठान, (स) 24 लाख जप एवं 24 हजार आहुतियों का महापुरश्चरण। लघु अनुष्ठान में 24000 जप के स्थान पर 2400 गायत्री मन्त्र लेखन अथवा गायत्री चालीसा के 240 पाठ भी किये जा सकते हैं।
2—लघु अनुष्ठान 9 दिन में 27 माला प्रतिदिन के हिसाब से पूर्ण होता है। मध्यम अनुष्ठान 40 दिन में 33 माला प्रतिदिन के हिसाब से पूर्ण करना चाहिये। 24 लक्ष यदि एक वर्ष में करना हो तो 66 माला प्रतिदिन करनी पड़ती है। दूसरा तरीका यह है कि 4 हजार के 100 अनुष्ठानों में या सवालक्ष के 20 अनुष्ठानों में विभक्त करके इसे पूरा किया जाय।
3—अनुष्ठान किसी शुभ दिन से आरम्भ करना चाहिये। इसके लिए रविवार, गुरुवार एवं प्रतिपदा, पंचमी, एकादशी, पूर्णिमा तिथियां उत्तम हैं। तिथि या वार कोई एक ही उत्तम हो तो करने के लिये पर्याप्त है। चैत्र और आश्विन की नवरात्रियां 24 हजार लघु अनुष्ठान के लिये अधिक उपयुक्त हैं। वैसे कभी भी सुविधानुसार किया जा सकता है।
4—अनुष्ठान काल में पालन करने योग्य नियम ये हैं—(अ) ब्रह्मचर्य से रहना (आ) उपवास (फल, दूध, बिना नमक का भोजन) (इ) जमीन या तख्त पर सोना (ई) अपनी हजामत, कपड़े धोना आदि सेवायें स्वयं ही करना, चमड़े के जूते का त्याग।
5—नित्य जप की भांति ही अनुष्ठान में भी स्नान, संध्या करके जप आरम्भ कर दिया जाता है। निर्धारित हवन रोज कर सकते हैं या अनुष्ठान के अन्त में हो सकता है। जितने मन्त्र जप का अनुष्ठान किया हो उसकी सतांश संख्या से आहुतियां डालनी चाहिये। यदि यह सम्भव न हो तो कुल जप का दसवां भाग अतिरिक्त जप कर देने से उसकी पूर्ति हो जाती है।
6—गायत्री अनुष्ठान के बाद ब्राह्मण भोजन के स्थान पर कन्या भोजन कराना अधिक उपयुक्त रहता है। यथा शक्ति कन्याओं को भोजन कर देना चाहिये। इसी प्रकार सत्साहित्य, गायत्री ज्ञानवर्धक साहित्य का वितरण भी पुण्यदायी होता है। युग निर्माण मिशन द्वारा ऐसा साहित्य बड़ी मात्रा में—लागत मूल्य पर ही उपलब्ध किया जा सकता है।
7—साधना सम्बन्धी कठिनाइयों एवं शंकाओं के निवारण, अनुष्ठान काल में हुई भूलों के परिमार्जन, अनुष्ठान की निर्विघ्न समाप्ति के लिये ‘शान्तिकुंज’ हरिद्वार सूचना करनी चाहिये। जवाबी पत्र डालने से समुचित परामर्श वहां से उपलब्ध किया जा सकता है।
उपासना ही नहीं समय साधना—
न्यूनतम उपासना प्रक्रिया के अन्तर्गत ज्योति अवतरण ध्यान तथा नित्य पूजा एवं जप का सरल विधान बताया गया है और नवरात्रियों में अनुष्ठानों की तपश्चर्या करते रहने का सुझाव दिया गया है। यह क्रम व्यस्त समय वाले लोगों के लिए भी कुछ कठिन नहीं है। यदि अन्तःकरण में आकांक्षा जाग पड़े तो प्रातः सोकर उठते ही चारपाई पर पड़े-पड़े आधा घण्टे का ध्यान और नित्य-कर्म के उपरान्त आधा घण्टे की पूजा-प्रक्रिया यह समय अथवा विधान ऐसा नहीं है जिससे कहीं सांसारिक कामों में अड़चन पड़ती हो। प्रश्न केवल रुचि और आकांक्षा का है। यदि मन को जाग्रत किया जा सके तो जीवनोद्देश्य को पूर्ण करने की दिशा में इतने मात्र से महत्वपूर्ण प्रति हो सकती है। नवरात्रियों में कुछ समय तो अधिक लग जाता है और कुछ अड़चनें भी सहनी पड़ती हैं, पर इससे कई-कई गुने कष्ट सांसारिक कार्यों के लिये बार-बार सहने पड़ते हैं, तो आत्मकल्याण के लिये इतनी अड़चन सह लेनी भी कुछ मुश्किल नहीं है। जिनमें निष्ठा है, वे सांसारिक कार्यों का बहुत अधिक दबाव रहने पर भी इतना समय बड़ी आसानी से निकाल लेते हैं। यों उपासना का क्षेत्र बहुत विशाल और व्यापक है। जिनके पास यम है, अभिलाषा है, निष्ठा है, उनके लिये एक से एक महत्वपूर्ण साधन मौजूद हैं। उन्हें अपनी मनोभूमि और परिस्थितियों के अनुसार मार्ग दर्शन प्राप्त करना चाहिए।
