Books - सर्वोपयोगी सुलभ साधनाएं
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Language: HINDI
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कारण शरीर में परमेश्वर की प्रतिष्ठापना
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उपनिषद् ने परमात्मा के भावनात्मक स्वरूप का वर्णन करते हुये कहा है—‘‘रसो वै स’’ अर्थात् प्रेम ही परमेश्वर है। आंखों से भगवान् जिस भी रूप में देखा जा सके, अन्तरात्मा में उसकी संवेदना प्रेम रूप में ही पाई जाती है। जिसके अन्तःकरण में—स्वभाव में—व्यवहार में प्रेम भावना का जितना समन्वय है समझना चाहिये कि इस में उतना ही ईश्वरत्व घुला हुआ है।
‘प्रेम’ वह केन्द्र बिन्दु है जिसके इर्द-गिर्द अनेकों आध्यात्मिक सद्गुण विद्यमान रहते हैं। फूल खिलता है तो उस पर अनेक भौंरे, तितली, मधु-मक्खी घुमड़ती दिखाई पड़ती हैं। ‘प्रेम’ तत्व जिसके अन्तःकरण में उगेगा उसमें सौजन्य, सहृदयता, दया, करुणा, सेवा, उदारता, क्षमा, आत्मीयता आदि अनेकों सत्प्रवृत्तियां अनायास ही दृष्टिगोचर होंगी। प्रेम-पात्र के प्रति अपार सहानुभूति होती है। उसे अधिक सुखी और समुन्नत बनाने के लिये अन्तःकरण में निरन्तर हिलोरें उठती रहती हैं। जो अपने पास है उसे प्रेमी पर उत्सर्ग करने की अभिलाषा रहती है। इस प्रकार आकांक्षा, अभिलाषा के होने पर स्वभावतः प्रिय-पात्र के प्रति अधिक सज्जनता का व्यवहार बन पड़ता है। और प्रेम किसी व्यक्ति विशेष तक सीमित न रह कर यदि विश्व-मानव के प्रति—जनता जनार्दन के प्रति—ध्यापक हो गया हो तो ऐसा व्यक्ति सन्त, ऋषि, सज्जन, देव से कम कुछ हो ही नहीं सकता। मानवोचित—देवोपम समस्त सद्गुण उसमें सुविकसित पाये जायेंगे। जिसमें ऐसी महानता हो उसे इस धरती पर ईश्वर का प्रतीक-प्रतिनिधि ही कहा जायेगा।
प्रेमी का दाम्पत्ति-जीवन स्वर्ग जैसा पाया जायेगा। दूसरी ओर से समुचित प्रत्युत्तर न मिले तो वह अकेला अपने ही सद्व्यवहार से सन्तोष और शांति का आधार बनाये रह सकता है। इसी प्रकार कहीं भी—किसी भी परिस्थिति में—कैसे भी लोगों के बीच-प्रेमी स्वभाव का व्यक्ति सौजन्य पूर्ण वातावरण बनाए रह सकता है।
नारकीय दुष्टतायें, दुष्प्रवृत्तियां उन हृदयों में उगती हैं जो रूखे, नीरस, शुष्क, कठोर, निर्दय प्रकृति के हैं। उनमें एक-एक करके समस्त दानवी दुर्गुण एकत्रित होते चले जायेंगे। रंग का गोरा और रूप का सुन्दर होते हुए भी ऐसा मनुष्य भयावह नर-पिशाच की तरह अपना आतंक उत्पन्न करके वातावरण को विक्षुब्ध बनाए रहता होगा। शोक सन्ताप, क्लेश कलह, द्वेष दुर्भाव ही उसके चारों और उमड़ते घुमड़ते पायें जायेंगे।
कारण शरीर की उत्कृष्टता प्रेम भावना की अभिवृद्धि पर निर्भर है। ‘‘भक्ति के वश में भगवान्’’ के होने की उक्ति प्रसिद्ध है।
भक्ति का अर्थ प्रेम ही तो है। जो प्रेमी है वही भक्त है। जिसके अन्तःकरण में जितनी प्रेम भावनायें उमड़ती हैं ईश्वर उसके उतना ही समीप खिंचता चला आता है। सच तो यह है कि प्रेम ही परमेश्वर है। यह उदात्त भावना जहां भी निवास करती है वहां अमृत का निर्झर झरता है और उसकी छाया जिस पर पड़ जाती है वह अपने आपको धन्य अनुभव करता है।
