Books - सर्वोपयोगी सुलभ साधनाएं
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Language: HINDI
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भावनात्मक परिवर्तन का एक मात्र प्रयोग साधन
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मनुष्य शरीर में प्रसुप्त दैवत्व का जागरण करना ही आज की सबसे बड़ी ईश्वर पूजा है। युग धर्म इसी के लिए प्रबुद्ध आत्माओं का आह्वान कर रहा है। नव युग निर्माण की आधार शिला यही है। जिस असुरता की दुष्प्रवृत्तियों ने संसार को दुःख दारिद्रय भरा नरक बनाया, जिस अविवेक ने परमात्मा के पुत्र आत्मा को निकृष्टतम कीड़े से गये गुजरे स्तर पर ला पटका, उसका उन्मूलन देवत्व के अभिवर्धन से ही होना है। अन्धकार को मिटाने के लिए प्रकाश उत्पन्न करने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। मनुष्य की आन्तरिक संकीर्णता एवं अविवेक ग्रस्त स्थिति का अन्त किये बिना उज्ज्वल भविष्य की आशा अन्य किसी प्रकार नहीं की जा सकती। धन वैभव बढ़ने से नहीं, सद्भाव बढ़ने से मानवीय गौरव का पुनरुत्थान सम्भव होगा।
इस महान् कार्य को भौतिक स्तर पर किये गये उथले क्रिया कलापों द्वारा सम्पन्न नहीं किया जा सकता। इसके लिए अधिक गहराई में उतरना होगा और उस स्तर पर प्रयत्न करना होगा जहां से मानवीय अन्तःकरण को स्पर्श एवं प्रभावित किया जा सके। आध्यात्म ही वह आधार हो सकता है। मनुष्य की प्रकृति को बदलने और गति-विधियों को उलटने का कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन तभी होगा जब उसका अन्तःकरण बदले और अन्तःकरण का परिवर्तन मात्र भौतिक साधनों एवं प्रयत्नों से सम्पन्न नहीं हो सकता। रक्त-वाहिनी नाड़ियों में कोई औषधि प्रवेश करने के लिए इन्जेक्शन की सुई ही उपयुक्त होती है, इसी प्रकार मानवीय अन्तःकरण को प्रभावित करने की प्रक्रिया आध्यात्मिक भावनाओं और साधनाओं के माध्यम से ही सम्पन्न की जाती है।
यों चाहते सभी हैं कि समाज में फैली हुई बुराइयां दूर हों और व्यक्ति अधिक ईमानदार बनें। इसके लिए वही दो मोटे उपकरण सूझ पड़ते हैं, जो आमतौर से अन्य जानकारियां बढ़ाने के लिए काम में लाये जाते हैं—लेखनी और वाणी। इन्हीं दो साधनों से स्कूलों में बच्चों को हिसाब, भूगोल, इतिहास आदि की शिक्षा दी जाती है। कृषि, शिल्प, स्वास्थ्य आदि विषयों की जानकारी भी आम-तौर से इन्हीं माध्यमों से मिलती है। नेता लोग कोई आन्दोलन भी इन्हीं साधनों से चलाते हैं। प्रचार आज का एक शक्तिशाली साधन माना जाता है। जन साधारण को अभीष्ट दिशा में मोड़ने के लिए विज्ञापनबाज व्यापारियों से लेकर धर्मोपदेशक और राज-नेताओं तक इन्हीं दो साधनों को काम में लाते हैं।
पिछले बहुत दिनों से मानवीय प्रवृत्ति को पतन से उत्थान की ओर मोड़ने के लिए कुछ प्रयत्न छुट-पुट आन्दोलनों के रूप में चलते रहे हैं। उनका थोड़ा बहुत प्रभाव भी देखा है, पर वह था उतना ही नगण्य जिसके आधार पर कोई बड़ी आशा नहीं की जा सकती। कारण यही रहा है कि प्रयत्नकर्ता यह भूलते रहे हैं कि जिस बात की जानकारी न हो उसे लेखनी, वाणी से जताया जा सकता है पर जिसे जानते तो हैं पर मानते नहीं उसे मनवाने के लिए कुछ अधिक ऊंचे एवं अधिक शक्तिशाली माध्यम अपनाने की आवश्यकता है। सर्व साधारण को दया, धर्म, सदाचार, संयम, भक्ति आदि का महत्व महात्म्य मालूम न हो या वे उसे अस्वीकार करते हों ऐसी