Books - सर्वोपयोगी गायत्री साधना
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Language: HINDI
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गायत्री का अधिकार
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गायत्री साधना को जहां निर्विवाद रूप से परम कल्याणकारी, सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, कहीं दुर्भाग्य से उसके अधिकार के बारे में अनेक भ्रांतियां प्रचलित हैं। कुछ लोग केवल ब्राह्मणों को ही गायत्री का अधिकारी कहते हैं। कुछ द्विज जाति ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्यों को अधिकारी मानते हैं। वस्तुतः यह निषेध अलंकारिक है। गायत्री मंत्र ब्राह्मण वृत्ति वालों के लिए—द्विजत्व का संकल्प लेने वालों के लिए ही विशेष फलदायी है। ब्राह्मण वृत्ति है स्वयं की आवश्यकतायें कम से कम करके जनकल्याण के लिए सारी शक्ति लगा देना। द्विज का अर्थ है दूसरा जन्म लेने वाला। अर्थात् मनुष्य शरीर में जन्म के साथ साथ अपने अन्दर मानवोचित सद्गुण-सद्भाव जागृत करने के लिए वृत संकल्प होता है वही दिव्य है। ऐसी दिव्य—श्रेष्ठ प्रवृत्तियां जिसके अन्दर जिस अनुपात में विकसित होंगी गायत्री मंत्र साधना उतने ही अर्थों में अधिकाधिक चमत्कार पैदा कर सकेगी।
इसके ढेरों प्रमाण शास्त्रों में मिलते हैं। सत्यकाम जाबाल को अज्ञात कुल का होते हुए भी ब्रह्मविद्या का अधिकारी माना गया। इतरा का पुत्र ऐतरेय—ऐतरेय उपनिषद् का सृष्टा हुआ। धीवर कन्या के पुत्र महर्षि वेद व्यास ऋषि परम्परा में शीर्षस्थ स्थान पर सके। क्षत्री राजा विश्वामित्र गायत्री साधना से ही ब्रह्मर्षि पद पाने में सफल हुए। अस्तु भ्रान्त मान्यताओं को छोड़कर मां गायत्री के पय पान का लाभ सभी को उठाना चाहिये, उठाने देना चाहिये।
महिलाओं के अधिकार के सम्बन्ध में भी ऐसी ही मान्यतायें रही हैं। उन्हें वेद का अधिकार न होने की बात कही जाती है तथा इसीलिए वेद मंत्र गायत्री का भी अनाधिकारी ठहराया जाता है। यह भी अत्यधिक भ्रान्त मान्यता है। वेद मन्त्रों का अवतरण जिनके द्वारा हुआ है उन ऋषियों में अनेक ऋषिकाओं के भी नाम हैं। इसके कुछ प्रमाण यहां दिए जा रहे हैं —
ऋग्वेद की ऋषिकाओं की सूची ब्रह्म देवता के 24 वें अध्याय में इस प्रकार है—
घोषा गाधा विश्ववारा, अपालोपनिषन्नित् ।
ब्रह्म जाया जुहुर्नाम अगस्त्यस्य स्वसादिति ।।84
इन्द्रणी चेन्द्र माता च सरमा रोमशोर्वशी ।
लोपामुद्रा च नद्यश्च यमो नारी च शाश्वती ।।85
श्रीर्लक्ष्मीः सार्पराज्ञा वाक्श्रद्धा मेधा च दक्षिणा ।
रात्रि सूर्या च सावित्री ब्रह्मवादिन्य ईरितः ।।86
अर्थात्—घोषा, गोधा, विश्ववारा, अपाला, उपनिषद्, जुहू, अदिति, इन्द्राणी, सरमा, रोमशा, उर्वशी, लोपा मुद्रा, यमी, शाश्वती, सूर्या, सावित्री आदि ब्रह्मवादिनी हैं। ऋग्वेद के 10-134, 10-39, 10-40, 8-91, 10-95, 10-107, 10-109, 10-154, 10-159, 10-189, 5-28, 8-91 आदि सूक्तों की मन्त्र दृष्टा यह ऋषिकायें हैं।
ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि स्त्रियां भी पुरुषों की तरह यज्ञ करती और कराती थीं। वे यज्ञ-विद्या और ब्रह्म विद्या में पारंगत थीं। कई नारियां तो इस सम्बन्ध में अपने पिता तथा पति का मार्ग दर्शन करती थीं।
