Books - युग निर्माण सत्-संकल्प की दिशा-धारा
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
पत्नीव्रत धर्म और पतिव्रत धर्म का परिपूर्ण निष्ठा के साथ पालन करेंगे।
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
नर का नारी के प्रति तथा नारी का नर के प्रति पवित्र दृष्टिकोण होना आत्मोन्नति एवं सामाजिक प्रगति, सुख शान्ति के लिए आवश्यक है। ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने वाले, अविवाहित नर नारियों के लिए तो व्यवहार एवं चिन्तन तक में एक दूसरे के प्रति पवित्रता का समावेश अनिवार्य है ही, किन्तु अन्यों को भी उनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। अपवित्र पाशविक दृष्टि रखकर कोई भी वर्ग दूसरे वर्ग की श्रेष्ठता का न तो मूल्यांकन कर सकता है और न उनका लाभ उठा सकता है। इस हानि से बचने की अत्यधिक उपयोगी प्रेरणा इस वाक्य में दी गई है।
नारी इस संसार की सर्वोत्कृष्ट पवित्रता है। जननी के रूप में वह अगाध वात्सल्य लेकर इस धरती पर अवतीर्ण होती है। नारी के रूप में त्याग और बलिदान की, प्रेम और आत्मदान की सजीव प्रतिमा के रूप में प्रतिष्ठित होती है। बहिन के रूप में स्नेह, उदारता और ममता की दैवी जैसी परिलक्षित होती है। पुत्री के रूप में वह कोमलता, मृदुता, सरलता, निश्छलता की प्रतिकृति के रूप में इस नीरस संसार में सरस बनाती रहती है। परमात्मा ने नारी में सत्य, शिव और सुन्दर का अनन्त भण्डार भरा है। उसके नेत्रों में एक अलौकिक ज्योति रहती है, जिसकी कुछ किरणें पड़ने मात्र से निष्ठुर हृदयों की भी मुरझाई हुई कली खिल सकती है। दुर्बल, अपंग मानव को शक्तिवान और सत्ता सम्पन्न बनाने का सबसे बड़ा श्रेय यदि किसी का हो सकता है तो वह नारी का ही है। वह मूर्तिमान प्रेरणा, भावना और स्फूर्ति के रूप में अचेतन को चेतन बनाती है। उसके सान्निध्य में अकिंचिन व्यक्ति का भाग्य मुखरित हो उठता है। वह अपने को कृत्य-कृत्य हुआ अनुभव करता है।
नारी की महत्ता अग्नि के समान है। अग्नि हमारे जीवन का स्रोत है, उसके अभाव में हम निर्जीव और निष्प्राण बनकर ही रह सकते हैं। उसकी उपयोगिता की जितनी महिमा गाई जाय उतनी ही कम है। पर इस अग्नि का दूसरा पहलू भी है, वह स्पर्श करते ही काली नागिन की तरह लप-लपाती हुई उठती है और छूते ही छटपटा देने वाली—भारी पीड़ा देने वाली परिस्थिति उत्पन्न कर देती है। नारी में जहां अनन्त गुण हैं वहां एक दोष ऐसा भी है जिसके स्पर्श करते ही असीम वेदना से छटपटाना पड़ता है। वह रूप है—नारी का रमणी रूप। रमण की आकांक्षा से जब भी उसे देखा, सोचा और छुआ जायेगा तभी वह काली नागिन की तरह अपने विष भरे दंश चुभो देगी। बिच्छू की बनावट कैसी अच्छी है सुनहरे रंग का यह सुन्दर जीव कितना मनोहर लगता है पर उसके डंक को छूते ही विपत्ति खड़ी हो जाती है। मधुमक्खी कितनी उपकारी है। भौंरा कितना मधुर गूंजता है, कांतर कैसे रंग-बिरंगे पैरों से चलती है, बर्र और ततैया अपने छतों में बैठे हुए कैसे सुन्दर गुलदस्ते से सजे दीखते हैं, पर इनमें से किसी का भी स्पर्श हमारे लिए विपत्ति का कारण बन जाता है। नारी के कामिनी और रमणी के रूप में जो एक विष की छोटी सी पोटली छिपी हुई है उस सुनहरी कटार से हमें बचना ही चाहिए।
