Books - सर्वोपयोगी गायत्री साधना
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शक्ति का अद्भुत स्रोत
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पिछले पृष्ठों में लिखा जा चुका है कि गायत्री कोई देवी-देवता भूत पलीत आदि नहीं वरन् ब्रह्म की स्फुरणा से उत्पन्न हुई आद्य शक्ति है जो संसार के प्रत्येक पदार्थ का मूल कारण है और उसी के द्वारा जड़ चेतन सृष्टि में गति, शक्ति, प्रगति-प्रेरणा एवं परिणति होती है। जैसे घर में रखे हुए रेडियो का यन्त्र सम्बन्ध विश्वव्यापी ईथर तरंगों से स्थापित करके देश-विदेशों में होने वाले प्रत्येक ब्रॉडकास्ट को सरलता पूर्वक सुन सकते हैं उसी प्रकार आत्म-शक्ति का विश्वव्यापी गायत्री शक्ति से सम्बन्ध स्थापित करके सूक्ष्म प्रकृति की सभी हलचलों को जान सकते हैं और सूक्ष्म शक्ति को इच्छानुसार मोड़ने की कला विदित होने पर सांसारिक, मानसिक और आत्मिक क्षेत्र में प्राप्त हो सकने वाली सभी सम्पत्तियों को प्राप्त कर सकते हैं। जिस मार्ग से यह सब हो सकता है उसका नाम है—गायत्री साधना।
कई व्यक्ति सोचते हैं—हमारा उद्देश्य ईश्वर प्राप्ति, आत्मदर्शन और जीवन मुक्ति है हमें गायत्री के सूक्ष्म प्रकृति के चक्कर में पड़ने से क्या प्रयोजन? हमें तो केवल ईश्वर आराधना करनी चाहिये। सोचने वालों को जानना चाहिए कि ब्रह्म सर्वथा निर्विकार, निर्लेप, निरंजन, निराकार, गुणातीत है। वह न किसी से प्रेम करता है, न द्वेष। वह केवल दृष्टा एवं कारण रूप है, उस तक सीधी पहुंच नहीं हो सकती, क्योंकि जीव और ब्रह्म के बीच सूक्ष्म प्रकृति (एनर्जी) का सघन आच्छादन है। इस आच्छादन को पार करने के लिये प्रकृति के साधनों से ही कार्य करना पड़ेगा। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, कल्पना, ध्यान, सूक्ष्म शरीर, षट्चक्र, इष्टदेव की ध्यान प्रतिमा, भक्ति, भावना, उपासना, व्रत, अनुष्ठान, साधना यह सब भी तो माया निर्मित ही हैं। इन सबको छोड़कर ब्रह्म-प्राप्ति किस प्रकार होनी सम्भव है? जैसे ऊपर आकाश में पहुंचने के लिए वायुयान की आवश्यकता पड़ती है, वैसे ही ब्रह्म प्राप्ति के लिये भी प्रतिमूलक आराधना का आश्रय लेना पड़ता है। गायत्री के आवरण में होकर पार जाने पर ही ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। सच तो यह है कि साक्षात्कार का अनुभव गायत्री के गर्भ में ही होता है। इससे ऊपर पहुंचने पर सूक्ष्म इन्द्रियां और उनकी अनुभव शक्ति भी लुप्त हो जाती है। इसलिये मुक्ति और ईश्वर प्राप्ति चाहने वाले भी गायत्री मिश्रित ब्रह्म की, राधेश्याम, सीताराम, लक्ष्मीनारायण की—ही उपासना करते हैं। निर्विकार ब्रह्म का सायुज्य तो तभी होगा, जब ब्रह्म ‘बहुत से एक’ होने की इच्छा करेगा और सब आत्माओं को समेटकरक अपने में धारण कर लेगा। उससे पूर्व सब आत्माओं का सविकार ब्रह्म में ही सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य आदि हो सकता है। इस प्रकार गायत्री मिश्रित सविकार ब्रह्म ही हमारा उपास्य रह जाता है। उसकी प्राप्ति के साधन जो भी होंगे, वे सभी सूक्ष्म प्रकृति गायत्री द्वारा ही होंगे। इसलिए ऐसा सोचना उचित नहीं कि ब्रह्म प्राप्ति के लिये गायत्री अनावश्यक है। वह तो अनिवार्य है। नाम से कोई उपेक्षा या विरोध करे यह उसकी इच्छा, पर है। गायत्री तत्व से बचकर अन्य मार्ग से जाना असम्भव है।
