Books - युग निर्माण सत्-संकल्प की दिशा-धारा
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Language: HINDI
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‘मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है’। इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनायेंगे तो युग अवश्य बदलेगा। हमारा युग-निर्माण संकल्प अवश्य पूर्ण होगा।
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परिस्थितियों का हमारे जीवन पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। आस-पास का जैसा वातावरण होता है वैसा बनने और करने के लिए मनोभूमि का रुझान होता है और साधारण स्थिति के लोग उन परिस्थितियों के ढांचे में ही ढल जाते हैं। घटनायें हमें प्रभावित करती हैं, व्यक्ति का प्रभाव अपने ऊपर पड़ता है इतना होते हुए भी यह मानना पड़ेगा कि सबसे अधिक प्रभाव अपने विश्वासों का ही अपने ऊपर पड़ता है। परिस्थितियां किसी को भी तभी प्रभावित करती हैं जब मनुष्य उनके आगे सिर झुका दे। यदि उनके दबाव को अस्वीकार कर दिया जाय तो फिर कोई परिस्थिति किसी मनुष्य को अपने दबाव में देर तक नहीं रख सकती। विश्वासों की तुलना में परिस्थितियों का प्रभाव निश्चय ही नगण्य है।
कहते हैं कि भाग्य की रचना ब्रह्माजी करते हैं, सुना जाता है कि कर्म रेखायें जन्म से पहले ही माथे पर लिख दी जाती है। ऐसा भी कहा जाता है कि तकदीर के आगे तदवीर की नहीं चलती। यह किम्वदंतियां एक सीमा तक ही सच हो सकती हैं। जन्म से अन्धा अपंग उत्पन्न हुए या अशक्त अविकसित लोग ऐसी बात कहें, तो उस पर भरोसा किया जा सकता है। अप्रत्याशित दुर्घटना के शिकार कई बार हम हो जाते हैं और ऐसी विपत्ति सामने आ खड़ी होती है जिससे बच सकना या रोका जा सकना अपने वश में नहीं होता। अग्निकाण्ड, भूकम्प, युद्ध, महामारी, अकाल-मृत्यु, दुर्भिक्ष, रेल मोटर आदि का पलट जाना, चोरी डकैती आदि के कई अवसर ऐसे आ जाते हैं कि मनुष्य उनकी संभावना को न तो समझ पाता है और न रोकने में समर्थ हो पाता है। ऐसी कुछ घटनाओं के बारे में भाग्य या होतव्यता की बात मानकर सन्तोष किया जाता है। पंडित मनुष्य के आन्तरिक विक्षोभ को शान्त करने के लिए भाग्यवाद का सिद्धान्त एक वैसा ही उत्तम उपचार है जैसे घायल की तड़पन दूर करने के लिए डॉक्टर लोग नींद की गोली खिला देते हैं, मर्फिया का इन्जेक्शन लगा देते हैं या कोकीन आदि की फुरहरी लगा कर पीड़ित स्थान को सुस्त कर देते हैं। वह विशेष परिस्थितियों के विशेष उपचार हैं। यदाकदा ही ऐसी बात होती है इसलिए इन्हें अपवाद ही कहा जायेगा।
पुरुषार्थ एक नियम है और भाग्य उसका अपवाद। अपवादों का भी अस्तित्व तो मानना पड़ता है पर उनके आधार पर कोई नीति नहीं अपनाई जा सकती, कोई कार्यक्रम नहीं बनाया जा सकता। कभी-कभी स्त्रियों के पेट से मनुष्याकृति से भिन्न प्रकार के बच्चे जन्मते देखे गये हैं, कभी-कभी कोई पेड़ कुसमय में ही फल्-फूल देने लगता है, कभी-कभी ग्रीष्म ऋतु में ओले बरस जाते हैं, यह अपवाद हैं इन्हें कौतुक या कौतूहल की दृष्टि से देखा जा सकता है, पर इनको नियम नहीं माना जा सकता। इसी प्रकार भाग्य की गणना अपवादों में तो हो सकती है पर यही नहीं माना जा सकता कि मानव जीवन की सारी गतिविधियां ही पूर्व निश्चित भाग्य विधान के अनुसार होती हैं। यदि ऐसा होता तो पुरुषार्थ और प्रयत्न की कोई आवश्यकता ही न रह जाती। जिसके भाग्य में जैसा होता है वैसा यदि अमिट ही है तो फिर पुरुषार्थ करने से भी अधिक क्या मिलता? और पुरुषार्थ न करने पर भी भाग्य में लिखी सफलता अनायास ही क्यों न मिल जाती?