मनु की पुत्री ‘इड़ा’ का वर्णन करते हुए तैत्तिरीय 2।1।4 में उसे ‘यज्ञान्काशिनी’ बताया है। यज्ञान्काशिनी का अर्थ सायणाचार्य ने ‘यज्ञ तत्व प्रकाशन समर्थ’ किया है। इड़ा ने अपने पिता को यज्ञ सम्बन्धी सलाह देते हुए कहा—
साऽब्रवीदिड़ां मनुम् । तथावाऽएं तवाग्नि माधात्यामि । यथा प्रज्ञथा पाशुभिमिथुनैजनिष्यसे । प्रस्यस्मिलोकेस्थास्यासि । अमि सुवर्ग लोक जेष्यसीति । —तैत्तिरीय ब्रा. 1।4
इड़ा ने मनु से कहा—तुम्हारी अग्नि का ऐसा अवधान करूंगी जिससे तुम्हें पशु, भोग प्रतिष्ठा और स्वर्ग प्राप्त हो।
प्राचीन समय में स्त्रियां गृहस्थाश्रम चलाने वाली भी थीं और ब्रह्म-परायण भी। वे दोनों ही अपने-अपने कार्य-क्षेत्रों में कार्य करती थीं। जो गृहस्थ संचालन करती थीं उन्हें ‘सद्योवधू’ कहते थे और जो वेदाध्ययन, ब्रह्म उपासना आदि के पारमार्थिक कार्यों में प्रवृत्त रहती थीं उन्हें ‘ब्रह्म-वादिनी’ कहते थे। ब्रह्म वादिनी और सद्योवधू के कार्यक्रम तो अलग अलग थे, पर उनके मौलिक धर्माधिकारों में कोई अन्तर न था। देखिये—
द्विविधा स्त्रियो ब्रह्मवादिन्य सद्योवध्वश्च । तत्र ब्रह्मवादिनी नामुप्यानाम् । अग्नीन्धनं स्वगृहे भिक्षाचर्या च । सद्योवधूना तूपस्थते विवाहेकाले विदुपनयनं कृत्वा विवाह कार्यः । —हरीत धर्मसूत्र 21।20।24
ब्रह्म-वादिनी और सद्योवधू ये दोनों स्त्रियां होती हैं। इनमें से ब्रह्म-वादिनी यज्ञोपवीत, अग्निहोत्र, वेदाध्ययन तथा स्वगृह में भिक्षा करती है। सद्योवधुओं का भी यज्ञोपवीत आवश्यक है। वह विवाह-काल उपस्थित होने पर करा देते हैं।
पाण्डव-पत्नी द्रौपदी की विद्वत्ता का वर्णन करते हुए आचार्य आनन्द-तीर्थ (माधवाचार्य) जी ने ‘‘महाभारत निर्णय’’ में लिखा है— वेदाश्चोयुत्तम स्त्रीभि कृष्णाद्याभिरिहाखिलः ।
अर्थात् उत्तम स्त्रियों को कृष्णा (द्रौपदी) की तरह वेद पढ़ने चाहिए। ऋग्वेद 1।15 का भाष्य करते हुए महर्षि दयानन्द ने लिखा है—
याः कन्या यावच्चतुर्विशति वर्षमायुस्तावद् ब्रह्मचर्येण जितेन्द्रिय तथा सांगोपांगवेदविद्या अधीयते ता मनुष्य जाति भूषिका भवन्ति ।
अर्थात् जो कन्या 24 वर्ष तक ब्रह्मचर्यपूर्वक सांगोपांग वेद विद्याओं को पढ़ती हैं, वे मनुष्य जाति को शोभित करती हैं।
स्त्रियों के यज्ञ का ब्रह्मा बनने तथा उपाध्याय एवं आचार्य होने के प्रमाण मौजूद हैं। ऋग्वेद में नारी को सम्बोधन करके कहा गया है कि तू उत्तम आचरण द्वारा ब्रह्मा का पद प्राप्त कर सकती है।
अथः पश्यस्व मोपार सन्तरां पादकौ हर । मा तो कशप्लकौदृशन् स्त्री हि ब्रह्मा विभूविथ ।। —ऋग्वेद 8।33।19
अर्थात् हे नारी! तुम नीचे देखकर चलो। व्यर्थ में इधर-उधर की वस्तुओं तथा व्यक्तियों को मत देखती रहो। अपने पैरों को सावधानी तथा सभ्यता से रखो। वस्त्र इस प्रकार पहनो कि लज्जा अंग ढके रहें। इस प्रकार उचित आचरण करती हुई तुम निश्चय ही ब्रह्मा की पदवी पाने के योग्य बन सकती हो।
अब यह देखना है कि ब्रह्मा का पद कितना उच्च है और उसे किस योग्यता का मनुष्य प्राप्त कर सकता है? ब्रह्मा वाऋत्विजाम्भिषक्तमः । —शतपथ 1।7।4।19
अर्थात् ब्रह्मा ऋत्विजों की त्रुटियों को दूर करने वाला होने से सब पुरोहितों से ऊंचा है। तस्याद्यो ब्रह्मनिष्ठः तस्यात् तं ब्रह्मा च कुबीत् । —गौपथ उत्तरार्ध 1।3
अर्थात् जो सबसे अधिक ब्रह्मनिष्ठ (परमेश्वर और वेदों का ज्ञाता) हो उसे ब्रह्मा बनना चाहिए। स्पष्ट है कि महिलाओं को पुरुषों के समान ही वेद, यज्ञ एवं गायत्री का अधिकार माना गया है। मालवीयजी द्वारा निर्णय—