कई व्यक्ति कहते हैं कि हम निष्काम साधना करते हैं। हमें किसी फल की कामना नहीं फिर सूक्ष्म प्रकृति का आश्रय क्यों लें? ऐसे लोगों को जानना चाहिये कि निष्काम साधना का अर्थ—भौतिक लाभ न चाहकर आत्मिक साधना का है। बिना परिणाम सोचे यदि चाहें तो किसी कार्य में प्रवृत्ति हो ही नहीं सकती, यदि कुछ मिल भी जाय तो उससे समय एवं शक्ति के अपव्यय के अतिरिक्त और कुछ परिणाम नहीं निकलता। निष्काम कर्म का तात्पर्य दैवी सतोगुणी, आत्मिक कामनाओं से है। ऐसी कामनायें भी गायत्री के प्रथम पाद के ‘ह्रीं’ तत्व में सरस्वती भाग में आती हैं। इसलिये निष्काम भाव की उपासना भी गायत्री क्षेत्र से बाहर नहीं है।
मन्त्र विद्या को वैज्ञानिक जानते हैं कि जीभ से जो भी शब्द निकलते हैं, उनका उच्चारण कण्ठ, तालु, मूर्धा, ओष्ठ, दन्त, जिह्वामूल आदि मुख के विभिन्न अंगों द्वारा होता है। इस उच्चारण काल में मुख के जिन भागों से ध्वनि निकलती है, उन अंगों के नाड़ी तन्तु शरीर के विभिन्न भागों तक फैलते हैं। इस फैलाव क्षेत्र में कई ग्रन्थियां होती हैं, जिन पर उन उच्चारण का दबाव पड़ता है। जिन लोगों की कोई सूक्ष्म ग्रन्थियां रोगी या नष्ट हो जाती हैं, उनके मुख से कुछ खास शब्द अशुद्ध या रुक-रुककर निकलते हैं इसी को हकलाना या तुतलाना कहते हैं। शरीर में अनेक छोटी-बड़ी, दृश्य-अदृश्य ग्रन्थियां होती हैं। योगी लोग जानते हैं कि उन कोशों में कोई विशेष शक्ति-भण्डार छिपा रहता है। सुषुम्ना से सम्बद्ध षट्चक्र प्रसिद्ध है, ऐसी अगणित ग्रंथियां शरीर में हैं। विविध शब्दों का उच्चारण इन विविध ग्रंथियों पर अपना प्रभाव डालता है और उस प्रभाव से उन ग्रन्थियों का शक्ति भण्डार जागृत होता है। मन्त्रों का गठन इसी आधार पर हुआ है। गायत्री मन्त्र में 24 अक्षर हैं। इनका सम्बन्ध शरीर में स्थित ऐसी 24 ग्रन्थियों से है जो जागृत होने पर सद्बुद्धि प्रकाशक शक्तियों को सतेज करती हैं। गायत्री मंत्र के उच्चारण से सूक्ष्म शरीर का सितार 24 स्थानों झंकार देता है और उससे एक ऐसी स्वर-लहरी उत्पन्न होती है, जिसका प्रभाव अदृश्य जगत् के महत्वपूर्ण तत्वों पर पड़ता है। यह प्रभाव ही गायत्री-साधना के फलों का प्रभाव हेतु है।
दीपक-राग गाने से बुझे हुए दीपक जल उठते हैं, मेघ-मल्हार गाने से वर्षा होने लगती है वेणु-नाद सुनकर सर्प लहराने लगते हैं, मृग सुधि बुधि भूल जाते हैं, गाये अधिक दूध देने लगती हैं। कोयल की बोली सुनकर काम-भाव जागृत हो जाते हैं। अमेरिका के डॉक्टर हचिंसन ने विविध संगीत ध्वनियों से अनेक असाध्य और कष्टसाध्य रोगियों को अच्छा करने में सफलता और ख्याति प्राप्त की है। भारतवर्ष में तांत्रिक लोग थाली को घड़े पर रखकर एक विशेष गति से बजाते हैं और उस बाजे से सर्प, बिच्छू आदि जहरीले जानवरों के काटे हुए, कण्ठमाला, विषवेल, भूतोन्माद आदि के रोगी बहुत करके अच्छे हो जाते हैं। कारण यह है कि शब्दों के कम्पन सूक्ष्म प्रकृति से अपनी जाति के अन्य परमाणुओं को लेकर ईथर का परिभ्रमण करते हुए जब अपने उद्गम केन्द्र पर कुछ ही क्षणों में लौट आते हैं तो उसमें अपने प्रकार की एक विशेष विद्युतशक्ति भरी रहती है। और परिस्थिति के अनुसार उपयुक्त क्षेत्र पर उस शक्ति का एक विशिष्ट प्रभाव पड़ता है। मन्त्रों द्वारा विलक्षण कार्य होने का भी यही कारण है। गायत्री मंत्र द्वारा भी इसी प्रकार