बात नहीं। वे दूसरों को उपदेश भी इन बातों का देते हैं, पर कठिनाई यह है कि स्वयं उस पर चल नहीं पाते। यह असमर्थता और दुर्बलता उनके शरीर मन आदि की नहीं वरन् अन्तःकरण की हैं, इसलिए उपचार भी उसी दुर्बल अंग का किया जाना चाहिए। गुर्दे की बीमारी पैरों में तेल लगाने से दूर नहीं हो सकती। जो व्यथित अंग है उस तक उपचार का प्रभाव पहुंचे तब कुछ काम चले। लेखनी और वाणी जो घिसे-पिटे शब्दों में पेशेवर लोगों द्वारा प्रस्तुत की जाती है, मस्तिष्क तक एक छोटी लहर पहुंचा कर वायु मंडल में तिरोहित हो जाती है। देखा जाता है कि घिसे-पिटे प्रचारात्मक प्रयत्न मानवीय अन्तःकरण को वासना, तृष्णा के आकर्षणों से विरत कर पवित्रता और परमार्थ की दिव्य-ज्योति उत्पन्न करने में प्रायः असफल ही रहते हैं। हममें से अनेकों ने सद्भावना पूर्वक कितने ही सुधारात्मक प्रयत्न आरम्भ किये हैं पर उनका स्तर उथला था, साधन हलके थे, इसलिए थोड़ी-सी छटा दिखा करके वे और उनका प्रतिफल भी अन्तर्धान होता रहा। समस्त मानव समाज में एक व्यापक और सशक्त हलचल उत्पन्न कर सकने की—पतन के प्रचण्ड प्रवाह को पलट सकने की क्षमता केवल उच्चस्तरीय आध्यात्मिक प्रयोगों से ही होती है और उनका जब कभी भी ठीक तरह प्रयोग हुआ है अभीष्ट परिणाम भी सामने आया है इस स्तर के प्रयोग कभी असफल नहीं हो सकते।
भारत के वर्चस्व का इतिहास उसके आत्म-बल की सफलता का उद्घोष है। चिर अतीत में हमारे महान् ऋषि ही इस देश की महान् परम्पराओं के निर्माता रहे हैं। उनके पास भौतिक साधन कम थे पर आत्मबल इतना प्रचण्ड था कि वे जनसमूह को अपने भावना प्रवाह में एक निर्धारित समय में उसी प्रकार बहा ले चलते थे, जिस प्रकार प्रबल वेग से बहती हुई नदियां तिनकों को अपने साथ बहते चलने के लिए विवश कर देती हैं। कीचड़ में फंसे हाथी को सहस्रों मेंढ़कों की चेष्टा भी उबार नहीं पाती, उसे समर्थ हाथी ही युक्ति पूर्वक मजबूत रस्सों की सहायता से बाहर निकाल पाते हैं। आन्तरिक दुर्बलता का अभाव आत्म-बल सम्पन्न लोगों द्वारा ही पूरा किया जा सकता है। ऋषियों ने यही किया। चूंकि वे स्वयं प्रकाशवान् थे, इसलिए उन्होंने अपने समस्त क्षेत्र को प्रकाशित कर दिया। कहना न होगा कि इस देश के निवासी जिन दिनों आध्यात्मिक मान्यताओं और भावनाओं से प्रभावित थे, उन दिनों इस धरती पर स्वर्ग बिखरा पड़ा था, हर मनुष्य के भीतर देवत्व झांकता था। और उस लाभ की लोभ लालसा से समस्त विश्व के लोग भारतवासियों का मार्ग दर्शन, सहयोग एवं प्रकाश पाने के लिए लालायित रहते थे। इन्हीं विशेषताओं के कारण, भारतीय संस्कृति समस्त विश्व का सर्वोपरि आकर्षण बनी हुई थी।
प्रकाश स्तम्भों के बुझ जाने पर अन्धकार फैल जाना स्वाभाविक है। जैसे-जैसे उच्च आत्म-बल संपन्न हस्तियां घटती गईं वैसे-वैसे जन-मानस की उत्कृष्टता भी गिरती गई। इस गिरावट को ओछे लोग ओछे प्रचारात्मक साधनों से रोक नहीं सकते थे और वे रोक भी नहीं सके। हम अपने लम्बे इतिहास पर दृष्टिपात करते हैं तो उच्च आत्मबल सम्पन्न आत्माओं के अवतरण अवसाद के साथ-साथ जन-मानस का उत्थान पतन भी जुड़ा हुआ देखते हैं। जिन दिनों महापुरुष जन्मे उन दिनों कोई भी युग वर्त रहा हो सतयुग का वातावरण उत्पन्न हुआ है। भगवान् राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, शंकराचार्य गांधी आदि की धारा में कोटि-कोटि लोग प्रभावित और प्रवाहित