Books - सर्वोपयोगी सुलभ साधनाएं
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Language: HINDI
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कुछ प्रेरक प्रार्थनायें
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प्रभु जीवन ज्योति जगा दें !
घट-घट वासी ! सभी घटों में, निर्मल गंगाजल हो ।
हे बलशाली ! तन तन में, प्रतिभाषित तेरा वल हो ।
अहे सच्चिदानंद ! बहे आनन्दमयी निर्झरिणी—
नन्दनवन सा शीतल इस जलती जगती का तल हो ।।
सत् की सुगन्ध फैला दें ।
प्रभु जीवन ज्योति जगा दें ।।
विश्वे देवा ! अखिल विश्व यह देवों का ही घर हो ।
पूषन् ! इस पृथ्वी के ऊपर असुर न कोई नर हो ।।
इन्द्र ! इन्द्रियों की गुलाम यह आत्मा नहीं कहावे—
प्रभुका प्यारा मानव, निर्मल, शुद्ध स्वतन्त्र अमर हो ।।
मन का तम तोम भगा दें ।
प्रभु जीवन ज्योति जगा दें ।।
इस जग में सुख शान्ति विराजे, कल्मष कलह नसावें ।
दूषित दूषण भस्मसात हों, पाप ताप मिट जावें ।।
सत्य, अहिंसा, प्रेम पुण्य, जन-जन के मन मन में हो ।
विमल ‘‘अखण्ड-ज्योति’’ के नीचे सब सच्चा पथ पावें ।।
भूतल पर स्वर्ग बसादे ।
प्रभु जीवन ज्योति जगादे ।।
—0—
ईश्वर की खोज !
मैं ढूंढ़ता तुझे था जब कुंज और वन में ।
तू खोजता मुझे था तब दीन के वतन में ।।
तू आह वन किसी को मुझको पुकारता था—
मैं था तुझे बुलाता संगीत में भेजन में ।।1।।
मेरे लिये खड़ा था दुखियों के द्वार पर तू
मैं बाट जोहता था तेरी किसी चमन में ।
बन कर किसी के आंसू मेरे लिए बहा तू—
आंखें लगी थीं मेरी तब याद के बदन में ।।2।।
बाजे बजा बजा के मैं था तुझे रिझाता—
तब तू लगा हुआ था पतितों के संगठन में ।
मैं था विरक्त तुझसे जग की अनित्यता पर-
उत्थान भर रहा था तब तू किसी पतन में ।।3।।
बेबस गिरे हुओं के तू बीच में खड़ा था—
मैं स्वर्ग देखता था झुकता कहां चरन में ।
तूने दिये अनेकों अवसर न मिल सका मैं—
तू कर्म में मगन था मैं व्यस्त था कथन में ।।4।।
हरिचन्द और ध्रुव ने कुछ और ही बताया—
मैं तो समझ रहा था तेरा प्रताप धन में ।
मैं सोचता तुझे था रावण की लालसा में—
पर था दधीचि के तू परमार्थ-रूप तन में ।।5।।
—0—
जगदीश ज्ञानदाता
जगदीश ज्ञान दाता सुख मूल शोकहारी ।
भगवन् ! तुम्हीं सदा हो निष्पक्ष न्यायकारी ।
सब काल सर्व ज्ञाता सविता पिता विधाता ।
सब में रहमे हुए हो विश्व के बिहारी ।।
कर दो बलिष्ठ आत्मा, घबरायें न दुःखों से ।
कठिनाइयों का जिससे तर जायें सिन्धु भारी ।।
निश्चय दया करोगे, हम मांगते यही हैं।
हमको मिले स्वयम् ही, उठने की शक्ति सारी ।।
—0—
विधाता तू हमारा है
विधाता तू हमारा है, तू ही विज्ञान दाता है ।
बिना तेरी दया कोई, नहीं आनन्द पाता है ।।
तितिक्षा को कसौटी से, जिसे तू जांच लेता है ।