स्त्रियों को वेद मन्त्रों का अधिकार है या नहीं? इस प्रश्न को लेकर काशी के पण्डितों में पर्याप्त विवाद हो चुका है। हिन्दू विश्वविद्यालय काशी में कुमारी कल्याणी नामक छात्रा वेद कक्षा में प्रविष्ट होना चाहती थी, पर प्रचलित मान्यता के आधार पर विश्व-विद्यालय ने उसे दाखिल करने से इन्कार कर दिया। अधिकारियों का कथन था कि शास्त्रों में स्त्रियों को वेद मन्त्रों का अधिकार नहीं दिया गया है।
इस विषय को लेकर पत्र-पत्रिकाओं में बहुत दिन विवाद चला वेदाधिकार के समर्थन में ‘‘सार्वदेशिक’’ पत्र ने कई लेख छापे और विरोध में काशी के ‘‘सिद्धान्त’’ पत्र में कई लेख प्रकाशित हुए। आर्य-समाज की ओर से एक डेपूटेशन हिन्दू विश्व-विद्यालय के अधिकारियों से मिला। देश भर में इस प्रश्न को लेकर काफी चर्चा हुई। अन्त में विश्व-विद्यालय में महामना मदनमोहन मालवीय की अध्यक्षता में इस प्रश्न पर विचार करने के लिए एक कमेटी नियुक्त की जिसमें अनेक धार्मिक विद्वान् सम्मिलित किये गये। कमेटी ने इस सम्बन्ध में शास्त्रों का गम्भीर विवेचन करके यह निष्कर्ष निकाला कि स्त्रियों को भी पुरुषों की भांति वेदाधिकार है। इस निर्णय की घोषणा 22 अगस्त 1946 को सनातन धर्म के प्राण समझे जाने वाले महामना मालवीयजी ने की। तदनुसार कुमारी कल्याणी देवी को विश्व-विद्यालय की वेद कक्षा में दाखिल कर लिया गया और शास्त्रीय आधार पर निर्णय किया कि विद्यालय में स्त्रियों के वेदाध्ययन पर कोई प्रतिबन्ध न रहेगा। स्त्रियां भी पुरुषों की भांति वेद पढ़ सकेंगी। महामना मालवीयजी तथा उनके सहयोगी अन्य विद्वानों पर कोई सनातन धर्म विरोधी होने का सन्देह नहीं कर सकता। सनातन धर्म में उनकी आस्था प्रसिद्ध है। ऐसे लोगों द्वारा इस प्रश्न को सुलझा दिये जाने पर भी जो लोग गढ़े मुर्दे उखाड़ते हैं और कहते हैं कि स्त्रियों को गायत्री का अधिकार नहीं है, उनकी बुद्धि के लिए क्या कहा जाय? समझ में नहीं आता।
पं. मदनमोहनजी मालवीय सनातन धर्म के प्राण थे। उनकी शास्त्रज्ञता, विद्वत्ता, दूरदर्शिता एवं धार्मिक दृढ़ता असन्दिग्ध थी। ऐसे महापण्डित ने अन्य अनेकों प्रामाणिक विद्वानों के परामर्श से स्वीकार किया है, उस निर्णय पर भी जो लोग सन्देह करते हैं, उनकी हठधर्मी को दूर करना स्वयं ब्रह्माजी के लिए भी कठिन है।
खेद है कि ऐसे लोग समय की गति को भी नहीं देखते, हिन्दू-समाज की गिरती हुई संख्या और शक्ति पर भी ध्यान नहीं देते, केवल दस-बीस कल्पित या मिलावटी श्लोकों को लेकर देश तथा समाज का अनहित करने पर उतारू हो जाते हैं। प्राचीन काल की अनेक विदुषी स्त्रियों के नाम अभी तक संसार में प्रसिद्ध हैं, वेदों में बीसियों स्त्री-ऋषियों का उल्लेख मन्त्र रचयिता के रूप में लिखा मिलता है, पर ऐसे लोग उधर दृष्टिपात न करके मध्यकाल में ऋषियों के नाम पर स्वार्थी लोगों द्वारा लिखी पुस्तकों के आधार पर समाज सुधार के पुनीत कार्य में व्यर्थ ही टांग उड़ाया करते हैं। ऐसे व्यक्तियों की उपेक्षा करके वर्तमान युग के ऋषि मालवीयजी की सम्मति का अनुसरण करना ही समाज सेवकों का कर्त्तव्य है।