जितना महत्व उपासना का है उतना साधना का भी है। हमें उपासना पर ही नहीं साधना पर भी ध्यान और जोर देना चाहिये। जीवन को पवित्र और परिष्कृत—संयत और सुसन्तुलित, उत्कृष्ट और आदर्श बनाने के लिए अपने गुण, कर्म, स्वभाव को उच्चस्तरीय बनाने के लिये निरन्तर प्रयत्न करना चाहिये। इस प्रयत्न का नाम ही जीवन-साधना अथवा साधना है। उपासना पूजा तो निर्धारित समय का क्रिया-कलाप पूरा कर लेने पर समाप्त हो जाती है, पर साधना चौबीस घन्टे चलानी पड़ती है। अपने हर विचार और हर कार्य पर एक चौकीदार की तरह कड़ी नजर रखनी पड़ती है कि कहीं कुछ अनुचित, अनुपयुक्त तो नहीं हो रहा है। जहां भूल दिखाई दी कि उसे तुरन्त सुधारा—जहां विकार पाया कि तुरन्त उसकी चिकित्सा की—जहां पाप देखा कि तुरन्त उससे लड़ पड़े। यही साधना है। जिस प्रकार सीमारक्षक प्रहरियों को हर घड़ी शत्रु की चालों और बातों का पता लगाना और जूझने के लिये लैस रहना पड़ता है, वैसे ही जीवन संग्राम के हर मोर्चे पर हमें सतर्क और तत्पर रहने की आवश्यकता पड़ती है, इसी तत्परता को साधना कहा जा सकता है।
यह सोचना ठीक नहीं कि भजन करने मात्र से पाप कट जायेंगे और ईश्वर प्रसन्न हो जायेंगे, अतएव जीवन को शुद्ध बनाना अथवा कुमार्गगामिता से बचाने की आवश्यकता नहीं, इसी भ्रमपूर्ण मान्यता ने अध्यात्म के लाभों से हमें वंचित रखा है। यह भ्रम दूर हटाना चाहिये और भारतीय अध्यात्म का तत्वज्ञान एवं ऋषि अनुभवों के आधार पर यही निष्कर्ष अपनाना चाहिये कि उपासना और साधना आध्यात्मिक प्रगति के दो अविच्छिन्न पहलू हैं दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरा अपूर्ण है। जिस तरह अन्न और जल, रात और दिन, शीत और ग्रीष्म, स्त्री, और पुरुष का जोड़ा है, उसी प्रकार उपासना और साधना भी अन्योन्याश्रित हैं। एक के बिना दूसरा अकेला, असहाय, एवं अपूर्ण ही बना रहेगा, इसलिये दोनों को साथ लेकर अध्यात्म मार्ग पर प्रगतिशील होना ही उचित और आवश्यक है।
जीवन साधना की चिन्तन पद्धति—
साधना के लिए उपासना की भांति ही आधे घण्टे या कम से कम 15 मिनट का समय प्रतिदिन प्रातःकाल निकालना चाहिए। यह सोकर उठते ही चारपाई पर बैठकर भी पूरा किया जा सकता है। अथवा नित्य-कर्म, पूजा आदि से निवृत्त होकर फिर थोड़ी ही देर इस चिन्तन क्रम को पूरा करना चाहिये। अपने कार्यक्रम में ही सवेरे ही इसको भी किसी स्थान पर फिट कर लेना चाहिये। पूजा में ही आगे-पीछे इसे भी मिला सकते हैं। समय और क्रम की बात परिजनों के ऊपर ही छोड़ी जा रही है, ताकि वे एक दो दिन में अपनी सुविधानुसार इसे भी यथावत् जमालें।
यों जीवन-साधना का क्रम सारे दिन हर समय चलने का है। उसका प्रारम्भ, शुभारम्भ एक चिन्तन पद्धति के साथ किया जाना चाहिये। इस पद्धति के तीन अंग हैं—(1) जीवन के स्वरूप, उद्देश्य एवं उपभोग को समझना और उसके अनुरूप गतिविधियों का निर्माण करना, (2) ‘‘हर दिन नया जन्म, हर रात नई मौत’’ सूत्र के अनुसार जीवन का श्रेष्ठतम उपयोग करने के लिए दिन भर की शारीरिक कार्य पद्धति एवं मानसिक विचार पद्धति का निर्धारण करना। (3) रात को सोते समय मृत्यु के समय आवश्यक वैराग्य का अनुभव करना। इन तीन चिन्तन क्रम में से दो को प्रातः और तीसरे को रात्रि के समय प्रयुक्त करना चाहिये।
वर्ष में जिस दिन अपना जन्म दिवस पड़ता हो उसे दिन उसे समारोहपूर्वक मनाना चाहिये और साथ ही दिन भर मानव-जीव की महत्ता का अनुभव करते हुये उसके श्रेष्ठतम उपयोग की भावी रीति-नीति निर्धारित करनी चाहिये। वर्तमान क्रिया पद्धति में जो दोष हों उन्हें सुधारना चाहिये और जो नया क्रम दिनचर्या में सम्मिलित करना हो उसे करना चाहिये। यह बात वर्ष में एक बार जन्म-दिन समारोहपूर्वक मनाने के बारे में हुई। पर उतने से ही काम न चलेगा। हर दिन प्रातःकाल उठते ही बिस्तर पर बैठकर अपने आपसे इस सन्दर्भ में तीन प्रश्न पूछने चाहिये उनके उत्तर भी स्वयं ही उपलब्ध करने चाहिये। पर प्रश्नोत्तर प्रातःकाल जीवन का क्रम आरम्भ करते हुये नित्य ही दुहराने चाहिये ताकि जीवन का स्वरूप, उद्देश्य और उपयोग सदा स्मरण बना रहे और उस स्मरण के आधार पर अपनी दिशाएं ठीक रखने में भूल-चूक न होने पावे।
अपने आप से तीन प्रश्न पूछने चाहिये—
(1) भगवान को सभी प्राणी समान रूप से प्रिय पात्र हैं। फिर मनुष्य को ही बोलने, सोचने, लिखने एवं असंख्य सुख-सुविधाएं प्राप्त करने का विशेष अनुदान क्यों मिला? मनुष्य को हर दृष्टि से उत्कृष्ट स्तर का प्राणी बनाने में इतना असाधारण श्रम क्यों किया?