कारण शरीर में देवत्व का अभिवर्धन करने के लिए हमें अपनी उपासना में प्रेम-भावना का समावेश करना चाहिए। सामान्य तथा गायत्री उपासना की शिक्षा दी गई है। आत्मा की परिपुष्टि के लिये विभिन्न अन्यान्य विधियां एवं पद्धतियां भी प्रयुक्त की जाती हैं। अपने-अपने स्थान पर यह सभी उपयुक्त हैं। आरम्भ में नाम जप, कीर्तन, पूजन, हवन, श्रृंगार, उपवास, भोग प्रसाद आदि के माहात्म्य से यह पूजा पद्धतियां की जाती हैं पर इनका क्रमिक विकास प्रेम भावनाओं की अभिवृद्धि के साथ-साथ ही होता है। मीरा, शबरी, गोपी, सूर, तुलसी आदि की प्रखर भक्ति में उनकी प्रेम भावना ही प्रधान आधार थी।
मन की एकाग्रता प्रेम-भावना की मात्रा पर ही निर्भर है। मन प्रेम का गुलाम है। जिन वस्तुओं से हमें प्रेम होता है उन्हीं में मन रमा रहता है। ध्यान उन्हीं का रहता है और सुख उन्हीं के चिन्तन में मिलता है। अक्सर भजन में चित्त न लगने की—मन के अन्यत्र भाग जाने की शिकायत की जाती रहती है। इसका कारण एक ही है—सांसारिक पदार्थों से वास्तविक प्रेम और ईश्वर से औपचारिक बांध-बधाव। जिससे वास्तविक प्रेम हो मन उसी में रमेगा। जो पदार्थ, प्राणी अथवा दृश्य प्रिय लगते हैं उन्हीं में भ्रमण करने के लिये मन भाग जाता है। न तो हम ईश्वर के वास्तविक स्वरूप को जानते हैं और न उसके प्रति प्रेम भावना—आत्मीयता—जैसी कोई वस्तु अपने पास है। ज्यों-त्यों करके पूजा की लकीर पीटती रहती है। ऐसी दशा में मन लगने की आशा भी कैसे की जा सकती है? और मन न लगने पर उपासना का उच्च-स्तरीय प्रतिफल कहां?
उच्च-स्तरीय उपासना में प्रेम भावना का समावेश अनिवार्य रूप से आवश्यक है। परिजनों को इसके लिये बहुत समय से प्रेरणा दी जाती रही है। गायत्री माता की गोद में उसके अबोध शिशु की तरह क्रीड़ा करने, पय पान करने का ध्यान इन प्रयोजनों की पूर्ति के लिये बहुत ही उपयुक्त है। रुचि भिन्नता से जिनको वह ध्यान ठीक तरह न जम पाता हो उनके लिये दो ध्यान और भी हैं जो साधक के अन्तःकरण में तत्काल पुलकन उत्पन्न करते हैं।
(1) दो बालक समान वय तथा समान स्थिति के सहज स्नेह से वशीभूत होकर गले मिलते हैं, परस्पर एक दूसरे से लिपटते हैं, उसी प्रकार जीव और ब्रह्म के अबोध आलिंगन का ध्यान करना चाहिये। आत्मा और परमात्मा अपनी दूरी—पृथकता—भिन्नता दूर कर एक दूसरे के समीप, अति समीप आकर अभिन्नता की स्थिति में पहुंचने का प्रयत्न करते हैं। द्वैत की स्थिति उत्पन्न करते हैं।
राम लक्ष्मण, राम भरत अथवा कृष्ण बलराम के बालकपन का परस्पर प्रेम मिलन चित्र इस प्रयोजन के लिये उपयोगी हो सकता है। अपनी वैसी ही स्थिति अनुभव करनी चाहिए। जीव और परमात्मा के बीच बहुत बड़ा अन्तर होना, छोटे-बड़े का भाव रहना आत्मीयता एवं एकता में बाधक होता है। समानता में स्नेह का आदान-प्रदान अधिक सुविधा से होता है। पति-पत्नी के प्रेम में जो उभार रहता है उसमें यह समानता ही कारण है। मीरा के योग की यही विशेषता थी। सखी सम्प्रदाय तथा गोपी प्रेम के वर्णन में—रामलीला में इसी आत्मा और परमात्मा के दम्पत्ति भाव से मिलन का संकेत है। छोटे बालक के रूप में भी दोनों रह कर समानता के आनन्द ले सकते हैं।
