Books - युग निर्माण सत्-संकल्प की दिशा-धारा
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Language: HINDI
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नागरिकता, नैतिकता, मानवता, सच्चरित्रता, शिष्टता, उदारता, आत्मीयता, समता, सहिष्णुता, श्रमशीलता, जैसे सद्गुणों को सच्ची सम्पत्ति समझकर इन्हें व्यक्तिगत जीवन में निरन्तर बढ़ाते रहेंगे।
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शास्त्रों में आत्म निर्माण के चार साधन बताये गये हैं। (1) साधना (2) स्वाध्याय (3) संयम (4) सेवा। इन चारों की वही उपयोगिता है जो शरीर में हाथ पैरों की है। इनके बिना आत्म-कल्याण की दिशा में एक कदम भी आगे बढ़ सकना सम्भव नहीं हो सकता।
साधना— ईश्वर उपासना को दैनिक जीवन में से बिल्कुल हटा देना किसी भी प्रकार उपयुक्त नहीं। मन न लगने पर भी किसी न किसी प्रकार आदत में इसे सम्मिलित करने के लिए साधना का कुछ न कुछ अभ्यास नित्य ही करते रहना चाहिए। आत्म शक्ति जब कभी जिस किसी को भी प्राप्त हुई है तब उसमें आस्तिकता और उपासना का कोई न कोई अंश जरूर रहा है। भले ही हम बिस्तर से उठते और सोते समय पन्द्रह-पन्द्रह मिनट तक ही सर्वव्यापक, निष्पक्ष, न्यायकारी, विचार और कार्यों के अनुरूप प्रसन्न एवं अप्रसन्न होने वाले परमात्मा का ध्यान और स्मरण किया करें, पर किसी न किसी रूप में दैनिक उपासना तो किया करें। इसमें फुरसत का प्रश्न नहीं, अभिरुचि का प्रश्न है। थोड़ी अभिरुचि इधर बढ़ते ही इस मार्ग में आनन्द आने लगता और फुरसत भी मिलने लगती है।
ईश्वर उपासना का अर्थ यथावत् कुछ पूजा अर्चा की लकीर पीटना या भगवान से अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए प्रार्थना करना नहीं है। उपासना का अर्थ है पास बैठना। अग्नि के पास बैठने से गर्मी, बर्फ के समीप से शीतलता आती है, तो उपासना से देवत्व—ईश्वरत्व की वृद्धि होनी चाहिए। अपनी आकांक्षाओं से लेकर आचरण में दिव्यता का समावेश करना ही उपासना का उद्देश्य है। ऐसा होने से मनुष्य उस महत् सत्ता से जुड़कर असीम शक्ति सम्पन्न हो जाता है। लौकिक एवं पारलौकिक विभूतियां उसके चरण चूमने लगती हैं।
उपासनात्मक कर्मकाण्ड के साथ भावनाओं का समन्वय करने से उपासना बनती है। उपासना चाहे थोड़ी हो पर उसमें इष्ट के साथ घुल-मिल जाने एकाकार हो जाने जैसी तड़पन होनी चाहिए। मां बेटे, गाय बछड़े, दीप पतंग जैसी आतुरता से की गयी उपासना चमत्कार उत्पन्न कर सकती है।
उपासना एक पक्ष है, उसके साथ-साथ अपने जीवन आचार-विचारों को भी ईश्वर परायण के ढंग का बनाने का प्रयास जोड़ने से समग्र साधना बनती है। अपने हर कार्य व्यवहार को, अपने इष्ट को, ईश्वर को प्रतिष्ठा का प्रश्न मानकर चलने से जीवन में पवित्रता एवं व्यवस्था बढ़ती चली जाती है। वाल्मीकि जैसों के उतरे-पुतरे कर्मकांड भी चमत्कार पैदाकर गये, इसका श्रेय भी इसी प्रखर साधनात्मक प्रवृत्ति को दिया जा सकता है। अस्तु व्यक्तिगत जीवन में इसी स्तर की साधना को स्थान दिया जाना चाहिए।