उत्तर एक ही हो सकता है—‘‘अपने उद्यान—इस संसार को अधिक सुन्दर और सुव्यवस्थित बनाने के लिये परमेश्वर को साथी सहचरों की जरूरत पड़ी और अपनी क्षमताओं से सुसज्जित एक सर्वांगपूर्ण प्राणी—मनुष्य इस प्रयोजन की पूर्ति के लिये बनाया। विशेष साधना-सुविधाएं दीं कि इनके द्वारा यह ईश्वरीय प्रयोजनों की पूर्ति ठीक तरह कर सके।’’
(2) दूसरा प्रश्न अपने आप से पूछा चाहिए कि—‘जो सुविधाएं, विभूतियां सम्पदाएं हमें उपलब्ध हैं—उनका लाभ यदि हम अकेले ही उठाते हैं तो इसमें क्या कोई हर्ज है।’ उत्तर एक ही मिलेगा—‘‘अन्य प्राणियों के अतिरिक्त जितनी भी बौद्धिक, आर्थिक, प्रतिभायुक्त एवं अन्य किसी प्रकार की विशेषताएं हैं, वे विश्वमानव की ही पवित्र अमानत हैं और इनका उपभोग लोकमंगल के लिये ही किया जाना चाहिये। शरीर रक्षा भर के आवश्यक उपकरण के अतिरिक्त इन साधनों का विश्व-कल्याण के लिये ही उपयोग किया जाय।’’
(3) तीसरा प्रश्न अपने आप से करना चाहिये कि—‘‘क्या इस सुर दुर्लभ मानव-शरीर का सही उपयोग हो रहा है?’’
उत्तर यही मिलेगा—‘‘हम सदाचारी, संयमी, परिश्रमी, उदार, सज्जन, हंसमुख, सेवाभावी बने बिना मानव जीवन को सार्थक नहीं बना सकते। इसलिये इन सद्गुणों का अभ्यास बढ़ाने के लिए जीवनयापन की रीति-नीति में उत्कृष्टता और आदर्शवादिता का, सभ्यता और सज्जनता का—पुरुषार्थ और साहस का समुचित समावेश करना चाहिये।’’
इन्हीं प्रश्नोत्तरों में अध्यात्म तत्वज्ञान का सार सन्निहित हैं। यदि यह प्रश्न जीवन की महान समस्या के रूप में सामने आये और उन्हें सुलझाने के लिए हम अपने विवेक का उपयोग करें तो भावी जीवनयापन के लिये एक व्यवस्थित दर्शन और कार्यक्रम सामने आ खड़ा होगा। यदि इस तत्वज्ञान को ठीक तरह हृदयंगम किया जा सका तो आकांक्षाओं और कामनाओं का स्वरूप बदला हुआ होगा। रीति-नीति और कार्य पद्धति में वैसा परिवर्तन परिलक्षित होगा जैसे आत्म-ज्ञान सम्पन्न मनुष्य में प्रत्यक्षतः दृष्टिगोचर होना चाहिये।
(2) इसके बाद—‘‘हर दिन नया जन्म--हर रात नई मौत।’’ इस सूत्र को मन ही मन दुहराना चाहिये और भावना करनी चाहिये कि आज का दिन हमें एक नये जन्म के रूप में मिला है। वस्तुतः निद्रा और जागरण—मृत्यु और जन्म का ही एक छोटा नमूना है। इसमें असत्य भी कुछ नहीं। सचमुच की मृत्यु भी एक लम्बी रात की गहरी नींद मात्र है। हर दिन को एक जन्म कहा जाय तो ऊपर से ही हंसी की बात लगती है, वस्तुतः यह एक स्थिर सचाई है। अतएव इस मान्यता में अत्युक्ति और निराधार कल्पना जैसी भी कोई बात नहीं है।
आज का नया जन्म अपने लिये एक अनमोल अवसर है। कहते हैं कि 84 लाख योनियों के बाद एक बार मनुष्य शरीर मिलता है, उसका सदुपयोग कर लेना ही शास्त्रकारों ने सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता है। अस्तु हमें प्रातःकाल चारपाई पर पड़े पड़े ही विचारना चाहिये कि आज का दिन अनमोल अवसर है, उसे अधिक से अधिक उत्कृष्टता के साथ व्यतीत करना चाहिये। कोई भूल, उपेक्षा, अनीति, दुर्बुद्धि उसमें न रहे। आदर्शवादिता का, सद्भावना और सदाशयता का उसमें अधिकाधिक समावेश रहे, ऐसा दिन भर का कार्यक्रम बनाकर तैयार किया जाय।
पूर्ण करने और मंगलमयी उपलब्धियां प्राप्त कर सकने में सफल हो सकते हैं। समय की बर्बादी एक प्रकार की मन्द आत्म-हत्या है। संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं, उनमें से अपने समय का एक-एक क्षण ठीक तरह उपयोग करके ही अभीष्ट सफलताएं प्राप्त की हैं। इसलिये आज समय के सदुपयोग की, एक पल भी बर्बाद न होने की, आलस्य, शिथिलता एवं अन्यमनस्कता से लड़ने की पूरी तैयारी करनी चाहिये और दिन भर के समय विभाजन की दिनचर्या ऐसी बनानी चाहिये जिससे वक्त की बर्बादी के लिये तनिक भी गुंजाइश न रहे। जो आवश्यक काम पिछले कई दिनों से टलते चले जा रहे हों, जिनकी उपयोगिता अधिक हो उन सबको सुविधा हो तो आज ही करने के लिये नियम कर लेना चाहिए। दिनचर्या ऐसी बने जो सुविधा जनक भी हो और सुसन्तुलित भी। अति उत्साह से ऐसा कार्य-क्रम न बना लिया जाय जिसको पूरा कर सकना ही कठिन पड़ जाय।
