YUG SAHITYA
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शान्तिकुंज - कायाकल्प के लिए बनी एक अकादमी
मित्रो! सरकारी स्कूलों-कॉलेजों में आपने देखा होगा कि वहाँ बोर्डिंग फीस अलग देनी पड़ती है। पढ़ाई की फीस अलग देनी पड़ती है, लाइब्रेरी फीस अलग व ट्यूशन फीस अलग। लेकिन हमने यह हिम्मत की है कि कानी कौड़ी की भी फीस किसी के ऊपर लागू नहीं की जाएगी। यही विशेषता नालन्दा-तक्षशिला विश्वविद्यालय में भी थी। वही हमने भी की है, लेकिन बुलाया केवल उन्हीं को है, जो समर्थ हों, शरीर या मन से बूढ़े न हो गए हों, जिनमें क्षमता हो, जो पढ़े-लिखे हों। इस तरह के लोग आयेंगे तो ठीक है, नहीं तो अपनी नानी को, दादी को, मौसी को, पड़ोसन को लेकर के यहाँ कबाड़खाना इकट्ठा कर देंगे तो यह विश्वविद्यालय नहीं रहेगा? फिर तो यह धर्मशाला हो जाएगी साक्षात् नरक हो जाएगा। इसे नरक मत बनाइए आप। जो लायक हों वे यहाँ की ट्रेनिंग प्राप्त करने ...
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सच्चे साधकों की परीक्षा
असुरता इन दिनों अपने चरम उत्कर्ष पर हैं। दीपक की लौ जब बुझने को होती है तो अधिक तीव्र प्रकाश फेंकती और बुझ जाती है। असुरता भी जब मिटने को होती है तो जाते-जाते कुछ ना कुछ करके जाने की ठान लेती है। इन दिनों हो भी यही रहा है। असुर का अपने नए तेवर और नए हथियार के साथ आक्रमण करने पर उतारू है। यह भ्रम, अश्रद्धा, लांछन, लोकापवाद फैलाने तथा कोई आक्रमण करने या दुर्घटना उत्पन्न करने जैसे किसी भी रूप में हो सकता है। असुरता इस प्रकार के अपने षडयंत्रों को सफल बनाने में पूरी तत्परता के साथ लगी हुई है। उसका पूतना और ताड़का जैसा विकराल रूप देखने के लिए हम में से हरेक को तैयार रहना चाहिए।
समुद्र मंथन के समय सबसे पहले विष निकला था बाद में वार...
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दिया धरती का, ज्योति आकाश की
दीपावली पर दीये जलाते समय दीये के सच को समझना निहायत जरूरी है। अन्यथा दीपावली की प्रकाशपूर्ण रात्रि के बाद केवल बुझे हुए मिट्टी के दीये हाथों में रह जाएँगे। आकाशीय-अमृत ज्योति खो जाएगी। अन्धेरा फिर से सघन होकर घेर लेगा। जिन्दगी की घुटन और छटपटाहट फिर से तीव्र और घनी हो जाएगी। दीये के सच की अनुभूति को पाए बिना जीवन के अवसाद और अन्धेरे को सदा-सर्वदा के लिए दूर कर पाना कठिन ही नहीं नामुमकिन भी है।
दीये का सच दीये के स्वरूप में है। दीया भले ही मरणशील मिट्टी का हो, परन्तु ज्येाति तो अमृतमय आकाश की है। जो धरती का है, वह धरती पर ठहरा है, लेकिन ज्योति तो निरन्तर आकाश की ओर भागी जा रही है। ठीक दीये की ही भाँति मनुष्य की देह भी मिट्टी ही है, किन्तु उसकी आत्मा मिट...
