ईश्वरीय अनुग्रह के अधिकारी
परमार्थ प्रवृत्तियों का शोषण करने वाली इस विडम्बना से हम में से हर एक को बाहर निकल आना चाहिए कि “ईश्वर एक व्यक्ति है और वह कुछ पदार्थ अथवा प्रशंसा का भूखा है, उसे रिश्वत या खुशामद का प्रलोभन देकर उल्लू बनाया जा सकता है और मनोकामना तथा स्वर्ग मुक्ति की आकाँक्षायें पूरी करे के लिये लुभाया जा सकता है। ‘इस अज्ञान में भटकता हुआ जन-समाज अपनी बहुमूल्य शक्तियों को निरर्थक विडम्बनाओं में बर्बाद करता रहता है। वस्तुतः ईश्वर एक शक्ति है जो अन्तः चेतना के रूप में सद्गुणों और सत्प्रवृत्तियों के रूप में हमारे अन्तरंग में विकसित होती हैं। ईश्वर-भक्ति का रूप पूजा-पत्री की टण्ट-घण्ट नहीं विश्व-मानव के भावनात्मक दृष्टि से समुन्नत बनाने का प्रबल पुरुषार्थ ही हो सकता है। देवताओं की प्रतिमायें तो ध्यान के मनोवैज्ञानिक व्यायाम की आवश्यकता पूर्ति करने की धारणा मात्र है। वस्तुतः जैसे देवी-देवता मूर्तियों और चित्रों में अंकित किये गये है उनका अस्तित्व कहीं भी नहीं है।
उच्च भावनाओं का अलंकारिक रूप ही ईश्वर के प्रतीक रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है। ऋतम्भरा प्रज्ञा के ही सरस्वती कहते हैं। मन को सधाने के लिए ही उसकी अलंकारिक छवि विनिर्मित की गई है। वस्तुतः अन्तरंग में समुत्पन्न सद्ज्ञान ही सरस्वती है। इस तथ्य को समझे बिना अध्यात्म भी कोई जाल-जंजाल ही सिद्ध होगा और मनुष्य को आत्म प्रवंचना में भटका कर उसकी उन शक्तियों में बर्बाद कर देगा जो लोक-मंगल की दिशा में प्रयुक्त होने पर व्यक्ति और समाज का भारी हित साधन कर सकती थी। हमारा परामर्श है कि परिजन कल्पित ईश्वर की खुशामद में बहुत सिर फोड़े। अपने अन्तरंग को और विश्व-मानव को समुन्नत करने के प्रयत्नोँ में जुट जायें और उस त्याग बलिदान की वास्तविक ईश्वर भक्ति तथा तपश्चर्या समझें। इस प्रक्रिया को अपना कर वे ईश्वरीय अनुग्रह जल्दी प्राप्त कर सकेंगे।
पूजा उपासना का मूल प्रयोजन अन्तरंग पर चढ़े हुए मल आवरण विक्षेपों पर साबुन लगाकर अपने ज्ञान और कर्म को अधिकाधिक परिष्कृत करना भर है। ईश्वर को न किसी की खुशामद पसन्द है न धूप दीप बिना उसका कोई काम रुका पड़ है। व्यक्तित्व को परिष्कृत और उदार बनाकर ही हम ईश्वरीय अनुग्रह के अधिकारी बन सकते हैं। इस तथ्य को हमारा हर परिजन हृदयंगम करले तो वह मन्त्र-तन्त्र में उलझा रहने की अपेक्षा उस दिशा में बहुत दूर तक चल सकता है जिससे कि विश्व कल्याण और ईश्वरीय प्रसन्नता के दोनों आधार अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति, जून १९७१, पृष्ठ ५८
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