हर व्यक्ति अपने-अपने अभीष्ट उद्देश्यों के लिए पुरुषार्थ करने में संलग्न रहता है इससे प्रकट है कि आत्मा का सुनिश्चित विश्वास पुरुषार्थ के ऊपर है और वह उसी की प्रेरणा निरन्तर प्रस्तुत करती रहती है। हमें जानना चाहिए कि ब्रह्माजी किसी का भाग्य नहीं लिखते, हर मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है। जिस प्रकार कल का जमाया हुआ दूध आज दही बन जाता है उसी प्रकार कल का पुरुषार्थ आज भाग्य बन कर प्रस्तुत होता है। आज के कर्मों का फल आज ही नहीं मिल जाता। उसका परिपाक होने में, परिणाम होने में, परिणाम निकलने में कुछ देर लगती है। यह देरी ही भाग्य कही जा सकती है। परमात्मा समदर्शी और न्यायकारी है उसे अपने सब पुत्र समान रूप से प्रिय हैं फिर वह किसी का भाग्य अच्छा किसी का बुरा लिखने का अन्याय और पक्षपात क्यों करेगा? उसने अपने हर बालक को भले या बुरे कर्म करने का पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की है पर साथ ही यह भी बता दिया है कि उनके भले या बुरे परिणाम भी अवश्य प्राप्त होंगे। इस कर्म को ही यदि भाग्य कहें तो अत्युक्ति न होगी।
हमारे जीवन में अगणित समस्यायें उलझी हुई गुत्थियों के रूप में विकराल वेष धारण किये सामने खड़ी हैं। इस कटु सत्य को मानना ही चाहिए कि उनके उत्पादक हम स्वयं हैं और यदि इस तथ्य को स्वीकार करके अपनी आदतों, विचारधाराओं, मान्यताओं और गतिविधियों को सुधारने के लिए तैयार हों तो इन उलझनों को हम स्वयं ही सुलझा भी सकते हैं। बेचारे ग्रह नक्षत्रों पर दोष थोपना बेकार है। लाखों करोड़ों मील दूर दिन रात चक्कर काटते हुए अपनी मौत के दिन पूरे करने वाले ग्रह नक्षत्र भला हमें क्या सुख सुविधा प्रदान करेंगे? उनको छोड़कर और सच्चे ग्रहों का पूजन आरम्भ करें जिनकी थोड़ी सी कृपाकोर से ही हमारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो सकता है, सारी आकांक्षायें देखते-देखते पूर्ण हो सकती हैं।
नव दुर्गाओं की नव-रात्रियों में हम हर साल पूजा करते हैं कि वे अनेक ऋद्धि-सिद्धियां प्रदान करती हैं। सुख सुविधाओं की उपलब्धि के लिए उनकी कृपा और सहायता पाने के लिए विविध साधन पूजन किये जाते हैं। जिस प्रकार देवलोक में निवासिनी नव दुर्गायें हैं उसी प्रकार भू-लोक में निवास करने वाली, हमारे अत्यन्त समीप—शरीर और मस्तिष्क में रहने वाली—नौ प्रत्यक्ष देवियां भी हैं और उनकी साधना का प्रत्यक्ष परिणाम भी मिलता है। देवलोक वासिनी देवियों के प्रसन्न होने और न होने की बात तो संदिग्ध हो सकती है पर शरीर लोक में रहने वाली इन देवियों की साधना का श्रम कभी भी व्यर्थ नहीं जा सकता। यदि थोड़ा भी प्रयत्न इनकी साधना के लिए किया जाय तो उसका भी समुचित लाभ मिल सकता है। हमारे मनःक्षेत्र में विचरण करने वाली इन नौ देवियों के नाम हैं:—