शक्ति का आविर्भाव होता है। मन्त्रोच्चारण में मुख के दो अंग क्रियाशील होते हैं, उन भागों में नाड़ी तन्तु कुछ विशेष ग्रन्थियों को गुदगुदाते हैं। उनमें स्फुरणा होने से एक वैदिक छन्द का क्रमबद्ध यौगिक संगीत प्रवाह ईथर तत्व में फैलता है और अपनी कुछ क्षणों में होने वाली विश्व परिक्रमा से वापिस आते-आते एक स्वजातीय तत्वों की सेना वापिस ले आता है, जो अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति में बड़ी सहायक होती है। शब्द संगीत के शक्तिमान कम्पनों का पंच भौतिक प्रवाह और आत्म-शक्ति की सूक्ष्म प्रकृति की भावना, साधना, आराधना के आधार पर उत्पन्न किया गया सम्बन्ध, यह दोनों कारण गायत्री-शक्ति को ऐसा बलवान् बनाते हैं, जो साधकों के लिये दैवी वरदान सिद्ध होता है।
मनुष्य शरीर में अनेक विलक्षण शक्तियां सन्निहित हैं, यह तथ्य अब वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं। यह शक्तियां शरीरस्थ कुछ केन्द्रों—ग्रन्थियों से संचालित होती हैं। गायत्री का हर अक्षर किसी न किसी महत्वपूर्ण शक्ति केन्द्रों को प्रभावित करता है। जैसे टाइप राइटर की चाभियों पर उंगली रखने से निश्चित अक्षर छपते हैं उसी प्रकार निश्चित शब्दों का प्रभाव शरीरस्थ शक्ति केन्द्रों पर पड़ते हैं। गायत्री मन्त्र के हर अक्षर से सम्बन्धित शरीरस्थ ग्रन्थियों और उनकी शक्तियों की तालिका यहां दी जा रही है।
क्र. स. अक्षर ग्रन्थि का नाम उसमें भरी हुई शक्ति
1 तत् तापिनी सफलता
2 स सफलता पराक्रम
3 वि विश्वा पालन
4 तुर तुष्टि कल्याण
5 व वरदा योग
6 रे रेवती प्रेम
7 णि सूक्ष्मा धन
8 यं ज्ञाना तेज
9 भर भर्गा रक्षा
10 गो गोमत बुद्धि
11 दे देविका दमन
12 व वराही निष्ठा
13 स्य सिंहनी धारणा
14 धी ध्यान प्राण
15 म मर्यादा संयम
16 हि स्फुटा तप
17 धि मेधा दूरदर्शिता
18 यो योगमाया जागृति
19 यो योगिनी उत्पादन
20 नः धारिणी सरसता
21 प्र प्रभवा आदर्श
22 चो ऊष्मा साहस
23 द दृश्या विवेक
24 यात् निरंजन सेवा
गायत्री उपरोक्त 24 शक्तियों को साधक में जागृत करती है। यह गुण इतने महत्वपूर्ण है कि इनके जागरण के साथ-साथ अनेक प्रकार की सफलतायें, सिद्धियां और सम्पन्नता प्राप्त होना आरम्भ हो जाता है। गायत्री साधना कोई अन्ध-विश्वास नहीं एक ठोस वैज्ञानिक कृत्य है और उसके द्वारा लाभ भी सुनिश्चित ही होते हैं। इसीलिए शास्त्रों में इसे भूलोक की कामधेनु कहा गया है।
पुराणों में उल्लेख है कि सुरलोक में देवताओं के पास कामधेनु गौ है वह अमृतोपम दूध देती है जिसे पीकर देवता लोग सदा सन्तुष्ट, प्रसन्न तथा सुसम्पन्न रहते हैं। इस गौ में यह विशेषता है कि उसके समीप कोई अपनी कुछ कामना लेकर जाता है तो उसकी इच्छा तुरन्त पूरी हो ही जाती है। कल्पवृक्ष के समान कामधेनु गौ भी अपने निकट पहुंचने वालों की मनोवांछा पूरी करती है।
यह कामधेनु गौ गायत्री ही है। इस महाशक्ति की जो देवता दिव्य स्वभाव वाला मनुष्य उपासना करता है, वह माता के स्तनों के समान आध्यात्मिक दुग्धधारा का पान करता है। उसे किसी प्रकार कोई कष्ट नहीं रहता। आत्मा स्वतः आनन्द स्वरूप है। आनन्द मग्न रहना उसका प्रमुख गुण है। दुःखों के हटते और मिटते ही वह अपने मूल स्वरूप में पहुंच जाता है। देवता स्वर्ग में सदा आनन्दित रहते हैं। मनुष्य भी भूलोक में उसी प्रकार आनन्दित रह सकता है, यदि उसके कष्ट कारणों का निवारण हो जाय। गायत्री कामधेनु मनुष्य के सभी कष्टों का समाधान कर देती है।