अपने से बड़ी आयु की नारी को माता के रूप में, समान आयु वाली को बहिन के रूप में, छोटी को पुत्री के रूप में देखकर, उन्हीं भावनाओं का अधिकाधिक अभिवर्धन करके हम उतने ही आह्लादित और प्रमुदित हो सकते हैं जैसे माता सरस्वती, माता लक्ष्मी, माता दुर्गा के चरणों में बैठकर उनके अनन्त वात्सल्य का अनुभव करते हैं। हम गायत्री उपासक भगवान की सर्वश्रेष्ठ सजीव प्रतिमा को नारी रूप में ही मानते हैं। नारी में भगवान की अनन्त करुणा पवित्रता और सदाशयता का दर्शन करना हमारी भक्ति भावना का दार्शनिक आधार है। उपासना में ही नहीं, व्यावहारिक जीवन में भी हमारा दृष्टिकोण यही रहना चाहिए। नारी मात्र को हम पवित्र दृष्टि से देखें, वासना की दृष्टि से न उसे सोचें, न उसे देखें, न उसे छुऐं।
दाम्पत्य जीवन में सन्तानोत्पादन का विशेष प्रयोजन या अवसर आवश्यक हो तो पति-पत्नि कुछ क्षण के लिए वासना का एक हल्का धूप छांह अनुभव कर सकते हैं। शास्त्रों में तो इतनी भी छूट नहीं है, उन्होंने तो गर्भाधान संस्कार को भी यज्ञोपवीत या मुण्डन-संस्कार की भांति एक पवित्र धर्मकृत्य माना है और इसी दृष्टि से उस क्रिया को सम्पन्न करने की आज्ञा दी है। पर मानवीय दुर्बलता को देखते हुए दाम्पत्य जीवन में एक सीमित मर्यादा के अन्तर्गत वासना को छूट मिल सकती है। इसके अतिरिक्त दाम्पत्य जीवन भी ऐसा ही पवित्र होना चाहिए जैसे कि दो सहोदर भाइयों का या दो सगी बहनों का होता है। विवाह का उद्देश्य दो शरीरों को एक आत्मा बनाकर जीवन की गाड़ी का भार दो कन्धों पर ढोते चलना है, दुष्प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करना नहीं। यह तो सिनेमा का, गन्दे चित्रों का, अश्लील साहित्य का और दुर्बुद्धि का प्रमाद है जो हमने नारी की परम पुनीत प्रतिमा को ऐसे अश्लील गन्दे और गर्हित रूप में गिरा रखा है। नारी को वासना के उद्देश्य से सोचना या देखना, उसकी महानता का वैसा ही तिरस्कार करना है जैसे किसी देव मन्दिर की प्रतिमा को चुरा कर पत्थर को अपनी किसी आवश्यकता को पूर्ण करने के उद्देश्य से देखना। यह दृष्टि जितनी निन्दनीय और घृणित है उतनी ही हानिकर और विग्रह उत्पन्न करने वाली भी है। हमें उस स्थिति को अपने भीतर से और सारे समाज से हटाना होगा और नारी को उस स्वरूप में पुनः प्रतिष्ठापित करना होगा जिसकी एक दृष्टि मात्र से मानव प्राणी धन्य होता रहा है।
उपरोक्त पंक्तियों में नारी का जैसा चित्रण नर की दृष्टि से किया गया ठीक वैसा ही चित्रण कुछ शब्दों के हेर-फेर के साथ नारी की दृष्टि से नर के सम्बन्ध में किया जा सकता है। जननेन्द्रिय की बनावट में राई रत्ती अन्तर होते हुए भी मनुष्य की दृष्टि से दोनों ही लगभग समान क्षमता, बुद्धि, भावना एवं स्थिति के बने हुए हैं। यह ठीक है कि दोनों में अपनी-अपनी विशेषताएं और अपनी-अपनी न्यूनताएं हैं, उनकी पूर्ति के लिए दोनों एक दूसरे का आश्रय लेते हैं। यह आश्रय पति-पत्नी के रूप में केवल काम प्रयोजन के रूप में हो, ऐसा किसी भी प्रकार आवश्यक नहीं। नारी के प्रति नर और नर के प्रति नारी पवित्र, पुनीत, कर्तव्य और स्नेह का सात्विक एवं स्वर्गीय सम्बन्ध रखते हुए भी माता, पुत्री या बहिन के रूप में रखा, सहोदर स्वजन और आत्मीय के रूप में श्रेष्ठ सम्बन्ध रख सकते हैं, वैसा ही रखना भी चाहिए। पवित्रता में जो अजस्र बल है वह वासना की नारकीय कीचड़ में कभी भी दृष्टिगोचर नहीं हो सकता। वासना और प्रेम दोनों दृष्टिकोण एक दूसरे से उतने ही भिन्न हैं, जितनी स्वर्ग से नरक में भिन्नता है। व्यभिचार में द्वेष, ईर्ष्या, आधिपत्य, संकीर्णता, कामुकता, रूप, सौन्दर्य, श्रृंगार, कलह, निराशा, कुढ़न, पतन, ह्रास, निन्दा आदि अगणित यंत्रणाएं भरी पड़ी हैं, पर प्रेम इन सबसे सर्वथा मुक्त है। पवित्रता में त्याग, उदारता शुभकामना, सहृदयता और शान्ति के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता।
