YUG SAHITYA
अनेकों सत्प्रवृत्तियों का उभार नवरात्रि आयोजनों मे
नवरात्रि आयोजनों के साथ कई प्रकार की सत्प्रवृत्तियों को उभारने को अवसर मिलता है। इस दिशा में समुचित सतर्कता बरती जाय तैयारी की जाय तो आशाजनक सत्परिणाम सामने होंगे और यह साधना पर्व सच्चे अर्थों में सृजन पर्व बनकर रहेगा।
अपने क्षेत्र में रूचि कहाँ- कहाँ है? किन- किन में इस स्तर की सुसंस्कारिता के बीजांकुर मौजूद है। उसकी तलाश इस बहाने सहज ही हो सकती है। उपासना में सम्मिलित करने के लिए जन सम्पर्क अभियान चलाया जाय और घर- घर जाकर जन- जन को इस पुण्य प्रक्रिया का महत्व समझाया जाय तो जहां भी आध्यात्मिक रूचि का अस्तित्व मौजूद होगा वहां उसे खोजा और उभारा जा सकेगा। यह अपने आप में एक बहुत बड़ा काम है। दूब की जड़ें कड़ी धूप पड़ने पर सूख जाती हैं। पर वर्षा पड़ते ही उनमें फिर सजीवता उत्पन्न हो जाती हैं और देखते-...
बहुमूल्य जीवन
मित्रो ! अभागों की दुनियाँ अलग है और सौभाग्यवानों की अलग। अभागे जिस-तिस प्रकार लालच को पोषते, अविवेकी प्रजनन में निरत रहकर कमर तोडऩे वाला बोझ लादते, व्यामोह में तथाकथित अपनों को कुसंस्कारी बनाते, अपव्ययी, असंयमी रहकर दुव्र्यसनों के शिकार बनते, अहंता के परिपोषण में समय बिताते हैं। रोते-कलपते, खीजते-खिजाते, डरते-डराते, छेड़ते-पीटते लोगों के ठट्ठ के ठट्ठ हर गली चौराहों पर खड़े देखे जा सकते हैं। इन्हीं दुर्दशाग्रस्तों की भीड़ में जा घुसना समझदारी कहाँ है?
भगवान किसी को उच्च शिक्षा से वंचित भले ही रखे पर इतनी समझ तो दे कि हित-अनहित में अंतर करना आए। भले ही शूर-वीर योद्धा बनने का श्रेय किसी को न मिले पर इतनी सूझ-बूझ तो रहे कि मनुष्य जीवन बहुमूल्य है और उसे सार्थक बनाने के लिए भीड़ के साथ न चलन...
आदर्शवादिता का पुट घोले रहने की आदत
हमें अपने आपको एक प्रकाश यंत्र के रूप में, प्रचार तंत्र के रूप में विकसित करना चाहिए। भले ही लेख लिखना, भाषण देना न आये पर सामान्य वार्तालाप में आदर्शवादिता का पुट घोले रहने की आदत डाले रह सकते हैं और इस प्रकार अपने सम्पर्क क्षेत्र में नवनिर्माण विचारधारा के लिए गहरा स्थान बना सकने में सफल हो सकते हैं इसके लिए न अलग से समय निकालने की आवश्यकता है, न अतिरिक्त कार्यक्रम बनाने की। साधारण दैनिक वार्तालाप में आदर्शवादी परामर्श एवं प्रेरणा देते रहने की अपनी आदत बनानी पड़ती है और यह परमार्थ प्रयोजन सहज ही, अनायास ही स्वसंचालित रीति से अपना काम करता है।
यहाँ एक बात ध्यान रखने की है कि किसी व्यक्ति को उसकी गलती सुनना मंजूर नहीं। गलती बताने वाले को अपना अपमानकर्ता समझता है और अपने पूर्वाग्रह को प्र...