(1)आकांक्षा (2)विचारणा (3)भावना (4)श्रद्धा (5)प्रवृत्ति (6)निष्ठा (7)क्षमता (8)क्रिया (9)मर्यादा। इनका संतुलित विकास करके मनुष्य अष्ट-सिद्धियों और नव-निद्धियों का स्वामी बन जाता है। संसार के प्रत्येक प्रगतिशील मनुष्य को जान या अनजान में इसकी साधना करनी ही पड़ती है और इन्हीं के अनुग्रह से उन्हें उन्नति के उच्च शिखर पर चढ़ने का अवसर मिला है।
अपने को उत्कृष्ट बनाने का प्रयत्न किया जाय तो हमारे सम्पर्क में आने वाले दूसरे लोग भी श्रेष्ठ बन सकते हैं। आदर्श सदा कुछ ऊंचा रहता है और उसकी प्रतिकृति कुछ नीची रह जाती है। आदर्श का प्रतिष्ठापन करने वालों को सामान्य जनता के स्तर से सदा ऊंचा रहना पड़ता है। संसार को हम जितना अच्छा बनाना और देखना चाहते हैं उसकी अपेक्षा कहीं ऊंचा बनने का आदर्श उपस्थित करना पड़ेगा। उत्कृष्टता की श्रेष्ठता उत्पन्न कर सकती है। परिपक्व शरीर की माता ही स्वस्थ बच्चे का प्रसव करती है। आदर्श पिता बनें तो ही सुसन्तति का सौभाग्य प्राप्त कर सकेंगे। हम आदर्श गुरु हों तो हमें श्रेष्ठ शिष्यों की श्रद्धा का लाभ मिलेगा। यदि आदर्श पति हों तो ही पतिव्रता पत्नी की सेवा प्राप्त कर सकेंगे। शरीर की अपेक्षा छाया कुछ कुरूप ही रह जाती है। चेहरे की अपेक्षा फोटो में कुछ न्यूनता ही रहती है। हम अपने आप को जिस स्तर तक विकसित कर सके होंगे, हमारे समीपवर्ती लोग उससे प्रभावित होकर कुछ ऊपर तो उठेंगे, तो भी अपनी अपेक्षा कुछ नीचे रह जावेंगे। इसलिए हम दूसरों से जितना सज्जनता और श्रेष्ठता की आशा करते हों, उसकी तुलना में अपने को कुछ अधिक ही ऊंचा प्रमाणित करना होगा। हमें हर चन्द यह याद रखे रहना होगा कि उत्कृष्टता के बिना श्रेष्ठता उत्पन्न नहीं हो सकती।
लेखों और भाषणों का युग अब बीत गया। गाल बजाकर, लम्बी चौड़ी डींग हांक कर या बड़े-बड़े कागज काले करके संसार के सुधार की आशा करना व्यर्थ है। इन साधनों से थोड़ी मदद मिल सकती पर उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। युग-निर्माण जैसे महान् कार्य के लिए तो यह साधन सर्वथा अपर्याप्त और अपूर्ण हैं। इसका प्रधान साधन वही हो सकता है कि हम अपना मानसिक स्तर ऊंचा उठायें, चरित्रात्मक दृष्टि से अपेक्षाकृत उत्कृष्ट बनें। अपने आचरण से ही दूसरों को प्रभावशाली शिक्षा दी जा सकती है। गणित, भूगोल, इतिहास आदि की शिक्षा में कहने-सुनने की प्रक्रिया से काम चल सकता है पर व्यक्ति निर्माण के लिए तो निखरे हुए व्यक्तित्वों की ही आवश्यकता पड़ेगी। उस आवश्यकता की पूर्ति के लिए सबसे पहले हमें स्वयं ही आगे आना पड़ेगा। हमारी उत्कृष्टता के सन्दर्भ में संसार की श्रेष्ठता अपने आप बढ़ने लगेगी। हम बदलेंगे तो युग भी जरूर बदलेगा और हमारा युग-निर्माण संकल्प भी अवश्य पूर्ण होगा।