त्रिविध दुःखों का निवारण—
समस्त दुःखों के कारण तीन हैं—(1) अज्ञान (2) अशक्ति (3) अभाव। जो इन तीन कारणों को जिस सीमा तक अपने से दूर करने में समर्थ होगा, वह इतना सुखी बन सकेगा। अज्ञान के कारण मनुष्य का दृष्टिकोण दूषित हो जाता है, वह तत्व ज्ञान से अपरिचित होने के कारण उल्टा-उल्टा सोचता है और उल्टे काम करता है, तदनुसार उलझनों में अधिक फंसता जाता है और दुःखी बनता है। स्वार्थ भोग, लोभ, अहंकार, अनुदारता और काम की भावनायें मनुष्य को कर्त्तव्य च्युत करती हैं और वह दूरदर्शिता को छोड़कर क्षणिक क्षुद्र एवं हीन बातें सोचता है तथा वैसे ही काम करता है। फलस्वरूप उसके विचार और कार्य पापमय होने लगते हैं। पापों का निश्चित परिणाम दुःख है। दूसरी ओर अज्ञान के कारण वह अपने और दूसरे के सांसारिक गति-विधि में मूल हेतुओं को नहीं समझ पाता। फल स्वरूप असम्भव आशायें, तृष्णायें कल्पनायें किया करता है। इस उल्टे दृष्टिकोण के कारण साधारण-सी बातें उसे बड़ी दुःखमय दिखाई देती है जिसके कारण वह रोता चिल्लाता रहता है। आत्मीयों की मृत्यु, साथियों की भिन्न रुचि, परिस्थितियों का उतार चढ़ाव स्वाभाविक है, पर अज्ञानी सोचता है कि मैं जो चाहता हूं वही सदा होता रहे प्रतिकूल बात सामने आवे ही नहीं। इस असम्भव आशा के विपरीत घटनायें जब भी घटित होती हैं तभी वह रोता चिल्लाता है। तीसरे अज्ञान के कारण भूलें भी अनेक प्रकार की होती हैं, समीपस्थ सुविधाओं से वंचित रहना पड़ता है, यह भी दुःख का हेतु है। इस प्रकार अनेकों दुःख मनुष्य को अज्ञान के कारण प्राप्त होते हैं।
अशक्ति का अर्थ है—निर्बलता। शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, बौद्धिक, आत्मिक निर्बलताओं के कारण, मनुष्य अपने स्वाभाविक, जन्मसिद्ध अधिकारों का भार अपने कन्धों पर उठाने में समर्थ नहीं होता फलस्वरूप उसे वंचित रहना पड़ता है। स्वास्थ्य खराब हो, बीमारी ने घेर रखा हो, तो स्वादिष्ट भोजन, रूपवती तरुणी, मधुर गीत वाद्य, सुन्दर दृश्य निरर्थक हैं धन-दौलत का कोई कहने लायक सुख उसे नहीं मिल सकता। बौद्धिक निर्बलता हो तो साहित्य, काव्य, दर्शन मनन, चिन्तन का रस प्राप्त नहीं हो सकता। आत्मिक निर्बलता हो तो सत्संग प्रेम, भक्ति आदि का आत्मानन्द दुर्लभ है। इतना ही नहीं, निर्बलों को मिटा डालने के लिये प्रकृति का ‘उत्तम की रक्षा’ सिद्धान्त काम करता है। कमजोर को सताने और मिटाने के लिये अनेकों तथ्य प्रकट हो जाते हैं। निर्दोष, भले और सीधे-साधे तत्व भी उसके प्रतिकूल पड़ते हैं। सर्दी, जो बलवानों को बलवृद्धि करती है, रसिकों को रस देती, वह कमजोरों को निमोनिया, गठिया आदि का कारण बन जाती है। जो तत्व निर्बलों के लिये प्राणघातक हैं, वे ही बलवानों को सहायक सिद्ध होते हैं। बेचारी निर्बल बकरी को जंगली जानवरों से लेकर जगत्माता भवानी दुर्गा तक चट कर जाती है और सिंह को वन्य पशु भी नहीं बड़े-बड़े सम्राट तक राज-चिन्ह में धारण करते हैं। अशक्त हमेशा दुख पाते हैं उनके लिये भले तत्व भी आशाप्रद सिद्ध नहीं होने हैं।