शारीरिक कार्यक्रमों के साथ-साथ मानसिक क्रिया पद्धति भी निर्धारित करनी चाहिये। किस कार्य को किस भावना के साथ करना है, इसकी रूपरेखा मस्तिष्क में पहले से ही निश्चित रहनी चाहिए। समय-समय पर बड़े ओछे, संकीर्ण, स्वार्थपूर्ण विचार मन में उठते रहते हैं। सोचना चाहिये कि आज के अवसर पर किस प्रकार का अनुपयुक्त विचार उठने की सम्भावना है, उस अवसर के लिए विरोधी विचारों के शस्त्र पहले से ही तैयार कर लिये जायं।
लोहा कटता है, विचारों से विचार भी काटे जा सकते हैं। कामुकता के अश्लील विचार यदि किसी नारी के प्रति उठ रहे हैं तो उसे अपनी बेटी, बहिन, भानजी आदि के रिश्ते में सोचने की—सफेद चमड़ी के भीतर मल-मूत्र, रक्त-मांस की घृणित, दुर्गन्ध भरी होने की—कल्पना करके उनको शमन किया जा सकता है। आवेश, उत्तेजना, क्रोध, उतावली आदि आदतें कइयों की होती हैं। जब वैसे अवसर आयें और तब गम्भीरता, धैर्य, दूरदर्शिता, सज्जनता, शान्ति वैसे विचार अपने मन में उस समय तत्काल उठाने की तैयारी करनी चाहिये।
दिन भर के समय विभाजन तथा विचार-संघर्ष की योजना बनानी और ऐसी दिनचर्या तैयार करनी चाहिये, जिसमें शरीर से ठीक तरह कर्तव्य पालन और मन में ठीक तरह सद्भाव चिन्तन होता रहे। इस कार्य के लिये पन्द्रह मिनट से लेकर आधा घंटे का समय पर्याप्त होनी चाहिये। उस निर्धारित दिनचर्या को कागज पर नोट कर लेना चाहिये और समय-समय पर जांचते रहना चाहिये कि निर्धारण के अनुरूप कार्यक्रम चल रहा है या नहीं? जहां भी भूल हो वहीं उसे तुरन्त सुधारना चाहिये। यदि सतर्कता पूर्वक दिनचर्या के पालन का ध्यान रखा जाय, शारीरिक आलस्य और मानसिक प्रमाद से पग-पग पर लड़ते रहा जाय तो प्रातःकाल की निर्धारित योजना रात को सोते समय ठीक ही चलती रहेगी।
इस प्रकार हर दिन नया जन्म वाले मन्त्र का आधा भाग रात को सोते समय तक पूरा होता रहना चाहिये। हर घड़ी अपने को सतर्क, सक्रिय, जागरूक रखा जाय, चूकों को लिए सतर्क रहा जाय—उत्कृष्टता का जीवन में अधिकाधिक समावेश करने के लिये प्रयत्न किया जाय—तो निस्सन्देह वह दिन पिछले अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक सन्तोषप्रद, अधिक गौरवास्पद होगा। इस प्रकार हर दिन—पिछले दिन की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक आदर्श बनता चला जायगा और कर्मयोग के तत्व दर्शन में हमारी जीवन पद्धति ढलती चली जायेगी।
(1) अब मन्त्र का आधा भाग प्रयुक्त करने का अवसर आता है—‘‘हर रात नई मौत’’ इस भावना को रात्रि में सोते समय प्रयुक्त करना चाहिये। सब कामों से निवृत होकर जब निद्रा देवी की गोद में जाने की घड़ी आये, तब कल्पना करनी चाहिये कि—‘‘एक सुन्दर नाटक का अब पटाक्षेप हो चला। यह संसार एक नाट्यशाला है। आज का दिन अपने के अभिनय करने के लिये मिला था, सो उसको अच्छी तरह खेलने का ईमानदारी से प्रयत्न किया। जो भूलें रह गईं उन्हें याद रखेंगे और अगले दिन वैसी पुनरावृत्ति न होने देने की अधिक सावधानी बरतेंगे।
‘‘अनेक वस्तुएं इस अभिनय में प्रयोग करने को मिलीं। अनेक साथियों का साथ रहा। उनका सान्निध्य एवं उपयोग जितना आवश्यक था कर लिया गया, अब उन्हें यथा समय छोड़कर पूर्ण शान्ति के साथ अपनी आश्रयदात्री माता निद्रा—मृत्यु की—गोद में निश्चिन्त होकर शयन करते हैं।’’
इस भावना में वैराग्य का अभ्यास है। अनासक्ति का प्रयोग है। उपलब्ध वस्तुओं में से एक भी अपनी नहीं, साथी व्यक्तियों में से अपना एक भी नहीं। वे सब अपने परमेश्वर के और अपने कर्तव्य की उपज हैं। हमारा न किसी पर अधिकार है, न स्वामित्व। हर पदार्थ और हर प्राणी के साथ कर्तव्य बुद्धि से ठीक व्यवहार कर लिया जाय, यही अपने लिए उचित है। इस अधिक मोह-ममता के बन्धन, बांधना-स्वामित्व और अधिकार की अहन्ता जोड़ना—निरर्थक है। अपना तो यह शरीर भी नहीं—कल परसों इसे धूलि बनकर उड़ जाना है—तब जो सम्पदा, प्रयोग-सामग्री, पद, परिस्थिति उपलब्ध है उस पर अपना स्वामित्व जमाने का क्या हक? अनेक प्राणी सृष्टि के आदि से लेकर अपने कर्म-भोगों को भुगतने अनेकों के साथ आये दिन संयोग-वियोग करते रहते हैं। अपने साथ भी आज कितने ही प्राणी एक सज्जन साथी की तरह रह रहे हैं, इसके लिए कर्तव्य-धर्म का ठीक तरह पालन किया जाना इतना ही पर्याप्त है। उनसे अनावश्यक ममता जोड़कर ऐसा कुछ न किया जाय जिससे अनुचित पाप कर्मों में संलग्न होना पड़े। यह विवेक हमें रात को सोते समय जागृत करना चाहिये और यह अनुभव करना चाहिये कि अहन्ता और ममता के बन्धन तोड़कर एकाग्र भाव से भगवान की मंगलमय गोदी—निद्रा-मृत्यु में परम शान्ति और सन्तोषपूर्वक निमग्न हुआ जा रहा है।
