Books - सृजन शिल्पी की आचार संहिता
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Language: HINDI
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प्रामाणिकता अनिवार्य
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युगशिल्पी को अपने व्यवहार में दो अन्य बातों का समावेश करना चाहिए, जो देखने में साधारण मालूम पड़ती है, पर ऊर्जा-प्रतिक्रिया असाधारण स्तर की होती है। उनमें से एक है—सार्वजनिक पैसे को अत्यन्त पवित्र धरोहर मानकर उसकी एक-एक पाई का इतनी सावधानी से प्रयोग करना कि जांच करने वाले को इसमें कहीं खोट दिखाई न पड़े। साथ ही अपनी अन्तरात्मा और सर्वसाधारण को यह विश्वास बना रहे कि दान के पैसे में कहीं किसी प्रकार की कोई गड़बड़ी नहीं हुई है। जिसके भी हाथ में वह धन रहा, उसने सन्तों जैसी निस्पृहता का परिचय दिया है—लोकसेवी द्वारा प्रामाणिकता की दृष्टि से इस प्रसंग में सतर्कता बरती ही जानी चाहिए।
दूसरा प्रसंग है—नर और नारी के मध्यवर्त्ती सम्बन्धों का। सार्वजनिक क्षेत्र में नर और नारी मिल-जुलकर ही सामूहिक कार्यक्रमों और आयोजनों को सम्पन्न करते हैं। ऐसी दशा में इस आशंका की गुंजाइश रहती है कि कहीं अनैतिक चिन्तन और आचरण आड़े न आने लगा हो। भावनाओं की पवित्रता तो ऐसे प्रसंगों में अक्षुण्ण रहनी ही चाहिए, पर साथ ही यह भी नहीं भूलना चाहिए कि तरुण और तरुणियों की घनिष्ठता, निकटता और असाधारण सहकारिता भी साधारण जनों की आंखों में खटकती है। उतने भर से आशंकाओं का ऐसा बवण्डर बन पड़ता है, जो बदनामी के स्तर तक पहुंचा देता है। ऐसी दशा में न केवल संबंधित व्यक्तियों को, वरन् उस लक्ष्य को भी भारी क्षति पहुंचती है, जिसके लिए एकत्रित हुआ गया था और मिल-जुलकर काम करने में कुछ अनुचित नहीं माना गया था।
अपनी दृष्टि और क्रिया कुछ भी क्यों न रही हो, पर लोग तो लोग हैं। संसार में प्रचलित अनेकानेक विसंगतियों को देखते हुए अशुभ आशंका कहीं भी की जा सकती है। इस लोक मान्यता को ध्यान में रखते हुए, संस्थागत हिसाब-किताब में तथा नर-नारी की निकटता वाले अवसरों पर, इतनी अधिक सावधानी बरतनी चाहिए कि कुकल्पना के लिए कहीं कोई गुंजाइश ही शेष न रहे।
यहां एक बात और हर समाज सेवी को नोट कर लेनी चाहिए कि श्रेय पाने, हर प्रसंग में अपने को अग्रणी सिद्ध करने वाले लोग जन साधारण की दृष्टि में ओछे-बचकाने समझे जाते हैं और लोकसेवी का बाना पहनने पर भी बहुत घटिया समझे जाते हैं। उनको सम्मान यदि धोखे से कभी मिल भी जाय, तो वह कागज के फूल की तरह थोड़े ही समय में अपना आकर्षण खो बैठता है। नेता बनने के लिए लालायित लोग नाम छपाने, चेहरा मटकाने और माइक पर छाये रहने की कोशिश करते हैं। बड़प्पन जताने के लिए व्याकुल लोग, कुछ हाथ में रहा हो, तो उसे भी गंवा बैठते हैं। इनके अनेकों प्रतिस्पर्धी, विरोधी और ईर्ष्यालु उपज पड़ते हैं। ऐसे विग्रहों का परिणाम उस संगठन या मंच को भी बदनाम करता है, जिस पर चलकर वे ऊंचे बनना चाहते हैं। वे स्वयं बदनाम होते हैं और उस संगठन को ले डूबते हैं, जिसके कि वे नेता कहलाना चाहते थे।
गांधीजी की सादगी, सज्जनता और विनम्रता प्रसिद्ध थी। इसलिए वे कांग्रेस के कोई नियुक्त नेता पदाधिकारी न होते हुए भी उस समुदाय के लिए प्राण बने हुए थे। व्यक्तित्व उभारने का यही राजमार्ग है। नेतागिरी के लिए उछल-कूद करने वाले तो मात्र नट-नर्तक स्तर के अभिनेता बन कर रह जाते हैं। प्रामाणिकता के अभाव में कोई भी देर तक श्रद्धास्पद नहीं रह सकता और न उसकी नेतागिरी देर तक चलती है। सृजन शिल्पी इस तथ्य से भली प्रकार अवगत रहें, तो ही ठीक है।