स्वाध्याय— मैले, कपड़े को साफ करने के लिए जो उपयोगिता साबुन की है वही मन पर चढ़े हुए मैलों को शुद्ध करने के लिए स्वाध्याय की है। मनुष्य के पास सर्वोत्तम विशेषता उसकी बुद्धि की ही है और इन विचारों का सही एवं सुसंस्कृत बनना स्वाध्याय पर निर्भर है। श्रेष्ठ पुरुषों की कमी, उनके पास समय का अभाव और अपने लिए भी समुचित फुरसत की कमी रहने के कारण अब उपयुक्त सत्संग की व्यवस्था बन सकना कठिन है, ऐसी दशा में जीवन निर्माण के श्रेष्ठ साहित्य का स्वाध्याय ही सत्संग की आवश्यकता को पूरी करता है। जिस प्रकार भोजन त्याग कर शरीर को जीवित रख सकना कठिन है, इसी प्रकार स्वाध्याय की उपेक्षा करके, उसका परित्याग करके कोई व्यक्ति न तो अपने आत्मिक स्तर को ऊंचा उठा सकता है न स्थिर रख सकता है। बिना पढ़े लोगों के लिए भी उचित है कि वे श्रेष्ठ साहित्य का श्रवण किया करें। दुर्भिक्ष काल में जिस प्रकार साधन सम्पन्न लोग भूखों मरते हुओं को अन्न की व्यवस्था जुटाते हुए पुण्य लाभ करते हैं, उसी प्रकार स्वाध्यायशील सज्जनों का कर्तव्य है कि जीवन निर्माण साहित्य अपने घर के तथा बाहर के अशिक्षितों को पढ़कर सुनाया करें और उनके आत्मिक जीवन को अपने पसीने से खींच कर हरा-भरा रखने का पुण्य प्राप्त किया करें।
स्वाध्याय, पुस्तक पढ़कर भी किया जा सकता है तथा सुनकर भी किन्तु कुछ भी पढ़ना या सुनना स्वाध्याय नहीं कहा जा सकता। जीवन को दिशा दे सकने योग्य प्रेरणा पढ़कर या सुनकर प्राप्त करने तथा उसे मनन चिन्तन द्वारा आत्मसात् करने से स्वाध्याय का लाभ मिलता है। नित्य ऐसे प्रेरक विचारों एवं प्रसंगों को पढ़ने-सुनने का सुनिश्चित क्रम बनाया जाना चाहिए।
संयम— संयम को शक्ति का स्रोत कहा गया है। मनुष्य को बहुत कुछ मिला है तथा उससे भी अधिक मिल सकता है। संयम के अभाव में व्यक्ति निरर्थक अपनी शक्तियों, विभूतियों को गंवाता रहता है तथा अधिक कुछ कर पाने की पात्रता भी नहीं प्राप्त कर पाता। शक्तियों एवं विभूतियों को निरर्थक, हानिकारक एवं कम महत्व के प्रसंगों से हटाकर उन्हें सार्थक, हितकारी एवं अधिक उपयोगी विषयों में ठीक प्रकार नियोजित करना ही संयम कहलाता है।
संयम का क्षेत्र बड़ा व्यापक है। इन्द्रिय निग्रह से लेकर, आत्म व्यवहार, समय, विचारों एवं भावनाओं के नियंत्रण तक को उसके अन्तर्गत लिया जाता है। साधक को इसी व्यापक दृष्टि से संयम को समझना एवं अपनाना चाहिए।
इन्द्रियों का संयम तो आवश्यक है। चटोरेपन और कामवासना पर तो कड़ा नियंत्रण होना ही चाहिए। साथ ही स्वभाव और विचारों का संयम भी आवश्यक है। विचारों को अनुपयुक्त दिशा में जाने से रोकने के लिए उनके विरोधी विचार करने की आदत डालनी चाहिए। बुद्धि का झुकाव उन्हीं की ओर जाता है और यह नितान्त आवश्यक है कि कुविचारों के ठीक विरोधी सद्विचारों वाला पहलू भी हम बुद्धिरूपी अदालत के सामने निरन्तर प्रस्तुत