Books - युग निर्माण सत्-संकल्प की दिशा-धारा
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Language: HINDI
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परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्व देंगे।
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उचित अनुचित का लाभ हानि का, निष्कर्ष निकालने और किधर चलना, किधर नहीं चलना इसका निर्णय करने के उपयुक्त बुद्धि भगवान ने मनुष्य को दी है। उसी के आधार पर उसकी गतिविधियां चलती भी हैं। पर देखा यह जाता है कि दैनिक जीवन का साधारण बातों में जो विवेक ठीक काम करता है वही महत्वपूर्ण समस्या सामने आने पर कुंठित हो जाता है। परम्पराओं की तुलना में तो किसी विरले का ही विवेक जागृत रहता है, अन्यथा आन्तरिक विरोध रहते हुए भी लोग पानी में बहते हुए तिनके की तरह अनिच्छित दिशा में बहने लगते हैं। भेड़ों का झुंड जिधर भी चल पड़े उसी ओर सब भेड़ें बढ़ती जाती हैं। एक भेड़ कुएं में गिर पड़े तो पीछे की ओर की सब भी उसी कुएं में गिरती हुई अपने प्राण गंवाने लगती है। देखा-देखी की नकल बनाने की प्रवृत्ति बन्दर में पाई जाती है। वह दूसरों को जैसा करते देखता है वैसा ही खुद भी करने लगता है। इस अन्धानुकरण की आदत को जब मनुष्य में भी इतनी मान लेने के लिए मन करता है जिसके अनुसार उसने यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि आदमी बन्दर की औलाद है।
समाज में प्रचलित कितनी ही प्रथायें ऐसी हैं जिनमें लाभ रत्ती भर भी नहीं हानि अनेक प्रकार से हैं, पर एक की देखा-देखी दूसरा उसे करने लगता है। बीड़ी और चाय का प्रचार दिन-दिन बढ़ रहा है। छोटे-छोटे बच्चे बड़े शौक से उन्हें पीते हैं। सोचा यह जाता है कि यह चीजें बड़प्पन अथवा सभ्यता की निशानी हैं। उन्हें पीना एक फैशन की पूर्ति करना है और अपने को अमीर, धनवान साबित करना है। ऐसी ही कुछ भ्रान्तियों से प्रेरित होकर शौक, मौज, फैशन जैसी शेखीखोरी की भावना से एक की देखा-देख दूसरा इन नशीली वस्तुओं को अपनाता है और अन्त में एक बुरी कुटेव के रूप में वह लत ऐसी बुरी तरह लग जाती है कि छुटाये नहीं छूटती।
चाय, बीड़ी, भांग, गांजा, शराब, अफीम आदि सभी नशीली चीजें एक भयंकर दुर्व्यसन है। इनके द्वारा शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य नष्ट होता है और आर्थिक स्थिति पर बुरा प्रभाव पड़ता है। हर नशेबाज स्वभाव की दृष्टि से दिन-दिन घटिया आदमी बनता जाता है। क्रोध, आवेश, चिन्ता, निराशा, आलस, निर्दयता, अविश्वास आदि कितने ही मानसिक दुर्गुण उपज पड़ते हैं। समझाने पर या स्वयं विचार करने पर हर नशेबाज इस लत की बुराई को स्वीकार करता है पर विवेक की प्रखरता और साहस की सजीवता न होने से कर कुछ नहीं पाता। एक अन्ध परम्परा में अन्धी भेड़ की तरह बहता चला जाता है। क्या यही मनुष्य की बुद्धिमत्ता है?