इस प्रकार की मनोवृत्ति का विकास होने से जीवन के अनेक क्षेत्रों में प्रगति होने की सम्भावना रहती है और अन्त में मानव-जन्म की सार्थकता उपलब्ध हो सकती है, इस प्रकार की भावना बनी रहने से मनुष्य माया-मोह के हानिकर बन्धनों से अधिकांश में विमुक्त रहता है और आत्मोद्धार का वास्तविक लक्ष्य उसकी दृष्टि से ओझल नहीं होने पाता। इस प्रकार जो साधक जीवन के वास्तविक रहस्य को हस्तगत कर लेता है, उसको फिर बांधने के जंजाल में नहीं फंसना पड़ता।
किसी दिन सचमुच ही मृत्यु आ जाय तो इन परिपक्व वैराग्य भावनाओं के आधार पर बिना भय और उद्वेग के शान्तिपूर्वक विदा होते हुए-मरणोत्तर जीवन में परम शान्ति का अधिकारी बना जा सकता है। यह भावना लोभ और मोह की जड़ काटती है। कुकर्म प्रायः इन्हीं दो आन्तरिक दुर्बलताओं के कारण बन पड़ते हैं। हर रात को एक मृत्यु मानने से लोभ और मोह का निराकरण और हर दिन को नया जनम मानने में जीवन में आदर्शवादिता एवं उत्कृष्टता का समावेश करने की प्रेरणा मिलती है। यही प्रेरणा कर्मयोग की आधार शिला है।
इनमें से प्रत्येक को ‘‘हर दिन नया जन्म-हर रात में नई मौत’’ के भाव-मन्त्र की भावना करनी चाहिए। इससे स्थूल शरीर में कर्मयोग का समावेश इस क्षेत्र में होगा और देवत्व के जागरण की एक महती आवश्यकता पूरा करने का सरल मार्ग उपलब्ध होगा। उपासना की सफलता के लिए आत्मशोधन की यह प्रक्रिया कभी बन्द नहीं करनी चाहिये।
जीवन-साधना का दूसरा चरण अपने भीतर वस्तुओं का, उत्कृष्टताओं योग्यताओं और क्षमताओं का विकसित करना है। असत्य, हिंसा, चोरी, व्यभिचार, नशा आदि दुर्गुणों को छोड़ देना ऐसा ही है, जैसे किसी पौधे की जड़ को काटने में लगी हुई दीमक को हटा देना। इससे एक कठिनाई तो दूर हुई पर पौधे के विकास का पथ प्रशस्त कहां हुआ? इसके लिये खाद-पानी की उपयुक्त आवश्यकताएं भी पूरी करनी होंगी। अन्यथा बेचारा पौधा बढ़ेगा कैसे? मानवोचित योग्यताओं और विशेषताओं को बढ़ाने में उस शक्ति को लगा देना चाहिये जो दोष-दुर्गुणों में बर्बाद होने से बचाई गई है। बहुत-सा समय मनोयोग और धन बेकार बातों में नष्ट किया जाता रहता है। उस बर्बादी को बचा लेना ही काफी नहीं वरन् यह भी आवश्यक है कि उस बचत से अपनी विशेषताओं को बढ़ाया जाय। रोग दूर करने के लिये चिकित्सा उपचार करना चाहिये और यह भी ध्यान रखना चाहिये कि रोगजन्य दुर्बलता दूर करने के लिये पौष्टिक आहार बिहार का भी प्रबन्ध किया जाय। दोषों को हटा देना औषधि उपचार की तरह है और गुणों का अभिवर्धन उत्तम आहार-विहार का प्रबन्ध करने की तरह।
इस प्रकार की हुई साधना ही गायत्री उपासना का सर्वांगपूर्ण प्रतिफल प्रदान कर सकती है। आज की स्थिति में आत्म कल्याण के लिये इससे अच्छी और सरल साधना पद्धति और नहीं हो सकती है।
गायत्री मन्त्र के जप के साथ कई लोग उसके अर्थ चिन्तन का प्रयास करते हैं। किन्तु मन्त्र के साथ उसके अर्थ का चिन्तन सम्भव नहीं होता। या तो पूरा अर्थ चिन्तन नहीं होगा, अथवा एक ही मन्त्र जपने में कई मिनट लग जावेंगे। वैसे गायत्री मन्त्र का अर्थ, उसका भाव बहुत ही प्रेरक एवं कल्याणकारी है। उसका चिन्तन करना हर दृष्टि से लाभप्रद है। अस्तु मन्त्र के अर्थ के चिन्तन के लिये जप के अतिरिक्त सुविधानुसार समय निकालना ठीक रहता है इसे भी चिन्तन मनन की साधना का एक अंग बना लेना चाहिये। अर्थ चिन्तन के लिए गायत्री मन्त्र का अर्थ यहां दिया जा रहा है।
गायत्री मन्त्र — ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात् ।
अर्थ इस प्रकार है —
ॐ (परमात्मा) भूः (प्राण स्वरूप) भुवः (दुःख नाशक) स्वः (सुख स्वरूप) तत् (उस) सवितुः (तेजस्वी) वरेण्य (श्रेष्ठ) भर्गः (पाप नाशक) देवस्य (दिव्य) धीमहि (धारण करें) धियो (बुद्धि) यो (जो) नः (हमारी) प्रचोदयात् (प्रेरित करें)
अर्थात् उस सर्वव्यापी, प्राण स्वरूप दुःख नाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पाप नाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हर अन्तरात्मा में धारण करें। वह हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करें।