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भाईचारे का बर्ताव
यदि कोई भंगी हमारे पास भंगी के रूप में आता है, तो छुतही बिमारी की तरह हम उसके स्पर्श से दूर भागते हैं। परन्तु जब उसके सिर पर एक कटोरा पानी डालकर कोई पादरी प्रार्थना के रूप में कुछ गुनगुना देता है और जब उसे पहनने को एक कोट मिल जाता है-- वह कितना ही फटा-पुराना क्यों न हो-- तब चाहे वह किसी कट्टर से कट्टर हिन्दू के कमरे के भीतर पहुँच जाय, उसके लिए कहीं रोक-टोक नहीं, ऐसा कोई नहीं, जो उससे सप्रेम हाथ मिलाकर बैठने के लिए उसे कुर्सी न दे! इससे अधिक विड्म्बना की बात क्या हो सकता है?
आइए, देखिए तो सही, दक्षिण भारत में पादरी लोग क्या गज़ब कर रहें हैं। ये लोग नीच जाति के लोगों को लाखों की संख्या मे ईसाई बना रहे हैं। ...वहाँ लगभग चौथाई जनसंख्या ईसाई हो गयी है! मैं उन बेचारों को क्य...
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माँसाहार या शवाहार
मित्रों !! जिसे हम मांस कहते हैं वह वास्तव में क्या है?आत्मा के निकल जाने के बाद पांच तत्व का बना आवरण अर्थात शरीर निर्जीव होकर रह जाता है।यह निर्जीव,मृत अथवा निष्प्राण शरीर ही लाश या शव कहलाता है। यह शव आदमी का भी हो सकता है और पशु का भी।इस शव को बहुत अशुभ माना जाता है।
इसकी भूत मिट्टी आदि निकृष्ट चीजों से तुलना की जाती है।
यदि कोई इसे छू लेता है तो उसे स्नान करना पड़ता है। जिस घर में यह रखा रहता है उस घर को अशुद्ध माना जाता है। और वहां खाना बनना तो दूर कोई पानी भी नहीं पीना चाहता। इसको देखकर कई लोग तो डर भी जाते हैं क्योंकि आत्मा के निकल जाने पर यह अस्त-व्यस्त और डरावना हो जाता है।
मांसाहार करने वाले लोग इसी शव को या लाश को खाते हैं...
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सेवाव्रती साधुओं! आओ!!
हिन्दू धर्म और हिन्दू समाज की सेवा के व्रती लाखों साधु संन्यासी, भारतवर्ष के ग्रामों, कस्बों और नगरों में स्वतन्त्रता से विचरते हैं। हिन्दू जाति के इस घोर संकट के समय उनका क्या कर्तव्य है? इस विषय पर कुछ लिखना अनुचित न होगा। क्योंकि जो प्रभाव हिन्दू जनता पर इन विरक्तों का पड़ता है, वह और किसी का नहीं पड़ सकता। अविद्या अन्धकार में सोई हुई हिन्दू जनता को यह महात्मा लोग बहुत शीघ्र जगा सकते हैं। उनका सिंहनाद हिन्दू सन्तान में नई जान फूँक सकता है। छोटे से छोटे कस्बे में सन्त महात्माओं के मठ बने हुए है, जहाँ से हिन्दू संगठन का काम बड़ी आसानी से हो सकता है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि साधु सन्त हिन्दू संगठन के उद्देश्य को भली प्रकार जाने।
हिन्दू जनता आज कैसी दीनावस्था मे...
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पाँच अमानतें, जो ईश्वरीय प्रयोजनों में ही लगाई जाएँ
गीता में भगवान ने विभूति योग का वर्णन करते हुए बताया है कि जहाँ कहीं विशेषताएँ परिलक्षित होती हैं, वहाँ मेरा विशेष अंश देखा, समझा जाना चाहिए। सर्व साधारण को जो विशेषताएँ, विभूतियाँ नहीं मिली हैं और वे यदि कुछ ही लोगों को मिलती हैं, तो यही माना जायेगा कि यह विशुद्ध अमानत है और उन्हें अपने परम प्रिय उद्यान को सुरम्य, सुविकसित बनाने के लिए ही दिया है। यदि विशेष अनुदान को अपने पूर्व कृत पुण्यों के कारण उपलब्ध प्रारब्ध माना जाए, तो भी उसका प्रयोजन यही है कि हर जन्म में उस प्रक्रिया को अधिकाधिक प्रखर किया जाय और अधिक पुण्य करते हुए, अधिक उत्तम प्रतिफल प्राप्त करते हुए उस प्रगति चक्र को तीव्र किया जाय और जीवन लक्ष्य तक जल्दी से जल्दी पहुँचा जाए।
यह सन्देश हर विभूतिवान व्यक...