करते रहें। हर बात के दो पहलू होते हैं, दोनों पर विचार कर लेने से बौद्धिक संयम का लाभ प्राप्त होता है, फिर हम आवेश उत्तेजना या भावुकता में कोई एक पक्षीय निर्णय कर बैठने के खतरे में नहीं पड़ते। स्वभाव का संयम आवेश और उत्तेजना से सम्बद्ध है। छोटी-छोटी बातों पर कई व्यक्ति बहुत अधिक उत्तेजित हो उठते हैं। क्रोध, आवेश, द्वेष, मैत्री, उदारता, भावुकता आदि की दुर्गति कर देते हैं। उस आवेश से उत्पन्न होने वाले दुष्परिणामों के सम्बन्ध में विचार नहीं करते और समय निकल जाने पर पछताते रहते हैं। स्वभाव का छिछोरापन छुड़ाकर उसे संजीदा और गम्भीर बनाना मानसिक संयम और प्रमुख प्रक्रिया है। जब हमारा संयम इन्द्रिय निग्रह तक ही नहीं, विचार और स्वभाव के नियन्त्रण क्षेत्र में भी कारगर होता है तब ही संयमशीलता की सफलता मानी जाती है।
संयम के अपने अनुरूप सुनिश्चित चरण निर्धारित करने चाहिए। ब्रह्मचर्य की अवधि निर्धारित करना, स्वादेन्द्रिय को नियन्त्रित करने के लिए उपवास, अस्वाद व्रत जैसे नियम बनाना, वाणी के लिए मितभाषण एवं मौन का अभ्यास, समय एवं धन का बजट बनाकर चलना, विचार एवं भावनाओं के स्तर पर पैनी दृष्टि रखकर उनके अनुपात को सही बनाकर रखने की तत्परता बरतना, अपनी आवश्यकताओं को औसत भारतीय स्तर की सीमा तक खींच लाना आदि समय के व्यावहारिक स्वरूप हैं, जिन्हें हर व्यक्ति अपने ढंग से अपनाकर लाभान्वित हो सकता।
सेवा— मनुष्य का आत्मिक विकास कितना हुआ है, इसका प्रमाण उसकी सेवावृत्ति से लगाया जा सकता है। सेवा वह अग्नि है जिसमें तपे बिना कोई अन्तःकरण, शुद्धता, निर्मलता, उदारता एवं आध्यात्मिकता की कसौटी पर खरा उतर सकने योग्य नहीं बन सकता। संन्यास लेने से पूर्व जीवन का एक चौथाई भाग वानप्रस्थ में रहकर समाज सेवा करने के लिए नियत किया हुआ है। जो लोग सेवा धर्म की अत्यन्त आवश्यक प्रक्रिया से कतराते हैं और केवल भजन करके आत्मिक प्रगति की आशा करते हैं वे वैसे ही बालक हैं जो प्रथम कक्षा से छलांग मारकर अन्तिम कक्षा उत्तीर्ण करना चाहते हैं और बीच की सभी कक्षाओं को छोड़ देना चाहते हैं। सद्विचारों का क्रियात्मक रूप सेवा है। आत्म शुद्धि का प्रत्यक्ष चिन्ह सेवा एवं परमार्थ में रुचि होना ही है।
सेवा का आत्म सन्तोष से सीधा सम्बन्ध है। परोपकार की दृष्टि से निस्वार्थ भावना से हम जो कुछ करते हैं उसकी प्रतिक्रिया आत्म सन्तोष के रूप में तुरन्त ही परिलक्षित होने लगती है। आत्म-सन्तोष को ही शास्त्रों में सोम रस कहा गया है, उसे ही पीकर ऋषि-मुनि देवपद प्राप्त किया करते थे। सत्कार्यों द्वारा आत्म-सन्तोष की कुछ बूंदें जिन्हें उपलब्ध होती रहती हैं वे अपने को कृतकृत्य माने बिना नहीं रह सकते। समाजिक दृष्टि से भी सेवा एक अत्यन्त उपयोगी प्रक्रिया है उससे पिछड़े हुए लोगों को ऊपर उठने और दीन-दुखियों को राहत प्राप्त करने का अवसर मिलता है। दुख और सुख को बांट लेना आध्यात्मिक साम्यवाद है। सुखी लोग अपने सुख का एक अंश दुखियों को बांट दें तो उनके ऊपर लदा हुआ सुविधाओं का अनावश्यक भार घट सकता है और मोटे पेट वाले रोगी को वादी छूट जाने से जैसी प्रसन्नता होती है वैसी ही उन्हें भी मिल सकती है। इसी प्रकार दुखियों का दुख थोड़ा-थोड़ा वे लोग बांट लें तो उन बेचारों का सुख भी हल्का हो सकता है।