उसी विद्याधिकारी को, अविद्या से छुड़ाता है ।।
सताता जो न औरों को, न धोखा आप खाता है ।
वही सद्भक्त है तेरा, सदाचारी कहाता है ।।
सदा जो न्याय का प्यारा, प्रजा को दान देता है ।
महाराजा ! उसी को तू बड़ा राजा बनाता है ।।
तजे जो धर्म को, धारा कुकर्मों को बहाता है ।
न ऐसे नीच पापी को कभी ऊंचा चढ़ाता है ।।
स्वयंभू शंकरानन्दी तुझे जो जान लेता है ।
वही कैवल्य सत्ता की महत्ता में समाता है ।।
—0—
भक्ति की झंकार
भक्ति की झंकार उर के तारों में कर्त्तार भर दो ।।
लौट जाए स्वार्थ, कटुता, द्वेष, दम्भ निराश होकर ।
शून्य मेरे मन भवन में देव ! इतना प्यार भर दो ।।
बात जो कह दूं, हृदय में वो उतर जाये सभी के ।
इस निरस मेरी गिरा में वह प्रभाव अपार भर दो ।।
कृष्ण के सदृश सुदामा प्रेमियों के पांव धोने ।
नयन में मेरे तरंगित अश्रु पारावार भर दो ।।
पीड़ितों को दूं सहारा और गिरतों को उठा लूं ।
बाहुओं में शक्ति ऐसी ईश सर्वाधार भर दो ।।
रंग झूठे सब जगत के ये ‘‘प्रकाश’’ विचार देखा ।
क्षुद्र जीवन में सुघड़ निज रंग परमोदार भर दो ।।
—0—
कामना
न मैं धान धरती न धन चाहता हूं ।
कृपा का तेरी एक कण चाहता हूं ।।
रहे नाम तेरा वो चाहूं मैं रसना ।
सुने यश तेरा वह श्रवण चाहता हूं ।।1
विमल ज्ञान धारा से मस्तिष्क उर्बर ।
व श्रद्धा से भरपूर मन चाहता हूं ।।2
करे दिव्य दर्शन तेरा जो निरन्तर ।
वही भाग्यशाली नयन चाहता हूं ।।3
नहीं चाहता है मुझे स्वर्ग छवि की ।
मैं केवल तुम्हें प्राण धन ! चाहता हूं ।।4
प्रकाश आत्मा में अलौकिक तेरा है ।
परम ज्योति प्रत्येक क्षण चाहता हूं ।।5
—0—
दे विभो ! वरदान ऐसा
दे प्रभो वरदान ऐसा दे विभो वरदान ऐसा ।
भूल जाऊं भेद सब, अपना पराया मान तैसा ।।
मुक्त होऊं बन्धनों से मोह माया पाश टूटे ।
स्वार्थ, ईर्षा, द्वेष, आदिक दुर्गुणों का संग छूटे ।।
प्रेम मानस में भरा हो, हो हृदय में शान्ति छायी ।
देखता होऊं जिधर मैं, दे उधर तू ही दिखायी ।।
नष्ट हो सब भिन्नता, फिर बैर और विरोध कैसा ।
दे प्रभो वरदान ऐसा, दे विभो ! वरदान ऐसा ।।
ज्ञान के आलोक से उज्ज्वल बने यह चित्त मेरा ।
लुप्त हो अज्ञान का, अविचार का छाया अंधेरा ।।
हे प्रभो परमार्थ के शुभ कार्य में रुचि नित्य मेरी ।
दीन दुखियों की कुटी में ही मिले अनुभूति तेरी ।।
दूसरों के दुःख को समझूं सदा मैं आप जैसा ।
दे प्रभो ! वरदान ऐसा दे विभो वरदान ऐसा ।।
हे अभय अविवेक तज शुचि सत्य पथ गामी बनूं मैं ।
आपदाओं से भला क्या, काल से भी न डरूं मैं ।।
सत्य को ही धर्म मानूं, सत्य को ही साधना मैं ।
सत्य के ही रूप में तेरी करूं आराधना मैं ।।
भूल जाऊं भेद सब अपना पराया मान तैसा ।
दे प्रभो ! वरदान ऐसा दे विभो ! वरदान ऐसा ।।
—0—
वह शक्ति हमें दो दयानिधे !