सामाजिक कुरीतियों से हिन्दू समाज इतना जर्जर हो रहा है कि इन विकृतियों के कारण जीवनयापन कर सकना भी मध्य वर्ग के लोगों के लिए कठिन होता चला जा रहा है। बच्चों का विवाह एक नरभक्षी पिशाच की तरह हर अभिभावक के शिर पर नंगी तलवार लिए नाचता रहता है। विवाह के दिन जीवन भर की गाढ़ी कमाई के पैसों को होली की तरह फूंक देने के लिए हर किसी को विवश होना पड़ता है। हत्यारा दहेज कसाई की-सी नंगी छुरी लेकर हमारी बच्चियों का खून पी जाने के लिए निर्भय होकर विचरण करता रहता है। मृत्युभोज औसर-मोसर नेगचार मुण्डन डस्टौन जनेऊ और भी न जाने क्या-क्या ऊट-पटांग काम करने के लिए लोग विवश होते रहते हैं और जो कुछ कमाते हैं उसका अधिकांश भाग इन्हीं फिजूलखर्चियों में स्वाहा करते रहते हैं। जेवर बनवाने में रुपये में से आठ आने रहते हैं; जान-जोखिम, ईर्ष्या, अहंकार, सुरक्षा की चिन्ता, ब्याज की हानि आदि अनेकों आपत्तियां उत्पन्न होती हैं, फिर भी परम्परा जो है। सब लोग जैसा, करते हैं वैसा ही हम क्यों न करें? विवेक का परम्पराओं की तुलना में परास्त हो जाना वैसा ही आश्चर्यजनक है जैसा बकरे का शेर की गरदन मरोड़ देना। आश्चर्य की बात तो अवश्य है पर हो यही रहा है।
युग निर्माण के सत्संकल्प में विवेक को विजयी बनाने का शंखनाद है। हम हर बात को उचित अनुचित को कसौटी पर कसना सीखें। जो उचित हो वही करें, जो ग्राह्य हो वही ग्रहण करें, जो करने लायक हो उसी को करें। लोग क्या कहते हैं, क्या कहेंगे, इस प्रश्न पर विचार करते समय हमें सोचना होगा कि लोग दो तरह के हैं? एक विचारशील दूसरे अविचारी। विवेकशील पांच व्यक्तियों की सम्पत्ति अविचारी पांच लाख व्यक्तियों के समान वजन रखती है। विवेकशीलों की संख्या सदा ही कम रही है। वन में सिंह थोड़े और सियार बहुत रहते हैं। एक सिंह की दहाड़, हजारों सियारों की हुआ हुआ से अधिक महत्व रखती है। विचारशील वर्ग के थोड़े से व्यक्ति विवेक सम्मत कदम बढ़ाने का दृढ़ निश्चय कर लें तो व्याप्त विकृतियां उसी प्रकार छिन्न भिन्न हो जावेंगी जैसे प्रचण्ड सूर्य के उदय होते ही कुहरा। मनुष्य की शक्तियों क्षमताओं को वांछित दिशा में लगाने के लिए यह करना ही होगा।
समाज में प्रचलित कितनी ही प्रथायें ऐसी हैं जिनमें लाभ रत्ती भर भी नहीं हानि अनेक प्रकार से हैं, पर एक की देखा-देखी दूसरा उसे करने लगता है। बीड़ी और चाय का प्रचार दिन-दिन बढ़ रहा है। छोटे-छोटे बच्चे बड़े शौक से उन्हें पीते हैं। सोचा यह जाता है कि यह चीजें बड़प्पन अथवा सभ्यता की निशानी हैं। उन्हें पीना एक फैशन की पूर्ति करना है और अपने को अमीर, धनवान साबित करना है। ऐसी ही कुछ भ्रान्तियों से प्रेरित होकर शौक, मौज, फैशन जैसी शेखीखोरी की भावना से एक की देखा-देख दूसरा इन नशीली वस्तुओं को अपनाता है और अन्त में एक बुरी कुटेव के रूप में वह लत ऐसी बुरी तरह लग जाती है कि छुटाये नहीं छूटती।
चाय, बीड़ी, भांग, गांजा, शराब, अफीम आदि सभी नशीली चीजें एक भयंकर दुर्व्यसन है। इनके द्वारा शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य नष्ट होता है और आर्थिक स्थिति पर बुरा प्रभाव पड़ता है। हर नशेबाज स्वभाव की दृष्टि से दिन-दिन घटिया आदमी बनता जाता है। क्रोध, आवेश, चिन्ता, निराशा, आलस, निर्दयता, अविश्वास आदि कितने ही मानसिक दुर्गुण उपज पड़ते हैं। समझाने पर या स्वयं विचार करने पर हर नशेबाज इस लत की बुराई को स्वीकार करता है पर विवेक की प्रखरता और साहस की सजीवता न होने से कर कुछ नहीं पाता। एक अन्ध परम्परा में अन्धी भेड़ की तरह बहता चला जाता है। क्या यही मनुष्य की बुद्धिमत्ता है?