अभावजन्य दुःख है—पदार्थों का अभाव। अन्न, वस्त्र, जल, मकान, पशु, भूमि, सहायक, मित्र, धन, औषधि, पुस्तक, शस्त्र, शिक्षक आदि के अभाव में विविध प्रकार की पीड़ायें, कठिनाइयों भुगतनी पड़ती हैं, उचित आवश्यकताओं को कुचल कर मन मारकर बैठना पड़ता है और जीवन के महत्वपूर्ण क्षणों को मिट्टी के मोल नष्ट करना पड़ता है। योग्य और समर्थ व्यक्ति भी साधनों के अभाव में अपने को लुंज-पुंज अनुभव करते हैं और दुःख उठाते हैं।
गायत्री कामधेनु है, जो उसकी पूजा, उपासना, आराधना और अभिभावना करता है वह प्रतिक्षण माता का अमृतोपम दुग्धपान करने का आनन्द लेता है और समस्त अज्ञानों, अशक्तियों और अभावों के कारण उत्पन्न होने वाले कष्टों से छुटकारा पाकर मनोवांछित फल प्राप्त करता है।
कई व्यक्ति सोचते हैं—हमारा उद्देश्य ईश्वर प्राप्ति, आत्मदर्शन और जीवन मुक्ति है हमें गायत्री के सूक्ष्म प्रकृति के चक्कर में पड़ने से क्या प्रयोजन? हमें तो केवल ईश्वर आराधना करनी चाहिये। सोचने वालों को जानना चाहिए कि ब्रह्म सर्वथा निर्विकार, निर्लेप, निरंजन, निराकार, गुणातीत है। वह न किसी से प्रेम करता है, न द्वेष। वह केवल दृष्टा एवं कारण रूप है, उस तक सीधी पहुंच नहीं हो सकती, क्योंकि जीव और ब्रह्म के बीच सूक्ष्म प्रकृति (एनर्जी) का सघन आच्छादन है। इस आच्छादन को पार करने के लिये प्रकृति के साधनों से ही कार्य करना पड़ेगा। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, कल्पना, ध्यान, सूक्ष्म शरीर, षट्चक्र, इष्टदेव की ध्यान प्रतिमा, भक्ति, भावना, उपासना, व्रत, अनुष्ठान, साधना यह सब भी तो माया निर्मित ही हैं। इन सबको छोड़कर ब्रह्म-प्राप्ति किस प्रकार होनी सम्भव है? जैसे ऊपर आकाश में पहुंचने के लिए वायुयान की आवश्यकता पड़ती है, वैसे ही ब्रह्म प्राप्ति के लिये भी प्रतिमूलक आराधना का आश्रय लेना पड़ता है। गायत्री के आवरण में होकर पार जाने पर ही ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। सच तो यह है कि साक्षात्कार का अनुभव गायत्री के गर्भ में ही होता है। इससे ऊपर पहुंचने पर सूक्ष्म इन्द्रियां और उनकी अनुभव शक्ति भी लुप्त हो जाती है। इसलिये मुक्ति और ईश्वर प्राप्ति चाहने वाले भी गायत्री मिश्रित ब्रह्म की, राधेश्याम, सीताराम, लक्ष्मीनारायण की—ही उपासना करते हैं। निर्विकार ब्रह्म का सायुज्य तो तभी होगा, जब ब्रह्म ‘बहुत से एक’ होने की इच्छा करेगा और सब आत्माओं को समेटकरक अपने में धारण कर लेगा। उससे पूर्व सब आत्माओं का सविकार ब्रह्म में ही सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य आदि हो सकता है। इस प्रकार गायत्री मिश्रित सविकार ब्रह्म ही हमारा उपास्य रह जाता है। उसकी प्राप्ति के साधन जो भी होंगे, वे सभी सूक्ष्म प्रकृति गायत्री द्वारा ही होंगे। इसलिए ऐसा सोचना उचित नहीं कि ब्रह्म प्राप्ति के लिये गायत्री अनावश्यक है। वह तो अनिवार्य है। नाम से कोई उपेक्षा या विरोध करे यह उसकी इच्छा, पर है। गायत्री तत्व से बचकर अन्य मार्ग से जाना असम्भव है।
कई व्यक्ति कहते हैं कि हम निष्काम साधना करते हैं। हमें किसी फल की कामना नहीं फिर सूक्ष्म प्रकृति का आश्रय क्यों लें? ऐसे लोगों को जानना चाहिये कि निष्काम साधना का अर्थ—भौतिक लाभ न चाहकर आत्मिक साधना का है। बिना परिणाम सोचे यदि चाहें तो किसी कार्य में प्रवृत्ति हो ही नहीं सकती, यदि कुछ मिल भी जाय तो उससे समय एवं शक्ति के अपव्यय के अतिरिक्त और कुछ परिणाम नहीं निकलता। निष्काम कर्म का तात्पर्य दैवी सतोगुणी, आत्मिक कामनाओं से है। ऐसी कामनायें भी गायत्री के प्रथम पाद के ‘ह्रीं’ तत्व में सरस्वती भाग में आती हैं। इसलिये निष्काम भाव की उपासना भी गायत्री क्षेत्र से बाहर नहीं है।