आज ऋषि, मुनि नहीं रहे जो अपने आदर्श-चरित्र द्वारा लोक शिक्षण करके जन साधारण के स्तर को ऊंचा उठाते। आज ब्राह्मण भी नहीं रहे जो अपने अगाध ज्ञान, वन्दनीय त्याग और प्रबल पुरुषार्थ से जनमानस की पतनोन्मुख पशु प्रवृत्तियों को मोड़ कर देवत्व की दिशा में पलट डालने का उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर उठाते। वृक्षों के अभाव में एरंड का पेड़ ही वृक्ष कहलाता है। इस विचारधारा से जुड़े हुए विशाल परिवार—देव परिवार के परिजन अपने छोटे-छोटे व्यक्तित्वों को ही आदर्शवाद की दिशा में अग्रसर करे तो भी कुछ न कुछ प्रयोजन सिद्ध होगा, कम से कम एक अवरुद्ध द्वार तो खुलेगा ही। यदि हम मार्ग बनाने में अपनी छोटी-छोटी हस्तियों को जला दें तो कल आने वाले युग प्रवर्तकों की मंजिल आसान हो जायेगी। युग-निर्माण सत्संकल्प का शंखनाद करते हुए छोटे-छोटे लोग आगे बढ़ चलेंगे तो प्रसुप्त पड़ी हुई युगनिर्माणी शक्तियों के जागरण की आवश्यकता अवश्य अनुभव होगी। राष्ट्र को प्रबुद्धता और चेतना को यदि चारित्रिक संस्थान के लिए हम जागृत कर सकें तो आज न सही कल, हमारा युग-निर्माण संकल्प पूर्ण होगा, पूर्ण होकर रहेगा।
युग परिवर्तन की सुनिश्चितता पर विश्वास करना हवाई महल नहीं बल्कि तथ्यों पर आधारित एक सत्य है। परिस्थितियां कितनी ही विकट हों, जब सदाशयता सम्पन्न संकल्पशील व्यक्ति एक जुट होकर कार्य करते हैं तो स्थिति बदले बिना नहीं रहती। असुरता के आतंक से मुक्ति का पौराणिक आख्यान हो या जिनके शासन में सूर्य नहीं डूबता था उनके चंगुल से मुक्त होने का स्वतन्त्र अभियान, नगण्य शक्ति के ही सही पर संकल्पशील व्यक्तियों का समुदाय उसके लिए युग शक्ति के अवतरण का माध्यम बन ही जाता है। युग-निर्माण अभियान से परिचित व्यक्ति यह भली प्रकार समझने लगे हैं। कि यह ईश्वर प्रेरित प्रक्रिया है। इस संकल्प को अपनाने वाला ईश्वरीय संकल्प का भागीदार कहला सकता है। अस्तु उसकी सफलता पर पूरी आस्था रखकर उसको जीवन में चरितार्थ करने कराने के लिए पूरी शक्ति झोंक देना सबसे बड़ी समझदारी सिद्ध होगी।
*समाप्त*
कहते हैं कि भाग्य की रचना ब्रह्माजी करते हैं, सुना जाता है कि कर्म रेखायें जन्म से पहले ही माथे पर लिख दी जाती है। ऐसा भी कहा जाता है कि तकदीर के आगे तदवीर की नहीं चलती। यह किम्वदंतियां एक सीमा तक ही सच हो सकती हैं। जन्म से अन्धा अपंग उत्पन्न हुए या अशक्त अविकसित लोग ऐसी बात कहें, तो उस पर भरोसा किया जा सकता है। अप्रत्याशित दुर्घटना के शिकार कई बार हम हो जाते हैं और ऐसी विपत्ति सामने आ खड़ी होती है जिससे बच सकना या रोका जा सकना अपने वश में नहीं होता। अग्निकाण्ड, भूकम्प, युद्ध, महामारी, अकाल-मृत्यु, दुर्भिक्ष, रेल मोटर आदि का पलट जाना, चोरी डकैती आदि के कई अवसर ऐसे आ जाते हैं कि मनुष्य उनकी संभावना को न तो समझ पाता है और न रोकने में समर्थ हो पाता है। ऐसी कुछ घटनाओं के बारे में भाग्य या होतव्यता की बात मानकर सन्तोष किया जाता है। पंडित मनुष्य के आन्तरिक विक्षोभ को शान्त करने के लिए भाग्यवाद का सिद्धान्त एक वैसा ही उत्तम उपचार है जैसे घायल की तड़पन दूर करने के लिए डॉक्टर लोग नींद की गोली खिला देते हैं, मर्फिया का इन्जेक्शन लगा देते हैं या कोकीन आदि की फुरहरी लगा कर पीड़ित स्थान को सुस्त कर देते हैं। वह विशेष परिस्थितियों के विशेष उपचार हैं। यदाकदा ही ऐसी बात होती है इसलिए इन्हें अपवाद ही कहा जायेगा।