संकल्पवान
गुरजिएफ ने कहा कि सामान्य व्यक्ति वादा नहीं कर सकता, संकल्प नहीं कर सकता, क्योंकि यह सब तो साधकों के गुण हैं, शिष्यत्व के लक्षण हैं।
गुरजिएफ के पास लोग आते और कहते— अब मैं व्रत लूँगा। उसके शिष्य औस्पेन्सकी ने लिखा है कि वह जोर से हँसता और कहता 'इससे पहले कि तुम कोई प्रतिज्ञा लो, दो बार फिर सोच लो। क्या तुम्हें पूरा आश्वासन है कि जिसने वादा किया है, वह अगले क्षण भी बना रहेगा? तुम कल से सुबह तीन बजे उठने का निर्णय कर लेते हो और तीन बजे तुम्हारे भीतर कोई कहता है, झंझट मत लो। बाहर इतनी सर्दी पड़ रही है। और ऐसी जल्दी भी क्या है? मैं यह कल भी कर सकता हूँ और तुम फिर सो जाते हो। दूसरे दिन सारे पछतावे के बावजूद यही स्थिति फिर से दुहराई जाती है। क्योंकि जिसने प्रतिज्ञा की, वह सुबह तीन बजे वहाँ होता ...
मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ
यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि पारमार्थिक कार्यों में निरन्तर प्रेरणा देने वाली आत्मिक स्थिति जिनकी बन गई होगी, वे ही युग-निर्माण जैसे महान कार्य के लिए देर तक धैर्यपूर्वक कुछ कर सकने वाले होंगे। ऐसे ही लोगों के द्वारा ठोस कार्यों की आशा की जा सकती है । गायत्री आन्दोलन में केवल भाषण सुनकर या यज्ञ- प्रदर्शन देखकर जो लोग शामिल हुए थे, वे देर तक अपनी माला साधे न रह सके, पर जिन लोगों ने गायत्री साहित्य पढक़र, विचार मंथन के बाद इस मार्ग पर कदम बढ़ाया था, वे पूर्ण निष्ठा और श्रद्धा के साथ लक्ष्य की ओर तेजी से बढ़ते चले जा रहे हैं। युग-निर्माण कार्य के लिए हम उत्तेजनात्मक वातावरण में अपरिपक्व लोगों को साथ लेकर बालू के महल जैसा कच्चा आधार खड़ा नहीं करना चाहते।
इसलिए इस संघ में उन्हीं लोगों पर आशा भरी न...
सर्वभूत हितरेता:
आधार उसे कहते हैं, जिसके सहारे कुछ स्थिर रह सके, कुछ टिक सके। हम चारों ओर जो गगनचुम्बी इमारत देखते हैं, उनके आधार पर नींव के पत्थर होते हैं।
बिना आधार के सनातन धर्म भी नहीं है। सनातन धर्म का अपना एक मजबूत आधार है, जिसके ऊपर उसकी भित्ति हजारों वर्षों से मजबूती से खड़ी हुई है
वह आधार क्या है ? वह आधार है - 'सर्वभूत हितरेता: इसे दूसरे शब्दों में ऎसा भी कह सकते हैं कि सृष्टि के सम्पूर्ण जड़ - चेतन में अपनी आत्मा का दर्शन करना। अपने समान ही सबको मानना।
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
धर्म तत्त्व का धर्षण और मर्म वांग्मय 53 पृष्ठ 1.13
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मानव-जीवन को प्रभावित करने वाले दो आधार
धर्मतंत्र और राजतंत्र, दो ही मानव-जीवन को प्रभावित करने वाले आधार हैं। एक उमंग पैदा करता है तो दूसरा आतंक प्रस्तुत करता है। एक जन-साधारण के भौतिक जीवन को प्रभावित करता है और दूसरा अन्त:करण के मर्मस्थल को स्पर्श करके दिशा और दृष्टि का निर्धारण करता है। दोनों की शक्ति असामान्य है। दोनों का प्रभाव अपने-अपने क्षेत्र में अद्भुत है।
दोनों की तुलना यहाँ इस दृष्टि से नहीं की जा रही कि इसमें कौन कमजोर है; कौन बलवान; कौन महत्त्वपूर्ण है; कौन निरर्थक। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों का क्षेत्र बॅंटा हुआ होते हुए भी वस्तुत: एक के द्वारा दूसरे के सफल प्रयोजन होने में सहायता मिलती है।
दोनों एक दूसरे की विपरीत दिशा में चलें तो जनसाधारण को हानि ही उठानी पड़ती है। राज-सत्ता अपने हाथ में नहीं, वह दूसरों...