मन्त्र विद्या को वैज्ञानिक जानते हैं कि जीभ से जो भी शब्द निकलते हैं, उनका उच्चारण कण्ठ, तालु, मूर्धा, ओष्ठ, दन्त, जिह्वामूल आदि मुख के विभिन्न अंगों द्वारा होता है। इस उच्चारण काल में मुख के जिन भागों से ध्वनि निकलती है, उन अंगों के नाड़ी तन्तु शरीर के विभिन्न भागों तक फैलते हैं। इस फैलाव क्षेत्र में कई ग्रन्थियां होती हैं, जिन पर उन उच्चारण का दबाव पड़ता है। जिन लोगों की कोई सूक्ष्म ग्रन्थियां रोगी या नष्ट हो जाती हैं, उनके मुख से कुछ खास शब्द अशुद्ध या रुक-रुककर निकलते हैं इसी को हकलाना या तुतलाना कहते हैं। शरीर में अनेक छोटी-बड़ी, दृश्य-अदृश्य ग्रन्थियां होती हैं। योगी लोग जानते हैं कि उन कोशों में कोई विशेष शक्ति-भण्डार छिपा रहता है। सुषुम्ना से सम्बद्ध षट्चक्र प्रसिद्ध है, ऐसी अगणित ग्रंथियां शरीर में हैं। विविध शब्दों का उच्चारण इन विविध ग्रंथियों पर अपना प्रभाव डालता है और उस प्रभाव से उन ग्रन्थियों का शक्ति भण्डार जागृत होता है। मन्त्रों का गठन इसी आधार पर हुआ है। गायत्री मन्त्र में 24 अक्षर हैं। इनका सम्बन्ध शरीर में स्थित ऐसी 24 ग्रन्थियों से है जो जागृत होने पर सद्बुद्धि प्रकाशक शक्तियों को सतेज करती हैं। गायत्री मंत्र के उच्चारण से सूक्ष्म शरीर का सितार 24 स्थानों झंकार देता है और उससे एक ऐसी स्वर-लहरी उत्पन्न होती है, जिसका प्रभाव अदृश्य जगत् के महत्वपूर्ण तत्वों पर पड़ता है। यह प्रभाव ही गायत्री-साधना के फलों का प्रभाव हेतु है।
दीपक-राग गाने से बुझे हुए दीपक जल उठते हैं, मेघ-मल्हार गाने से वर्षा होने लगती है वेणु-नाद सुनकर सर्प लहराने लगते हैं, मृग सुधि बुधि भूल जाते हैं, गाये अधिक दूध देने लगती हैं। कोयल की बोली सुनकर काम-भाव जागृत हो जाते हैं। अमेरिका के डॉक्टर हचिंसन ने विविध संगीत ध्वनियों से अनेक असाध्य और कष्टसाध्य रोगियों को अच्छा करने में सफलता और ख्याति प्राप्त की है। भारतवर्ष में तांत्रिक लोग थाली को घड़े पर रखकर एक विशेष गति से बजाते हैं और उस बाजे से सर्प, बिच्छू आदि जहरीले जानवरों के काटे हुए, कण्ठमाला, विषवेल, भूतोन्माद आदि के रोगी बहुत करके अच्छे हो जाते हैं। कारण यह है कि शब्दों के कम्पन सूक्ष्म प्रकृति से अपनी जाति के अन्य परमाणुओं को लेकर ईथर का परिभ्रमण करते हुए जब अपने उद्गम केन्द्र पर कुछ ही क्षणों में लौट आते हैं तो उसमें अपने प्रकार की एक विशेष विद्युतशक्ति भरी रहती है। और परिस्थिति के अनुसार उपयुक्त क्षेत्र पर उस शक्ति का एक विशिष्ट प्रभाव पड़ता है। मन्त्रों द्वारा विलक्षण कार्य होने का भी यही कारण है। गायत्री मंत्र द्वारा भी इसी प्रकार शक्ति का आविर्भाव होता है। मन्त्रोच्चारण में मुख के दो अंग क्रियाशील होते हैं, उन भागों में नाड़ी तन्तु कुछ विशेष ग्रन्थियों को गुदगुदाते हैं। उनमें स्फुरणा होने से एक वैदिक छन्द का क्रमबद्ध यौगिक संगीत प्रवाह ईथर तत्व में फैलता है और अपनी कुछ क्षणों में होने वाली विश्व परिक्रमा से वापिस आते-आते एक स्वजातीय तत्वों की सेना वापिस ले आता है, जो अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति में बड़ी सहायक होती है। शब्द संगीत के शक्तिमान कम्पनों का पंच भौतिक प्रवाह और आत्म-शक्ति की सूक्ष्म प्रकृति की भावना, साधना, आराधना के आधार पर उत्पन्न किया गया सम्बन्ध, यह दोनों कारण गायत्री-शक्ति को ऐसा बलवान् बनाते हैं, जो साधकों के लिये दैवी वरदान सिद्ध होता है।