एक के पास नमक दूसरे के पास शक्कर हो और दोनों अपने-अपने से ही काम चलावें तो दोनों के भोजन अस्वादिष्ट रहेंगे पर यदि वे दोनों आपस में बांट लें तो नमकीन और मीठा स्वाद का व्यंजन दोनों को ही मिल सकता है। धन के बंटवारे की मांग भौतिक साम्यवाद के क्षेत्रों में उठ रही है। आध्यात्मिक साम्यवाद की मांग दुख और सुख के बटवारे की है। इसी का सक्रिय रूप सेवा धर्म है। सेवा सदाचार का अंग है, अध्यात्म का प्रमुख सोपान और समाज की प्रगति का इसे आधार स्तम्भ कह सकते हैं। सहयोग और सामूहिकता की सत्प्रवृत्तियां सेवा वृद्धि की उदारता होने पर ही पनप सकती हैं और उनके पनपने पर ही कोई राष्ट्र सुसम्पन्न एवं समुन्नत हो सकता है।
साधना, स्वाध्याय, संयम एवं सेवा कार्यों में आलस्य, प्रमाद न होने देने की बात पर जोर दिया गया है। आलस्य, प्रमाद जीवन की किसी भी धारा को कुंठित कर देते हैं, अतः इनसे जितना बचा जाय उतना ही अच्छा है। किन्तु जीवन विकास के इन मूल आधारों की सीमा में उनका आना सर्वाधिक हानिकारक सिद्ध होता है। अस्तु इन अपने ही अन्दर बसने वाले महा-शत्रुओं को इन नियमों पर आघात करने का अवसर नहीं देना चाहिए।
उनमें व्यतिक्रम न आने पावे इसके लिए नियमों में कठोरता बरतनी चाहिए। उपासना बिना भोजन न करना स्वाध्याय किए बिना सोना नहीं, संयम एवं सेवा का नियम टूटने पर उसे दण्ड स्वरूप कुछ बढ़ाकर लागू करना, ऐसे सूत्र हैं जिनके आधार पर आलस्य-प्रमाद को उस दिशा में हावी होने से बखूबी रोका जा सकता है।
साधना— ईश्वर उपासना को दैनिक जीवन में से बिल्कुल हटा देना किसी भी प्रकार उपयुक्त नहीं। मन न लगने पर भी किसी न किसी प्रकार आदत में इसे सम्मिलित करने के लिए साधना का कुछ न कुछ अभ्यास नित्य ही करते रहना चाहिए। आत्म शक्ति जब कभी जिस किसी को भी प्राप्त हुई है तब उसमें आस्तिकता और उपासना का कोई न कोई अंश जरूर रहा है। भले ही हम बिस्तर से उठते और सोते समय पन्द्रह-पन्द्रह मिनट तक ही सर्वव्यापक, निष्पक्ष, न्यायकारी, विचार और कार्यों के अनुरूप प्रसन्न एवं अप्रसन्न होने वाले परमात्मा का ध्यान और स्मरण किया करें, पर किसी न किसी रूप में दैनिक उपासना तो किया करें। इसमें फुरसत का प्रश्न नहीं, अभिरुचि का प्रश्न है। थोड़ी अभिरुचि इधर बढ़ते ही इस मार्ग में आनन्द आने लगता और फुरसत भी मिलने लगती है।