व्यक्ति नहीं, व्यक्तित्व
व्यक्ति की शरीर रचना तो माता-पिता के सम्भोग से अन्य प्राणियों की ही भाँति हो जाती है, किन्तु व्यक्तित्व की रचना बड़ी सावधानी और सूझ-बूझ के साथ करनी होती है।
दार्शनिकों से लेकर वैज्ञानिक तक ने मनुष्य जीवन की महत्ता के जो गीत गाए हैं उनका केन्द्र व्यक्ति नहीं व्यक्तित्व ही रहा है।
यह तो हो सकता है कि किसी को धन सम्पदा विरासत में मिली हो, पर चरित्र आज तक किसी को भी विरासत में नहीं मिला।
यह निरंतर आत्म-सुधार की प्रक्रिया से लोहा लेने से ही संभव हुआ है।
कोइ सामान्य मनुष्य जब असामान्य बन जाता है, उसके बाह्य आकार, बनावट में उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं होता, जो वस्तु बदलती है वह व्यक्तित्व ही है।
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
जीवन देवता की साधना-आराधना वांग्मय 2 पृष्ठ 2.2
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मस्तिष्क वृक्ष की जड़ों के समान
गीता में मनुष्य की तुलना एक ऐसे पीपल के वृक्ष के साथ की है जिसकी जड़ें ऊपर और शाखा, पत्ते नीचे हैं। मस्तिष्क ही जड़ है और शरीर उसका वृक्ष। वृक्ष का ऊपर वाला भाग दिखाई पड़ता है, जड़ें नीचे जमीन में दबी होने से दिखाई नहीं पड़तीं, पर वस्तुत: जड़ों की प्रतिक्रिया, छाया-प्रतिध्वनि की परिणति ही वृक्ष का दृश्यमान कलेवर बनकर सामने आती है। जड़ों को जब पानी नहीं मिलता और वे सूखने लगती हैं, तो पेड़ का दृश्यमान ढाँचा मुरझाने, कुम्हलाने, सूखने और नष्ट होने लगता है। जड़ें गहरी घुसती जाती हैं, खाद-पानी पाती हैं तो पेड़ की हरियाली और अभिवृद्धि देखते ही बनती है। मनुष्य की स्थिति बिलकुल यही है। विचारणाएँ उसकी जड़ें हैं।
चिन्तन का स्तर जैसा होता है, आस्थाएँ और आकांक्षाएँ जिस दिशा में चलती हैं, बाह्य परिस्थित...
अब स्वाध्याय ही एकमात्र विकल्प
मनुष्य का मन कोरे कागज या फोटोग्राफी की प्लेट की तरह है जो परिस्थितियॉं, घटनाएँ एवं विचारणाएँ सामने आती रहती हैं उन्हीं का प्रभाव अंकित होता चला जाता है और मनोभूमि वैसी ही बन जाती है। व्यक्ति स्वभावत: न तो बुद्धिमान है और न मूर्ख, न भला है, न बुरा। वस्तुत: वह बहुत ही संवेदनशील प्राणी है। समीपवर्ती प्रभाव को ग्रहण करता है और जैसा कुछ वातावरण मस्तिष्क के सामने छाया रहता है उसी ढाँचे में ढलने लगता है। उसकी यह विशेषता परिस्थितियों की चपेट में आकर कभी अध:पतन का कारण बनती है। कभी उत्थान का। व्यक्तित्व की उत्कृष्टता के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता उस विचारणा की है जो आदर्शवादिता से ओत-प्रोत होने के साथ-साथ हमारी रुचि और श्रद्धा के साथ जुड़ जाये। यह प्रयोजन दो प्रकार से पूरा हो सकता है। एक तो आदर्शवादी उच...