हुए। समर्थ गुरु रामदास गुरु गोविंदसिंह आदि की प्रेरणा से लोगों ने एक-से-एक बढ़े-चढ़े त्याग, बलिदान प्रस्तुत करने में प्रतिस्पर्धा उपस्थित कर दी। अभी कल परसों गांधी की आंधी में लाखों लोगों ने जिस आदर्शवादिता का परिचय दिया उससे यह मान्यता सार्थक सिद्ध हुई है कि उच्च स्तरीय आत्मबल सम्पन्न आत्माएं ही जन-मानस की दिशा बदल देने में समर्थ हो सकती है। मामूली प्रचार साधन भी उपयोगी तो हैं पर उतने भर से इस दिशा में कोई प्रभावी परिणाम नहीं हो सकता।
भावी नव-निर्माण में अध्यात्म को ही प्रमुख भूमिका सम्पन्न करनी पड़ेगी। प्रभात काल की शुभ सूचना लाने वाली ऊषा के साथ-साथ और प्रयास आरम्भ भी हो गये हैं। श्री रामकृष्ण परमहंस और योगी अरविन्द की तपश्चर्या का यदि कोई रहस्योद्घाटन कर सके तो उसे लगेगा कि पिछली शताब्दी की सारी राजनैतिक और सुधारात्मक चेतनाओं का सूत्र-संचालन इन दो दिव्य-आत्माओं ने किया, कठपुतली कितनी ही पर्दे पर आती जाती रही और उनके विभिन्न अभिनय लोगों में उत्साह उत्पन्न करते रहे पर उनके सूत्र इन आत्म-बल के धनी महा-मानवों द्वारा ही संचालित होते रहे। भारत का हजार वर्ष की गुलामी से मुक्त होना और कतिपय सुधारात्मक चेतनाओं का उद्भव अपने सामने इस शताब्दी की दो महत्वपूर्ण उपलब्धियां हैं। प्रत्यक्ष श्रेय किनको मिला, किनको नहीं मिला, इस विवाद में पड़ने से बच कर भी हमें यह जान ही लेना चाहिये कि इस महान् जागरण के पीछे कुछ विशिष्ट अविदित रहस्यमय आध्यात्मिक शक्तियां भी काम कर रही थीं। आगे जो महान् कार्य फैला पड़ा है, नये युग का जो नया निर्माण होने वाला है उसमें भी अध्यात्म की—अध्यात्म-बल सम्पन्न उच्चस्तरीय महामानवों की प्रधान भूमिका होगी। श्रेय भले ही किन्हीं का इतिहासकार देते रहें।
विश्व का भावी नव-निर्माण-मानवीय उत्कृष्टता अभिवर्धन पर अवलम्बित होगा। इसके लिए प्रेरक केन्द्र कोई भी क्यों न हो, उसे सहस्रों सहयोगियों की आवश्यकता पड़ेगी। वे भले ही ऊंची योग्यताओं के न हों पर आत्मिक उत्कृष्टता की विशेषता तो अनिवार्य रूप से होनी ही चाहिये। इन दिनों इसी उत्पादन को सबसे बड़ा कार्य माना जाना चाहिये।
पूर्व जन्मों की अनुपम आत्मिक सम्पत्ति जिनके पास संग्रहीत है ऐसी कितनी ही आत्मायें इस समय मौजूद हैं। पिछले कुछ समय से अनुपयुक्त परिस्थितियों में पड़े रहने से इन फौलादी तलवारों पर जंग लग गई है। इस जंग को छुड़ाने की प्रक्रिया युग निर्माण योजना के प्रस्तुत कार्यक्रमों के अन्तर्गत चल रही है। आशा करनी चाहिए कि अगले तीन वर्षों में यह प्रयोजन पूर्ण कर लिया जायेगा। इन दिनों जो व्यक्ति बिलकुल साधारण स्तर के दिखाई पड़ते हैं और जिनसे किसी बड़े काम की सम्भावना नहीं की जा सकती, ऐसे कितने ही व्यक्ति असाधारण प्रतिभा और क्षमता लेकर कार्य क्षेत्र में उतरेंगे और नवनिर्माण का महान् कार्य जो आज एक स्वप्न मात्र दिखाई पड़ता है, कल मूर्तिमान सचाई के रूप में प्रस्तुत करते परिलक्षित होंगे।
मनुष्य के आवरण के भीतर प्रसुप्त स्थिति में एक प्रबल देवत्व विद्यमान है। इसे जगाया जा सके तो फिर असम्भव जैसी कोई बात शेष नहीं रहेगी। देवत्व के जागरण का हमारा वर्तमान अभियान संसार का भावनात्मक नवनिर्माण करने में सफल होकर रहेगा, क्योंकि उसका आधार उथले ओछे प्रचार उपकरण नहीं वरन् आत्म-शक्ति के वही प्रयोग होंगे जो समय-समय पर असंख्य बार सफल होते रहे हैं।