Books - सृजन शिल्पी की आचार संहिता
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Language: HINDI
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दूसरा मोर्चा—स्वजनों का
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यह प्रथम मोर्चे पर जूझने की बात हुई। इससे बिल्कुल सटा हुआ ही दूसरा मोर्चा है, जिसे संबंधियों-हितैषियों का परिकर कह सकते हैं। धर्म-धारणा और सेवा-साधना के लिए सब कुछ करने पर उतारू व्यक्ति, इन दिनों अपने तथाकथित स्वजनों को ही सर्वाधिक विरोधी पाता है। आज के वातावरण में हर किसी को सम्पन्नता और विलासिता की सुविधाएं ही सब कुछ प्रतीत होती हैं। वे अपनी मान्यता के अनुरूप एक ही परामर्श दे सकते हैं कि परमार्थ की कष्ट-साध्य प्रक्रिया से व्यवहारतः कोसों दूर रहना ही लाभदायक है।
उनकी बात, जो जिस हद तक स्वीकार कर लेता है, उसे उसी सीमा तक स्वार्थरत रहना पड़ता है। परमार्थ की दिशा में आगे बढ़ना उसके लिए उतना ही कठिन हो जाता है। कोई वास्तविक कारण न होते हुए तर्कों, तथ्यों और प्रमाणों का इतना बड़ा जखीरा सामने ला खड़ा किया जाता है कि पिछले दिनों की मित्रता को ध्यान में रखते हुए वह कथन-परामर्श ही अभेद्य दीवार बनकर रह जाती है। स्वार्थ के पिंजड़े से बाहर एक कदम भी रखना उस स्थिति में सहन नहीं होता।
इस दूसरे मोर्चे से निपट सकने का अंगुलि-निर्देश तुलसीदास के उस पत्र से ही मिलता है, जो उन्होंने मीरा को उनके पत्र के उत्तर में लिखा था। उसमें कहा गया था कि:— जाके प्रिय न राम वैदेही । तजिये ताहि कोटि वैरीसम, यद्यपि परम सनेही ।। पिता तज्यो प्रह्लाद, विभीषण बन्दु, भरत महतारी । बलि गुरु तज्यो, कंत ब्रज वनितन भये मुद मंगलकारी ।।
इस निर्देशन में मीरा ने अपना और समस्त समाज का भला देखा और सभी असमंजसों को निरस्त करते हुए, वे आदर्शवादी को नये सिरे से प्रतिष्ठापित करने के लिए निकल पड़ीं और बदली जैसी अमृत वर्षा करने में जीवन भर निरत रहीं।