युग निर्माण संकल्प में आत्मवत् सर्वभूतेषु की, परद्रव्येषु लोष्ठवत्, परदारेषु मातृवात् की पवित्र भावनायें भरी पड़ी हैं, इन्हीं के आधार पर नवयुग का सृजन हो सकता है। इन्हीं का अवलम्बन लेकर इस दुनियां को स्वर्ग के रूप में परिणत करने का स्वप्न साकार हो सकता है।
नारी इस संसार की सर्वोत्कृष्ट पवित्रता है। जननी के रूप में वह अगाध वात्सल्य लेकर इस धरती पर अवतीर्ण होती है। नारी के रूप में त्याग और बलिदान की, प्रेम और आत्मदान की सजीव प्रतिमा के रूप में प्रतिष्ठित होती है। बहिन के रूप में स्नेह, उदारता और ममता की दैवी जैसी परिलक्षित होती है। पुत्री के रूप में वह कोमलता, मृदुता, सरलता, निश्छलता की प्रतिकृति के रूप में इस नीरस संसार में सरस बनाती रहती है। परमात्मा ने नारी में सत्य, शिव और सुन्दर का अनन्त भण्डार भरा है। उसके नेत्रों में एक अलौकिक ज्योति रहती है, जिसकी कुछ किरणें पड़ने मात्र से निष्ठुर हृदयों की भी मुरझाई हुई कली खिल सकती है। दुर्बल, अपंग मानव को शक्तिवान और सत्ता सम्पन्न बनाने का सबसे बड़ा श्रेय यदि किसी का हो सकता है तो वह नारी का ही है। वह मूर्तिमान प्रेरणा, भावना और स्फूर्ति के रूप में अचेतन को चेतन बनाती है। उसके सान्निध्य में अकिंचिन व्यक्ति का भाग्य मुखरित हो उठता है। वह अपने को कृत्य-कृत्य हुआ अनुभव करता है।
नारी की महत्ता अग्नि के समान है। अग्नि हमारे जीवन का स्रोत है, उसके अभाव में हम निर्जीव और निष्प्राण बनकर ही रह सकते हैं। उसकी उपयोगिता की जितनी महिमा गाई जाय उतनी ही कम है। पर इस अग्नि का दूसरा पहलू भी है, वह स्पर्श करते ही काली नागिन की तरह लप-लपाती हुई उठती है और छूते ही छटपटा देने वाली—भारी पीड़ा देने वाली परिस्थिति उत्पन्न कर देती है। नारी में जहां अनन्त गुण हैं वहां एक दोष ऐसा भी है जिसके स्पर्श करते ही असीम वेदना से छटपटाना पड़ता है। वह रूप है—नारी का रमणी रूप। रमण की आकांक्षा से जब भी उसे देखा, सोचा और छुआ जायेगा तभी वह काली नागिन की तरह अपने विष भरे दंश चुभो देगी। बिच्छू की बनावट कैसी अच्छी है सुनहरे रंग का यह सुन्दर जीव कितना मनोहर लगता है पर उसके डंक को छूते ही विपत्ति खड़ी हो जाती है। मधुमक्खी कितनी उपकारी है। भौंरा कितना मधुर गूंजता है, कांतर कैसे रंग-बिरंगे पैरों से चलती है, बर्र और ततैया अपने छतों में बैठे हुए कैसे सुन्दर गुलदस्ते से सजे दीखते हैं, पर इनमें से किसी का भी स्पर्श हमारे लिए विपत्ति का कारण बन जाता है। नारी के कामिनी और रमणी के रूप में जो एक विष की छोटी सी पोटली छिपी हुई है उस सुनहरी कटार से हमें बचना ही चाहिए।
अपने से बड़ी आयु की नारी को माता के रूप में, समान आयु वाली को बहिन के रूप में, छोटी को पुत्री के रूप में देखकर, उन्हीं भावनाओं का अधिकाधिक अभिवर्धन करके हम उतने ही आह्लादित और प्रमुदित हो सकते हैं जैसे माता सरस्वती, माता लक्ष्मी, माता दुर्गा के चरणों में बैठकर उनके अनन्त वात्सल्य का अनुभव करते हैं। हम गायत्री उपासक भगवान की सर्वश्रेष्ठ सजीव प्रतिमा को नारी रूप में ही मानते हैं। नारी में भगवान की अनन्त करुणा पवित्रता और सदाशयता का दर्शन करना हमारी भक्ति भावना का दार्शनिक आधार है। उपासना में ही नहीं, व्यावहारिक जीवन में भी हमारा दृष्टिकोण यही रहना चाहिए। नारी मात्र को हम पवित्र दृष्टि से देखें, वासना की दृष्टि से न उसे सोचें, न उसे देखें, न उसे छुऐं।