तथ्यों और प्रयोगों के आधार पर अब यह निश्चित रूप से सिद्ध हो गया है कि नारियों को भी पुरुषों की तरह वेद मन्त्रों का अधिकार है। मात्र परम्परागत अभ्यास पूर्वाग्रह के कारण अपने अन्दर गलत मान्यता रहने देना उचित नहीं। विचारवान् व्यक्तियों को अपने आप से एकान्त स्थान में बैठकर यह प्रश्न करना चाहिए—(1) यदि स्त्रियों को गायत्री या वेद मन्त्रों का अधिकार नहीं, तो प्राचीनकाल में स्त्रियां वेदों की मन्त्र दृष्टा-ऋषिकायें क्यों हुईं? (2) यदि वेद की वे अधिकारिणी नहीं तो यज्ञ आदि धार्मिक कृत्यों तथा षोडश संस्कारों में उन्हें सम्मिलित क्यों किया जाता है? (3) विवाह आदि अवसरों पर स्त्रियों के मुख से वेद मन्त्रों का उच्चारण क्यों कराया जाता है? (4) बिना वेद मन्त्रों के नित्य संध्या और हवन स्त्रियां कैसे कर सकती हैं? (5) यदि स्त्रियां अनधिकारिणी थीं तो अनसूया, अहिल्या अरुन्धती, मैत्रेयी, मदालसा आदि आदि अगणित स्त्रियां वेद शास्त्र में पारंगत कैसे थीं? (6) ज्ञान, धर्म और उपासना के स्वाभाविक अधिकारों से नारियों को वंचित करना क्या अन्याय एवं पक्षपात नहीं है? (7) क्या नारी को आध्यात्मिक दृष्टि से अयोग्य ठहराकर उससे उत्पन्न होने वाली सन्तान धार्मिक हो सकती है? (8) जब स्त्री पुरुष की अर्धांगिनी है, तो आधा अंग अधिकारी आधा अनाधिकारी किस प्रकार रहा?
इन प्रश्नों पर विचार करने से हर एक निष्पक्ष व्यक्ति की अन्तरात्मा यही उत्तर देगी कि स्त्रियों पर धार्मिक अयोग्यता का प्रतिबन्ध लगाना किसी प्रकार न्याय संगत नहीं हो सकता। उन्हें भी गायत्री आदि मन्त्रों का पुरुषों की भांति ही अधिकार होना चाहिए। हम स्वयं भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं। हमें ऐसी पचासों स्त्रियों का परिचय है, जिनने श्रद्धापूर्वक वेदमाता गायत्री की उपासना की है और पुरुषों के ही समान सन्तोषजनक परिणाम प्राप्त किया है। कई बार तो उन्हें पुरुषों से भी अधिक एवं शीघ्र सफलतायें मिलीं। कन्यायें उत्तम घर-वर प्राप्त करने में, सधवायें पति का सुख सौभाग्य एवं सुसन्तति के सम्बन्ध में, और विधवायें संयम तथा धन उपार्जन में आशाजनक सफल हुई हैं।
आत्मा न स्त्री है न पुरुष। वह विशुद्ध ब्रह्म ज्योति की चिनगारी है। आत्मिक प्रकाश प्राप्त करने के लिये जैसे पुरुष को किसी गुरु या पथ प्रदर्शक की आवश्यकता होती है, वैसे ही स्त्री को भी होती है। तात्पर्य यह कि साधना क्षेत्र में पुरुष-स्त्री का भेद नहीं। साधक ‘आत्मा’ है उन्हें अपने को पुरुष-स्त्री न समझकर आत्मा समझना चाहिए। साधना क्षेत्र में सभी आत्मायें समान हैं। लिंग-भेद के कारण कोई अयोग्यता उन पर नहीं थोपी जानी चाहिए।
हमने भली प्रकार खोज, विचार, मनन और अन्वेषण करके यह पूरी तरह विश्वास कर लिया है कि स्त्रियों को पुरुषों की भांति ही गायत्री का अधिकार है। वे भी पुरुषों की भांति ही माता की गोद में चढ़ने की, उसका अंचल पकड़ने की, उसका पय-पान करने की पूर्ण अधिकारिणी हैं। उन्हें सब प्रकार का संकोच छोड़कर प्रसन्नतापूर्वक गायत्री की उपासना करनी चाहिए उनके भव-बन्धन कटेंगे, जन्म-मरण की फांसी से छूटेंगी जीवन-मुक्ति और स्वर्गीय शान्ति की अधिकारिणी बनेंगी। साथ ही अपने पुण्य प्रताप से अपने परिजनों को स्वास्थ्य, सौभाग्य, वैभव एवं सुख शान्ति की दिन-दिन वृद्धि करने में महत्वपूर्ण सहयोग दें सकेंगी। गायत्री को अपनाने वाली देवियां सच्चे अर्थों में देवी बनती हैं, उनके दिव्य गुणों का प्रकाश होता है तदनुसार वे सर्वत्र उसी आदर को प्राप्त करती हैं, जो उनका ईश्वर प्रदत्त जन्मजात अधिकार है।