आत्मा अपनी समस्त श्रद्धा और समस्त उपलब्धियां परमात्मा को समर्पण करती है और बदले में परमात्मा उसे ज्ञान, विवेक, प्रकाश, आनन्द और परमपद प्रदान करता है। इसे पाकर अन्तःकरण उल्लास, आनन्द और सन्तोष से परितृप्त होकर अमृतत्व का रसास्वादन करता है।
(2) दूसरा ध्यान दीपक पर पतंगे के जलने की तरह आत्मा का परमात्मा में प्रेम विभोर होकर आत्म-समर्पण करने का है। जीव और ब्रह्म के बीच माया ही प्रधान बंधन है। वही दोनों को एक दूसरे से पृथक किए हुये हैं। अहंता, स्वार्थपरता, ममता, संकीर्णता का कलेवर ही जीव को अपनी पृथकता एवं सीमा बांधता है। उसी की ममता में वह ईश्वर को भूलता और आदेशों की उपेक्षा करता है। इस अहंता कलेवर को यदि नष्ट कर दिया जाय तो जीव और ब्रह्म की एकता असंदिग्ध है। ईश्वरीय प्रेम में प्रधान बाधक यह ममता अहंता ही है।
ब्रह्म को दीप ज्योति का और अहंता कलेवर युक्त जीव को पतंगा का प्रतीक माना गया है। पतंगा अपने कलेवर को प्रिय पात्र दीपक में एकीभूत होने के लिये परित्याग करता है। आत्म-समर्पण करता है। कलेवर का उत्सर्ग करता है। अपनी सम्पदा विभूति एवं प्रतिभा को प्रभु की प्रसन्नता के लिये सर्वमेध यज्ञकर्ता की तरह होम देता है। विश्व-मानव की पूजा प्रसन्नता के लिये साधक का परिपूर्ण समर्पण यही आत्म-यज्ञ है। इसमें अपने को होमने वाला नरमेध करने वाला—ईश्वरीय सान्निध्य की सर्वोच्च गति को पाता है।
जिस माया मग्नता के कारण ईश्वर और जीव में विरोध था उसका समर्पण कर देने पर ईश्वरीय अनन्त विभूतियों का अधिकारी साधक बन जाता है और उसे प्रभु का असीम प्यार प्राप्त होता है। बिछुड़न की वेदना दूर होती है और दोनों एक दूसरे के गले मिल कर अनिर्वचनीय आनन्द का रसास्वादन करते हैं।
यह दोनों ही ध्यान समानता और समर्पण की भावनाओं से ओत-प्रोत होने के कारण बड़े सरल, आकर्षक एवं उल्लासपूर्ण हैं। मन आसानी से लगता है और ध्यान में क्रमशः तन्मयता बढ़ती जाती है। इन ध्यानों में याचना की नहीं आत्मदान की भावना है। उच्चस्तरीय साधना का यही आधार भी है। निम्न स्तर की प्राथमिक उपासना में ईश्वर से सांसारिक लाभ अथवा आत्मिक अनुदान मांगे जाते हैं, पर जैसे-जैसे स्तर ऊंचा होता जाता है, साधक मांगने की तुच्छता छोड़ समर्पण की महानता अपनाने के लिए व्याकुल होता है। ध्यान अथवा भावना तक ही उसकी यह साधना सीमित नहीं रहती वरन् वस्तुतः वह विश्व के लिये, लोग-मंगल के लिये बड़े से बड़ा अनुदान देकर अपनी गणना बड़े-से-बड़े भक्तों में कराने का आत्म-सन्तोष उपलब्ध करता है। उसका व्यवहार अपने जीवन, परिवार एवं समाज के प्रति इतना सज्जनतापूर्ण हो जाता है कि प्रतिक्रिया उसे दैवी वरदान की तरह चारों ओर से पुष्प वर्षा करती हुई परिलक्षित होती है। स्वर्ग सुख यही तो है। अहंता और ममता, वासना और तृष्णा के बन्धनों से मुक्त जीव को मरने पर मुक्ति मिलने की प्रतिक्षा नहीं करनी पड़ती वह जीवित रहते हुये भी जीवन मुक्त होता है।