ईश्वर उपासना का अर्थ यथावत् कुछ पूजा अर्चा की लकीर पीटना या भगवान से अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए प्रार्थना करना नहीं है। उपासना का अर्थ है पास बैठना। अग्नि के पास बैठने से गर्मी, बर्फ के समीप से शीतलता आती है, तो उपासना से देवत्व—ईश्वरत्व की वृद्धि होनी चाहिए। अपनी आकांक्षाओं से लेकर आचरण में दिव्यता का समावेश करना ही उपासना का उद्देश्य है। ऐसा होने से मनुष्य उस महत् सत्ता से जुड़कर असीम शक्ति सम्पन्न हो जाता है। लौकिक एवं पारलौकिक विभूतियां उसके चरण चूमने लगती हैं।
उपासनात्मक कर्मकाण्ड के साथ भावनाओं का समन्वय करने से उपासना बनती है। उपासना चाहे थोड़ी हो पर उसमें इष्ट के साथ घुल-मिल जाने एकाकार हो जाने जैसी तड़पन होनी चाहिए। मां बेटे, गाय बछड़े, दीप पतंग जैसी आतुरता से की गयी उपासना चमत्कार उत्पन्न कर सकती है।
उपासना एक पक्ष है, उसके साथ-साथ अपने जीवन आचार-विचारों को भी ईश्वर परायण के ढंग का बनाने का प्रयास जोड़ने से समग्र साधना बनती है। अपने हर कार्य व्यवहार को, अपने इष्ट को, ईश्वर को प्रतिष्ठा का प्रश्न मानकर चलने से जीवन में पवित्रता एवं व्यवस्था बढ़ती चली जाती है। वाल्मीकि जैसों के उतरे-पुतरे कर्मकांड भी चमत्कार पैदाकर गये, इसका श्रेय भी इसी प्रखर साधनात्मक प्रवृत्ति को दिया जा सकता है। अस्तु व्यक्तिगत जीवन में इसी स्तर की साधना को स्थान दिया जाना चाहिए।
स्वाध्याय— मैले, कपड़े को साफ करने के लिए जो उपयोगिता साबुन की है वही मन पर चढ़े हुए मैलों को शुद्ध करने के लिए स्वाध्याय की है। मनुष्य के पास सर्वोत्तम विशेषता उसकी बुद्धि की ही है और इन विचारों का सही एवं सुसंस्कृत बनना स्वाध्याय पर निर्भर है। श्रेष्ठ पुरुषों की कमी, उनके पास समय का अभाव और अपने लिए भी समुचित फुरसत की कमी रहने के कारण अब उपयुक्त सत्संग की व्यवस्था बन सकना कठिन है, ऐसी दशा में जीवन निर्माण के श्रेष्ठ साहित्य का स्वाध्याय ही सत्संग की आवश्यकता को पूरी करता है। जिस प्रकार भोजन त्याग कर शरीर को जीवित रख सकना कठिन है, इसी प्रकार स्वाध्याय की उपेक्षा करके, उसका परित्याग करके कोई व्यक्ति न तो अपने आत्मिक स्तर को ऊंचा उठा सकता है न स्थिर रख सकता है। बिना पढ़े लोगों के लिए भी उचित है कि वे श्रेष्ठ साहित्य का श्रवण किया करें। दुर्भिक्ष काल में जिस प्रकार साधन सम्पन्न लोग भूखों मरते हुओं को अन्न की व्यवस्था जुटाते हुए पुण्य लाभ करते हैं, उसी प्रकार स्वाध्यायशील सज्जनों का कर्तव्य है कि जीवन निर्माण साहित्य अपने घर के तथा बाहर के अशिक्षितों को पढ़कर सुनाया करें और उनके आत्मिक जीवन को अपने पसीने से खींच कर हरा-भरा रखने का पुण्य प्राप्त किया करें।
स्वाध्याय, पुस्तक पढ़कर भी किया जा सकता है तथा सुनकर भी किन्तु कुछ भी पढ़ना या सुनना स्वाध्याय नहीं कहा जा सकता। जीवन को दिशा दे सकने योग्य प्रेरणा पढ़कर या सुनकर प्राप्त करने तथा उसे मनन चिन्तन द्वारा आत्मसात् करने से स्वाध्याय का लाभ मिलता है। नित्य ऐसे प्रेरक विचारों एवं प्रसंगों को पढ़ने-सुनने का सुनिश्चित क्रम बनाया जाना चाहिए।