सामाजिक कुरीतियों से हिन्दू समाज इतना जर्जर हो रहा है कि इन विकृतियों के कारण जीवनयापन कर सकना भी मध्य वर्ग के लोगों के लिए कठिन होता चला जा रहा है। बच्चों का विवाह एक नरभक्षी पिशाच की तरह हर अभिभावक के शिर पर नंगी तलवार लिए नाचता रहता है। विवाह के दिन जीवन भर की गाढ़ी कमाई के पैसों को होली की तरह फूंक देने के लिए हर किसी को विवश होना पड़ता है। हत्यारा दहेज कसाई की-सी नंगी छुरी लेकर हमारी बच्चियों का खून पी जाने के लिए निर्भय होकर विचरण करता रहता है। मृत्युभोज औसर-मोसर नेगचार मुण्डन डस्टौन जनेऊ और भी न जाने क्या-क्या ऊट-पटांग काम करने के लिए लोग विवश होते रहते हैं और जो कुछ कमाते हैं उसका अधिकांश भाग इन्हीं फिजूलखर्चियों में स्वाहा करते रहते हैं। जेवर बनवाने में रुपये में से आठ आने रहते हैं; जान-जोखिम, ईर्ष्या, अहंकार, सुरक्षा की चिन्ता, ब्याज की हानि आदि अनेकों आपत्तियां उत्पन्न होती हैं, फिर भी परम्परा जो है। सब लोग जैसा, करते हैं वैसा ही हम क्यों न करें? विवेक का परम्पराओं की तुलना में परास्त हो जाना वैसा ही आश्चर्यजनक है जैसा बकरे का शेर की गरदन मरोड़ देना। आश्चर्य की बात तो अवश्य है पर हो यही रहा है।
युग निर्माण के सत्संकल्प में विवेक को विजयी बनाने का शंखनाद है। हम हर बात को उचित अनुचित को कसौटी पर कसना सीखें। जो उचित हो वही करें, जो ग्राह्य हो वही ग्रहण करें, जो करने लायक हो उसी को करें। लोग क्या कहते हैं, क्या कहेंगे, इस प्रश्न पर विचार करते समय हमें सोचना होगा कि लोग दो तरह के हैं? एक विचारशील दूसरे अविचारी। विवेकशील पांच व्यक्तियों की सम्पत्ति अविचारी पांच लाख व्यक्तियों के समान वजन रखती है। विवेकशीलों की संख्या सदा ही कम रही है। वन में सिंह थोड़े और सियार बहुत रहते हैं। एक सिंह की दहाड़, हजारों सियारों की हुआ हुआ से अधिक महत्व रखती है। विचारशील वर्ग के थोड़े से व्यक्ति विवेक सम्मत कदम बढ़ाने का दृढ़ निश्चय कर लें तो व्याप्त विकृतियां उसी प्रकार छिन्न भिन्न हो जावेंगी जैसे प्रचण्ड सूर्य के उदय होते ही कुहरा। मनुष्य की शक्तियों क्षमताओं को वांछित दिशा में लगाने के लिए यह करना ही होगा।