पुरुषार्थ एक नियम है और भाग्य उसका अपवाद। अपवादों का भी अस्तित्व तो मानना पड़ता है पर उनके आधार पर कोई नीति नहीं अपनाई जा सकती, कोई कार्यक्रम नहीं बनाया जा सकता। कभी-कभी स्त्रियों के पेट से मनुष्याकृति से भिन्न प्रकार के बच्चे जन्मते देखे गये हैं, कभी-कभी कोई पेड़ कुसमय में ही फल्-फूल देने लगता है, कभी-कभी ग्रीष्म ऋतु में ओले बरस जाते हैं, यह अपवाद हैं इन्हें कौतुक या कौतूहल की दृष्टि से देखा जा सकता है, पर इनको नियम नहीं माना जा सकता। इसी प्रकार भाग्य की गणना अपवादों में तो हो सकती है पर यही नहीं माना जा सकता कि मानव जीवन की सारी गतिविधियां ही पूर्व निश्चित भाग्य विधान के अनुसार होती हैं। यदि ऐसा होता तो पुरुषार्थ और प्रयत्न की कोई आवश्यकता ही न रह जाती। जिसके भाग्य में जैसा होता है वैसा यदि अमिट ही है तो फिर पुरुषार्थ करने से भी अधिक क्या मिलता? और पुरुषार्थ न करने पर भी भाग्य में लिखी सफलता अनायास ही क्यों न मिल जाती?
हर व्यक्ति अपने-अपने अभीष्ट उद्देश्यों के लिए पुरुषार्थ करने में संलग्न रहता है इससे प्रकट है कि आत्मा का सुनिश्चित विश्वास पुरुषार्थ के ऊपर है और वह उसी की प्रेरणा निरन्तर प्रस्तुत करती रहती है। हमें जानना चाहिए कि ब्रह्माजी किसी का भाग्य नहीं लिखते, हर मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है। जिस प्रकार कल का जमाया हुआ दूध आज दही बन जाता है उसी प्रकार कल का पुरुषार्थ आज भाग्य बन कर प्रस्तुत होता है। आज के कर्मों का फल आज ही नहीं मिल जाता। उसका परिपाक होने में, परिणाम होने में, परिणाम निकलने में कुछ देर लगती है। यह देरी ही भाग्य कही जा सकती है। परमात्मा समदर्शी और न्यायकारी है उसे अपने सब पुत्र समान रूप से प्रिय हैं फिर वह किसी का भाग्य अच्छा किसी का बुरा लिखने का अन्याय और पक्षपात क्यों करेगा? उसने अपने हर बालक को भले या बुरे कर्म करने का पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की है पर साथ ही यह भी बता दिया है कि उनके भले या बुरे परिणाम भी अवश्य प्राप्त होंगे। इस कर्म को ही यदि भाग्य कहें तो अत्युक्ति न होगी।
हमारे जीवन में अगणित समस्यायें उलझी हुई गुत्थियों के रूप में विकराल वेष धारण किये सामने खड़ी हैं। इस कटु सत्य को मानना ही चाहिए कि उनके उत्पादक हम स्वयं हैं और यदि इस तथ्य को स्वीकार करके अपनी आदतों, विचारधाराओं, मान्यताओं और गतिविधियों को सुधारने के लिए तैयार हों तो इन उलझनों को हम स्वयं ही सुलझा भी सकते हैं। बेचारे ग्रह नक्षत्रों पर दोष थोपना बेकार है। लाखों करोड़ों मील दूर दिन रात चक्कर काटते हुए अपनी मौत के दिन पूरे करने वाले ग्रह नक्षत्र भला हमें क्या सुख सुविधा प्रदान करेंगे? उनको छोड़कर और सच्चे ग्रहों का पूजन आरम्भ करें जिनकी थोड़ी सी कृपाकोर से ही हमारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो सकता है, सारी आकांक्षायें देखते-देखते पूर्ण हो सकती हैं।