वह शक्ति हमें दो दयानिधे, कर्तव्य मार्ग, पर डट जावें ।
पर सेवा पर उपकार में हम, निज जीवन सफल बना जावें ।।
हम दीन दुःखी निबलों विकलों, के सेवक बन सन्ताप हरें ।
जो हों भूले भटके बिछुड़े, उनको तारें खुद तर जावें ।।
छल, छिद, द्वेष, पाखण्ड झूंठ, अन्याय से निशदिन दूर रहें ।
जीवन हो शुद्ध सरल अपना शुचि प्रेम सुधा रस बरसावें ।
निज आन कान मर्यादा का, प्रभु ध्यान रहे अभिमान रहे ।।
जिस देश जाति में जन्म लिया, बलिदान उसी पर हो जावें ।
—0—
प्रातःकाल की प्रार्थना
कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूं अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तब मैं नियुक्त होता हूं आज ।।
अन्तर में स्थित रह मेरी बागडोर पकड़े रहना ।
निपट निरंकुश चंचल मन को सावधान करते रहना ।।
अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशंकित होवे मन ।
पाप वासना उठते ही हो, नाश लाज से वह जल भुन ।।
जीवों का कलरव जो दिन भर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुनमान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ।।
तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावना से अन्तर भर मिलूं सभी से तुझे निहार ।।
प्रतिपल निज इन्द्रिय समूह से जो कुछ भी आचार करूं ।
केवल तुझे रिझाने, को बस तेरा ही व्यवहार करूं ।।
घट-घट वासी ! सभी घटों में, निर्मल गंगाजल हो ।
हे बलशाली ! तन तन में, प्रतिभाषित तेरा वल हो ।
अहे सच्चिदानंद ! बहे आनन्दमयी निर्झरिणी—
नन्दनवन सा शीतल इस जलती जगती का तल हो ।।
सत् की सुगन्ध फैला दें ।
प्रभु जीवन ज्योति जगा दें ।।
विश्वे देवा ! अखिल विश्व यह देवों का ही घर हो ।
पूषन् ! इस पृथ्वी के ऊपर असुर न कोई नर हो ।।
इन्द्र ! इन्द्रियों की गुलाम यह आत्मा नहीं कहावे—
प्रभुका प्यारा मानव, निर्मल, शुद्ध स्वतन्त्र अमर हो ।।
मन का तम तोम भगा दें ।
प्रभु जीवन ज्योति जगा दें ।।
इस जग में सुख शान्ति विराजे, कल्मष कलह नसावें ।
दूषित दूषण भस्मसात हों, पाप ताप मिट जावें ।।
सत्य, अहिंसा, प्रेम पुण्य, जन-जन के मन मन में हो ।
विमल ‘‘अखण्ड-ज्योति’’ के नीचे सब सच्चा पथ पावें ।।
भूतल पर स्वर्ग बसादे ।
प्रभु जीवन ज्योति जगादे ।।
—0—
ईश्वर की खोज !
