Books - सर्वोपयोगी सुलभ साधनाएं
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Language: HINDI
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देवत्व के जागरण की सौम्य साधना पद्धति
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जड़ और चेतन से तत्वों के सम्मिश्रण से बने मनुष्य की स्थूल शारीरिक व्यवस्था तो एक सीमा तक लोगों ने जानी है और आहार विहार की अनुकूलता उपलब्ध कर स्वस्थ एवं सुन्दर बनने का यथा सम्भव प्रयत्न किया है, किन्तु चेतन तत्व की, सूक्ष्म और कारण शरीर की व्यवस्था कैसे रखी जाय इसे कोई विरले ही जानते हैं। इस ज्ञान के अभाव में मानव जीवन के द्वारा उपलब्ध हो सकने वाली महत्वपूर्ण लाभों से हम प्रायः वंचित ही रह जाते हैं।
मानुषी अस्तित्व को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। (1) स्थूल, (2) सूक्ष्म, (3) कारण। अध्यात्म शास्त्र में मनुष्य के यह तीन शरीर बताये गये हैं। जिस प्रकार केले के तने को चीरने पर उसमें एक के भीतर एक पर्त निकलते हैं, प्याज के छिलके उतारते चलने पर उसके भीतर और छिलके निकलते हैं, उसी प्रकार आंखों से दीख पड़ने वाले रक्त मांस से बने इस स्थूल शरीर के भीतर एक सूक्ष्म शरीर है, इसके भी भीतर एक कारण शरीर का अस्तित्व विद्यमान है। जिस प्रकार हम शरीर के ऊपर कर्त्ता, उसके ऊपर जैकेट पहनते हैं उसी प्रकार आत्मा ने भी अपने ऊपर उपरोक्त तीन आवरण धारण किये हुए हैं।
स्थूल शरीर वह है जिससे हम खाने, सोने, चलने बोलने आदि की क्रियाएं, सम्पन्न करते हैं, जो मां के पेट से आरम्भ होता और श्मशान में समाप्त हो जाता है। सांसारिक जीवन इसी से चलता है। रोटी कमाने, शुभ, अशुभ कर्म करने, इन्द्रिय सुख भोगने आदि प्रयोजन इसी शरीर से पूरे होते हैं। इसके सम्बन्ध में बहुत कुछ जानकारियां प्राप्त भी कर ली गई हैं।
इसके भीतर सूक्ष्म शरीर है। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार इन चार वर्गों में विभाजित अन्तःकरण मनुष्य का एक प्रकार से सूक्ष्म शरीर ही है। विचारणा, प्रतिभा, स्फूर्ति, आकांक्षा, अभिरुचि, क्रीड़ा जैसी मानसिक गतिविधियां इसी शरीर में सन्निहित हैं। यों यह आवरण स्थूल शरीर में दूध में घुले हुए घी की तरह समाविष्ट हैं, फिर भी इसका प्रधान स्थल मस्तिष्क माना गया है।
तीसरा कारण शरीर आत्मा के अति समीप होने के कारण उच्च-स्तरीय दिव्य भावनाओं का आधार है। उसमें केवल भावनायें संचारित होती हैं। जिनका आन्तरिक अधःपतन अत्यधिक हो चुका है, उनको छोड़ कर शेष सभी के कारण शरीर में दया, प्रेम, करुणा, सेवा, संवेदना, धर्म, कर्तव्य, संयम और उच्च भाव उठते रहते हैं। जिनने दुष्टता में परिपक्वता प्राप्त करली है, उन्हीं का कारण शरीर नर पिशाचों जैसी—‘कनपटी मार बाबा’ जैसी-कुचेष्टाएं करने पर सहमत हो जाता है।