मनुष्य शरीर में अनेक विलक्षण शक्तियां सन्निहित हैं, यह तथ्य अब वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं। यह शक्तियां शरीरस्थ कुछ केन्द्रों—ग्रन्थियों से संचालित होती हैं। गायत्री का हर अक्षर किसी न किसी महत्वपूर्ण शक्ति केन्द्रों को प्रभावित करता है। जैसे टाइप राइटर की चाभियों पर उंगली रखने से निश्चित अक्षर छपते हैं उसी प्रकार निश्चित शब्दों का प्रभाव शरीरस्थ शक्ति केन्द्रों पर पड़ते हैं। गायत्री मन्त्र के हर अक्षर से सम्बन्धित शरीरस्थ ग्रन्थियों और उनकी शक्तियों की तालिका यहां दी जा रही है।
क्र. स. अक्षर ग्रन्थि का नाम उसमें भरी हुई शक्ति
1 तत् तापिनी सफलता
2 स सफलता पराक्रम
3 वि विश्वा पालन
4 तुर तुष्टि कल्याण
5 व वरदा योग
6 रे रेवती प्रेम
7 णि सूक्ष्मा धन
8 यं ज्ञाना तेज
9 भर भर्गा रक्षा
10 गो गोमत बुद्धि
11 दे देविका दमन
12 व वराही निष्ठा
13 स्य सिंहनी धारणा
14 धी ध्यान प्राण
15 म मर्यादा संयम
16 हि स्फुटा तप
17 धि मेधा दूरदर्शिता
18 यो योगमाया जागृति
19 यो योगिनी उत्पादन
20 नः धारिणी सरसता
21 प्र प्रभवा आदर्श
22 चो ऊष्मा साहस
23 द दृश्या विवेक
24 यात् निरंजन सेवा
गायत्री उपरोक्त 24 शक्तियों को साधक में जागृत करती है। यह गुण इतने महत्वपूर्ण है कि इनके जागरण के साथ-साथ अनेक प्रकार की सफलतायें, सिद्धियां और सम्पन्नता प्राप्त होना आरम्भ हो जाता है। गायत्री साधना कोई अन्ध-विश्वास नहीं एक ठोस वैज्ञानिक कृत्य है और उसके द्वारा लाभ भी सुनिश्चित ही होते हैं। इसीलिए शास्त्रों में इसे भूलोक की कामधेनु कहा गया है।
पुराणों में उल्लेख है कि सुरलोक में देवताओं के पास कामधेनु गौ है वह अमृतोपम दूध देती है जिसे पीकर देवता लोग सदा सन्तुष्ट, प्रसन्न तथा सुसम्पन्न रहते हैं। इस गौ में यह विशेषता है कि उसके समीप कोई अपनी कुछ कामना लेकर जाता है तो उसकी इच्छा तुरन्त पूरी हो ही जाती है। कल्पवृक्ष के समान कामधेनु गौ भी अपने निकट पहुंचने वालों की मनोवांछा पूरी करती है।
यह कामधेनु गौ गायत्री ही है। इस महाशक्ति की जो देवता दिव्य स्वभाव वाला मनुष्य उपासना करता है, वह माता के स्तनों के समान आध्यात्मिक दुग्धधारा का पान करता है। उसे किसी प्रकार कोई कष्ट नहीं रहता। आत्मा स्वतः आनन्द स्वरूप है। आनन्द मग्न रहना उसका प्रमुख गुण है। दुःखों के हटते और मिटते ही वह अपने मूल स्वरूप में पहुंच जाता है। देवता स्वर्ग में सदा आनन्दित रहते हैं। मनुष्य भी भूलोक में उसी प्रकार आनन्दित रह सकता है, यदि उसके कष्ट कारणों का निवारण हो जाय। गायत्री कामधेनु मनुष्य के सभी कष्टों का समाधान कर देती है।
त्रिविध दुःखों का निवारण—