इस अर्थ पर विचार करने से तीन तथ्य प्रकट होते हैं। (1) ईश्वरीय सर्वव्यापी सत्ता एवं उसके दिव्य गुणों का चिन्तन (2) ईश्वर को अपने अन्दर धारण करना (3) सद्बुद्धि प्रेरित करने की प्रार्थना। यह तीनों ही बातें असाधारण महाबली हैं।
1—ईश्वर के प्राणवान् दुःखरहित, आनन्दस्वरूप, तेजस्वी, श्रेष्ठ पापरहित, देवगुण-सम्पन्न स्वरूप का ध्यान करने का तात्पर्य यह है कि इन्हीं गुणों को हम अपने में लावें। अपने विचार और स्वभाव को ऐसा बनावें कि उपर्युक्त विशेषताएं हमारे व्यावहारिक जीवन में परिलक्षित होने लगें। इस प्रकार की विचारधारा, कार्य-पद्धति एवं अनुभूति मनुष्य की आत्मिक और भौतिक स्थिति को दिन-दिन समुन्नत एवं श्रेष्ठतम बनाती चलती है।
2—गायत्री मन्त्र के दूसरे भाग में परमात्मा को अपने अन्दर धारण करने की प्रतिज्ञा है। उस ब्रह्म, उस दिव्य गुण सम्पन्न परमात्मा को संसार के कण-कण में व्याप्त देखने से मनुष्य को हर घड़ी ईश्वर दर्शन का आनन्द प्राप्त होता रहता है और वह अपने को ईश्वर के निकट स्वर्गीय स्थिति में ही रहता हुआ अनुभव करता है।
3—मन्त्र के तीसरे भाग में सद्बुद्धि का महत्व सर्वोपरि होने की मान्यता का प्रतिपादन है। भगवान् से यही प्रार्थना की गई है कि आप हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित कर दीजिये, क्योंकि यह एक ऐसी महान् भगवत् कृपा है कि इसके प्राप्त होने पर अन्य सब सुख-सम्पदायें अपने आप प्राप्त हो जाती हैं।
इस मन्त्र के प्रथम भाग में ईश्वरीय दिव्य गुणों को प्राप्त करने, दूसरे भाग में ईश्वरीय दृष्टिकोण धारण करने और तीसरे में बुद्धि को सन्मार्ग पर लगाने की प्रेरणा है। गायत्री की शिक्षा है कि अपनी बुद्धि की सात्विक बनाओ, आदर्शों को ऊंचा रखो, उच्च दार्शनिक विचारधाराओं में रमण करो और तुच्छ तृष्णाओं एवं वासनाओं के लिए हमें नचाने वाली कुबुद्धि को मानस-लोक में से बहिष्कृत कर दो। जैसे-जैसे कुबुद्धि का कल्मष दूर होगा वैसे ही वैसे दिव्य-गुण सम्पन्न परमात्मा के अंशों की अपने में वृद्धि होती जायगी और उसी अनुपात से लौकिक और पारलौकिक आनन्दों की अभिवृद्धि होती जायगी।
गायत्री मन्त्र में सन्निहित उपर्युक्त तथ्य में ज्ञान, भक्ति, कर्म उपासना तीनों हैं। सद्गुणों का चिन्तन ज्ञानयोग है। ब्रह्म की धारणा भक्तियोग है और बुद्धि की सात्विकता एवं अनासक्ति कर्मयोग है। वेदों में ज्ञान, कर्म और उपासना यह तीन विषय हैं। गायत्री में भी बीज रूप में यह तीनों ही तथ्य सर्वांगीण ढंग से प्रतिपादित हैं। इन भावनाओं का एकान्त में बैठकर नित्य अर्थ-चिन्तन करना चाहिए। यह ध्यान-साधना मनन के लिये अतीव उपयोगी है। मनन के लिए तीन संकल्प नीचे दिये जा रहे हैं। इन मनुष्यों को शानत चित्त से स्थिर आसन पर बैठकर, नेत्र बन्द रखकर मन ही मन दुहराना चाहिये और कल्पना शक्ति की सहायता से इस संकल्पों का ध्यान मनःक्षेत्र में भली प्रकार अंकित करना चाहिए—
(1) परमात्मा का ही पवित्र अंश—अविनाशी राजकुमार मैं आत्मा हूं। परमात्मा प्राणस्वरूप है, मैं भी अपने को प्राणवान् आत्मशक्ति-सम्पन्न बनाऊंगा। प्रभु दुःखरहित है—दुःखदायी मार्ग पर न चलूंगा। ईश्वर आनन्दस्वरूप है—अपने जीवन को आनन्दमय बनना तथा आनन्द की वृद्धि करना मेरा कर्त्तव्य है। भगवान् तेजस्वी है—मैं भी निर्भीक साहसी, वीर पुरुषार्थी और प्रतिभावान बनूंगा। ब्रह्म श्रेष्ठ है, श्रेष्ठता आदर्शवादिता एवं सिद्धान्तमय जीवन-नीति अपना कर मैं भी श्रेष्ठ बनूंगा, जगदीश्वर निष्पाप है—मैं भी पापों से, कुविचारों और कुकर्मों से बचकर रहूंगा। ईश्वर दिव्य है-मैं भी अपने को दिव्य गुणों से सुसज्जित करूंगा। संसार को कुछ देते रहने की देवनीति अपनाऊंगा। इसी मार्ग पर चलने से मेरा मनुष्य जीवन सफल हो सकता है।
(2) उपर्युक्त गुणों वाले परमात्मा को मैं अपने अन्दर धारण करता हूं। इस विश्व ब्रह्माण्ड के कण-कण में प्रभु समाये हुए हैं। वे मेरे चारों ओर भीतर बाहर सर्वत्र फैले हुए हैं। मैं रमण करूंगा। उन्हीं के साथ हसूंगा और खेलूंगा। वे ही मेरे चिर सहचर हैं। लोभ, मोह, वासना और तृष्णा का प्रलोभन दिखाकर पतन के गहरे गर्त में धकेल देने वाली कुबुद्धि से—माया से बचकर अपने को अन्तर्यामी परमात्मा की शरण में सौंपता हूं। उन्हें ही अपने हृदयासन पर अवस्थित करता हूं, अब वे मेरे हैं और मैं केवल उन्हीं का हूं। ईश्वरीय आदर्शों का पालन करना और विश्व मानव परमात्मा की सेवा करना ही अब मेरा लक्ष्य रहेगा।