तीन शरीरों का संक्षिप्त परिचय यहां इसलिये दिया गया है कि मानव जीवन में देवत्व की सर्वांगीण प्रतिष्ठापना का वैज्ञानिक स्वरूप समझने से हमें सुविधा हो। युग परिवर्तन की नव निर्माण प्रक्रिया उन व्यक्तियों के द्वारा सम्पन्न होगी जिनमें देवत्व का प्रकाश समुचित मात्रा में प्रखर हो चला है। लेखक, वक्ता, नेता, अभिनेता, कलाकार, आन्दोलनकारी, प्रतिभावान् व्यक्ति अपने साधनों के आधार पर कुछ स्वयं के लिये चमत्कार जैसा जादू खड़ा कर सकते हैं पर उसमें स्थिरता तनिक भी न होगी। बालू की दीवार की तरह उनकी कृतियां देखते-देखते धूल धूसरित हो जाती हैं। और जिसका आज बहुत जयघोष था, कल उसके अस्तित्व का पता लगाना भी कठिन हो जाता है। स्थिरता तो सचाई और आत्मबल की गहराई में सन्निहित है। युग निर्माण जैसे महान् कार्य ठोस आधार की शिला पर ही प्रतिष्ठापित हो सकते हैं। उनका भारी उत्तरदायित्व वहन कर सकने की क्षमता केवल देवत्व सम्पन्न महामानवों में ही मिलेगी। अतएव नवनिर्माण के कर्णधारों, सूत्र संचालकों, सेनानायकों एवं दिग्पालों का देवत्व के प्रकाश से प्रकाशवान बनना या बनाया जाना आवश्यक है।
स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों की चर्चा इसलिये करनी पड़ी कि इन तीनों को समान रूप से देवत्व सम्पन्न बनाने से ही समग्र ‘देवत्व’ की आवश्यकता पूरी होती है। इन तीनों को ठीक तरह साधने-सम्भालने का नाम ‘साधना’ है। साधना से ही मनुष्य में देवत्व का उदय होता है। यहां हमें यह भी जान लेना चाहिए कि उपासना प्राथमिक शिक्षा है और साधना उच्चस्तरीय प्रशिक्षण। भजन, पूजन, जप ध्यान, व्रत, उपवास, कथा कीर्तन आदि कर्म-काण्डपरक उपासना से मन की प्रवृत्ति माया से ब्रह्म की ओर मुड़ जाती है। ईश्वर के स्मरण और सान्निध्य की उपयोगिता प्रतीत होती है। आत्म-कल्याण का मार्ग मिलता है। इससे आगे का प्रयोजन साधना के द्वारा पूर्ण होता है। मनोवृत्तियों को वासना और तृष्णा से विरत कर संयम और परमार्थ में प्रवृत्त करना साधना का उद्देश्य है। इस मार्ग पर जितना आगे बढ़ा जाता है उतनी ही आन्तरिक पवित्रता निखरती है और ईश्वरीय प्रकाश का दिव्य दर्शन होता है।
मानवीय व्यक्तित्व में देवत्व का अधिकाधिक समावेश करने के लिए हर श्रेयार्थी को जीवन साधना का अवलम्बन लेना पड़ता है। साधना के दो वर्ग हैं, (1) एक विशिष्ट लोगों की—विशिष्ट प्रयोजन के लिए विनिर्मित विशिष्ट प्रक्रिया, (2) सर्व साधारण के लिए—सहज सुगम सौम्य पद्धति। विशिष्ट प्रक्रिया योगी, यती, एकान्तवासी, सांसारिक उत्तरदायित्वों से निवृत्त असाधारण मनोबल सम्पन्न, कठोर तपश्चर्या के लिए समुद्यत लोगों के लिए है। हठ योग, षट्चक्र वेधन, कुंडलिनी जागरण, लययोग, ऋजु योग, तन्त्र योग, प्राण योग आदि साधनाएं इसी प्रकार की हैं। इनसे ऐसी चमत्कारी ऋद्धि सिद्धियां प्राप्त हो सकती हैं जो किन्हीं विशेष अवसरों पर प्रयुक्त की जा सकें। सरकस के अभिनेता जिस प्रकार अपने शारीरिक कला कौशलों से दर्शकों को चमत्कृत कर देते हैं वैसे ही इन विशिष्ट साधन प्रक्रियाओं द्वारा ऐसी सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं जो लोगों को अद्भुत चमत्कारी आकर्षक एवं कौतूहल वर्धक प्रतीत हों। जिनके पास ऐसे चमत्कार होते हैं, उनसे लाभ पाने के लिए अनेक मनुष्य पीछे फिरते रहते हैं। सिद्ध पुरुष इसमें अपने अहंकार की पूर्ति कर लेते हैं और तत्कालिक किसी का कष्ट निवारण कर थोड़ा सन्तोष भी पा लेते हैं। किन्तु यह मार्ग कठिन बहुत है। भूल होने पर जोखिम भी बहुत है। इस एक ही काम का होकर मनुष्य रह जाता है, इसलिये इस मार्ग पर कोई विरले ही चलते हैं। जो चमत्कारों के लोभ में कदम तो बढ़ा देते हैं पर साधन की कठिनाई और मार्ग की लम्बाई को देखकर अक्सर निराश हो बैठते हैं, उनमें से कितने ही असफलता की झेंप मिटाने के लिए धूर्तता के आधार पर लोगों को चमत्कृत करने का निकृष्ट धन्धा अपना लेते हैं और अपना तथा दूसरों का पतन करते हैं।