संयम— संयम को शक्ति का स्रोत कहा गया है। मनुष्य को बहुत कुछ मिला है तथा उससे भी अधिक मिल सकता है। संयम के अभाव में व्यक्ति निरर्थक अपनी शक्तियों, विभूतियों को गंवाता रहता है तथा अधिक कुछ कर पाने की पात्रता भी नहीं प्राप्त कर पाता। शक्तियों एवं विभूतियों को निरर्थक, हानिकारक एवं कम महत्व के प्रसंगों से हटाकर उन्हें सार्थक, हितकारी एवं अधिक उपयोगी विषयों में ठीक प्रकार नियोजित करना ही संयम कहलाता है।
संयम का क्षेत्र बड़ा व्यापक है। इन्द्रिय निग्रह से लेकर, आत्म व्यवहार, समय, विचारों एवं भावनाओं के नियंत्रण तक को उसके अन्तर्गत लिया जाता है। साधक को इसी व्यापक दृष्टि से संयम को समझना एवं अपनाना चाहिए।
इन्द्रियों का संयम तो आवश्यक है। चटोरेपन और कामवासना पर तो कड़ा नियंत्रण होना ही चाहिए। साथ ही स्वभाव और विचारों का संयम भी आवश्यक है। विचारों को अनुपयुक्त दिशा में जाने से रोकने के लिए उनके विरोधी विचार करने की आदत डालनी चाहिए। बुद्धि का झुकाव उन्हीं की ओर जाता है और यह नितान्त आवश्यक है कि कुविचारों के ठीक विरोधी सद्विचारों वाला पहलू भी हम बुद्धिरूपी अदालत के सामने निरन्तर प्रस्तुत करते रहें। हर बात के दो पहलू होते हैं, दोनों पर विचार कर लेने से बौद्धिक संयम का लाभ प्राप्त होता है, फिर हम आवेश उत्तेजना या भावुकता में कोई एक पक्षीय निर्णय कर बैठने के खतरे में नहीं पड़ते। स्वभाव का संयम आवेश और उत्तेजना से सम्बद्ध है। छोटी-छोटी बातों पर कई व्यक्ति बहुत अधिक उत्तेजित हो उठते हैं। क्रोध, आवेश, द्वेष, मैत्री, उदारता, भावुकता आदि की दुर्गति कर देते हैं। उस आवेश से उत्पन्न होने वाले दुष्परिणामों के सम्बन्ध में विचार नहीं करते और समय निकल जाने पर पछताते रहते हैं। स्वभाव का छिछोरापन छुड़ाकर उसे संजीदा और गम्भीर बनाना मानसिक संयम और प्रमुख प्रक्रिया है। जब हमारा संयम इन्द्रिय निग्रह तक ही नहीं, विचार और स्वभाव के नियन्त्रण क्षेत्र में भी कारगर होता है तब ही संयमशीलता की सफलता मानी जाती है।
संयम के अपने अनुरूप सुनिश्चित चरण निर्धारित करने चाहिए। ब्रह्मचर्य की अवधि निर्धारित करना, स्वादेन्द्रिय को नियन्त्रित करने के लिए उपवास, अस्वाद व्रत जैसे नियम बनाना, वाणी के लिए मितभाषण एवं मौन का अभ्यास, समय एवं धन का बजट बनाकर चलना, विचार एवं भावनाओं के स्तर पर पैनी दृष्टि रखकर उनके अनुपात को सही बनाकर रखने की तत्परता बरतना, अपनी आवश्यकताओं को औसत भारतीय स्तर की सीमा तक खींच लाना आदि समय के व्यावहारिक स्वरूप हैं, जिन्हें हर व्यक्ति अपने ढंग से अपनाकर लाभान्वित हो सकता।
सेवा— मनुष्य का आत्मिक विकास कितना हुआ है, इसका प्रमाण उसकी सेवावृत्ति से लगाया जा सकता है। सेवा वह अग्नि है जिसमें तपे बिना कोई अन्तःकरण, शुद्धता, निर्मलता, उदारता एवं आध्यात्मिकता की कसौटी पर खरा उतर सकने योग्य नहीं बन सकता। संन्यास लेने से पूर्व जीवन का एक चौथाई भाग वानप्रस्थ में रहकर समाज सेवा करने के लिए नियत किया हुआ है। जो लोग सेवा धर्म की अत्यन्त आवश्यक प्रक्रिया से कतराते हैं और केवल भजन करके आत्मिक प्रगति की आशा करते हैं वे वैसे ही बालक हैं जो प्रथम कक्षा से छलांग मारकर अन्तिम कक्षा उत्तीर्ण करना चाहते हैं और बीच की सभी कक्षाओं को छोड़ देना चाहते हैं। सद्विचारों का क्रियात्मक रूप सेवा है। आत्म शुद्धि का प्रत्यक्ष चिन्ह सेवा एवं परमार्थ में रुचि होना ही है।