समस्त दुःखों के कारण तीन हैं—(1) अज्ञान (2) अशक्ति (3) अभाव। जो इन तीन कारणों को जिस सीमा तक अपने से दूर करने में समर्थ होगा, वह इतना सुखी बन सकेगा। अज्ञान के कारण मनुष्य का दृष्टिकोण दूषित हो जाता है, वह तत्व ज्ञान से अपरिचित होने के कारण उल्टा-उल्टा सोचता है और उल्टे काम करता है, तदनुसार उलझनों में अधिक फंसता जाता है और दुःखी बनता है। स्वार्थ भोग, लोभ, अहंकार, अनुदारता और काम की भावनायें मनुष्य को कर्त्तव्य च्युत करती हैं और वह दूरदर्शिता को छोड़कर क्षणिक क्षुद्र एवं हीन बातें सोचता है तथा वैसे ही काम करता है। फलस्वरूप उसके विचार और कार्य पापमय होने लगते हैं। पापों का निश्चित परिणाम दुःख है। दूसरी ओर अज्ञान के कारण वह अपने और दूसरे के सांसारिक गति-विधि में मूल हेतुओं को नहीं समझ पाता। फल स्वरूप असम्भव आशायें, तृष्णायें कल्पनायें किया करता है। इस उल्टे दृष्टिकोण के कारण साधारण-सी बातें उसे बड़ी दुःखमय दिखाई देती है जिसके कारण वह रोता चिल्लाता रहता है। आत्मीयों की मृत्यु, साथियों की भिन्न रुचि, परिस्थितियों का उतार चढ़ाव स्वाभाविक है, पर अज्ञानी सोचता है कि मैं जो चाहता हूं वही सदा होता रहे प्रतिकूल बात सामने आवे ही नहीं। इस असम्भव आशा के विपरीत घटनायें जब भी घटित होती हैं तभी वह रोता चिल्लाता है। तीसरे अज्ञान के कारण भूलें भी अनेक प्रकार की होती हैं, समीपस्थ सुविधाओं से वंचित रहना पड़ता है, यह भी दुःख का हेतु है। इस प्रकार अनेकों दुःख मनुष्य को अज्ञान के कारण प्राप्त होते हैं।
अशक्ति का अर्थ है—निर्बलता। शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, बौद्धिक, आत्मिक निर्बलताओं के कारण, मनुष्य अपने स्वाभाविक, जन्मसिद्ध अधिकारों का भार अपने कन्धों पर उठाने में समर्थ नहीं होता फलस्वरूप उसे वंचित रहना पड़ता है। स्वास्थ्य खराब हो, बीमारी ने घेर रखा हो, तो स्वादिष्ट भोजन, रूपवती तरुणी, मधुर गीत वाद्य, सुन्दर दृश्य निरर्थक हैं धन-दौलत का कोई कहने लायक सुख उसे नहीं मिल सकता। बौद्धिक निर्बलता हो तो साहित्य, काव्य, दर्शन मनन, चिन्तन का रस प्राप्त नहीं हो सकता। आत्मिक निर्बलता हो तो सत्संग प्रेम, भक्ति आदि का आत्मानन्द दुर्लभ है। इतना ही नहीं, निर्बलों को मिटा डालने के लिये प्रकृति का ‘उत्तम की रक्षा’ सिद्धान्त काम करता है। कमजोर को सताने और मिटाने के लिये अनेकों तथ्य प्रकट हो जाते हैं। निर्दोष, भले और सीधे-साधे तत्व भी उसके प्रतिकूल पड़ते हैं। सर्दी, जो बलवानों को बलवृद्धि करती है, रसिकों को रस देती, वह कमजोरों को निमोनिया, गठिया आदि का कारण बन जाती है। जो तत्व निर्बलों के लिये प्राणघातक हैं, वे ही बलवानों को सहायक सिद्ध होते हैं। बेचारी निर्बल बकरी को जंगली जानवरों से लेकर जगत्माता भवानी दुर्गा तक चट कर जाती है और सिंह को वन्य पशु भी नहीं बड़े-बड़े सम्राट तक राज-चिन्ह में धारण करते हैं। अशक्त हमेशा दुख पाते हैं उनके लिये भले तत्व भी आशाप्रद सिद्ध नहीं होने हैं।
अभावजन्य दुःख है—पदार्थों का अभाव। अन्न, वस्त्र, जल, मकान, पशु, भूमि, सहायक, मित्र, धन, औषधि, पुस्तक, शस्त्र, शिक्षक आदि के अभाव में विविध प्रकार की पीड़ायें, कठिनाइयों भुगतनी पड़ती हैं, उचित आवश्यकताओं को कुचल कर मन मारकर बैठना पड़ता है और जीवन के महत्वपूर्ण क्षणों को मिट्टी के मोल नष्ट करना पड़ता है। योग्य और समर्थ व्यक्ति भी साधनों के अभाव में अपने को लुंज-पुंज अनुभव करते हैं और दुःख उठाते हैं।
गायत्री कामधेनु है, जो उसकी पूजा, उपासना, आराधना और अभिभावना करता है वह प्रतिक्षण माता का अमृतोपम दुग्धपान करने का आनन्द लेता है और समस्त अज्ञानों, अशक्तियों और अभावों के कारण उत्पन्न होने वाले कष्टों से छुटकारा पाकर मनोवांछित फल प्राप्त करता है।