गायत्री परिवार—युग निर्माण परिवार के अन्तर्गत विश्वव्यापी स्वर पर हर वर्ग के अगणित पुरुषों एवं महिलाओं ने सही ढंग से गायत्री साधना करके अनुपम लाभ प्राप्त किये हैं। यह मानवमात्र के लिए परम कल्याणकारी साधना है। अस्तु किसी भी भ्रम जंजाल में न पड़कर इसका लाभ स्वयं भी उठाना चाहिए तथा दूसरों को भी प्रेरणा देनी चाहिए।
इसके ढेरों प्रमाण शास्त्रों में मिलते हैं। सत्यकाम जाबाल को अज्ञात कुल का होते हुए भी ब्रह्मविद्या का अधिकारी माना गया। इतरा का पुत्र ऐतरेय—ऐतरेय उपनिषद् का सृष्टा हुआ। धीवर कन्या के पुत्र महर्षि वेद व्यास ऋषि परम्परा में शीर्षस्थ स्थान पर सके। क्षत्री राजा विश्वामित्र गायत्री साधना से ही ब्रह्मर्षि पद पाने में सफल हुए। अस्तु भ्रान्त मान्यताओं को छोड़कर मां गायत्री के पय पान का लाभ सभी को उठाना चाहिये, उठाने देना चाहिये।
महिलाओं के अधिकार के सम्बन्ध में भी ऐसी ही मान्यतायें रही हैं। उन्हें वेद का अधिकार न होने की बात कही जाती है तथा इसीलिए वेद मंत्र गायत्री का भी अनाधिकारी ठहराया जाता है। यह भी अत्यधिक भ्रान्त मान्यता है। वेद मन्त्रों का अवतरण जिनके द्वारा हुआ है उन ऋषियों में अनेक ऋषिकाओं के भी नाम हैं। इसके कुछ प्रमाण यहां दिए जा रहे हैं —
ऋग्वेद की ऋषिकाओं की सूची ब्रह्म देवता के 24 वें अध्याय में इस प्रकार है—
घोषा गाधा विश्ववारा, अपालोपनिषन्नित् ।
ब्रह्म जाया जुहुर्नाम अगस्त्यस्य स्वसादिति ।।84
इन्द्रणी चेन्द्र माता च सरमा रोमशोर्वशी ।
लोपामुद्रा च नद्यश्च यमो नारी च शाश्वती ।।85
श्रीर्लक्ष्मीः सार्पराज्ञा वाक्श्रद्धा मेधा च दक्षिणा ।
रात्रि सूर्या च सावित्री ब्रह्मवादिन्य ईरितः ।।86
अर्थात्—घोषा, गोधा, विश्ववारा, अपाला, उपनिषद्, जुहू, अदिति, इन्द्राणी, सरमा, रोमशा, उर्वशी, लोपा मुद्रा, यमी, शाश्वती, सूर्या, सावित्री आदि ब्रह्मवादिनी हैं। ऋग्वेद के 10-134, 10-39, 10-40, 8-91, 10-95, 10-107, 10-109, 10-154, 10-159, 10-189, 5-28, 8-91 आदि सूक्तों की मन्त्र दृष्टा यह ऋषिकायें हैं।
ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि स्त्रियां भी पुरुषों की तरह यज्ञ करती और कराती थीं। वे यज्ञ-विद्या और ब्रह्म विद्या में पारंगत थीं। कई नारियां तो इस सम्बन्ध में अपने पिता तथा पति का मार्ग दर्शन करती थीं।
मनु की पुत्री ‘इड़ा’ का वर्णन करते हुए तैत्तिरीय 2।1।4 में उसे ‘यज्ञान्काशिनी’ बताया है। यज्ञान्काशिनी का अर्थ सायणाचार्य ने ‘यज्ञ तत्व प्रकाशन समर्थ’ किया है। इड़ा ने अपने पिता को यज्ञ सम्बन्धी सलाह देते हुए कहा—
साऽब्रवीदिड़ां मनुम् । तथावाऽएं तवाग्नि माधात्यामि । यथा प्रज्ञथा पाशुभिमिथुनैजनिष्यसे । प्रस्यस्मिलोकेस्थास्यासि । अमि सुवर्ग लोक जेष्यसीति । —तैत्तिरीय ब्रा. 1।4
इड़ा ने मनु से कहा—तुम्हारी अग्नि का ऐसा अवधान करूंगी जिससे तुम्हें पशु, भोग प्रतिष्ठा और स्वर्ग प्राप्त हो।
प्राचीन समय में स्त्रियां गृहस्थाश्रम चलाने वाली भी थीं और ब्रह्म-परायण भी। वे दोनों ही अपने-अपने कार्य-क्षेत्रों में कार्य करती थीं। जो गृहस्थ संचालन करती थीं उन्हें ‘सद्योवधू’ कहते थे और जो वेदाध्ययन, ब्रह्म उपासना आदि के पारमार्थिक कार्यों में प्रवृत्त रहती थीं उन्हें ‘ब्रह्म-वादिनी’ कहते थे। ब्रह्म वादिनी और सद्योवधू के कार्यक्रम तो अलग अलग थे, पर उनके मौलिक धर्माधिकारों में कोई अन्तर न था। देखिये—