उपरोक्त मार्ग कुछ विशिष्ट परिस्थितियों वाले दुस्साहसी लोगों के लिए ही है। सर्व साधारण के लिए जो राज-मार्ग प्रशस्त है उसमें आत्म-कल्याण, ईश्वर प्राप्ति और लोक-मंगल की सभी सम्भावनाएं विद्यमान हैं। जादूगरी जैसा चमत्कार भले ही न हो पर नर को नारायण की स्थिति तक पहुंचा देने का वास्तविक चमत्कार उसमें परिपूर्ण मात्रा में विद्यमान है। आजीवन उपार्जन तथा सामान्य गृहस्थ जीवन यापन करते हुए इस साधना क्रम को अपनाया जा सकता है। और बिना किसी कठिनाई के श्रेय पथ पर गतिशील रहा जा सकता है। इस सौम्य पद्धति को अपनाने के लिये ही शास्त्रकारों और ऋषियों ने सर्व साधारण को प्रोत्साहित किया है।
देवत्व के व्यापक जागरण के लिये यह सौम्य पद्धति ही काम में लाई जाती है। प्रस्तुत साधना के अन्तर्गत तीन प्रयोग हैं, (1) कर्म योग, (2) ज्ञान योग, और (3) भक्ति योग। इन्हीं के द्वारा तीनों शरीर का संस्कार परिष्कार, परिमार्जन, अभिवर्धन सम्भव होता है। स्थूल शरीर को कर्मयोग द्वारा, सूक्ष्म शरीर को ज्ञानयोग द्वारा और कारण शरीर को भक्तियोग द्वारा परिष्कृत किया जाता है। गीता में इसी योग क्रिया का वर्णन है। वेदों का प्रधान विषय कर्म, ज्ञान एवं उपासना ही है। धर्म शास्त्रों का विशालकाय कलेवर इस विविध तत्व ज्ञान की विवेचना में ही खड़ा किया गया है। हमारी विचार-पद्धति, कार्य-पद्धति और भाव स्थिति में यदि इन आस्थाओं का समुचित समावेश हो सके तो निस्सन्देह हम नर-पशु और नर-पिशाच की नारकीय स्थिति से छुटकारा पाकर इसी शरीर से इसी जीवन में अपने अन्दर देवत्व का उद्भव हुआ देख सकते हैं।
मानुषी अस्तित्व को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। (1) स्थूल, (2) सूक्ष्म, (3) कारण। अध्यात्म शास्त्र में मनुष्य के यह तीन शरीर बताये गये हैं। जिस प्रकार केले के तने को चीरने पर उसमें एक के भीतर एक पर्त निकलते हैं, प्याज के छिलके उतारते चलने पर उसके भीतर और छिलके निकलते हैं, उसी प्रकार आंखों से दीख पड़ने वाले रक्त मांस से बने इस स्थूल शरीर के भीतर एक सूक्ष्म शरीर है, इसके भी भीतर एक कारण शरीर का अस्तित्व विद्यमान है। जिस प्रकार हम शरीर के ऊपर कर्त्ता, उसके ऊपर जैकेट पहनते हैं उसी प्रकार आत्मा ने भी अपने ऊपर उपरोक्त तीन आवरण धारण किये हुए हैं।
स्थूल शरीर वह है जिससे हम खाने, सोने, चलने बोलने आदि की क्रियाएं, सम्पन्न करते हैं, जो मां के पेट से आरम्भ होता और श्मशान में समाप्त हो जाता है। सांसारिक जीवन इसी से चलता है। रोटी कमाने, शुभ, अशुभ कर्म करने, इन्द्रिय सुख भोगने आदि प्रयोजन इसी शरीर से पूरे होते हैं। इसके सम्बन्ध में बहुत कुछ जानकारियां प्राप्त भी कर ली गई हैं।