(3) सद्बुद्धि से बढ़कर और कोई दैवी वरदान नहीं। इस दिव्य सम्पत्ति को प्राप्त करने के लिए मैं घोर तप करूंगा। आत्मचिंतन करके अपने अन्तःकरण चतुष्टय में (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार में) छिपकर बैठी हुई कुबुद्धि को बारीकी के साथ ढूंढूंगा और उसे बहिष्कृत करने में कोई कसर न रहने दूंगा। अपनी आदतों, मान्यताओं, भावनाओं, विचारधाराओं में जहां भी कुबुद्धि पाऊंगा, वहीं से इसे हटाऊंगा। असत्य को त्यागने और सत्य को ग्रहण करने में रत्तीभर भी दुराग्रह न करूंगा। अपनी भूलें मानने और विवेक संगत बातों को मानने में तनिक भी दुराग्रह न करूंगा। अपने स्वभाव, विचारों और कर्मों की सफाई करना, सड़े-गले, कूड़े-कचरे को हटाकर सत्य, शिव, सुन्दर भावना से अपनी मनोभूमि को सजाना अब मेरी प्रधान पूजा-पद्धति होगी, इसी पूजा-पद्धति से प्रसन्न होकर भगवान् मेरे अन्तःकरण में निवास करेंगे, तब मैं उनकी कृपा से जीवन-लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होऊंगा।
इन संकल्पों में अपनी रुचि के अनुसार शब्दों का हेर-फेर किया जा सकता है, पर भाव यही होने चाहिये। नित्य-प्रति शान्त चित्त से भाव-पूर्वक इन संकल्पों को देर तक अपने हृदय में स्थान दिया जाय तो गायत्री के मन्त्रार्थ की सच्ची अनुभूति हो सकती है। उस अनुभूति से मनुष्य दिन-दिन अध्यात्म मार्ग में ऊंचा उठ सकता है।
यह दिव्य पदार्थ औरों को भी दीजिए—
पुण्य कर्मों के साथ प्रसाद बांटना एक आवश्यक धर्मकृत्य माना गया है। सत्यनारायण की कथा के अन्त में पंचामृत, पंजीरी बांटी जाती है, यज्ञ के अन्त में उपस्थित व्यक्तियों को हलुआ या अन्य मिष्ठान बांटते हैं। गीत-मंगल, पूजा-कीर्तन आदि के पश्चात् प्रसाद बांटा जाता है, देवता पीर-मुरीद आदि की प्रसन्नता के लिये बताशे, रेवड़ी या अन्य प्रसाद बांटा जाता है। मंदिरों में जहां अधिक भीड़ होती है और अधिक धन खर्चने को नहीं होता वहां जल में तुलसी पात्र डालकर चरणामृत को ही प्रसाद के रूप में बांटते हैं। तात्पर्य यह है कि शुभ कार्यों के पश्चात् कोई न कोई प्रसाद बांटना आवश्यक होता है। इसका कारण यह है कि शुभ कार्य के साथ जो शुभ वातावरण पैदा होता है, उसे खाद्य पदार्थों के साथ सम्बन्धित करके उपस्थित व्यक्तियों को देते हैं ताकि वे भी उन शुभ तत्वों को ग्रहण करके आत्मसात् कर सके। दूसरी बात यह है कि उस प्रसाद के साथ दिव्य तत्वों के प्रति श्रद्धा की धारणा होती है और मधुर पदार्थों को ग्रहण करते समय प्रसन्नता का आविर्भाव होता है। इन दोनों तत्वों की अभिवृद्धि से प्रसाद ग्रहण करने वाला अध्यात्म की ओर आकर्षित होता है और यह आकर्षण अन्ततः उसके लिये सर्वतोमुखी कल्याण को प्राप्त कराने वाला सिद्ध होता है। यह परम्परा एक से दूसरे में, दूसरे से तीसरे में चलती रहे और धर्म वृद्धि का यह क्रम बराबर बढ़ता रहे, इस लाभ को ध्यान में रखते हुए आध्यात्म-विद्या के आचार्यों ने यह आदेश किया है कि प्रत्येक शुभ कार्य के अन्त में प्रसाद बांटना आवश्यक है। शास्त्रों में ऐसे आदेश मिलते हैं जिनमें कहा गया है कि अन्त में प्रसाद वितरण न करने से यह कर्म निष्फल हो जाता है, इसका तात्पर्य प्रसाद के महत्व की ओर लोगों को सावधान करने का है।
गायत्री साधना भी एक यज्ञ है। यह साधारण है। अग्नि में सामग्री की आहुति देना स्थूल कर्मकांड है, पर आत्मा में परमात्मा की स्थापना, सूक्ष्म यज्ञ है, जिसकी महत्ता स्थूल अग्निहोत्र की अपेक्षा अनेक गुनी अधिक होती है। इतने महान् धर्मकृत्य के साथ-साथ प्रसाद का वितरण भी ऐसा होना चाहिए जो उसकी महत्ता के अनुरूप हो। रेवड़ी, बताशे, लड्डू या हलुआ पूरी बांट देने मात्र से यह कार्य पूरा नहीं हो सकता। गायत्री का प्रसाद तो ऐसा होना चाहिए, जिसे ग्रहण करने वाले को स्वर्गीय स्वाद मिले, जिसे खाकर उसकी आत्मा तृप्त हो जाय। गायत्री ब्राह्मी शक्ति है, उसका प्रसाद भी ‘ब्राह्मी प्रसाद’ होना चाहिए तभी वह उपयुक्त गौरव का कार्य होगा। इस प्रकार का प्रसाद हो सकता है—ब्रह्मदान, ब्राह्मी स्थिति की ओर चलाने का आकर्षण प्रोत्साहन! जिस व्यक्ति को ब्रह्म प्रसाद देना है उसे आत्म-कल्याण की दिशा में आकर्षित करना और उस ओर चलने के लिये उसे प्रोत्साहित करना ही प्रसाद है।