सेवा का आत्म सन्तोष से सीधा सम्बन्ध है। परोपकार की दृष्टि से निस्वार्थ भावना से हम जो कुछ करते हैं उसकी प्रतिक्रिया आत्म सन्तोष के रूप में तुरन्त ही परिलक्षित होने लगती है। आत्म-सन्तोष को ही शास्त्रों में सोम रस कहा गया है, उसे ही पीकर ऋषि-मुनि देवपद प्राप्त किया करते थे। सत्कार्यों द्वारा आत्म-सन्तोष की कुछ बूंदें जिन्हें उपलब्ध होती रहती हैं वे अपने को कृतकृत्य माने बिना नहीं रह सकते। समाजिक दृष्टि से भी सेवा एक अत्यन्त उपयोगी प्रक्रिया है उससे पिछड़े हुए लोगों को ऊपर उठने और दीन-दुखियों को राहत प्राप्त करने का अवसर मिलता है। दुख और सुख को बांट लेना आध्यात्मिक साम्यवाद है। सुखी लोग अपने सुख का एक अंश दुखियों को बांट दें तो उनके ऊपर लदा हुआ सुविधाओं का अनावश्यक भार घट सकता है और मोटे पेट वाले रोगी को वादी छूट जाने से जैसी प्रसन्नता होती है वैसी ही उन्हें भी मिल सकती है। इसी प्रकार दुखियों का दुख थोड़ा-थोड़ा वे लोग बांट लें तो उन बेचारों का सुख भी हल्का हो सकता है।
एक के पास नमक दूसरे के पास शक्कर हो और दोनों अपने-अपने से ही काम चलावें तो दोनों के भोजन अस्वादिष्ट रहेंगे पर यदि वे दोनों आपस में बांट लें तो नमकीन और मीठा स्वाद का व्यंजन दोनों को ही मिल सकता है। धन के बंटवारे की मांग भौतिक साम्यवाद के क्षेत्रों में उठ रही है। आध्यात्मिक साम्यवाद की मांग दुख और सुख के बटवारे की है। इसी का सक्रिय रूप सेवा धर्म है। सेवा सदाचार का अंग है, अध्यात्म का प्रमुख सोपान और समाज की प्रगति का इसे आधार स्तम्भ कह सकते हैं। सहयोग और सामूहिकता की सत्प्रवृत्तियां सेवा वृद्धि की उदारता होने पर ही पनप सकती हैं और उनके पनपने पर ही कोई राष्ट्र सुसम्पन्न एवं समुन्नत हो सकता है।
साधना, स्वाध्याय, संयम एवं सेवा कार्यों में आलस्य, प्रमाद न होने देने की बात पर जोर दिया गया है। आलस्य, प्रमाद जीवन की किसी भी धारा को कुंठित कर देते हैं, अतः इनसे जितना बचा जाय उतना ही अच्छा है। किन्तु जीवन विकास के इन मूल आधारों की सीमा में उनका आना सर्वाधिक हानिकारक सिद्ध होता है। अस्तु इन अपने ही अन्दर बसने वाले महा-शत्रुओं को इन नियमों पर आघात करने का अवसर नहीं देना चाहिए।
उनमें व्यतिक्रम न आने पावे इसके लिए नियमों में कठोरता बरतनी चाहिए। उपासना बिना भोजन न करना स्वाध्याय किए बिना सोना नहीं, संयम एवं सेवा का नियम टूटने पर उसे दण्ड स्वरूप कुछ बढ़ाकर लागू करना, ऐसे सूत्र हैं जिनके आधार पर आलस्य-प्रमाद को उस दिशा में हावी होने से बखूबी रोका जा सकता है।