द्विविधा स्त्रियो ब्रह्मवादिन्य सद्योवध्वश्च । तत्र ब्रह्मवादिनी नामुप्यानाम् । अग्नीन्धनं स्वगृहे भिक्षाचर्या च । सद्योवधूना तूपस्थते विवाहेकाले विदुपनयनं कृत्वा विवाह कार्यः । —हरीत धर्मसूत्र 21।20।24
ब्रह्म-वादिनी और सद्योवधू ये दोनों स्त्रियां होती हैं। इनमें से ब्रह्म-वादिनी यज्ञोपवीत, अग्निहोत्र, वेदाध्ययन तथा स्वगृह में भिक्षा करती है। सद्योवधुओं का भी यज्ञोपवीत आवश्यक है। वह विवाह-काल उपस्थित होने पर करा देते हैं।
पाण्डव-पत्नी द्रौपदी की विद्वत्ता का वर्णन करते हुए आचार्य आनन्द-तीर्थ (माधवाचार्य) जी ने ‘‘महाभारत निर्णय’’ में लिखा है— वेदाश्चोयुत्तम स्त्रीभि कृष्णाद्याभिरिहाखिलः ।
अर्थात् उत्तम स्त्रियों को कृष्णा (द्रौपदी) की तरह वेद पढ़ने चाहिए। ऋग्वेद 1।15 का भाष्य करते हुए महर्षि दयानन्द ने लिखा है—
याः कन्या यावच्चतुर्विशति वर्षमायुस्तावद् ब्रह्मचर्येण जितेन्द्रिय तथा सांगोपांगवेदविद्या अधीयते ता मनुष्य जाति भूषिका भवन्ति ।
अर्थात् जो कन्या 24 वर्ष तक ब्रह्मचर्यपूर्वक सांगोपांग वेद विद्याओं को पढ़ती हैं, वे मनुष्य जाति को शोभित करती हैं।
स्त्रियों के यज्ञ का ब्रह्मा बनने तथा उपाध्याय एवं आचार्य होने के प्रमाण मौजूद हैं। ऋग्वेद में नारी को सम्बोधन करके कहा गया है कि तू उत्तम आचरण द्वारा ब्रह्मा का पद प्राप्त कर सकती है।
अथः पश्यस्व मोपार सन्तरां पादकौ हर । मा तो कशप्लकौदृशन् स्त्री हि ब्रह्मा विभूविथ ।। —ऋग्वेद 8।33।19
अर्थात् हे नारी! तुम नीचे देखकर चलो। व्यर्थ में इधर-उधर की वस्तुओं तथा व्यक्तियों को मत देखती रहो। अपने पैरों को सावधानी तथा सभ्यता से रखो। वस्त्र इस प्रकार पहनो कि लज्जा अंग ढके रहें। इस प्रकार उचित आचरण करती हुई तुम निश्चय ही ब्रह्मा की पदवी पाने के योग्य बन सकती हो।
अब यह देखना है कि ब्रह्मा का पद कितना उच्च है और उसे किस योग्यता का मनुष्य प्राप्त कर सकता है? ब्रह्मा वाऋत्विजाम्भिषक्तमः । —शतपथ 1।7।4।19
अर्थात् ब्रह्मा ऋत्विजों की त्रुटियों को दूर करने वाला होने से सब पुरोहितों से ऊंचा है। तस्याद्यो ब्रह्मनिष्ठः तस्यात् तं ब्रह्मा च कुबीत् । —गौपथ उत्तरार्ध 1।3
अर्थात् जो सबसे अधिक ब्रह्मनिष्ठ (परमेश्वर और वेदों का ज्ञाता) हो उसे ब्रह्मा बनना चाहिए। स्पष्ट है कि महिलाओं को पुरुषों के समान ही वेद, यज्ञ एवं गायत्री का अधिकार माना गया है। मालवीयजी द्वारा निर्णय—
स्त्रियों को वेद मन्त्रों का अधिकार है या नहीं? इस प्रश्न को लेकर काशी के पण्डितों में पर्याप्त विवाद हो चुका है। हिन्दू विश्वविद्यालय काशी में कुमारी कल्याणी नामक छात्रा वेद कक्षा में प्रविष्ट होना चाहती थी, पर प्रचलित मान्यता के आधार पर विश्व-विद्यालय ने उसे दाखिल करने से इन्कार कर दिया। अधिकारियों का कथन था कि शास्त्रों में स्त्रियों को वेद मन्त्रों का अधिकार नहीं दिया गया है।
इस विषय को लेकर पत्र-पत्रिकाओं में बहुत दिन विवाद चला वेदाधिकार के समर्थन में ‘‘सार्वदेशिक’’ पत्र ने कई लेख छापे और विरोध में काशी के ‘‘सिद्धान्त’’ पत्र में कई लेख प्रकाशित हुए। आर्य-समाज की ओर से एक डेपूटेशन हिन्दू विश्व-विद्यालय के अधिकारियों से मिला। देश भर में इस प्रश्न को लेकर काफी चर्चा हुई। अन्त में विश्व-विद्यालय में महामना मदनमोहन मालवीय की अध्यक्षता में इस प्रश्न पर विचार करने के लिए एक कमेटी नियुक्त की जिसमें अनेक धार्मिक विद्वान् सम्मिलित किये गये। कमेटी ने इस सम्बन्ध में शास्त्रों