इसके भीतर सूक्ष्म शरीर है। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार इन चार वर्गों में विभाजित अन्तःकरण मनुष्य का एक प्रकार से सूक्ष्म शरीर ही है। विचारणा, प्रतिभा, स्फूर्ति, आकांक्षा, अभिरुचि, क्रीड़ा जैसी मानसिक गतिविधियां इसी शरीर में सन्निहित हैं। यों यह आवरण स्थूल शरीर में दूध में घुले हुए घी की तरह समाविष्ट हैं, फिर भी इसका प्रधान स्थल मस्तिष्क माना गया है।
तीसरा कारण शरीर आत्मा के अति समीप होने के कारण उच्च-स्तरीय दिव्य भावनाओं का आधार है। उसमें केवल भावनायें संचारित होती हैं। जिनका आन्तरिक अधःपतन अत्यधिक हो चुका है, उनको छोड़ कर शेष सभी के कारण शरीर में दया, प्रेम, करुणा, सेवा, संवेदना, धर्म, कर्तव्य, संयम और उच्च भाव उठते रहते हैं। जिनने दुष्टता में परिपक्वता प्राप्त करली है, उन्हीं का कारण शरीर नर पिशाचों जैसी—‘कनपटी मार बाबा’ जैसी-कुचेष्टाएं करने पर सहमत हो जाता है।
तीन शरीरों का संक्षिप्त परिचय यहां इसलिये दिया गया है कि मानव जीवन में देवत्व की सर्वांगीण प्रतिष्ठापना का वैज्ञानिक स्वरूप समझने से हमें सुविधा हो। युग परिवर्तन की नव निर्माण प्रक्रिया उन व्यक्तियों के द्वारा सम्पन्न होगी जिनमें देवत्व का प्रकाश समुचित मात्रा में प्रखर हो चला है। लेखक, वक्ता, नेता, अभिनेता, कलाकार, आन्दोलनकारी, प्रतिभावान् व्यक्ति अपने साधनों के आधार पर कुछ स्वयं के लिये चमत्कार जैसा जादू खड़ा कर सकते हैं पर उसमें स्थिरता तनिक भी न होगी। बालू की दीवार की तरह उनकी कृतियां देखते-देखते धूल धूसरित हो जाती हैं। और जिसका आज बहुत जयघोष था, कल उसके अस्तित्व का पता लगाना भी कठिन हो जाता है। स्थिरता तो सचाई और आत्मबल की गहराई में सन्निहित है। युग निर्माण जैसे महान् कार्य ठोस आधार की शिला पर ही प्रतिष्ठापित हो सकते हैं। उनका भारी उत्तरदायित्व वहन कर सकने की क्षमता केवल देवत्व सम्पन्न महामानवों में ही मिलेगी। अतएव नवनिर्माण के कर्णधारों, सूत्र संचालकों, सेनानायकों एवं दिग्पालों का देवत्व के प्रकाश से प्रकाशवान बनना या बनाया जाना आवश्यक है।
स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों की चर्चा इसलिये करनी पड़ी कि इन तीनों को समान रूप से देवत्व सम्पन्न बनाने से ही समग्र ‘देवत्व’ की आवश्यकता पूरी होती है। इन तीनों को ठीक तरह साधने-सम्भालने का नाम ‘साधना’ है। साधना से ही मनुष्य में देवत्व का उदय होता है। यहां हमें यह भी जान लेना चाहिए कि उपासना प्राथमिक शिक्षा है और साधना उच्चस्तरीय प्रशिक्षण। भजन, पूजन, जप ध्यान, व्रत, उपवास, कथा कीर्तन आदि कर्म-काण्डपरक उपासना से मन की प्रवृत्ति माया से ब्रह्म की ओर मुड़ जाती है। ईश्वर के स्मरण और सान्निध्य की उपयोगिता प्रतीत होती है। आत्म-कल्याण का मार्ग मिलता है। इससे आगे का प्रयोजन साधना के द्वारा पूर्ण होता है। मनोवृत्तियों को वासना और तृष्णा से विरत कर संयम और परमार्थ में प्रवृत्त करना साधना का उद्देश्य है। इस मार्ग पर जितना आगे बढ़ा जाता है उतनी ही आन्तरिक पवित्रता निखरती है और ईश्वरीय प्रकाश का दिव्य दर्शन होता है।