मैं ढूंढ़ता तुझे था जब कुंज और वन में ।
तू खोजता मुझे था तब दीन के वतन में ।।
तू आह वन किसी को मुझको पुकारता था—
मैं था तुझे बुलाता संगीत में भेजन में ।।1।।
मेरे लिये खड़ा था दुखियों के द्वार पर तू
मैं बाट जोहता था तेरी किसी चमन में ।
बन कर किसी के आंसू मेरे लिए बहा तू—
आंखें लगी थीं मेरी तब याद के बदन में ।।2।।
बाजे बजा बजा के मैं था तुझे रिझाता—
तब तू लगा हुआ था पतितों के संगठन में ।
मैं था विरक्त तुझसे जग की अनित्यता पर-
उत्थान भर रहा था तब तू किसी पतन में ।।3।।
बेबस गिरे हुओं के तू बीच में खड़ा था—
मैं स्वर्ग देखता था झुकता कहां चरन में ।
तूने दिये अनेकों अवसर न मिल सका मैं—
तू कर्म में मगन था मैं व्यस्त था कथन में ।।4।।
हरिचन्द और ध्रुव ने कुछ और ही बताया—
मैं तो समझ रहा था तेरा प्रताप धन में ।
मैं सोचता तुझे था रावण की लालसा में—
पर था दधीचि के तू परमार्थ-रूप तन में ।।5।।
—0—
जगदीश ज्ञानदाता
जगदीश ज्ञान दाता सुख मूल शोकहारी ।
भगवन् ! तुम्हीं सदा हो निष्पक्ष न्यायकारी ।
सब काल सर्व ज्ञाता सविता पिता विधाता ।
सब में रहमे हुए हो विश्व के बिहारी ।।
कर दो बलिष्ठ आत्मा, घबरायें न दुःखों से ।
कठिनाइयों का जिससे तर जायें सिन्धु भारी ।।
निश्चय दया करोगे, हम मांगते यही हैं।
हमको मिले स्वयम् ही, उठने की शक्ति सारी ।।
—0—
विधाता तू हमारा है
विधाता तू हमारा है, तू ही विज्ञान दाता है ।
बिना तेरी दया कोई, नहीं आनन्द पाता है ।।
तितिक्षा को कसौटी से, जिसे तू जांच लेता है ।
उसी विद्याधिकारी को, अविद्या से छुड़ाता है ।।
सताता जो न औरों को, न धोखा आप खाता है ।
वही सद्भक्त है तेरा, सदाचारी कहाता है ।।
सदा जो न्याय का प्यारा, प्रजा को दान देता है ।
महाराजा ! उसी को तू बड़ा राजा बनाता है ।।
तजे जो धर्म को, धारा कुकर्मों को बहाता है ।
न ऐसे नीच पापी को कभी ऊंचा चढ़ाता है ।।
स्वयंभू शंकरानन्दी तुझे जो जान लेता है ।
वही कैवल्य सत्ता की महत्ता में समाता है ।।
—0—
भक्ति की झंकार
भक्ति की झंकार उर के तारों में कर्त्तार भर दो ।।
लौट जाए स्वार्थ, कटुता, द्वेष, दम्भ निराश होकर ।
शून्य मेरे मन भवन में देव ! इतना प्यार भर दो ।।
बात जो कह दूं, हृदय में वो उतर जाये सभी के ।
इस निरस मेरी गिरा में वह प्रभाव अपार भर दो ।।
कृष्ण के सदृश सुदामा प्रेमियों के पांव धोने ।
नयन में मेरे तरंगित अश्रु पारावार भर दो ।।
पीड़ितों को दूं सहारा और गिरतों को उठा लूं ।
बाहुओं में शक्ति ऐसी ईश सर्वाधार भर दो ।।
रंग झूठे सब जगत के ये ‘‘प्रकाश’’ विचार देखा ।
क्षुद्र जीवन में सुघड़ निज रंग परमोदार भर दो ।।
—0—
कामना
न मैं धान धरती न धन चाहता हूं ।
कृपा का तेरी एक कण चाहता हूं ।।
रहे नाम तेरा वो चाहूं मैं रसना ।