दाम्पत्य जीवन में सन्तानोत्पादन का विशेष प्रयोजन या अवसर आवश्यक हो तो पति-पत्नि कुछ क्षण के लिए वासना का एक हल्का धूप छांह अनुभव कर सकते हैं। शास्त्रों में तो इतनी भी छूट नहीं है, उन्होंने तो गर्भाधान संस्कार को भी यज्ञोपवीत या मुण्डन-संस्कार की भांति एक पवित्र धर्मकृत्य माना है और इसी दृष्टि से उस क्रिया को सम्पन्न करने की आज्ञा दी है। पर मानवीय दुर्बलता को देखते हुए दाम्पत्य जीवन में एक सीमित मर्यादा के अन्तर्गत वासना को छूट मिल सकती है। इसके अतिरिक्त दाम्पत्य जीवन भी ऐसा ही पवित्र होना चाहिए जैसे कि दो सहोदर भाइयों का या दो सगी बहनों का होता है। विवाह का उद्देश्य दो शरीरों को एक आत्मा बनाकर जीवन की गाड़ी का भार दो कन्धों पर ढोते चलना है, दुष्प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करना नहीं। यह तो सिनेमा का, गन्दे चित्रों का, अश्लील साहित्य का और दुर्बुद्धि का प्रमाद है जो हमने नारी की परम पुनीत प्रतिमा को ऐसे अश्लील गन्दे और गर्हित रूप में गिरा रखा है। नारी को वासना के उद्देश्य से सोचना या देखना, उसकी महानता का वैसा ही तिरस्कार करना है जैसे किसी देव मन्दिर की प्रतिमा को चुरा कर पत्थर को अपनी किसी आवश्यकता को पूर्ण करने के उद्देश्य से देखना। यह दृष्टि जितनी निन्दनीय और घृणित है उतनी ही हानिकर और विग्रह उत्पन्न करने वाली भी है। हमें उस स्थिति को अपने भीतर से और सारे समाज से हटाना होगा और नारी को उस स्वरूप में पुनः प्रतिष्ठापित करना होगा जिसकी एक दृष्टि मात्र से मानव प्राणी धन्य होता रहा है।
उपरोक्त पंक्तियों में नारी का जैसा चित्रण नर की दृष्टि से किया गया ठीक वैसा ही चित्रण कुछ शब्दों के हेर-फेर के साथ नारी की दृष्टि से नर के सम्बन्ध में किया जा सकता है। जननेन्द्रिय की बनावट में राई रत्ती अन्तर होते हुए भी मनुष्य की दृष्टि से दोनों ही लगभग समान क्षमता, बुद्धि, भावना एवं स्थिति के बने हुए हैं। यह ठीक है कि दोनों में अपनी-अपनी विशेषताएं और अपनी-अपनी न्यूनताएं हैं, उनकी पूर्ति के लिए दोनों एक दूसरे का आश्रय लेते हैं। यह आश्रय पति-पत्नी के रूप में केवल काम प्रयोजन के रूप में हो, ऐसा किसी भी प्रकार आवश्यक नहीं। नारी के प्रति नर और नर के प्रति नारी पवित्र, पुनीत, कर्तव्य और स्नेह का सात्विक एवं स्वर्गीय सम्बन्ध रखते हुए भी माता, पुत्री या बहिन के रूप में रखा, सहोदर स्वजन और आत्मीय के रूप में श्रेष्ठ सम्बन्ध रख सकते हैं, वैसा ही रखना भी चाहिए। पवित्रता में जो अजस्र बल है वह वासना की नारकीय कीचड़ में कभी भी दृष्टिगोचर नहीं हो सकता। वासना और प्रेम दोनों दृष्टिकोण एक दूसरे से उतने ही भिन्न हैं, जितनी स्वर्ग से नरक में भिन्नता है। व्यभिचार में द्वेष, ईर्ष्या, आधिपत्य, संकीर्णता, कामुकता, रूप, सौन्दर्य, श्रृंगार, कलह, निराशा, कुढ़न, पतन, ह्रास, निन्दा आदि अगणित यंत्रणाएं भरी पड़ी हैं, पर प्रेम इन सबसे सर्वथा मुक्त है। पवित्रता में त्याग, उदारता शुभकामना, सहृदयता और शान्ति के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता।
युग निर्माण संकल्प में आत्मवत् सर्वभूतेषु की, परद्रव्येषु लोष्ठवत्, परदारेषु मातृवात् की पवित्र भावनायें भरी पड़ी हैं, इन्हीं के आधार पर नवयुग का सृजन हो सकता है। इन्हीं का अवलम्बन लेकर इस दुनियां को स्वर्ग के रूप में परिणत करने का स्वप्न साकार हो सकता है।