मानवीय व्यक्तित्व में देवत्व का अधिकाधिक समावेश करने के लिए हर श्रेयार्थी को जीवन साधना का अवलम्बन लेना पड़ता है। साधना के दो वर्ग हैं, (1) एक विशिष्ट लोगों की—विशिष्ट प्रयोजन के लिए विनिर्मित विशिष्ट प्रक्रिया, (2) सर्व साधारण के लिए—सहज सुगम सौम्य पद्धति। विशिष्ट प्रक्रिया योगी, यती, एकान्तवासी, सांसारिक उत्तरदायित्वों से निवृत्त असाधारण मनोबल सम्पन्न, कठोर तपश्चर्या के लिए समुद्यत लोगों के लिए है। हठ योग, षट्चक्र वेधन, कुंडलिनी जागरण, लययोग, ऋजु योग, तन्त्र योग, प्राण योग आदि साधनाएं इसी प्रकार की हैं। इनसे ऐसी चमत्कारी ऋद्धि सिद्धियां प्राप्त हो सकती हैं जो किन्हीं विशेष अवसरों पर प्रयुक्त की जा सकें। सरकस के अभिनेता जिस प्रकार अपने शारीरिक कला कौशलों से दर्शकों को चमत्कृत कर देते हैं वैसे ही इन विशिष्ट साधन प्रक्रियाओं द्वारा ऐसी सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं जो लोगों को अद्भुत चमत्कारी आकर्षक एवं कौतूहल वर्धक प्रतीत हों। जिनके पास ऐसे चमत्कार होते हैं, उनसे लाभ पाने के लिए अनेक मनुष्य पीछे फिरते रहते हैं। सिद्ध पुरुष इसमें अपने अहंकार की पूर्ति कर लेते हैं और तत्कालिक किसी का कष्ट निवारण कर थोड़ा सन्तोष भी पा लेते हैं। किन्तु यह मार्ग कठिन बहुत है। भूल होने पर जोखिम भी बहुत है। इस एक ही काम का होकर मनुष्य रह जाता है, इसलिये इस मार्ग पर कोई विरले ही चलते हैं। जो चमत्कारों के लोभ में कदम तो बढ़ा देते हैं पर साधन की कठिनाई और मार्ग की लम्बाई को देखकर अक्सर निराश हो बैठते हैं, उनमें से कितने ही असफलता की झेंप मिटाने के लिए धूर्तता के आधार पर लोगों को चमत्कृत करने का निकृष्ट धन्धा अपना लेते हैं और अपना तथा दूसरों का पतन करते हैं।
उपरोक्त मार्ग कुछ विशिष्ट परिस्थितियों वाले दुस्साहसी लोगों के लिए ही है। सर्व साधारण के लिए जो राज-मार्ग प्रशस्त है उसमें आत्म-कल्याण, ईश्वर प्राप्ति और लोक-मंगल की सभी सम्भावनाएं विद्यमान हैं। जादूगरी जैसा चमत्कार भले ही न हो पर नर को नारायण की स्थिति तक पहुंचा देने का वास्तविक चमत्कार उसमें परिपूर्ण मात्रा में विद्यमान है। आजीवन उपार्जन तथा सामान्य गृहस्थ जीवन यापन करते हुए इस साधना क्रम को अपनाया जा सकता है। और बिना किसी कठिनाई के श्रेय पथ पर गतिशील रहा जा सकता है। इस सौम्य पद्धति को अपनाने के लिये ही शास्त्रकारों और ऋषियों ने सर्व साधारण को प्रोत्साहित किया है।
देवत्व के व्यापक जागरण के लिये यह सौम्य पद्धति ही काम में लाई जाती है। प्रस्तुत साधना के अन्तर्गत तीन प्रयोग हैं, (1) कर्म योग, (2) ज्ञान योग, और (3) भक्ति योग। इन्हीं के द्वारा तीनों शरीर का संस्कार परिष्कार, परिमार्जन, अभिवर्धन सम्भव होता है। स्थूल शरीर को कर्मयोग द्वारा, सूक्ष्म शरीर को ज्ञानयोग द्वारा और कारण शरीर को भक्तियोग द्वारा परिष्कृत किया जाता है। गीता में इसी योग क्रिया का वर्णन है। वेदों का प्रधान विषय कर्म, ज्ञान एवं उपासना ही है। धर्म शास्त्रों का विशालकाय कलेवर इस विविध तत्व ज्ञान की विवेचना में ही खड़ा किया गया है। हमारी विचार-पद्धति, कार्य-पद्धति और भाव स्थिति में यदि इन आस्थाओं का समुचित समावेश हो सके तो निस्सन्देह हम नर-पशु और नर-पिशाच की नारकीय स्थिति से छुटकारा पाकर इसी शरीर से इसी जीवन में अपने अन्दर देवत्व का उद्भव हुआ देख सकते हैं।