सुने यश तेरा वह श्रवण चाहता हूं ।।1
विमल ज्ञान धारा से मस्तिष्क उर्बर ।
व श्रद्धा से भरपूर मन चाहता हूं ।।2
करे दिव्य दर्शन तेरा जो निरन्तर ।
वही भाग्यशाली नयन चाहता हूं ।।3
नहीं चाहता है मुझे स्वर्ग छवि की ।
मैं केवल तुम्हें प्राण धन ! चाहता हूं ।।4
प्रकाश आत्मा में अलौकिक तेरा है ।
परम ज्योति प्रत्येक क्षण चाहता हूं ।।5
—0—
दे विभो ! वरदान ऐसा
दे प्रभो वरदान ऐसा दे विभो वरदान ऐसा ।
भूल जाऊं भेद सब, अपना पराया मान तैसा ।।
मुक्त होऊं बन्धनों से मोह माया पाश टूटे ।
स्वार्थ, ईर्षा, द्वेष, आदिक दुर्गुणों का संग छूटे ।।
प्रेम मानस में भरा हो, हो हृदय में शान्ति छायी ।
देखता होऊं जिधर मैं, दे उधर तू ही दिखायी ।।
नष्ट हो सब भिन्नता, फिर बैर और विरोध कैसा ।
दे प्रभो वरदान ऐसा, दे विभो ! वरदान ऐसा ।।
ज्ञान के आलोक से उज्ज्वल बने यह चित्त मेरा ।
लुप्त हो अज्ञान का, अविचार का छाया अंधेरा ।।
हे प्रभो परमार्थ के शुभ कार्य में रुचि नित्य मेरी ।
दीन दुखियों की कुटी में ही मिले अनुभूति तेरी ।।
दूसरों के दुःख को समझूं सदा मैं आप जैसा ।
दे प्रभो ! वरदान ऐसा दे विभो वरदान ऐसा ।।
हे अभय अविवेक तज शुचि सत्य पथ गामी बनूं मैं ।
आपदाओं से भला क्या, काल से भी न डरूं मैं ।।
सत्य को ही धर्म मानूं, सत्य को ही साधना मैं ।
सत्य के ही रूप में तेरी करूं आराधना मैं ।।
भूल जाऊं भेद सब अपना पराया मान तैसा ।
दे प्रभो ! वरदान ऐसा दे विभो ! वरदान ऐसा ।।
—0—
वह शक्ति हमें दो दयानिधे !
वह शक्ति हमें दो दयानिधे, कर्तव्य मार्ग, पर डट जावें ।
पर सेवा पर उपकार में हम, निज जीवन सफल बना जावें ।।
हम दीन दुःखी निबलों विकलों, के सेवक बन सन्ताप हरें ।
जो हों भूले भटके बिछुड़े, उनको तारें खुद तर जावें ।।
छल, छिद, द्वेष, पाखण्ड झूंठ, अन्याय से निशदिन दूर रहें ।
जीवन हो शुद्ध सरल अपना शुचि प्रेम सुधा रस बरसावें ।
निज आन कान मर्यादा का, प्रभु ध्यान रहे अभिमान रहे ।।
जिस देश जाति में जन्म लिया, बलिदान उसी पर हो जावें ।
—0—
प्रातःकाल की प्रार्थना
कर प्रणाम तेरे चरणों में लगता हूं अब तेरे काज ।
पालन करने को आज्ञा तब मैं नियुक्त होता हूं आज ।।
अन्तर में स्थित रह मेरी बागडोर पकड़े रहना ।
निपट निरंकुश चंचल मन को सावधान करते रहना ।।
अन्तर्यामी को अन्तः स्थित देख सशंकित होवे मन ।
पाप वासना उठते ही हो, नाश लाज से वह जल भुन ।।
जीवों का कलरव जो दिन भर सुनने में मेरे आवे ।
तेरा ही गुनमान जान मन प्रमुदित हो अति सुख पावे ।।
तू ही है सर्वत्र व्याप्त हरि ! तुझमें यह सारा संसार ।
इसी भावना से अन्तर भर मिलूं सभी से तुझे निहार ।।
प्रतिपल निज इन्द्रिय समूह से जो कुछ भी आचार करूं ।
केवल तुझे रिझाने, को बस तेरा ही व्यवहार करूं ।।