नव दुर्गाओं की नव-रात्रियों में हम हर साल पूजा करते हैं कि वे अनेक ऋद्धि-सिद्धियां प्रदान करती हैं। सुख सुविधाओं की उपलब्धि के लिए उनकी कृपा और सहायता पाने के लिए विविध साधन पूजन किये जाते हैं। जिस प्रकार देवलोक में निवासिनी नव दुर्गायें हैं उसी प्रकार भू-लोक में निवास करने वाली, हमारे अत्यन्त समीप—शरीर और मस्तिष्क में रहने वाली—नौ प्रत्यक्ष देवियां भी हैं और उनकी साधना का प्रत्यक्ष परिणाम भी मिलता है। देवलोक वासिनी देवियों के प्रसन्न होने और न होने की बात तो संदिग्ध हो सकती है पर शरीर लोक में रहने वाली इन देवियों की साधना का श्रम कभी भी व्यर्थ नहीं जा सकता। यदि थोड़ा भी प्रयत्न इनकी साधना के लिए किया जाय तो उसका भी समुचित लाभ मिल सकता है। हमारे मनःक्षेत्र में विचरण करने वाली इन नौ देवियों के नाम हैं:—
(1)आकांक्षा (2)विचारणा (3)भावना (4)श्रद्धा (5)प्रवृत्ति (6)निष्ठा (7)क्षमता (8)क्रिया (9)मर्यादा। इनका संतुलित विकास करके मनुष्य अष्ट-सिद्धियों और नव-निद्धियों का स्वामी बन जाता है। संसार के प्रत्येक प्रगतिशील मनुष्य को जान या अनजान में इसकी साधना करनी ही पड़ती है और इन्हीं के अनुग्रह से उन्हें उन्नति के उच्च शिखर पर चढ़ने का अवसर मिला है।
अपने को उत्कृष्ट बनाने का प्रयत्न किया जाय तो हमारे सम्पर्क में आने वाले दूसरे लोग भी श्रेष्ठ बन सकते हैं। आदर्श सदा कुछ ऊंचा रहता है और उसकी प्रतिकृति कुछ नीची रह जाती है। आदर्श का प्रतिष्ठापन करने वालों को सामान्य जनता के स्तर से सदा ऊंचा रहना पड़ता है। संसार को हम जितना अच्छा बनाना और देखना चाहते हैं उसकी अपेक्षा कहीं ऊंचा बनने का आदर्श उपस्थित करना पड़ेगा। उत्कृष्टता की श्रेष्ठता उत्पन्न कर सकती है। परिपक्व शरीर की माता ही स्वस्थ बच्चे का प्रसव करती है। आदर्श पिता बनें तो ही सुसन्तति का सौभाग्य प्राप्त कर सकेंगे। हम आदर्श गुरु हों तो हमें श्रेष्ठ शिष्यों की श्रद्धा का लाभ मिलेगा। यदि आदर्श पति हों तो ही पतिव्रता पत्नी की सेवा प्राप्त कर सकेंगे। शरीर की अपेक्षा छाया कुछ कुरूप ही रह जाती है। चेहरे की अपेक्षा फोटो में कुछ न्यूनता ही रहती है। हम अपने आप को जिस स्तर तक विकसित कर सके होंगे, हमारे समीपवर्ती लोग उससे प्रभावित होकर कुछ ऊपर तो उठेंगे, तो भी अपनी अपेक्षा कुछ नीचे रह जावेंगे। इसलिए हम दूसरों से जितना सज्जनता और श्रेष्ठता की आशा करते हों, उसकी तुलना में अपने को कुछ अधिक ही ऊंचा प्रमाणित करना होगा। हमें हर चन्द यह याद रखे रहना होगा कि उत्कृष्टता के बिना श्रेष्ठता उत्पन्न नहीं हो सकती।