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धर्म का तत्त्व
धर्म के विस्तार एवं विविधता की खोज अनावश्यक है। आवश्यक है धर्म के तत्त्व की खोज, इसकी अनेकता में एकता की खोज, इसके परम सार की खोज। यह खोज जितनी अनिवार्य एवं पवित्र है, इसकी विधि उतनी ही रहस्यमय और आश्चर्यपूर्ण है। इसे न समझने वाले जीवन की भँवरों की भटकन में भटकते रहते हैं। धर्म को खोजते हुए स्वयं को खो देते हैं। क्योंकि वे धर्म के तत्त्व को नहीं उसके विस्तार एवं विविधता को खोजते हैं।
धर्म के तत्त्व की खोज तो स्वयं की खोज में पूरी होती है। स्वयं का सत्य मिलने पर धर्म अपने-आप ही मिल जाता है। यह तत्त्व शास्त्रों में नहीं है। शास्त्रों में तो जो है, वह केवल संकेत है। धर्म-ग्रन्थों में जो लिखा है, वह तो बस चन्द्रमा की ओर इशारा करती हुई अंगुली भर है। जो इस अंगुली ...
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प्रेम का अर्थ
“प्रेम करने का अर्थ है विश्व के सब जीवों और वस्तुओं से आत्मीयता, बन्धुत्व और एकता का अनुभव करना, और इतना गहरा अनुभव करना कि अपने आस-पास के सब लोगों पर उसका प्रभाव पड़े ओर उन्हें अधिक सुरक्षा और एकता की प्रतीति हो। प्रेम से सब के कल्याण और उन्नति की भावना उत्पन्न होती है। प्रेम से निर्भीकता, स्पष्टता, स्वतंत्रता और सत्यता बढ़ती है। प्रत्येक माता जानती है कि प्रेम देश और काल से सीमित नहीं होता। प्रेम से हमें अपनी अनन्तता और असीमता का अनुभव होने में सहायता मिलती है। प्रेम द्वारा ऐसी भावना बनाने से घृणायुक्त व्यक्ति में भी अच्छाई और प्रेम का जीवन भरा जा सकता है। प्रेम में महान उत्पादक शक्ति है। इसका परिणाम प्रारम्भ में चाहे धीरे-धीरे हो किन्तु स्थायी होता है। यह प्रभाव जिस व्यक्ति से प्...
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इस संसार के यात्री
“ इस संसार के निवासी तूफान में फँसे हुए जहाज के उन यात्रियों के समान हैं, जिनके पास भोजन की सामग्री बहुत कम रह गई है। ईश्वर या प्रकृति ने हमको ऐसी स्थिति में डाल दिया है कि आपत्ति से बचने के लिए कम से कम भोजन करना और निरन्तर उद्योग करते रहना हमारे लिए अनिवार्य हो गया है। यदि हम में से कोई व्यक्ति ऐसा न करें और दूसरे के उस श्रम का उपभोग कर लें, जो सामान्य हित के लिए आवश्यक नहीं हैं, तो यह हमारे तथा हमारे महकारियों दोनों के लिए नाशकारी है। अपने आपको स्वाभाविक और न्यायोचित श्रम से बचाकर और उस का भार दूसरों के कन्धों पर लाद कर भी हम अपने को क्यों चोर और धोखेबाज नहीं समझते?”
टालस्टाय