का गम्भीर विवेचन करके यह निष्कर्ष निकाला कि स्त्रियों को भी पुरुषों की भांति वेदाधिकार है। इस निर्णय की घोषणा 22 अगस्त 1946 को सनातन धर्म के प्राण समझे जाने वाले महामना मालवीयजी ने की। तदनुसार कुमारी कल्याणी देवी को विश्व-विद्यालय की वेद कक्षा में दाखिल कर लिया गया और शास्त्रीय आधार पर निर्णय किया कि विद्यालय में स्त्रियों के वेदाध्ययन पर कोई प्रतिबन्ध न रहेगा। स्त्रियां भी पुरुषों की भांति वेद पढ़ सकेंगी। महामना मालवीयजी तथा उनके सहयोगी अन्य विद्वानों पर कोई सनातन धर्म विरोधी होने का सन्देह नहीं कर सकता। सनातन धर्म में उनकी आस्था प्रसिद्ध है। ऐसे लोगों द्वारा इस प्रश्न को सुलझा दिये जाने पर भी जो लोग गढ़े मुर्दे उखाड़ते हैं और कहते हैं कि स्त्रियों को गायत्री का अधिकार नहीं है, उनकी बुद्धि के लिए क्या कहा जाय? समझ में नहीं आता।
पं. मदनमोहनजी मालवीय सनातन धर्म के प्राण थे। उनकी शास्त्रज्ञता, विद्वत्ता, दूरदर्शिता एवं धार्मिक दृढ़ता असन्दिग्ध थी। ऐसे महापण्डित ने अन्य अनेकों प्रामाणिक विद्वानों के परामर्श से स्वीकार किया है, उस निर्णय पर भी जो लोग सन्देह करते हैं, उनकी हठधर्मी को दूर करना स्वयं ब्रह्माजी के लिए भी कठिन है।
खेद है कि ऐसे लोग समय की गति को भी नहीं देखते, हिन्दू-समाज की गिरती हुई संख्या और शक्ति पर भी ध्यान नहीं देते, केवल दस-बीस कल्पित या मिलावटी श्लोकों को लेकर देश तथा समाज का अनहित करने पर उतारू हो जाते हैं। प्राचीन काल की अनेक विदुषी स्त्रियों के नाम अभी तक संसार में प्रसिद्ध हैं, वेदों में बीसियों स्त्री-ऋषियों का उल्लेख मन्त्र रचयिता के रूप में लिखा मिलता है, पर ऐसे लोग उधर दृष्टिपात न करके मध्यकाल में ऋषियों के नाम पर स्वार्थी लोगों द्वारा लिखी पुस्तकों के आधार पर समाज सुधार के पुनीत कार्य में व्यर्थ ही टांग उड़ाया करते हैं। ऐसे व्यक्तियों की उपेक्षा करके वर्तमान युग के ऋषि मालवीयजी की सम्मति का अनुसरण करना ही समाज सेवकों का कर्त्तव्य है।
तथ्यों और प्रयोगों के आधार पर अब यह निश्चित रूप से सिद्ध हो गया है कि नारियों को भी पुरुषों की तरह वेद मन्त्रों का अधिकार है। मात्र परम्परागत अभ्यास पूर्वाग्रह के कारण अपने अन्दर गलत मान्यता रहने देना उचित नहीं। विचारवान् व्यक्तियों को अपने आप से एकान्त स्थान में बैठकर यह प्रश्न करना चाहिए—(1) यदि स्त्रियों को गायत्री या वेद मन्त्रों का अधिकार नहीं, तो प्राचीनकाल में स्त्रियां वेदों की मन्त्र दृष्टा-ऋषिकायें क्यों हुईं? (2) यदि वेद की वे अधिकारिणी नहीं तो यज्ञ आदि धार्मिक कृत्यों तथा षोडश संस्कारों में उन्हें सम्मिलित क्यों किया जाता है? (3) विवाह आदि अवसरों पर स्त्रियों के मुख से वेद मन्त्रों का उच्चारण क्यों कराया जाता है? (4) बिना वेद मन्त्रों के नित्य संध्या और हवन स्त्रियां कैसे कर सकती हैं? (5) यदि स्त्रियां अनधिकारिणी थीं तो अनसूया, अहिल्या अरुन्धती, मैत्रेयी, मदालसा आदि आदि अगणित स्त्रियां वेद शास्त्र में पारंगत कैसे थीं? (6) ज्ञान, धर्म और उपासना के स्वाभाविक अधिकारों से नारियों को वंचित करना क्या अन्याय एवं पक्षपात नहीं है? (7) क्या नारी को आध्यात्मिक दृष्टि से अयोग्य ठहराकर उससे उत्पन्न होने वाली सन्तान धार्मिक हो सकती है? (8) जब स्त्री पुरुष की अर्धांगिनी है, तो आधा अंग अधिकारी आधा अनाधिकारी किस प्रकार रहा?
