Books - सृजन शिल्पी की आचार संहिता
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Language: HINDI
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स्वभाव की शालीनता
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युग प्रवर्त्तकों, विचारक्रान्ति के सूत्रधारों का स्वभाव इतना शिष्ट, मृदुल और शालीनता-सम्पन्न होना चाहिए कि जिससे भी बात करनी पड़े, वह मिलने भर से पुलकित हो उठे। उस पर सज्जनता की छाप पड़े और यह मान्यता अनायास ही उभरे, कि व्यक्ति अपने में ऐसे तत्त्व समाविष्ट कर चुका है—जिसके आधार पर सहज सद्भाव की मनःस्थिति बनती है।
इतनी स्थिति कर लेने के उपरान्त प्रतिकूलता को मोड़-मरोड़ देते हुए, अनुकूलता तक घुमा लाना कुछ कठिन नहीं रह जाता है। संकट तब खड़ा होता है, जब दोनों ही पक्ष ऐंठ-अकड़ में होते हैं, विचार-विनिमय में ही अपनी बात पर अड़ कर प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेते हैं। ऐसी स्थिति कभी भी, कहीं भी बननी नहीं चाहिए। एक बार में बात बनती न दीख पड़े, तो झगड़कर प्रसंग को समाप्त कर देने की अपेक्षा यह गुंजाइश छोड़ दी जाय, कि भविष्य में समय मिलते ही नये सिरे से, नये दृष्टिकोण से उस पर चर्चा की जा सके। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में मतभेदों को किसी हद तक दूर करने में ऐसे ही विचार विनिमय काम देते हैं। इसके लिए जो प्रतिनिधि नियुक्त किये जाते हैं उनमें यह विशिष्टता परखी जाती है कि वह घोर मतभेद के बीच भी सरलता और तरलता की दृष्टि से लोचदान-लचकदार बने रहें और उलझनों को सुलझाने की दिशा में क्रमशः आगे सफल होते रहें। ऐसे ही कूटनीतिज्ञ प्रतिष्ठा पाते और महानीति के लिए अधिकारी समझे जाते हैं।
नागरिकता, सामाजिकता, सभ्यता, शालीनता का समन्वय ही शिष्टाचार बन जाता है। उसके प्रदर्शन का व्यावहारिक स्वरूप तो क्षेत्रों और वर्गों की स्थानीय प्रचलित परम्पराओं के अनुरूप बनता है, पर उसके मोटे सिद्धान्त दो हैं—एक अपनी नम्रता और दूसरों की प्रतिष्ठा को समुचित रूप से बनाये रहना। उद्दण्डता का, असभ्यता का तनिक सा भी पुट, बनी बात बिगाड़ देता है। प्रतिपक्षियों को अनुकूल बनाना तो दूर, इस कारण अपने समर्थक समझे जाने वाले लोग तक सामान्य बात का बतंगड़ बना देते हैं। युगशिल्पियों को अधिकांश समय जन सम्पर्क में ही बिताना पड़ता है और मान्यताओं के क्षेत्र में प्रायः अपनी भूमिका इतनी लचीली रखनी पड़ती है कि इच्छित परिवर्तन तो होता रहे, पर उसमें अभद्रता कहीं आड़े न आये। अभीष्ट सफलता का बहुत कुछ श्रेय इन्हीं छोटी-छोटी बातों पर निर्भर रहता है। कलावन्त इसका प्रदर्शन करने से चूकते नहीं।