लेखों और भाषणों का युग अब बीत गया। गाल बजाकर, लम्बी चौड़ी डींग हांक कर या बड़े-बड़े कागज काले करके संसार के सुधार की आशा करना व्यर्थ है। इन साधनों से थोड़ी मदद मिल सकती पर उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। युग-निर्माण जैसे महान् कार्य के लिए तो यह साधन सर्वथा अपर्याप्त और अपूर्ण हैं। इसका प्रधान साधन वही हो सकता है कि हम अपना मानसिक स्तर ऊंचा उठायें, चरित्रात्मक दृष्टि से अपेक्षाकृत उत्कृष्ट बनें। अपने आचरण से ही दूसरों को प्रभावशाली शिक्षा दी जा सकती है। गणित, भूगोल, इतिहास आदि की शिक्षा में कहने-सुनने की प्रक्रिया से काम चल सकता है पर व्यक्ति निर्माण के लिए तो निखरे हुए व्यक्तित्वों की ही आवश्यकता पड़ेगी। उस आवश्यकता की पूर्ति के लिए सबसे पहले हमें स्वयं ही आगे आना पड़ेगा। हमारी उत्कृष्टता के सन्दर्भ में संसार की श्रेष्ठता अपने आप बढ़ने लगेगी। हम बदलेंगे तो युग भी जरूर बदलेगा और हमारा युग-निर्माण संकल्प भी अवश्य पूर्ण होगा।
आज ऋषि, मुनि नहीं रहे जो अपने आदर्श-चरित्र द्वारा लोक शिक्षण करके जन साधारण के स्तर को ऊंचा उठाते। आज ब्राह्मण भी नहीं रहे जो अपने अगाध ज्ञान, वन्दनीय त्याग और प्रबल पुरुषार्थ से जनमानस की पतनोन्मुख पशु प्रवृत्तियों को मोड़ कर देवत्व की दिशा में पलट डालने का उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर उठाते। वृक्षों के अभाव में एरंड का पेड़ ही वृक्ष कहलाता है। इस विचारधारा से जुड़े हुए विशाल परिवार—देव परिवार के परिजन अपने छोटे-छोटे व्यक्तित्वों को ही आदर्शवाद की दिशा में अग्रसर करे तो भी कुछ न कुछ प्रयोजन सिद्ध होगा, कम से कम एक अवरुद्ध द्वार तो खुलेगा ही। यदि हम मार्ग बनाने में अपनी छोटी-छोटी हस्तियों को जला दें तो कल आने वाले युग प्रवर्तकों की मंजिल आसान हो जायेगी। युग-निर्माण सत्संकल्प का शंखनाद करते हुए छोटे-छोटे लोग आगे बढ़ चलेंगे तो प्रसुप्त पड़ी हुई युगनिर्माणी शक्तियों के जागरण की आवश्यकता अवश्य अनुभव होगी। राष्ट्र को प्रबुद्धता और चेतना को यदि चारित्रिक संस्थान के लिए हम जागृत कर सकें तो आज न सही कल, हमारा युग-निर्माण संकल्प पूर्ण होगा, पूर्ण होकर रहेगा।
युग परिवर्तन की सुनिश्चितता पर विश्वास करना हवाई महल नहीं बल्कि तथ्यों पर आधारित एक सत्य है। परिस्थितियां कितनी ही विकट हों, जब सदाशयता सम्पन्न संकल्पशील व्यक्ति एक जुट होकर कार्य करते हैं तो स्थिति बदले बिना नहीं रहती। असुरता के आतंक से मुक्ति का पौराणिक आख्यान हो या जिनके शासन में सूर्य नहीं डूबता था उनके चंगुल से मुक्त होने का स्वतन्त्र अभियान, नगण्य शक्ति के ही सही पर संकल्पशील व्यक्तियों का समुदाय उसके लिए युग शक्ति के अवतरण का माध्यम बन ही जाता है। युग-निर्माण अभियान से परिचित व्यक्ति यह भली प्रकार समझने लगे हैं। कि यह ईश्वर प्रेरित प्रक्रिया है। इस संकल्प को अपनाने वाला ईश्वरीय संकल्प का भागीदार कहला सकता है। अस्तु उसकी सफलता पर पूरी आस्था रखकर उसको जीवन में चरितार्थ करने कराने के लिए पूरी शक्ति झोंक देना सबसे बड़ी समझदारी सिद्ध होगी।
*समाप्त*