इन प्रश्नों पर विचार करने से हर एक निष्पक्ष व्यक्ति की अन्तरात्मा यही उत्तर देगी कि स्त्रियों पर धार्मिक अयोग्यता का प्रतिबन्ध लगाना किसी प्रकार न्याय संगत नहीं हो सकता। उन्हें भी गायत्री आदि मन्त्रों का पुरुषों की भांति ही अधिकार होना चाहिए। हम स्वयं भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं। हमें ऐसी पचासों स्त्रियों का परिचय है, जिनने श्रद्धापूर्वक वेदमाता गायत्री की उपासना की है और पुरुषों के ही समान सन्तोषजनक परिणाम प्राप्त किया है। कई बार तो उन्हें पुरुषों से भी अधिक एवं शीघ्र सफलतायें मिलीं। कन्यायें उत्तम घर-वर प्राप्त करने में, सधवायें पति का सुख सौभाग्य एवं सुसन्तति के सम्बन्ध में, और विधवायें संयम तथा धन उपार्जन में आशाजनक सफल हुई हैं।
आत्मा न स्त्री है न पुरुष। वह विशुद्ध ब्रह्म ज्योति की चिनगारी है। आत्मिक प्रकाश प्राप्त करने के लिये जैसे पुरुष को किसी गुरु या पथ प्रदर्शक की आवश्यकता होती है, वैसे ही स्त्री को भी होती है। तात्पर्य यह कि साधना क्षेत्र में पुरुष-स्त्री का भेद नहीं। साधक ‘आत्मा’ है उन्हें अपने को पुरुष-स्त्री न समझकर आत्मा समझना चाहिए। साधना क्षेत्र में सभी आत्मायें समान हैं। लिंग-भेद के कारण कोई अयोग्यता उन पर नहीं थोपी जानी चाहिए।
हमने भली प्रकार खोज, विचार, मनन और अन्वेषण करके यह पूरी तरह विश्वास कर लिया है कि स्त्रियों को पुरुषों की भांति ही गायत्री का अधिकार है। वे भी पुरुषों की भांति ही माता की गोद में चढ़ने की, उसका अंचल पकड़ने की, उसका पय-पान करने की पूर्ण अधिकारिणी हैं। उन्हें सब प्रकार का संकोच छोड़कर प्रसन्नतापूर्वक गायत्री की उपासना करनी चाहिए उनके भव-बन्धन कटेंगे, जन्म-मरण की फांसी से छूटेंगी जीवन-मुक्ति और स्वर्गीय शान्ति की अधिकारिणी बनेंगी। साथ ही अपने पुण्य प्रताप से अपने परिजनों को स्वास्थ्य, सौभाग्य, वैभव एवं सुख शान्ति की दिन-दिन वृद्धि करने में महत्वपूर्ण सहयोग दें सकेंगी। गायत्री को अपनाने वाली देवियां सच्चे अर्थों में देवी बनती हैं, उनके दिव्य गुणों का प्रकाश होता है तदनुसार वे सर्वत्र उसी आदर को प्राप्त करती हैं, जो उनका ईश्वर प्रदत्त जन्मजात अधिकार है।
गायत्री परिवार—युग निर्माण परिवार के अन्तर्गत विश्वव्यापी स्वर पर हर वर्ग के अगणित पुरुषों एवं महिलाओं ने सही ढंग से गायत्री साधना करके अनुपम लाभ प्राप्त किये हैं। यह मानवमात्र के लिए परम कल्याणकारी साधना है। अस्तु किसी भी भ्रम जंजाल में न पड़कर इसका लाभ स्वयं भी उठाना चाहिए तथा दूसरों को भी प्रेरणा देनी चाहिए।