यह प्रकट है कि भौतिक और आत्मिक आनन्द के समस्त स्रोत मानव प्राणी के अन्तःकरण में छिपे हुए हैं। सम्पत्तियां संसार से बाहर नहीं हैं, बाहर तो पत्थर, धातुओं के टुकड़े और निर्जीव पदार्थ भरे पड़े हैं, सम्पत्तियों के समस्त कोष आत्मा में सन्निहित हैं जिनके दर्शन मात्र से मनुष्य को तृप्ति मिल जाती है और उसके उपभोग करने पर आनन्द का पाराबार नहीं रहता। उन आनन्द भण्डारों को खोलने की कुंजी आध्यात्मिक साधनों में है और उन समस्त साधनाओं में गायत्री-साधना सर्वश्रेष्ठ है। यह श्रेष्ठता अतुलनीय है, असाधारण है, उसकी सिद्धियां चमत्कारों का कोई पाराबार नहीं। ऐसी श्रेष्ठ साधना के मार्ग पर यदि किसी को आकर्षित किया जाय, प्रोत्साहित किया जाय और जुटा दिया जाय तो इससे बढ़कर उस व्यक्ति का और कोई उपकार नहीं हो सकता जैसे-जैसे उसके अन्दर सात्विक तत्वों की वृद्धि होगी, वैसे-वैसे उसके विचार और कार्य पुण्यमय होते जायेंगे और उसका प्रभाव दूसरों पर पड़ने से वे भी सन्मार्ग का अवलम्बन करेंगे। यह श्रृंखला जैसे जैसे बढ़ेंगी वैसे ही वैसे संसार में सुख-शांति की, पुण्य की मात्रा पढ़ेगी और उस कर्म के पुण्य फल में उस व्यक्ति का भी भाग होगा जिसने किसी को आत्म-मार्ग में प्रोत्साहित किया था।
जो व्यक्ति गायत्री की साधना करे उसे प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि मैं भगवती को प्रसन्न करने के लिए उसका महाप्रसाद, ब्रह्म प्रसाद अवश्य वितरण करूंगा। यह वितरण इस प्रकार होना चाहिये कि अपने परिचितों में अपरिचितों में ऐसे व्यक्ति तलाश करने चाहिए, जिनमें पहले से कुछ शुभ संस्कारों के बीज मौजूद हों उन्हें धीरे-धीरे गायत्री का माहात्म्य, रहस्य लाभ समझाते रहा जाय, जो लोग आध्यात्मिक उन्नति के महत्व को नहीं समझते उन्हें गायत्री से होने वाले भौतिक लाभों का सविस्तार वर्णन किया जाय, ‘अखण्ड ज्योति संस्थान’ द्वारा प्रकाशित गायत्री साहित्य पढ़ाया जाय। इस प्रकार उनकी रुचि को इस दिशा में मोड़ा जाय जिससे वे आरम्भ में भले ही सकाम भावना से सही, वेद-माता का आश्रय ग्रहण करें, पीछे तो वे स्वयं ही इस महा-लाभ पर मुग्ध होकर छोड़ने का नाम न लेंगे। एक बार रास्ते पर डाल देने से गाड़ी अपने आप ठीक मार्ग पर चलती जाती है। किसी की जीवन धारा को सही दिशा देना धार्मिक एवं सामाजिक, दोनों ही दृष्टियों से श्रेष्ठ फलदायी कार्य है।
किसी व्यक्ति की मित्रता किसी श्रेष्ठ समर्थ प्रभावशाली व्यक्ति से करा देना उसके विकास के हजार मार्ग खोल देने से जितना लाभप्रद होता है। आदि शक्ति-वेदमाता से सच्चा सम्बन्ध स्थापित कराना, किसी भी जीव को सही दिशा प्रदान करना, किसी भी पुण्य परमार्थ से कम नहीं अधिक फलदायक होता है।
मां से सम्बन्ध जोड़ने का कार्य विवेकपूर्वक किया जाता है। किसी को पहलवान बनाना हो तो उससे प्रारम्भ में हल्के व्यायाम ही कराये जाते हैं। प्रारम्भ में सद्बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी—गायत्री को छवि रूप में या मन्त्र रूप में संस्थापित करके उनके प्रति श्रद्धा भाव बढ़ाना भर पर्याप्त है। पर अपना कार्य प्रारम्भ करने के पूर्व उसके सामने बैठकर अथवा खड़े होकर ही 5-7 मन्त्र जपें तथा मां से अधिक निकटता का अवसर देने की प्रार्थना करें। जीवन में सही दिशा प्रदान करने का भाव भरा आह्वान करें। यह 2-4 मिनट का क्रम भी एक अच्छी शुरुआत हो सकती है। बाद में क्रमशः व्यवस्थित उपासना क्रम में प्रवेश कराया जा सकता है।
जिन्हें मन् जपने में कठिनाई हो उन्हें लेखन की साधना भी बतलाई जा सकती है। पूजा स्थल पर एक कापी रखें नियमित समय पर नित्य जप की तरह कम से कम 24 मन्त्र लिखें। अन्य कृत्य सुविधानुसार करें। जप के स्थान पर गायत्री चालीसा पाठ का क्रम भी श्रद्धा वृद्धि का अच्छा माध्यम है। बच्चों एवं महिलाओं के लिए यह काफी अनुकूल पड़ता है।
अस्तु, हर साधक को अपने प्रभाव क्षेत्र के, परिचय क्षेत्र के व्यक्तियों को भी माता के सान्निध्य सहचरत्व का लाभ दिलाने का प्रयास करना चाहिए। इसे अपनी साधना, आत्म विकास की साधना का ही एक महत्वपूर्ण अंग मानकर चलना उचित है।